मुस्लिम निजाम के उद्भव के पश्चात् महिलाओ की स्थिति में परिवर्तन
संजय तिवारी ,
अध्यक्ष भारत संस्कृति न्यास नयी दिल्ली
9450887186
भारतीय जीवन संस्कृति का आधार तत्व नारी का सम्मान है। इसमे नारी को परम पवित्र और पूर्ण संरक्षण के योग्य माना गया है। नारी को किसी भी दशा में अपमानित करने और उसके इक्षा के विरूद्ध कुछ भी करने की छूट नहीं है। नारी को ही इस संस्कृति में धर्म की प्रतीक बताया गया है। इस धर्म का अर्थ मज़हब या पंथ कदापि नहीं है। यह दायित्व का निर्धारक तत्व है और इसको संयोजित करने की शक्ति नारी तत्व में ही निहित है। अकेला पुरुष यहाँ किसी कार्य के लिए उपयुक्त और सक्षम नहीं है। सृष्टि के क्रम में गृहस्थ और प्रवाहवान जीवन में नारी तत्व को प्रधान शक्ति माना गया है। भारत में इसी के अनुरूप मानवयुग्म रचने की परंपरा विक्सित की गयी थी जिसे विवाह की संज्ञा दी गयी। भारतीय जीवन दर्शन में इस मानव युग्म अर्थात पति एवं पत्नी के रूप में एक पुरुष और एक कन्या को कई खास गुण और धर्म के आधार पर पहले एक किया जाता था और उसके बाद सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाने की प्रक्रियाए शुरू होती थी। इस दर्शन में विवाह एक ऐसा युग्म निर्माता संस्थान है जिसमे कभी भी विघटन की कोई संभावना होती ही नहीं।
भारत में जब तक इस्लाम अथवा अन्य पंथ के लोग नहीं आये थे तब तक यहाँ स्त्री को बिलकुल नैसर्गिक वातावरण में पूर्ण सुरक्षा और सामाजिक संरक्षा के बीच जीवन जीने का अधिकार था। यहाँ नाटो कोई पर्दा प्रथा थी और नहीं स्त्री और पुरुष के बीच किसी प्रकार का विभेद था। भारत के मूल जीवन दर्शन में स्त्री को अपना पति चुनने का भी अधिकार प्राप्त था। इससे पहले कि इस्लाम के आगमन के बाद के भारत पर बात करे , यह जानना जरुरी है कि जब किसी प्रकार का पांथिक हस्तक्षेप भारत में नहीं था तब यहाँ की नारी किस रूप में रह रही थी। इस बारे में विदेशी खासकर चीनी यात्रियों ने तो लिखा ही है , लेकिन सबसे प्रामाणिक माने जाने वाले इतिहासवेत्ता प्रो ए एल बाशम स्वयं अपनी पुस्तक द वंडर , दैट वाज इंडिया में साफ़ साफ़ लिखते है की भारत में नाटो बाल विवाह होता था और नहीं स्त्री को किसी कठोर बंधन में बाँध कर रखा जाता था। भारत में स्त्री को अधिक प्राप्त थे जो पुरुष के थे , बल्कि स्त्री को पुरुष से ज्यादा सम्मान प्राप्त था। इसी पुस्तक का कथन है -
आदर्श रूप से विद्या अध्ययन की अवधि बारह वर्ष की होती थी। यद्यपि इसकी समाप्ति विद्यार्थी के लिए एक वेद में पारंगत हो जाने पर हो सकती थी। गंभीर प्रकृति के विद्यार्थी आजीवन अविवाहित प्रतिज्ञा लेलेते थे। जो भी हो , सामान्य रूप से युवक 25 वर्ष की आयु में अपने घर लौट आता था और अपनी श्रेणी के अनुसार दिन चर्या में लग जाता था। स्नातक के लिए यही उपयुक्त समझ जाता था कि वह शीघ्र विवाह कर ले क्योकि अविवाहित रहने का प्राण न किया है तो विवाह और संतानोत्पत्ति उसके परम कर्त्तव्य होते थे। विवाह के मुख्य उद्देश्य होते थे - गृह यज्ञ के साथ धार्मोन्नति , संतानोत्पत्ति कर सृष्टि का क्रमिक विकास और रति अथवा यौन आनंद।
अब यहाँ भी उस समय में स्त्री की विश्लेषित करने पर स्पष्ट होता है कि कन्या का भी वयस्क होना जरूरी होता था। बाल विवाह कदापि संभव न था। उस समय के किसी ग्रन्थ , साहित्य में कही भी अवयस्क स्त्री या युवती का प्रसंग नहीं मिलता है। प्राचीनतम कथाओ और समस्त नायिकाएं वयस्क है। प्रेम के सभी प्रसंगों में नायिका पूर्ण विक्सित देह वाली है। प्राचीन भारत का समूचा साहित्य स्त्री को खुले परिवेश में स्वाभाविक जीवन जीते हुए ही लिखा गया है। पुरुष भी वही सम्मानित और पूज्य माना गया है गया है जो युगल जीवन में है। मनु और शतरूपा से लेकर राम सीता और फिर महाभारत काल तक भारत की स्त्री घर , परिवार , राज्य हर स्थान पर बराबर दिखती है। गुरुकुलो से लेकर युद्ध के मैदान तक वह पुरुष की सह धर्मिणी और सहकर्मिणी के रूप में ही है। महाभारत काल में स्त्री की स्वायत्तता और महत्ता पर बात होगी तो बहुत लंबा हो जाएगा। महाभारत के युद्ध के बाद और भारत में इस्लाम के प्रभाव से पहले तक के चार हज़ार सालो में कही भी किसी पर्दा प्रथा , बाल विवाह, अथवा हराम आदि की चर्चा नहीं आती। यहाँ तक कि समाज में नाचने , गाने और वेश्यावृत्ति का पेश चुन कर उसे करने वाली स्त्री को भी यहाँ बराबर का सम्मान था। राज नर्तकी और नगरवधुओं को तो बिलकुल अलग सम्मान हासिल था। कई जगह के वर्णन से लगता है जैसे आज हमारे यहाँ फिल्म स्टार्स का सम्मान और महत्ता है वैसा ही उस समय रहा होगा।
भारत में इस्लाम का प्रभाव बने लगभग एक हज़ार साल हुआ। इससे पहले महाबीर , बुद्ध और चाणक्य के काल की अनगिनत ऐतिहासिक घटनाये सभी जानते है। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली के सम्मानित जीवन से पूरा विश्व वाकिफ है। यह कटु सत्य है कि सृष्टि के इतने लंबे सफर में स्त्री को कभी कोई नुक्सान नहीं पंहुचा और उसके सम्मान की रक्षा होती रही लेकिन इस्लाम के भारत में प्रवेश के साथ ही स्त्री सबसे अधिक असुरक्षित हो गयी। भारत की प्राचीनतम सभ्यताओ के साथ चलने वाली परम्पराओ को सुरक्षित रखना कठिन हो गया। मुग़ल आक्रमण में सीधी शिकार स्त्री हुई। मुग़ल आक्रान्ताओ के लिए स्त्री एक धन थी जिसे भोगने के सामान के रूप में इतेमाल करना उनकी सभ्यता प्रमुख अंग माना जा चुका था। भारत में प्रवेश करते ही उनकी दृष्टि यहाँ की स्त्रियों पर पड़ी और फिर शुरू हो गया अत्याचारो का दौर।
मुग़ल आक्रमण के बाद भारत की जनता के सामने संकट था की वे अपनी तथा अपने साथ रहने वाली गायो और स्त्रियों की रक्षा कैसे करे। लड़ाई तो आपस में आक्रान्ताओ और यहाँ के तत्कालीन राजाओ और सैनिको में होती थी पर अत्याचार बढ़ता था जनता पर। सामान्य जनता को अपने घर , परिवार , कुल , गाव तथा पशुओ की करने का कोई उपाय नहीं नज़र आता था। राजा इतने सक्षम थे नहीं कि वे आक्रान्ताओ से सभी को बचा सके। उस दौर में सामान्य जनता में अपनी सुरक्षा को लेकर बहुत भय हो गया और स्थिति इतनी बिगड़ गयी की अपनी सभ्यता और परमपरा को भी बचाने के लाले पड़ गए।
बाल विवाह , सती और परदा प्रथा का उदय
मुग़ल अधिपत्य होते होते हालात बहुत बिगड़ गए। यही वह दौर था जब मूल भारतीयों को अपनी कन्याओ , स्त्रियों और पशुधन की सुरक्षा करना कठिन हो गया। कन्या को वयस्क होने के अवसर देकर पिता चिता से भरी होने लगा तो उसने काम उम्र में को किसी योग्य परिवार के वर से विवाह करा देने की जुगत में लग गया। कन्या पर किसी मुग़ल राजा या सैनिक की कुदृष्टि पड़े इससे पहले ही हर पिता अपनी कन्या के लिए उसी के अनुरूप वर तलाश कर विवाह क्र देना उचित समझने लगा और बाल विवाह की प्रथा ने जन्म ले लिया। घर की वयस्क स्त्रियों को मुग़ल नज़रो से छिपाने के लिए पर्दा और घूघट की प्रथा शुरू हुई क्योकि मुग़ल सैनिक कभी भी किसी भी सूंदर दिखने वाली स्त्री को जबरन उठा ले जाते थे। स्त्रियां जब घूघट में आ गयी तो उनकी सुंदरता का पता नहीं चलता था। दूसरी तरफ एक और संकट खड़ा हुआ। जिस भी परिवार में स्त्री अकेले पद जाती थी या उसके पति की मौत हो जाती थी तो वास्तविक वैधानिक संरक्षक नहीं रह जाता था। ऐसी दशा में वर्ग के लोग उसे उठा ले जाते थे तथा उस पर यौन अत्याचार होता था। इससे बचने लिए कुलीन परिवारों की स्त्रियों ने पति की मृत्यु के बाद उसी चिता पर खुद को जल देने में अपनी सुरक्षा मान ली। इसी का अनुसरण किया निम्न वर्ग ने भी। ख़ास कर जब रोज रोज होने वाले युध्हो में सैनिक मारे जाने लगे तब उनकी पत्नियों ने भी यही रास्ता चुना और सतीप्रथा की नींव पड़ गयी।
स्त्री की रक्षा के लिए रात में होने लगे विवाह समारोह
बल विवाह , सती प्रथा और घूंघट के रूप में शुरू हुई पर्दा प्रथा जैसी विधिया ही भारतीय लोगो के लिए ऐसी उपाय लगी जिससे वे आक्रांता मुगलो और उनके सैनिको की कुदृष्टि से अपनी कन्याओ और स्त्रियों को बचा सकते थे। देश का यह माहौल बड़ा विचित्र था। मुग़ल आक्रमण और अत्याचार का असर भारत की जनता के प्रत्येक क्रियाकलाप पर पड़ा। हालात यह हो चुकी थी की शादी व्याह जैसे आयोजन का पता चलते ही आक्रांता वह पहुच जाते थे और लूट मार कर महिलाओ को उठा ले जाते थे। इससे बचने का उपाय लोगो ने चोरी छिपे रात में विवाह संस्कार करने के रूप में निकाला। भारत वर्ष में विवाह संस्कार एक विशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसे समझने के लिए इसके सम्पूर्ण विधियों को ठीक से समझना आवश्यक है। उन विधियों को कभी विस्तार से बताएँगे लेकिन आज हम बात करने जा रहे है विवाह के मुहूर्त और उसे आधुनिक रूप में सम्पन्न करायी जाने वाली प्रक्रिया लेकर। शास्त्रीय और वैधानिक पहलू यह है की पिछले कई शतकों से वास्तव में विवाह की शास्त्रीयता बची ही नहीं है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि कोई भी वैदिक अनुष्ठान सूर्यास्त के पश्चात हो ही नहीं सकता। यहाँ तक की स्वयं वेद पाठ भी शास्त्रीय उपयोग में सूर्यास्त के बाद नहीं होते। ऐसे में वैदिक मंत्रो के साथ रात्रि बेला में विवाह कैसे संभव हो सकता है। भारत वर्ष में वास्तव में विवाह की परम्परा दिन की ही होती थी लेकिन जब यवन और मुग़ल लोग भारत पर शासन करने आये तथा युद्ध की विभीषिकाएँ हर और से देश को निगलने लगी तब मारे डर के विवाह की परम्परा को चोरी चोरी से रात को सम्पन्न कराने की जुगत निकाली गयी। इसके लिए पोरे विवाह पद्दति को कई भागो में बाँट दिया गया। अधिकाँश मंत्र पहली किश्त में वर रक्षण यानी बरक्षा के समय ही पूर्ण कर लिए जाते थे। दूसरी किश्त तिलक के दिन पूरी होती थी और आखिरी के मंत्र विवाह की तिथि को प्रयोग में लाये जाते थे। यह कुछ लापरवाही हमारे धर्माचार्यो की भी रही है जिन्होंने समय से इस सच्चाई से आम भारतीय को अवगत तक नहीं कराया। कुछ पीढ़ियों की गुलामी का दोष है कि शायद हमारे पास सच्चे आचार्यो की ही कमी हो गयी। धर्म, आध्यात्म, ज्ञान और भारतीयता पर लम्बी बहस करने वालो की तो फ़ौज है अपने देश में लेकिन इतने महत्वपूर्ण पक्ष पर विचार करने का समय शायद नहीं बचा। वेद, पुराण, धर्म, शास्त्र, उपनिषद्, अनुष्ठान, तंत्र ,मंत्र आदि पर अभी बहस करनी हो तो हज़ारो विद्वान सामने आ जाएंगे लेकिन विवाह की पद्धति में इस आवश्यक सुधार को कोई बताना नहीं चाहता। यह भी विचित्र सी बात है कि जिन मंत्रो के सहारे दो वक्तियो को आजीवन साथ निभाने के लिए बांधने वाले मंत्र जब आवेशित नहीं होंगे तो उन मंत्रो और उस विवाह का मतलब ही क्या है। आज तो विवाह समारोह बस कुछ मौज मस्ती और नाच गाने के साथ डिनर के कार्यक्रम ही के रूप में रह गए है। इनमे विवाह के कार्य हो ही कहा रहे है। फिर जब तलाक होने लगते है तो हो हल्ला मचने लगता है। अरे जब मंत्र आवेशित ना हुए , विवाह के मंत्र बैंड और dj के साथ मदिरा के बोतलों में बह गए उस कथित विवाह से क्या अपेक्षा है तुम्हारी. क्या साक्षात लक्ष्मी जी जाएंगी आपके घर में? सामान्य सी बात क्यों नहीं समझ में आने वाली कि कोई भी वैदिक अनुष्ठान अत्यंत पवित्रता के वातावरण में ही संभव है। सामान्य सी सत्यनारायण की कथा के लिए भी घर को साफ सुथरा किया जाता है ,व्रत रखा जाता है, मांस,मदिरा,आदि से दूर रहा जाता है। तो विवाह जैसे सम्पूर्ण वैदिक विधान का फल क्या मुर्गा और मट्टन के साथ शराब की पार्टी और तेज आवाज़ वाले डीजे के स्वरों से मिलेगा? दरअसल हम भारतीय बहुत ही वितण्डावादी लोग है। सब अपनी सुविधा से चाहते है। ऊपर से बाजार ने अलग ही परम्परा विकसित कर ली है। विवाह वास्तव में एक अत्यंत अल्प खरच वाला वैदिक अनुष्ठान है जिसमे पैसे का कोई महत्व ही नहीं है। यह विशुद्ध प्राकृतिक और सांस्कारिक अनुष्ठान है जिसमे वेद मंत्रो की शुद्धता का अत्यंत महत्त्व है। यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि भारत में विवाह की परंपरा पूरे 12 दिनों की रही है जो आज सिमट कर कुछ समय की रह गयी है। इसमे पहले व्यवस्था यह होती थी की सप्तपदी के बाद 10 दिनों तक वर और कन्या एक कोष्ठ में निवास करते थे। वह आसपास नृत्य , संगीत का प्रवंध होता था। दोनों साथ रह कर भी रति से दूर रहते थे। इसी अवधी में ध्रुवतारा दिखने और अन्य रस्मे होती थी। इन दिनों में परिवेश और प्रभाव में जब कन्या वर को पूरी तौर पर स्वीकार कर लेती थी तब मुहूर्त के अनुसार संतानोत्पत्ति की कामना से वह वर को स्वयं को अर्पित करती थी। इसके अलावा भी विवाह के सात और प्रकार बताये गए है.इनमे जो प्रमुख है वे इस प्रकार है - ब्रह्म विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह , प्रजापत्य विवाह, गन्धर्व विवाह , असुर विवाह , राक्षस विवाह ,और पैशाच विवाह। यहाँ विवाह की इन पद्धतियों पर चर्चा अर्थ नहीं है।
विकृतियों की सहस्त्राब्दि
भारत में मुगलो के प्रवेश के बाद से ब्रिटिश सत्ता और उसके बाद के इन वर्षो को सांस्कृतिक दृष्टि से विकृतियों के सहस्त्राब्दि के रूप में ही दर्ज किया जाना चाहिए। इस अवधि प्रकृति और उसके मूल स्वरुप पर ही सर्वाधिक हमले किये गए। भारतीय जीवन दृष्टि की गुलामी के कारण ठीक वही हुआ जिसकी आशंका अर्जुन ने कृष्ण से जताई थी।अर्जुन की यह इसलिए थी क्योकि उसे लगता था कि युद्ध के बाद की स्थितियां बहुत विद्रूप होंगी। अर्जुन ने कहा था -
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥
अधर्म फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं। और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण धर्म नष्ट हो जाता है। तात्पय कि अर्जुन को यह बाह्य था की युद्ध हुआ तो उसका सबसे बड़ा खामियाज़ा स्त्रियों को ही भुगतान पड़ेगा। अर्जुन ने अपनी आशंका में स्त्रियों के प्रदूषित हो जाने के खतरे से कृष्ण को सचेत किया था। अर्जुन ने कहा था की यदि युद्ध हुआ तो जो लोग मारे जायेंगे उनकी स्त्रियां असुरक्षित हो जाएँगी और फिर उन्हें प्रदूषण का शिकार होना पड़ेगा। दूसरे लोग उन्हें अवश्य प्रदूषित कर देंगे। और स्त्री जब प्रदूषित होगी तो वर्णशंकर संतति पैदा होगी और कुलधर्म नष्ट हो जायेगा। यहाँ इस बात की बहुत व्याख्या की गुंजाइश नहीं है लेकिन आज कुछ उसी रूप का समाज हम सामने देख रहे है। महाभारत युद्ध में तो वह स्थिति इसलिए नहीं आयी क्योकि यद्धोपरांत कृष्णनीति पर आधारित समाज की नींव पड़ गयी जिसमे स्त्री को असुरक्षित होने का कोई खतरा ही नहीं था। समाज का संचालन पूरी तरह से महानायक श्रीकृष्ण की नीतियों के अनुसार शुरू हुआ जिसे धर्म की स्थापना की नींव कहा जाता है लेकिन पिछले एक हज़ार साल के आक्रमणों और बलात कार्यो के बाद आज जिस समाज में हम है उसमे वही आशंकाए फलीभूत रूप में दिख रही है जिनको अर्जुन ने उजागर किया था। इतिहास साक्षी है कि इस्लाम के आक्रान्ताओ ने भारत को बहुत ठीक से रौंदा है जिसका सबसे बड़ा असर यहाँ की स्त्रियों पर पड़ा है। इन आक्रान्ताओ के दर से ही भारत के सामान्य लोगो ने अपनी कन्याओ की सुरक्षा के लिए वह सब कुछ किया जिसमे उसे बचा कर रखा जा सके लेकिन इसका दुष्परिणाम स्त्री को झेलना ही पड़ा। जिस समाज में स्त्री को पढने , युद्ध कौशल सीखने , रंगकर्म करने , और सामजिक जीवन में खुल कर जीने का अधिकार था उसे बंदी बन जाना पड़ा। वह घरो में कैद हो गयी। पढाई लिखाई , प्रशिक्षण आदि से वंचित हो गयी और इतनी मज़बूर हो गयी कि आबरू बचाने के लिए पति की चिता पर ही जल जाना स्वीकार कर लिया। इतने से भी आक्रांता और कालांतर के शासको का मन नहीं भरा। उपासना पद्धतियों का अंतरण यानी जबरिया धर्मांतरण कराया जाने लगा और स्त्री दबती चली गयी।
वास्तविकता है कि भारत में आते ही इस्लाम ने यहाँ की स्त्रियों को ही सबसे पहले अपना निशाना बना लिया। उनके लिए स्त्री केवल भोग के लिए ही बानी है। उनके यहाँ इसीलिए स्त्री को मर्द की तुलना में निम्न स्तर का प्राणी माना गया है। स्त्री को पढने ,लिखने , बात करने , संभाषण करने , गीत नृत्य से दूर रहने आदि जैसी अनेक पाबंदियों में बाँध कर रखा गया है। स्त्री वास्तव में उनके यहाँ केवल सेक्स की मशीन ही है। भारत की संस्कृति में स्त्री सृजन की अधिष्ठात्री है। यहाँ वह क्षेत्र है जिस पर कर्म का बीज पड़ता है तब धर्म की फसल उगती है। धर्म यानि दायित्व ,नाकि पूजा पद्धति। इसीलिए उनके भारत में प्रवेश के साथ ही यहाँ स्त्रियों के जीवन पर गंभीर संकट आ गया। गलती सिर्फ वही नहीं हुई, आज भी हो रही है क्योकि आज के कथित विद्वान् अभी भी अपनी विरासत पर बात नहीं करते बल्कि केवल कुतर्क गढ़ कर विषय को पथभ्रष्ट करते है।