शिवावतार सरस्वती पुत्र गुरु गोरखनाथ

शिवावतार सरस्वती पुत्र गुरु गोरखनाथ 
संजय तिवारी 
पौराणिक सन्दर्भ बताते हैं कि गोरखनाथ आदिनाथ भगवान शिव के अवतारी थे। उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की उत्पत्ति मछली के पेट से हुई थी। गुरु मत्स्येन्द्र नाथ  भिक्षाटन करते हुए सरस्वती नामक एक माता के दरवाजे पर पहुंचे। भिक्षाम देही.... कहकर भिक्षा मांगने लगे।अपने घर से बाहर निकली वह  महिला उनको कुछ दुःखी दिखीं। मत्स्येन्द्रनाथ जी ने  इसका कारण पूछा तो माता  ने बताया कि धन-दौलत सबकुछ भगवान ने दिया है लेकिन एक औलाद नहीं दिया। उनकी  पीड़ा सुनने के बाद बाबा मस्त्येंद्रनाथ जी ने प्रसाद स्वरूप भभूत दी और वहां से आगे बढ़ गए। कहते हैं कि  12 वर्ष बाद बाबा फिर उसी दरवाजे पर गए। जब  भिक्षा के लिए पुकारा तो वही महिला बाहर निकलीं। बाबा  ने महिला से  पूछा कि 12 वर्ष पहले उन्होंने जो भभूत दिया था उसका क्या फल रहा। इस पर महिला ने बताया कि पड़ोस की महिलाओं ने शक-सुबहा पैदा कर दिया तो उन्होंने भभूत को झाड़ियों में फेंक दिया था। 

मत्स्येन्द्रनाथ जी को बहुत दुःख हुआ फिर भी उन्होंने शांत भाव से महिला से वह स्थान दिखाने को कहा। वहां पहुंच कर बाबा ने जोर से अलख निरंजन का उद्घोष किया। उद्घोष होते ही वहां एक अत्यंत ज्योतिर्वाण बालक प्रकट हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ जी ने उस बालक को अपने साथ ले लिया और वह से निकल गए। उस महिला सरस्वती ने बहुत कोशिश की कि बाबा बालक को उसे दे दें लेकिन बाबा ने उसकी बात यह कह कर अनसुनी कर दी कि अपने मेरी विभूति पर अविश्वास  किया। जब आपको विभूति पर विशवास नहीं रहा तब इस अलौकिक उद्भव को आपको कैसे सौप सकता हूँ। वही बालक बाद में बाबा गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्द हुए। गोरखनाथ जी को मत्स्येन्द्रनाथ जी ने दीक्षा देकर लोक कल्याण के लिए भ्रमण पर भेज दिया। इसी  गुरु गोरख के आशीर्वाद से नेपाल राजवंश के संस्थापक पृथ्वीनारायण शाह देव ने बाईसी और चैबीसी नाम से बंटी 46 छोटी-छोटी रियासतों को संगठित नेपाल की स्थापना की थी। इस राज्य नेपाल के राजमुकुट, मुद्रा पर गुरु गोरक्षनाथ का नाम और उनकी चरण पादुका अंकित है। आज भी गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में पहली खिचड़ी नेपाल राजवंश से ही आती है।

कल्पद्रुमतन्त्र 
कल्पद्रुमतन्त्र मे गोरक्षस्तोत्रराज मे भगवान क्रष्ण ने उनका शिव रूप मे स्तवन किया है कि हे गोरक्षनाथ जी – आप निरंजन, निराकार, निर्विकल्प, निरामय, अगम्य, अगोचर, अल्क्ष्य हैं | सिद्ध आप की वन्दना करते हैं | आप को नमस्कार है। आप हठयोग के प्रवर्तक शिव हैं।  अपने गुरु मत्स्येंदारनाथ की कीर्ति को बढ़ाने वाले हैं।  योगी मन मे आप का ध्यान करते हैं। आप को नमस्कार है।  आप विश्व के प्रकाशक हैं।  आप विश्वरूप हैं।  हे गोरक्ष ! आप को नमस्कार है।  आप असंख्य लोकों के स्वामी हैं, नाथों के नाथशिरोमणि हैं, आपको नमस्कार है।  भक्तों के प्रति अनुरक्त होकर ही शिवस्वरुप गोरक्ष योगानुशासन का उपदेश देते हैं।  अपने ही जगदगुरुस्वरुप शक्तियुक्त आदिनाथ को नमस्कार कर गोरक्षनाथ सिद्धसिद्धान्त का बखान करते हैं।
महकलयोगशास्त्र मे शिव के स्वय कहा है कि मैं ही गोरक्ष - गोरखनाथ हूँ – हमारे इस रूप का बोध प्राप्त करना चाहिए | (नाथ) योगमार्ग के प्रचार के लिए मैंने गोरक्षरूप धारण किया है।
अहमेवस्मि गोरक्षो मद्रुपं तन्निबोधत।
योगमार्गप्रचाराय मया रूपमिदं धृतम्। 
महाराष्ट्रीय नाथसम्प्रदाय कि परम्परा मे श्रीमद भागवत में ग्यारहवें स्कन्ध के दूसरे अध्याय में नौ योगीश्वरों का वर्णन है।  कवि-नारायण मत्स्येंदारनाथ, करभाजननारायण गहिनीनाथ, अन्तरिक्ष-नारायण ज्वालेन्द्र्नाथ (जालंदरनाथ), प्रबुधनारायण करणिपानाथ (क्रष्णपाद), आविहोत्रनारायण नागनाथ, पिप्प्लायन – नारायण चर्पटीनाथ, चमसनारायण रेवणनाथ, हरिनारायण भतृरनाथ (भतृरहरि) और द्रुमिलनारायण गोपीचन्दननाथ कहे गये हैं।  इन नारायणो मे गोरखनाथ जी के नाम का न होना उनका शिवस्वरुप सिद्ध करता है और इस तरह उनका शिवगोरक्ष नाम प्रमाणित हो जाता है।  ‘नाथसिद्धों कि बानियाँ’ संग्रह मे सिद्ध घोडाचौली के कथनसे भी पता चलता है कि अनन्तसिद्धों से गोरखनाथजी अतीत हैं।  उन्हे ‘परचै जोगी सिंभ निवासा’ कहकर उनके शिवगोरक्षरूप को ही स्वीकार किया गया है।
यद्धपि शिवगोरक्ष (गोरखनाथ) ही श्रीनाथ हैं। तथापि लोकव्यवहार में महायोगज्ञान की प्रतिष्ठा के लिये गोरखनाथ के रूप मे मत्स्येंदारनाथजी से योगोपदेश प्राप्त किया अन्यथा यह प्रथ्वी बिना गुरु के रहती।  उन्होने ‘गोरखबनी’ की एक सबदी में कहा है – ‘ताथै हम थापना थापी।  आशय यह है कि शिवस्वरुप होकर भी शिवगोरक्षरूप में उन्होने मत्स्येंदारनाथजी से योगोपदेश प्राप्त किया।
‘गोरखबनी’ में ‘महादेव-गोरषगुष्टि’ मे भगवान शिव ने स्वय आत्मस्वरुप शिवगोरक्ष को ‘परम योगस्ंप्राप्त योगी’ खकार उनके प्रति महाज्ञान का कथन किया हैं।  उसमे वर्णन हैं – ‘तत्वग्यान श्रीशम्भूनाथ अकथ कथित सुनो हो गोरष अवधूतं परम जोग संप्रापितं जोगी। ’अपने शिवगोरक्षस्वरुप को शिव ने तत्वज्ञान से सम्बोधित किया।  ‘गोरखनाथ’ में ‘गोरषदत्त-गुष्टि’ (ज्ञानदीपबोध) में स्वय दत्तात्रेयजी ने गोरखनाथ जी को शिव कहकर प्रणाम किया हैं।
दत्तात्रेयजी का वचन है –
स्वामी तुमेव गोरष तुमेव रछिपाल
अनंत सिधां माही तुम्हें भोपाल।
तुम हो स्यंभूनाथ नृवांण।
प्रणवे दत्त गोरख प्रणाम।
हे गोरखनाथजी ! आप ही रक्षक हैं।  असंख्य सिद्धों के आप शिरोमणि हैं।  आप साक्षातं शिव (शम्भुनाथ) हैं।  आप अलखनिरंजन परमेश्वर हैं।  मैं नतमस्तक आप को प्रणाम करता हूँ।
संत कबीर का कथन है –
गोरख सोई ग्यान गमि गहै।
महादेव सोई मन की लहै।
सिद्ध सोई जो साधै ईती।
नाथ सोई जो त्रिभुवन जती।
श्रीगोरखनाथ, महादेव, सिद्ध और नाथ, चारों के चारों अभिन्न-स्वरुप एकतत्व हैं। महायोगी गोरखनाथजी शिव हैं, वे ही शिवगोरक्ष हैं।  उनहोने महासिद्ध नाथयोगी के रूप मे दिवि योगशरीर में प्रकट होकर अपने ही भीतर व्याप्त अलखनिरंजन परबृहंम परमेश्वर का साक्षात्कार कर समस्त जगत् को योगामृत प्रदान किया। 
महायोगी गोरखनाथ को शिवगोरक्ष खने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है।  शिव योगेश्वर हैं।  नाथ सम्प्रदाय मे उन्होने ही सबसे पहले मत्स्येंदारनाथजी को महायोगज्ञान का उपदेशाम्रत प्रदान किया था | नाथ सम्प्रदाय मे यह कहा जाता है कि शिव ने ‘गोरख’ के रूप मे मत्स्येंदारनाथजी से महायोगज्ञान पाया था।  वे ही शिवगोरक्ष कहलाते है।  गोरखनाथ को नाथदेवत कहा गया है।  निर्मल स्फटिक के समान उनका गौर शरीर है, सिर पर जटा है, उनके तीन नेत्र हैं, वे माया से रहित है, वे तत्स्वरूप हैं, त्रिवेदस्वरुप हैं। 


गुरु गोरखनाथ का समय

 यह अभी तक ऐतिहासिक रूप से बहुत स्पष्ट नहीं है। गुरु गोरखनाथ (भी गोरखनाथ के रूप में जाना जाता है;। सी जल्दी 11 वीं सदी)। भारत में नाथ हिंदू मठ आंदोलन के एक प्रभावशाली संस्थापक थे।  उनको मत्स्येंद्रनाथ की दो उल्लेखनीय शिष्यों में से एक के रूप में माना जाता है। उनके अनुयायियों भारत के हिमालयी राज्यों, पश्चिमी और मध्य राज्यों और गंगा के मैदानी इलाकों के साथ ही नेपाल में पाए जाते हैं। इन अनुयायियों योगियों, गोरखनाथी , दर्शनी या कनफटा  कहा जाता है। उनकी जीवनी का विवरण अज्ञात और विवादित हैं। Hagiographies एक मानव शिक्षक और समय के कानूनों , (जो अलग अलग उम्र में पृथ्वी पर दिखाई दिया) ,के बाहर किसी से भी अधिक के रूप में उसे वर्णन है। इतिहासकारों राज्य गोरखनाथ 2 सहस्राब्दी सीई की पहली छमाही के दौरान कुछ समय से रहते थे, लेकिन वे जो इस सदी में सहमत नहीं हैं। 14 वीं सदी की Grierson के अनुमान को 12 वीं सदी को ब्रिग्स '11th- से पुरातत्व और पाठ रेंज के आधार पर अनुमान है और इसे आज बिलकुल मान्यता नहीं दी जा सकती क्योकि इससे पूर्व के अनगिनत आख्यान सामने आ चुके हैं। 

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं।
गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी - संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। इसमें द्वापर युग में युग में भीम से गोरखनाथ जी के मिलने की भी कथा आती है जिसके कारण गोरखनाथ जी का समय तय करना बहुत कठिन है।  एक तरफ वह त्रेता में कांगड़ा की ज्वालादेवी से मिलते हैं , द्वापर में भीम उनसे मिलने आते हैं और इधर कबीर से भी उनका संवाद हो रहा है। इतनी लम्बी युगीय यात्रा के पथिक योगी के काल  निर्धारण अपने  नहीं लगती। हम केवल उनके यात्रापथ में निष्पादित कार्यो को ही देख सकते हैं। हालांकि  कुछ अंग्रेज इतिहासकारो और उन्ही के आधार पर हिंदी में पुस्तके लिखने वालो ने उनका  खंड 11वी या 12 वी  शताब्दी  भी लिखा है लेकिन तर्क और आख्यानों की कसौटी पर यह खरा नहीं उतरता।
कुछ प्रमुख लिखित तथ्य इस प्रकार हैं -

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।
(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।
(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।
(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।
(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।
(6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।
इन लोक कथाओ से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-
(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।
(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।
(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।
(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। नाथ संप्रदाय में दिखाया गया  है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी विवाद फिर सामने आता है। 

हठयोग के आचार्य 

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।

चित्तौड़ की स्थापना 
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।

नेपाल राज्य की स्थापना
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। 
गुरु गोरख के आशीर्वाद से नेपाल राजवंश के संस्थापक पृथ्वीनारायण शाह देव ने बाईसी और चैबीसी नाम से बंटी 46 छोटी-छोटी रियासतों को संगठित नेपाल की स्थापना की थी। इस राज्य नेपाल के राजमुकुट, मुद्रा पर गुरु गोरक्षनाथ का नाम और उनकी चरण पादुका अंकित है। 

पकिस्तान का गोरखपर्वत 
 वर्त्तमान पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।

गोगाजी का जन्म 
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।

प्रमुख नाथों के नाम
कपिल नाथ जी, सनक नाथ जी, लंक्नाथ रवें जी, सनातन नाथ जी, विचार नाथ जी , भ्रिथारी नाथ जी, चक्रनाथ जी, नरमी नाथ जी, रत्तन नाथ जी, श्रृंगेरी नाथ जी, सनंदन नाथ जी, निवृति नाथ जी, सनत कुमार जी, ज्वालेंद्र नाथ जी, सरस्वती नाथ जी, ब्राह्मी नाथ जी, प्रभुदेव नाथ जी, कनकी नाथ जी, धुन्धकर नाथ जी, नारद देव नाथ जी, मंजू नाथ जी, मानसी नाथ जी, वीर नाथ जी, हरिते नाथ जी, नागार्जुन नाथ जी, भुस्कई नाथ जी, मदर नाथ जी, गाहिनी नाथ जी, भूचर नाथ जी, हम्ब्ब नाथ जी, वक्र नाथ जी, चर्पट नाथ जी, बिलेश्याँ नाथ जी, कनिपा नाथ जी, बिर्बुंक नाथ जी, ज्ञानेश्वर नाथ जी, तारा नाथ जी, सुरानंद नाथ जी, सिद्ध बुध नाथ जी, भागे नाथ जी, पीपल नाथ जी, चंद्र नाथ जी, भद्र नाथ जी, एक नाथ जी, मानिक नाथ जी, गेहेल्लेअराव नाथ जी, काया नाथ जी, बाबा मस्त नाथ जी, यज्यावालाक्य नाथ जी, गौर नाथ जी, तिन्तिनी नाथ जी, दया नाथ जी, हवाई नाथ जी, दरिया नाथ जी, खेचर नाथ जी, घोड़ा कोलिपा नाथ जी, संजी नाथ जी, सुखदेव नाथ जी, अघोअद नाथ जी, देव नाथ जी, प्रकाश नाथ जी, कोर्ट नाथ जी, बालक नाथ जी, बाल्गुँदै नाथ जी, शबर नाथ जी, विरूपाक्ष नाथ जी, मल्लिका नाथ जी, गोपाल नाथ जी, लघाई नाथ जी, अलालम नाथ जी, सिद्ध पढ़ नाथ जी, आडबंग नाथ जी, गौरव नाथ जी, धीर नाथ जी, सहिरोबा नाथ जी, प्रोद्ध नाथ जी, गरीब नाथ जी, काल नाथ जी, धरम नाथ जी, मेरु नाथ जी, सिद्धासन नाथ जी, सूरत नाथ जी, मर्कंदय नाथ जी, मीन नाथ जी, काक्चंदी नाथ जी। 

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