अरब ,इस्लाम और मूर्ति पूजा 
संजय तिवारी 
अरब , इस्लाम और मूर्तिपूजा को लेकर बार बार विरोधाभासी तथ्य प्रस्तुत किये जाते है। अरब शब्द की उत्पत्ति और इस्लाम में मूर्तिपूजा के ऐसे प्रमाण अभी भी मौजूद है जिनकी तरफ आधुनिक कथित विद्वान् ध्यान तक नहीं देते। इस्लाम की उत्पत्ति बहुत पुरानी नहीं है। कुल चौदह सौ साल पहले की घटना है। स्वाभाविक है कि इस्लाम से पहले जो कुछ रहा होगा उसके पड़ताल के बाद ही इस्लाम पर बात की जानी चाहिए। अरब शब्द की उत्पत्ति के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण है कि यह शब्द देवगुरु शुक्राचार्य के वंशज अर्व  के नाम से सम्बन्ध रखता है। इस बारे में हम प्रमाण सहित आगे चर्चा करेंगे। अभी तो केवल कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर रहे है जिनमे इस्लाम को लेकर बानी बनायीं कई भ्रांतिया मिट जाती है। 





हिंदू धर्म ग्रंथों में भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र जो असुराचार्य (असुरों के गुरू) शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हैं उन्हें दानवों के गुरू के रूप जाना जाता है। 


          शुक्राचार्य अपनी पुत्री अरूजा को अपने अपने आश्रम के निकटस्थ
         सरोवर समीप रूकने का कहते हुऐ इस्लामिक लिपि में चित्रित हैं!

शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व / अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया,सो अरब देशों का भारत , महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से एतिहासिक सम्बन्ध प्रमाणित हैं , यहाँ तक की “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ के लेखक साईक्स का मत हैं की अरब का नाम महर्षि भृगु के पौत्र और्व के ही नाम पर पड़ा जो विकृत होकर “अरब” हो गया !


भारत के उत्तर – पश्चिम में इलावर्त था , जहा दैत्य और दानव बसते थे , इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी पश्चिमी भाग , ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मलित था, आदित्यों का निवास स्थान देवलोक भारत के उत्तर – पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रो में रहा था, बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्विक खोजों तक में जो भित्ति चित्र मिले हैं , उनमें भगवान विष्णु को हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया हैं, उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा था , इसी कारण देवों , दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध “देवासुर संग्राम” हुए!

देवताअों के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था की शुक्र उनके ( देवों ) के पक्षधर बन जायेंगे , लेकिन शुक्र दैत्यों के गुरु बने रहे, यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वो उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक रहे , साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ में लिखा हैं की ‘ शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब ‘ !!



अरब में शुक्राचार्य का इतना मान सम्मान हुआ की आज जिसे ‘काबा’ कहते हैं वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके अराध्य भगवान् शिव का ही मंदिर हैं (शुक्राचार्य, कवि ऋषि के वंशजों की अथर्वन शाखा के भार्गव ऋषि थे तथा श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार इनकी माँ काव्यमाता थीं,अत: काव्य शुक्र, काव्या की धारणा को पूरा आधार भी मिलता है )

हाँ,  कालांतर में काव्या नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ,  अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते हैं ,
“बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योsसुराणाम्“ 
– जैमिनिय ब्रा. (01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य ( शुक्राचार्य ) असुरों के
 प्राचीन अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल - ओकुल’ के 257 वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए 'लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा' ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया हैं , वह निम्नलिखित प्रकार से हैं -

“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे
व् अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन ||1||

वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सह्बी अरवे अतुन जिकरा
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंद्तुन ||2||

यकूलूनुल्लाहः या अह्लल अरज आलमीन फुल्ल्हुम
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन ||3||

वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहेतन्जीलन
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअनयोवसीरीयोनजातुन ||4||

जईसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन
व असनात अलाऊढन व होवा मश-ए-रतुन ||5||


 अर्थात (भावार्थ) -

हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे ) तू धन्य हैं , क्योकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना हैं ||1||
वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश , जो चार प्रकार स्तंभों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता हैं , यह भारत वर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ ||2||
और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता हैं की वेद , जो मेरे ज्ञान हैं ,इनके अनुसार आचरण करो ||3||
वह ज्ञान के भण्डार साम व यजुर हैं , जो ईश्वर ने प्रदान किये हैं , इसलिए, हे मेरे भाईयो , इनको मानो क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं ||4||
और दो उनमे से ऋक , अतर ( ऋग्वेद ,अथर्ववेद ) जो हमें भातृत्व की शिक्षा देते हैं और जो इनकी शरण में आ गया , वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता हैं ।।
कहते हैं कि इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्मे थे और जब उन्होंने अपने प्रकृतिपूजक (वैदिक/सनातनी?),, मूर्तिपूजक परिवार की परम्परा और वंश से सम्बन्ध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) और काबा के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गवाने पड़े !!
तत्कालीन समय में उमर-बिन-ए-हश्शाम (जिन्हे 'अबू हाकम' या "अबू जाही" भी कहते हैं)  का अरब में एवं केंद्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो की भगवान् शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी देवताओ के अनन्य उपासक थे , उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे ,, बाद में मोहम्मद के नए सम्प्रदाय इस्लाम ने उन्हें इर्ष्या वश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निंदा भी की .. !!
प्राचीन अरबों ने 'सिंध को सिंध ही कहा' तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशो को हिन्द कहना, लिखना ही निश्चित किया सिंध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक हैं , बिना किसी आधार के है क्योंकि सिंध किसी तरह अपभ्रंश हो कर हिन्द हो ही नहीं सकता  !!


  इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानी लगभग 1800 ईसवी पूर्व भी अरब में हिन्द एवं हिन्दू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था ,, अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थीतथा उस समय ज्ञान विज्ञान , कला कौशल , धर्म संस्कृति आदि में भारत (हिन्द) के साथ उसके प्रगाढ़ सम्बन्ध थे , हिन्द नाम अरबों को इतना पसंद रहा है कि उन्होंने हिन्द देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चो के नाम भी हिन्द पर रखे , 
उदाहरणार्थ
 हजरत मोहम्मद के चाचा अबू तालिब की बड़ी लड़की का नाम "उम्मे हानी बिन्त अबू तालिब" था जिसे लोग "फकीत" और "हिन्दा" भी कहते थे,,इस्लाम की किताबों और प्राचीन अरबी किस्सों तक में हिन्द और हिन्दा नाम बहुत ही प्रचलित रहा है।



अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल-ओकुल’ के 253 वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा 'उमर-बिन-ए-हश्शाम' की कविता हैं जिसमे उन्होंने हिंदे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया हैं !!
प्राचीन अरबी में Dushara - दुशारा यानि पहाडों का देवता कहा जाता था क्योंकि मोहम्मद साहब तक और इस्लाम के उदय से लेकर फैलने तक के प्रारंभिक समय तक तो अरब भी indigenous polytheistic beliefs अर्थात् स्वदेशी बहुदेववादी विश्वासों - देशज बहुदेववादी विश्वासों को मानने वाली सभ्यता का केंद्र ही रहा है और यही अकाट्य - शाश्वत सत्य है जिसे तो इस्लाम और सऊदी भी नहीं झुठला सकता!
HINDU RELIGION IS THE ONLY RELIGION WHERE GOD IS WORSHIPPED IN FEMININE FORM FROM VEDIC DAYS TILL TODAY.

नीचे तस्वीरों में क्रमश: 


1.)  मध्यपूर्व अरब देशों का देव 'अस्तारते' तथा सिंधु घाटी में मिले देव 'इन्द्र अपने वाहन ऐरावत' पर 


2.) अरब - यहूदी मिथकों की प्रमुख देवी 'लिलिथ' शेर सवारी पर, और हम हिंदुओं में दुर्गा मां शेर सवार हैं।



3.) अरबी सुमेरियन सभ्यता की देवी 'Inana - इनाना' की भी शेर सवारी थी, जबकि अरब में शेर कभी नहीं हुऐ!



4.) गौ पूजा प्राचीन मिस्र में , फराऊन / फेराओ भी गौ पूजक थे.


5.) सीरीयाई मूल का अरब देवता Qudshu (Kadesh) / कूदशू या कादेश भी शेर सवारी करता था!


यहाँ एक रोचक ऐतिहासिक व प्रमाणित तथ्य का ज्यों का त्यों बगैर अनुवाद उल्लेख करना चाहूँगा -
"Tutankhamen (1333 BC), the most famous boy king of Egypt was shown standing on a tiger. This is clearly due to Hindu influence. His great grandparents married two Hindu girls from Syria. Mittanni king Dasaratha (Tushratta) who ruled Syria Turkey regions gave his daughters in marriage to an Egyptian king. We have the evidence of Vedic Gods for the first time in Bogazkoy inscriptions (please read my posts on oldest Sanskrit inscriptions).  Seti, another king who ruled after Tutankhamen, was also shown on a tiger. Kings were considered Gods in Egypt."
"Bull (Nandhi) was the vahana of Hindu god Shiva. Indra was compared to bull in hundreds of places in the Hindu Vedas. A god known as Adad, holding Indra’s thunderbolt, was shown riding a bull in Akkadian sculptures."

इन प्रमाणों पर पिछले 70 वर्षो में आज़ाद भारत की अकादमियों में क्यों काम नहीं हुआ ? यह तो उन्ही का काम था ? आखिर इतिहास में किस प्रकार के शोध किये गए जिनमे अपनी धरती , अपनी संस्कृति को समझने की कोई कोशिश नहीं की गयी। क्या होता रहा आज़ादी के बाद ?

Disclaimer -
(संकलन, संपादन हेतु कई उपलब्ध जानकारियों का समावेश है, सिर्फ  मन की या  लिखी गयी  कहानी नहीं है, बल्कि उन प्रमाणों के साथ कही गयी बात है जो अभी कोई भी देख सकता है  .. )
स्वागत नए साल का 

अपने नायक पर ऐसा भरोसा 
संजय तिवारी 
 
अंग्रेजी कलेंडर से वर्ष बदल रहा है। 2016 जा रहा है।  2017 आ रहा है। मौसम में सर्दी है। राजनीति में गर्मी है। पांच राज्यो में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे है। पिछले पचास दिन से प्रधानमन्त्री ने काले धन के खिलाफ एक जंग छेड़ रखी है।  बिखरे विपक्ष की नज़र में देश परेशान  है।  केंद्र सरकार की नज़र में देश में सुधार हो रहा है। प्रधानमंत्री की योजना है , देश बदल रहा है। तमाशबीनों के लिए नोटबंदी के तमाशे में कई दृश्य रोचक दिख रहे है। जनता को एहसास है कि यह बदलाव की केवल बयार नहीं है , आंधी है। जयललिता परलोक जा चुकी है।  ममता मोदी पर चिल्ला रही है। मायावती अपने बैंक बैलेंस पर सफाई दे रही है। मुलायम सिंह आधे इधर , आधे उधर है।  राहुल गांधी भी कुछ कर रहे है , क्या कर रहे है पता नहीं। पूरे दस साल तक संसद में हमेशा मौन रहने वाले , देश की अर्थव्यवस्था की नींव की 1972  से ही मुख्य ईंट  बने रहे मनमोहन सिंह भी कुछ बोलने लगे है। गज़ब का माहौल है देश में।  पहली बार बैंको का भ्रष्टाचार जनता की नज़रो के सामने आ गया है। यकीन मानिये जनता सब देख भी रही है और समझ भी रही है। सच में देश बदल रहा है। 


आधी सदी पहले इस देश में एक बार ऐसा ही हुआ था।  अनाज कम पड़  गया तब देश के एक ईमानदार नायक की अपील पर देश के लोगो ने एक दिन का  भोजन त्याग दिया था। आज़ादी के बाद यह दूसरा मौक़ा है जब एक ईमानदार नायक पर फिर देश ने भरोसा किया है वरना नायकत्व पाने वालो ने तो देश को छलने के सिवा कभी विशवास दिया ही नहीं। देश की जनता प्रधानमंत्री की अपील पर 50 दिनों के बाद भी सहर्ष  तमाम कष्ट झेलते हुए भी सरकार के साथ खड़ी दिखाई दे रही है. इससे पहले 1965 में देश में यही दृश्य देखने को मिला था। उस समय  भारत-पाक युद्ध चल रहा था।  अमेरिका ने देश को पीएल-80 के तहत गेहूं आपूर्ति बंद करने की धमकी दी थी, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश के लोगों से एक दिन का उपवास रखने की अपील कर दी।  उनकी इस अपील का अनुपालन समग्र राष्ट्र  ने ऐसा किया कि उसके बाद के दिनों में देश खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर ही हो गया।  लेकिन उसके बाद कभी ऐसा अवसर नहीं आया जब देश में किसी नायक से जनता का इस तरह का संवाद हुआ हो। अब यही प्रश्न उठता है कि  देश के आम आदमी और नेता के बीच इन 51 सालों के दरमियान ऐसा क्या रहा कि समग्र जनता उनकी बात या अपील को पूरी तरह नहीं सुनती रही। 

वास्तव में यह बदलाव बहुत गंभीर है। इसको समझने के लिए न तो मीडिया की दृष्टि की जरूरत है और न ही भारत की प्रचलित राजनीति के सिधान्तो की। यह बदलाव न तो अकारण है और न ही प्रचलित सिधान्तो के तहत।  यकीन से कह सकते है कि इस बदलाव के पीछे भारत की समग्र आध्यात्मिक संस्कृति है जिसकी ऊर्जा का संवहन देश के वर्त्तमान नायक के भीतर हो रहा है।  यह किसी नरेंद्र दामोदर दास मोदी की ऊर्जा भर नहीं है बल्कि वास्तव में उस तपस्वी राष्ट्र संत राजनेता की तपश्चर्या से उपजी अलौकिक शक्ति के बल पर उठाने वाली चेतना का विस्तृत स्वरुप है जिसने भारत को आज विश्व विजय की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है।  इस बदलाव में वसुधैव कुटुम्बकम है।  इस बदलाव में येन त्यक्तेन भुञ्झिता है।  इस बदलाव में विश्व कल्याण की ऊर्जा है।  इस बदलाव में तमसो माँ ज्योतिर्गमय का प्रज्ज्वलित अंश है।  इस बदलाव में युवा भारत की समग्र ऊर्जा लग चुकी है।  यह उस राजनीतिक आचार्यपुरुष के नेतृत्व की क्षमता का परिणाम है जिसकी ललक पाने को दुनिया बेताब है। सच में भारत बदल रहा है। 


 आखिर यह बदलाव इससे पहले क्यों नहीं हुआ। क्यों किसी मीडिया मंच , अख़बार या चैनल को यह नहीं याद आ रहा है की इस देश की जनता हमेशा अपने नायको पर भरोसा तो करती रही लेकिन नरेंद्र मोदी से पहले और लालबहादुर के बाद किसी ने जनता के विशवास को जीतने की कोशिश की ही नहीं। नोटबंदी के बाद से ही देश के मीडिया मंचो पर लंबी लंबी बहस होते देख रहा हूँ। हँसी भी आती है और सकोच भी होता है।  कितने सन्दर्भ हीं युग में पहुच गया है भारत का मीडिया। चिंता होती है। इस मीडिया के भरोसे देश की असली तस्वीर कैसे दिखा सकेंगे हम।  इन पचास दिनों के सैकड़ो घंटो की बहस में किसी मीडियाकर्मी या वह बैठे विद्वान , विशेषज्ञ को भारत का केवल पचास साल पुराना घटनाक्रम याद करते नहीं देखा ,या सुना। यही देश तो है जिसने जब अपने नेता पर भरोसा किया तो भोजन करना  ही छोड़ दिया ?

आजादी के पूर्व से भारतीय राजनीति की नब्ज पहचानने वाले विशेषज्ञ इसे नेता और जनता के बीच संवादहीनता और एक दूसरे पर अविश्वास को बड़ा कारण मानते हैं। यह आम आदमी और नेता के बीच यह अविश्वास एक दिन में नहीं पैदा हुआ, इतिहास गवाह है कि सवधीनता संग्राम के दिनों में टर्की के सुल्तान के तख्ता पलट से भारत की आजादी का कुछ भी लेना देना नहीं था. भारतीय मुसलमान आजादी की लड़ाई में तन, मन, धन से जुटा था, फिर भी आजादी के संघर्ष में उनका सहयोग लेने के नाम पर कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन चलाया।  हिन्दू मुस्लिम दो राष्ट्र  की अवधारणा के तहत पं. नेहरू, गांधी जी की अनिच्छा के विपरीत देश विभाजन स्वीकार कर सर कटा कर सरदर्द की दवा करने जैसा काम करने के बावजूद आजाद भारत में उसी नीति पर चलते रहे।  इतना ही नहीं पं. नेहरु के कार्यकाल में ही तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम पर पहला रेल इंजन खरीद घेटाले का आरोप लगा था, उसके बाद से मूदडा काण्ड, धर्मतेजा काण्ड, नागरवाला काण्ड आदि घोटालों की चर्चा स्व. इंदिरागांधी के कार्यकाल में आर्थिक रही तो आपातकाल के रूप में संवैधानिक रहीं।  तत्कालीन संचारमंत्री सुखराम तो अपने घर में नोटों की गड्डियों को ही गद्दे की तरह उपयोग कर सोते मिले थे। इससे पूर्व लगभग 18 माह का स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी का ही कार्यकाल ऐसा रहा जिसमें देश की जनता को सही अर्थों में अपने राष्ट्रीय  कर्तव्य बोध का एहसास हुआ और उन्होंने  अपने राष्ट्रीय  व नागरिक कर्तव्यों का सहर्ष पूरी ईमानदारी से पालन भी किया। एक समय देश के युवाहृदय सम्राट कहे जाने वाले राजीव गांधी का कार्यकाल भी विवादों और घोटालों के बीच ही बीता। उनके एक भ्रष्टाचार की पर्ची से फ़कीर बन कर देश की सत्ता पर काबिज हुए राजा मांडा , यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कुर्सी के लिए जी जातिगत आरक्षण का जहरीला बीज बोया उसकी फसल तो लहलहा ही रही है जिस पर यहाँ बात करने का कोई औचित्य नहीं है। जहा तक मोदी से ठीक पहले  विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं कथित मिस्टर क्लीन डा. मनमाहन सिंह के  दस वर्ष के  कार्यकाल की बात है  तो इस अवघि को  कर्तव्यहीनता,प्रशासनीक पंगुता, शासन की इच्छा शक्तिविहीनता के अलावा घोटालों और लूट का अंतहीन काल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।  आज भी देश दिल्ली सरकार के  ट्रक खरीद घोटाला,अगस्तावेस्ट लैंड घोटाला, टूजी घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और न जाने कितने अज्ञात घोटालों की जांच से जूझ रहा है।  कहने वाले तो यहां तक कहते है अपने लगभग 150 साल के शासन काल में अंग्रेजों ने इस देश को जितना नहीं  लूटा, मात्र सत्तर साल में ही कांग्रेसियों और अन्य गैर भाजपाई दलों ने उससे ज्यादा लूट लिया। लेकिन उस दिन को याद कीजिये जब नरेंद्र मोदी ने पहली बार भारत की संसद की देहरी पर कदम रखा।  कैसे शीश झुका इस राजनीति के संन्यासी का , अपने राजनीति के मंदिर की देहरी पर। यह कोई नाटक नहीं था , देश के सपूत के ह्रदय की भावना थी। 
  भारत के गाव की एक कहावत है- जाके पांव न फंटी बेवाई, ऊ का जाने पीर पराई। सच है कि गाँव , गरीब , किसान , बनिया , मज़दूर , कामगार आदि तबको की पीड़ा समझना बहुत आसान नहीं है। आज हँसी उन पर आती है जिन्होंने देश पर सत्तर साल शासन किया और अब किसानों के दर्द से खुद को जोड़ने की असफल नौटंकी कर के पता नहीं किससे संवाद कर रहे है। इसके विपरीत खुला खेल फरुख्खाबादी खेलने वाले नरेन्द्र दामोदर दास  मोदी ने मई 2014 में शपथग्रहण के साथ ही आम आदमी से अपने को सीघे जोड़  ही नहीं लिया बल्कि मन की बात कार्यक्रम के तहत हर माह देश के लोगों से संवाद करते आ रहे हैं. अपनी हर योजना पर वह देश की  जनता से राय लेते आ रहे हें, अपने हर कदम पर जनता की मोहर लगवाते आ रहे हैं. पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा लम्बे समय से कालेधन की जांच के लिए एसआईटी गठित करने के सर्वोच्च न्याायालय के फैसले को दबाए रखने के विपरीत मोदी ने कैबिनेट की पहली बैठक में ही एसआईटी गठित कर दी. तब से लगातार वे विभिन्न अवसरों पर कालेधन वालों को सचेत करने के साथ सुधर जाने का अवसर भी देते रहे. बावजूद सत्तर साल में यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार बनी यह मानसिकता कि सब चलता रहता है, आखिर मशीनरी तो पहले ही वाली ही है न, के कारण कालेधल कुबेर बेखौफ रहे, पर अब उन्हें महसूस हो रहा है कि ढ़ाई साल में ही प्रशासनिक तंत्र का एक भी कल पूर्जा बिना बदले ही मोदी ने बहुत कुछ बदल दिया. यह केवल आर्थिक सुधार का आंदोलन ही नहीं है बल्कि यह एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन है जिसके गर्भ से देर से ही रही भारत में प्रखर राष्ट्र की ज्योति प्रज्ज्वलित हुए बगैर नहीं रहेगी. दिक्कत उन्हें होगी जो आज तक इस देश को अपनी मातृभूमि की बजाए होटल/धर्मशाला मानते हुए जीते आ रहे हैं।  
जिनको अभी भी मोदी की मंशा पर शक हो वे पिछले पचास दिनों के ही घटनाक्रम से बहुत कुछ सीख सकते है। नोटबंदी के बाद हो चुकी अब तक की कार्रवाइयां किन लोगो के खिलाफ हुई और किस दल के कितने लोग लपेटे में आये।  मोदी ने इस कार्रवाई में कही भी किसी  भाजपाई धनपशु को बचने का प्रयास नहीं किया। सबका साथ सबका विकास का नैरा लेकर लोकसभा पर काबिज हुए नरेन्द्रमोदी के इस अभियान की अभी तो यह शुरुआत भर है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि मोदी पर जनता को भरपूर भरोसा है और मोदी जनता के इस भरोसे को नहीं तोड़ेंगे , यह भरोसा हमें भी है। 
हर दूसरे दिन 15 -17 करोड़ कहां से आये बहन जी ?

संजय तिवारी 

नोटबंदी के बाद से ही लगातार प्रेस बुलाकर इसकी आलोचना कर रही बसपा चीफ मायावती पर नकेल कसनी शुरू हो गयी है। बसपा के दिल्ली के एक खाते में इस अवधि में हर दूसरे दिन  15 -17 करोड़ रुपये जमा किये गए है। अब यह मायावती को बताना तो पड़ेगा ही की यह गंगा कहा से बहती हुई उनके खाते तक आयी है। ताज़ा घटनाक्रम यह है कि  यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया की करोल बाग ब्रांच में बसपा के खाते में 104 करोड़ और मायावती के भाई आनंद कुमार के खाते में 1.43 करोड़ रुपए की रकम जमा करने का खुलासा हुआ है। एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट (ईडी) ने सोमवार को बैंक में सर्वे के दौरान यह मामला पकड़ा। दोनों ही खातों में रकम नोटबंदी के बाद जमा की गई। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट इस मामले में बीएसपी से पूछताछ कर सकता है।जांच में पता चला है कि नोटबंदी के बाद आनंद कुमार के खातों में 18.98 लाख रुपए पुराने नोटों में जमा किए गए। बैंक के रिकॉर्ड्स के मुताबिक, बसपा के खाते में 101 करोड़ रुपए की रकम एक हजार और 3 करोड़ रुपए पांच सौ के पुराने नोटों में जमा कराए गए।करीब 15-17 करोड़ रुपए हर दूसरे दिन जमा किए गए।

 ईडी ने बैंक से दोनों खातों के बारे में ब्योरा मांगा है। सीसीटीवी फुटेज और केवाईसी दस्तावेज भी मांगे गए हैं। माना जा रहा है कि आयकर विभाग को भी इस बारे में जानकारी भेजी जाएगी जो पार्टी के चंदे की पड़ताल कर सकती है। ईडी जल्दी ही आनंद को नोटिस जारी कर सकता है। आयकर विभाग आनंद के मामले में टैक्स चोरी के प्रावधानों के तहत जांच कर सकता है।एक अन्य घटनाक्रम में आयकर विभाग ने मायावती और आनंद कुमार के खिलाफ इनकम टैक्स न देने के मामले में 5 पिटीशन सुनवाई के लिए दोबारा लिस्टेड की है। यूपी में विधानसभा चुनाव पास होने के मद्देनजर यह कदम काफी अहम माना जा रहा है। ये पिटीशन्स विभिन्न व्यक्तियों की ओर से दाखिल की गई हैं, जिनमें वित्तीय धांधली या टैक्स चोरी का आरोप लगाया गया है। 
 केंद्र की नयी नीति 
इस बीच केंद्र सरकार ने और भी कई उपाय करने शुरू कर दिए है। पुराने नोटों को लेकर नायर सिरे से एक नयी नीति 30 दिसंबर तक आने जा रही है।  इसके मुताबिक, 30 दिसंबर के बाद 10 हजार या इससे ज्यादा के पुराने नोट रखने पर 50 हजार रुपए का जुर्माना लग सकता है। मीडिया रिपोर्ट्स में इसकी जानकारी सामने आई है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, पुराने नोटों के लेन-देन पर यह ऑर्डिनेंस 30 दिसंबर के पहले लाया जा सकता है। बता दें कि 30 दिसंबर तक पुराने नोट सिर्फ रिजर्व बैंक में बदलने की इजाजत दी गई है। हालांकि, अभी तक सरकार ने इस कानून को तोड़ने पर दी जाने वाली सजा के बारे में कोई फैसला नहीं किया है, लेकिन रिपोर्ट्स के मुताबिक 10 हजार से ज्यादा के पुराने नोट रखने वालों पर कम से कम 50 हजार रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है। रिपोर्टस में कहा गया है कि कानून तोड़ने वालों पर क्रिमिनल केस दर्ज किया जा सकता है और जुर्माने का फैसला मजिस्ट्रेट पर छोड़ा जा सकता है। ऑर्डिनेंस के ड्राफ्ट में रिजर्व बैंक की सिफारिशों को भी शामिल किया गया है। बता दें कि नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर को 500 और 1000 के पुराने नोटों को बंद करने का एलान किया था। देश की कुल करंसी का करीब 86 फीसदी (15.44 लाख करोड़) यही नोट थे। आरबीआई के मुताबिक, करीब 13 लाख करोड़ की ओल्ड करंसी बैंकों में वापस आ चुकी है। सरकार के कड़े रुख के बाद पुराने नोटों को जलाने, फेंकने या मंदिरों में दान देने के मामले सामने आए थे। सरकार ने ब्लैकमनी रखने वालों के लिए वन-टाइम विंडो ऑप्शन भी दिया था। इसके मुताबिक, अनडिक्लेयर्ड कैश का 50% टैक्स और पेनल्टी देकर इन्हें अकाउंट में जमा कराया जा सकता है।

अब बेनामी संपत्ति पर एक्शन
नोटबंदी के बाद नरेंद्र मोदी सरकार अब बेनामी संपत्ति पर एक्शन लेने की तैयारी कर रही है। पीएम ने रविवार को ‘मन की बात’ प्रोग्राम में भी इस तरफ इशारा किया था। न्यूज एजेंसी ने एक सीनियर अफसर के हवाले से बताया- मोदी सरकार टैक्स कानून की उन खामियों को भी खंगाल रही है जिसका फायदा उठाकर बेनामी संपत्ति खरीदी जाती है। टैक्स रिर्टन्स के अलावा बैंक ट्रांजेक्शंस और छापों में मिले दस्तावेज चेक किए जा रहे हैं। सरकार का मानना है कि देश के टैक्स कानून में कुछ ऐसी बड़ी खामियां हैं, जिनकी वजह से बेनामी संपत्ति और रियल एस्टेट में गलत तरीकों से इन्वेस्टमेंट किया जाता है। इस साल जुलाई तक हुए इनकम टैक्स रिटर्न की फाइलिंग को चेक किया जा रहा है। संदिग्ध लोगों या कंपनियों को सबसे पहले चेक किया जा रहा है। नोटबंदी के बाद इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने बाकी एजेंसियों के साथ कोऑर्डिनेट कर देश के कई हिस्सों में छापे मारे। इनमें कई कैश और गोल्ड के अलावा अहम दस्तावेज भी मिले। अब इन्हीं दस्तावेजों को बारीकी से चेक किया जा रहा है। आईटी डिपार्टमेंट और बाकी एजेंसियां देशभर में कुछ खास अकाउंट्स पर नजर रख रही हैं। इन अकाउंट्स को ऑपरेट करने वालों पर शक है कि उन्होंने बेनामी संपत्तियां खरीदीं या रियल एस्टेट सेक्टर में गैरकानूनी तरीकों से इन्वेस्टमेंट किया।
अब इसमे  दिक्कत ये है कि भारत में लैंड रिकॉर्ड्स बहुत साफ-सुथरे और सिस्टमैटिक नहीं हैं। लिहाजा, इनकी बारीकी से जांच में परेशानियां आएंगी।माना जाता है कि नेताओं, कारोबारियों और एनआरआई लोगों ने रिश्तेदारों या करीबियों के नाम से प्रॉपर्टीज में इन्वेस्ट किया है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, देश के करीब-करीब हर शहर में पांच से दस फीसदी बेनामी संपत्तियां हैं। नवंबर में सरकार ने बेनामी प्रॉपर्टी ट्रांजेक्शन एक्ट लागू किया था। इस कानून के मुताबिक, अगर किसी शख्स ने किसी दूसरे के नाम से प्राॅपर्टी खरीदी तो उसको सात साल की सजा हो सकती है। इसके अलावा वो प्रॉपर्टी भी जब्त की जा सकती है। मोदी ने रविवार को मन की बात में करप्शन और नोटबंदी की चर्चा करते हुए कहा था,
 ''मैं विश्वास दिलाता हूं कि ये पूर्णविराम नहीं है। रुकने या थकने का सवाल ही नहीं उठता। आपको मालूम होगा कि बेनामी संपत्ति का कानून 1988 में बना था। लेकिन कभी भी उसके नियम नहीं बने, उसे नोटिफाई नहीं किया है। हमने उसे निकालकर धारदार बनाया है। आने वाले दिनों में वह काम करेगा।''
क्या होती है बेनामी संपत्ति? कैसे बनाते हैं?

 बेनामी संपत्ति का मतलब ऐसी प्रॉपर्टी, जिसका ओनर कागजों में कोई और है, जबकि उसके लिए पेमेंट किसी और ने किया है। काली कमाई करने वाले लोग बेटा-बेटी, पति-पत्नी के लिए ऐसी प्रॉपर्टी खरीदते हैं, लेकिन इनकम टैक्स से जुड़े डिक्लेरेशन में उसका जिक्र नहीं करते। कई लोग नौकर-चाकर, पड़ोसी, दोस्तों और रिश्तेदारों के नाम पर प्लाॅट्स, खेती की जमीन, फ्लैट्स खरीद लेते हैं। दरअसल, दूसरे के नाम पर रजिस्ट्री करवाकर उस प्राॅपर्टी की वसीयत बनवा ली जाती है। इसमें वही शख्स वारिस बन जाता है, जिसने काली कमाई से वह प्रॉपर्टी खरीदी होती है। वसीयत के साथ बेनामी मालिक से एक पावर ऑफ़ अटाॅर्नी करवाई जाती थी। इस तरह वह उस प्राॅपर्टी को बेचने के हक दूसरे को दे देता है। बेनामी मालिक से उस प्राॅपर्टी की सेलडीड भी बनवाई जाती थी। इसमें वह उस प्राॅपर्टी का पूरा पेमेंट लेकर असली मालिक या उसके भरोसेमंद शख्स को बेचने का करार कर लेता है।  इस तरह ब्लैकमनी रखने वाला शख्स बिना अपना नाम उजागर किए अपना पैसे इन्वेस्ट कर देता है और प्रॉपर्टी पर कब्जा कर उसके पूरे अधिकार अपने पास रख लेता है।


साक्षात्कार अनुपम से -



अनुपम मिश्र (जन्म 1948 -निधन 2016) 


संजय तिवारी 
  यकीन करना कठिन लगता है , अनुपम भाई नहीं रहे। पिछले पांच दशको में पर्यावरण शब्द जब भी सामने आया है ,उसी पल अनुपम मिश्र का चेहरा भी दिखने लगता है। अनुपम अर्थात जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद् । पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यानाकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के अनुपम मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली , वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया । उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने अहम काम किया । गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के आयोजनों के अलावा इस प्रकृति पुरुष से लगभग तीस वर्षो का संपर्क रहा है । उत्तराखंड की त्रासदी के बाद दिल्ली में उनसे आखिरी बार मिला था ,तब यह आभास भी नहीं था कि यह जीवन की ही आखिरी मुलाकात है।

अनुपम जी का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्र और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के घर  सन् 1948  में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968 में संस्कृत पढ़ने के बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया। तब से आज तक वही काम, वहीं पर। गाँधी मार्ग पत्रिका का संपादन। कुछ लेख, कुछेक किताबें। "आज भी खरे हैं तालाब" को खूब प्यार मिला। कोई दो लाख प्रतियां छपी।जब सरकार को पर्यावरण जैसे किसी शब्द कि परवाह नहीं थी, तब उन्होंने गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष स्थापित कर दिया था।
 अस्सी के दशक में उनकी पुस्तक हमारा पर्यावरण, हिंदी में देश के समग्र पर्यावरण अध्ययन का पहला दस्तावेज था। “आज भी खरे हें तालाब” ने  समाज और सरकार कि जल संरक्षण के प्रति दिशा ही बदल दी। गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। वह इस प्रतिष्ठान की पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक भी थे । उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया है। वे 2001  में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे।  वह गोरखपुर एन्विरोंमेंटल एक्शन ग्रुप के सलाहकार भी थे , इस नाते रियो सममिट से लेकर जलवायु परिवर्तन सम्मलेन कोपेनहेगेन ,वारसा सम्मलेन और बाली तक के सभी आयोजनों में इसके प्रतिनिधि के रूप में डॉ शीराज़ को जोड़ कर अपनी चिंताए बाँटते रहे।  2009  में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था। आज भी खरे हैं तालाब के लिए 2011  में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अनुपम मिश्र ने इस किताब को शुरू से ही कॉपीराइट से मुक्त रखा है। 1996  में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। 2007 -2008  में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हें  कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।


प्रमुख चर्चित पुस्तके

राजस्थान की रजत बूँदें
अंग्रेज़ी अनुवाद में : राजस्थान की रजत बूँदें
आज भी खरे हैं तालाब 
 उनकी इस पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब जो ब्रेल लिपि सहित तेरह भाषाओं में प्रकाशित हुई की एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।
‘साफ माथे का समाज’ 



साक्षात्कार अनुपम से -

प्रकृति की चिट्ठी तो पढ़ो 



पर्यावरण को लेकर सरकार भी तो काफी जागरूक है ?
किस बात से जागरूकता दिखती है आपको। साल में 365 दिन होते हैं, लेकिन पर्यावरण दिवस सिर्फ एक ही दिन होता है। समाज और सरकार का दुर्भाग्य है कि वो पर्यावरण की चिंता सिर्फ एक ही दिन करते दिखते हैं। विकास का दौर चल रहा है और उसकी कीमत प्रकृति चुका रही है। ऐसे में कभी अरावली की खैर नहीं तो कभी हिमालय की खैर नहीं’। सरकार को जीडीपी बढ़ानी है। उसके लिए विशाल स्तर पर निर्माण का काम करना है। कहीं नोएडा बन रहा है, तो कहीं उससे भी बड़ा ग्रेटर नोएडा बन रहा है। कहीं गुड़गांव बन रहा है तो कहीं इंद्रप्रस्थ और कहीं उसका भी विस्तार इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन बन रहा है। इस विस्तार में होने वाले हर निर्माण कार्य में रेत लगती है। सीमेंट लगता है। अब ये सीमेंट, रेत कहां से आ रही है। सीमेंट कारखाने से निकलता है, वो भी पत्थर तोड़कर बनता है। लेकिन रेत को बनाने में नदियों को हजारों साल लगते हैं। वो पत्थरों को घिसकर रेत बनाती हैं और किनारों पर छोड़ती हैं। पहले हमारी जरूरतें इतनी नहीं थीं, तसलों में भरकर रेत-मिट्टी से छोटे-छोटे घर बनाते थे, मोहल्ले बस जाते थे, शहर बस जाते थे। अब तो लग रहा है जैसे सृष्टि का नए सिरे से निर्माण हो रहा है। नए नियम गढ़े जा रहे हैं। इसी के चलते रेत माफिया नाम से एक नया शब्द आया है। इसकी वजह से नदियों का रास्ता बदला जा रहा है। जंगल काटे जा रहे हैं।

पानी की कमी कहा ले जायेगी अब ?

हमें अपनी तकनीक पर अंधविश्वास हो चला है। हम दिल्ली को पीने का पानी 300 किलोमीटर दूर से लाकर दे रहे हैं। सरकारों का दावा होता है कि हम लोगों को प्यासा नहीं मरने देंगे। ये हो भी रहा है। सरकार सैकड़ों किलोमीटर दूर से पानी लाकर दे रही है। लेकिन शहर के सभी तालाब नष्ट कर दिए गए हैं। 1908 में दिल्ली राजधानी बनी थी, तब दिल्ली में 800 तालाब थे, अब एक भी नहीं है। हमारा भूजल खत्म हो चला है। ऐसे में अगर किसी दिन 300 किलोमीटर दूर भी पानी नहीं रहेगा तो? तो दिल्ली पर कितना बड़ा संकट आ जाएगा। यही संकट गांवों पर आने वाला है। आज शहर बनते हैं तो सबसे पहले भूजल को नष्ट करने का काम किया जाता है। लेकिन हम लोग 364 दिन सोते रहते हैं और एक दिन, पर्यावरण दिवस पर कहते हैं कि बूंद-बूंद बचाओ। ये डराने की बात नहीं है, चिंता की बात है। इसीलिए आज आप सिर्फ सोचें। कुछ अपने भविष्य के लिए सोचें। जिन्हें काम करना है वो बिना किसी मदद के कर रहे हैं। हम जैसे लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, लेकिन आम जन और सरकार सिर्फ एक दिन के लिए जागती है।

सरकार ने पर्यावरण मंत्रालय तो बनाया है , कुछ तो काम होता होगा ?

 आज सरकार के पास पर्यावरण मंत्रालय है, लेकिन वो आम लोगों के हित के लिए नहीं, बल्कि बड़े-बड़े प्रोजेक्टों की बाधा दूर करने के लिए है। सरकार सिर्फ पर्यावरण संबंधी नीतियों के नाम पर पर्यावरण का मजाक उड़ा रही है। उसे भविष्य की नहीं, वर्तमान की चिंता है। वो विकास तो कर रही है, लेकिन भविष्य के विनाश को नहीं देख रही। काश उनको भी सदबुद्धि आ जाए। पर्यावरण महज प्राकृतिक संसाधनों से मिलकर नहीं निर्मित होता बल्कि सुखद पर्यावरण बनता है मानव और प्रकृति के बीच परस्पर सहज संबंध से। 'विकास' शब्द को राजनेताओं ने निहित स्वार्थों के तहत् इस्तेमाल किया है।

  विकास का घमंड है हमारे नेताओं में?


 'विकास' शब्द हर भाषा में पिछले कुछ दिन पहले आया है। हिन्दी की बात नहीं कर रहा हूं, अंग्रेजी में भी प्रोग्रेस या डेवलमेंट इस अर्थ में इस्तेमाल नहीं हुआ है।देश के इतिहास के सबसे अच्छे स्वर्ण युग का भी पन्ना पलटकर देखें, उसमें आपको भगवान रामचन्द्र भी. यह कहते हुए कभी नहीं मिलेंगे कि वे अयोध्या में विकास करने के लिए राजा बनना चाहते थे। गांधीजी के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में 50 हजार पन्ने लिखे और बोले हैं और वे बाद में उनके जाने के बाद सरकार ने 'कलेक्टेड वर्ड्‍स ऑफ महात्मा गांधी' अंग्रेजी में और  'संपूर्ण गांधी वांड्‍मय' हिन्दी 500-500 पृष्ठों के 100 वाल्यूम छापे हैं। उसमें कहीं भी एक जगह गांधीजी यह कहते नहीं मिलते कि मैं भारत को इसलिए आजाद करना चाहता हूं कि इसका विकास कर सकूं।  यह एक्सस्ट्रीम दो उदाहरण दिए गांधीजी और रामराज्य, इसमें विकास कहीं भी नहीं मिलता है। आज के सम्मानीय नेता जब विकास की बात करते हैं तो उनकी मंशा समझा जाना चाहिए। विकास की परिभाषा है कि लोगों को सुख मिले और उनके दु:ख दूर हो। चलने के लिए अच्छी सड़कें मिले, पढ़ने के लिए अच्‍छे और साफ-सुथरे स्कूल हों, किसान अच्छी खेती कर सकें। अभी हाल ही में उत्तरा खंड में जो सबसे बड़ी त्रासदी हुई हिमालय की, उसे विकास के तराजू पर तौलें तो हमारे पहाड़ में सारी आबादी 6 से 7 हजार फुट पर बसी हुई है। समाज के विवेक ने कहा कि इससे ऊपर बसाहट की जरूरत नहीं। हमारे मंदिर 10 हजार फुट की ऊंचाई पर है। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर भी फोरलेन और हाईवे बनाया जा  सकता है। मानव भूमि का विकास कर सकते हैं, लेकिन देवभूमि का नहीं। हमारे नेताओं में विकास का करने का घमंड है।

   प्रकृति भेज रही है मानव को पोस्टकार्ड... बेटा तुम भूल गए...?

  उत्तराखंड त्रासदी के बाद हिमालय का यह दौर ऐसा है कि प्रकृति एक छोटा सा पोस्टकार्ड लिखकर भेज रही है कि 'बेटा तुम भूल गए कि हम कौन और तुम कौन।' हिमालय का इतिहास ढाई करोड़ साल से कम नहीं है।क्या हम हिमालय को कुछ सिखा  सकते हैं। क्या हम उसे रौंदकर निकल सकते हैं।हिमालय हमें बताना चाहता है कि पिछले 20-25 सालों में मनुष्य ने कुछ गलतियां की हैं, जिन्हें हिमालय ने उदारतापूर्वक क्षमा किया। उसने गलतियां बताने के लिए यह सब किया।

 केदारनाथ मंदिर ठीक जगह बना था, इसमें कंस्ट्रक्शन की कसर नहीं थी, इसलिए बचा। हमारे शरीर में जिस तरह से आंख लगाई गई है, उसी तरह हमारे चारों धाम के मंदिर बने हैं।  इस त्रासदी में शंकराचार्यजी द्वारा बनाया गया केदारनाथ मंदिर तो बच गया, लेकिन मनुष्य द्वारा बनाई गई शंकराचार्यजी की समाधि बह गई।इसे पता चलता है कि हमने इस घंमड के साथ मंदिर के सामने गुरु की समाधि का निर्माण किया। विवेक से निर्माण का काम नहीं किया।

 उत्तराखंड त्रासदी के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार मना जाएगा ?

 आज हमारा एक क्षण भी बिना बिजली के नहीं चलता है। बिजली ने हमें मोह में डाल दिया है, हम बिना बिजली के नहीं रह सकते हैं। हमें यह मोह रहता है कि बिजली हमेशा बनी रहे, जबकि शहरों में आज भी आठ घंटे का ब्लैकआउट होता है। हमें यह समझना होगा कि बिजली जिन चीजों से निर्मित होती है, उनकी एक सीमा है, जैसे कोयला का सीमित भंडार। पानी से बिजली हर जगह नहीं बनाई जा सकती है। परमाणु से बिजली बनाने में बचे कचरे को क्या किया जाएगा।  लकड़ी जलाने के बाद उसकी राख से बर्तन मांज सकते हैं, लेकिन परमाणु ऊर्जा की राख का कुछ नहीं कर सकते हैं।
 परमाणु ऊर्जा को लेकर भारत में इतना आग्रह क्यों है?मनमोहन सिंह जी की सरकार के समय संसद में प्रस्ताव पारित नहीं होने पर प्रधानमंत्री इस्तीफा तक देने पर अड़ गए थे ?

 विनोबाजी ने एक वाक्य कहा था कि 'यह जमाना स्वतंत्र ठोकर खाने का है। हम भी परमाणु ऊर्जा को लेकर ठोकर खाना चाहते हैं।  हम जापान, चेरनोबिल में हुए परमाणु हादसे से सबक नहीं लेना चाहते हैं। यह पीढ़ियों को अंगूठों को तोड़ने वाली ठोकर होती है। 5-10 दुनिया के लोगों से पूछना चाहिए कि अमेरिका की कंपनी हमें क्यों यह रिएक्टर देना चाहती है। ऐसे कदमों से देश का अंगूठा टूटेगा।

विकास का खेती से क्या रिश्ता बनता है ? इसे आप किस रूप में देखते है ?

  हर युग का एक झंडा होता है, इस युग में विकास झंडा है, जिसमें खेती शब्द नहीं आता है। विकास का मतलब होता है बड़ी-बड़ी बिल्डिंग। प्राकृतिक संसाधनों को रुपए में कैसे बदलें, कोयला बिक जाए, लौह अयस्क बाहर बिक जाए। रुपए गिरने का कारण खनन विरोधी आंदोलनों को महत्व दिया। खनन को रोक दिया गया। रुपया अगर ऊपर चढ़ता हो तो आदमियों का भी खनन करके बेच दिया जाना चाहिए। सारी पार्टियों का एजेंडा एक है- देश का विकास तुरंत करना।   प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से विकास करना चाहते हैं। हमें अनाज नहीं चाहिए। हम प्लास्टिक और कम्प्यूटर खाकर भी पेट भर लेंगे। हम कृषि को महत्व नहीं देना चाहते हैं।


श्रद्धा शब्द 

"हमारे समय का अनुपम आदमी. ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे. सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हंसमुख, कोर-कोर मानवीय. इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक. दो जोड़ी कुर्ते-पायजामे और झोले वाले इंसान. गांधी मार्ग के पथिक. 'गांधी मार्ग' के सम्पादक. पर्यावरण के चिंतक. 'राजस्थान की रजत बूँदें' और 'आज भी खरे हैं तालाब' जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक."
 ओम थानवी ,वरिष्ठ पत्रकार

जब जनसत्ता शुरू हुआ था तो अनुपम मिश्र हर हफ्ते पर्यावरण और पानी से जुड़े लेख लिखते थे । प्रभाष जोशी के वह मित्र थे । लेकिन जनसत्ता आते तो बाकी साथियों से भी मिलते । गांधी शांति प्रतिष्ठान में रहते थे सो पैदल ही आते थे । बहुत ही मामूली खादी के कपड़े और साधारण सा चप्पल पहने जब वह आते तो लगता जैसे साफ पानी की कोई नदी आ गईं हो । जे पी ने जब चंबल के डाकुओं का समर्पण करवाया था तब उन के साथ अनुपम मिश्र भी थे । प्रभाष जोशी भी । चिपको आंदोलन से भी वह जुड़े रहे । बहुत सारे काम किए , किताबें और लेख लिखे अनुपम ने पर जल्दी ही वह पानी को समर्पित हो गए । पानी में भी तालाबों के पानी पर । तालाबों के पानी को वह खरा बताते थे । जब तक भारत में तालाब रहेंगे , अनुपम मिश्र जीवित रहेंगे , पानी बन कर। उन्हें प्रणाम !
दयानन्द पांडेय , वरिष्ठ पत्रकार 


 जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन लगाने वाले अनुपम मिश्र का निधन बहुत बड़ी क्षति है । हिंदी के दिग्गज कवि और लेखक भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम बीते एक बरस से प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे थे। विकास की तरफ़ बेतहाशा दौड़ते समाज को कुदरत की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए 'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं।  मेरे लिए तो एक अभिभावक की तरह थे। 
डॉ शीराज़ अख्तर वाज़ेह, प्रख्यात पर्यावरणविद


"देश प्रेम के इस उन्मादी दौर में जब विकास के नाम पर सिर्फ विनाश की मूर्खतापूर्ण होड़ लगी है, आपका जाना हमें सही अर्थों में अनाथ कर गया."
 स्वानंद किरकिरे ,गीतकार


 "स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस दौर में वे चिट्ठी-पत्री और पुराने टेलीफोन के आदमी थे. लेकिन वे ठहरे या पीछे छूटे हुए नहीं थे. वे बड़ी तेज़ी से हो रहे बदलावों के भीतर जमे ठहरावों को हमसे बेहतर जानते थे."
 प्रियदर्शन, वरिष्ठ पत्रकार


"प्रकृति, पर्यावरण और हमारी बदलती जीवनशैली को लेकर उनकी चिंता, समुदाय आधारित उनके समाधान और खासकर राजस्थान में पानी को लेकर उनका काम कालजयी है. वे हमारे दिल में हमेशा रहेंगे."
सौमित्र राय पत्रकार 

 "सही अर्थों में भारतीय परिवेश, प्रकृति को गहराई तक समझने वाले अद्भुत विचारक,पर्यावरणविद, निश्चित ही अपनी तरह के विरले कर्मयोगी."
 कलापीनी कोमकली ,कुमार गंधर्व की बेटी

महावतार 


संजय तिवारी 
 भारत और भारतीयता को एक जन्म में समझ पाना बहुत कठिन लगता है। यह विलक्षण धरती है। जीवन के लगभग ५० वर्ष बीत चुके।  इसको जीतनी जानने की कोशिश करता हूँ उतना ही लगता है की कुछ जान नहीं पाया हूँ अब तक। भीतर एक अलग छटपटाहट होती है की मई तो नहीं ही जान सका लेकिन आने वाली पीढियां तो और भी नहीं जान पाएंगी , क्योकि भारत के हम लोग अपने भारत को ही छोड़ , सारी दुनिया के प्रपंच से नाव बिहान को सिंचित कर रहे है। दुःख तो इस बात का है कि अपने वर्त्तमान से तो विमुख हो ही रहे है , विरासत से कोसो दूर छूटते जा रहे है। पश्चिमी  दुनिया के लोग जब ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए  योगी, या दा  सेकैरेड्स ऑव इंडिया ,  या इस तरह की  इंडिया: दैट इज़ द  वंडर जैसी पुस्तके लेकर आते है तब हमारे यहाँ के कुछ जागरूक लोग उन्हें पढने के बाद अपनी तलाश में लगते है। यह ठीक है कि हम एक हज़ार साल से ज्यादा समय तक पराधीन रहे है लेकिन अब तो आज़ाद है ? पिछले 70 वर्षो में तो कुछ होना चाहिए था ? खैर यह बहस चलेगी तो बहुत लंबी हो जायेगी।  यहाँ तो मैं  महज़ एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ अपनी आध्यातिक सांस्कृतिक विरासत का जिसने आज भी दुनिया को अचम्भे में डाले हुए है। मई भी अभागा अनभिज्ञ था वर्षो तक लेकिन जब से महावतार बाबाजी के बारे में सजीव जानकारी मिली है उसी पल से अद्भुत ऊर्जा से सराबोर पा रहा हूँ। इस महँ आत्मा को लेकर मैंने पढ़ा कई जगह है लेकिन जानता नहीं था। आइये , भारत की इस महान विभूति के बारे में थोड़ी चर्चा करते है -  


महावतार बाबाजी के बारे में परमहंस योगानंद ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में 1945 में बताया था। उन्होंने बताया कि किस प्रकार हिमालय में रहते हुए बाबाजी ने सदियों से आध्यात्मिक लोगों का मार्गदर्शन किया है। बाबाजी सिद्ध हैं जो साधारण मनुष्य कि सीमाओं को तोड़ कर समस्त मानव मात्र के आध्यात्मिक विकास के लिए चुपचाप काम कर रहे हैं। बाबाजी ने ही आदि शंकराचार्य और संत कबीर को दीक्षा दी थी।
जिसने जब भी देखा एक ही उम्र बताई
बाबाजी के जन्मस्थान और परिवार के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चल सका। जो लोग भी उनसे जब भी मिले, उन्होंने हमेशा उनकी उम्र 25-30 वर्ष ही बताई। लाहिड़ी महाराज ने बताया था कि उनकी शिष्य मंडली में दो अमेरिकी शिष्य भी थे। वे अपनी पूरी शिष्य मंडली के साथ कहीं भी कभी भी पहुंच जाया करते थे। परमहंस योगानंद ने अपनी पुस्तक में बाबाजी से जुड़ी दो घटनाओं का उल्लेख किया है जिनपर एक बार तो भरोसा नहीं होता।
ऐसे टाल दी शिष्य की मृत्यु
पहली घटना का उल्लेख करते हुए योगानंद ने लिखा है कि एक बार रात में बाबाजी अपने शिष्यों के साथ थे। पास ही में अग्नि जल रही थी। बाबाजी ने उस अग्नि से एक जलती हुई लकड़ी उठाकर अपने एक शिष्य के कंधे पर मार दी। जलती हुई लकड़ी से इस तरह मारे जाने पर बाबाजी के शिष्यों ने विरोध किया। इस पर बाबाजी ने उस शिष्य के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि मैंने तुम्हें कोई कष्ट नहीं पहुंचाया है बल्कि आज होने वाली तुम्हारी मृत्यु को टाल दिया है।
मृत हो कर  यूं जिंदा हो गया
इसी तरह जो दूसरी बात का उल्लेख योगानंद ने किया है, उसके अनुसार एक बार बाबाजी के पास एक व्यक्ति आया और वह जोर-जोर से उनसे दीक्षा देने की जिद करने लगा। बाबाजी ने जब मनाकर दिया तो उसने पहाड़ से नीचे कूद जाने की धमकी दी। इसपर बाबाजी ने कहा 'कूद जाओ', उस शख्स ने आव देखा न ताव पहाड़ी से कूद गया। यह दृश्य देख वहां मौजूद लोग हतप्रद रह गए। तब बाबाजी ने शिष्यों से कहा- 'पहाड़ी से नीचे जाओ और उसका शव लेकर आओ।' शिष्य पहाड़ी से नीचे गए और क्षत-विक्षत शव लेकर आ गए। शव को बाबाजी के सामने रख दिया। बाबाजी ने शव के ऊपर जैसे ही हाथ रखा, वह मरा हुआ व्यक्ति सही सलामत जिंदा हो गया। इसके बाद बाबाजी ने उससे कहा कि 'आज से तुम मेरी टोली में शामिल हो गए। तुम्हारी ये अंतिम परीक्षा थी।'
साधकों की ऐसे करते हैं मदद, उन्हें पता ही नहीं चलता
बाबाजी दुनियादारी से दूर रहकर योग साधकों को इस तरह सहायता करते हैं कि कई बार साधकों को उनके बारे में मालूम तक नहीं रहता। परमहंस योगानन्द ने ये भी बतलाया है कि सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग की शिक्षा देने वाले बाबाजी ही हैं। बाद में लाहिड़ी महाशय ने अनेक साधकों को क्रिया योग की दीक्षा दी। लगभग 30 वर्ष बाद उन्होंने योगानंद के गुरु श्री युक्तेश्वर गिरी को दीक्षा दी। योगानंद ने 10 वर्ष अपने गुरु के साथ बिताए, जिसके बाद स्वयं बाबाजी ने उनके सामने प्रकट होकर उन्हें क्रिया योग के इस दिव्य ज्ञान को पाश्चात्य देशों में ले जाने का निर्देश दिया।


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हिमालय पर स्थित महावतार बाबाजी की गुफा।


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गुफा तक पहुंचने का मैप।

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महावतार बाबाजी की प्रतिमा।

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परमहंस योगानंदजी महाराज 

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परमहंस योगानंद के गुरु युक्तेश्वर गिरी।


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yoganand ji 

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लाहिड़ी महाशय 


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परमहंस योगानंद 

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परमहंस योगानंद के बचपन से ही उनके जीवन में चमत्कारिक घटनाएं होने लगी थीं। उनके द्वारा लिखित योगी कथामृत में इन बातों का विस्तार से सिलसिलेवार उल्लेख किया गया है। परमहंस योगानंद का बचपन का नाम मुकुन्द था। वो अपनी मां के देहांत के बाद घर से भाग गए थे। बड़ी मुश्किल से उनके बड़े भाई उनको ढूंढ़ कर वापस लाए थे।
लाहिड़ी महाराज ने कहा-'तम्हारा ये पुत्र एक दिन योगी बनेगा'
परमहंस योगानंद की मां ज्ञानप्रभा घोष भी लाहिड़ी महाराज की शिष्या थीं। एक दिन वह उनको लेकर लाहिड़ी महाराज के पास गईं तो उन्होंने उनसे कहा कि तुम्हारा ये पुत्र एक दिन योगी बनेगा। जब योगानंद 11 साल के हुए, उनकी मां का निधन हो गया। मां के निधन से दुखी योगानंद घर से भाग गए। पर उनके बड़े भाई मुश्किल से उनको वापस लेकर आए थे।
साधु ने कहा-'अगली बीमारी तुम्हारे लिए अंतिम होगी'
जब योगानंद के पिताजी लाहौर में थे, उस समय उनके घर एक साधु आया। उस साधु ने योगानंद की माता से कहा था कि-हे मां, अब तुम्हारा इस संसार में रहना ज्यादा समय तक संभव नहीं होगा। तुम्हारी अगली बीमारी तुम्हारे लिए अंतिम होगी। थोड़ी देर मौन रहने के बाद साधु ने कहा कि तुम्हें अमानत के लिए एक चांदी का ताबीज दिया जाएगा। लेकिन वह तुम्हें आज नहीं, कल मिलेगा।
'ताबीज अपने आप तुम्हारे हाथ में आ जाएगा'
साधु ने योगानंद की माताजी से कहा कि कल सुबह जब तुम ध्यान में बैठोगी तो चांदी का ताबीज अपने आप तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। इसे तुम्हें अपने बड़े बेटे अनंत को देना हैं और उससे कहना कि ये ताबीज वो तुम्हारी मौत के 14 महीने बाद छोटे भाई मुकंद को दे दे। जब ये ताबीज मुकुंद के पास पहुंच जाएगा, उसके कुछ समय बाद ये अदृश्य हो जाएगा। इसके अगले दिन वैसा ही हुआ जैसा साधु ने योगानंद की मां से कहा था।
ताबीज लेते ही एक अलग तरह की आध्यात्मिक अनुभूति हुई
इस घटना के दो साल बाद योगानंद की मां का निधन हो गया और उसके 14 महीने बाद ये ताबीज उनके बड़े भाई अनंत ने योगानंद को दिया। जैसे ही योगानंद के बड़े भाई ने ये ताबीज उनको दिया, उसी समय उनको एक अलग तरह की आध्यात्मिक अनुभूति हुई। ताबीज पर एक मंत्र उभरा हुआ था। योगानंद ने अपने पास कुछ दिन तक ताबीज रखा और फिर उसे संभालकर रख दिया। कुछ दिन बाद जब वह ताबीज देखने पहंचे तो वह उन्हें नहीं मिला।

बालक मुकुन्द (परमहंस योगानन्द) ने अपने बाल अवस्था से ही गेरूए कपड़े अपने आप पहनना शुरू कर दिया था। जब उनकी क्लास के दूसरे बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे होते तो वह चुपचाप दिन में और रात में श्मशान में जाकर घंटों बैठे रहते। इतनी कम उम्र में जलती चिताओं के बीच बैठे रहने के बाद भी उनको जरा सा भी डर नहीं लगता था।

परिजन जानते थे ये बनेंगे योगी
परमहंस योगानन्द भविष्य में योगी बनेंगे। ये बात उनके परिवार के लोग जानते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि किसी तरह उनको योगी बनने के रास्ते से रोका जाए। इसके लिए उनके परिजनों ने भरसक प्रयास भी किया, लेकिन उनके सारे प्रयास बेकार साबित हुए। इसी के चलते वह एक बार घर से भाग भी गए थे। तब उनके बड़े भाई उन्हें वापस घर लेकर आए थे। जब योगानन्द वापस आ गए तो उनके पिता ने कहा कि हम तुम्हारे रास्ते में बाधा नहीं बनेंगे, लेकिन हम इतना चाहते हैं कि तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो। पिता के इस आश्वासन के बाद तो उनके सपनों को जैसे पंख से लग गए।
स्कूल की जगह जाते थे श्मशान
इस सबके बाबजूद भी योगानंद की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह स्कूल की जगह श्मशान में अपना ज्यादा से ज्यादा समय गुजारते। सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और परीक्षाएं आ गई। उस समय उनके मित्र ने परीक्षा में आने वाले संभावित प्रश्न उनको बता दिए। परीक्षा से एक दिन पूर्व योगानंद को पार्क में कागज के कुछ टुकड़े पड़े हुए मिले। उन्होंने उन कागज के टुकड़ों को उठाकर देखा तो उसमें संस्कृत के कुछ श्लोक लिखे थे। उन कागज के टुकड़ों को वह एक पंडित के पास लेकर पहुंचे और उनसे इन पर लिखे श्लोक का अर्थ समझाने के लिए कहा। पंडित ने उन्हें श्लोक का अर्थ समझा दिया। आश्चर्य तो उस समय हुआ, जब परीक्षा में उन्हीं श्लोकों का अर्थ पूछा गया। इसके बाद योगानंद कलकत्ता से वाराणसी आ गए।

तिकोनी दाड़ी वाले गेरूआ कपड़े पहने हुए एक संत दिखाई दिए
वाराणसी की संकरी गलियों का एक अलग ही तरह का नजारा रहता है। योगानंद किसी काम से बाजार जा रहे थे। जैसे ही वह अपने निवास स्थान से निकले, उन्हें कुछ दूरी पर तिकोनी दाड़ी वाले गेरूआ कपड़े पहने हुए एक संत दिखाई दिए। योगानंद के आश्चर्य की सीमा न रही, ये संत बिलकुल वैसे ही थे, जो उन्हें प्राय: हर रात सपने में दिखाई देते थे। योगानंद दौड़कर उनके पास पहुंच गए। ये कोई और नहीं बल्कि लाहिड़ी महाराज के शिष्य युक्तेश्वर गिरीजी थे। उन्होंने योगानंद से बंगाली भाषा में कहा कि 'तुम आ गए मुकुन्द', 'मैं तुम्हारी कितने सालों से प्रतीक्षा कर रहा था।' इसके बाद वह योगानन्द का हाथ पकड़कर काशी के राणामहल इलाके में अपने डेरे में ले गए।

muslim fakeer aur yukteshwaranand ji
मुस्लिम फ़कीर को हिन्दू संत से मिली थी सिद्धिया

 बात 1935 की है। परमहंस योगानंद उत्तरी कलकत्ता में श्रीरामपुर कॉलेज के छात्र थे। वह पास में ही गंगा किनारे एक हॉस्टल में रहते थे। एक दिन उनके गुरू युक्तेश्वरजी पहली बार उनसे मिलने यहां आए। उन्होंने योगानंदजी से कहा जिस कमरे में तुम रह रहे हो, सालों पहले इसमें एक मुस्लिम फकीर रहता था। उसके पास चमत्कारिक शक्तियां थीं। उसने अपनी कई शक्तियों का प्रदर्शन मेरे सामने किया था।
युक्तेश्वरजी ने योगानंद से कहा कि ये बड़ी और दिलचस्प बात है। उस फकीर का नाम अफजल खान था। सालों पहले उसकी एक हिंदू संत से मुलाकात हुई और उसे अनेक सिद्धियां प्राप्त हो गईं। इसके पीछे की वजह बताते हुए युक्तेश्वरजी ने कहा कि सालों पहले बंगाल के एक गांव में एक संन्यासी अफजल से मिला। उन्होंने अफजल से कहा कि बेटा मुझे बहुत प्यास लगी है, थोड़ा पानी पिला दो। अफजल ने संन्यासी से कहा कि मैं तो मुसलमान हूं आपको पानी कैसे पिला सकता हूं। और हिंदू होते हुए मेरे हाथ से कैसे पानी पिएंगे।

ऐसे खुश हुए थे संत
संन्यासी ने कहा बेटा में तुम्हारे सत्य बोलने से खुश हूं। मैं इस तरह की बातों को नहीं मानता। तुम मुझे पानी पिलाओ। अफजल ने संन्यासी को पानी पिला दिया। पानी पीने के बाद संत ने उसे प्यार भरी नजर से देखा और कहा कि बेटे तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म बहुत अच्छे हैं। इस वजह से में तुम्हें एक योग क्रिया सिखा रहा हूं। इससे तुम्हारी अदृश्य लोकों में से किसी एक पर सत्ता स्थापित हो जाएगी। इससे जो शक्तियां तुम्हें मिलेंगी उनका उपयोग अच्छे उद्देश्य के लिए ही करना। भूल से भी इनका उपयोग किसी गलत काम के लिए नहीं करना।

संत ने दी थी चेतावनी
- संन्यासी ने अफजल से ये भी कहा कि मैं देख रहा हूं कि पिछले जन्म के कुछ गलत काम अभी भी तुम्हारे बीज में हैं। जिन्हें तुम कभी भी अच्छे कामों पर हावी नहीं होने देना।
- इसके बाद संन्यासी अफजल को सिद्धि की प्रक्रिया समझाकर चले गए। अफजल ने 20 साल तक इस सिद्धि का कठोर अभ्यास किया। धीरे-धीरे उसके चमत्कारों की चर्चा होने लगी। वह हवा में हाथ उठाकर कहता हजरत में मुझे ये चीज चाहिए, वह चीज पल भर में उसके सामने आ जाती।
- उसके इस काम से हमेशा उसके आसपास लोगों की भीड़ रहती। अदृश्य शक्ति के चलते वह अपनी हर छोटी से छोटी इच्छा को भी पूरी करने में समर्थ था।

गायब होने लगा सामान
युक्तेश्वरजी ने कहा कि समय के साथ अफजल गलत रास्ते पर चल पड़ा। उसने संन्यासी की चेतावनी को अनसुना करना शुरू कर दिया। वह जिस चीज को भी छूता वह थोड़ी देर बाद गायब हो जाती। इस कारण जिस घर-दुकान पर वह जाता लोग परेशान हो जाते। थोड़ी देर बाद उन्हें अपने यहां से कोई कीमती सामान गायब मिलता।

लोग होने लगे परेशान
युक्तेश्वरजी ने योगानंद को बताया कि उसने अदृश्य शक्ति के सहारे हीरे-जवाहरात की दुकानों से से खूब माल उड़ाया। इसी तरह उसे अपने लोगों के साथ ट्रेन से कहीं जाना होता तो वह टिकट खरीदने से पहले टिकिट की पूरी की पूरी गड्डी छू लेता फिर लेने से मना कर देता। और ऐसे ही ट्रेन में चढ़ जाता । ट्रेन में अपने लोगों को टिकिट बांट देता। उसके इस काम से कलकत्ता के लोग परेशान रहने लगे। पुलिस भी असहाय हो गई। कोई कुछ कर ही नहीं पा रहा।

युक्तेश्वरजी को दिखाया चमत्कार
- युक्तेश्वरजी ने योगानंद से कहा कि यह मकान पहले मेरे एक मित्र का था। उसकी अफजल से मुलाकात हो गई और उसने उसे यहां रहने के लिए बुला लिया। अफजल ने मकान के आसपास रहने वाले लोगों को बुला लिया। उन लोगों में एक मैं भी था (युक्तेश्वरजी)।
- उसने युक्तेश्वरजी से कहा तुम एक पत्थर अपना नाम लिखकर गंगा में फेंक दो। उन्होंने वैसा ही किया। थोड़ी देर बाद अफजल ने वह पत्थर घर में रखे एक बर्तन में से युक्तेश्वरजी से निकलवाया। उन्होंने देखा कि वह वहीं पत्थर है जिसपर उन्होंने अपना नाम लिखकर फेंका था।
ऐसे गायब कर दी घड़ी
उसी समय अफजल ने कमरे में खड़े एक व्यक्ति की घड़ी और सोने की चैन छूकर देखी, थोड़ी देर में वह गायब हो गई। सामान गायब होने से वह युवक उदास हो गया। उसने अफजल से घड़ी वापस करने कहा तो अफजल ने कहा तुम्हारे घर की तिजोरी में 500 रुपए रखे हैंस वह मुझे लाकर दो उसके बाद तुम्हारा सामान मिल जाएगा।

आसमान से आ गए सोने के बर्तन
इसी तरह अफजल ने वहां खड़े लोगों से अपने पसंद की खाने-पीने का सामान मांगने कहा जिसने जो बताया उसे पलभर में अफजल ने दे दिया। कुछ लोगों ने सोने के बर्तन में खाने के लिए भोजन मांगा को उन्हें अफजल में सोने के बर्तन में ही खाना खाने दिया। अचरज की बात तो यह है कि वह सिर्फ हवा हाथ उठा हजरत कहता था और पलभर बर्तन खनखने की आवाज आती और सोने की थालियों में खाना आ जाता।

हजरत से मंगाई शराब
युक्तेश्वर महाराज के साथ ही खड़े एक व्यक्ति से अफजल ने कुछ मांगने कहा। वह व्यक्ति शराब पीने का आदी था। उसने अपने लिए शराब देने के लिए कहा। अफजल ने हवा में हाथ ऊंचा कर कहा हजरत शराब की बोतल चाहिए। पलभर में वहां शराब की चार-पांच बोतल आ गईं।

ऐसे चली गई शक्ति
युक्तेश्वरजी ने योगानंद को बताया कि उस दिन के बाद वह अफजल से कभी नहीं मिले। सालों बाद कलकत्ता के एक अखबार में अफजल के बारे में खबर छपी थी जिसमें उसने बताया था कि किस तरह उसे एक हिंदू संत की कृपा से सिद्धि प्राप्त हुई थी। उसने ये भी बताया था कि संत ने सिद्धि के गलत उपयोग नहीं करने की चेतावनी दी थी। उसने ये भी बताया था कि किस तरह उसकी शक्ति स्वयं उन संन्यासी ने वापस ले ली।