अयोध्या : एक दर्शन त्रेता युग से पूर्व, त्रेता युगोपरांत और वर्त्तमान स्वरुप

संजय तिवारी 

अध्यक्ष ,
भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली 
9450887186 


इस ब्रह्माण्ड में सृष्टि की कल्पना के साथ ही अयोध्या का भी अस्तित्व कल्पित होने लगता है। आज का विज्ञान जिन करोडो ब्रह्मांडो की बात कहता है उनमे से जिस ब्रह्माण्ड पर हम है उसकी पृथ्वी और उस पर रची जा चुकी सृष्टि की जानकारी भी बहुत जरूरी है। पृथ्वी के अस्तित्व का इतिहास क्या है।  पृथ्वी पर सृष्टि के अस्तित्व का इतिहास क्या है। सृष्टि के जीवो का इतिहास क्या है। जीवो की सभ्यता का इतिहास क्या है। यह सब सदा से ही कौतुक के विषय रहे है।  समय समय पर सभ्यताओ के विकास के साथ ही तत्समय के विद्वान् लोग इन सभी विषयो को जानने की चेष्टा करते रहे है।  हमें फिलहाल उसके भेद , विभेद या तर्क आदि में नहीं जाना। यह प्रश्न भारत भूमि पर अवस्थित एक नगर के इतिहास से जुड़ा है जिसका नाम है अयोध्या। यह इतिहास भी इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योकि भारत भूमि की यह अयोध्या कोई सामान्य नगरी या बस्ती या शहर  मात्र नहीं है।

प्राचीन भारतीय वांग्मय , ग्रंथो ,श्रुतियो , स्मृतियों , पुराणों और इतिहास के गहन विचरण और अध्ययन के बाद जब भी अयोध्या शब्द सामने आता है तो उसी के साथ धरती पर मनुष्य के आविर्भाव की गाथा भी सामने आने लगती है। हजारो प्रमाण इस बात के मौजूद है कि अयोध्या नाम का नगर किसी ख़ास वर्ग , जाती , धर्म, मज़हब, सम्प्रदाय ,या अर्वाचीन शिल्पी द्वारा बसाया या बनाया गया नहीं है। अयोध्या इस पृथ्वी पर तब से है जब से यह सृष्टि है। अयोध्या ही वह स्थल है जहां मनुष्य नाम के प्राणी का सबसे पहले आविर्भाव हुआ और मानव सभ्यता का भी जन्म हुआ। भारतीय वांगमयो के अध्ययन और आचार्यो तथा चिंतको का निष्कर्ष है कि सृष्टि की रचना के समय मनुष्य के रूप में पहले मानव का आविर्भाव इसी अयोध्या में हुआ। धरती पर जब सृष्टिकर्ता ने मनुष्य को उतार उससे पहले उसने अयोध्यापुरी  दी और साथ में दिया श्रुति ग्रन्थ , ताकि जिस प्राणी को वह सृष्टि के लिए भेज रहे या उतार रहे है वह श्रुति से संस्कार प्राप्त कर संसार का सृजन कर्म आगे बढाए।
यह तो हमारी अज्ञानता या लापरवाही है कि सृष्टि की उत्पत्ति की उस कहानी को हम पढ़ और पढ़ा रहे है जिसमे मनुष्य को बन्दर की संतान बताया जाता है। वास्तव में यह हमारे अज्ञान का ही परिचायक है। हम पश्चिम के उस कथित विज्ञान को सबकुछ मानने लगे है जो चौक चौक कर एक एक कदम चलता है , अपने ही प्रतिपादन को आगे आकर खारिज़ करता है। पश्चिम की नक़ल के इस युग में हम अपने ही इतिहास को पूरी तौर पर भूल गए।  वे कथित सभ्य लोग जिनमे से किसी का इतिहास दो हजार साल , किसी का डेढ़ हजार साल का है , उनकी धारणाओ और उनके कथन को मील का पत्त्थर बना कर हम पाठ्यक्रम बना लिए और अपने खुद के उपलब्ध लाखो वर्ष के इतिहास को कूड़े में दाल दिए। एक पश्चिमी आदमी ने कह दिया की मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे ,और हमने मान लिया।  यह जानने का भी प्रयास नहीं किया कि मनुष्य शब्द आया कहा से है। 
यही से अयोध्या की भी कहानी शुरू होती है। भारतीय श्रुतियो और अन्य वांग्मयो में हजारो ऐसे प्रमाण है जो साबित करते है कि धरती पर प्रथम मानव हमारे आदि पुरुष मनु ही थे।  हम सभी मनु की ही संतान है। इसी मनु शब्द से मनुष्य शब्द का भो जन्म हुआ है। मनु के वंशज अर्थात मानव। यह कितने दुःख की बात है कि खुद की वंशावली होते हुए भी आज का मानव बंदरो में अपनी वंशावली की तलाश कर रहा है।
बहरहाल , यहाँ चर्चा अयोध्या की हो रही है।  अयोध्या के उस इतिहास की जो त्रेता युग से पहले , त्रेता युग में और त्रेता युग के बाद का है। इसको समझने के लिए जरूरी है की पहले युगों की काल गणना को संक्षेप में जान लिया जाय।  सृष्टि का इतिहास कल्प में और सृष्टि में मानव उत्पत्ति व उत्थान का इतिहास मन्वंतरों  में वर्णित किया गया है  और उसके पश्चात् मन्वन्तरों का इतिहास युग-युगान्तरों में विस्तार से समझाया गया है। 


'प्राचीन ग्रन्थों में मानव इतिहास को पाँच कल्पों में बाँटा गया है।

(1). हमत् कल्प 1 लाख 9 हजार 8 सौ वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष पूर्व तक,

 (2). हिरण्य गर्भ कल्प 85800 विक्रमीय पूर्व से 61800 वर्ष पूर्व तक, ब्राह्म कल्प 60800 विक्रमीय पूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक,

 (3). ब्राह्म कल्प 60800 विक्रमीय पूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक,

 (4). पाद्म कल्प 37800 विक्रम पूर्व से 13800 वर्ष पूर्व तक 

 (5). वराह कल्प 13800 विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर इस समय तक चल रहा है।

यह भी सौभाग्य का विषय है कि सृष्टि का सबसे शुद्ध काल मापन की व्यवस्था भारतीय प्रणाली में मौजूद रही है। भारत का प्राचीन साहित्य स्पष्ट करता है कि सृष्टि के उद्भव से अब तक का कितना समय बीत चूका है और सृष्टि की अब तक की उम्र क्या है।  



वैदिक संवत के अनुसार 

–“ द्वितीयपरार्धे वैवस्तमन्वन्तरे अष्टाविशंति – कलौ युगे ५११६ गताब्दे “ अर्थात यह वैवस्त मनु का अठाईसवा कलि है जिसके ५११६वर्ष बीत चुके है | ब्रह्मा के एक दिन को कल्प अथवा सृष्टि समय कहते है | यह कल्प १४ मन्वन्तरो अथवा एक सहस्त्र चतुर्युगियो का होता है | अब तक छह मन्वन्तर बीत चुके है | एक मन्वन्तर लगभग ७१ चतुर्युगियो का होता है | वैवस्त मनु की २७ चतुर्युगी बीत चुकी है | अठाईसवि में भी ( कृत , त्रेता और द्वापर ) तीन युग बीत चुके है | चौथे कलि के भी ५११६ वर्ष बीत चुके है | एक मन्वन्तर में 71

चतुर्युगियां होती हैं। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता,
द्वापर और कलियुग होते हैं। सतयुग में 1728000 वर्ष,
त्रेता में 1296000 वर्ष, द्वापर में 864000 वर्ष और
कलियुग में 432000 वर्ष होते हैं। इन चारों युगों में
कुल 4320000 वर्ष होते हैं। 71 चतुर्युगियों में कुल
306720000 वर्ष होते हैं। छः मन्वन्तर अर्थात
1840320000 वर्ष पूरे बीत चुके हैं और अब सातवें
मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी चल रही है। गणित करके देखा गया है की इस गणना के अनुसार यह समय 1960853115 वर्ष बनते है । यही समय मानव उत्पत्ति का है ।गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।



अयोध्या, मनु और मानव



भारतीय वाग्मय में उपलब्ध साक्ष्य साफ़ साफ़ कहते है की  साथ ही स्थापित आदि पुरुष मनु के साथ जो संस्कृति शुरू हुई उस संस्कृति की राजधानी  अयोध्या को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जन्म के साथ ही दैवी मर्यादा भी प्राप्त हो गयी। त्रेता युग में भगवान् राम के अवतरण के बाद अयोध्या को अगणित ग्रंथो ने नए ढंग से व्याख्यायित करना शुरू कर दिया। आज अयोध्या की स्थापना को संसार प्रभु श्री राम की जन्मस्थली के रूप में पहचानता है। शास्त्र कहते हैं कि अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वांचल में एक लोकगीत प्रचलित है 

गंगा बड़ी गोदावरी,

तीरथ बड़ो प्रयाग,

सबसे बड़ी अयोध्यानगरी,

जहँ राम लियो अवतार।



इससे पूर्व कि अयोघ्या और मनु के उद्भव पर बात की जाय , यह जरूरी लगता है कि  श्री राम और उनकी पूर्व वंशावली पर दृष्टिपात कर ली जाय। इस को देखने से बहुत से तथ्य स्वयम  मिल जाते है जिससे त्रेता के पूर्व तथा त्रेता में अयोध्या की स्थिति और महत्ता प्रमाणित होती है।  



राम के पूर्वजो का इतिहास 


 ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम श्रीराम का जन्म हुआ था ।🔆👌  वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। 
🔆👌 श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था और जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
 मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए।
 इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक पहुँची।
 इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
 रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है .....👌
 १ - ब्रह्माजी से मरीचि ।
 २ - मरीचि के पुत्र कश्यप । 
३ - कश्यप के पुत्र विवस्वान ।
 ४ - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। 
५ - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की। 
६ - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए।
 ७ - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। 
८ - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए। 
९ - बाण के पुत्र अनरण्य हुए।
 १० अनरण्य से पृथु हुए 
११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। 
१२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। 
१३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। 
१४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए।
 १५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। 
१६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित।
 १७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए। 
१८- भरत के पुत्र असित हुए। 
१९- असित के पुत्र सगर हुए। 
२०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था। 
२१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए।
 २२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
 २३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे।
 २४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है। 
२५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। 
२६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। 
२७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। 
२८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था।
 २९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए। 
३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। 
३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे।
 ३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए।
 ३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। 
३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए। 
३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए।
 ३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
 ३७- अज के पुत्र दशरथ हुए।
 ३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए। इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ। 

मनु की उत्पत्ति और अयोध्या 

अभगच्छत राजेन्द्र देविकां विश्रुताम्। 
प्रसूर्तित्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥
- महाभारत

सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति  ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई। स्वायंभुव 'मनु' को आदि भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं। संसार के प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु और प्रथम स्त्री थी शतरूपा। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाए। मानव उसे कहते हैं जिसमें जड़ और प्राण से कहीं ज्यादा सक्रिय है- मन। मनुष्य में मन की ताकत है, विचार करने की ताकत है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। चूँकि यह सभी 'मनु' की संतानें हैं इसीलिए मनुष्‍य को मानव भी कहा जाता है। स्वायंभुव मनु के ही कुल में आगे चलकर स्वायंभुव सहित कुल क्रमश: 7 मनु हुए और 7 होना बाकी है। महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख मिलता है। श्वेतवराह कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। इन चौदह मनुओं को ही जैन धर्म में कुलकर कहा गया है।

चौदह मनुओं के नाम:
 1.स्वायम्भु, 2.स्वरोचिष, 3.औत्तमी, 4.तामस मनु, 5.रैवत, 6.चाक्षुष, 7.वैवस्वत, 8.सूर्यसावर्णि, 9.दक्ष सावर्णि, 10.ब्रह्म सावर्णि, 11.धर्म सावर्णि 12.रुद्र सावर्णि, 13.रौच्य या देव सावर्णि, 14.भौत या इन्द्र सावर्णि।

प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। रुचि के आकूति से एक पुत्र उत्प‍न्न हुआ जिसका नाम यज्ञ रखा गया। इनकी पत्नी का नाम दक्षिणा था। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। पुराणों अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए जो अपने नामवाले मनवंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के दस पुत्रों मे से कवि, महावीर तथा सवन ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।
महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी जो आज मूल रूप में नहीं मिलती। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ रंग होता था और आज जाति।
प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकान्त में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए, लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही।
मनु ने सुनंदा नदी के किनारे सौ वर्ष तक तपस्या की। दोनों पति-पत्नी ने नैमिषारण्य नामक पवित्र तीर्थ में गौमती के किनारे भी बहुत समय तक तपस्या की। उस स्थान पर दोनों की समाधियां बनी हुई है।
स्वायम्भु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य, और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।

 मानव संस्कृति की राजधानी अयोध्या :

अयोध्या केवल एक नगर मात्र नहीं है।  वास्तव में यह पृथ्वी पर मानव जाति की उत्पत्ति , उसकी संस्कृति और उसके समग्र सभ्यताओ के विकास की वास्तविक राजधानी है।  आदि पुरुष मनु का आविर्भाव इसी अयोध्या के साथ हुआ और उन्ही मनु से मानव समुदाय का विकास संभव हो पाया , इसके लिए पश्चिम की किसी अवधारणा में जाने की आवश्यकता नहीं बल्कि केवल अपनी श्रुतियो, स्मृतियों और स्वयं के इतिहास को ही जानने की आवश्यकता है। पश्चिमी इतिहासकारो , जीवशास्त्रियों ,पुरावैज्ञानिको, जीवाश्म विज्ञानियों अथवा  दार्शनिको ने सृष्टि और मनुष्य की उत्पत्ति को लेकर चाहे जीतनी व्याख्याए दी हो परंतु उनकी कोई व्याख्या अभी तक सटीक नहीं पायी गयी।  उनकी सारी खोज कुछ हज़ार वर्षो पूर्व से शुरू होकर सिमट जाती है और इसीलिए वे कोई नतीजा नहीं दे पाते।  उनके पास आधार साहित्य ही नहीं है। इसलिए उनकी अवधारणाओं को वास्तविकता की कसौटी खारिज़ कर देती है। उदाहरण  के लिए उनकी बन्दर से मनुष्य के विक्सित होने की अवधारणा यदि सही होती तो आज धरती पर बंदर नहीं होने चाहिए थे क्यों की बंदर को विक्सित होकर मनुष्य बन जाना चाहिए था।  वास्तविकता यह है कि सृष्टि के उद्भव और उसके समग्र विकास की गाथा हमारी श्रुतियो और अन्य वांग्मयो में उपलब्ध है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ उन पर कोई कारगर अध्ययन या शोध नहीं हो पाया। श्रुति परंपरा का ज्ञान हमें मिलता तो रहा लेकिन बीते हज़ार वर्षो में भारत पर दूसरी सभ्यताओ के हमलो ने हमारो उस विरासत को तोड़ा और हमारी ज्ञानार्जन की अपनी परंपरा विलुप्त हो गयी।  अभी मात्रा 70 साल पहले ही हम आज़ाद हुए है लेकिन विडम्बना है कि अब ज्ञानार्जन की केवल पश्चिमी परम्पराओ पर हम जीने लगे है। वह पश्चिम जिसके पास शिक्षा और ज्ञान का कुल अनुभव ही महज कुछ सौ सालो का है। 

मानव संस्कृति के सभी महापुरुषों का उद्भव स्थल अयोध्या :

भारत वर्ष के चाहे जितने नाम हो। इसके चाहे जितने भी स्वरुप और दर्शन रहे हो पर सभी के मूल में अयोध्या ही मिलती है। चाहे भरत हो, ध्रुव हो , मान्धाता हो , बलि हो , सगर , भगीरथ , दिलीप, पृथु, सत्यवादी हरिश्चन्द्र , या विदेह महाराज जनक ही क्यों न हो , सभी पर भारत को गर्व है और इन सभी का सम्बन्ध अयोध्या से ही है।  इसी प्रकार हमारी ऋषि परम्परा में गुरु वशिष्ठ , विश्वामित्र , गौतम , शरभंग, श्रृंगी , परशुरामसे लेकर शतानंद तक सभी ऋषि मुनि और तपस्वियो के लिए अयोध्या ही कर्मभूमि रही है। 
वास्तव में इस सृष्टि में केवल एक मात्रा  अयोध्या ही है जिसने सभी युगों के सभी सभ्यताओ को जन्म लेते , फलते फूलते , विक्सित होते और नष्ट  देखा है।  अयोध्या ही साक्षी है सतयुग की , अयोध्या ही साक्षी है सतयुग में देव , मानव और उस समय की अन्य संस्कृतियों के संघर्ष की।  अयोध्या ने ही त्रेता युग में मानव और रक्ष सभय्ताओ का संघर्ष देखा है। अयोध्या ने ही द्वापर में संस्कारो और परिवारों का संघर्ष भी देखा है। अयोध्या ही है जो अब मनुष्य और उसकी श्वास के बीच का संघर्ष भी देख रही है। 

इतिहास में अयोध्या  


ऐतिहासिक दस्तावेज बताते है कि अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। ऐसी धारणा है कि स्वयं मनु ने अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण सेपता चलता है कि  स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्रजी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनायाथा। श्रीराम के पश्चात अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। कालिदास के महाकाव्य  रघुवंश  से ज्ञात होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। महाभारतमें अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था। घटजातक में अयोध्या (अयोज्झा) के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है। गौतमबुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तरकोसल और दक्षिणकोसल जिनके बीच में सरयूनदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनोंका नाम साथ-साथ भी मिलता है जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की जानकारी प्राप्त होती है। 



 बाल्मीकि रामायण में अयोध्या का उल्लेख कोशल जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है। पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिकसाक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है। ऐसा वर्णन मिलता है कि सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।

राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था। अभी उपलब्ध बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। भारतवर्ष के पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। प्रख्यात चीनी यात्री फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है,जो कन्नौज से 13 योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।

एक इतिहासकार मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव ज़िले में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है। नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है। थेरगाथा अट्ठकथा में साकेत को सरयू नदी केकिनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या ही हो। 



अयोध्या के प्राचीन अभिलेख 



शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र (द्वितीय शती ई. पू.) का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थशती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदासने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है। कालिदास ने उत्तरकौशल की राजधानी साकेत और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है,इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।



 काव्य साहित्य में अयोध्या 



अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।

 अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।

अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था, जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।

एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है।

साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।

 अयध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थलहै और इसका उल्लेख सप्तपुरियों में सर्वप्रथम किया जाताहै। पुराणों के अनुसार इन सात पुरियों या तीर्थों को मोक्षदायक कहा गया है। इनका संक्षिप्त विवरण इस 

प्रकार है-



'काशी कांची चमायाख्यातवयोध्याद्वारवतयपि,

  मथुराऽवन्तिका चैताः सप्तपुर्योऽत्र मोक्षदाः'; 

 'अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका, 

 पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।'




1. अयोध्या



अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

2. मथुरा



पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।  वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं। श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था। पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।  वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है। यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है। इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है। इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है। पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

3. हरिद्वार



हरिद्वार उत्तराखंड में स्थित भारत के सात सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में एक है। भारत के पौराणिक ग्रंथों और उपनिषदों में हरिद्वार को मायापुरी कहा गया है। गंगा नदी के किनारे बसा हरिद्वार अर्थात हरि तक पहुंचने का द्वार है। हरिद्वार को धर्म की नगरी माना जाता है। सैकडों सालों से लोग मोक्ष की तलाश में इस पवित्र भूमि में आते रहे हैं। इस शहर की पवित्र नदी गंगा में डुबकी लगाने और अपने पापों का नाश करने के लिए साल भर श्रद्धालुओं का आना जाना यहाँ लगा रहता है। गंगा नदी पहाड़ी इलाकों को पीछे छोड़ती हुई हरिद्वार से ही मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है।

4. काशी



वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है।

5. कांचीपुरम



कांचीपुरम तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो चेन्नई  से 45 मील की दूरी पर दक्षिण–पश्चिम में स्थित है। कांचीपुरम को कांची भी कहा जाता है। यह आधुनिक काल में कांचीवरम के नाम से भी प्रसिद्ध है। ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा जी ने देवी के दर्शन के लिये तप किया था। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया(हरिद्वार), काशी और अवन्तिका (उज्जैन) में इसकी गणना की जाती है। कांची हरिहरात्मक पुरी है। इसके दो भाग शिवकांची और विष्णुकांची हैं।

6. अवंतिका



उज्जयिनी का प्राचीनतम नाम अवन्तिका, अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। इस जगह को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है। महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था। उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है। इसेकालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है।

7. द्वारका



द्वारका का प्राचीन नाम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। बाद में त्रिविकम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है।  महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी। हरिवंश पुराण के अनुसारकुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी। विष्णु पुराण के अनुसार, अर्थात् आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर आनर्त पर राज्य किया। विष्णु पुराण  से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी-'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।



सात पुरियो के अन्तर्सम्बन्ध : 

इस बात के भी ऐतिहासिक प्रमाण है कि इन सातो पुरियो के अंर्तसंबंध भी बहुत गहरे है। अयोध्या , मथुरा ,काशी ,हरिद्वार ,कांचीपुरम, अवंतिका या उज्जैयिनी और द्वारिका के बारे में विस्तार से चर्चा  समीचीन नहीं है किन्तु भारत वर्ष में निवास करने वाले प्रत्येक सनातन मनुष्य के लिए इन सभी सात पुरियो की ख़ास महत्ता है। ख़ास यह है कि इनमे से किसी की चर्चा शुरू की जाती है तो सातो की चर्चा हो ही जाती है। 



 मध्यकाल में अयोध्या



मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई,जिसकोलेकर विगत कई दशको से विवाद बना हुआ है। मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के के ही थे । अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं, और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोईनिशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।



बौद्ध साहित्य में अयोध्या





बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।



धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्वारता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माणभी करवाया था।

संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त और दारुक्खंधसुक्त  का व्याख्यान दिया था।



अयोध्या और साकेत 



 अयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है।[ कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है। इसके विपरीत विभिन्नविद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट, आधुनिकलखनऊ, कुर्सी, पशा (पसाका),  और तुसरन बिहार इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों काअभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। 'अयोध्या' को संयुक्तनिकाय मेंएक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि 'साकेत' उससे भिन्न एक महानगर था। अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं।



 जैन ग्रन्थ के अनुसार



 जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्षअयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है किअयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को 'विनीता' भी कहा गया है।

जैन ग्रंथ महापुराण (आदिपुराण) के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अयोध्या में पांच तीर्थंकरों के जन्म तो हुए ही हैं, साथ ही वहाँ अन्य अनेक इतिहास भी जुड़ें। अयोध्या में वर्तमान में रायगंज परिसर में 31 फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ प्रतिवर्ष चैत्रकृष्ण नवमी के दिन भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याणक दिवस का वार्षिक मेला आयोजित होता है। जिसमें हज़ारों श्रद्धालु भक्त भाग लेकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। अयोध्या में स्वर्गद्वार मोहल्ले में ऋषभदेव का सुन्दर जिन मंदिर बना है। वह भगवान का वास्तविक जन्म स्थानमाना जाता है। सरयू नदी के निकट ही भगवान ऋषभदेव उद्यान बहुत सुंदर बना हुआ है, जहाँ देश- विदेश के हज़ारों पर्यटक प्रतिदिन आकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं।



राज डेविड्स के अनुसार



राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान लंदन और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी । विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थनकरते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं, जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उद्भव हुआ।



अयोध्या का इतिहास' पुस्तक से महत्वपूर्ण अंश-

''अयोध्या, जिसे अवध और साकेत भी कहते हैं, अत्यंत प्राचीन नगरी है। यह पहले उत्तरकोशल की राजधानी थी जिसमें "सुख-समृद्धि के साथ हिन्दू लोग जिस वस्तु की आकांक्षा करते या जिसका आदर-सम्मान करते हैं वह सब प्राप्त हो चुका था जैसा कि अब मिलना असंभव है और जो उस तेजधारी राजवंश का निवास स्थान था जो सूर्यदेव से उत्पन्न हुआ और जिसमें 60 निर्दोष शासकों के पीछे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र का अवतार हुआ। इस वीर को ऐतिहासिक समालोचना से मनुष्य की कल्पना का सर्वोत्तम निसर्ग सिद्ध करे या अद्र्धऐतिहासिक स्थान दें, इस पर विचार करना व्यर्थ है। इतिहास का उस प्रभाव से सम्बंध है जो इनके चरित्र का इस बड़ी आर्यजाति के सामाजिक और धार्मिक वि·श्वास पर है और इतिहास यह भी देखता है कि इनकी जन्म-भूमि की यात्रा को बड़ी श्रद्धा और भक्ति से यात्रियों की ऐसी भीड़ आती है, जैसी किसी दूसरे तीर्थ में नहीं।'

अयोध्या का नाम 7 तीर्थों में सबसे पहले आया है-

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्रवन्तिका।

पुरी द्वारावतीचैव सप्तैता मोक्षदायिका:।।

छंद में अयोध्या का नाम पहले आना उसके प्राधान्य का प्रमाण नहीं, परंतु यह ठीक नहीं, एक प्रसिद्ध श्लोक और है जिससे प्रकट है कि अयोध्या-तीर्थ-रूपी विष्णु का मस्तक है-

विष्णो: पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्ये च काञ्चीपुरीन्

नाभिं द्वारवतीन्तथा च हृदये मायापुरीं पुण्यदाम्।

ग्रीवामूलमुदाहरन्ति मथुरां नासाञ्च वाराणसीम्

एतद्ब्राह्मविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरीं मस्तकम्।।

शेष 6 तीर्थों में से अनेक की बड़ाई इसी कोशल-राजधानी के सम्बंध से हुई है। श्रीकृष्ण जी के जन्म से पहले मथुरा को शत्रुघ्न ने बसाया था, जिनको श्रीरामचंद्र ने यमुनातट पर बसे हुए तपस्वियों के सताने वाले लवण को मारने के लिए भेजा था। माया या मायापुरी हरिद्वार का नामांतर है जहां अयोध्या के राजा भगीरथ की लाई हुई गंगा पहाड़ों से निकलकर मैदान में आती है और काशी अयोध्या की श्मशान-भूमि है। इन दिनों भी अयोध्या जैन-मतावलम्बियों का ऐसा ही तीर्थ है जैसा हिन्दुओं का। 24 तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकुवंशी थे और उनमें से सबसे पहले तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव जी) का और 4 और तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था।

"बौद्धमत की तो कोशला जन्मभूमि ही माननी चाहिए। शाक्यमुनि की जन्मभूमि कपिलवस्तु और निर्वाणभूमि कुशिनगर दोनों कोशला में थे। अयोध्या में उन्होंने अपने मत की शिक्षा दी और वे सिद्धांत बनाए जिनसे जगतप्रसिद्ध हुए और कुशिनगर में उन्हें वह पद प्राप्त हुआ जिसकी बौद्धमत वाले आकांक्षा करते और जिसे निर्वाण कहते हैं।'

सूर्यवंश के अस्त होने पर 80 वर्ष तक अयोध्या शक्तिशाली गुप्तों की राजधानी रही है। सोलंकी राजाओं के विषय में कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे विदित होता है कि यह लोग अयोध्या से ही पहले दक्षिण गए और वहां सालंकी (चालुक्य) राज्य स्थापित किया। वहां से गुजरात आए जहां अन्हलवाड़े को राजधानी बनाकर बहुत दिनों तक शासन करते रहे। परंतु यह अभी तक निश्चित नहीं हुआ कि सोलंकी, जो अपने को चंद्रवंशी मानते हैं, अयोध्या के सिंहासन पर कब बैठे थे।राजा साहब सतारा के पास की एक वंशावली से विदित होता है कि चांद्रसेनीय कायस्थ सरयूतट पर अयोध्या (अजोढा) और मणिपुर (आजकल का मनकापुर) से गए थे।

प्रसिद्ध इतिहास-मर्मज्ञ सी.वाई. वैद्य  ने "हिन्दू भारत के अंत' (पृ. 732) में लिखा है कि अत्यंत प्राचीन काल में अयोध्या में हिन्दी साहित्य की उत्पत्ति हुई। सामान्य लोगो को  यह सुनकर भी  आश्चर्य होगा कि मुसलमान भी अयोध्या को अपना बड़ा तीर्थ मानते हैं। मदीनतुल-औलिया नाम के उर्दू ग्रंथ में, जो अयोध्या से प्रकाशित हुआ है, लिखा है कि अयोध्या में आदम के समय से आज तक अनेक औलिया और पीर हुए हैं। मुसलमान नवाब वजीरों के राज में अयोध्या ही का एक अंश फैजाबाद के नाम से 3 नवाब वजीरों की राजधानी रहा। शुजाउद्दौला के शासन में इसकी शोभा देखकर यूरोपीय यात्री चकित होते थे।

साहित्यरत्न हिन्दी सुधाकर रायबहादुर श्री अवधवासी लाला सीताराम, बी.ए. 





क्या कहते है साक्ष्य :



साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकीमान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।



पुरातत्त्वविदों का मत :



पिछले समय में कुछ पुरातत्त्वविदों यथा-प्रो. ब्रजवासी लाल तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया, रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णित अन्य स्थान यथा- नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकतेहैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है। पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदीई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत कीप्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा साँकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी  के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवंघटनाओं के पूर्व की हैं।



मुनीश चन्द्र जोशी का मत :



श्री मुनीश चन्द्र जोशी ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया-



जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति (अगर यह थी तो) को लोग पूर्णत: भूल गये थे।

अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है।

आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।



इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था।ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।



प्रो ब्रजवासी लाल का मत :



श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं हैकि राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहींबल्कि 'अजेय' से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमद्भागवदगीता में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक,अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चातज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरू होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों-दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवंशिश्न- से किया गया है।



प्रो. ब्रजवासी लाल ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खातातो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान ग़लत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।



चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण



चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को 'शा चे' नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इसस्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।



ह्वेन त्सांग



ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।[यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभव शाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जोमहायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।



ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों काविवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान हैजहाँ देशबंधु ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।



ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़ बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।



आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित स्वर्ग से उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलतेथे।



 पुरातात्विक उत्खनन

भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास को समझने में पुरातात्विक साक्ष्यो का बड़ा महत्व है। उत्खनन से ही प्राचीन सभ्यताओ के बारे में आज का मनुष्य जान सका है। 



अयोध्या का उत्खनन

अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवंनल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ। उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-



प्रथम काल



उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवंमृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं।



दूसरा काल 



इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं।



तृतीय काल



इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्यपत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। ।



अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन



अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया। इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रमप्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।



हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन



हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधादर्जन मुहरें,70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम, द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यहव्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था।



आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन:11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भीमिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ केसीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।



सीमित क्षेत्र में उत्खनन



1981- 1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700से 800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था।



बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में



नमूना सख्या        नमूनों की तिथि   पुर्नगणना वर्ष में

संख्या-7, अयोध्या-1, 2152 जी-7 (16) 9.15 मीटर      2830  100 बी. पी. (880 ई. पू.)           1190- 840 ई. पू.

संख्या-8, अयोध्या-1, 2153 जी-7 (19) 11.00 मीटर    2860  100 बी. पी. (910 ई. पू.)           1210- 900 ई. पू.

संख्या-9, अयोध्या-1, 2154 जी-7 (20) 11.53 मीटर    3200  130 बी. पी. (1250 ई. पू.)        1680- 1320 ई. पू.

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 

2003 ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश परवर्ष 2002से  संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्णपरिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से ही प्रारम्भ होती है।



मनु ही मानव समाज के आदि पुरुष 



महर्षि मनु ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने एक व्यवस्थित बी, नियमबद्ध , नैतिक आदर्श मानवीय जीवन जीने की पद्धति सिखाई है | मनु ही वह धर्म गुरु है जिन्होंने यज्ञ परम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र , जिसको की आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है , सबसे प्राचीन स्मृति ग्रन्थ है | इतिहास उठा कर देख लीजिये वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक परम्परा उन शास्त्रकारो , साहित्यकारों , लेखको , कवियों और राजाओं की मिलती है जिन्होंने मुक्तकंठ से मनु की प्रशंशा की है | वैदिक5 संहिताओ एवं ब्राह्मण ग्रंथो में मनु की वचनों को “ औषध के समान हितकारी और गुणकारी कहा है “ | महर्षि बाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रमाणिक धर्म शास्त्रज्ञ के रूप में उद्धत ठहराते है और श्री राम अपने आचरण को शास्त्र सम्मत सिद्ध करने के लिए उसके समर्थ में मनु के श्लोको को उद्धत करते है | महाभारत में अनेक स्थानों पर उनके धर्म शास्त्र को परीक्षा सिद्ध घोषित किया है | अनेक पुरानो में उन्हें आदि राजऋषि , शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित किया है | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उद्धत करके पुत्र पुत्री के समान दायभाग के विषय में प्रमाणिक माना है | कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रूप में उद्धत किया है | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रमाणित मान कर विरुद्ध समृतियो को अमान्य घोषित करते है | बौद्ध कवी अश्वघोष ने अपनी कृति “ वज्रकोपनिषद “ में मनु के प्रमाणों को प्रमाण रूप माना है | याज्ञवल्क्य स्मृति मनु स्मृति पर ही आधारित है | श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर , डाक्टर राधाकृष्णन , जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्र नेताओं ने मनु को आदि ‘ लॉ गिवर ‘ के रूप में उल्लिखित किया है | अनेक कानुनविदो जस्टिस डी एन मुल्ला , एन राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दू लॉ सम्बन्धी ग्रंथो में मनु के विधान को ‘ अथारिटी ‘ घोषित किया है | मनु के मंतव्यो का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समुलर , ए ए मैकडोनाल् , ए बी कीथ , पी थॉमस आदि पाश्चत्य लेखको ने मनु स्मृति को धर्म शास्त्र के साथ साथ एक लॉ बुक भी माना है | जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहाँ तक कहा है की “ मनुस्मृति बाइबिल से उत्तम ग्रन्थ है “ बल्कि “ उससे बाइबिल की तुलना करना भी पाप है “ कहने का तात्पर्य यह है की मनुस्मृति को पूरी दुनिया के विद्वानों ने महत्व दिया है | यदि मनुस्मृति न होती तो न ही न्याय व्यवस्था न अर्थ व्यवस्था न कर्म व्यवस्था अर्थात कोई भी व्यवस्था नहीं होती |





लव ने बसाया लाहौर  और कुसूर थी कुश की राजधानी



धर्माचार्य और इतिहासवेत्ता कहते हैं कि पाकिस्तान के लाहौर शहर को भगवान राम के पुत्र लव ने बसाया था। वहां सनातन धर्मियों ने हजारों साल तक वैष्णव धर्म का झंडा फहराया। यहाँ से कुछ दूर स्थित कुसूर नगर को कुश द्वारा बसाया गया माना जाता है। इस बारे में कई अभिलेख भी सामने आये है। 
लाहौर पुराने पंजाब की राजधानी है जो रावी नदी के दाहिने तट पर बसा हुआ है। यह बहुत प्राचीन नगर है। लाहौर, कराची के बाद पाकिस्तान में दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर है। इसे पाकिस्तान का दिल भी कहा जाता है क्योंकि इस शहर का इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में अत्यंत समृद्ध रहा है।
पाकिस्तान में इसे बागों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। लाहौर को संभवतः ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में बसाया गया था और सातवीं शताब्दी ई. में यह इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसका उल्लेख चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने किया है। शत्रुंजय के एक अभिलेख में लवपुर या लाहौर को लामपुर कहा गया है। लाहौर शहर रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित है। मान्यताओं के अनुसार लाहौर नगर का प्राचीन नाम लवपुर या लवपुरी था, और इसे श्रीरामचन्द्र के पुत्र लव ने बसाया था। कहते हैं कि लाहौर के पास स्थित कुसूर नामक नगर को लव के बड़े भाई कुश ने बसाया था। लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय में 8671 संस्कृत-हिंदी की पांडुलिपियां पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित हैं। यहां अरबी, फरसी, तुर्की, उर्दू और क्षेत्रीय भाषाओं की कुल बाइस हजार पांडुलिपियां रखी हैं।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी संस्कृत विभाग के शोध छात्र राजेश सरकार ने इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त की हैं। पौराणिक दृष्टि से माना जाता है कि यह नगर भगवान श्रीरामचंद्र के पुत्र लव ने बसाया था। लाहौर किले के अंदर उनका मंदिर है। लाहौर सांस्कृतिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

ब्रह्मर्षि प्रचेता के पुत्र हैं बाल्मीकि



सृष्टि के आदि कवि और श्रीमद रामायण के रचयिता ब्रह्मर्षि बाल्मीकि कोई चोर अथवा डाकू नहीं है . हमारे आदि कवि वास्तव में ब्रह्मर्षि प्रचेता के पुत्र हैं . वरुण देव का ही एक नाम प्रचेता भी है . बाल्मीकि जी इन्ही के दसवे पुत्र है . इन्होने अयोध्या के दक्षिण तमसा नदी के तट पर अपना आश्रम स्थापित किया था . प्रभु श्रीराम ने जब सीता जी को वनवास दिया तब वह इन्ही बाल्मीकि जी के आश्रम में आ कर रही थी . श्रीमद रामायण  जी में ही बाल्मीकि जी ने अपना पूरा परिचय लिखा है . जब वह सीता जी को लेकर राम के दरबार में पहुचाते है तब वह स्वयं कहते है कि  राम , आपकी सीता उतनी ही पवित्र है जितना आपकी अपेक्षा है . मैंने अपने जीवन में न तो कभी झूठ बोला है और ना ही किसी प्रकार का कोई गलत कार्य किया है . ऐसे में यदि सीता में कोई भी दोष हो तो वह सारा पाप मुझे लग जाय . स्वयं पर इतना आत्मविश्वास करने वाले बाल्मीकि जी कि बात पर प्रभु श्री राम भी चकित है . बाल्मीकि जी लव , कुश और सीता जी को लेकर श्री राम के पास आये है . यहाँ वह अपना परिचय भी देते है कि मै प्रचेता का दसवा पुत्र बाल्मीकि हूँ।   अब यह स्वयं प्रमाण है कि रामायण के रचयिता बाल्मीकि कभी डाकू नहीं थे . इस प्रसंग को जगतगुरु स्वामी राघवाचार्य  जी महाराज ने भी विस्तार से व्याख्यायित किया है। 

 अब यह प्रश्न सामने आता है कि वह बाल्मीकि कौन थे जो डाकू थे . इस बारे में श्रीमद रामायण के स्थापित भाष्यकार आचार्य नागेश भट्ट ने लिखा है कि एक ही समय में दो बाल्मीकि हुए है . एक बाल्मीकि वह है जो तमसा के तट पर रहते थे . उन्होंने ही रामायण कि रचना की. दूसरे बाल्मीकि वह है जो चित्रकूट में राम से मिले थे . वह बाल्मीकि किसी ऋषि या ब्रह्मर्षि के पुत्र नहीं थे बल्कि पहले दस्यु थे और नारद जी से मिलने के बाद सन्यासी बने। इस प्रकार से यह भ्रान्ति अब दूर कर लेने की आवश्यकता है कि सृष्टि के आदि कवि बाल्मीकि पहले चोर या डाकू रहे थे। ऐसा समझना आदिकवि का अपमान होगा। 





यह आज जो अयोध्या है 


आज की अयोध्या चाहे जैसी हो पर वैसी नहीं है जैसी मनु के समय रही होगी।  सृष्टि के साथ ही पृथ्वी पर उतारी गयी अयोध्यापुरी  का वर्त्तमान बहुत ही विकृत हो चुका है। अयोध्या की प्रकृति और संस्कृति के बीच विकृति की खाई काफी गहरी हो गयी है। जिस अयोध्या पर श्रीराम के शासन का वैभव सभी वांग्मय गाते नहीं थकते है उसी अयोध्या में उसी राम की प्रातिमा को एक छत इसलिए नसीब नहीं हो पा रही क्योकि राम के ही वंशजो में उसी राम के जन्मस्थल को लेकर झगड़ा चल रहा है।  अयुधा ,अर्थात जहां कभी युद्ध न हो , वैसी अयोध्या ने पिछली सदी के उत्तरार्ध में भयकर खून खराबा भी देख लिया। जिस अयोध्या में राम के काल में किसी प्रकार के दैहिक, दैविक, भौती ताप का प्रकोप नहीं होता था उस अयोध्या में आज बहुत विकृतियां भरी पड़ी है।  अयोध्या का दुर्भाग्य यह रहा की पिछले लगभग एक हज़ार  साल से अधिक समय में भारत पर होने वाले हरेक विदेशी आक्रमण की मार इसे झेलनी पड़ी है।  यहाँ श्रुति परम्परा में युगों से चलती आने वाली ज्ञान की धारा को इन आक्रमणों ने बहुत नुक्सान पहुचाया।  परिणाम यह हुआ की जिस  अयोध्या से ज्ञान लेकर संसार प्रकाशमान होता था उस अयोध्या के ज्ञान के पुंज विलुप्तप्राय हो चुके है।  अब भारत की आधुनिक ताहाकाथित मेधा पश्चिम के कथित प्रगतिशील आख्यानों को आधार बना कर मानव सभ्यता और विकास की कहानी पढ़ और पढ़ा रही है।
दुःख तो इस बात को लेकर होता है कि ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्त होने के बाद भारत को संचालित करने वाली देशी सरकारों ने भी अयोध्या की विरासत को संरक्षित करने की कोशिश नहीं की। अयोध्या का वास्तविक इतिहास तक प्रकाशित करने की कोशिश सरकारो ने नहीं किया।  जो नगर मनुष्य की संस्कृति के विकास के लिए स्थापित है उस नगर की घनघोर उपेक्षा हुई।  स्वाधीनता के बाद सबसे ज्यादा ध्यान अपनी इस आदि विरासत को सम्हालने पर दिया जाना चाहिए था पर ऐसा नहीं किया गया। इसी बीच भगवान राम के जन्मस्थान को ही विवादित बना कर राजनीति की रोटियां सेकी जाने लगी। आज अयोध्या वास्तव में जिस दुर्दशा से गुजर रही है , उसकी पीड़ा को समझने की कोशिश कोई नहीं कर रहा।  सृष्टि की इस संगिनी के आसुओ को नहीं समझ गया और ऐसे ही उपेक्षा होती रही तो किसी एक समुदाय विशेष को ही नहीं बल्कि समूची मानवता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।     






 सन्दर्भ :



1- अयोध्या मथुरा माया काशी काचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका:

    बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार

 2- वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4

 3- रघु वंश सर्ग 16

 4- अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2

 5- जातक संख्या 454

  6- रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39

 7-"ब्रह्म पुराण,2। 1-33"

8- "श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कंध, 12। 52-56। 13"

 9-(ऋग्वेद 1.80, 16;8.63,1;10.100,5) 14.2,41; तैत्ति0संहिता 1.5,1,3;7.5,15,3;6,7,1;3,3,2,1;5.4,10,5;6.6,6,1; शतपथ ब्राह्मण 1.1,4,14)

 10-"(ऋग्वेद 8.52,1)"

 11-"(अथर्ववेद 8.10,24)"

12- "(ऋग्वेद 8.51,1)"

13- विष्णु पुराण

14-एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड दि इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली,       - अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81

 15- ऐतरेय ब्राह्मण, 7/3/1; देखें, ज. रा. ए. सो, 1971, पृष्ठ 52 (पादटिप्पणी

 'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11

 16- नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़, ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 14

17- जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1972, पृष्ठ 54

 18- जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2 पृष्ठ 1086

 19- नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास (प्रकाशन ब्यूरो,      उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1956) पृष्ठ 7 एवं 12

 20-थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृष्ठ 103

21 'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29

 22- रघु वंश 5,31; 13,62

 23- कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे परभूत धनधान्यवान (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5

 'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12

 24- विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-    322;  विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34

 25-आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7



 26-द्वादशयोजनायामां नवयोजन विस्तृताम्। अयोध्येल्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम्।। त्रिशस्तिसलाकापुरुशचरित, पर्व। अध्याय 2, श्लोक 912

 27- ए. कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, 1963), पृष्ठ 342

 28- मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स, भाग 1, पृष्ठ 165

 29- संयुक्तनिकाय (पालि टेक्ट्स सोसाइटी), भाग 3, पृष्ठ 140 और आगे

 तत्रैव, भाग 4, पृष्ठ 179

 अध्याय 5, श्लोक 31

 30- आदि पुराण 12, पृष्ठ 77; विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ 55; विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963 ई.) पृष्ठ 55

 31-ऐलक्जेंडर कनिंघम, ऐश्येंट ज्योग्राफ़ी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1976), पृष्ठ 405

32-  नंदूलाल डे, दि जियोग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ ऐश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 174

 33- फर्गुसन, आर्कियोलाजी इन इंडिया, पृष्ठ 110

 34- बी. ए. स्मिथ, ज. रा. ए. सो., 1898, पृष्ठ 124

 35- विलियम होवी, ज. ऐ. सो. ब., 1900 पृष्ठ 75

 36- डब्ल्यू, बोस्ट, ज. रा. ए. सो., 1906, पृष्ठ 437 और आगे

 37- भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 2018), पृष्ठ 254

 38-आवस्सक कमेंट्री, पृष्ठ 24

  39- राज डेविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39

 40- हेमचन्द राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, (किताब महल, इलाहाबाद, 1976 ई.), पृष्ठ 91

 41- विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1963, पृष्ठ 58

 42- ई. जे. थामस, दि लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध ऐज लीजेंड इन हिस्ट्री, (स्टलेज एंड केगन पाल लिमिटेड,    लन्दन, तृतीय संस्करण, पुनर्मुद्रित, 1952), पृष्ठ 15

43-  ब्रजवासी लाल, आर्कियोलाजी एंड टू इंडियन इपिक्स, एनल्स ऑफ़ दि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 54, 1973 ई.

 44- हंसमुख धीरजलाल साँकलिया, रामायण मिथ आर रियलिटी, नई दिल्ली, 1973 ई.

45- हेमचन्द्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ 7

46-  मुनीशचन्द्र जोशी आर्कियोलाजी एंड इंडियन ट्रेडिशंस, सम आब्जर्वेशन, पुरातत्त्व, जिल्द 8, 1978 ई. पू., पृष्ठ 89-102

47-  तैत्तिरीय आरण्यक 1/27 अष्टाचक्र नवद्वारा देवनां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृत: यो वयताम् ब्रह्ममनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयु: कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्माविवेशापराजिताम्।

 48- ब्रजवासी लाल, बाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47

 49- अथर्वेवेद, 10/2/28-33

 50- श्रीमद्भागवदगीता, 5/13

51-पूर्वउल्लेखित, 1/27

 52-पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 10, पृष्ठ 47

 53- पूर्वउल्लेखित, पुरातत्त्व, जिल्द 8, पृष्ठ 98-102

 54- जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972), पृष्ठ 54-55

 55- थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 355

 56- बसुबंधु का अध्यापन एवं परिश्रम आदि अयोध्या में ही हुआ था।



 57- थामस वाटर्स, ऑन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 357

 58- इ. आ. रि., 1959-70, पृष्ठ 40-41

 59- इ. आ. रि. 1976-77, पृष्ठ 52

 60- हरि माँझी और बी. आर. मणि, अयोध्या 2002-2003, एक्सकैवेशन्स ऐट दी "डिस्प्यूटेड साइट" भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, 2003, छाया प्रति।

 61- कार्बन-4 के अर्द्धजीवन पर आधारित (5570  30 वर्ष

 62- 'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29

63- रघु वंश 5,31; 13,62

64-  कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान

 (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5

 65-'मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य। तत्रैव, पंक्ति 12

 66- विनोदविहारी दत्त, टाउन प्लानिंग इन ऐश्येंट इंडिया (कलकत्ता, थैंकर स्पिंक एंड कं., 1925), पृष्ठ 321-322;  विविध तीर्थकल्प, अध्याय 34

 67- आयता दश च द्वे योजनानि महापुरो, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7

 68- अद्भुत भारत : ए एल वाशम 

69- प्रो  आर आर पांडेय , भारतीय दर्शन 

70 - प्रो  विस्वमभारशरण पाठक , प्राचीन भारत 

71 - स्वामी अखंण्डानन्द सरस्वती , श्री राम कथा एवं श्रीमद भागवत 

72 - महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द  जी , श्री राम कथा एवं श्रीमद भगवत 

73 - जगतगुरु स्वामीराघवाचार्य  जी , श्रीमद बाल्मीकीय रामायण 

74 - श्री रामकथा , स्वामी रामकिंकर जी 

75 - श्रीमद रामचरित मानस , गोस्वामी तुलसी दास 

76 - संस्कृति के चार अध्याय , रामधारी सिंह दिनकर 

77 - साकेत , मैथिलीशरण गुप्त 

SHARE THIS
Previous Post
Next Post