अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत

अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत

अटल दर्शन पर चलेगा नया भारत 


संजय तिवारी 
भारतवर्ष के लिए एक नए युग की शुरुआत हो चुकी है। देश  अभी तक गांधीवाद , नेहरूवाद,  इंदिरावाद,  कांग्रेसवाद,  समाजवाद , सेक्युलरवाद ,आदि वादों और दर्शन को लेकर चल रहा था। गांधी की बात सभी करते रहे लेकिन उसे पर चला कोई नहीं क्योकि कही कही गांधी को भी पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं मिल पायी।  यह अलग बात है कि गांधी को विश्वपटल पार अहिंसा के दर्शन के लिए स्थापना दी गयी। दुनिया ने उनको स्वीकार किया। गांधी के बड़े बड़े अनुयायी भी हुए लेकिन गांधी दर्शन भारत का समग्र दर्शन नहीं बन सका। अब यहाँ महादेश एक ऐसे व्यक्ति के विचारो में डूब -उतरा रहा है जिनका नाम है अटल बिहारी बाजपेयी। नया भारत अब अटल दर्शन को ही अंगीकार कर अपना नया सफर तय करने जा रहा है।

अटल दर्शन पर आगे बढ़ रहे नए भारत की इस यात्रा का आरम्भ हो चुका है। अटल बिहारी बाजपेयी की दैहिक अनुपस्थिति में अब कुंके शब्द मन्त्र की भूमिका में आ गए हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए अब अन्य सभी दर्शनों से ज्यादा अटल दर्शन ही प्रासंगिक बन रहा है। अटल जी की सनातन के प्रति विशवास , सत्य पर भरोसा , राजधर्म की स्पष्ट परिभाषा और लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद और मनभेद के बावजूद  राजनैतिक मित्र भाव  की उनके नीति ही इस देश और यहाँ के लोकतंत्र को आगे ली जा सकती है। वैसे भी देश की नयी पीढ़ी के सामने एक पथविचलन जैसा दृश्य उभर कर आ गया था। अटल जी के निधन के बाद उनके लिए उपजी सहानुभूति और उनके अजातशत्रु व्यक्तित्व के सामने आते ही नयी पीढ़ी को जैसे वह आदर्श मिल गया जिसकी तलाश वह अन्य व्यक्तियों में कर रही थी।

अटल जी पिछले नौ वर्षो से अचर्चित थे। कही उनका नाम नहीं था। इन नौ वर्षो में जिसने जन्म लिया वह तो उन्हें नहीं ही जान रहा था , उनके सक्रीय जीवन में नौ वर्ष पूर्व जन्मलिये बच्चो को भी उनकी याद धुंधली ही रही होगी। यह समग्र पीढ़ी कुछ और ही तरह से अपने आइकॉन तलाश रही थी। अटल जी के निधन के बाद से देश में जिस तरह से अटल चर्चा और अटलनीति पर विमर्श शुरू हुआ है उसने नयी पीढ़ी को इस तरफ बहुत ही सलीके से ध्यान खींचा है। इस चर्चा के साथ ही अटल जी के भाषण सर्च किये जा रहे हैं और खूब सुने जा रहे हैं। आज जिस रूप में अटल जी की चर्चा हो रही है उससे नया भारत बहुत ही प्रभावित है।

नए भारत के वास्तविक निर्माता के रूप में अटल जी याद किये जा रहे हैं।  यह सही भी है।  शेरशाह सूरी और ग्रांडट्रंक के बाद अटल जी तीसरे शासक हैं जिन्होंने इस महादेश के भूतल परिवहन के लिए क्रांतिकारी कार्य किया।  उनकी दूरदृष्टि से ही आज देश में फोरलेन , सिक्सलेन की सड़के और एक्सप्रेसवे जैसे राजमार्ग हमें उपलब्ध हो सके हैं। भारतीय राजनीति में उनके 70 वर्षो का मूल्यांकन बहुत आसानी से नहीं किया जा सकता। उसके लिए वर्षो के शोध की आवश्यकता है। अटल जी का कवि , अटल जी का पत्रकार , अटल जी का राजनेता , अटल जी का प्रतिपक्ष और फिर पक्ष , अटल जी का शासक , अटल जी लोकमानव , अटल जी का महामानव , अटल जी का सनातन , अटल जी का हिंदुत्व , अटल जी का भारतीयपन , अटल जी का मनुष्य। इन सभी पर केवल कुछ शब्दों में कैसे लिखा जाय।

अटल जी एक युग हैं।  उनके युग में जिन्होंने जी कर देखा उन्होंने उन्हें जाना। अब जब कि दुनिया बदल रही है और भारत विश्वशक्ति बन कर उभर रहा है ,ऐसे में अटल जी के दर्शन और सिद्धांत ही हैं जो भारत की प्रगति को अक्षुण्य बनाये रखेंगे। अटल जी की नीतियों पर चलने वाला भारत ही महान होगा।  अटल जी के दर्शन को मानने वाला भारत ही विश्व विजय के पथ पर अग्रसर होगा। अटल दर्शन लेकर ही भारत बनेगा विश्वगुरु।  
रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति

रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति

रेशम के सूत्र में रक्षा की शक्ति 

संजय तिवारी 
भारत की सनातन परंपरा पर्व प्रधान है। ये पर्व सृष्टि के क्रमिक विकास के वार्षिक पड़ाव हैं। प्रति वर्ष आकर ये जीवन के विकासक्रम को संस्कारित करते हैं और आगे अपने धर्म  के निर्वहन की प्रेरणा भी देते हैं। यह धर्म कोई मजहब या पंथ नहीं होता बल्कि मानव का होता है। इसमें राजा का धर्म , प्रजा का धर्म , पिता का धर्म , पुत्र का धर्म , भगिनी का धर्म , भाई का धर्म , पति का धर्म , पत्नी का धर्म , बडो का धर्म , छोटो का धर्म आदि निहित हैं। यह जीवन की संस्कृति का निर्माण करते हैं। इन पर्वो में से ही एक महत्वपूर्ण पर्व है रक्षा सूत्र बंधन। वैसे तो यह अत्यंत पौराणिक प्रचलन का पर्व है लेकिन आजकल इसे भाई बहन के पवित्र रिश्ते के साथ जोड़ कर देखा जाता है। यह पर्व हर साल आता है और अब इसे केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशो में भाई बहन के त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा है। आइये एक दृष्टि डालते हैं इसके प्राचीन स्वरुप से लेकर ऐतिहासिक और वर्त्तमान स्वरुप पर। 


रक्षा सूत्र बन्धन
यह पर्व प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।


रक्षासूत्र
प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनीकलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्त्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्त्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह-सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन, वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।


पौराणिक प्रसंग
रक्षा सूत्र बंधन यानी  का त्योहार कब शुरू हुआ , इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन यह पर्व है अत्यंत प्राचीन ,क्योकि इसकी प्राचीनता के प्रमाण उपलब्ध हैं।  भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)-

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
(श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रम्हकर्म समुच्चय पृष्ठ -295 )  
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- 
"जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)"  

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है।


 भागवतपुराण
 भागवतपुराण में उल्लेख है कि एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥’
(श्रीमद्भागवत,स्कन्ध 8,अध्याय 23,श्लोक33) 
 
विष्णु पुराण
विष्णु पुराण में एक और उल्लेख मिलता है जब विष्णु ने हयग्रीव अवतार के रूप में पृथ्वी पर विचरण किया। उस दिन भी श्रावण महीने की पूर्णिमा ही थी। विष्णु इस रूप में ब्रह्मा के लिए पुनः वेदों को उपलब्ध कराया  था। हयग्रीव अवतार को विद्या और बुद्धि प्रदाता माना जाता है। उनके स्वागत में ब्रह्मा ने विष्णु का रक्षा सूत्र बाँध कर अभिनन्दन किया था।  द्वापर युग में महाभारत काल में भी राखी का उल्लेख मिलता है। ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से युद्ध भूमि में पूछा कि हम संख्या और शक्ति बल में कम होते हुए भी किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं ? तब श्री कृष्ण ने ‘हनुमान मंत्र’ के साथ समस्त सैनिकों को परस्पर रक्षा सूत्र बाँधने का परामर्श दिया था।उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है, जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। यही नहीं अर्जुन के जिस रथ को श्री कृष्ण स्वयं हाँक रहे थे उसके ऊपर भी हनुमत ध्वजा फहरा रही थी।

महाभारत 
 महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

ऐतिहासिक प्रसंग
महारानी कर्मवती ने हुमायूँ को भेजी थी राखी 
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। 

सिकंदर की पत्नी ने पुरूवास से लिया वचन 
एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।

साहित्यिक प्रसंग
अनेक साहित्यिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रक्षाबन्धन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है हरिकृष्ण प्रेमी का ऐतिहासिक नाटक रक्षाबन्धन जिसका 1991 में 18वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिन्दे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक की रचना की जिसका शीर्षक है राखी ऊर्फ रक्षाबन्धन।

जैन साहित्य में रक्षाबंधन
इस दिन बिष्णुकुमार नामक मुनिराज ने ७०० जैन मुनियों की रक्षा की थी।जैन मतानुसार इसी कारण रक्षाबंधन पर्व हम सब मनाने लगे व हमें इस दिन देश व धर्म की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।
 
 
फिल्मो में रक्षाबंधन 
पचास और साठ के दशक में रक्षाबन्धन हिंदी फ़िल्मों का लोकप्रिय विषय बना रहा। ना सिर्फ़ 'राखी' नाम से बल्कि 'रक्षाबन्धन' नाम से भी कई फ़िल्में बनायीं गयीं। 'राखी' नाम से दो बार फ़िल्‍म बनी, एक बार सन 1949 में, दूसरी बार सन 1962 में, सन 62 में आई फ़िल्‍म को ए. भीमसिंह ने बनाया था, कलाकार थे अशोक कुमार, वहीदा रहमान, प्रदीप कुमार और अमिता। इस फ़िल्‍म में राजेंद्र कृष्‍ण ने शीर्षक गीत लिखा था- "राखी धागों का त्‍यौहार"। सन 1972 में एस.एम.सागर ने फ़िल्‍म बनायी थी 'राखी और हथकड़ी' इसमें आर.डी.बर्मन का संगीत था। सन 1976 में राधाकान्त शर्मा ने फ़िल्‍म बनाई 'राखी और राइफल'। दारा सिंह के अभिनय वाली यह एक मसाला फ़िल्‍म थी। इसी तरह से सन 1976 में ही शान्तिलाल सोनी ने सचिन और सारिका को लेकर एक फ़िल्‍म 'रक्षाबन्धन' नाम की भी बनायी थी।

स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगालनिवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता "मातृभूमि वन्दना" का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं-
"हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों;
है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।"
(बांग्ला से हिन्दी अनुवाद)

सन् 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्टूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई और लोगबाग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-

सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन,
 सुनेना सुनिल कर्ज़न दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल,
 आमि स्वजने राखी बन्धन।


ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन  
नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। लेकिन दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं। इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मज़बूत करते है। भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते हैं और सुख-दुख में साथ रहने का विश्वास दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।

भावनात्मक रिश्तों में रक्षाबंधन 
सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। रक्षाबन्धन का पर्व भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के निवास पर भी मनाया जाता है। जहाँ छोटे छोटे बच्चे जाकर उन्हें राखी बाँधते हैं। रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है।

गुरु - शिष्य के बीच रक्षा बंधन 
गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।

राजस्थान में चूड़ाराखीराजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टीऔर भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।

उत्तरांचल में श्रावणी  
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

हिमानी शिवलिंग  
अमरनाथ की अतिविख्यात धार्मिक यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है।

नारियल पूर्णिमा   
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं।इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं।
अवनि अवित्तम  
तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत। व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।

उत्तर प्रदेश 
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। रक्षा बंधन के अवसर पर बहिन अपना सम्पूर्ण प्यार रक्षा (राखी ) के रूप में अपने भाई की कलाई पर बांध कर उड़ेल देती है। भाई इस अवसर पर कुछ उपहार देकर भविष्य में संकट के समय सहायता देने का बचन देता है।

एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय   
रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक योग (मिलन) होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जा सकता है।

विशेष पकवान  
रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।

सरकारी प्रबन्ध
भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर हर साल विशेष प्रबंध किये जाते हैं ताकि  पर राखी सही जगह पहुंच सके।  यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। रक्षाबन्धन के अवसर पर बरसात के मौसम का ध्यान रखते हुए डाक-तार विभाग ने  बारिश से ख़राब न होने वाले वाटरप्रूफ लिफाफे भी उपलब्ध कराये हैं। ये लिफाफे अन्य लिफाफों से भिन्न हैं। इसका आकार और डिजाइन भी अलग है जिसके कारण राखी इसमें ज्यादा सुरक्षित रहती है। डाक-तार विभाग पर रक्षाबन्धन के अवसर पर 20 प्रतिशत अधिक काम का बोझ पड़ता है। अतः राखी को सुरक्षित और तेजी से पहुँचाने के लिए विशेष उपाय किये जाते हैं और काम के हिसाब से इसमें सेवानिवृत्त डाककर्मियों की सेवाएँ भी ली जाती है। कुछ बड़े शहरों के बड़े डाकघरों में राखी के लिये अलग से बाक्स भी लगाये जाते हैं। इसके साथ ही चुनिन्दा डाकघरों में सम्पर्क करने वाले लोगों को राखी बेचने की भी इजाजत दी जाती है, ताकि लोग वहीं से राखी खरीद कर निर्धारित स्थान को भेज सकें।

राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम
आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। इसके अतिरिक्त भारत में  राखी के अवसर पर इस पर्व से सम्बन्धित एक एनीमेटेड सीडी भी आ गयी है जिसमें एक बहन द्वारा भाई को टीका करने व राखी बाँधने का चलचित्र है। यह सीडी राखी के अवसर पर अनेक बहनें दूर देश में रहने वाले अपने भाइयों को भेज सकती हैं। अब व्हटसप और फेसबुक पर वीडिओ कॉलिंग की सुविधा होने से दूर रह रहे भाइयों को बहाने ऑनलाइन राखी बाँध  देती हैं। 

 रक्षा बंधन 2018

26 अगस्त
रक्षाबंधन अनुष्ठान का समय- 05:59 से 17:25
अपराह्न मुहूर्त- 13:39 से 16:12
पूर्णिमा तिथि आरंभ – 15:16 (25 अगस्त)
पूर्णिमा तिथि समाप्त- 17:25 (26 अगस्त)

भद्रा समाप्त: सूर्योदय से पहले


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युगपुरूष का महाप्रस्थान

युगपुरूष का महाप्रस्थान

युगपुरूष का महाप्रस्थान

संजय तिवारी
सावन की षष्ठी का सूरज चमका तो , पर बहुत कम क्षणों के लिए।  काले घने बादलों  ने उसे यम की साया बन ढक लिया। लखनऊ में गोमती की धारा ठहर गयी। क्या गांव , क्या गिराव , क्या नगर ,क्या महा नगर , क्या लखनऊ और क्या दिल्ली। हर कही एक ही धुन।  एक ही राग।  एक ही चर्चा।  एक ही बात। काल के कपाल  पर
लिखते ,मिटाते और कभी रार ठानते महामानव अटल जी की अनंत यात्रा शुरू हो गयी। युग पुरुष के महाप्रस्थान ने भारत के हर गहरा को आभास कराया कि यह प्रयाण केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि अभिभावक का है। करोडो आँखों में यदि आर्द्रता भर गयी तो यह उनकी लोकसंप्रेषणीय वाणी और छवि के कारण था। 
 अनंत  यात्रा पर अटल जी 


उन्हें राजनेता कहे।  कवि कहें। महामानव कहें।  दार्शनिक कहें। असाधारण वक्ता कहें। आखिर किसी एक सम्बोधन और एक विशेषण से अटल जी को कैसे बताया और समझा जा सकता है। वह तो खुद में भारत के भी पर्याय बन चुके थे। विश्वमंच पर भारत की जो छवि उन्होंने स्थापित की उसके लिए यह राष्ट्र सदैव  उन्हें याद करेगा। एक सम्पूर्ण भारतीय मन किस प्रकार से अजातशत्रु बन कर दिलो पर राज करता है वह आज दुनिया शिद्दत से महसूस कर रही है। अटल बिहारी बाजपेयी होने का क्या अर्थ है , इसको विश्व आज देख रहा है। उनकी कविताओं के अर्थ लोग अब तलाश रहे हैं। उनकी लेखनी से उपजी ऊर्जा को अब सभी महसूस कर रहे हैं। पंछी जब अनंत यात्रा का पथिक बन चुका तब नीड़ में नए प्रतिमान तलाश रहे हैं। 

अटल जी की राजनीति पर बहुत सी बातें हो रही हैं। आगे भी होंगी। राजधर्म का उनका सिद्धांत भारतीय राजनीति के लिए नीव की ईंट बन चुका है। उनके परम प्रिय मित्र लालकृष्ण आडवाणी का उल्लेख किये बिना यह बात पूरी नहीं हो सकती। भले ही पूरी पार्टी आज एक विशाल वटवृक्ष बन सत्ता में है लेकिन अटल जी के मन को जितना आडवाणी जी जानते और समझते हैं उतना कोई और नहीं जनता। आज जब अटल जी अपनी अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं तब उनकी उन यात्राओं की याद सभी को आ रही है जो लघु थीं लेकिन राष्ट्र के लिए अपरिहार्य थीं। भारत की राजनीति का इतिहास अटल जी के बिना पूरा हो ही नहीं सकता। भारत की विदेशनीति का निर्धारण अटल जी को याद किये बिना संभव नहीं। भारतीय लोकतंत्र में मर्यादित राजनीति और सत्ता संचालन की अटल नीति को भला कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है। अटल बिहारी बाजपेयी केवल एक नाम नहीं।  केवल एक राजनेता नहीं बल्कि विश्व में लोकतांत्रिक प्रमाराओ के प्रमुख प्रणेताओ में से प्रमुख हैं। यहाँ एक उद्धरण अटल जी के व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए उचित लगता है।बात कानपुर  के डीएवी कॉलेज की है। अटल बिहारी वाजपेयी ने वर्ष 1946, 1947 में डीएवी पीजी कॉलेज में एडमिशन लिया और टॉपर बनकर निकले थे। डीएवी से ही उन्होंने एलएलबी का रिफ्रेशर कोर्स किया। खास बात यह रही कि अटल और उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ने एलएलबी के रिफ्रेशर कोर्स की कक्षाएं एक साथ पढ़ी थीं। पिता-पुत्र  दोनों ही डीएवी हॉस्टल के 104 नंबर कमरे में सादगी से रहते और खुद खाना बनाकर खाते थे। अपने कपड़े खुद धोते थे। डीएवी में पढ़ाई के दौरान ही अटल जी आरएसएस के संपर्क में आए और राजनीति से जुड़ गए। उस समय भी पांचजन्य में उनका लेख  प्रकाशित होता था।

भारत का हर आदमी अटल जी को बेहद प्यार करता था। अटल जी के भाषण सुनने उनके धुर विरोधी भी उनकी जनसभाओं में आते थे और किनारे बैठ कर उनको खूब ठीक से सुनते थे। अटल जी को सुनने के लिए आंधी , पानी , टटटी धुप में भी लोग घंटो इंतज़ार किया करते थे। वह दौर था जब भीड़ जुटाने के लिए अलग से कोई प्रयास नहीं किया जाता था। चुनावी समय आधी आधी रत तक अटल जी को सुनने के लिए लोगो को इंतज़ार करते देखा गया है। जिस पंडित नेहरू ने भविष्यवाणी की थी कि यह लड़का एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा , उस नेहरू की लोकप्रियता से भी आगे की लकीर खींच कर अटल जी ने अमरत्व प्राप्त किया है। अटल जी एक ऐसे राजनेता हैं जिनको आदर्श और प्रेरणा मानकर हजारो युवको ने राजनीति में प्रवेश लिया और आज उनमे बहुत से लोग काफी ऊंचे मकाम हासिल भी किये हैं। अटल जी भारत के युवाओ के लिए सदैव ही प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। उनके राजधर्म को आत्मसात कर भारतीय लोकतंत्र और मजबूत होगा। ऐसे महामनीषी को हार्दिक श्रद्धांजलि और शत -शत नमन। 
 
70 वर्षो की  महान विरासत  
भारत मे संसदीय इतिहास का एक युग बीत गया। राजनीति की 70 वर्षो की एक महान विरासत अब दसतावेज हो गयी।भारत के लोकतंत्र की समृद्धि की नींव का एक बड़ा संबल नही रहा। मा भारती के आंचल को बेदाग देख कर खुद की नींद लेने वाला सपूत चिरनिद्रा में माँ की गोद मे सम गया। युग ही नही विश्व विरासत की महायात्रा का एक पड़ाव ।अटल जी का न होना , भारत ही नही , दुनिया भी बहुत दिनों तक खुद को तैयार करेगी यह स्वीकार करने को कि अटल जी नही है।

धुर विरोधी भी रहते थे नतमस्तक 
वैसे विगत कुछ ही दिनों के अंतराल में कई विभूतियों ने धरती से विदा ली है। दक्षिण में करुणानिधि से लेकर सोमनाथ चटर्जी तक। ये सभी कही न कही अटल जी के आसपास ही चहलकदमी करने वाले लोग रहे हैं। सोमनाथ दा तो उन्ही के कार्यकाल में लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे। इन मनीषियों से अटल जी किसी न किसी रूप में जुड़े तो थे ही। करूणानिधि भले ही वैरिक रूप से उनके धुर विरोधी रहे लेकिन अटल जी के सामने वह भी  जाते थे। 

महाकवि नीरज और अटल जी 
यह बरबस नही बल्कि बड़ी शिद्दत से एक नाम उभरता है पंडित गोपालदास नीरज का। इस महाकवि और अटल विहारी बाजपेयी की कुंडली के सभी ग्रह एक ही जैसे रहे हैं ।सिर्फ चंद्रमा का अंतर रहा है। नीरज जी इस को लेकर कई बार चर्चा किया करते थे। यह इत्तफाक ही है कि नीरज जी ने भी अपनी अनंत की यात्रा अभी अभी शुरू की है। कुछ ही दिन बीते हैं । आज अटल जी उसी अनंत यात्रा पर निकल पड़े। ये दोनों ही ऐसे यात्री है जिनकी संवेदना और रचना शक्ति बराबर की कही जाती रही। राजनीति में होकर भी अटल जी और नीरज जी एक साथ मंचो पर कविताएं पढ़ा किये, गया किये और खूब फाका मस्ती भी की। दोनो के संघर्ष के दिन एक जैसे रहे। लेकिन जब समय आया तो दोनो की स्वरलहरी लालकिले से भी गूंजी।

भारत और माँ भारती के गीत गाते  अटल बने थे नायक 
अटल जी केवल कवि तो नही बन सके लेकिन भारत और भारती के गीत गाते ही भारत ने उन्हें अपना नायक बना दिया। ऐसा नायक जो अजातशत्रु है। जिसके घोर विरोधी भी उसका सम्मान करते । अटल जी का सन्सद का वह भाषण याद है सभी को जब उन्होंने कहा था-  सब कह रहे , अटल अच्छा है , लेकिन समथन नही करेंगे, क्योकि पार्टी खराब है, क्या खराबी है? क्या करोगे इस अच्छे अटल का?अत्यंत तनाव के समय मे विश्वास मत पर चर्चा की घटना है यह। इसी चर्चा में उनकी सरकार महज एक वोट से गिरी थी। लेकिन इतने तनाव के माहौल को भी उन्होंने ऐसा बना दिया कि संसद में ठहाके गूंज उठे।

भारत के पर्याय  
अटल जी यकीनन भारत के पर्याय बन गए। तभी तो विपक्ष में होकर भी केंद्र की कांग्रेस की सरकार उनको भारत का प्रतिनिधि बनाकर संयुक्त राष्ट्र में भेजती थी। यह सामान्य बात नही है। विश्व मे शायद ही ऐसा कोई उदाहरण कही और देखने को मिलता हो। ऐसे अजातशत्रु नायक का फिर मिलाना इतना आसान तो नहीं है। 

लगभग 70 वर्षो के राजनीतिक सफर में अटल बिहारी बाजपेयी विश्व मे भारत की पहचान जैसे ही रहे ।वह जिस भी पद पर ,जिस भी रूप में रहे भारत ही सर्वोपरि रहा। उनके लेखन , चिंतन और सृजन में भी माँ भारती ही होती हैं। अटल बिहारी बाजपेयी के चिंतन में भारत सर्वोपरि रहा है। भारत को विश्वगुरु के कमतर आंकने वालो को वहुत कड़ा जवाब देते है-

अखिल विश्व का गुरू महान,
देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग
मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर,
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार
क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,
सागर के जल में छहर-छहर
इस कोने से उस कोने तक
कर सकता जगती सौरभ भय।

अपने इतिहास पर उनको गर्व है। यह इतिहास सनातन है। वह सनातन संस्कृति और सनातन भारत के लिए बेचैन होकर गाते है-

दुनिया का इतिहास पूछता,
रोम कहाँ, यूनान कहाँ?
घर-घर में शुभ अग्नि जलाता।
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के,
व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,
किन्तु चीर कर तम की छाती,
चमका हिन्दुस्तान हमारा।
शत-शत आघातों को सहकर,
जीवित हिन्दुस्तान हमारा।
जग के मस्तक पर रोली सा,
शोभित हिन्दुस्तान हमारा।

भारत पर उन्हें कितना अभिमान है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उनकी इस रचना में दिखता है-

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे अनेक अवसर आये जब अटल जी को कठिन चुनौतियों से जूझना पड़ा। चाहे वह आजादी के तत्काल बाद कि राजनीति हो या आपातकालीन भारत की दुर्दशा। मंडल सिफारिशों के बाद जलता हुआ भारत और मंदिर आंदोलन का प्रज्जवलन भी बहुत ठीक से देखा उन्होंने। लेकिन ये अटल शक्ति की कही जाएगी कि वह न तो झुके और न ही टूटे। यहां तक कि पोखरण के बाद जब भारत को प्रतिबंधित करने की कोशिशें हुई तब भी चट्टान बने रहे। उन्हों खुद ही लिखा भी-

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।

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