दिव्य शरीर में अवतरण यानि लीला कर्म


गीता जीवन संस्कृति - 8 

दिव्य शरीर में अवतरण यानि लीला कर्म
संजय तिवारी
समग्र ब्रह्माण्ड ऊर्जा है। सृष्टि ऊर्जा है। सृष्टि के सञ्चालन की व्यवस्था ऊर्जा है। धर्म (मजहब, रेलिजन , पंथ या सम्प्रदाय नहीं ) ऊर्जा है। जीव उसी ऊर्जा के अंश से किसी न किसी देह में सक्रिय हैं। फिर उस समग्र ऊर्जा को भी किसी देह में देह में अवतरित होने की आवश्यकता ही क्यों ? यह प्रश्न तो कोई भी कर सकता है। आखिर उस समग्र ऊर्जा के लिए कोई शरीर धारण कर जीवो के बीच आने की जरुरत ही क्यों पड़ गयी ?
इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है। क्योकि अर्जुन को भी यही प्रश्न मथ रहा था। वह भी गीता सुनते हुए बहुत भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ़  सा हो गया था। श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा ध्याय , नवां श्लोक -

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9।।

अर्थात , हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है। अब आवश्यक है कि इस दिव्य को समझ लिया जाय।
दिव्य शब्द में ही इसके सभी उत्तर समाहित हैं। इस दिव्य शब्द की उत्पत्ति दिव धातु से होती है। महाकाव्यों में दिव्य शब्द का प्रयोग उसके लिए हुआ है जिसका मस्तिष्क  अति शक्तीशाली हो। यह शक्ति  बहुत ही कम लोगो के पास होती है और जिनके भी पास होती है वह इसका उपयोग ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं कर सकते। ईश्वर भी इस शक्ती का उपयोग कम ही करते है। यह शक्ति जिस मनुष्य के पास होती है वह किसी और को इसके बारे में नहीं बता सकता। वह अनंत को जानने क्षमता रखता है। ईश्वर के समान होते हुए भी वह स्वयं को दूसरों  भांति सामान्य मानता है। वह एक मनुष्य रूपी भगवान है। दिव या दिव्य के जागतिक अर्थ को भी जान लेना आवश्यक है। पूरब से पश्चिम तक दिव्य के अनेक अर्थ हैं, जो प्रचलन में हैं  -
suffering pain, lamenting, moaning / pari-kūjana ,vexing, tormenting / mardana , playing / krīḍā ,desiring to conquer / vijigīṣā ,activity / vyavahāra , shining / dnuti , praise / stuti ,joy / moda , intoxication / mada , sleep / svapna , beauty/desire / kānti , going / gati , diving, emerging, bathing / āplāvya. हिंदी में दिव्य को अलौकिक या भव्य रूप में भी लिया  जाता है। 

वस्तुतः जो ईश तत्व अवतार लेकर शरीर में प्रकट होता है वह अपने दिव्य कार्य अर्थात क्रीड़ा या लीला के लिए आता है। दिव्य का एक अर्थ क्रीड़ा भी है जिसको श्रीकृष्ण ने बहुत सलीके से बता दिया है-  जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
तात्पर्य यह कि वह समग्र ऊर्जा या परमसत्ता जब आवश्यक हो जाता है तब कोई न कोई शरीर धारण कर उपस्थित होता है और क्रीड़ा अर्थात लीला कर फिर प्रयाण भी कर लेता है। इसीलिए भारतीय मनीषा अपने चिंतन में इसे भगवान् की लीला ही कहती है। प्रभु जब भी शरीर लेकर आये हैं उन्होंने जो किया है उसे लीला ही कहा गया है। वह राम की लीला हो अथवा कृष्ण की। 
यहाँ एक और तथ्य सामने रखना उचित होगा कि  महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक में भगवानुवाच का प्रयोग किया है जबकि उन्होंने महाभारत के सम्पूर्ण आख्यानों में कृष्ण , केशव, माधव ,वासुदेव, यशोदानन्दन आदि का प्रयोग श्रीकृष्ण के लिए किया है।  
क्रमशः  

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