मद्धिम न पड़े न्याय की लौ
संजय तिवारी
14 जनवरी 2018 . बहुत ही सर्द। बर्फ की कोई दीवार। तोड़ने की कोशिश में देश के चार न्यायाधीश। पैट नहीं टूटी या नहीं। लेकिन प्रश्न तो बहुत से खड़े हो गए। भारत की सर्वोच्च न्यायलय के इन चार न्यायाधीशों का इस तरह मीडिया के सामने आकर जनता को कुछ बताने की कोशिश में बहुत कुछ पिघल गया। पिघला तो पसरा भी। देश और दुनिया में कही भी रह रहे हर भारतीय के किसी आश्चर्य कम नहीं था। कोशिश तो आंधी चलने की कोशिश की लेकिन भारत के भाग्य से यह कोई झांकोरा भी नहीं बनी। अलबत्ता यह जरूर हुआ की आम आदमी के लिए न्याय सुलभ करने वाली प्रणाली से लोग सवाल जरूर करने लगे। देश की आम जनता से जुड़े लाखो मुकदमे वर्षो से लंबित हैं , कितने तो मुकदमे की पैरवी करते और तारीखें बटोरते धरती से विदा हो गए। कितने अभागे दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। कितने ऐसे है जिन्होंने जमीन जायदाद सब बेचकर न्याय पाने के लिए इन चौकठो पर खूब गुहार लगायी लेकिन उनकी कभी सुनी तक नहीं गयी।
इस देश ने वर्ष 1975 की इमर्जेंसी भी देखा है। उस समय शायद नहीं इन्हे महसूस हुआ होगा की देश में लोकतंत्र को खतरा है। यह अलग बात है कि जनता ने इस बात को समझ लिया था और उसकी दवा भी कर दी। भारत के भाग्यविधाता के रूप में स्थापित इस सर्वोच्च न्याय मंदिर के दरवाजे कभी आम आदमी के लिए आधी रात को खुले हों, ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता। हां , एक आतंकवादी को दी जा चुकी सजा पर पुनर्विचार के लिए कुछ मुट्ठी भर लोगो के दबाव में आधी रात को इस मंडित के दरवाजे खोले गए , तब लोकतंत्र को कही से खतरा नहीं दिखा। यह वह सजा थी जिसे इस न्यायलय के बाद महामहिम राष्ट्रपति तक ने तस्दीक कर दी थी। काश उस समय भी कोई (मी लॉर्ड) मीडिया के सामने आये होते। देश में आम जनता के सरोकारों की कितनी चिंता इन्हे होती है ? जनता को इन्होने कब महत्त्व दिया ? आखिर किस मुद्दे पर ये चार न्यायपुरुष मीडिया तक आये ?
इन मुद्दों में जनता के प्रश्न नहीं थे। आम आदमी से कोसो दूर हो चुके न्याय को लेकर किओ पीड़ा नहीं थी।
न्यायिक व्यवस्था में बढाती धन की महत्ता नहीं थी। जनता की समस्याओ से जुडी कोई बात नहीं थी। बस एक कारन सामने आया कि मुख्य न्यायाधीश इन महानुभावो को इनके मनमुताबिक मुकदमो की सुनवाई नहीं करने दे रहे। इन्हे जिन मुकदमो की सुनवाई करने की इच्छा है वे मुकदमे मुख्य न्यायाधीश दूसरे न्यायाधीशों को सौप रहे हैं ,या खुद अपने पास रख रहे हैं। अब यह प्रश्न बहुत पेचीदा है कि किसी न्यायाधीश को किसी ख़ास मुकदमे को देखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है ? और यह तो मुख्यन्यायाधीश का अधिकार है की वे कौन सी फ़ैल किस जज को सौप रहे हैं ? और यदि इन्हे कोई इतनी दिक्कत थी तो अपने फोरम पर अपनी बात कहते ? क्योकि सभी न्यायाधीश एक खास नियम से बंधे हैं , इन्हे किसी दशा में अपनी कोई बात जनता में या मीडिया में कहने का अधिकार नहीं है। यह इनकी नियमावली का खुला उल्लंघन है। यह घटना मामूली नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि अब तक सब कुछ सामान्य हो गया होगा। यह बहुत अच्छी बात है कि कांग्रेस को छोड़कर किसी राजनीतिक पार्टी ने इसमें कोई सक्रियता नहीं दिखाई। यह भारत के अति विकसित और मजबूत हो चुके लोकतंत्र का ही परिणाम है। देश की आम जनता ने कोई आंधी नहीं चलने दी। भारतीय मन और चेतना को अभी भी अपनी न्यायप्रणाली में पूरा भरोसा है। लेकिन इस घटना से एक सबक जरूर लेना होगा ताकि न्याय की लौ मद्धिम न पड़े।
संजय तिवारी
14 जनवरी 2018 . बहुत ही सर्द। बर्फ की कोई दीवार। तोड़ने की कोशिश में देश के चार न्यायाधीश। पैट नहीं टूटी या नहीं। लेकिन प्रश्न तो बहुत से खड़े हो गए। भारत की सर्वोच्च न्यायलय के इन चार न्यायाधीशों का इस तरह मीडिया के सामने आकर जनता को कुछ बताने की कोशिश में बहुत कुछ पिघल गया। पिघला तो पसरा भी। देश और दुनिया में कही भी रह रहे हर भारतीय के किसी आश्चर्य कम नहीं था। कोशिश तो आंधी चलने की कोशिश की लेकिन भारत के भाग्य से यह कोई झांकोरा भी नहीं बनी। अलबत्ता यह जरूर हुआ की आम आदमी के लिए न्याय सुलभ करने वाली प्रणाली से लोग सवाल जरूर करने लगे। देश की आम जनता से जुड़े लाखो मुकदमे वर्षो से लंबित हैं , कितने तो मुकदमे की पैरवी करते और तारीखें बटोरते धरती से विदा हो गए। कितने अभागे दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। कितने ऐसे है जिन्होंने जमीन जायदाद सब बेचकर न्याय पाने के लिए इन चौकठो पर खूब गुहार लगायी लेकिन उनकी कभी सुनी तक नहीं गयी।
इस देश ने वर्ष 1975 की इमर्जेंसी भी देखा है। उस समय शायद नहीं इन्हे महसूस हुआ होगा की देश में लोकतंत्र को खतरा है। यह अलग बात है कि जनता ने इस बात को समझ लिया था और उसकी दवा भी कर दी। भारत के भाग्यविधाता के रूप में स्थापित इस सर्वोच्च न्याय मंदिर के दरवाजे कभी आम आदमी के लिए आधी रात को खुले हों, ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता। हां , एक आतंकवादी को दी जा चुकी सजा पर पुनर्विचार के लिए कुछ मुट्ठी भर लोगो के दबाव में आधी रात को इस मंडित के दरवाजे खोले गए , तब लोकतंत्र को कही से खतरा नहीं दिखा। यह वह सजा थी जिसे इस न्यायलय के बाद महामहिम राष्ट्रपति तक ने तस्दीक कर दी थी। काश उस समय भी कोई (मी लॉर्ड) मीडिया के सामने आये होते। देश में आम जनता के सरोकारों की कितनी चिंता इन्हे होती है ? जनता को इन्होने कब महत्त्व दिया ? आखिर किस मुद्दे पर ये चार न्यायपुरुष मीडिया तक आये ?
इन मुद्दों में जनता के प्रश्न नहीं थे। आम आदमी से कोसो दूर हो चुके न्याय को लेकर किओ पीड़ा नहीं थी।
न्यायिक व्यवस्था में बढाती धन की महत्ता नहीं थी। जनता की समस्याओ से जुडी कोई बात नहीं थी। बस एक कारन सामने आया कि मुख्य न्यायाधीश इन महानुभावो को इनके मनमुताबिक मुकदमो की सुनवाई नहीं करने दे रहे। इन्हे जिन मुकदमो की सुनवाई करने की इच्छा है वे मुकदमे मुख्य न्यायाधीश दूसरे न्यायाधीशों को सौप रहे हैं ,या खुद अपने पास रख रहे हैं। अब यह प्रश्न बहुत पेचीदा है कि किसी न्यायाधीश को किसी ख़ास मुकदमे को देखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है ? और यह तो मुख्यन्यायाधीश का अधिकार है की वे कौन सी फ़ैल किस जज को सौप रहे हैं ? और यदि इन्हे कोई इतनी दिक्कत थी तो अपने फोरम पर अपनी बात कहते ? क्योकि सभी न्यायाधीश एक खास नियम से बंधे हैं , इन्हे किसी दशा में अपनी कोई बात जनता में या मीडिया में कहने का अधिकार नहीं है। यह इनकी नियमावली का खुला उल्लंघन है। यह घटना मामूली नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि अब तक सब कुछ सामान्य हो गया होगा। यह बहुत अच्छी बात है कि कांग्रेस को छोड़कर किसी राजनीतिक पार्टी ने इसमें कोई सक्रियता नहीं दिखाई। यह भारत के अति विकसित और मजबूत हो चुके लोकतंत्र का ही परिणाम है। देश की आम जनता ने कोई आंधी नहीं चलने दी। भारतीय मन और चेतना को अभी भी अपनी न्यायप्रणाली में पूरा भरोसा है। लेकिन इस घटना से एक सबक जरूर लेना होगा ताकि न्याय की लौ मद्धिम न पड़े।