रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन

रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन

सावन विशेष 
रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन


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संजय तिवारी 
प्रख्यात गीतकार योगेश जी की ये पंक्तिया हैं। फिल्म मंजिल के लिए उन्होंने इन पंक्तियों को रचा है। पूरा गीत कुछ इस तरह से है -

रिमझिम गिरे सावन
सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में
लगी कैसी ये अगन

पहले भी यूँ तो बरसे थे बादल
पहले भी यूँ तो भीगा था आंचल
अब के बरस क्यूँ सजन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज...

इस बार सावन दहका हुआ है
इस बार मौसम बहका हुआ है
जाने पी के चली क्या पवन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज...

जब घुंघरुओं सी बजती हैं बूंदे
अरमाँ हमारे पलके न मूंदे
कैसे देखे सपने नयन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज...

महफ़िल में कैसे कह दें किसी से
दिल बंध रहा है किस अजनबी से
हाय करें अब क्या जतन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज...

भारतीय ही नहीं विश्व साहित्य में भी सावन पर बहुत कुछ लिखा गया है।  यहाँ इस बात का जिक्र करना इसलिए जरूरी हो गया क्योकि जब हम साहित्य पढ़ते हैं तो वह केवल शब्द ही होते हैं लेकिन जब उन्ही शब्दों को संगीत  और स्वर मिल जाते हैं तो वे बहुत गहरे तक असर कर जाते हैं। सावन पर कुछ बात करना संभव नहीं है क्योकि सावन केवल एक और महीना भर नहीं है। यहाँ इस बार इस सावन को विषय चुनने की ख़ास वजह है। वह है सावन की खुद की गेयता को भारतीय , खासकर हिंदी फिल्मकारों द्वारा पहचान पाना और उसका चित्रांकन। चित्रांकन शब्द के प्रयोग के पीछे भी ख़ास वजह है। इसे हम फिल्मांकन भी लिख सकते थे लेकिन चित्रांकन इसलिए क्योकि सावन को फिल्माना संभव ही नहीं है , इसे सिर्फ चित्रित करने की कलाकारी की जा सकती है। 
सावन का महीना प्रकृति के श्रृंगार का होता है, इस मौसम में प्रेम के उद्दीपन मन की बहार बन के खिलते हैं। सावन का नजारा कवियों, गीतकारों की नई रचनाओं को जन्म देता है। इस मौसम में प्रकृति और इंसान दोनों ही रोमांटिक हो उठते हैं। हरे भरे इस मौसम में पवन भी कुछ ज्यादा ही शोर करती है। यहां की वादियों में जब पवन अपनी उमंग का अहसास कराती है तो होठों से यह गीत निकलना लाजिमी है... सावन का महीना पवन करे शोर...। हम आपको ले चलते हैं हिंदी फिल्मों के उन गीतों की दुनिया में जिनमें सावन के सौंदर्य और इस मौसम में जवां दिलों में उठने वाली उमंग और तरंग का बोध कराया गया है।

भीगी-भीगी रातों में / अजनबी (1974)
ताल से ताल मिला / ताल (1999)
कहाँ से आए बदरा / चश्मे बद्दूर (1981)
एक लड़की भीगी-भागी सी / चलती का नाम गाडी (1958)
बरसो रे / गुरु (2007)
मिलन / सावन का महीना
सावन के बादलो! / रतन
रुमझुम बरसे बादरवा / रतन
चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये/ अमर प्रेम
मेघा छाये आधी रात / शर्मीली
मेघा रे मेघा रे मत परदेश जा रे / प्यासा सावन
सावन बरसे तरसे दिल / दहक
सावन बीतो जाय पिहरवा /
मेघा रे मेघा तेरा मन तरसा रे / लम्हें
मेघा ओ रे मेघा तू तो जाए देश-विदेश / सुनयना
हाय हाय ये मजबूरी / रोटी, कपड़ा और मकान
तुम्हें गीतों में ढालूंगा सावन को आने दो / सावन को आने दो
सावन के झूलों ने मुझको बुलाया / निगाहें
रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन / मंजिल
लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है / चाँदनी
रिमझिम के गीत सावन गाये / अंजाना
हिन्दी सिनेमा में 50 के दशक से लेकर साल 2001 तक की फिल्मों में सावन की छटा घुमड़ती रही है। श्रोताओं ने एक से बढक़र एक गीत सुने मगर पिछले कुछ सालों से सिनेमा में बरखा की बहार नहीं दिखाई दे रही और कभी यह दृश्य दिखता भी है तो उसमें भावप्रवणता कम, जिस्म की नुमाइश ज्यादा होती है। हालांकि दो साल पहले फिल्म गुरु में ऐश्वर्या राय पर पर फिल्माया 'बरसो रे मेघा' गीत जरूर सुंदर था और श्रोताओं ने सराहा भी। पचास से लेकर अस्सी के दशक के दौरान कई वर्षा गीत रचे गए। यह वह कालखंड है जब सावन का महीना ढोल बजा कर हरियाली आने का संदेश देता है। विमल राय की दो बीघा जमीन का यह यादगार गीत नई पीढी ने बेशक न सुना हो, मगर पुराने लोग इसे याद कर झूम उठते हैं। इसी तरह 'दो आंखें बारह हाथ' में 'उमड़-घुमड़ कर आई रे घटा' प्रफुल्लित कर देने वाला गीत बना। यह गीत मानसून के आने का संदेश देता है। वहीं फिल्म गाइड में भी मेघों को पुकारते किसानों को सुना। वर्षा गीत के रूप में किसानों की गुहार हमने फिल्म 'लगान' में भी सुनी जब वे काली घटाओं को घनन-घनन गहराते देखते हैं।
सावन आते ही दो दिलों में प्रेम उमड़ने लगता है। अब तो यह बात वैज्ञानिक तथ्य के रूप में सामने आ चुकी है। सावन में प्रिय की याद और मिलन की कामना पुलकित कर देती है। हिंदी सिनेमा के नायक-नायिका इससे अछूते नहीं हैं। प्रेम में डूबी किसी नायिका के लिए यह सावन लाखों का है, जिसे दो टकिया की नौकरी की चिंता में नायक गंवा देता है। फिल्म 'रोटी कपड़ा और मकान' में बारिश में झूमती जीनत अमान को दर्शक आज भी नहीं भूले होंगे, मगर जहां तक भाव प्रवणता की बात है तो फिल्म परख का गीत 'ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार आई, आंखियों में प्यार आए को श्रेष्ठ रचना मान सकते हैं। इसके संगीत का भी क्या कहना। सितार का इसमें इतनी खूबसूरती से प्रयोग किया गया है कि मन शीतल हो जाता है।
 पचास और साठ के दशक के बीच आई फिल्मों में कई शानदार वर्षा गीत रचे गए। इसमें मादकता भी है और भावप्रवणता भी। इस कड़ी में 1955 में आई फिल्म 'श्री 420' का सॉफ्ट रोमानी गीत 'प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यों डरता है दिल' सर्वश्रेष्ठ गीत है। मन्नाडे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत ने लाखों दिलों में हलचल मचा दी थी। इसी तरह फिल्म अनजाना में राजेंद्र कुमार और बबीता पर फिल्माया 'रिमझिम' के गीत सावन गाए हाय भीगी-भीगी राताें में... को सुन कर युवा श्रोता आज भी रोमांचित हो उठते हैं। इसी तरह फिल्म हमजोली में जीतेंद्र और लीला चंद्रावरकर को 'हाय रे हाय, नींद नहीं आए, दिल में तू समाय, आया प्यार भरा मौसम दीवाना' हृदय की वीणा को झंकृत कर देता है। बरसात का मौसम रिमझिम के तराने लेकर भी आता है। 1985 में आई फिल्म 'काला बाजार' में 'रिमझिम' के तराने लेके आई बरसात' हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक है। बारिश में राजेश खन्ना पर फिल्माए तीन गीतों की भी बरबस याद आती है। पहला 'दो रास्ते' में छुप गए सारे नजारे ओय क्या बात हो गई, दूसरा 'रोटी' में गोरे रंग पे इतना गुमां न कर, तेरा रंग दो दिन में ढल जाएगा' और तीसरा प्रेम कहानी फिल्म का गीत 'प्रेम कहानी में एक लड़का होता है एक लड़की होती है।'
बारिश की रात धान के खेत में फिरोज खान और निकिता पर फिल्माया गीत 'रूत है मिलन की साथी मेरे आ रे, मोहे कहीं ले चल बांहाें के सहारे' को सुन कर दिल में आज भी प्रेम की सुलगन पैदा हो जाती है। 1963 में तो 'बरसात की रात' नाम से फिल्म ही आई थी जिसके एक यादगार गीत 'जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' को श्रोता आज भी नहीं भूल पाए। बारिश में जब दो दिल मिलते हैं तो पल भी छोटे लगने लगते हैं। तभी तो चंबल की कसम में राजकुमार और मौसमी चटर्जी पर फिल्माया गया गीत सिमटी हुई ये घड़ियां फिर से न बिखर जाएं' को सुनकर दिल को बहुत सुकून मिलता है।
सावन का महीना प्रेमियों को मिलने के लिए प्रेरित करता है। तभी तो इस दौरान नायिकाओं को इस समय का बेसब्री से इंजतार रहता है। भूख खत्म हो जाती है, नींद नहीं आती। तभी तो फिल्म मेरा गांव मेरा देश में धर्मेंद्र अपनी नायिका से यही पूछते हैं- 'कुछ कहता है ये सावन, क्या कहता है...।' फिल्म 'आया सावन झूम के' में भी धर्मेंद्र पर एक अच्छा गीत फिल्माया गया- 'बदरा छाए कि झूले पड़ गए हाय मेले लग गए हाय मच गई धूम रे' को श्रोता आज भी नहीं भूले हैं।  किशोर दा का गाया एक वर्षा गीत 'जलवा है जिया मेरा भीगी-भीगी रातों में आ जा गोरी चोरी-चोरी अब तो रहा नहीं जाए रे' को आज भी सावन के महीने में श्रोता सुनते हैं तो उनका दिल प्रिय से मिलने के लिए बेताब हो जाता है। इसी तरह फिल्म रजनीगंधा में नायिका बारिश में भीगने के बाद घर पर गाती है- रजनीगंधा फूल हमारे, महके यूं ही जीवन में।' वर्षा ऋतु में यह गीत सुन कर मन में खुशबू बिखर जाती है। नब्बे के दशक में आई फिल्म चांदनी का गीत 'लगी आज सावन की फिर तो झड़ी है और फिल्म 1942 लव स्टोरी में मनीषा पर फिल्माया गीत रिमझिम-रिमझिम और मिस्टर इंडिया में श्रीदेवी पर फिल्माया वर्षा गीत 'काटे नहीं कटते ये दिन ये रात, कहनी थी तुमझे दिल की बात' उन चुनिंदा ट्रैक में से हैं, जिन्हें श्रोता आज भी पसंद करते हैं।  बारिश में जहां फिसलने का डर होता है वहीं युगल बहक भी जाते हैं। नमक हलाल मेंं अमिताभ ने गाकर यही इशारा किया- 'आज रपट जाएं तो हमें न बचइयो' फिल्म मोहरा और महेश भट्ट की फिल्म 'सर' में भी बारिश के गीत का अच्छा फिल्मांकन हुआ। कुछ साल पहले फिल्म 'गुरु' में बारिश में रचा गया एक सुंदर गीत सुनने को मिला। मगर इसके बाद से ऐसे गीत ठीक उसी तरह गायब हैं जैसे आजकल भारत में अक्सर सावन-भादो के महीने में बादल गायब हो जाते हैं। श्रोताओं को आज भी भावप्रवण वर्षा गीत का इंतजार है।

हिंदी फिल्मों में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए सावन के गीतों का जमकर उपयोग किया गया है। ये गीत सुपर हिट भी हुए और सदाबहार बन गए। गीत संगीत प्रेमी इन्हें सावन के महीने में सुनना पसंद करते हैं क्योंकि इनके बोल इस मौसम का दिल की गहराईयों से बोध कराते हैं।
सुपर स्टार बिग बी यानी अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गीत "रिमझिम घिरे सावन बहक बहक जाए रे मन" सावन में हर कोई सुनना पसंद करता है। मंजिल फिल्म का यह गीत गाया है किशोर कुमार ने। सावन की झड़ी के बीच मनोज कुमार और जीनत अमान पर फिल्माया गया रोटी कपड़ा और मकान फिल्म का गीत "हाय हाय ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी" आज भी पसंद किया जाता है।
सावन के मौसम में जवां दिलों की हसरतों को बयां करता मिलन फिल्म का गीत "सावन का महीना पवन करे शोर" इस मौसम में युवा दिलों में शोर मचाता है। मिलन फिल्म का यह गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया है। "आया सावन झूम के" टाइटल से बनाई गई फिल्म के गीत के बोल भी यही हैं। इस गीत को धर्मेंद्र और आशा पारिख पर मस्ती भरे अंदाज में फिल्माया गया है।
यशुदास की आवाज में रिकार्ड किया गया गीत सावन को आने दो भी इस मौसम में श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर देता है। सावन में जुदाई के दर्द को बयान करने वाले गीत भी काफी प्रसिद्ध हुए हैं। महबूबा फिल्म का किशोर की आवाज में रिकार्ड किया गया गीत मेरे नैना सावन भादों फिर भी मेरा मन प्यासा ऐसे ही गीतों में शुमार है। इसी तरह किशोर द्वारा गाया गया जब दर्द नहीं था सीने में तब खाक मजा था जीने में, अबके शायद हम भी रोये सावन के महीने में नायक के दर्द-ए-दिल को जाहिर करता है।
लोकस्वर में लोक मंगल

लोकस्वर में लोक मंगल

 तुलसी जयंती पर विशेष
लोकस्वर में लोक मंगल 
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 गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन सभी को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का प्रयास किया। वाल्मीकि जी की रचना रामायण को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में राम कथा की रचना की।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में गोस्वामी तुलसीदास के स्मरण में तुलसी जयंती मनाई जाती है। श्रावण मास की सप्तमी के दिन तुलसीदास की जयंती मनाई जाती है। इस वर्ष यह 30 जुलाई 2017 के दिन गोस्वामी तुलसीदास जयंती मनाई जाएगी। गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि वह धारा आज भी प्रवाहित हो रही है।
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गोस्वामी तुलसी दास लोक मंगल के लोक स्वरों के प्रणेता हैं। वह गूढ़ ज्ञान को लोक की भाषा में शब्द देने में सिद्धहस्त है। वह लोक की चेतना और उसके सम्प्रेषण के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। वह जितने बड़े भक्त हैं उससे भी बड़े मनुष्य। मानव उनकी रचना के केंद्र में है। इसीलिए वह आज भी लोक में उतने ही घुले मिले हैं। भारत की ज्ञान परमपरा को लोक में प्रवाहित करने की उनकी मेहनत खुद में बहुत कुछ कह जाती है। साहित्य से इात केवल भक्ति को भी देखें तो तुलसी को गा कर आज हजारो लोग अपनी रोजी चला रहे हैं। मानस मर्मज्ञ और मानस के व्याख्याता बन कर पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं। एक मानस से ही आज हजारों घर पल्लवित और पुष्पित हो रहे हैं। अद्भुत रचना संसार है गोस्वामी जी का। उतनी विशद राशि को भला कुछ पन्नों और शब्दों में कैसे समेटा जा सकता है। तुलसी की प्रत्येक कृति कालजयी हैं। उनके प्रत्येक शब्द सन्देश और मंत्र हैं। उनकी हर रचना पृथ्वी की धारिता को भी पार करने वाली है। वह जितने बड़े कवी हैं उससे भी बड़े युगद्रष्टा हैं। समय को पढऩा और उसके अनुरूप चेतना विकिसत कर लोक को जगा देने में वह माहिर हैं। इसी पर प्रस्तुत है भारत संस्कृतिन्यास के संस्थापक संजय तिवारी का यह विशेष आलेख -


तुलसीदास जी जिनका नाम आते ही प्रभु राम का स्वरूप भी सामने उभर आता है। तुलसीदास जी रामचरित मानस के रचियेता तथा उस भक्ति को पाने वाले जो अनेक जन्मों को धारण करने के पश्चात भी नहीं मिल पाती उसी अदभूत स्वरूप को पाने वाले तुलसीदास जी सभी के लिए सम्माननीय एवं पूजनीय रहे। तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास जी ने अपने बाल्यकाल में अनेक दुख सहे। युवा होने पर इनका विवाह रत्नावली से हुआ, अपनी पत्नी रत्नावली से इन्हें अत्याधिक प्रेम था परंतु अपने इसी प्रेम के कारण उन्हें एक बार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ‘लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ’ अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और तुलसी जी, राम जी की भक्ति में ऐसे डूबे कि उनके अनन्य भक्त बन गए। बाद में इन्होंने गुरु बाबा नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की।
समाज के पथप्रदर्शक
तुलसीदास जी ने उस समय में समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने विधर्मी बातों, पंथवाद और सामाज में उत्पन्न बुराइयों की आलोचना की उन्होंने साकार उपासना, गो-ब्राह्मण रक्षा, सगुणवाद एवं प्राचीन संस्कृति के सम्मान को उपर उठाने का प्रयास किया वह रामराज्य की परिकल्पना करते थे। इधर उनके इस कार्यों के द्वारा समाज के कुछ लोग उनसे ईष्र्या करने लगे तथा उनकी रचनाओं को नष्ट करने के प्रयास भी किए किंतु कोई भी उनकी कृत्तियों को हानि नहीं पहुंचा सका। आज भी भारत के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन होता है। उनके जयंती के उपलक्ष्य में देश के कोने कोने में रामचरित मानस तथा उनके निर्मित ग्रंथों का पाठ किया जाता है। तुलसीदास जी ने अपना अंतिम समय काशी में व्यतीत किया और वहीं विख्यात असीघाट पर संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन अपने प्रभु श्री राम जी के नाम का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया।
जन्म
अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरों शूकरक्षेत्र भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गांव है। वहां आत्माराम दूबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् 1554 के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक मां के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दांत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन मां का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियां नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष का हुआ तो चुनियां भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।

बचपन
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अयोध्या ले गये और वहां संवत् 1561 माघ शुक्ल पंचमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। वहां से कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहां नरहरि बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भांति समझ न आयी। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गांव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूंकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहां शेष सनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहां रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरुजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूंकि मायके में ही थी अत: तुलसीराम ने भयंकर अंधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुंचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है-
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
संस्कृत में पद्य-रचना
संवत् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहां कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छह दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्यमुनि के दर्शन हुए। वहां उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहां के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा, तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।

तुलसीदास की रचनाएं
अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं-
रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली।
इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।
लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।
रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त: साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
रामचरितमानस, रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनय-पत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण, कलिधर्माधर्म निरूपण, हनुमान चालीसा।
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।

श्रीराम से भेंट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहां की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा, तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी दर्शन होंगे। इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। चित्रकूट पहुंच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमानजी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा प्रात: काल फिर दर्शन होंगे। संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुन: प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा, बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं? हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा,
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। 
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तध्र्यान हो गये।
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के मुताबिक, तुलसी के विषय में जो प्रामाणिक, अर्ध प्रमाणिक किवदंतियां और आलेख मिलते हैं, उनसे ज्ञात होता है की वे कई मुस्लिम और अवर्ण व्यक्तियों के अभिन्न मित्र थे। उनकी मित्र मंडली में पासी, चमार, अहीर, धाड़ी, जुलाहा, केवट सभी जातियों के लोग थे। अवर्ण जाति के लोगों से तुलसी की इतनी अभिन्नता के कारण काशी के कट्टर ब्राह्मणों और पंडितों में कैसा प्रवाद फैला होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तुलसी के जन्म और माता-पिता विषयक प्रवाद ने ही इस प्रवाद को बहुत तीव्र और क्लेशकर बना दिया होगा। ‘काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब’, ‘मेरे कोऊ कम को न हौं, काहू के काम कौं’, ‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को’ जैसे टुकड़े उसी अकेलेपन और अमर्ष को व्यंजित करते हैं। उनकी मानासोत्तर रचनाएं जहां उनके भाषा और विधागत वैविध्य का परिचय देती हैं, वहीं उनकी निज वेदना का जीवंत दस्तावेज भी हैं जिसमें वो पूरी दैन्यता और आत्मनिवेदन के साथ राम को संबोधित करते हुए आत्म-पीड़ा का वर्णन करते हैं। 
कलिकाल के बहाने से तुलसी कवितावली और विनयपत्रिका में बाह्य समाज में व्याप्त लोभ, लिप्सा, ईष्र्या-द्वेष, शोषण, भूख, बेकारी, अकाल सामजिक अराजकता, सांस्कृतिक अपदूषण, सामंती वर्ग की मनमानी, कट्टरपंथी धर्मावलम्बियों के वर्णन के साथ तुलसी के अंतर्मन और तन की पीड़ा का उल्लेख किया है। आलोचक रमेश कुंतल मेघ की साहसपूर्ण मगर वस्तुनिष्ठ टिपण्णी तुलसीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को रेखांकित करती है, जब वे समाज के पूरे रंगमंच को देखते-देखते तथा भोगते-भोगते यथार्थवादी एवं व्यवाहरिक भी हो जाते हैं (दोहावली, कवितावली, हनुमानबाहुकादि) तब वे कलिकाल की गर्दन मरोड़ देते हैं। अपने जीवन के परवर्ती चरण में तुलसी आध्यात्मिक और स्वप्नद्रष्टा के बजाय धार्मिक और यथार्थ द्रष्टा हुए हैं। उन्होंने अंतत: घोषित ही किया की सारे समाज तंत्र का आधार ‘पेट’ अर्थात आर्थिक शक्ति है (कवितावाली)। यह उनके समाज दर्शन की महत्तम सिद्धि है जो उन्हें कबीर तक से बहुत आगे ले जा सकती है। आर्थिक दरिद्रता को इतना भोगने-समझने वाला मनुष्य, दरिद्रता के सामाजिक परिणामों को इतना सटीक विश्लेषित करने वाला समाज-पुरुष और दरिद्रता से इतनी प्रगाढ़ नफरत करने वाला लोककवि, तुलसी के अलावा कोई नहीं है।
रामचरितमानस की रचना
संवत् 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहां उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात: काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहां उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुन्दरम् की आवाज भी कानों से सुनी। इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईष्र्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढऩे लगा। इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरु:।
 कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है, काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मञ्जरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है। पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराणऔर सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रात: काल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुंचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।
तुलसी-स्तवन
तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। उसी प्रति के साथ रखे हुए एक कवि मदनलाल वर्मा क्रान्त की हस्तलिपि में तुलसी के व्यक्तित्व व कृतित्व को रेखांकित करते हुए निम्नलिखित दो छन्द भी उल्लेखनीय है, जिन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली की पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। इनमें पहला छन्द सिंहावलोकन है जिसकी विशेषता यह है कि प्रत्येक चरण जिस शब्द से समाप्त होता है उससे आगे का उसी से प्रारम्भ होता है। प्रथम व अन्तिम शब्द भी एक ही रहता है। काव्यशास्त्र में इसे अद्भुत छन्द कहा गया है। यही छन्द एक अन्य पत्रिका साहित्य परिक्रमा के तुलसी जयन्ती विशेषांक में भी प्रकाशित हुए थे वहीं से उद्धृत किये गये हैं। तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पांति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झुलसी-झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी-हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी, कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी। आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी। जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी। रत्नावली-सी अद्र्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ़ प्रीति पाय गये तुलसी। मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।
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जब वे केवल आदर्शवादी हैं, महाकाव्यात्मक भव्यता तथा आध्यात्मिक उन्मेष में महत ललित रचना करते हैं। ‘रामचरित मानस’, ‘जानकीमंगल’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘वैराग्यसंदीपनी’, ‘रामाज्ञाप्रश्न’ आदि इस चरण की देन हैं। दूसरे चरण में वे आदर्श से यथार्थ की ओर मुडऩे लगते हैं, उल्लास से गाम्भीर्य की ओर बढ़ते हैं, और मानस के ‘परमब्रह्म राम’ की परम-पददायक गाथा के स्थान पर ‘कवितावली’ के लोकमंगल के नायक श्री रघुनाथ का जीवन गाने लगते हैं। इस चरण में उनकी काव्यात्मक भव्यता का स्थान वेणुगीतात्मक (लिरिकल) वैयक्तिकता ले लेती है, आध्यात्मिक उन्मेष वाली आस्था श्रद्धा-विश्वास के साथ-साथ नैतिक प्रायश्चित, पश्चाताप तथा सामाजिक-सन्देश-तर्क आदि का भी समावेश हो चला है। इसी वेणुगीतात्मक चरण में वे अपनी आत्मकथा कहने और समाज की निर्भात आलोचना करने की नयी जीवन-दृष्टि और सामथ्र्य पाते हैं। इसके साथ वे यथार्थ की ठोस भूमि पर उतरते चले जाते हैं। ‘गीतावली, ‘श्रीकृष्णगीतावली’, ‘विनय-पत्रिका’, ‘बरवै’, ‘दोहावली’ ‘सतसई’, ‘हनुमान-बाहुक’ आदि मुक्तक कृतियां इस चरण की देन हैं।
-डॉ. मेघ 

जिसके आगे पीछे कोई शास्त्र नहीं है। वहां लोकजीवन का व्यापक अनुभव है, उनका अपना चिंतन है और गहरी सहृदयता है। यह सब रामचरित मानस में भी है, विशेषत: उसके मानवीय संबंधों के चित्रण, कथा के रचना-विधान और काव्यभाषा की बनावट में। परन्तु उनकी गंभीर चिन्तनशीलता और सहृदयता के एक से बढक़र एक उदाहरण विनयपत्रिका में मिलते हैं। कवितावली के आत्मकथात्मक छंदों में अपने जीवन और समाज के कठोर सच को सीधे कहने की तत्परता है तो दूसरे अनेक छंदों में उस समय के समाज के यथार्थ का मर्मस्पर्शी चित्रण भी है। उन्होंने समाज में फैली गरीबी, भुखमरी, अकाल और महामारी के त्रासद यथार्थ का जो वर्णन किया है, उसमें उनकी जनजीवन से गहरी आत्मीयता और व्यापक करुणा व्यक्त हुई है। तुलसीदास के काव्य का यह पक्ष शास्त्र से मुक्त एवं लोक अनुभव से प्रेरित है।
- मैनेजर पाण्डेय

लोकमर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्रा की निन्दा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अन्तरात्मा बहुत व्यथित हुई। इस दल का लोकविरोधी स्वरूप गोस्वामीजी ने खूब पहचाना। अशिष्ट सम्प्रदायों का औद्धत्य गोस्वामीजी नहीं देख सकते थे। इसी औद्धत्य के कारण विद्वान और कर्मनिष्ठ भी भक्तों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे थे, जैसा कि गोस्वामीजी के इन वाक्यों से प्रकट होता है। कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान बिहीन। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है, लोगों के चलते चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है, जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते हैं।
गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो।
-आचार्य रामचंद्र शुक्ल 


भाषा पर जैसा अधिकार गोस्वामीजी का था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। पहली बात तो यह ध्यान देने की है कि अवधी और व्रज काव्यभाषा की दोनों शाखाओं पर उनका समान और पूर्ण अधिकार था। रामचरितमानस को उन्होंने अवधी में लिखा है जिसमें पूरबी और पछांही (अवधी) दोनों का मेल है। कवितावली, विनयपत्रिका और गीतावली तीनों की भाषा व्रज है। कवितावली तो व्रज की चलती भाषा का एक सुन्दर नमूना है। पार्वतीमंगल, जानकीमंगल और रामलला नहछू ये तीनों पूरबी अवधी में हैं। भाषा पर ऐसा विस्तृत अधिकार और किस कवि का था? न सूर अवधी लिख सकते थे, न जायसी व्रज।

हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।
अब तुलसी का होइंगे, नर के मनसबदार ।।

जब गोस्वामी तुलसी दास को सम्राट अकबर ने अपनी मनसबदारी प्रदान करी तब उन्होंने इन पंक्तियों के माध्यम से स्वयं को रघुवीर अर्थात् श्रीराम का दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है।
-पद्मभूषण  आचार्य रामकिंकर जी 


भक्ति-आन्दोलन और तुलसी-काव्य का अन्यतम सामाजिक महत्त्व यह है कि इनमें देश की कोटि-कोटि जनता की व्यथा, प्रतिरोध-भावना और सुखी जीवन की आकांक्षा व्यक्त हुई है। भारत के नए जागरण का कोई महान कवि भक्ति-आन्दोलन और तुलसीदास से पराड।मुख नहीं रह सकता। (परंपरा का मूल्यांकन, भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास, पृष्ठ-95 रामविलास शर्मा)।

तुलसीदास स्वयं ‘मानस’ के प्रथम व्यास थे। उनके शिष्यों एवं अन्य बुद्ध पुरुषों ने इस व्यास-परंपरा को जीवन-दान देकर निरंतर जीवित रखा है। पं. रामगुलाम जी, पं. रामकिंकर जी, मोरारीबापू इस परंपरा में उल्लेखनीय हैं।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

महात्मा गांधी का आत्म-शुद्धि का उपदेश और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ दोनों एक ही वस्तु हैं। विश्व राजनीति को दिया गया गोस्वामीजी के ‘रामराज्य’ का आदर्श वस्तुत: पूर्ण लोकतंत्र ही है। (तुलसी और उनका काव्य, पंडित रामनरेश त्रिपाठी, पृष्ठ-273) 

तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पंडित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की। (हिंदी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद, पृष्ठ-101)

‘महलों और झोपडिय़ों में समान रूप से लोग इसमें रस लेते हैं। वस्तुत: भारतवर्ष के इतिहास में गोस्वामीजी का जो महत्वपूर्ण स्थान है, उसकी समानता में कोई आता ही नहीं, उसकी ऊंचाई को कोई छू नहीं पाता। (द्रष्टव्य-कल्याण, वर्ष 47, अंक-6) रामचरितमानस के अंग्रेजी अनुवादक श्री ग्राउस के विचार

तुलसीदास जी अपने ही तक दृष्टि रखने वाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखने वाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत के बीच उन्हें भगवान के रामरूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा है। (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-99)
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इंटरनेट पर हर पल होती है आधी दुनिया के साथ यौन हिंसा

इंटरनेट पर हर पल होती है आधी दुनिया के साथ यौन हिंसा

बहस में इस बार
इंटरनेट पर हर पल होती है आधी दुनिया के साथ यौन हिंसा

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डॉ. अर्चना तिवारी 
सदियों से हम जिस दुनिया के बाशिंदे हैं, उसमें समय के बदलाव के साथ मनुष्यों ने अब अपना एक नया ‘राष्ट्र’ बना लिया है। यह एक ऐसा काल्पनिक राष्ट्र है, जिसकी कोई सरहद नहीं। इसे बने हुए अभी ज्यादा समय भी नहीं बीता है, लेकिन इसकी जनसंख्या अब एक अरब से भी ज्यादा हो चुकी है, जो इसे चीन और भारत के बाद तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश का दर्जा प्रदान करती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस संख्या तक पहुंचने में आधुनिक मानव को दो लाख वर्ष लगे हैं।

वर्तमान समय में इंटरनेट की इस दुनिया ने सूचना व ज्ञान के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। इंटरनेट की सकारात्मक भूमिका को आंकने के लिए किए गए सर्वेक्षणों में ये तथ्य सामने आए हैं कि इंटरनेट वूमन एम्पॉवरमेंट का एक अदृश्य लेकिन सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। इस माध्यम से जहां एक ओर महिलाओं के लिए आर्थिक संभावनाओं के द्वार खुले हैं, वहीं दूसरी ओर इसने सोशल मीडिया के जरिए उन्हें अपने विचार अभिव्यक्त करने का एक मंच भी दिया है। हाल ही में हुए कुछ सर्वे बताते हैं कि इंटरनेट उपयोग करने वाली महिलाओं में से आधी ने ऑनलाइन नौकरी के लिए अप्लाई किया और करीब एक तिहाई ने इस माध्यम से अपनी आय में वृद्धि भी की है।

भारत में तीन साल पहले महिलाओं ने पैल्ली पूला जादा नामक ऑनलाइन स्टोर शुरू किया था, जिसमें अब करीब 200 से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं। शोध बताते हैं कि जिन देशों में आय और शिक्षा के क्षेत्र में कम असमानता होती है, वहां बाल मृत्यु दर कम व आर्थिक विकास की दर अधिक होती है। महिलाएं इंटरनेट से प्राप्त मंचों की सहायता से अपने और समाज से जुड़े तमाम मुद्दों पर अपनी बुलंद आवाज पूरी दुनिया को सुनाने में सक्षम हैं। कांगो में महिलाओं ने अपने अनुभव साझा करने के लिए इंटरनेट कैफे खोले और देश के युद्धग्रस्त क्षेत्रों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के विशेष दूत की नियुक्ति करवाने में सफल हुर्इं। इसी तरह केन्या में महिलाओं ने लैंगिक भेदभाव और हिंसा का सामना करने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया। उन्होंने पीड़ितों के समर्थन में ग्रुप बनाया और लीगल चेंज की मांग की।

ब्राजील में महिलाओं ने ‘आई विल नॉट शट अप’ नामक ऐप बनाया जो महिलाओं पर होने वाले हमलों पर नजर रखता है। बांग्लादेश में महिलाएं ‘माया’ नामक ऐप से लाभान्वित हो रही हैं। ये ऐप स्वास्थ्य से लेकर कानूनी मामलों तक हर प्रकार के सवालों का जवाब देता है। इससे दूर-दराज के क्षेत्रों की महिलाओं को एक्सपर्ट्स की सलाह मिल जाती है। इंटरनेट की इस दुनिया ने वो काम कर दिखाया है, जिसे कई देशों की सरकारें नहीं कर पार्इं। यह अब एक ऐसी नई दुनिया बन कर उभरा है, जहां लिंग व जाति से परे ‘सब बराबर’ हैं और निरंतर विकास की दिशा में एक साथ आगे बढ़ रहे हैं।

लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अनेक लाभों के बावजूद इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच न केवल पुरुषों की तुलना में बेहद सीमित है बल्कि यह चुनौतीपूर्ण भी है। क्योंकि उन्हें इस दुनिया में भी उन तमाम हिंसाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिनसे वे अपने समाज या गली-चौराहों में दो-चार होती हैं। यहां उल्लेखनीय है फेसबुक का एक ग्रुप ब्लोक्स एडवाइस जो मई में शुरू हुआ, उसकी हरकत से आज पूरा सभ्य समाज शर्मसार है। दो लाख पुरुष सदस्यों का यह समूह बलात्कार की बुराइयों के बारे में नहीं बल्कि उसकी अच्छाइयों पर चर्चा करता है। ये पुरुष बताते हैं कि लड़की का किस तरह रेप किया जाए। किस तरह उसकी मर्जी के खिलाफ उससे एनल सेक्स किया जाए और दूसरे मर्द उन बातों के मजे लेते हैं। उसमें अपने अनुभव जोड़ते हैं। यह सीक्रेट ग्रुप आस्ट्रेलिया में शुरू हुआ था। इस पेज के बारे में लोगों को तब पता चला, जब राइटर क्लीमेंटीन फोर्ड ने अपने फेसबुक पेज से इस समूह के कुछ स्क्रीनशॉट पोस्ट किए। इस ग्रुप में बहुत कुछ लिखा पाया गया।

 देखिए उसके दो नमूने: –

‘अगर औरतों से उनकी वेजाइना, कूल्हे, मुंह और खाना पकाने की कला निकाल दी जाए, तो समाज को उनकी कोई जरूरत नहीं होगी।’

-‘औरतों को अगर हमारे साथ सेक्स न करना हो, तो वो हमसे मीटर भर दूर ही रहें।’


यह पहली बार नहीं है, जब ग्रुप की चर्चा हो रही है। मई में, जब यह ग्रुप शुरू हुआ था, तब मीडिया में इसका जिक्र हुआ था। इसे शुरू करने वाले ब्रोक पॉक ने डेली टेलीग्राफ को बताया था कि यह ग्रुप मर्दों ने एक-दूसरे को सहारा देने के लिए बनाया है। ‘हमने ग्रुप के कुछ नियम बनाए हैं और जो उन्हें तोड़ता है, हम उसे ग्रुप से निकाल देते हैं। हम ये चाहते हैं कि जो बातें पुरुष किसी से नहीं कह पाते, वो आपस में कह सकें। हम टीशर्ट बनाते हैं और उन्हें बेच कर मिले पैसों को चैरिटी में दे देते है।’
इस घिनौनी सोच से इंटरनेट पर महिलाओं की सुरक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह विचारणीय है कि अगर यह चैरिटी रेप का ‘आनंद’ लेकर होती है, तो ऐसी चैरिटी की किसी को जरूरत नहीं है। बात यह नहीं कि ये प्रो-रेप बातें किसी सीक्रेट ग्रुप में कही जा रही हैं, तो इनसे कोई नुकसान नहीं होगा। मुद्दा यह है, कि ये कैसी सोच है लोगों की, जिसमें यौन हिंसा पर मजे लिए जाते हैं? हो सकता है आप कहें कि ये तो सिर्फ बातें हैं। आप ये भी कह सकते हैं कि ऐसी बातें करने वाले लोगों का यह एक छोटा समूह है। सारे मर्द ऐसे नहीं होते। जी हां, सभी मर्द ऐसे नहीं होते, लेकिन दो लाख की संख्या कोई छोटी नहीं होती। सोचिए, इस सोच वाले मर्द दुनिया में घूम रहे हैं। और जाहिर है कि इंटरनेट के माध्यम से इनकी संख्या बढ़ती ही जाएंगी और ये मर्द हमारे आस-पास ही होंगे, अलग-अलग रूप में। आखिर इनकी भी बेटियां होंगीं, पत्नियां होंगीं। आज जब ये गैंग रेप जैसी अमानवीय यौन हिंसा पर मजे ले सकते हैं, तो कल ये ऐसा सच में होते हुए देख कर भी चुप ही रहेंगे। कोई दो राय नहीं कि सेक्स की फंतासी सभी करते हैं, लेकिन रेप सेक्स नहीं होता। सेक्स यानी संयोग तो वह होता है, जिसमें दोनों पार्टनर की मर्जी हो और दोनों समान रूप से भोग (आनंद) कर रहे हों। वो नहीं जिसमें मर्द औरत पर जानवर की तरह सवार हो और औरत रो रही हो। यह किसी की भी फंतासी का हिस्सा कैसे हो सकती है? जिस समाज में ऐसे ग्रुप चल रहे हों, वहां की महिलाएं सुरक्षित कैसे महसूस कर सकती हैं।

औरतें कैसे सेफ महसूस कर सकती हैं जब उन्हें लगे कि बसों, पार्कों, सुनसान जगहों या फिर मॉल में उनके सामने खड़ा मर्द उनके साथ रेप करने के बारे में सोच रहा है। और ऐसा न कर पाने की सूरत में किसी वेबसाइट पर उसे अपनी कल्पना में लाकर उसके साथ बलात्कार करेगा। पोर्न साइटों पर रोज-हर पल अस्मत लूटी जाती है। इस रेप कल्चर की सच्चाई सचमुच भयावह है और सबसे ज्यादा डरावनी है इंटरनेट पर आधी दुनिया के लिए ऐसी हिंसा की साजिशें, जो निरंतर चल रही हैं। पुरुषों की कल्पना में हर दिन जिस तरह स्त्रियां रौंदी जा रही हैं, उसकी चिंता करने का नहीं अब उससे कानूनी तरीके से निपटने का वक्त आ गया है।
महिलायें बदल देंगी दुनिया की तस्वीर

महिलायें बदल देंगी दुनिया की तस्वीर

महिलायें बदल देंगी दुनिया की तस्वीर 
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डॉ. अर्चना तिवारी 
विश्व की आर्थिक दशा को महिलायें बदल सकती हैं। यदि अवसर की समानता और सुविधाएं उपलब्ध हो तो आधी दुनिया सच में विश्व की अर्थशक्ति में कई गुना वृद्धि हो जायेगी। यह केवल कल्पना या कहने की बात नहीं है। ऐसा होने जा रहा है। दुनिया इस ताकत को समझ भी रही है और इसकी व्यवस्था भी बन रही है। दुनिया की आर्थिक ताकत में लगभग 55 ख़रब का इजाफा अकेले इस प्रयास से हो सकता है जिसके लिए अभी से तैयारियां शुरू कर दी गयी हैं। 

इस बात की पुष्टि अभी हाल में प्रकाशित एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट भी कर रही है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन  ने कहा है कि अगर कामकाज की दुनिया में महिलाओं को भी भरपूर मौक़े मिलें तो दुनिया की अर्थव्यवस्था को अरबों-खरबों डॉलर का फ़ायदा हो सकता है.संगठन की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि कामकाज की दुनिया में महिलाओं और पुरुषों के बीच के अन्तर को अगर साल 2025 तक सिर्फ़ 25 फ़ीसदी तक भी कम कर दिया जाए तो दुनिया भर को 5.8 ट्रिलियन यानी क़रीब 55 खरब डॉलर की आमदनी हो सकती है.

संगठन दुनिया भर में रोज़गार और कामकाज की दुनिया में हो रही हलचल पर नज़र रखता है और हर साल विश्व के आर्थिक और सामाजिक नज़रिए पर रिपोर्ट जारी करता है.अपनी ताज़ा रिपोर्ट में संगठन ने कहा है कि उत्तरी अफ्रीका, अरब देश और दक्षिणी एशियाई देशों में ज़्यादा फ़ायदा होगा, क्योंकि इन्हीं क्षेत्रों में महिलाओं को कामकाज के समुचित मौक़े नहीं मिल पाते हैं.संगठन की ये ताज़ा रिपोर्ट कामकाज की दुनिया में महिलाओं की स्थिति की तस्वीर पेश करती है और पिछले 20 वर्षों के दौरान हुए बदलाव का भी एक आकलन पेश करती है.

रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष बिन्दु ये है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच कामकाज के क्षेत्र में बहुत बड़ा अन्तर बना हुआ है और वो ये कि महिलाओं को कामकाज और प्रगति के समुचित अवसर और उपयुक्त माहौल नहीं मिल पाते हैं. संगठन का कहना है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच कामकाज की दुनिया में इस अन्तर को अगर दूर कर दिया जाए और महिलाओं को कामकाज करने और प्रगति करने के लिए अनुकूल माहौल मिले तो अर्थव्यवस्थाओं को बहुत बड़ा फ़ायदा हो सकता है.

रिपोर्ट में चिन्ता जताई गई है कि कामकाज की दुनिया में महिलाओं के सक्रिय होने के रास्ते में अनेक बाधाएँ आती हैं.पहली बात तो यही है कि पुरुषों के मुक़ाबले बहुत कम संख्या में महिलाएँ कामकाज की दुनिया में क़दम रखना चाहती हैं.उस पर तुर्रा ये है कि अगर वो कामकाज की दुनिया में क़दम रख भी लें तो पहले तो उन्हें उपयुक्त कामकाज या रोज़गार नहीं मिलता और अगर मिल भी जाए तो उन्हें वहाँ सही माहौल नहीं मिलता.अक्सर ये भी देखा गया है कि महिलाओं को अच्छे दर्जे, प्रतिष्ठा या गुणवत्ता वाला कामकाज या रोज़गार नहीं मिलता.

इस रिपोर्ट के लेखकों में शामिल स्टीवन टॉबिन का कहना है कि दुनिया भर में लोगों को महिलाओं के कामकाज करने पर अपने नज़रिए में बदलाव लाना होगा.और ये बदलाव कामकाज की दुनिया और व्यापक रूप में पूरे समाज को लाना होगा. अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ये रिपोर्ट निष्कर्ष पेश करते हुए कहती है कि समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त असलियत में लागू हो.यानी समान कामकाज करने के बदले दिए जाने वाले वेतन में महिलाओं और पुरुषों के बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए.देखा गया है कि एक जैसा कामकाज करने के लिए भी अक्सर महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले कम मेहनताना या वेतन मिलता है.

रिपोट् ये भी कहती है कि महिलाएँ अपने घरों में जो बच्चों और अन्य परिजनों की देखभाल और अन्य कामकाज करती हैं, वो या तो बन्द हो या फिर उसके बदले उन्हें मेहनताना मिलना चाहिए.साथ ही कामकाज और रोज़गार के क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों के बीच मौजूद भेदभाव के माहौल में सुधार लाया जाए.इसके अलावा कामकाज के स्थानों पर महिलाओं और पुरुषों पर होने वाली किसी भी तरह की हिंसा और उनकी प्रताड़ना को भी रोकने की पुकार लगाई गई है.


गर्व कीजिये यह, यह आदमी हमारा प्रधानमंत्री है

गर्व कीजिये यह, यह आदमी हमारा प्रधानमंत्री है

गर्व कीजिये यह, यह आदमी हमारा प्रधानमंत्री है 
65 साल की उम्र में 95 घंटे एक्शन मोड में  प्रधानमंत्री 
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संजय तिवारी 
भारत की नयी पीढ़ी के लिए सबक है। जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार आलोचना करते हैं उन्हें भी उनसे यह सीख जरूर लेनी चाहिए। भारत का पैसठ साल की उम्र  का एक आदमी लगातार 95 घंटे काम करता है। वह इन घंटो में ही तीन  देशो की यात्रा करता  है।  33 कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है और सही सलामत स्वदेश लौट कर उसी ऊर्जा के साथ नए कार्यो में जुट जाता है। यह क्षमता है भारत के प्रधानमन्त्री की। यकीन के साथ कहा जा सकता है की इतनी कड़ी म्हणत करने वाले दुनिया में बहुत काम ही लोग होंगे। और कुछ हो या न हो , नयी उम्र के लोगो और खासकर छात्रों को अपने प्रधानमंत्री की कार्य क्षमता और शैली की जानकारी जरूर रखनी चाहिए। वह पीढ़ी जो रात 12 -1 बजे तक सीरियल या चैटिंग में व्यस्त रहती है और सुबह 9 -10  बजे तक सोती रहती है उसके लिए मोदी की मेहनती तस्वीर की जानकारी बहुत जरूरी है। 
अभी इसी बार की उनकी चार देशो की यात्रा में साथ गए अफसरों को भी पसीने आ गये होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  अपनी 95 घंटे की यात्रा में लगभग 33 घंटे विमान में ही गुजारे और  33 कार्यक्रमों में हिस्सा लिए। पीएम नरेंद्र मोदी ने चार रातों में से दो तो विमान में उड़ान भरते में बिताई हैं। पुर्तगाल और नीदरलैंड में भारतीय प्रधानमंत्री ने रात नहीं गुजारी। अब प्रधानमंत्री ने विदेश यात्राओं के लिए तय कर रखा है कि  यदि किसी देश में अगले दिन कोई कार्यक्रम नहीं है तो रात का इस्तेमाल दूसरे गंतव्य के लिए करना है। मोदी ने इस यात्रा के दौरान लिस्बन से वॉशिंगटन और वहां से हेग और भारत की उड़ान में अपने इसी फार्मूले का पालन किया।
आठ घंटे की उड़ान के बाद पीएम मोदी वॉशिंगटन पहुंचे। 50 सदस्यों वाले भारतीय प्रतिनिधिमंडल को विलार्ड कॉन्टिनेंटल होटल में ठहराया गया। जबकि अमेरिका में अगले दो दिनों के दौरान प्रधानमंत्री को अमेरिकी सीईओ के साथ मीटिंग और व्हाइट हाउस में कार्यक्रमों सहित 17 कार्यक्रमों में शामिल होना था। उन्होंने वॉशिंगटन में दूसरी रात नहीं बिताई और वॉशिंगटन के समय के अनुसार रात 9 बजे नीदरलैंड के लिए रवाना हो गए। मोदी का इस कदर बिजी शेड्यूल देखकर उनके साथ प्रतिनिधिमंडल में गए अफसरों के होश उड़े रहे। मोदी को नीदरलैंड में रह रहे भारतीयों को संबोधित करने के लिए 7 कार्यक्रमों में हिस्सा लेना था। नीदरलैंड के समय के अनुसार वह  शाम 7 बजे दिल्ली की उड़ान भरने के लिए एयरपोर्ट पहुंच गए। बुधवार की सुबह वापस दिल्ली आए। गुरुवार को मोदी गुजरात जाने के लिए फिर से उड़ान भरेंगे।

तीन देशों की सफल यात्रा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुधवार सुबह दिल्ली लौटे हैं। पीएम के दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचने पर विदेश मंत्री सुषमा स्वाराज ने बड़ी गर्म-जोशी के साथ उनका स्वागत किया। पीएम मोदी की 95 घंटे की यात्रा शेड्यूल काफी व्यस्त रहा है। इस यात्रा में पीएम के करीब 33 घंटे का समय एयर इंडिया बोइंग की उड़ान में ही बिताया है। यात्रा के दौरान मोदी ने अमेरिका, पुर्तगाल और नीदरलैंड में कुल 33 कार्यक्रम व मीटिंग अटेंड की हैं। पीएम की यात्रा की चार रातों में दो रात विमान यात्रा में ही बीती हैं। यह है हमारा राष्ट्रनायक।  गर्व कीजिये कि यह आदमी हमारा प्रधान मंत्री है। 
लोक की चेतना उसके स्वरों में ही होती है

लोक की चेतना उसके स्वरों में ही होती है

सावन शब्द जेहन में आते ही एक अलग अनुभूति होती है। बरखा , बहार , सावन और फिर यही से शुरू होने लगती है संगीत की वह धारा जिसे लोक में पिरो कर प्रवाह को केवल महसूस किया जा सकता है। जिस लोक संगीत  से होकर ऋतुओ का प्रवाह निखरता है उसी में सावन जैसे महीने की अलग पहचान बन जाती है। सावन के झूले हों या फिर सावन की कजरी , जिस भी रस में डूबना हो , हर कहीं लोक ही संगीत के सुरो में मिलता है और डूबता है। लोक का यह स्वर कदापि अश्लील नहीं हो सकता।  लोक के स्वरों में मंत्रो की सी पवित्रता होती है। इसीलिए लोकस्वर ही  सीधे अंतर्मन के अंतस्तल तक लेकर जाते हैं। 
- पद्मश्री मालिनी अवस्थी 
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लोक की चेतना उसके स्वरों में ही होती है


 लोक की चेतना उसके स्वरों में ही होती है। उसकी परम्पाराओ और समस्त मान्यताओं को इन्ही सुरों में देखा जा सकता है। लोकस्वर को ही संगीत से जोड़ कर मानस को स्पंदित करने वाली एक आवाज़ है मालिनी अवस्थी की। मालिनी अवस्थी की विशेषता है की जब वह कजरी गए रही होती हैं तो मंच पर सावन को बुला लेती हैं और जब होली जाती हैं तो मंच पर फाहुनि बयार झकोरे मारने लगती है। जब वह सोहर गाती  हैं तो मंच पूरी तरह से सौर बन जाता है और जब ठुमरी और दादरा पर थिरकती हैं तो घुँघरू स्वयं गाने लगते हैं। मालिनी हैं ही ऐसी। लोक और सुर को सगीत में घोल कर लोक तह प्रवाहित कर देने की अद्भुत क्षमता है इस गायिका में। अबकी आये सावन और लोक में उनकी संगीतमय  यात्रा पर प्रख्यात लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी से अपना भारत के सम्पादक विचार संजय तिवारी ने लॉबी बात चीत की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश। 


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मालिनी अवस्थी भोजपुरी एवं अवधी लोकगीतों के लिए आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है । बचपन से गीत-संगीत का शौक रखने वाली मालिनी अवस्थी सबसे पहले तब चर्चा में आईं जब लोगों ने इनको एनडीटीवी के एक शो में देखा। हालांकि मालिनी अवस्थी पूर्वांचल के संगीत-प्रेमियों के बीच बहुत पहले से काफी चर्चित रहीं हैं। मालिनी अवस्थी भोजपुरी संगीत में व्याप्त अश्लीलता का पुरजोर विरोध करने एवं साफ़-सुथरे गीतों को तरजीह देने के लिए खास जानी जाती हैं। महुआ चैनल के एक रियल्टी शो में इन्होने शो के सारे बंधनों को तोड़ते हुए अश्लीलता का विरोध किया जिसे तब प्रसारित भी किया गया। वर्ष 2012 में रिलीज हुई बौलीवुड की फिल्म ‘एजेंट विनोद’ का एक गाना ‘दिल मेरा मुफ्त का...’ काफी मशहूर हुआ था. यह गाना चर्चा में इसलिए भी आया कि इसे लोकगीतों की गायिका मालिनी अवस्थी ने गाया था. आमतौर पर मालिनी को लोग ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी गाने गाते व नृत्य करते देखा करते थे. पर हिंदी फिल्म ‘एजेंट विनोद’ के इस आइटम सौंग को मालिनी की आवाज में सुनना लोगों के लिए अनोखा था।  भारतीय-संगीत में लोक-गीतों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। गाँव-गलियारों और चौपालों से निकलने वाले लोक-गीत एक पूरे समय और समाज का प्रतिबिंब बनकर खिलखिलाते रहे हैं। गाँव से क़स्बों, क़स्बों से नगरों, नगरों से महानगरों और अब तो महानगरों से महासागरों के पार तक की इनकी यात्रा, कौतुक से भर देती है। करोड़ों-करोड़ लगाने और कमाने वाला भारतीय सिनेमा भी अक्सर लोक-गीतों के सहारे बॉक्स-ऑफ़िस की सफल-यात्रा पूरी करता रहा है। इस यात्रा के साथ एक और यात्रा होती है, हमारी संस्कृति की यात्रा। कला की यात्रा और हाँ, एक कलाकार की यात्रा। मालिनी अवस्थी उस यात्रा में बहुत आगे निकल चुकी हैं। यह राय या उनकी कला और कलाकार पर दी गई ऐसी कोई भी छोटी-बड़ी राय, उनकी आगामी-यात्रा की आवश्यक्ता क़तई नहीं बन सकती है।
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लोकगीतों से पहला परिचय कब और कैसे हुआ ?
हम जहाँ पैदा होते हैं एवं हमारा बचपन जहाँ बीतता है, वह  परिवेश हमारे जीवन पर काफी असर डालता है। मेरे साथ स्थिति यह रही कि मेरा पूरा बचपन पूर्वांचल की माटी पर बीता जबकि मै रहने वाली लखनऊ की हूँ। लोकगीत और लोकपरम्पराओ से पहला परिचय घर-परिवार में  ही हुआ। माँ तो नहीं गातीं थीं, लेकिन दादी और खासकर दोनों ताई जी लोग काफी अच्छा गाती थीं। जब वे लोग गाने बैठतीं थीं, तो घर की छोटी लड़कियां भी उनके साथ गाने बैठ जाती थीं। साँझा पराती , सगुन , कन्यादान , शादी, जनेऊ आदि के गीत होते थे। मै भी साथ में बैठकर मुँह चलाती थीं क्योंकि हमारी समझ में तब बहुत ज्यादा कुछ आता नहीं था। अगर मोटे तौर पर कहूँ तो लोकगीत आदि से पहला परिचय बचपन में परिवार के माध्यम से ही हुआ।

लोकगीत को आप कैसे परिभाषित करती हैं ?
लोकगीत को अगर कम शब्दों में कहें तो संगीत की वह विधा है जिसमे प्रत्यक्ष तौर पर लोक यानी ग्रामीण समाज की उपस्थिति दिखे। लोकगीत महज संगीत नहीं होते बल्कि हमारे समाज के तमाम रस्मों, रिवाजों, संस्कारों एवं पर्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोकगीत के बारे में यह कहना सर्वाधिक उचित होगा कि ये समाज से जुड़ी सर्वाधिक सार्थक संगीतमय  विधा  है। हमारे समाज के तमाम पहलुओं को संगीत के माध्यम से अगर प्रस्तुत किये जाने की बात हो तो लोकगीत ही सर्वाधिक सुलभ व सहज माध्यम के रूप में नजर आते हैं। एक पंक्ति में कहें तो लोकगीत लोक की प्रस्तुति  का संगीत है।

ऐसा माना जाता है कि  आप गीतों को गाती ही नहीं हैं बल्कि उन्हें अपने हाव-भाव एवं नृत्य के साथ प्रस्तुत भी करती हैं। गायन व नृत्य का ये सामंजस्य कैसे बनता है ?
जी बिलकुल। दरअसल मै गीतों के लय पर कला की  प्रस्तुति करने के लिहाज से कभी नृत्य नही करती हूं। मै शब्दों और भावों के वातावरण में डूबकर नृत्य करती हूं। अगर गीत विदाई का हो तो ऐसे गाइए कि मानो सुनने वाले और गाने वाले दोनों को लगे कि उनकी अपनी बेटी विदा हो रही हो। जो गीत के शब्द और भाव करवाना चाहते हैं, मै बिना बनावट वही करती हूं। नृत्य भी करती हूं तो ऐसा लगता है कि मानो अपने आंगन में ही हूं। प्रस्तुति के मायने ही यही है कि गीत के शब्द और गायक के हाव-भाव के बीच की सारी दूरियां मिट जाए और दोनों एक हो जाएँ।

यह कब मन में आया कि संगीत को सीखा जाना चाहिए। संगीत सीखना कब, कैसे और कहाँ हुआ ?
मेरे दो गुरु हैं। दोनों  गुरु सुजद हुसैन खां साहब और राहत अली खां साहब आकाशवाणी गोरखपुर में  ही थे। उस समय इन लोगों के कारण आकाशवाणी गोरखपुर की एक अलग ही प्रसिद्धि थी। मैंने और दलेर मेहंदी ने एक साथ ही संगीत की शिक्षा ली। पहले सुजद हुसैन खां साहब और फिर उनके चले जाने पर राहत अली खां साहब से शिक्षा ली। यहाँ एक आश्चर्य की बात ये है कि मेरे ये दोनों गुरुजन मुस्लिम थे, लेकिन भोजपुरी पर उनकी क्या गजब की पकड़ थी! क्या शानदार धुनें, क्या बढ़िया निर्गुण आदि की रचना व गायन करते थे। एक किस्सा मुझे याद है कि १५ अगस्त के अवसर पर हमारे गुरु लोगों ने आकाशवाणी पर एक फीचर तैयार किया। वो कुछ यूँ था – पन्द्रह अगस्त शुभ दिन अईले हों, देश मोर आजाद भईले हों।

संगीत की दुनिया के कुछ ऐसे नाम जिनसे आपका शुरुआती जुड़ाव रहा हो ?
सन तिहत्तर-चौहत्तर की बात है जब मेरी उम्र पाँच-छः साल की रही होगी। उस समय मिर्जापुर, विंध्यांचल में कजरी के काफी कार्यक्रम हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अप्पा जी, गिरजा देवी जी, वागीश्वरी जी आकर गाया करते थे। तब आज के जैसा नहीं था कि एक दिन में कार्यक्रम हों और खत्म हो जाएँ, तब दो-तीन दिन तक कार्यक्रम चलते थे। वह गायन बहुत अधिक समझ तो नहीं आता था, पर इतनी समझ जरूर बन गई थी कि ये अच्छा है। उस समय एक गाना जो बहुत चर्चित था; सिद्धेश्वरी देवी जी भी गाती थीं – सूरजमुख ना जईबे ना जईबे हाय राम! बिंदिया का रंग उड़ा जाय – इस गाने का मतलब तो तब समझ में नहीं आताथा, पर पाँच-छः साल की उम्र से ही हमने इसपर नाचना शुरू कर दिया था। तबसे आजतक मानो वो मेंरे संगीत जीवन का हिस्सा रहा हो।

आप अवधी क्षेत्र से आती हैं लेकिन लोकप्रियता भोजपुरी संगीत की वजह से है! इसकी क्या वजह है ?
देखिये , इसकी वजह है। पिताजी एवं परिवार के लोग अवधी में ही बात करते थे। चूंकि पिताजी डॉक्टर थे तो उनका अधिकांश समय मरीजों के बीच ही गुजरा करता था। उनके जो मरीज आते थे, वे अधिकत्तर ग्रामीण ही हुआ करते थे। उनमे से अधिकांश भोजपुरी में ही बोला करते थे जैसे – डाक्टर साहब बानी का ? – तो उनके ऐसे सवालों का जवाब मै उन्ही की भाषा अर्थात भोजपुरी में ही देने की कोशिश किया करती थी। अब शायद उस दौरान खेल-खेल में हुए ऐसे वार्तालापों के कारण भोजपुरी से अनायास एक जुड़ाव सा होता गया, जिसका ठीक-ठीक पता मुझे भी नहीं चला। खैर अब तो भोजपुरी भी अपनी ही लगती है और भोजपुरी संगीत भी अपना ही लगता है।

क्या आपको लगता है कि टीवी पर भोजपुरी भाषी चैनलों के आने से आपकी ख्याति में और प्रसार हुआ है ?
यह स्वीकारना होगा कि आज टीवी की प्रसिद्धि अपने आप में बहुत बड़ी है। टीवी के माध्यम से मुझे सबसे ज्यादा चर्चा और पहचान २००८ में आए एनडीटीवी के कार्यक्रम जूनून से मिली। इसी कार्यक्रम के बाद सुर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी ने एक अखबार को दिए साक्षत्कार में कहा कि उन्हें मेरा गाना पसंद है। वह  एक बड़ी उपलब्धि उस दौर में रही। इसी कार्यक्रम के निर्माता ने फिर सुर संग्राम का विचार रखा और सुंर संग्राम आया, जिसने चैनल समेत उससे जुड़े हर कलाकार की प्रसिद्धि को एक नया आयाम दिया। लेकिन, मोटे तौर पर यही कहूँगी कि एनडीटीवी के जूनून से मुझे जो पहचान मिली, वो और किसी कार्यक्रम से नहीं मिली।

आप जिस भाषा के संगीत का प्रतिनिधित्व करती हैं, वो गीत में अश्लीलता के लिए काफी विवादित है। आपकी क्या चिंता है इसपर ?
देखिये, भोजपुरी में अश्लील गीतों की बहुलता पिछले एक दशक में खूब हुई है। पहली बात तो ये हैं कि मै इसका पुरजोर विरोध करती हूं। दुसरी बात ये कि इस तरह के गीतों की लम्बी उम्र नहीं होती और न ही ये संगीत कालजयी होते हैं। अगर अश्लील गीतों के भरोसे को छणिक चर्चा प्राप्त भी कर ले तो भोजपुरी संगीत के भावी इतिहास में उसका नाम सम्मान से लिखा जाएगा, ऐसा कतई नही है। तीसरी एक और बात ये है कि ऐसे गीतों की स्वीकार्यता ही कितनी है ? महज उतनी ही है जितनी समाज में बुराई की स्वीकार्यता है। यह समाजिक चिन्तन का विषय है, न कि चिंता का!
 लोक गीत को अब आप कहां देखती हैं?
 हर चीज का एक वक्त होता है. अब दोबारा से लोकगीत पहचान बना रहा है. पॉपुलर हो रहा है. अब कॉमरशियल एल्बम आ रहे हैं साथ ही युवा इसके साथ जुड़ रहे हैं. इससे अच्छा और क्या हो सकता है.

 लोकगीत को कैसे आगे बढ़ा रही हैं?
 मैंने एक सोन चिरय्या नाम से एक संस्था खोली है. इसके तहत मैं शहर-शहर जाकर बच्चों, महिलाओं में लोकगीत का टैलेंट देख रही हूं. एमपीजीएस में भी मृणालिनी अनंत से संपर्क के बाद ये मुमकिन हो पाया. यहां बच्चों में बहुत टैलेंट है.

लोकगीत आप खुद ही बनाती हैं और फिर गाती हैं?
जी नहीं, मैं जगह जगह के लोकगीत को ढूंढती हूं और फिर उस एक हिस्से की आवाज को अपनी आवाज में ढालकर उसका विस्तार करती हूं.
आपको पश्चिमी यूपी से कितना लगाव है?
बहुत लगाव है, खासकर मेरठ से. मैं मेरठ में आना हमेशा पसंद करती हूं. मैंने 1999 में यहां काफी समय बिताया है. मेरे पति अवनीश अवस्थी उस वक्त यहां पर डीएम थे. बाद में मैंने हमेेशा मेरठ को मिस किया. पश्चिमी यूपी में गाए जाने वाली रागिनी मुझे बहुत पसंद है. भले ही हरियाणा वाले इसे अपना लोकगीत कहते हों, लेकिन सही मायने में ये ऐसा हो जाएगा कि जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों में भोजपुरी है.

 अपनी सफलता को किस तरह डिफाइन करेंगी?
ब्याह कर ससुराल आई तो यहां संस्कार और तहजीब तो थे पर बंदिशें नहीं थीं. ससुराल वालों ने मेरी खूब हौसलाअफजाई की. बढ़ते बच्चों को पालना और कैरियर संवारना, दोनों एकसाथ आसान नहीं था पर घर वालों ने पूरा सहयोग दिया। पति प्रशासनिक अधिकारी हैं और काम के सिलसिले में काफी व्यस्त रहते हैं. पर उन के सुलझे खयालों ने मुझे कदमकदम पर प्रोत्साहित किया. नतीजतन, मैं आगे बढ़ती चली गई. हमारा दांपत्य आज अगर बेहद मजबूत है तो इस की मुख्य वजह हमारा आपसी प्यार और एकदूसरे पर गहरा विश्वास है।  बहुत हद तक इसमें मेरे पति का भी सपोर्ट है वो कई जगह पर पोस्टेड रहते और मैं उनके साथ रहती. ऐसे में मुझे नए लोगों और वहां की संस्कृति से जुडऩे का मौका मिला. तभी आज मैं एक सफल सिंगर बन सकी।
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