पद्मावती पर राजपूताना युद्ध

पद्मावती पर राजपूताना युद्ध


पद्मावती पर राजपूताना युद्ध 
संजय तिवारी 
फिल्म पद्मावती को लेकर छिड़ा राजपूताना यद्ध अब और गहरा गया है। बिहार समेत पांच राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक  लगाए जीने के बीच ही ब्रिटैन के सेंसर बोर्ड ने इसे बिना काट छांट के अपनी मंजूरी दे  दी है। इधर भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह फिल्म को लेकर किसी प्रकार की धरना नहीं दे सकता क्योकि इससे सेंसर बोर्ड के निर्णय पर असर पड़ेगा।  इसी बीच जयपुर के नाहर गढ़ किले पर एक व्यक्ति का शव मिला है जिसे इस फिल्म से ही जोड़  कर देखा जा रहा है क्योकि पास में ही पत्थरों पर लिखा मिला कि पद्मावती का विरोध करने वालों हम सिर्फ पुतले नहीं जलाते हैं।इधर इसी मुद्दे पर हरियाणा में भाजपा के मुख्य मीडिया कोऑर्डिनेटर सूरजपाल अम्मू ने अपने पद से इस्तीफ़ा  देकर धमकी दी है कि राजपूत बिरादरी अब और अपमान नहीं सहेगी। गुड़गांव से मिली खबर के अनुसार भाजपा नेता अम्मू का कहना है कि  दिल्ली में राजपूत करणी सेना और मुख्यमंत्री मनोहरलाल के बीच मुलाकात होनी थी लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई। करणी सेना के प्रदेश अध्यक्ष भवानी सिंह, संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अन्य 22 प्रतिनिधि समय से पहुंच गए लेकिन सीएम पिछले दरवाजे से निकल गए। सीएम के इस तरह चले जाने को बीजेपी नेता सूरजपाल अम्मू ने कहा कि सीएम ने राजपूत बिरादरी का अपमान किया है और राजपूत बिरादरी इसको सहन नहीं करेगी।
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नाहरगढ़ में लाश
उधर जयपुर स्थित नाहरगढ़ फोर्ट पर एक शख्स की लाश लटकी मिली। पास में ही पत्थरों पर लिखा मिला कि पद्मावती का विरोध करने वालों हम सिर्फ पुतले नहीं जलाते हैं। घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची। कहा कि पद्मावती फिल्म से जुड़ी जो धमकियां पत्थर पर लिखी मिली हैं, वो इसी व्यक्ति से जुड़ी हैं या नहीं, ये कहना मुश्किल है। मृतक का नाम चेतन सैनी (40) बताया जा रहा है, जो शास्त्री नगर इलाके का रहने वाला है। लड़के के पास से मुंबई का एक टिकट भी मिला है।

बिहार सहित पांच राज्यों में रोक
 इस बीच  फिल्म पद्मावती की रिलीज पर बिहार सरकार ने भी रोक लगा दी है। सीएम नीतीश कुमार ने कहा कि जब तक फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली और विवाद से जुड़े लोग सफाई नहीं देंगे, बिहार में भी फिल्म नहीं चलेगी। बिहार से पहले राजस्थान, यूपी, गुजरात और मध्यप्रदेश सरकारें पद्मावती की रिलीज पर रोक लगा चुकी हैं। नीतीश कुमार ने पद्मावती पर हो रहे विवाद को लेकर रिव्यू मीटिंग की। बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी ने कहा कि रानी पद्मावती हमारी धरोहर हैं और उन्होंने खिलजी से प्रेम नहीं किया था। सेंसर बोर्ड इस मामले को देखे। हमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिपण्णी
इधर सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक व बड़े पदों पर बैठे लोगों द्वारा फिल्म पद्मावती के बारे में की जा रही टिप्पणियों पर सख्त नाराजगी जताई है। कोर्ट ने कहा है कि जब फिल्म की मंजूरी लंबित है, तो सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के ऐसे बयान अवांछनीय हैं। वे कैसे कह सकते हैं कि सेंसर बोर्ड फिल्म को पास करे या नहीं? यह फिल्म के बारे में धारणा बनाने जैसा है, जिससे सेंसर बोर्ड का निर्णय प्रभावित होगा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने विदेश में फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग से जुड़ी याचिका खारिज करते हुए  कहा कि अदालत ऐसी फिल्म पर पहले से धारणा नहीं बना सकती, जिसे अभी सीबीएफसी से सर्टिफिकेट तक नहीं मिला है।
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 राजा रत्नसिंह और सिंहल द्वीप की राजकुमारी की प्रेमगाथा
 चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह और सिंहल द्वीप की राजकुमारी की प्रेमगाथा मलिक मोहम्मद जायसी ने 1540 ईस्वी में लिखी थी। और दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलज़ी के रानी की सुन्दरता को सुनकर उन पर लट्टू हो जाने का वर्णन भी उन्होंने ही किया है। मज़े की बात कि जायसी खुद अलाउद्दीन खिलज़ी के चित्तौड़ हमले से कोई दो सौ साल बाद पैदा हुए थे। चित्तौड़ पर हमला 1303 में हुआ और जायसी पैदा हुए 1477 में, वह भी वर्तमान उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में स्थित एक गांव जायस में। वे एक प्रेममार्गी सूफी कवि थे, जो ईश्वर को स्त्री रूप में देखते हैं।

मसनवी शैली में पद्मावत 
जायसी ने अपनी इस प्रेमगाथा को फ़ारसी लिपि में लिखा था, इसलिए उनके इस अवधी काव्य को उर्दू के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता था। लेकिन सौ साल पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस काव्य को हिंदी में लाये और हिंदी के पाठ्यक्रम में उसकी स्वीकृति दिलाई। मगर राजस्थान के राजपूतों में रानी पद्मिनी को जौहर करने वाली एक ऐसी स्त्री के रूप में सम्मान दिया जाता है, जो हमलावरों से खुद का सम्मान बचाए रखने के लिए आग की ज्वाला में कूद पड़ी थीं। ज़ाहिर है सुदूर राजस्थान तक जायसी की पद्मावत नहीं पहुंची थी लेकिन रानी पद्मिनी वहां एक अमरगाथा बन चुकी थीं। रानी की यह अमर गाथा एक ऐसी गाथा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। खुद आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि मलिक मोहम्मद जायसी का प्रमुख ग्रन्थ पद्मावत है। इसी पद्मावत में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा कही गयी है। यह सूफी काव्य परंपरानुसार मसनवी शैली में 57 खण्डों में लिखा गया है।

त्रिवेणी में पद्मावत का विवेचन
आचार्य शुक्ल अपनी पुस्तक ‘त्रिवेणी’ में पद्मावत के कथानक के दो आधार बताते हैं। उनका कहना है कि ‘पद्मावत की सम्पूर्ण आख्यायिका को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा से लेकर पद्मिनी को लेकर चित्तौड़ लौटने तक हम कथा का पूर्वार्द्ध मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक उत्तरार्द्ध। ध्यान देने की बात है कि पूर्वार्द्ध तो बिल्कुल कल्पित कहानी है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है।’ (त्रिवेणी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ. 22)। शुक्ल जी इसके ऐतिहासिक आधार की और गहरी पड़ताल करते हैं। विक्रम संवत‍् 1331 में लखनसी चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। वह छोटा था इसलिए उसका चाचा भीमसी (भीम सिंह) ही राज्य करता था। भीमसी का विवाह सिंहल के चौहान राजा हम्मी शक की कन्या पद्मिनी से हुआ था, जो रूप, गुण में जगत में अद्वितीय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई की… अलाउद्दीन ने संवत‍् 1346 वि. (सन‍् 1290 ई., पर फ़रिश्ता के अनुसार सन‍् 1303 ई, जो ठीक माना जाता है) में फिर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई की। इसी दूसरी चढ़ाई में राणा अपने ग्यारह पुत्रों सहित मारे गए। जब राणा के ग्यारह पुत्र मारे जा चुके थे और स्वयं राणा के युद्ध क्षेत्र में जाने की बारी आई तब पद्मिनी ने जौहर किया… टॉड ने जो वृत्त दिया है, वह राजपूताने में रक्षित चारणों के इतिहास के आधार पर है। दो-चार ब्योरों को छोड़कर ठीक यही वृत्तांत ‘आईने अकबरी’ में भी दिया हुआ है।
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जनश्रुति में पद्मिनी
लेकिन जनश्रुति थोड़ी अलग है और उसके अनुसार रानी पद्मिनी, चित्तौड़ की रानी थी। पद्मिनी को पद्मावती के नाम से भी जाना जाता है, वे शायद 13वीं 14वीं सदी में हुईं। रानी पद्मिनी के साहस और बलिदान की गौरवगाथा राजस्थान के लोकगाथाओं में अमर है। सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की बेटी पद्मिनी चित्तौड़ के राजा रतनसिंह के साथ ब्याही गई थीं। रानी पद्मिनी बहुत खूबसूरत थीं। एक बार दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की उस पर बुरी नजर पड़ गई। अलाउद्दीन किसी भी कीमत पर रानी पद्मिनी को हासिल करना चाहता था, इसलिए उसने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। रानी पद्मिनी ने आग में कूदकर जान दे दी लेकिन अपनी आन-बान पर आंच नहीं आने दी। अब रानी पद्मिनी विवाद का विषय हैं लेकिन इतना तो तय ही है कि मध्यकाल में स्त्री का अपने सम्मान के लिए जान दे देना उसकी गरिमा को बढ़ाता था। इसलिए रानी पद्मिनी के प्रति लोगों के मन में सम्मान है। संजय लीला भंसाली ने स्वयं अपनी फिल्म का जैसा प्रोमो प्रसारित किया था, उससे यह तो लगता ही था कि तामझाम और चकाचौंध एवं दर्शकों को आकर्षित करने के चलते भंसाली ने रानी के साथ न्याय नहीं किया।

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संभल में जौहर स्मृति मंदिर
उत्तरप्रदेश के संभल जिले  जौहर स्मृति मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में चितौड़ की रानी पद्मावती का अस्थि‍ कलश  भी  रखा है। इतिहासकार डॉ. केके. शर्मा का कहना है कि भारत सरकार के गजेटियर 1965 में भी पवांसा के जौहर का उल्लेख है। इसी से साबित होता है कि वहां रानी और उसके साथ महल में मौजूद महिलाओं ने जौहर किया था। संभल जिले के पंवासा में जौहर स्मृति मंदिर है। यहां 4 अस्थि कलश रखे हैं- रानी पद्मावती, कमलावती, करुणावती। इसके अलावा पवांसा की वीरांगनाओं का एक कलश है, जिसमें रानी पवांरनी और उनके साथ जौहर करने वाली करीब 200 रानियों की अस्थियां शामिल हैं। ग्रामीणों की मानें तो बुलंदशहर, अलीगढ़, बदायूं, मुरादाबाद में कुल 1656 रियासतें थीं, जिसके राजा प्रताप सिंह थे। राजा की छठी पीढ़ी में प्रतापी राजा अनूप सिंह ने राज संभाला। एक बार अनूप सिंह ने श‍िकार के दौरान मुगल बादशाह जहांगीर की शेर से जान बचाई थी। इस पर बादशाह ने उन्हें सिंह दलन की उपाधि से नवाजा। अनूप सिंह की चौथी पीढ़ी में राजा सुरजन सिंह हुए। इन्होंने पवांसा की कच्ची गढ़ी का निर्माण कराया। सुरजन सिंह की 4 संतान हुई, उनमें से एक राजा हेमकरण सिंह के 5 बेटों में से एक कमाल सिंह ने बाद में गद्दी संभाली। इनके बाद इसी वंश के राजा पहुप सिंह और बाद में उनके इकलौते बेटे केसरी सिंह वीर प्रतापी हुए। नवंबर, 1717 में राजा केशरी सिंह के राज्य पर मेवातियों ने आक्रमण कर दिया। केशरी सिंह और उनकी सेना ने मेवातियों का डटकर मुकाबला किया और जीत हासिल की। राजा जब विजयी होकर सेना के साथ मेवातियों के झंडे छीनकर वापस लौटे, तो महल में खड़ी रानी ने समझा कि मेवाती युद्ध में जीत गए हैं और वह महल की ओर आ रहे हैं। यह देखकर रानी सती पवांरनी ने महल में मौजूद करीब 200 वीरांगनाओं के साथ जौहर कर लिया।
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ऐसे संभल पहुंचा चितौड़ की रानियों का अस्थ‍ि कलश
पवांसा के इतिहास को संजोते हुए 20 अक्टूबर 1985 में एक जौहर स्मृति मंदिर का निर्माण कराया गया। इसी मंदिर में रानी पवांरनी और उनके साथ जौहर करने वाली वीरांगनाओं का अस्थि कलश रखा गया।
 इसके अलावा यहां चित्तौड़ की रानी पद्मावती, कलावती और करुणावती का कलश भी रखा गया है। जौहर स्मृति मंदिर में हर साल 17 नवंबर को श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जाता है। कार्यक्रम आयोजित कराने वालों में शामिल अवधेश कुमार का कहना है, इस बार जौहर के 300 साल पूरे होने पर श्रद्धाजंलि कार्यक्रम आयोजित किया गया। जब मंदिर का निर्माण कराया गया, तब चित्तौड़ से राज घराने के उदय सिंह यहां चित्तौड़ से रानी पद्मावती, रानी कमलावती और रानी करुणावती की अस्थियों के कलश लेकर पहुंचे थे।इन कलश में उस स्थान से लाई गई मिट्टी और अस्थियों के अवशेष हैं, जहां रानी पद्मावती ने जौहर किया था। पवांसा गांव के लोग भी पद्मावती का विरोध कर रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि फिल्म में पद्मावती के बारे में गलत जानकारियां दी गई है। उन्होंने संजय लीला भंसाली के ख‍िलाफ देशद्रोह का केस दर्ज कर गिरफ्तार करने की मांग की है।
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किसने क्या कहा -
 'पद्मावती' पर लगा है दाउद का पैसा :लोकेन्द्र सिंह कालवी , करणी सेना
हिंदू वीरंगनाओं की छवि को बदनाम करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय माफिया सरगना और मुबंई हमलों के मास्टर माइंड दाउद इब्राहिम के इशारे पर फिल्म में जानबूझ कर आपत्तिजनक दृश्यों को डाला गया। मैं दावे के साथ कहता हूं कि फिल्म के लिये धन दुबई से आ रहा है जिसे मुबंई हमलों का आरोपी दाऊद इब्राहिम उपलब्ध करा रहा है। इतिहास के साथ छेडछाड एक खास मकसद के साथ की गयी है जिसे उनका संगठन कतई बर्दाश्त नही करेगा।
फिल्म पद्मावती के प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिये वह पीएम नरेन्द्र मोदी से अपील कर चुके है और उन्हे यकीन है कि मोदी उनकी अपील पर गौर करेंगे। उम्मीद है कि पद्मावती को एक दिसम्बर से रिलीज होने की इजाजत नही दी जायेगी। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसके लिये हम मरने के लिये तैयार है।  संगठन पद्मावती फिल्म को किसी भी कीमत पर रिलीज नही होने देगा। फिल्म के निर्माता एवं निदेशक संजय लीला भंसाली ने कहा था कि फिल्म में से विवादित दृश्यों को हटा दिया जायेगा परन्तु उन्होने ऐसा नही किया। अगर फिल्म को रिलीज करने की अनुमति दी जाती है तो एक दिसम्बर को भारत बंद का आह्वान करेंगे।

फिल्म में लगे पैसे की जांच जरुरी : सुभ्रमण्यम स्वामी
 हर मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखने वाले नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी अब इस विवाद में कूद चुके हैं। फिल्म का जहां राजपूत समाज लगातार विरोध कर रहा वही इस विवाद को एक हवा और मिल गई है । सुब्रमण्यम स्वामी कह रहे हैं कि संजय लीला भंसाली की जांच हो इस फिल्म में बाहरी ताकतों का पैसा है। वरिष्ठ भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने पद्मावती के फंड पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि फिल्म में किसका पैसा लगा है इसकी जांच होनी चाहिए। इतिहास से छेड़छाड़ को लेकर लगातार इस फिल्म का विरोध हो रहा था। अब भंसाली पर देशद्रोह का मुकादमा करने की मांग भी उठ रही है।फिल्म पद्मावती की रिलीज पर दीपिका ने भी बयान दिया था। दीपिका ने सवाल किया था कि, एक राष्ट्र के तौर पर हम कहां पहुंच गए हैं, हम आगे बढ़ने के बदले पीछे जा रहे हैं। बीजेपी नेता सुब्रमण्‍यन स्वामी को दीपिका की बात इतनी बुरी लगी कि उन्होंने दीपिका की अनपढ़ तक कह दिया। पद्मवती पर बैन की मांग को लेकर स्वामी ने कहा, 'किसी एक फिल्म की रिलीज रुकने का मतलब ये नहीं है कि हमारा देश पीछे जा रहा है। दीपिका के बयान से लगता है कि वो पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उन्हें फिर से पढ़ाई शुरू कर कुछ सीखना चाहिए। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि सिर्फ सिनेमा के आधार पर देश को पिछड़ा बताया जा रहा है। हमें ये भी नहीं पता कि दीपिका भारत की नागरिक हैं भी या नहीं। दीपिका के बयान की पूरे देश में आलोचना होनी चाहिए। यही नहीं स्‍वामी ने फिल्‍म के बजट पर भी सवाल उठा दिए, उन्‍होंने कहा कि इस फिल्‍म में किसका पैसा लगा यह बात सामने आनी चाहिए।

लोगों को नाराज होने का अधिकार : नितिन गडकरी
पद्मावती को लेकर सबसे ताजा बयान केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का है। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने फिल्ममेकर्स को सीमा में रहने की सलाह तक दे डाली। उन्होंने कहा, अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकार जरूर है लेकिन एक सीमा में रहे तो बेहतर है। मेकर्स को सांस्कृतिक संवेदनशीलता बनाए रखने की आवश्यकता है। फिल्म में इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। लोगों को फिल्म से नाराज होने का अधिकार है। बीजेपी के सीनियर नेता का यह बयान उस समय आया है जब देशभर में फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन उग्र हो रहा है।

कहानी लिखने वाले हैं जिम्‍मेदार : उमा भारती
दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी के बाद केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने सटीक जवाब दिया। दीपिका का बचाव करते हुए उमा ने टि्वटर पर लिखा कि, जब हम पद्मावती के सम्‍मान की बात करते हैं तो हमें सभी महिलाओं के सम्‍मान का ध्‍यान रखना होगा। इसके बाद उमा ने एक और ट्वीट किया कि, 'फिल्म पद्मावती के संदर्भ में उस फिल्म की अभिनेत्री या अभिनेताओं के बारे में कोई भी टिप्पणी उचित नहीं है. उनकी आलोचना अनैतिक होगी।' हालांकि उमा ने इस पूरे विवाद की वजह फिल्‍म मेकर्स को बताया। उन्‍होंने आगे लिखा कि, 'निर्देशक और पटकथा लेखक के तौर पर काम कर रहे भंसाली के सहयोगी इसकी कहानी के प्रति जिम्मेदार हैं। उनको लोगों की भावनाओं और ऐतिहासिक तथ्यों का ख्याल रखना चाहिए।'

फिल्‍म रिलीज न हो : योगी आदित्‍यनाथ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी शांति व्यवस्था बिगड़ने का हवाला देकर 1 दिसंबर को फिल्म रिलीज न करने की मांग की है। योगी ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर कहा, राज्‍य में स्‍थानीय निकाय चुनाव तथा बारावफात को देखते हुए फिल्‍म का रिलीज होना शांति व्‍यवस्‍था के हित में नहीं होगा। यूपी में निकाय चुनाव के लिए मतों की गिनती भी एक दिसंबर को ही होनी है।इससे पहले एक पत्रकार वार्ता में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि विवाद के लिए संजय लीला भंसाली भी जिम्मेदार हैं. जनभावनाओं से खिलवाड़ का अधिकार किसी को नहीं है। उन्होंने कहा कि फिल्म के विरोध में प्रदर्शन करने वाले जितने जिम्मेदार हैं, उतनी ही गलती संजय लीला भंसाली ने भी की. यदि प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई होगी तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई होगी. उन्होंने कहा कि संजय लीला भंसाली जनभावनाओं से खिलवाड़ करने के आदी हो चुके हैं। लीड एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण को मिली धमकी के बाबत मुख्यमंत्री ने कहा कि कानून को हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं है. चाहे वह संजय लीला भंसाली हों या कोई और। योगी आदित्यनाथ ने कहा कि सभी को ऐसे बयानों से परहेज करना चाहिए. एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए. यदि सभी ऐसी भावना रखेंगे तो समाज में सौहार्द स्थापित होगा. फिल्म के प्रदर्शन को लेकर सरकार अपना स्टैंड स्पष्ट कर चुकी है. कानून व्यवस्था को बिगड़ने नहीं दिया जाएगा।

जिनकी बीवियां रोज बदलती हैं शौहर, वो क्‍या जानें जौहर : चिंतामणि मालवीय
उज्जैन सांसद और मध्यप्रदेश भाजपा प्रवक्ता डॉ. चिंतामणि मालवीय ने संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती का विरोध किया है। मालवीय ने फेसबुक पोस्‍ट में लिखा, 'मैं फ़िल्म पद्मावती का पुरजोर विरोध और बहिष्कार करता हूं। मेरे शुभचिंतकों से अनुरोध करता हूं कि इस फ़िल्म को बिल्कुल न देखें। फ़िल्म बनाकर चन्द पैसों के लालच के लिए इतिहास से छेड़छाड़ करना शर्मनाक और घृणित कार्य है। आगे भाजपा नेता ने लिखा, 'यह देश रानी पद्मावती का अपमान नही सहेंगा। हम गौरवशाली इतिहास के साथ छेड़खानी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवियों द्वारा लिखे गए गलत इतिहास पर संजय लीला भंसाली ने पद्मावती फ़िल्म बना दी है। यह न सिर्फ गलत है, बल्कि निंदनीय है, जिन फिल्मकारों के घरों की स्त्रियां रोज अपने शौहर बदलती है वे क्या जाने जौहर क्या होता है? अभिव्यक्ति के नाम पर संजय भंसाली की मानसिक विकृति नहीं सहन की जाएगी।
महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा

महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा


महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा 

संजय तिवारी 
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मध्यकालीन भारतीय इतिहास में पत्रो के साथ नयी नयी कहानिया गढ़ना किसी भी दशा में अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने उचित नहीं कहा जा सकता। कहानियो को रोचक और विवादपूर्ण बना कर अपने ही पुरखो को अपमानित करने की कोशिश भी उचित नहीं हो सकती लेकिन आजकल यह एक फैशन सा बन गया है। कहानी बेचने के लिए पहले विवादित स्क्रिप्ट लिखो और फिर उसे जनता में परोस कर धन और नाम बना लेने की प्रक्रिया न तो कोई कला है और न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इस धोखे को आगे बढ़ाने देनी चाहिए। महारानी पद्मावती की नयी और गढ़ी गयी कहानी को लेकर जो कुछ हो रहा है वह शर्मनाक और दुखद ही कहा जाएगा। यह बात केवल एक फिल्म की नहीं है बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और अपने गौरवशाली इतिहास की है। कला के नाम पर अनाप शनाप ताने बाने बनाने की इजाजत इतिहास भला कैसे दे सकता है ? बताया जा रहा है कि राजस्थान के जयगढ़ में पद्मावती फिल्म की शूटिंग के दौरान मारपीट और सेट पर तोड़फोड़ के बाद डायरेक्टर संजय लीला भंसाली ने रातोरात सामान समेट लिया । अब वे मुंबई में ही सेट लगाकर फिल्म का निर्माण पूरा करेंगे या कोई दूसरी जगह देखेंगे। उधर, राजपूत करणी सेना के पदाधिकारियों ने शनिवार को फिर चेतावनी दी कि अगर रानी पद्मावती के इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई तो न तो फिल्म की शूटिंग होने देंगे और न ही पर्दे पर आने देंगे। दूसरी ओर, भंसाली के साथ हुई मारपीट से बॉलीवुड में हड़कंप मच गया है। फिल्म डायरेक्टर, अभिनेता व अभिनेत्रियां करणी सेना के पदाधिकारियों द्वारा की गई बदसलूकी पर ट्वीट करके भड़ास निकाल रहे हैं। लेकिन उन्हें यह भी समझना होगा कि महारानी पद्मावती केवल एक ऐतिहासिक पात्र ही नहीं हैं बल्कि भारत की वीरता और नारियो के शौर्य की भी प्रतीक हैं। 

 राजपूत इतिहास
 रानी पद्मावती को पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता था। वे चित्तौड़गढ़ की रानी थी। कहा जाता है कि खिलजी वंश का शासक अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती को पाना चाहता था। रानी को जब ये पता चला तो उन्होंने कई अन्य राजपूत महिलाओं के साथ जौहर कर लिया। यह बात सुप्रसिद्ध इतिहासकार आर वी सिंह द्वारा लिखित राजपूताना का इतिहास नमक पुस्तक में भी दर्ज है।

 संजय की  लीला
संजय लीला भंसाली की फिल्म की कहानी खिलजी और पद्मावती को केंद्र में रखकर बुनी गई है। रानी पद्मावती को अलाउद्‌दीन खिलजी की प्रेमिका बताया जा रहा है। उसके सपने में पद्मावती के साथ प्रेम-प्रसंग के दृश्यों को फिल्माने की बात सामने आ रही है।


करणी सेना व राजपूत सभा के पदाधिकारियों की पीड़ा
 राजपूत करणी सेना के अध्यक्ष महिपाल मकराना और राजपूत सभा के अध्यक्ष गिर्राज सिंह लोटवाड़ा ने शनिवार को मीडिया से कहा कि अगर इतिहास और परंपराओं के साथ छेड़छाड़ होगी तो इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा। पदाधिकारियों ने कहा कि रानी पद्मिनी हमारा गौरव हैं। उन्होंने अलाउद्दीन के पास जाने के बजाय जौहर (आग में कूदना) करने को बेहतर समझा। फिल्म में उन्हें अलाउद्‌दीन की प्रेमिका बताया जा रहा है, जो सरासर गलत है। हम राजपूतों की धरती पर अपने पूर्वजों को लेकर दिखाई जा रही अश्लीलता को बर्दाश्त नहीं करेंगे। करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा कि दीपिका-रणवीर के रिलेशन कुछ भी हों लेकिन इस फिल्म में उन्हें प्रेमी-प्रेमिका के रूप में नहीं दिखाया जाना चाहिए। अलाउद्दीन-पद्मिनी के लव सीन को नहीं फिल्माया जाना चाहिए। फिल्म बनाने का विरोध करने के लिए करणी सेना के पदाधिकारियों ने राजपूत समाज के अन्य संगठनों व बाहरी राज्यों में संपर्क किया है।
भंसाली को पत्र लिख कहा था इतिहास से छेड़छाड़ ना करें
 हंगामे के बाद गुजरात व हैदराबाद से राजपूत संगठनों के पदाधिकारी जयपुर भी पहुंच गए। करणी सेना के पदाधिकारियों ने बताया कि फिल्म में शूट किए जाने वाले दृश्यों को लेकर संजय लीला भंसाली से बात करने का प्रयास किया। लेकिन वे बात करने को ही तैयार नहीं हुए। करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा कि सितंबर माह में जब मीडिया में पद्मावती फिल्म बनाए जाने की खबर आई और उसमें रणबीर सिंह व दीपिका पादुकोण लीड रोल में है। फिल्म में पद्मावती के साथ खिलजी के प्रेम-प्रसंग के दृश्यों पर शूटिंग की जाने की बात सामने आई थी। करनी सेना ने संजय लीला भंसाली को सितंबर माह में पत्र लिखकर कहा था कि रानी पद्मनी के इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जाए। लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं मिला।

रानी की असली और फिल्मी कहानी को लेकर जंग…


 करणी सेना का आरोप है कि फिल्म में रानी पद्मावती की छवि और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है।करणी सेना का कहना है कि मूवी के एक ड्रीम सीन में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच लव सीन फिल्माया जाएगा। यह बर्दाश्त नहीं होगा। ऐसा सीन राजपूतों का अपमान होगा।हालांकि, भंसाली का कहना है कि मूवी में कोई इंटीमेट सीन नहीं होगा।इसी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने एकता कपूर के सीरियल जोधा-अकबर का भी भारी विरोध किया था।करणी सेना का आरोप था कि सीरियल में भी इतिहास को तोड़-मरोड़ कर जोधा को गलत तरीके से पेश किया गया था।

कौन थीं रानी पद्मावती?
 रानी पद्मावती को पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता था। वे चित्तौड़गढ़ की रानी और राजा रतनसिंह की पत्नी थीं। इन्हें बेहद खूबसूरत माना जाता था।कहा जाता है कि खिलजी वंश का शासक अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती को पाना चाहता था। रानी को जब ये पता चला तो उन्होंने कई दूसरी राजपूत महिलाओं के साथ जौहर कर लिया।ऐसा माना जा रहा है कि बाजीराव मस्तानी की तरह इस फिल्म में भी खिलजी और पद्मावती को सेंटर में रखकर कहानी को बुना जा रहा है।
 पद्मावती का जन्म सिंहल देश में हुआ। उसके पिता राजा गंधर्वसेन व माता चंपावती थी। उसका विवाह मेवाड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ। महारानी बन चित्तौड़गढ़ फोर्ट पहुंची पद्मावती के सौंदर्य के चर्चे उस समय पूरे देश में चर्चित होने लगे। इस दौरान रावल रतनसिंह ने किसी बात पर नाराज होकर राघव चेतन नामक राज चारण को देश निकाला दे दिया। राघव ने दिल्ली दरबार में जाकर महारानी पद्मावती के सौंदर्य का बखान अल्लाउद्दीन के सामने इस तरह किया कि वह रानी पद्मावती को हासिल करने की लालायित हो उठा और चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। खिलजी की सेना के कूच करते ही रावल रतनसिंह ने चित्तौड़गढ़ फोर्ट में राजपूतों की सेना एकत्र करना शुरू कर दिया। खिलजी की सेना ने कई माह तक फोर्ट को घेरे रखा,लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। सफलता मिलती नहीं देख खिलजी ने एक दांव खेला। उसने रतनसिंह के समक्ष प्रस्ताव रखा कि एक बार वे महारानी पद्मावती के दीदार करवा दे। इसके बाद वह घेरा उठा देगा। इस प्रस्ताव से रतनसिंह आग बबूला हो गए। लेकिन पद्मावती ने खूनखराबा रोकने के लिए अपने पति को इसके लिए तैयार कर लिया। चित्तौड़गढ़ फोर्ट में स्थित महारानी के महल में लगे एक शीशे को इस तरह लगाया गया कि उसमें पद्मावती के स्थान पर खिलजी को सिर्फ प्रतिबिम्ब नजर आए। प्रतिबिम्ब में ही पद्मावती को देखते ही खिलजी की नीयत डोल गई और उसने बाहर निकलते समय उसे छोड़ने बाहर तक आए रतनसिंह को पकड़ लिया। रतनसिंह की जान की एवज में खिलजी ने प्रस्ताव रखा कि पद्मावती को सौंपने के बाद ही वह रतनसिंह को रिहा करेगा। इस प्रस्ताव के बाद पद्मावती ने अपने सात सौ लड़ाकों को तैयार किया और प्रस्ताव भेजा कि वह दासियों के साथ खिलजी से मिलने आ रही है। सात सौ पालकियों में दासियों के स्थान पर लड़ाकों के साथ पद्मावती खिलजी के डेरे में पहुंची और हमला बोल दिया। देखते ही देखते रतनसिंह को आजाद करवा कर वह फोर्ट में लौट गईं।
शाका और जौहर
 इससे खफा हो खिलजी ने आक्रमण कर दिया। फोर्ट में रसद कम होने और संख्या में कम होने के कारण तीस हजार राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना धारण कर शाका करने फोर्ट के गेट खोल आक्रमण बोल दिया। दूसरी तरफ फोर्ट में मौजूद पद्मावती ने सोलह हजार राजपूत महिलाओं के साथ जौहर करने का निर्णय किया। सभी महिलाओं ने पहले गोमुख सरोवर में स्नान कर कुलदेवी की पूजा की। गोमुख के उत्तर में स्थित मैदान में जौहर तैयार करवाया गया। महारानी पद्मावती के नेतृत्व में सोलह हजार महिलाएं बारी-बारी से जौहर की चिता में कूद पड़ी।

क्या कहा करणी सेना ने?

 राजपूत करणी सेना के लीडर लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा- जिस रानी ने देश और कुल की मर्यादा के लिए 16 हजार रानियों के साथ जौहर कर लिया था, उसे इस फिल्म में खिलजी की प्रेमिका के रूप में दिखाना बेहद आपत्तिजनक है। इस पूरी कहानी को ही ग्लैमराइज करके दिखाना हमारी संस्कृति पर तमाचा है। हम चुप नहीं रहेंगे। ये फिल्मकार क्रिएटिविटी के नाम पर हमारे इतिहास के साथ कुछ भी कर दें और हम चुप बैठें, ये कैसे हो सकता है? ये फिल्म बननी नहीं चाहिए।राजपूत समाज ने कहा कि भंसाली को कई बार पत्र लिखे गए। उनसे कहा गया कि इतिहास को सही तरीके से पेश करें, लेकिन वे नहीं माने। राजपूत समाज के पास बहुत समृद्ध लाइब्रेरी है। इतिहास की किसी भी किताब में पद्मावती को अलाउद्दीन की प्रेमिका नहीं बताया गया है।समाज के लोगों ने कहा- एेतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ कर पद्मावती को बदनाम किया जा रहा है। तथ्यों से छेड़छाड़ किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं की जाएगी।करणी सेना ने कहा- चेतावनी के बाद भी भंसाली ने विवादित पार्ट नहीं हटाए तो बुरे नतीजे भुगतने होंगे।
फिल्मकार संजय लीला भंसाली की अल्लाउद्दीन खिलजी एवं जौहर करने वाली रानी पदमिनी के प्रेम प्रसंग पर फिल्मी कहानी बनाने पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। भंसाली फिल्म की शूटिंग बंद कर जयपुर से रवाना हो चुके हैं। इस विवाद पर कॉलेज एवं स्कूली पाठ्यक्रम में दिए गए तथ्यों और प्रदेश के इतिहासकारों से बातचीत में स्पष्ट रूप से सामने आया है कि जिस तथ्य का कहीं जिक्र तक नहीं है उनको लेकर भंसाली ने कहां से फिल्म की स्क्रिप्ट लिख डाली। इतिहासकार कहते हैं कि चित्तौडगढ़ के 42वें शासक रावल रतन सिंह की 15 रानियों में से एक थी रानी मदन कंवर पदमिनी। जिन्हें इतिहासकार पदमावती के नाम से जानते हैं।

पाठ्यक्रम में पद्मावती 


 रानी पदमिनी के जौहर एवं अल्लाउद्दीन खिलजी से जुड़ी कहानियां राजस्थान के स्कूल, कॉलेज (बीए पार्ट 1 और बीए पार्ट- 2) एवं यूनिवर्सिटी (एमए प्रथम वर्ष या द्वितीय सेमेस्टर ) में पढ़ाई जा रही है। इनमें कहीं भी प्रेम प्रसंग के बारे में नहीं बताया गया है। सवा दो शताब्दी बाद लिखी कथा इतिहासकार बताते हैं कि सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने 1540 ईस्वी में अवधी भाषा में चित्तौड़ पर हुए 1303 ईस्वी के आक्रमण पर पदमावती काव्य लिखा। किवदंतियों के आधार पर घटना से सवा दो शताब्दी बाद ये काव्य लिखा गया। जायसी के अनुसार आध्यात्मिक संदेशों के लिए इस रचना को चुना है। चित्तौड़ मनुष्य के शरीर का प्रतीक है। रावल रतन सिंह उसकी आत्मा और पदमावती उसकी बुद्धि। अल्लाउद्दीन खिलजी माया या भ्रम है, जो बुद्धि को भटकाने का प्रयास है।

क्या कहता है जायसी का पद्मावत

 मलिक मोहम्मद जायसी ने पदमावत नामक काव्य में 1303 ईस्वी में चित्तौडगढ पर हुए आक्रमण और ऐतिहासिक विजय का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने रानी पदमिनी का नाम पदमावती रखा। इसमें कथाकार बताया है कि रानी पदमावती बड़ी सुंदर थी। अल्लाउद्दीन खिलजी ने पदमावती की सुंदरता के बारे में सुना तो देखने के लिए लालायित हुआ। खिलजी की सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया और रावल रतन सिंह के पास पदमावती से मिलने का संदेश भिजवाया। भरोसा दिया कि पदमावती से मिलकर वह चितौड़ छोड़कर चल देंगे और आक्रमण नहीं करेंगे। रावल रतन सिंह ने इस बारे में पदमावती से बातचीत की। रानी इससे सहमत नहीं थी, लेकिन युद्ध टालने के लिए एक उपाय निकाला। खिलजी उनकी परछाई को कमल के तालाब में देख सकता है। शर्त यह रहेगी की खिलजी को बगैर शस्त्र आना होगा। खिलजी ने तालाब में पदमिनी का प्रतिबिंब देखा। रानी की सुंदरता पर मोहित खिलजी ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में रावल रतन सिंह और उनके सैनिक मारे गए। हालांकि, जब तक अल्लाउद्दीन दुर्ग तक पहुंचते, उससे पहले ही पदमिनी ने हजारों महिलाओं के साथ जौहर कर लिया था। पद्मिनी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की अद्वितीय सुंदरी राजकन्या तथा चित्तौड़ के राजा भीमसिंह अथवा रत्नसिंह की रानी थी। उसके रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। पद्मिनी संबंधी कथाओं में सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि अलाउद्दीन ऐसा कर सकता था लेकिन किसी विश्वसनीय तथा लिखित प्रमाण के अभाव में ऐतिहासिक दृष्टि से इसे पूर्णतया सत्य मान लेना कठिन है।सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो में एक इतिहासलेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फारसी इतिहासलेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फरिश्ता ने चित्तौड़ की चढ़ाई (सन् १३०३) के लगभग ३०० वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत' (रचनाकाल १५४० ई.) की रचना के ७० वर्ष पश्चात् सन् १६१० में 'पद्मावत्' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया।
तारीखे अलाई

सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहास लेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र ख़ाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र ख़ाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत' की रचना के 70 वर्ष पश्चात सन् 1610 में 'पद्मावत' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। गौरीशंकर हीराचंद ओझा का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फ़रिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यही है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रत्नसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी।

रानी पद्मिनी का महल, चित्तौड़गढ़

ओझा जी (गौरीशंकर हीराचंद) के अनुसार पद्मिनी की स्थिति सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में तो अनैतिहासिक है लेकिन ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये कुंभलगढ़ का जो प्रशस्तिलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु 1303 ई. के 157 वर्ष पश्चात सन् 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। भट्टिकाव्यों, ख्यातों और अन्य प्रबंधों के अलावा परवर्ती काव्यों में प्रसिद्ध 'पद्मिनी के महल' और 'पद्मिनी के तालाब' जैसे स्मारकों के प्रामाणिक रूप आज भी मौजूद हैं।

 महारानी पद्मिनी 
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी। उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि-

"हम तो आपसे मित्रता करना चाहते हैं, रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।"

रत्नसिंह ख़िलज़ी का यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि

"मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिकों का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।

रानी को अपनी नहीं पूरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।[2] अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है और उसकी बदनामी होगी, उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चित्तौड़ के क़िले में अलाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिति की तरह किया। रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचोंबीच था। दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के ज़रिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीं से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उनका सौन्दर्य देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और थोड़ी ही देर तक दिखने वाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा,

"इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।"

अलाउद्दीन ने अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए एक योजना भी बना ली। महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उन्हें गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुल्तान अकेले आया था, इसलिए महराजा रत्नसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना बातें करते हुए सुल्तान के साथ गये। अलाउद्दीन से द्वार के बाहर आकर राणा रत्नसिंह ने कहा-

"हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"

तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट ख़िलज़ी ने जैसे ही इशारा किया झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था। रत्नसिंह को क़ैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा। रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उन्होंने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि-

"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे।"

रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अलाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया। उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया। इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उनकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे। अलाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के क़ाफ़िले को दूर से देख रहे थे। सुल्तान ख़िलज़ी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा-

"सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"

सुल्तान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा-

"क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?"

कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। रानी पद्मिनी को उनके पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी।
प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज क़ैद थे। राणा रत्नसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उन पर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये।
इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुल्तान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। लेकिन दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से गोरा को घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिलजी नीचे गिर गया। भयभीत सुल्तान सेना सहित दिल्लीकी ओर मुड़ गया।
रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुल्तान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उनकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी।

राजदंपति फिर से मिलन पर खुश तो हुए, लेकिन गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ। यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रत्नसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थकी हुयी चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के नगाड़ों व हाहाकारों ने जगाया। इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चित्तौड़ विजय करने के लिए ठान ली। आखिर उसके छ:माह से ज़्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया। जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी भी हतप्रभ हो गया। महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक़्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया-

बादल बारह बरस रो, लड़ियों लाखां साथ।
सारी दुनिया पेखियो, वो खांडा वै हाथ।।

रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। यह जौहर हमेशा भारतवासियों को इस बात की याद दिलाती रहेगी कि भारत की स्त्रियों के लिए उनका सम्मान सर्वोपरी है.

 सोते मन में स्मृति सुन्दरी ,लहर लहर लहरे |
चित्र खीचती चपला क्षितिज पर, कोई न ठहरे ||
जौहर की जीत लिए दिल में ,तेज तेगा वेग बढे |
पद्मिनी की सुन्दरता में खलजी की खिल्ली उड़े ||


इतिहासकारों के तर्क

यह युद्ध केवल राजनीतिक फायदे के लिए हुआ था। प्रेस प्रसंग का एक भी सबूत अभी तक नहीं मिला है। जिस कवि ने ये रचना की थी, उसकी एक भी लाइन में प्रेम प्रसंग की बात नहीं है। 
-प्रो. के.जी.शर्मा, इतिहासकार

पदमिनी का खिलजी के साथ प्रेम-प्रसंग होता तो वह हजारों महिलाओं के साथ जौहर क्यों करती? खिलजी ने यह युद्ध पदमिनी से ज्यादा राजनीतिक फायदे के लिए किया था। इतिहास पर फिल्में जरूर बननी चाहिए, लेकिन पूरे अनुसंधान के साथ। रिसर्च के बाद ही गांधीजी पर फिल्म बनी थी। कोई विवाद नहीं हुआ।
 -प्रो. आरएस खंगारोत, इतिहासकार

मलिक काफूर का प्रेमी था अल्लाउद्दीन खिलजी 

वस्सफ अब्दल्लाह इब्न फदलल्लाह शरीफ अल-दिन शिराज़ी
14वीं शताब्दी के पर्सियन इतिहासकार


 एक काल्पनिक चरित्र हैं" तथाकथित इतिहासकार इरफ़ान हबीब का यह कहना बिलकुल सही है, इसे मान लेने में मुझे अब कोई हर्ज नहीं दिखता। हबीब कैसे सही कह रहे हैं इसे ठीक संदर्भ में देखिये, आप भी सहमत होंगे की इस वामपंथी इतिहासकार ने दुरुस्त बात कही है। यही तथ्य लेकर अब जावेद अख्तर भी इस इतिहास में अपना कुछ सेकने को उत्तर आये है। 


वस्सफ अब्दल्लाह इब्न फदलल्लाह शरीफ अल-दिन शिराज़ी ,14वीं शताब्दी के पर्सियन इतिहासकार, के मुताबिक अलाउद्दीन खिलजी एक होमो सेक्सुअल (समलैंगिक) था और उसके हरम में हजारों लड़के सेक्स स्लेव्स के तौर पर थे। मलिक काफूर नामक उसके समलैंगिक प्रेमी का बाकायदा जिक्र भी आता है जबकि रानी पद्मावती से अनुराग का इतिहास में कोई जिक्र नहीं।

चूंकि भारतीय उपमहाद्वीप पर यह ऐतिहासिक तथ्य.... 14वीं शताब्दी के किसी आरएसएस अथवा कट्टर हिंदू इतिहासकार ने नहीं लिखा तो यह मान लेना बनता है कि पर्सिया के इन इतिहासकार ने गलत नहीं लिखा होगा।जब इरफ़ान हबीब यह कहते हैं कि रानी पद्मावती एक काल्पनिक चरित्र हैं, और रंगीन गिरोह उसका समर्थन करता है तो वह गलत कहाँ है ? ध्यान रखिए, पद्मावती जी काल्पनिक चरित्र हैं ऐसा उन्होंने इस खिलजी-पद्मावती प्रेमकथा वाली फिल्म के संदर्भ में कहा है। इस कहानी में वाकई पद्मावती एक काल्पनिक कैरेक्टर ही हैं।

दरअसल हम सबने संदर्भ सही से नहीं समझा। हबीब अलाउद्दीन खिलजी के होमो सेक्सुअल होने की पर्सियन इतिहासकार की बात के आधार पर ही ऐसा कह रहे हैं। अगर खिलजी एक होमोसेक्सुअल था, हजारों लौंडे उसके हरम में थे, मलिक काफूर उसका प्रेमी / प्रेमिका था : तो भला एक स्त्री रानी पद्मावती से उसका कोई संबंध कैसे संभव था ? हमारे समकालीन छद्म भारतीय 'धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी",  संस्कृति, इतिहास और परंपराओं से कितने अनभिज्ञ हैं, कितने पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं ! उनके कपट, झूठ और संवेदनहीनता की तो कोई सीमा ही नहीं है ! यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। पहली बात तो यह कि पद्मिनी की ऐतिहासिकता, उनका महान व्यक्तित्व और पवित्र स्मृति वंश परंपरा से लाखों हिंदुओं के मन में जिंदा है, जिसे ये जाहिल, उजड्ड, असभ्य और अशिष्ट 'धर्मनिरपेक्ष तबके' के लोग कभी नहीं समझ सकते, यह उनकी कल्पनाशीलता की तुलना में कहीं अधिक जटिल है। चित्तौड़ के कण कण में, वहां से सदियों पुराने मंदिरों और धार्मिक स्थलों में रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा लोकगीतों और भजनों के रूप में सुनने व अनुभव करने की पात्रता भी इन दुराग्रही धनपशुओं में नहीं है ।
 ये समझ लें कि महारानी पद्मिनी का चित्रण अगर होगा तो केवल पारंपरिक पवित्रता के साथ ही होगा ! कोई भी अन्य प्रयत्न राजपूताने को ही नहीं, समूचे भारत को धधका सकता है । इसी मनोदशा में विरोध प्रदर्शन की वैधता को देखा और समझा जाना चाहिए ! ऐतिहासिक साक्ष्य को लेकर एक तथ्य देखा जाना चाहिए कि भीष्म, द्रौपदी, विक्रमादित्य या राजा भोज, भारत की संस्कृति में पीढ़ियों से रचे बसे हैं ! इतिहास लिखने में तत्वचिन्तक भारतीयों की रूचि नहीं रही ! आज की भाषा में वे सदा लो प्रोफाईल रहे ! किन्तु आमजन ने अपने तीज त्योहारों में, उत्सवों में उन्हें जिन्दा रखा !
"धर्मनिरपेक्षतावादी" बढ़चढ़ कर जिस ऐतिहासिक साक्ष्य की बात करते हैं, क्या वे इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मध्यकालीन युग में किये गए व्यापक भीषण नर संहार, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों के विनाश को भी इस आधार पर नकारेंगे, क्योंकि किसी मुग़ल इतिहासकार ने तो ऐसा कुछ लिखा नहीं ? आखिर ये लोग उस समय के अत्याचारियों को, खल नायकों को कोमल भावों बाला, उदार और नायक के रूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं ?
दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारत के शैक्षणिक जगत पर वामपंथी काबिज हो गए, जिनके कारण सत्ताधीशों ने प्रो. के. एस. लाल जैसे विचारक इतिहासकार को दरकिनार कर दिया और उनकी लिखी पुस्तकें ‘The Legacy of Muslim Rule in India’ और ‘Muslim slave system in Medieval India’ आदि को विचार बाह्य कर दिया ! अब इसे सुनियोजित षडयंत्र नहीं तो क्या कहा जाये ? भारत की संघर्ष पूर्ण गौरव गाथा को भुलाना और हिंसक आतताईयों, आक्रान्ताओं को महिमा मंडित करना, यही इन अंग्रेजीदां धर्मनिरपेक्षता वादियों का एकसूत्री कार्यक्रम है !
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केंद्र की सत्ता में बैठी आज की भाजपा, जिससे औसत राष्ट्रभक्तों को बड़ी आशा थी, कि अब शायद स्थिति कुछ बदलेगी, वह आशा भी तब टूट गई, जब कल बुल्डोग नुमा मुखाकृति बनाकर एक केन्द्रीय मंत्री ने करणी सेना के प्रदर्शन पर आक्रोश व्यक्त किया !
साक्ष्य उपलब्ध न होने का अर्थ यह नहीं है कि घटना हुई ही नहीं ! थोड़ी देर के लिए पद्मिनी की चर्चा को छोड़कर चंद्रगुप्त की ओर आते हैं ! क्या किसी यूनानी रिकोर्ड में मौर्य पुरातनता के प्रतीक चंद्रगुप्त के अस्तित्व की पुष्टि होती है ? सोमनाथ पर महमूद गजनवी के आक्रमण के दस्तावेजी प्रमाण कहाँ हैं ? किन्तु ये दर्दनाक ऐतिहासिक घटनायें जन स्मृति में कायम है और समय के उलटफेर में भी हिंदुओं ने इन्हें भुलाया नहीं है । भले ही प्रस्तुति उतनी अच्छी नही हुई हो, किन्तु बीके करकरा ने एक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी है “चित्तोड़ की नायिका - रानी पद्मिनी” ! उक्त पुस्तक में करकरा ने जोर देकर कहा है कि मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' में पद्मिनी का उल्लेख 1526 में सारंगपुर के नारायण दास द्वारा लिखी गई छिताई चरित से प्रभावित है ! करकरा का प्रभावी तर्क है कि जब नारायण दास और जायसी जैसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, तो पद्मिनी की ऐतिहासिकता को किवदंती बताना निरी मूर्खता है ! जन चेतना में गुजरात की देवल रानी भी विद्यमान हैं, जिनका विवाह अपहरण के बाद जबरन सुल्तान के बेटे से करा दिया गया था । इसके अलावा, खिलजी के प्रसिद्ध दरबारी कवि अमीर खुसरो द्वारा 1303 में खिलजी के चित्तौड़ मार्च के समय लिखी गई कहानी “सुलैमान और शबा की रानी” में छुपे सन्दर्भ को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । खिलजी के सैन्य अभियानों के दौरान हुए जौहर के अन्य उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे कि रणथंभौर की रानी रंगा देवी द्वारा किया गया जौहर । भले ही वामपंथी पोंगे इन साक्ष्यों को अप्रत्यक्ष कहकर नकारें, किन्तु पद्मिनी की ऐतिहासिकता स्वयंसिद्ध है ! और भला मुस्लिम दरबारी इतिहासकार अपने आका हुजूर खिलजी की असफलता की इस दर्दनाक घटना को क्यूं और कैसे लिख सकते थे ?
ऐतिहासिक प्रामाणिकता की मांग बेमतलब है, क्योंकि इतना तो तय है कि अलाउद्दीन खिलजी एक हत्यारा दरिंदा था, जो सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर गद्दी पर बैठा था । हिन्दू राजाओं के खिलाफ अपने सैन्य अभियानों में उसने क्रूरतम जघन्य कत्लेआम किये थे ! स्वयं अमीर खुसरो लिखता है कि चित्तोड़ में हिन्दू आबादी को सूखी घांस की तरह काटा गया ! इतिहासकार आर सी मजुमदार ने लिखा है कि खिलजी की अर्थनीति ने देश को खून से नहला दिया ! सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने उलेमाओं से ऐसे नियम बनाने को कहा, जिससे हिन्दू जमींदोज रहें, यह सुनिश्चित किया जाए कि उनके पास कोई संपत्ति न हो ! उन्हें केवल जीवित भर रहने के लिए जजिया कर देना ही होगा, उन्हें इतना दयनीय बना दो, ताकि वे विद्रोह की सोच भी न सकें ! उसके कालखंड में अपने सम्मान की रक्षा के लिए हजारों हिंदू महिलाओं द्वारा जौहर किये जाने की एक नहीं तीन तीन घटनाएँ हुई थीं ! और हमारे फिल्मी धनपशु कहते हैं वह एक रसिक प्रेमी था ? घिन आती है इन लोगों पर !
मंगल पांडेय और पं बाजीराव  महज आवारा आशिक थे ?

मंगल पांडेय और पं बाजीराव महज आवारा आशिक थे ?

मंगल पांडेय और पं बाजीराव  महज आवारा आशिक थे ? 
संजय तिवारी 
 मंगल पांडेय ने तो शायद अपने जीवन में कभी कोठा या तवायफ शब्द भी नहीं सुना था। ब्रह्मर्षि भृगु की धरती के इस पवित्र ब्राह्मण  सैनिक को मियाँ  आमिर ने तवायफ के कोठे पर दिखा दिया। किसी ने कोई विरोध या टिपण्णी नहीं की। तब यह देश सुरक्षित था। दुनिया के सबसे बड़े योद्धा वीर पंडित बाजीराव को इसी संजय लीला ने महज एक आशिक बनाकर नचा दिया , किसी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।  तब भी यह देश सुरक्षित था। मंगल पांडेय और बाजीराव के इतिहास भी उतना गहरा रसातल का नहीं है। बहुत नया है और सभी को मालूम है। भारत के इन दोनों वीर सपूतो को महज एक प्रेमी आशिक आवारा जैसा दिखाने वाले बॉलीवुड के किसी ग्यानी को दिक्कत नहीं हुई न ही तब किसी भारत में पैदा होने का दुःख दिखा। ये भारत की सनातन परंपरा पर चाहे जितने चोट करें , करने दिया जाय तो भारत ठीक और जरा सा विरोध हुआ नहीं कि भारत रहने लायक नहीं रह जाता। 

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       मैं तो कहता हूँ कि जिसे भी भारत रहने लायक नहीं लग रहा हो वह कृपाकर भारत से बाहर चला जाय। जिसे भारतीय होने में शर्म आ रही हो वह भी तत्काल इस मुल्क को छोड़ दे। भारत सरकार को भी यह ऐलान कर देना चाहिए की जो देश में नहीं रहना चाहता उसे बाहर जरूर जाना चाहिए। बात केवल पद्मिनी जैसी एक फिल्म की नहीं है। बात यह है कि देश में रह कर देश की माताओ बहनो की महान विरासत को बदनाम करने की अनुमति तो यह देश नहीं ही देगा। तुम अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर केवल सनातन भारतीय तथ्यों और आस्थाओ से ही क्यों खेलना चाहते हो ? जरा कभी हिम्मत कर के किसी दूसरे सम्प्रदाय के किसी प्रतीक से भी छेड़छेड़ कर के देखते ? मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में ऐसी सैकड़ो फिल्मे हैं जो बन कर डब्बो में बंद है। आपातकाल के दौरान बनी किस्सा कुर्सी का जैसी फिल्म को तो सरकार ने ही प्रतिबंधित किया था।  तब किसी ने नहीं कहा कि यह देश रहने लायक नहीं है। 
 सती प्रथा भारत में प्रतिबंधित है।  सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 राजस्थान सरकार द्वारा १९८७ में कानून बनाया। १९८८ में भारत सरकार ने इसे संघीय कानून में शामिल किया। यह कानून सती प्रथा की रोकथाम के लिए बनाया गया जिसमें जीवित विधवाओं को जिन्दा जला दिया जाता था। इसके बावजूद इसका बढ़ाकर प्रचार किया जा रहा है। इससे एक्ट का उल्लंघन होने के साथ नई पीढ़ी पर इसका गलत असर पड़ सकता है।सती प्रथा उन्मूलन क़ानून के अनुसार यदि कोई स्त्री सती होने की कोशिश करती है उसे छः महीने कैद तथा जुर्माने की सजा होगी। यदि कोई व्यक्ति किसी महिला को सती होने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करे या उसको सती होने में सहायता करे तो उसे मृत्यु दण्ड या उम्रकैद तक की सजा होगी। सती प्रथा की समाप्ति के लिए कितने प्रयास हुए यह किसी से छिपा नहीं है। ये प्रयास ब्रिटिश काल में राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रभावित थे। ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा या विधवा स्त्री को जिन्दा जलाने की प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया और इसे आपराधिक हत्या घोषित कर दिया। 1829 का सती प्रथा उन्मूलन कानून पहले बंगाल तक सीमित था लेकिन 1830  में उसे कुछ संसोधनों के साथ मद्रास व बम्बई प्रेसिडेसियों में भी लागू कर दिया गया।  आज भारत में सटी प्रथा नहीं है और इसे प्रोत्साहित करने या दिखाने की भी अनुमति नहीं है। ऐसे में एक बड़ा प्रश्न तो यह भी है कि भारत के फिल्मकार आखिर ऐसी प्रथा को दिखाने के लिए इतने परेशान  ही क्यों हैं। 
पद्मावती के साथ ही अब और भी बहुत सी बाते तय हो जानी चाहिए। यह भी तय हो जाना चाहिए कि सेक्सी दुर्गा बना कर अभिव्यक्ति की आजादी चाहने वालो का क्या करना है। यश भी तय हो जाना चाहिए कि देश की संस्कृति और सनातनता से खिलवाड़ करने की छोट नहीं दी जा सकती।आमिर खान और शाहरुख़ खान को दीपिका की तो खूब चिंता है लेकिन उन करोडो लोगो की बावनाये इनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं जिनको आहत कर दिया गया है।  आमिर खान और शाहरुख खान दोनों ने दीपिका से फोन पर बातचीत कर उन्हें भरोसा दिलाया है कि वे उनके साथ खड़े हैं। यह भी कहा है कि अगर उन्हें किसी भी तरह की जरूरत पड़ेगी तो वे उनके साथ स्टैंड लेंगे। रोनित रॉय के भाई रोहित रॉय ने एक ट्वीट करते हुए कहा है, ‘पहली बार मैं इस बात को लेकर दुखी, निराश और क्रोधित हूं कि मुझे भारतीय होने पर दुःख है। बी-टाउन के कई सितारों ने इस विवाद को दुखद बताया है और कहा है अजीब है अब हम अपने ही देश में सिक्योर नहीं हैं।
 इस बीच एक अच्छी सूचना है।  'पद्मावती' के रिलीज होने की डेट को लेकर जहां हर तरफ हंगामा चल रहा है। इस मामले पर गौतमबुद्ध नगर जिला अदालत में फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली व कलाकारों समेत 45 के खिलाफ डाली गई याचिका स्वीकार कर ली गई है। कोर्ट ने वादी के बयान दर्ज करने के लिए 15 दिसंबर की तिथि निश्चित की है। सूरजपुर स्थित जिला न्यायालय के अधिवक्ता लखन भाटी ने बताया कि अधिवक्ता पवन चैधरी ने पद्मावती फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली अभिनेत्री दीपिका पादूकोण और अभिनेता रणवीर सिंह व शाहिद कपूर समेत 45 लोगों के खिलाफ केस चलाने को सोमवार को याचिका दी थी। अदालत में मंगलवार को याचिका पर सुनवाई हुई। अधिवक्ता लखन भाटी का कहना है कि अदालत ने याचिका स्वीकार कर वादी के बयान दर्ज कराने के लिए 15 दिसंबर की तिथि निश्चित की है।


लेखक भारत संस्कृति न्यास नयी दिल्ली के अध्यक्ष हैं 
ग्लोबल हुई खिचड़ी

ग्लोबल हुई खिचड़ी

ग्लोबल हुई खिचड़ी 
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डॉ. अर्चना तिवारी 

 अपने कॉलेज के दिनों की एक फिल्म के पोस्टर की बहुत याद आ रही है। नाम था - गोरखनाथ बाबा तोहे खिचड़ी चढ़इबो। तब हमने सोचा भी नहीं था कि कभी खिचड़ी को लेकर वैश्विक चर्चा भी संभव है। यह तो कल्पना से परे था कि गोरखपुर जैसे स्थान में मकर संक्रांति के दिन गोरखनाथ मंदिर में चढ़ाये जाने के अलावा भी कभी खिचडी ख्याति पा सकती है। आज जब भारत के इस लोकव्यंजन को ग्लोबल होते देख रही हूँ तो आश्चर्य से ज्यादा ख़ुशी की अनुभूति हो रही है। 
इस अनुभूति की वजह यह भी है कि मैं जिस पेशे से जुडी हूँ उसमे शिक्षण के साथ पूरा खाद्य विज्ञान या कहे कि व्यंजन विज्ञान भी शामिल है। गृहविज्ञान में फ़ूड साइंस की विशेषज्ञ होने के नाते आज मुझे इस बात का गर्व है कि दुनिया को भारत की खिचड़ी का ज्ञान हो चुका है। यह हमारे प्रधानमंत्री की दूरदृष्टि का प्रतिफल भी है। 
खिचड़ी एक लोकप्रिय भारतीय व्यंजन है जो दाल तथा चावल को एक साथ उबाल कर तैयार किया जाता है। यह रोगियों के लिये विशेष रूप से उपयोगी है। खिचड़ी जैसा पौष्टिक आहार शायद ही कोई दूसरा हो, सोशल मीडिया पर इन दिनों ये सुर्खियों में आने वाला पहला व्यंजन बना हुआ है। प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष के वर्ल्ड फूड इंडिया फेस्ट‍िवल के  अपने भाषण में खिचड़ी के गुणों का वर्णन किया। अब ब्रांड इंडिया खिचड़ी को विदेशों में भारतीय दूतावास प्रचारित करेंगे। पाक विधि के साथ तैयार करने में इस्तेमाल होने वाले सामान की जानकारी भी उपलब्ध कराई जाएगी। सरकार को उम्मीद है कि दुनिया भर में हर रेस्टोरेंट और रसोई में खिचड़ी तैयार होने लगेगी।
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लोक मान्यता के अनुसार मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा का आरंभ भगवान शिव ने किया था और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से मकर संक्रांति के मौके पर खिचड़ी बनाने की परंपरा का आरंभ हुआ था। उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। मान्यता है की बाबा गोरखनाथ जी भगवान शिव का ही रूप थे। उन्होंने ही खिचड़ी को भोजन के रूप में बनाना आरंभ किया।
पौराणिक कहानी के अनुसार खिलजी ने जब आक्रमण किया तो उस समय नाथ योगी उन का डट कर मुकाबला कर रहे थे। उनसे जुझते-जुझते वह इतना थक जाते  की उन्हें भोजन पकाने का समय ही नहीं मिल पाता था। जिससे उन्हें भूखे रहना पड़ता और वह दिन ब दिन कमजोर होते जा रहे थे।
अपने योगियों की कमजोरी को दूर करने लिए बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एकत्र कर पकाने को कहा। बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन का नाम खिचड़ी रखा। सभी योगीयों को यह नया भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा। इससे उनके शरीर में उर्जा का संचार हुआ।
आज भी गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ के मंदिर के समीप मकर संक्रांति के दिन से खिचड़ी मेला शुरू होता है। यह मेला बहुत दिनों तक चलता है और इस मेले में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग अर्पित किया जाता है और भक्तों को प्रसाद रूप में दिया जाता है।

क्या कहता है शब्दसागर

खिचड़ी - संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ कृसर]

१. एक में मिलाया या मिलाकर पकाया हुआ दाल और चावल । क्रि॰ प्र॰—उतारना ।—चढ़ाना ।—डालना ।—भूतना ।— पकाना । मुहा॰—पकना पकना = गुप्त भाव से कोई सलाह होना । ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकना = सब की समति के विरुद्ध कोई कार्य होना । बहुपत के विपरीत कोई काम होना । ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाना = सब की संमति के विरुद्ध कोई कार्य करना । बहुमत के विरुद्ध कोई काम करना । खइचड़ी खाते पहुँचा उतारना = अत्यंत कोमल होना । बहुत नाजुक होना । खिचड़ी छुवाना = नववधू से पहले पहल भोजन बनवाला ।

२. विवाह की एक रसम जिसे 'भात' भी कहते है । मुहा॰—खिचड़ी खइलाना = वह और बरातियों को (कन्या पक्ष वालों का) कच्ची रसोई खिलाना ।

३. एक ही में मिले हुए दो या अधिक प्रकार के पदार्थ । जैसे,— सफेद औऱ काले बाल, या रुपए और अशरिफिआँ; अथव ा जौहरियों की भाषा में एक ही में मिले हुए अनेक प्रकार के जवाहिरात ।

४. मकर संक्रांति । इस दिन खिचड़ी दान की जाती है । यौ॰—खिचड़ी खिचड़वार ।

५. बेरी का फूल । क्रि॰ प्र॰—आना । वह पेशगी धन जो वेश्या आदि को नाच ठीक करने के समय दिया जाता है । बयाना । साई ।

मकर संक्रांति भी खिचड़ी 


उत्तरी भारत में मकर संक्रान्ति के पर्व को भी "खिचड़ी" के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन खिचड़ी खाने का विशेष रूप से प्रचलन है। एक में मिलाया या मिलाकर पकाया हुआ दाल और चावल। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—डालना।—भूतना।— पकाना। मुहा०—पकना पकना = गुप्त भाव से कोई सलाह होना। ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकना = सब की समति के विरुद्ध कोई कार्य होना। बहुपत के विपरीत कोई काम होना। ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाना = सब की संमति के विरुद्ध कोई कार्य करना। बहुमत के विरुद्ध कोई काम करना। खइचड़ी खाते पहुँचा उतारना = अत्यंत कोमल होना। बहुत नाजुक होना। खिचड़ी छुवाना = नववधू से पहले पहल भोजन बनवाला। २. विवाह की एक रसम जिसे 'भात' भी कहते है। मुहा०—खिचड़ी खइलाना = वह और बरातियों को (कन्या पक्ष वालों का) कच्ची रसोई खिलाना। ३. एक ही में मिले हुए दो या अधिक प्रकार के पदार्थ। जैसे,— सफेद औऱ काले बाल, या रुपए और अशरिफिआँ; अथवा जौहरियों की भाषा में एक ही में मिले हुए अनेक प्रकार के जवाहिरात। ४. मकर संक्रांति। इस दिन खिचड़ी दान की जाती है। यौ०—खिचड़ी खिचड़वार। ५. बेरी का फूल। क्रि० प्र०—आना। वह पेशगी धन जो वेश्या आदि को नाच ठीक करने के समय दिया जाता है। बयाना। साई।

खिचडी के प्रकार :- सामान्य भाषा मे उपर्युक्त प्रकार के मिश्रण को खिचडी कहते है परंतु देखा जाये तो कम्पोजिशन के आधार पर इसके 4 प्रकार होते है - (1) खिचडी या सामान्य खिचडी :- चावल + उड़द की काली दली हुई छिलके सहित दाल + नमक | (2) भेदडी :- चावल + मूँग की दाल + नमक + हल्दी | यह मरीजो के लिये होती है | (3) ताहरी :- चावल + दाल + आलू + सोयाबीन + नमक + हल्दी | (4) पुलाव :- चावल + दाल + मौसमी सब्जियां + सोयाबीन + नमक + हल्दी + सलाद |

इतिहास 

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो भारतीय खिचड़ी का सबसे पहला उल्लेख यूनान के शासक सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस ने किया था। विश्व विजेता बनने का सपना रखने वाले सिकंदर ने 336 से 323 ईसा पूर्व तक शासन किया था, लेकिन असामयिक मौत के बाद जब उसका सेनापति सेल्यूकस बेबीलॉन का शासक बना तो उसने भी भारत पर विजय पाने का सपना देखा। तब भारत में चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था, लेकिन चाणक्य की रणनीति के कारण सेल्यूकस की बेटी का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से हो गया। इस विवाह के लिए चंद्रगुप्त ने कुछ शर्तें भी रखी थी। इस विवाह के बाद सेल्युकस को भारतीय खान-पान और रीति रिवाज को समझने का काफी मौका मिला। तब उसने अपनी किताबों में भारतीय खिचड़ी की बहुत तारीफ की और इसे पौष्टिक आहार बताया।

इब्नबतूता ने खाई थी मूंग की खिचड़ी

13 वीं शताब्दी में मोरक्को के यात्री इब्नबतूता ने दक्षिण एशिया की यात्रा की थी। इब्नबतूता ने अपने यात्रा संस्मरणओं में भारत में बनाई जाने वाली मूंग की दाल की खिचड़ी को बहुत स्वादिष्ट बताया था।

बीरबल की खिचड़ी के चर्चे

इसके बाद मुगलों ने भी जब भारत पर शासन किया तो मुगलाई खाने के साथ-साथ खिचड़ी भी अपने स्वाद के कारण खूब पसंद की जाती थी। इसका एक प्रमाण आज भी 'बीरबल की खिचड़ी' वाली कहावत में देखने को मिलता है। एक बार बादशाह अकबर ने घोषणा की कि जो आदमी सर्दी के मौसम में नदी के ठंडे पानी में रात भर खड़ा रहेगा, उसे भारी भरकम तोहफ़े से पुरस्कृत किया जाएगा। एक गरीब धोबी ने अपनी गरीबी दूर करने की खातिर नदी में घुटने तक डूबे रहकर पानी में ठिठुरते हुए सारी रात बिता दी। बाद में वह बादशाह के दरबार में अपना इनाम लेने पहुँचा। बादशाह अकबर ने उससे पूछा - "तुमने कैसे सारी रात बिना सोए, खड़े-खड़े ही नदी में रात बिताई? तुम्हारे पास क्या सबूत है?"
धोबी ने उत्तर दिया - "जहाँपनाह, मैं सारी रात नदी किनारे के महल के कमरे में जल रहे चिराग को देखता रहा और इस तरह जागते हुए सारी रात नदी के ठंडे जल में गुजारी।"
"इसका मतलब यह हुआ कि तुम महल के चिराग की गरमी लेकर सारी रात पानी में खड़े रहे और इनाम चाहते हो?" "सिपाहियों इसे जेल में बन्द कर दो।" बादशाह ने क्रोधित होकर आदेश दिया।
बीरबल भी दरबार में था। उसे यह देख बुरा लगा कि बादशाह नाहक ही उस गरीब पर जुल्म कर रहे हैं। बीरबल दूसरे दिन दरबार में नहीं आए, जबकि उस दिन दरबार की एक आवश्यक बैठक थी। बादशाह ने एक खादिम को बीरबल को बुलाने भेजा। खादिम ने लौटकर जवाब दिया, "बीरबल खिचड़ी पका रहे हैं और वह खिचड़ी पकते ही उसे खाकर आएंगे।"
जब बीरबल बहुत देर बाद भी नहीं आए तो बादशाह को कुछ सन्देह हुआ। वे खुद तफतीश करने पहुँचे। बादशाह ने देखा कि एक बहुत लंबे से डंडे पर एक घड़ा बाँध कर उसे बहुत ऊँचा लटका दिया गया है और नीचे जरा सी आग जल रही है। पास में बीरबल आराम से खटिए पर लेटे हुए हैं।
बादशाह ने तमककर पूछा - "यह क्या तमाशा है? क्या ऐसी भी खिचड़ी पकती है?"
बीरबल ने कहा - "माफ करें, जहाँपनाह, जरूर पकेगी। वैसी ही पकेगी जैसी कि धोबी को महल के दीये की गरमी मिली थी।"
बादशाह को बात समझ में आ गई। उन्होंने बीरबल को गले लगाया और धोबी को रिहा करने और उसे इनाम देने का हुक्म दिया।
1890 का भीषण अकाल और खिचड़ी के तालाब

सन् 1890 का भीषण अकाल पूरे गोंडवाने में आज भी याद किया जाता है। उस दौर में यहाँ असंख्य तालाब बनाए गए थे जिनमें मजदूरी की तरह खिचड़ी बाँटी जाती थी। छिंदवाड़ा की सौंसर तहसील में तब का बना एक तालाब आज भी काम कर रहा है। बालाघाट में भी ऐसे कई तालाब मौजूद हैं। उस दौर में एक अंग्रेज इंजीनियर सर सॅफ कॉटन थे जिन्हें पानी की बड़ी परियोजनाएँ बनाने में महारत हासिल थी। इस वजह से ही उन्हें ‘सर’ की उपाधि दी गई थी। उन्होंने दक्षिण भारत से लगाकर पंजाब तक देश की शुरूआती बड़ी सिंचाई परियोजनाएँ बनवाई थीं। इस इलाके में भी सर कॉटन ने दो बड़े काम किए थे-एक 1911 में वैनगंगा नदी पर 57 लाख रुपयों की लागत से एक लाख एकड़ सिंचाई करने के लिए बालाघाट के पास ‘ढूटी-डायवर्सन’ बनाया था जिसके दरवाजे इंग्लैंड के मेन्चेस्टर से मँगवाए गए थे। दूसरा था छत्तीसगढ़ में 1923 में बना ‘मॉडम सिल्ली’ बाँध। ‘ढूटी डायवर्सन’ जब पहली बार बना तो तेज बहाव के कारण टूट गया था। बाद में 1921 में इसे फिर से बनाया गया। आजादी के बाद भी ‘नर्मदा घाटी विकास परियोजना’ के अंतर्गत अंजनिया के पास बना मटियारि बाँध हवेली क्षेत्र में सिंचाई बढ़ाने के लिए बनाया गया था। लेकिन मटियारि, नैनपुर की थाबर और मंडला की भीमगढ़ परियोजनाओं के बीच की निचली जमीनें होने के कारण इस इलाके पर दलदलीकरण बढ़ने का खतरा खड़ा हो गया है। इस क्षेत्र में कहते हैं कि पानी की मात्रा जरूरत से ज्यादा बढ़ती जा रही है। और गोलाछापर, धतूरा आदि गाँवों में दलदलीकरण होने की खबरें भी आने लगी हैं। पानी ऐसे बढ़ाया जाता रहा तो धरती के लवण ऊपर आ जायेंगे तथा जमीनें बर्बाद होने लगेंगी।

2500 साल पुराना है खिचड़ी का इतिहास

माना जाता है कि खिचड़ी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के खिच्चा शब्द से हुई है. खिच्चा चावल और विभिन्न प्रकार की दाल से बनने वाला खाद्य पदार्थ होता है. खिचड़ी का इतिहास करीब ढाई हजार साल पुराना है. इंडिया करेंट्स नामक वेबसाइट के एक लेख के अनुसार ग्रीक राजदूत सेलुकस ने लिखा है कि इंडिया में चावल और दाल से बना खाद्य पदार्थ काफी लोकप्रिय है. पाकशास्त्री मानते हैं कि ये डिश खिचड़ी या उसका पूर्व रूप रही होगी. मोरक्को के सैलानी इब्न बतूता ने भी भारत में चावल और मूंग की दाल से बनने वाली खिचड़ी का उल्लेख किया है. इब्न बतूता सन् 1350 में भारत आया था. 15वीं सदी में भारत आने वाले रूसी यात्री अफानसी निकितीन ने भी भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रिय खिचड़ी का जिक्र किया है.

मुग़ल बादशाहों को प्रिय थी खिचड़ी

मुगल बादशाहों को भी खिचड़ी काफी पसंद थी. मुगल बादशाह के दरबारी और सलाहकार अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी में खिचड़ी का जिक्र किया है. आईन-ए-अकबरी में खिचड़ी बनाने का सात तरीके दिए हुए हैं. अकबर और बीरबल के किस्सों में खिचड़ी पकाने का किस्सा काफी मशहूर है. माना जाता है कि अकबर के बेटे जहांगीर को खिचड़ी बहुत पसंद थी. मुगलों से खिचड़ी से प्यार की वजह से ही मशहूर शेफ तरला दलाल ने खिचड़ी की अपने एक रेसिपी का नाम शाहजहानी खिचड़ी रखा.खिचड़ी भारत के कई राज्यों हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र इत्यादि में लोकप्रिय है. पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और फिजी जैसे देशों में भी खिचड़ी खायी जाती है. दक्षिण भारत में पोंगल और उत्तर भारत में मकरसंक्राति पर खिचड़ी खाने की परंपरा है. मकरसंक्रांति को उत्तर भारत के कई इलाकों में खिचड़ी कहा जाता है. भारत में किसी चीज का धर्म से वास्ता न हो तो हैरत ही होगी. खिचड़ी अपवाद नहीं है. उत्तर भारत में मान्यता है कि शनिवार को खिचड़ी खाने से शनि ग्रह का प्रकोप नहीं होता. कई जगहों पर शनि मंदिरों में खिचडी़ प्रसाद के तौर पर भी चढ़ाई जाती है।  

 जहांगीर ने कहा - यह तो लाजवाब है
बादशाह जहांगीर गुजरात की यात्रा पर गए हुए थे. वहां उन्होंने एक गांव में लोगों को कुछ खाते देखा. ये कुछ अलग था. बादशाह की भी उसे खाने की इच्छा हुई. जब उन्हें ये व्यंजन परोसा गया तो उन्हें इतना पसंद आया कि उन्होंने कहा-वाह, ये तो लाजवाब है. ये खिचड़ी थी. मूंग दाल की खिचड़ी, जिसमें चावल की जगह बाजरे का इस्तेमाल किया गया था। बादशाह को लगा कि ये व्यंजन मुगल पाकशाला में भी पकना चाहिए. तुरंत एक गुजराती रसोइया शाही पाकशाला के लिए नियुक्त किया गया. खिचड़ी शाही महल में जा पहुंची. वहां इस पर और प्रयोग हुए. वैसे कुछ लोग कहते हैं कि खिचड़ी को दरअसल शाहजहां ने मुगल किचन में शामिल किया. मुगल बादशाहों को कई तरह की खिचड़ी पेश की जाती थी। 

सूखे मेवा की खिचड़ी
मुगल पाकशाला में एक खास किस्म की खिचड़ी विकसित की गई. जिसमें ड्राइ फ्रूट्स, केसर, तेज पत्ता, जावित्री, लौंग और अन्य मसालों का इस्तेमाल किया जाता था. जब ये पकने के बाद दस्तरखान पर आती थी, तो इसकी लाजवाब सुगंध गजब ढाती थी. भूख और बढ़ जाती थी. जीभ पर पानी आने लगता था. तब इसके आगे दूसरे व्यंजन फीके पड़ जाते थे.

खिचड़ी के जायके
आमतौर पर खिचड़ी विशुद्ध शाकाहारी व्यंजन है लेकिन मुगलकाल में मांसाहारी खिचड़ी का भी सफल प्रयोग हुआ, जिसे हलीम कहा गया. बंगाल में त्योहारों के दौरान बनने वाली खिचड़ी तो बहुत ही खास जायका लिए होती है- इसमें बादाम, लौंग, जावित्री, जायफल, दालचीनी, काली मिर्च मिलकर इसे इतना स्वादिष्ट स्वाद देते हैं कि पूछना ही क्या।

शुद्ध आयुर्वेदिक भोजन
असल में ये हानिरहित शुद्ध आयुर्वेदिक खाना है, जायके और पोषकता से भरपूर. वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो जब चावल और दालों को संतुलित मात्रा में मिलाकर पकाते हैं तो एमिनो एसिड तैयार होता है, जो शरीर के लिए बहुत जरूरी है. कहा जाता है कि इससे बेहतर प्रोटीन कुछ है ही नहीं. मूल रूप से खिचड़ी का मतलब है दाल और चावल का मिश्रण। 

खिचड़ी तेरे कितने रूप
क्या आपको मालूम है कि इसका असली उदगम कहां था. कहा जाता है कि इसकी शुरुआत दक्षिण भारत में हुई थी. कुछ कहते हैं कि इसे मिस्र की मिलती जुलती डिश खुशारी से प्रेरणा लेकर बनाया गया था.अब भी आप गुजरात से लेकर बंगाल तक चले जाइए या पूरे देश या दक्षिण एशिया में घूम आइए, हर जगह खिचड़ी जरूर मिलेगी लेकिन अलग स्वाद वाली. महाराष्ट्र में झींगा मछली डालकर एक खास तरह की खिचड़ी बनाई जाती है. गुजरात के भरूच में खिचड़ी के साथ कढ़ी जरूर सर्व करते हैं. इस खिचड़ी में गेहूं से बने पतले सॉस, कढी पत्ता, जीरा, सरसों दाने का इस्तेमाल किया जाता है.अंग्रेजों ने भी खिचड़ी को अपने तरीके से ब्रितानी अंंदाज में रंगा. उन्होंने इसमें दालों की जगह उबले अंडे और मछलियां मिलाईं. साथ ही क्रीम भी। फिर इस बदली डिश को नाम दिया गया केडगेरे-खास ब्रिटिश नाश्ता। 
एलन डेविडसन अपनी किताब आक्सफोर्ड कम्पेनियन फार फूड में लिखते हैं सैकड़ों सालों से जो भी विदेशी भारत आता रहा, वो खिचड़ी के बारे में बताता रहा. अरब यात्री इब्ने बबूता वर्ष 1340 में भारत आए. उन्होंने लिखा, मूंग को चावल के साथ उबाला जाता है, फिर इसमें मक्खन मिलाकर खाया जाता है. हालांकि दुनियाभर में खिचड़ी लोकप्रिय करने का श्रेय हरे कृष्ण आंदोलन की किताब हरे कृष्ण बुक ऑफ वेजेटेरियन कुुकिंग को देना चाहिए.
आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने यूं तो खिचड़ी बनाने की सात विधियों का जिक्र किया है, लेकिन मूल खिचड़ी यानि सादी खिचड़ी की विधि कुछ यूं बताई गई
पांच कटोरी चावल
पांच कटोरी दाल
पांच कटोरी घी
नमक स्वादानुसार
अगर आप खिचड़ी बनाने जा रहे हों तो जरा एक बार इस तरीके का इस्तेमाल करके भी देखें-
आधी कप मूंग दाल
एक कप चावल
3 से 4 कप पानी, या आवश्यकतानुसार
चौथाई चम्मच जीरा
3 से 4 तेज पत्ता
3 से 4 लौंग
नमक स्वादानुसार
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चावल और दाल को अलग अलग कुछ घंटे के लिए भिगोएं. फिर पानी में छान लें. तीन से चार चम्मच तेल या घी लें और इसे तेज पत्ता, लौंग लेकर कुछ सेकेंड तक फ्राइ करें. फिर इसमें धीरे धीरे दाल और चावल मिलाएं. इसे आठ से दस मिनट फ्राइ करें. अब इसमें और पानी मिलाएं. मध्यम आंच पर बंदकर पकाएं. फिर कुछ देर बाद आंच धीमी करें. पकने दें. जब तक चावल और दाल पक नहीं जाते. अगर जरूरत हो तो और पानी मिला सकते हैं. अगर आप चाहें पतली पतली सब्जियां मसलन-पालक, टमाटर, गोभी, मटर भी मिला सकते हैं लेकिन ये काम तभी करें जब खिचड़ी तीन चौथाई पक गई हो।
अब इस पर भुना हुआ जीरा, हरी धनिया के पत्ते और पतली कटी प्याज ऊपर से छिड़क सकते हैं. हां, खिचड़ी का असली आनंद तभी है, जब इसे शुद्ध गरम घी, रायता, दही, पापड़, चटनी, अचार, आलू का भरता और सलाद के साथ सर्व करें. वाह तब तो इसके स्वाद के कहने ही क्या. अगर चाहें तो कई तरह की चटनी का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. इस खाने का जो स्वाद आपकी जीभ पर आएगा, उसे आप शायद सालों याद रखेंगे। 

(लेखिका गृहविज्ञान में फ़ूड साइंस की विशेषज्ञ हैं )