कश्मीर की कहानी

कश्मीर की कहानी 
संजय तिवारी 
ऋषि  कश्यप की भूमि। ऋषि शांडिल्य की भूमि।कुमारिल की आचार्य परंपरा की भूमि। भगवान् शंकराचार्य की भूमि। राजतरंगिणी की रचनास्थली। महाराजा रणजीत सिनसह की कर्मभूमि। 5 अगस्त 2019 को सनातन ह्रदय सम्राट महानायक नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भारत की सनसद के माध्यम से कश्मीर के इतिहास में जो नया अध्याय जोड़ा है उसके बाद यह प्रबल इच्छा जगी है कि नयी पीढ़ी को कश्मीर का वास्तविक इतिहास बताया जाना चाहिए। इसी क्रम में यह श्रंखला शुरू कर रहा हूँ। यह थोड़ा लंबा होगा ल्र्किन पढ़िए जरूर। जानिये कि कश्मीर के बिना सनातन और भारतीयता कितने अधूरे लगते हैं।  कश्मीर का अति  प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास है राजतरंगिणी। महँ रचनाकार कल्हण द्वारा इसे 12वीं शताब्दी ई. में लिखा गया था। तब तक यहां पूर्ण सनातन  राज्य  था। यह अशोक  के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा। लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था। अशोक के साथ ही  यहां बौद्ध धर्म का आगमन हुआ, जो आगे चलकर कुषाणों के अधीन समृध्द हुआ था। उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर से पूर्ण सनातन  की वापसी हुई। उनके बाद महाराज ललितादित्य यहाँ के शासक हुए जिनका कार्य  काल 697 ई. से 738 ई. तक था। अवन्तिवर्मन ललितादित्य के  उत्तराधिकारी बने । उन्होंने  श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया। उसे ही अपनी राजधानी बनाया। जो एक समृद्ध क्षेत्र रहा। उसके खंडहर अवशेष आज भी शहर की कहानी कहते हैं। यहां महाभारत युग के गणपतयार और खीर भवानी मन्दिर आज भी मिलते हैं। गिलगिट में पाण्डुलिपियां हैं, जो प्राचीन पाली भाषा में हैं। उसमें बौद्ध लेख लिखे हैं। त्रिखा शास्त्र भी यहीं की देन है। यह कश्मीर में ही उत्पन्न हुआ। इसमें सहिष्णु दर्शन होते हैं। चौदहवीं शताब्दी में यहां मुसलमानो के आक्रमण हुआ और उसी समय से मुस्लिम शासन आरंभ हुआ। उसी काल में फारस से से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ। यहां पर ऋषि परम्परा के बाद  त्रिखा शास्त्र और फिर सूफी इस्लाम उभर कर आता दिखता है ।

कश्मीर राज्य की उपलब्ध वंशावली इस प्रकार मिलती है :

प्रवरसेन
गोपतृ
मेघवाहन
प्रवरसेन २
विक्रमादित्य-कश्मीर
चन्द्रापीड
तारापीड
ललितादित्य
जयपीड
अवन्तिवर्मन—८५५/६-८८३
शंकरवर्मन राजा—८८३-९०२
गोपालवर्मन—९०२-९०४
सुगन्धा—९०४-९०६
पार्थ राजा- ९०६-९२१ + ९३१-९३५
चक्रवर्मन- ९३२-९३३ + ९३५-९३७
यशस्कर—९३९-९४८
संग्रामदेव—९४८-९४९
पर्वगुप्त—९४९-९५०
क्षेमगुप्त—९५०-९५८
अभिमन्यु राजा—९५८-९७२
नन्दिगुप्त—९७२-९७३
त्रिभुवन—९७३-९७५
भीमगुप्त—९७५-९८०
दिद्दा—९८०/१-१००३
संग्रामराज—१००३-१०२८
अनन्त राजा—१०२८-१०६३
कलश राजा—१०६३-१०८९
उत्कर्ष—१०८९
हर्ष देव—१०८९-११०१
उच्चल
सल्हण
सुस्सल
भिक्षाचर
जयसिँह
राजदेव—१२१६-१२४०
सहदेव कश्मीरी राजा—१३०५-१३२४
कोट रानी—१३२४-१३39
ज़ैनुल-आब्दीन—१४२०-१४७०

सन १५८९ में यहां मुगलों  का राज हुआ। यह अकबर का शासन काल था। मुगल साम्राज्य के विखंडन के बाद यहां पठानों का कब्जा हुआ। यह काल यहां का काला युग कहलाता है। फिर १८१४ में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पठानों की पराजय हुई, व सिख साम्राज्य आया। अंग्रेजों द्वारा सिखों की पराजय १८४६ में हुई, जिसका परिणाम था लाहौर संधि। अंग्रेजों द्वारा महाराजा गुलाब सिंह को गद्दी दी गई जो कश्मीर का स्वतंत्र शासक बना। गिलगित एजेन्सी अंग्रेज राजनैतिक एजेन्टों के अधीन क्षेत्र रहा। कश्मीर क्षेत्र से गिलगित क्षेत्र को बाहर माना जाता था। अंग्रेजों द्वारा जम्मू और कश्मीर में पुन: एजेन्ट की नियुक्ति हुई। महाराजा गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई. में गद्दी पर बैठे, जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया।

क्रमशः 

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