साहित्य में होली

साहित्य में होली  Image result for saahity me holi
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है।  भगवान कृष्ण की लीलाओं में भी होली का वर्णन मिलता है | अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं।


कीर्णौःपिष्टातकौधैः कृतदिवसमुखैः कुंकुमसिनात गौरेः
हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिखैः शेखरैः कैकिरातैः।
एषा वेषाभिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा
कौशाम्बी शातकुम्भद्रवखजितजनेवैकपीता विभाति।
हर्ष  -'रत्नावली', 1.11
कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है।  भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है।  चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है।

फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की 'पद्माकर' ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी।
नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी।
पद्माकर 

  चाहे  सगुन साकार भक्तिमय प्रेम हो या निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम या फिर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच का प्रेम हो,फाल्गुन माह का फाग भरा रस सबको छूकर गुजरा है। होली के रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह ईश्वर को भी है तो भक्त को भी है, प्रेमी को भी है तो प्रेमिका को भी।

मीरां बाई ने इस पद में कहा है –

रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।

इस पद में मीरां ने होली के पर्व पर अपने प्रियतम कृष्ण को अनुराग भरे रंगों की पिचकारियों से रंग दिया है। मीरां अपनी सखि को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि, हे सखि मैं ने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली। होली पर इतना गुलाल उडा कि जिसके कारण बादलों का रंग भी लाल हो गया। रंगों से भरी पिचकारियों से रंग रंग की धारायें बह चलीं। मीरां कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैं ने मटकी में चोवा, चन्दन,अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं। मीरां कहती हैं कि मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है। इस पद में मीरां ने होली का बहुत सजीव वर्णन किया है।
महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। सूरदास जैसे नेत्रहीन कवि भी फाल्गुनी रंग और गंध की मादक धारों से बच न सके और उनके कृष्ण और राधा बहुत मधुर छेडख़ानी भरी होली खेलते हैं।

हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद

सूर के कान्हा की होली देख तो देवतागण तक अपना कौतुहल न रोक सके और आकाश से निरख रहे हैं कि आज कृष्ण के साथ ग्वाल बाल और सखियां फाग खेल रहे हैं। फाग के रंगों के बहाने ही गोपियां मानो अपने हृदय का अनुराग प्रकट कर रही हैं, मानो रंग रंग नहीं उनका अनुराग ही रंग बन गया है। सभी गोपियां सुन्दर साडी पहन कर, चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा अपनी आँखों में काजल लगा कर कृष्ण की पुकार सुन बन ठन कर अपने घरों से निकल पडींऔर होली खेलने के लिये आ खडी हुई हैं।

रसखान जैसे रस की खान कहलाने वाले कवि ने तो फाग लीला के अर्न्तगत अनेकों सवैय्ये रच डाले हैं।सभी एक से एक रस और रंग से सिक्त _

फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।

एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है,कि जबसे फाल्गुन मास लगा है तभी से ब्रजमण्डल में धूम मची हुई है। कोई भी स्त्री, नवेली वधू नहीं बची है जिसने प्रेम का विशेष प्रकार का रस न चखा हो। सुबह शाम आनन्द मगन होकर श्री कृष्ण रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि इस माह में कौन सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा और संकोच तथा मान नहीं त्यागा हो!

खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहीं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखन कहा है जौ बार न कीजै।।
ज्यों ज्यों छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यों त्यों छबीलो छकै छबि छाक सों हेरै हंसे न टरे खरो भीजै।।

एक गोपी अपनी सखि से फागलीला का वर्णन करती हुई कहती है कि ऐ सखि,मैं ने कृष्ण और उनकी प्रिया राधा को फाग खेलते हुये देखा। उस समय की जो शोभा थी उसे किसी की भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह शोभा तो देखते बनती थी, कि उस पर कोई ऐसी वस्तु भी नहीं जिसे निछावर किया जा सके। ज्यों ज्यों राधा एक के बाद एक रंग भरी पिचकारी उनपर डालती थीं, त्यों त्यों वे उनके रूप रस में सराबोर होकर मस्त हो रहे थे और हंस हंस कर वहां से भागे बिना खडे ख़डे भीग रहे थे।

बिहारी तो संयोग और वियोग निरुपण दोनों में सिध्दहस्त कवि हैं, संयोग हो या वियोग फागुन मास का विशेष महत्व है। प्रिय हैं तो होली मादक है और प्रिय नहीं हैं तो होली जैसा त्यौहार भी रंगहीन प्रतीत होता है। बसन्त ॠतु भी अच्छी नहीं लगती।

बन बाटनु पिक बटपरा, तकि बिरहिनु मत मैन।
कुहौ कुहौ कहि कहि उठे, करि करि राते नैन।।
हिय/ और सी हवे गई डरी अवधि के नाम।
दूजे करि डारी खरी, बौरी बौरे आम।।

बिहारी ने फागुन को साधन के रूप में लेकर संयोग निरुपण भी किया है। फागुन महीना आ जाने पर जब नायक नायिका के साथ होली खेलता है तो नायिका भी नायक के मुख पर गुलाल मल देती है या फिर पिचकारी से उसके शरीर को रंग में डुबो देती है।

जज्यौं उझकि झांपति बदनु, झुकति विहंसि सतराई।
तत्यौं गुलाब मुठी झुठि झझकावत प्यौ जाई।।
पीठि दियैं ही नैंक मुरि, कर घूंघट पटु डारि।
भरि गुलाल की मुठि सौं गई मुठि सी मारि।।

इस प्रकार हमारे प्राचीन कवियों ने फागुन मास और होली के रंग भरे त्योहार को अपने शब्दों में बडी सजीवता से प्रस्तुत किया है। होली का महत्व जो तब था, आज भी वही है। फागुन मास में बौराये आमों की तुर्श गंध और फूलते पलाश के पेडों के साथ तन मन आज भी बौरा जाता है। आज भी होली रूप रस गंध का त्यौहार है। होली उत्साह, उमंग और प्रेम पगी छेडछाड लेकर आती है। होली सारे अलगाव और कटुता और अपनी रंग भरी धाराओं से धो जाती है। इस रंगमय त्यौहार की महत्ता अक्षुण्ण है।

पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।

सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।

आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

संस्कृत साहित्य में बसंत ऋतु और बसंतोत्सव अनेक कवियों के विषय रहे हैं |महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘ऋतुसंहार’ में पूरा एक सर्ग ही ‘बसंतोत्सव’ को समर्पित है ! कालिदास के ‘कुमारसंभव’ और‘मालविकाग्निमित्र’ में ‘रंग ‘ नाम के उत्सव का वर्णन है ! भारवि व माघ तथा अन्य संस्कृत के कवियों ने बसंत की बहुत ही अधिक चर्चा की है ! हिन्दी व संस्कृत साहित्य के साथ- साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत,लोक गीत, और फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में भी होली का विशेष महत्त्व रहा है।


कविताएं

होली / हरिवंशराय बच्चन

1) यह मिट्टी की चतुराई है,

रूप अलग औ’ रंग अलग,

भाव, विचार, तरंग अलग हैं,

ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर

और निकटतम भी जाओ,

रूढ़ि-रीति के और नीति के

शासन से मत घबराओ,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।

होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,

होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,

भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,

होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

2) 

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

देखी मैंने बहुत दिनों तक

दुनिया की रंगीनी,

किंतु रही कोरी की कोरी

मेरी चादर झीनी,

तन के तार छूए बहुतों ने

मन का तार न भीगा,

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

अंबर ने ओढ़ी है तन पर

चादर नीली-नीली,

हरित धरित्री के आँगन में

सरसों पीली-पीली,

सिंदूरी मंजरियों से है

अंबा शीश सजाए,

रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

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होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र

कैसी होरी खिलाई।

आग तन-मन में लगाई॥

पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।

पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥

तबौ नहिं हबस बुझाई।

भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।

टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥

तुम्हें कैसर दोहाई।

कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।

आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।

(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)

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होली की बहार / नज़ीर अकबराबादी

हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।

जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।।

एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।

जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार।।

जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब।

मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार।।

तू बगल में हो जो प्यारे, रंग में भीगा हुआ।

तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।

और हो जो दूर या कुछ खफा हो हमसे मियां।

तो काफिर हो जिसे भाती है होली की बहार।।

नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम नजीर।

फिर बरस दिन के उपर है होली की बहार।।

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