अर्चना तिवारी
जातीय जड़ता में जकड़ती जा रही भारतीय राजनीति के रंग से समाज का रंग भी
बदलने लगा है। उतार प्रदेश में आसन्न चुनावो की गर्मी के साथ ही जातीय
आंकड़ो के जादूगरों ने अपने अपने ढंग से राजनीतिक डालो के लिए आंकड़े भी
जुटाने शुरू कर दिए है। सभी राजनीतिक डालो की ओर से जातीय आधार पर
ताकतवर नेताओ को अपने खेमे की ओर लाने की कवायद भी चल रही है। हर दल को
जातीय वोट की चिंता है लेकिन जाति की इस चुनावी वैतरणी में कोई यह जानने
की कोशिश नहीं कर रहा कि हर जाती में महिलाये भी होती है। कोई राजनीतिक
दाल यह भी समझने का प्रयास नहीं कर रहा कि उसके जाति की चौसर पर सम्बंधित
समाज की , जाती की स्त्री की दशा क्या हो चुकी है या क्या होने वाली है।
भारत में यह सामान्य प्रचलन मान लिया गया है कि पुरुष की जाती के आधार पर
उस जाती की समस्त महिलाये भी वोट करती है। ख़ास तौर पर आरक्षण के बाद ,
यानी मंडल लागू होने के बाद से जिस तरह से लोक कलयाणकारी सरकार बनाने के
लिए होने वाले चुनाव में जाती की लहार चलाई जा रही है उसके घातक असर को
अभी तक हमारे जान नायक समझ ही नहीं पा रहे है। उनकी इस जातीय समझ वाली
भूमिका के चलते समाज की क्या दशा हो गयी है , इस तरफ वह नज़र ही नहीं
डालना चाहते। वोट बैंक सुरक्षित करने के चक्कर में उन्होंने समूची
स्त्री जाति को ही असुरक्षित कर दिया है। हालात यह हो चुकी है की जो
समाज पहले हर महिला को सुरक्षित रखने की कोशिश करता था , आज वह अब अपनी
जाती के हिसाब से ही महिलाओ के साथ बर्ताव करता है।
दर असल जाती की राजनीति ने कई स्तर पर असर डाला है। इसने समाज की एका को
तो प्रभावित ही किया है , साथ ही हर जाती को दूसरी जाती के विपक्ष के रूप
में भी अस्थापित कर दिया है। वास्तव में यह त्रासद और संकटपूर्ण दशा है।
सामाजिक संस्थानों के अध्ययन भी इसी तरफ इशारा करते है। दरअसल भारतीय
राजनीति की विडम्बना है है की केवल कुछ जातियो को वोट बैंक बना कर सत्ता
के सिंहासन पर काबिज होने वाले राजनीतिक
दल सत्ता के साथ उसी अंदाज़ में खेलते भी है। वोट के आधार पर कुछ जातियो
की महिलाये उनके लिए विशेष बन जाती है और कुछ जाती की महिलाओ का कोई
पूछनहार तक नहीं होता। स्कूल , कॉलेज , हाट , बाज़ार , दूकान , ,खेत
खलिहान से लगायत विधान सभाओ और संसद के गलियारों तक में महिलाओ के साथ
होने वाला बर्ताव बहुत सुखद नहीं दीखता। पता नहीं क्यों आजकल सभी
राजनीतिक लोगो में सामाजिक चेतना की जगह जातीय चेतना ज्यादा प्रबल दिखने
लगी है। अब नेताओ को उनके सामाजिक योगदान के आधार पर नहीं बल्कि उनकी
जाती के आधार पर पार्टियों में महत्त्व दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए
दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दम्भ भरने वाली भाजपा को ही लिया जा सकता
है। उत्तर प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष बनाये गए केशव प्रसाद मौर्या
खुद स्वीकार करते है की पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने से पहले
उन्होंने कभी भी अपने नाम के आगे जाती सूचक टाइटल नहीं लगाया था। वह
अपना नाम केवल केशव प्रसाद लिखा करते थे अब उनको केशव प्रसाद मौर्या
लिखना पद रहा है। ऐसा सिर्फ इसलिए की समाज के सभी पिछड़े वर्ग उर ख़ास
तौर पर मौर्या जाती तक यह सन्देश दिया जा सके की उनके जाती के आदमी को
पार्टी ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया है।
यही हाल सभी का है। इसमे कोई भी काम नहीं है। पार्टी यह सोचने को ही
तैयार नहीं है की का कितना घातक असर समाज पर।, ख़ास तौर से महिलाओ पर रहा
है। एक और उदाहरण यहाँ देना उचित लगता है। अभी हाल ही में डी शहर की
ईदय विदारक बलात्कार की घटना हुई। मुझे याद नहीं है की ऐसी लोमहर्षक कोई
घटाना इससे पहले हुई हो। यह घटना इतनी भयावह थी जिसके सामने दिल्ली का
बहुचर्चित निर्भया काण्ड भी था। सरे राह सड़क से एक लड़की और एक महिला को
गुंडे बन्दूक की नोक पर गाडी से खींच लिए। लड़की के पिता और हिला के पति
के सामने ही वहशीपने का नंगा नाच खेला गया। बेटी और पत्नी उनकी आँखों के
सामने ही चिल्लाती रही। क्रूरता , वहशीपन और मानवीयता की साड़ी सीमाओ से
भी ज्यादा उन गुंडों ने समाज और मर्यादा की हर सीमा को तोड़ा यकीन इतनी
वीभत्स और घिनौनी घटना पर भी सामाजिक चेतना के अलामबरदारो के खुद के भीतर
कोई चेतना जागते हमने नहीं देखा। बुलंदशहर इ वहशीपन का शिकार यह परिवार
ऐसी जाती का नहीं था को अपना वोटबैंक मिलता। दो दिन की सुर्खियों के
बाद यह रा प्रकरण शांत हो गया। एक दलित रोहित बेमुला पर नसद थाप करने
वाली उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला मायावती जी के लिए बुलंदशहर की
यह घटना इसलिए आयने नहीं रखती क्योकि पीड़ित महिलाये सवर्ण जाती की थी
लेकिन दरिंदे दलित थे।
वास्तव में भारत की राजनीति आज ऐसे मुकाम पर कड़ी दिख रही है जहां वाल
सत्ता ही सर्वोपरि है। किन हमारे नायक यह भूल जाते है की समाज का नाम
जाती नहीं आई। थोड़े समय के लिए जातीय चेतना उभार कर आप सत्ता पा कटे है
लेकिन सत्ता तो आपको समाज में ही चलानी है। नेता यह भूल जाते है की
जिस भी जाती की राजनीति वे करना चाहते है उन सभी जातियो में आधी भागीदारी
महिलाओ की भी है। जातियो को आरक्षण के नाम पर बाँट चुके नेताओ को यह भी
सोचना होगा की दशको से लंबित महिला आरक्षण बिल को उन्होंने संसद में पास
ई होने दिया है। महिलाओ के लिए तो जाती से अधिक उस महिला आरक्षण की
जरूरत है। राजनीति के ये खिलाड़ी यह भूल जाते है की अब भारत की बेतिया भी
समझदार हो चुकी है और उन्हें अपने ओ की चिंता होने लगी है। कल्पना कीजिये
की जातीय राजनीति के विरुद्ध यदि कोई एक महिला केवल महिला अधिकारों के
लिए राजनीति शुरू करे और पुरुषो के विरुद्ध महिलाओ को संगठित कर आगे
चले तब जो भयावह दृश्य बनेगा उससे कैसे पर पा सकेंगे। क्या अब हमारी
राजनीति हमें मैला पुरुष संघर्ष के लिए प्रेरित करेगी।
एक नज़र कुछ ख़ास तथ्यों पर :
इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन (आईपीयू) की रिपोर्ट बताती है कि भारत की
संसद या विधानसभा में महिला जनप्रतिनिधियों की काफी कम उपस्थिति महिलाओं
के प्रति भेदभावपूर्ण राजनीतिक मानसिकता का प्रतीक है। इस साल की आईपीयू
की रिपोर्ट में इस मोर्चे पर भारत को 103वें नंबर पर रखा गया है। इस सूची
में पहले दस नंबर पर रवांडा, बोलिविया, अंडोरा, क्यूबा, सेशेल्स, स्वीडन,
सेनेगल, फिनलैड, इक्वेडोर व दक्षिण अफ्रीका जैसे देश हैं। पड़ोसी देशों
में सिर्फ श्रीलंका से ही बेहतर स्थिति में भारत है। पिछले साल आईपीयू ने
189 देशों की संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर जो
वरीयता सूची बनाई थी, उसमें भारत का स्थान एक सौ ग्यारहवां था। तब भी और
आज भी सीरिया, नाइजर, बांग्लादेश, नेपाल व पाकिस्तान के अलावा चीन व
सिएरा लियोन जैसे देश इस मामले में भारत से आगे हैं। आईपीयू की रिपोर्ट
के हिसाब से संसद में हर दस सदस्यों में सिर्फ एक महिला है। समानुपातिक
प्रतिनिधित्व की दहलीजपर भले ही महिलाएं नहीं पहुंच पाई हैं, लेकिन पहले
की तुलना में उनकी उपस्थिति का दायरा थोड़ा बहुत जरूर बढ़ा है। इस समय
543 सदस्यों वाली लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 65 है। राज्यसभा
में 243 सांसदों में 31 महिलाएं है। यह जरूर है कि 1952 के पहले आम चुनाव
से लेकर 2014 के चुनाव तक महिला सांसदों की संख्या बेहद धीमी रफ्तार से
बढ़ी है। 1952 में बीस महिला चुनाव जीत पाईं। यह संख्या लोकसभा के कुल
सदस्यों का 4.1 फीसद थी।
बाद के चुनाव में महिलाओं के मैदान में उतरने की संख्या तो बढ़ती गई
लेकिन उस अनुपात में वे लोकसभा तक नहीं पहुंच सकीं। 1957 में 45 महिलाओं
ने चुनाव लड़ा। यह आंकड़ा कुल उम्मीदवारों का 2.9 फीसद ही था। 22 महिलाओं
ने चुनाव जीत कर सदन में अपनी उपस्थिति 4.5 फीसद दर्ज कराई। तीसरे आम
चुनाव में 1962 में 31 महिलाएं संसद में पहुंची जो कुल सांसदों का 6.3
फीसद थीं। तब 66 महिलाएं चुनाव मैदान में उतरी थीं यानी कुल उम्मीदवारों
का महज 3.2 फीसद। 1967 में तो यह फीसद 2.8 रह गया लेकिन 67 महिलाओं ने
चुनाव लड़ा। यह बात अलग है कि 29 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका
प्रतिनिधित्व घट कर 5.6 फीसद रह गया।
यह 1971 में गिर कर 4.1 फीसद रह गया। कुल उम्मीदवारों की तीन फीसद यानी
86 महिलाओं ने चुनाव लड़ा लेकिन जीत सकीं 21 ही। 1977 में तो स्थिति और
गड़बड़ा गई। महिलाओं की उम्मीदवारी सिकुड़ कर 2.9 फीसद पर आ गई। 70
महिलाओं में से 19 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका हिस्सा सबसे कम 3.5
फीसद ही रहा। 1980 का चुनाव इस मायने में अहम रहा कि पहली बार महिला
उम्मीदवारों की संख्या ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया। उस साल 143 महिलाओं
ने चुनाव लड़ा। हालांकि यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 3.1 फीसद ही था। 28
महिलाएं (कुल सदस्यों का 5.2 फीसद) ही चुनाव जीत पाई। उसके बाद से महिला
उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। हालांकि कुल उम्मीदवारी में उनका
फीसद कम ही बढ़ा।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में 162
महिलाएं यानी कुल उम्मीदवारों में तीन फीसद मैदान में उतरीं। 42 को सफलता
मिली जिसके बल पर लोकसभा में उन्होंने अपनी हिस्सेदारी 8.2 फीसद कर ली।
1989 में कुल उम्मीदवारों में 3.2 फीसद यानी 198 महिला उम्मीदवार थीं।
लेकिन जीत पाई केवल 29 ही और पिछली बार का लोकसभा में हिस्सेदारी का फीसद
8.2 से घट कर 5.5 पर आ गया। 1991 में कुल 326 महिलाएं मैदान में थीं।
उम्मीदवारी में 3.8 फीसद का यह हिस्सा 37 सीटों पर जीत के साथ लोकसभा में
महिलाओं की 7.1 फीसद उपस्थिति दर्ज करा गया। 1996 में 40 महिलाएं लोकसभा
पहुंची। यह कुल सदस्य संख्या का 7.4 फीसद था। लेकिन 599 महिलाओं ने तब
चुनाव लड़ा था। और कुल उम्मीदवारों में उनका फीसद पहली बार चार को पार कर
4.3 हुआ था। 1998 में महिला उम्मीदवारों की संख्या घटकर 274 रह गई। यह
कुल उम्मीदवारों का 5.8 फीसद था। लेकिन उस चुनाव में 43 महिलाओं ने जीत
दर्ज कर लोकसभा में अपनी हिस्सेदारी 7.9 फीसद कर ली। यह सिलसिला 1999 में
भी जारी रहा। तब चुनाव हालांकि 284 महिलाओं ने ही लड़ा लेकिन कुल
उम्मीदवारी में अपना हिस्सा 6.1 फीसद कर लिया। तीन साल में तीन चुनाव
होने की वजह से कुल उम्मीदवारों की संख्या वैसे भी उस साल कम रही थी।
बहरहाल 1999 में 49 महिलाओं ने चुनाव जीता और अपना हिस्सा नौ फीसद कर
लिया। 2004 में 355 महिलाएं (कुल उम्मीदवारों का 6.5 फीसद) चुनाव लड़ी और
45 (कुल सांसदों का 8.3 फीसद) जीत गईं। 2009 में हुए आम चुनाव में 556
महिलाएं मैदान में उतरीं। यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 6.9 फीसद थी। खास
बात यह है कि पहली बार महिलाओं ने पचास का आंकड़ा पार कर 59 सीटें जीतीं
और पहली बार लोकसभा में उनकी उपस्थिति दहाई तक पहुंच कर 10.9 फीसद हो गई।
2014 में लोकसभा में महिलाओँ का फीसद बारह को पार कर गया। इस तरह 62 साल
के सफर में महिला सांसदों की संख्या बीस से 65 हो पाई है।
सिर्फ लोकसभा की ही यह तस्वीर नहीं है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में
तो ऐसे मौके भी आए हैं जब एक भी महिला चुनाव नहीं जीत पाई। केरल,
उत्तराखंड, नगालैंड व मेघालय जैसे राज्य जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में
अग्रणी माने जाते हैं वहां की विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे
कम है। नगालैंड ने तो इस मामले में मिसाल कायम की है। राज्य की साठ
सदस्यों की विधानसभा में पिछले पचास साल में एक भी महिला नहीं पहुंची है।
एक चुनाव में तो करीब दो सौ पुरुष उम्मीदवारों के बीच केवल चार महिलाएं
थीं। यह हालत तब है जब राज्य में हमेशा पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने
ज्यादा मतदान किया है।
अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर व मेघालय के किसी भी विधानसभा चुनाव में महिला
उम्मीदवारों की संख्या कभी भी 25 तक नहीं पहुंच पाई है। सफलता के मामले
में रिकार्ड बना 2013 में हुए मेघालय विधानसभा चुनाव में जहां चार
महिलाएं चुनाव जीत कर विधायक बनीं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की
विधानसभा में सिर्फ एक बार महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्रमशः नौ व आठ फीसद
रहा। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या केरल में ज्यादा है। वहां भी
विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति आमतौर पर अपवाद के रूप में 1996 को
छोड़ कर छह फीसद के आसपास ही रही है।
वैश्विक आंकड़ों में संतुलन कम
जाहिर है कि ये आंकड़े आधी आबादी के लिए निराशाजनक है। खास तौर से तब जब
मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। वजह साफ है। राजनीतिक
पार्टियां महिलाओं को ज्यादा उम्मीदवार बनाने में विशेष रूचि नहीं लेती।
इस जाते आईपीयू की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। लेकिन
आईपीयू जिस आधार पर तुलना करता है उसमें विसंगतियां ज्यादा हैं। संबंधित
देश की आबादी और वहां के प्रमुख सदन के सदस्यों की संख्या को ध्यान में
नहीं रखा गया। यह सही है कि पूरी दुनिया में राजनीति में महिलाओं की
संख्या लगातार बढ़ रही है।
आईपीयू की वरीयता सूची में रवांडा आश्चर्यजनक रूप से पहले स्थान पर है।
सितंबर 2013 में वहां हुए चुनाव में 63.8 फीसद महिलाएं जीतीं। यह पूरी
दुनिया में पहला मौका था जब किसी देश में महिला सांसदों की संख्या साठ
फीसद के पार पहुंची। बाद के नौ स्थानों पर अंडोरा, क्यूबा, स्वीडन,
दक्षिण अफ्रीका, सेशेल्स, सेनेगल, फिनलैंड इक्वेडोर व बेल्जियम जैसे देश
हैं। इस सूची में कनाडा का 54वें व अमेरिका का 72वें स्थान पर होना
भारतीय राजनीति के पैरोकारों को सुखद लग सकता है लेकिन दक्षिण एशिया के
पड़ोसी देशों से तुलना की जाए तो श्रीलंका को छोड़ कर बाकी सभी देशों की
स्थिति भारत से बेहतर है। श्रीलंका की 225 सदस्यों वाली संसद में महिलाओं
की संख्या केवल तेरह है और इस नाते आईपीयू की सूची में उसे 133वां स्थान
मिला है।
यह हालत तब है जब श्रीलंका में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री का पद महिला
संभाल चुकी है। नेपाल में कभी कोई महिला राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं
बनी लेकिन वहां की संसद में 30 फीसद महिलाएं हैं। सूची में उसका स्थान
35वां है। नेपाली सांसद में हर तीन सांसद में एक महिला है। चीन में करीब
25 फीसद सांसद महिलाएं हैं। रैकिंग में वह 53वें नंबर पर निचले सदन में
24 फीसद महिलाओं की वजह से है। जहां तक महिला अधिकारों और समानता की बात
है मुस्लिम बहुल दो पड़ोसी देशों- बांग्लादेश व पाकिस्तान की स्थिति
अच्छी नहीं मानी जाती लेकिन संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने के
मामले में ये दोनों देश भारत से आगे हैं। पाकिस्तान में ऊपरी सदन में 17
फीसद और निचले सदन में 21 फीसद महिलाएं हैं। महिला सांसदों की कुल संख्या
84 है और आईपीयू की सूची में उसका स्थान 64वां है। बांग्लादेश में 20
फीसद सांसद महिला हैं। अरसे से राष्ट्राध्यक्ष के पद पर दो बेगमों के
होने को देखते हुए यह संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन भारत के 12 फीसद से तो
यह ज्यादा है ही।
अफगानिस्तान के दोनों सदनों में 97 महिला प्रतिनिधि हैं। पिछले पांच साल
में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की राजनीति में स्थित सुधरी है। जिन सदनों
में महिलाओं की नुमाइदंगी तीस फीसद से ज्यादा है, उनकी संख्या पांच साल
में पांच से बढ़ कर 42 हो गई है। 40 फीसद से ज्यादा महिला प्रतिनिधियों
वाले सदनों की संख्या इस अरसे में एक से तेरह हो गई है। चार सदनों में
महिलाओं की संख्या पचास फीसद से ज्यादा है। आईपीयू की सूची में भारत के
पिछड़ने पर चिंता भले ही जताई जाए, यूरोप के विकसित देशों में भी स्थिति
ज्यादा अच्छी नहीं है। 1995 में आईपीयू की सूची में पहले दस स्थान पर
यूरोपीय देशों का दबदबा था। 2015 की रिपोर्ट में पहले दस देशों में चार
सब सहारा अफ्रीका के हैं। 1995 की सूची के फिनलैंड, सेशेल्स व स्वीडन
जैसे देश ही 2015 में टॉप टैन में अपनी जगह बचाए रख पाए हैं।
संख्या कम अधिकार ज्यादा
सरकार में मंत्री पद संभालने के मोर्चे पर भारत दुनिया में 37वें नंबर
पर है। नरेंद्र मोदी के 27 केंद्रीय मंत्रियों के मंत्रिमंडल में आठ
महिलाओं को जगह मिली है। यह 22.7 फीसद है। मंत्री पद पाने वाली महिलाएं
हैं- सुषमा स्वराज , स्मृति ईरानी , मेनका गाधी , हर सिमरन कौर बादल ,
उमा भारती , अनुप्रिया पटेल साध्वी निरंजन ज्योति और निर्मल सीतारमण।
अंतर राष्ट्रीय परिदृश्य कुछ इस प्रकार है।
चीन इस सूची में 65वें नंबर पर है। वहां 26 मंत्रियों में सिर्फ तीन
महिलाएं हैं। यह 11.5 फीसद है और रैकिंग में वह 65वें नंबर पर हैं। नेपाल
में हर तीसरी सांसद महिला है। उसका नंबर 59वां है। अफगानिस्तान में तीस
मंत्रियों में सिर्फ तीन महिलाएं हैं । भूटान में दस मंत्री हैं, महिला
केवल एक ही। पाकिस्तान के निचले और ऊपरी सदन में महिलाओं की संख्या काफी
अच्छी है लेकिन सऊदी अरब, वानुआतु, टोंगा व हंगरी की तरह वहां किसी महिला
को मंत्री पद के योग्य नहीं मान गया। श्रीलंका में 28 मंत्रियो में से दो
ही महिला हैं। बांग्लादेश में तीस मंत्री है।
डी को विक्सित कहने वाले देशो की भी दशा बाहत ठीक नहीं है। फिनलैंड में
जरूर 16 मंत्रियों में से दस महिला हैं। स्वीडन में दस महिला मंत्री है
और फ्रांस व नार्वे में आठ-आठ। फिनलैंड में तो महिलाओं के पक्ष में 62.5
फीसद मंत्री पद है, अन्य देशों में यह पचास फीसद के आसपास है। लेकिन
ब्रिटेन में यह महज 22.7 फीसद है और सूची में उसका स्थान 36वां है।
अमेरिका में बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में स्थिति मामूली ही बेहतर है। 23
में से छह महिला मंत्रियों का फीसद 26.1 फीसद बैठता है और यह अमेरिका को
दुनिया में 29वें स्थान पर पहुंचा दिया है।
दुनिया के 273 सदनों में से 43 (15.8 फीसद) में अध्यक्ष पद महिलाओं के
हाथ में है। इनमें लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन भी हैं। उपाध्यक्ष पद
पर जरूर महिलाओं का फीसद 28.7 है। 634 सदनों में उनकी संख्या 169 है। 174
देशों के 249 सदनों में 106 में कम से कम एक उपाध्यक्ष महिला हैं। 152
देशों में से दस- अर्जेंटीना, ब्राजील, रिपब्लिक आफ कोरिया, सेंट्रल
अफ्रीकन रिपब्लिकन, चिली, क्रोएशिया, लाइबेरिया, लिथुआनिया, माल्टा व
स्विटजरलैंड में महिला राष्ट्राध्यक्ष हैं। 193 देशों में से 14 में ही
सरकार की कमान महिलाओं के हाथ में है। पिछले एक साल में दुनिया भर में
महिला मंत्रियों की संख्य 670 से 715 हुई है।
(आंकड़े आई पी यू की एपोर्ट से लिए गए है )
लटका हुआ है महिला आरक्षण बिल :
इ महिला आरक्षण बिल पर अमल से इस स्थिति को सुधारा जा सकता है। महिलाओं
को लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसद आरक्षण देने के लिए लगभग
हर पार्टी सैद्धांतिक रूप से सालो से सहमत है। सार्वजनिक मंच पर इसे
वैचारिक बहस का मुद्दा जरूर बना दिया जाता है लेकिन जब इस पर कानून बनाने
की बात आती है तो सभी बगले झांकने लगते हैं। आधे अधूरे तर्कों के सहारे
महिला आरक्षण का विरोध किया जाता है और उसके पैरोकार इसी को बहाना बना कर
कदम पीछे खींच लेते हैं। कुछ समय के लिए सत्ता में रही एचडी देवगौड़ा
सरकार ने 1996 में पहली बार लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पेश किया। 1997
में लोकसभा भंग होने के साथ ही बिल भी मर गया। अगली बार भी यही हुआ। 1998
में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिल पेश किया लेकिन अप्रैल 1999 में
लोकसभा भंग हो जाने की वजह से बिल अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सका। 1999
में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन
(एनडीए)की सरकार बनी। 2004 में कार्यकाल खत्म होने से कुछ पहले ही बिल
पेश करने की मुंह दिखाई कर दी गई। बिल पर और धूल जमती चली गई। यूपीए
सरकार के पहले कार्यकाल में 2008 में कहीं जाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
ने बिल पेश किया। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में 2010 में राज्यसभा
ने बिल पास कर दिया। मामला लोकसभा में अटक गया। और तब से अटका हुआ ही है।