श्रीमद्भगवद्गीता जीवन संस्कृति - ९ 
जीवन ही नहीं पुनर्जीवन भी 
संजॉय तिवारी 
जीवन जितना ही महत्वपूर्ण है , उतना ही आनददायी प्रक्रिया भी। जीवन से ही मुक्ति भी है और पुनर्जीवन भी। सब उसी महा ऊर्जा के संचरण की अवस्थाये हैं। चेतन तत्त्व के साथ तादात्म्य स्थापित करके जो सत्य का उपासक अपना जीवन जीता है वह मरण के समय भी जीवन पर्यन्त की गई उपासना के उपास्य (ध्येय) का ही चिन्तन और स्मरण करता है स्वाभाविक है कि ऐसा उपासक अपने उपास्य के लोक को प्राप्त होगा क्योंकि वृत्ति के अनुरूप व्यक्ति बनता है। सम्पूर्ण जीवन काल में रचनात्मक दैवी एवं विकासशील विचारों का ही चिन्तन करते रहने पर मनुष्य निश्चित ही वर्तमान शरीर का त्याग करने पर विकास के मार्ग पर ही अग्रसर होगा। इस मार्ग को अग्नि ज्योति दिन आदि शब्दों से लक्षित किया गया है। इस प्रकार उपनिषदों की अपनी विशिष्ट भाषा में ब्रह्म के उपासकों की मुक्ति का मार्ग उत्तरायण कहलाता है। क्रममुक्ति को बताने के लिए ऋषियों द्वारा प्रायः प्रयोग किये जाने वाले इस शब्द उत्तरायण में उपर्युक्त सभी अभिप्राय समाविष्ट हैं। इस मार्ग के विपरीत वह मार्ग जिसे प्राप्त करने पर पुनः संसार को लौटना पड़ता है। लेकिन जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाम-मात्र को ही कहा जा सकता है। न तो जीवन का हमें कोई पता है; न जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है; न जीवन के आनंद की वर्षा होती है; न हम यही जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं, किसलिए जी रहे हैं। हमारा होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। कहना उचित नहीं कि हम जीते हैं, यही कहना काफी है कि हम किसी भांति बने रहते हैं, किसी भांति अस्तित्व को ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए भी मुर्दे की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई इतना जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते। 

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। 23।। 
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।
 

अर्थात , हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता | हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को कहूंगा। उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। कोई ऐसे भी जी सकता है जैसे मरा हुआ रहा हो, और कोई ऐसे भी मर सकता है कि उसकी मृत्यु को हम जीवंत कहें। जीवन भी मृतवत हो सकता है, और मृत्यु भी अति जीवंत।
इस पहेली को यहाँ भगवन समझा भी रहे हैं। इसे हम उदहारण में देखें तो पाते  हैं कि राम , कृष्ण, व्यास, बुद्ध , महावीर , क्राइस्ट जैसे अवतरित महापुरुषों  की मृत्यु को केवल मृत्यु कैसे कह सकते हैं ? अपने , हमारे जीवन को हम जीवन क्यों नहीं कह पाते हैं? कृष्ण जैसो की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को निर्वाण कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश कहते हैं। आखिर उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी क्रांति घटित होती है, जो हमारे जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती! किस मार्ग से वे मरते हैं कि परम जीवन को पाते हैं! और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवित रहते हुए भी हमें कोई जीवन की सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है। राम भी मरते हैं , महावीर और बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, और उनकी मृत्यु के लिए हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। उनके जीवन के लिए भी हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। वे कुछ और ढंग से जीते हैं और वे कुछ और ढंग से मरते हैं। जीने का सब कुछ निर्भर है जीने के ढंग पर, और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को मरने का ढंग भी आता है।
कृष्ण अर्जुन से उस क्षण, उस मार्ग, मृत्यु की उस कला की बात इन सूत्रों में करते हैं , जिस कला को जानने वाला, जिस मार्ग को पहचानने वाला, मरकर मरता नहीं, अमृत को उपलब्ध हो जाता है। जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा। अब प्रश्न यह है कि वह क्षण /काल / समय/स्थिति क्या है ?
बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का, जिस क्षण में कोई व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है। निश्चित ही, क्षण से अर्थ, बाहर की घड़ी में घूमते हुए कांटे से जो नापा जाता है, उस क्षण से नहीं है। लेकिन भीतर भी एक घड़ी है, और भीतर भी क्षणों का एक हिसाब है। एक तो बाहर नापने की हमने यांत्रिक व्यवस्था की है समय को। वह बाहर के कामों के लिए जरूरी है, भीतर के कामों के लिए नहीं। भीतर एक और भी माप है। और उस माप में, जिस क्षण में व्यक्ति की मृत्यु होती है–भीतरी माप के जिस क्षण में, भीतरी घड़ी के जिस क्षण में–बहुत कुछ निर्भर होता है। क्योंकि इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है, मृत्यु भी आकस्मिक नहीं है। मृत्यु भी बहुत सुव्यवस्थित है। और मृत्यु भी बहुत कारणों से सुनिश्चित है। और हर आदमी हर कभी नहीं मरता; हर आदमी अपनी मृत्यु चुनता है; दैट इज़ ए च्वाइस; जिसे हम जिंदगीभर निर्मित करते हैं। और मृत्यु को देखकर कहा जा सकता है कि व्यक्ति कैसे जीया। भीतर, मृत्यु का क्षण निर्णायक है।
  इस क्षण में दक्षिणायण उत्तरायण; और अग्नि बन गई हो पूर्णिमा का प्रकाश, जब इन दोनों का मिलन होता है, उसी क्षण पीछे लौटना असंभव है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है। वह जगह आ गई जहां से वापस नहीं हुआ जा सकता, जिसके आगे नहीं जाया जा सकता और आगे ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
क्रमशः 


दिव्य शरीर में अवतरण यानि लीला कर्म

दिव्य शरीर में अवतरण यानि लीला कर्म


गीता जीवन संस्कृति - 8 

दिव्य शरीर में अवतरण यानि लीला कर्म
संजय तिवारी
समग्र ब्रह्माण्ड ऊर्जा है। सृष्टि ऊर्जा है। सृष्टि के सञ्चालन की व्यवस्था ऊर्जा है। धर्म (मजहब, रेलिजन , पंथ या सम्प्रदाय नहीं ) ऊर्जा है। जीव उसी ऊर्जा के अंश से किसी न किसी देह में सक्रिय हैं। फिर उस समग्र ऊर्जा को भी किसी देह में देह में अवतरित होने की आवश्यकता ही क्यों ? यह प्रश्न तो कोई भी कर सकता है। आखिर उस समग्र ऊर्जा के लिए कोई शरीर धारण कर जीवो के बीच आने की जरुरत ही क्यों पड़ गयी ?
इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है। क्योकि अर्जुन को भी यही प्रश्न मथ रहा था। वह भी गीता सुनते हुए बहुत भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ़  सा हो गया था। श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा ध्याय , नवां श्लोक -

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9।।

अर्थात , हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है। अब आवश्यक है कि इस दिव्य को समझ लिया जाय।
दिव्य शब्द में ही इसके सभी उत्तर समाहित हैं। इस दिव्य शब्द की उत्पत्ति दिव धातु से होती है। महाकाव्यों में दिव्य शब्द का प्रयोग उसके लिए हुआ है जिसका मस्तिष्क  अति शक्तीशाली हो। यह शक्ति  बहुत ही कम लोगो के पास होती है और जिनके भी पास होती है वह इसका उपयोग ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं कर सकते। ईश्वर भी इस शक्ती का उपयोग कम ही करते है। यह शक्ति जिस मनुष्य के पास होती है वह किसी और को इसके बारे में नहीं बता सकता। वह अनंत को जानने क्षमता रखता है। ईश्वर के समान होते हुए भी वह स्वयं को दूसरों  भांति सामान्य मानता है। वह एक मनुष्य रूपी भगवान है। दिव या दिव्य के जागतिक अर्थ को भी जान लेना आवश्यक है। पूरब से पश्चिम तक दिव्य के अनेक अर्थ हैं, जो प्रचलन में हैं  -
suffering pain, lamenting, moaning / pari-kūjana ,vexing, tormenting / mardana , playing / krīḍā ,desiring to conquer / vijigīṣā ,activity / vyavahāra , shining / dnuti , praise / stuti ,joy / moda , intoxication / mada , sleep / svapna , beauty/desire / kānti , going / gati , diving, emerging, bathing / āplāvya. हिंदी में दिव्य को अलौकिक या भव्य रूप में भी लिया  जाता है। 

वस्तुतः जो ईश तत्व अवतार लेकर शरीर में प्रकट होता है वह अपने दिव्य कार्य अर्थात क्रीड़ा या लीला के लिए आता है। दिव्य का एक अर्थ क्रीड़ा भी है जिसको श्रीकृष्ण ने बहुत सलीके से बता दिया है-  जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
तात्पर्य यह कि वह समग्र ऊर्जा या परमसत्ता जब आवश्यक हो जाता है तब कोई न कोई शरीर धारण कर उपस्थित होता है और क्रीड़ा अर्थात लीला कर फिर प्रयाण भी कर लेता है। इसीलिए भारतीय मनीषा अपने चिंतन में इसे भगवान् की लीला ही कहती है। प्रभु जब भी शरीर लेकर आये हैं उन्होंने जो किया है उसे लीला ही कहा गया है। वह राम की लीला हो अथवा कृष्ण की। 
यहाँ एक और तथ्य सामने रखना उचित होगा कि  महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक में भगवानुवाच का प्रयोग किया है जबकि उन्होंने महाभारत के सम्पूर्ण आख्यानों में कृष्ण , केशव, माधव ,वासुदेव, यशोदानन्दन आदि का प्रयोग श्रीकृष्ण के लिए किया है।  
क्रमशः