मलिक काफूर का प्रेमी था अल्लाउद्दीन खिलजी

मलिक काफूर का प्रेमी था अल्लाउद्दीन खिलजी

 मलिक काफूर का प्रेमी था अल्लाउद्दीन खिलजी 

वस्सफ अब्दल्लाह इब्न फदलल्लाह शरीफ अल-दिन शिराज़ी
14वीं शताब्दी के पर्सियन इतिहासकार

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"रानी पद्मावती एक काल्पनिक चरित्र हैं" तथाकथित इतिहासकार इरफ़ान हबीब का यह कहना बिलकुल सही है, इसे मान लेने में मुझे अब कोई हर्ज नहीं दिखता। हबीब कैसे सही कह रहे हैं इसे ठीक संदर्भ में देखिये, आप भी सहमत होंगे की इस वामपंथी इतिहासकार ने दुरुस्त बात कही है। यही तथ्य लेकर अब जावेद अख्तर भी इस इतिहास में अपना कुछ सेकने को उत्तर आये है। 

वस्सफ अब्दल्लाह इब्न फदलल्लाह शरीफ अल-दिन शिराज़ी ,14वीं शताब्दी के पर्सियन इतिहासकार, के मुताबिक अलाउद्दीन खिलजी एक होमो सेक्सुअल (समलैंगिक) था और उसके हरम में हजारों लड़के सेक्स स्लेव्स के तौर पर थे। मलिक काफूर नामक उसके समलैंगिक प्रेमी का बाकायदा जिक्र भी आता है जबकि रानी पद्मावती से अनुराग का इतिहास में कोई जिक्र नहीं।

चूंकि भारतीय उपमहाद्वीप पर यह ऐतिहासिक तथ्य.... 14वीं शताब्दी के किसी आरएसएस अथवा कट्टर हिंदू इतिहासकार ने नहीं लिखा तो यह मान लेना बनता है कि पर्सिया के इन इतिहासकार ने गलत नहीं लिखा होगा।जब इरफ़ान हबीब यह कहते हैं कि रानी पद्मावती एक काल्पनिक चरित्र हैं, और रंगीन गिरोह उसका समर्थन करता है तो वह गलत कहाँ है ? ध्यान रखिए, पद्मावती जी काल्पनिक चरित्र हैं ऐसा उन्होंने इस खिलजी-पद्मावती प्रेमकथा वाली फिल्म के संदर्भ में कहा है। इस कहानी में वाकई पद्मावती एक काल्पनिक कैरेक्टर ही हैं।
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दरअसल हम सबने संदर्भ सही से नहीं समझा। हबीब अलाउद्दीन खिलजी के होमो सेक्सुअल होने की पर्सियन इतिहासकार की बात के आधार पर ही ऐसा कह रहे हैं। अगर खिलजी एक होमोसेक्सुअल था, हजारों लौंडे उसके हरम में थे, मलिक काफूर उसका प्रेमी / प्रेमिका था : तो भला एक स्त्री रानी पद्मावती से उसका कोई संबंध कैसे संभव था ? हमारे समकालीन छद्म भारतीय 'धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी",  संस्कृति, इतिहास और परंपराओं से कितने अनभिज्ञ हैं, कितने पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं ! उनके कपट, झूठ और संवेदनहीनता की तो कोई सीमा ही नहीं है ! यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। पहली बात तो यह कि पद्मिनी की ऐतिहासिकता, उनका महान व्यक्तित्व और पवित्र स्मृति वंश परंपरा से लाखों हिंदुओं के मन में जिंदा है, जिसे ये जाहिल, उजड्ड, असभ्य और अशिष्ट 'धर्मनिरपेक्ष तबके' के लोग कभी नहीं समझ सकते, यह उनकी कल्पनाशीलता की तुलना में कहीं अधिक जटिल है। चित्तौड़ के कण कण में, वहां से सदियों पुराने मंदिरों और धार्मिक स्थलों में रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा लोकगीतों और भजनों के रूप में सुनने व अनुभव करने की पात्रता भी इन दुराग्रही धनपशुओं में नहीं है ।
 ये समझ लें कि महारानी पद्मिनी का चित्रण अगर होगा तो केवल पारंपरिक पवित्रता के साथ ही होगा ! कोई भी अन्य प्रयत्न राजपूताने को ही नहीं, समूचे भारत को धधका सकता है । इसी मनोदशा में विरोध प्रदर्शन की वैधता को देखा और समझा जाना चाहिए ! ऐतिहासिक साक्ष्य को लेकर एक तथ्य देखा जाना चाहिए कि भीष्म, द्रौपदी, विक्रमादित्य या राजा भोज, भारत की संस्कृति में पीढ़ियों से रचे बसे हैं ! इतिहास लिखने में तत्वचिन्तक भारतीयों की रूचि नहीं रही ! आज की भाषा में वे सदा लो प्रोफाईल रहे ! किन्तु आमजन ने अपने तीज त्योहारों में, उत्सवों में उन्हें जिन्दा रखा !
"धर्मनिरपेक्षतावादी" बढ़चढ़ कर जिस ऐतिहासिक साक्ष्य की बात करते हैं, क्या वे इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मध्यकालीन युग में किये गए व्यापक भीषण नर संहार, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों के विनाश को भी इस आधार पर नकारेंगे, क्योंकि किसी मुग़ल इतिहासकार ने तो ऐसा कुछ लिखा नहीं ? आखिर ये लोग उस समय के अत्याचारियों को, खल नायकों को कोमल भावों बाला, उदार और नायक के रूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं ?
दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारत के शैक्षणिक जगत पर वामपंथी काबिज हो गए, जिनके कारण सत्ताधीशों ने प्रो. के. एस. लाल जैसे विचारक इतिहासकार को दरकिनार कर दिया और उनकी लिखी पुस्तकें ‘The Legacy of Muslim Rule in India’ और ‘Muslim slave system in Medieval India’ आदि को विचार बाह्य कर दिया ! अब इसे सुनियोजित षडयंत्र नहीं तो क्या कहा जाये ? भारत की संघर्ष पूर्ण गौरव गाथा को भुलाना और हिंसक आतताईयों, आक्रान्ताओं को महिमा मंडित करना, यही इन अंग्रेजीदां धर्मनिरपेक्षता वादियों का एकसूत्री कार्यक्रम है !
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केंद्र की सत्ता में बैठी आज की भाजपा, जिससे औसत राष्ट्रभक्तों को बड़ी आशा थी, कि अब शायद स्थिति कुछ बदलेगी, वह आशा भी तब टूट गई, जब कल बुल्डोग नुमा मुखाकृति बनाकर एक केन्द्रीय मंत्री ने करणी सेना के प्रदर्शन पर आक्रोश व्यक्त किया !
साक्ष्य उपलब्ध न होने का अर्थ यह नहीं है कि घटना हुई ही नहीं ! थोड़ी देर के लिए पद्मिनी की चर्चा को छोड़कर चंद्रगुप्त की ओर आते हैं ! क्या किसी यूनानी रिकोर्ड में मौर्य पुरातनता के प्रतीक चंद्रगुप्त के अस्तित्व की पुष्टि होती है ? सोमनाथ पर महमूद गजनवी के आक्रमण के दस्तावेजी प्रमाण कहाँ हैं ? किन्तु ये दर्दनाक ऐतिहासिक घटनायें जन स्मृति में कायम है और समय के उलटफेर में भी हिंदुओं ने इन्हें भुलाया नहीं है । भले ही प्रस्तुति उतनी अच्छी नही हुई हो, किन्तु बीके करकरा ने एक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी है “चित्तोड़ की नायिका - रानी पद्मिनी” ! उक्त पुस्तक में करकरा ने जोर देकर कहा है कि मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' में पद्मिनी का उल्लेख 1526 में सारंगपुर के नारायण दास द्वारा लिखी गई छिताई चरित से प्रभावित है ! करकरा का प्रभावी तर्क है कि जब नारायण दास और जायसी जैसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, तो पद्मिनी की ऐतिहासिकता को किवदंती बताना निरी मूर्खता है ! जन चेतना में गुजरात की देवल रानी भी विद्यमान हैं, जिनका विवाह अपहरण के बाद जबरन सुल्तान के बेटे से करा दिया गया था । इसके अलावा, खिलजी के प्रसिद्ध दरबारी कवि अमीर खुसरो द्वारा 1303 में खिलजी के चित्तौड़ मार्च के समय लिखी गई कहानी “सुलैमान और शबा की रानी” में छुपे सन्दर्भ को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । खिलजी के सैन्य अभियानों के दौरान हुए जौहर के अन्य उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे कि रणथंभौर की रानी रंगा देवी द्वारा किया गया जौहर । भले ही वामपंथी पोंगे इन साक्ष्यों को अप्रत्यक्ष कहकर नकारें, किन्तु पद्मिनी की ऐतिहासिकता स्वयंसिद्ध है ! और भला मुस्लिम दरबारी इतिहासकार अपने आका हुजूर खिलजी की असफलता की इस दर्दनाक घटना को क्यूं और कैसे लिख सकते थे ?
ऐतिहासिक प्रामाणिकता की मांग बेमतलब है, क्योंकि इतना तो तय है कि अलाउद्दीन खिलजी एक हत्यारा दरिंदा था, जो सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर गद्दी पर बैठा था । हिन्दू राजाओं के खिलाफ अपने सैन्य अभियानों में उसने क्रूरतम जघन्य कत्लेआम किये थे ! स्वयं अमीर खुसरो लिखता है कि चित्तोड़ में हिन्दू आबादी को सूखी घांस की तरह काटा गया ! इतिहासकार आर सी मजुमदार ने लिखा है कि खिलजी की अर्थनीति ने देश को खून से नहला दिया ! सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने उलेमाओं से ऐसे नियम बनाने को कहा, जिससे हिन्दू जमींदोज रहें, यह सुनिश्चित किया जाए कि उनके पास कोई संपत्ति न हो ! उन्हें केवल जीवित भर रहने के लिए जजिया कर देना ही होगा, उन्हें इतना दयनीय बना दो, ताकि वे विद्रोह की सोच भी न सकें ! उसके कालखंड में अपने सम्मान की रक्षा के लिए हजारों हिंदू महिलाओं द्वारा जौहर किये जाने की एक नहीं तीन तीन घटनाएँ हुई थीं ! और हमारे फिल्मी धनपशु कहते हैं वह एक रसिक प्रेमी था ? घिन आती है इन लोगों पर !
महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा

महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा

महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा 
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 आचार्य संजय तिवारी 


मध्यकालीन भारतीय इतिहास में पत्रो के साथ नयी नयी कहानिया गढ़ना किसी भी दशा में अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने उचित नहीं कहा जा सकता। कहानियो को रोचक और विवादपूर्ण बना कर अपने ही पुरखो को अपमानित करने की कोशिश भी उचित नहीं हो सकती लेकिन आजकल यह एक फैशन सा बन गया है। कहानी बेचने के लिए पहले विवादित स्क्रिप्ट लिखो और फिर उसे जनता में परोस कर धन और नाम बना लेने की प्रक्रिया न तो कोई कला है और न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इस धोखे को आगे बढ़ाने देनी चाहिए। महारानी पद्मावती की नयी और गढ़ी गयी कहानी को लेकर जो कुछ हो रहा है वह शर्मनाक और दुखद ही कहा जाएगा। यह बात केवल एक फिल्म की नहीं है बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और अपने गौरवशाली इतिहास की है। कला के नाम पर अनाप शनाप ताने बाने बनाने की इजाजत इतिहास भला कैसे दे सकता है ? बताया जा रहा है कि 
राजस्थान के जयगढ़ में पद्मावती फिल्म की शूटिंग के दौरान मारपीट और सेट पर तोड़फोड़ के बाद डायरेक्टर संजय लीला भंसाली ने रातोरात सामान समेट लिया । अब वे मुंबई में ही सेट लगाकर फिल्म का निर्माण पूरा करेंगे या कोई दूसरी जगह देखेंगे। उधर, राजपूत करणी सेना के पदाधिकारियों ने शनिवार को फिर चेतावनी दी कि अगर रानी पद्मावती के इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई तो न तो फिल्म की शूटिंग होने देंगे और न ही पर्दे पर आने देंगे। दूसरी ओर, भंसाली के साथ हुई मारपीट से बॉलीवुड में हड़कंप मच गया है। फिल्म डायरेक्टर, अभिनेता व अभिनेत्रियां करणी सेना के पदाधिकारियों द्वारा की गई बदसलूकी पर ट्वीट करके भड़ास निकाल रहे हैं। लेकिन उन्हें यह भी समझना होगा कि महारानी पद्मावती केवल एक ऐतिहासिक पात्र ही नहीं हैं बल्कि भारत की वीरता और नारियो के शौर्य की भी प्रतीक हैं। 

तथाकथित 'उदार' स्तंभकारों ने आनेवाली विवादास्पद फिल्म 'पद्मावती' और उसके निदेशक के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन पर क्षोभ व्यक्त किया है, यह जानते हुए भी कि फिल्म 13 वीं सदी के मुग़ल शासक अलाउद्दीन खिलजी और समकालीन राजपूत रानी पद्मिनी के ऐतिहासिक कथानक पर आधारित है । फिल्म निर्माता और प्रदर्शनकारियों के व्यवहार को लेकर उनके 'उदार' तर्क काबिले गौर है:
(1) रानी पद्मिनी नामक कोई ऐतिहासिक पात्र है ही नहीं, अतः इतिहास से छेड़छाड़ का सवाल ही बेमतलब है ! भला एक ऐतिहासिक काल्पनिक पात्र की नए सिरे से कल्पना करने में क्या हर्ज है।
(2) सिनेमा तो एक रचनात्मक अभिव्यक्ति है, अतः उसे इतिहास को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की अनुमति है, भले ही वह ऐतिहासिक मानदंडों पर खरा न हो ।
(3) देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, अगर आपको फिल्म पसंद नहीं है, तो न देखें, या फिर इस विषय पर अपनी खुद की फिल्म बनायें ।
उपरोक्त सभी तर्कों के विश्लेषण से एक ही तथ्य सामने आता है कि हमारे समकालीन छद्म भारतीय 'धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी", हिन्दू संस्कृति, इतिहास और परंपराओं से कितने अनभिज्ञ हैं, कितने पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं ! उनके कपट, झूठ और संवेदनहीनता की तो कोई सीमा ही नहीं है ! यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। पहली बात तो यह कि पद्मिनी की ऐतिहासिकता, उनका महान व्यक्तित्व और पवित्र स्मृति वंश परंपरा से लाखों हिंदुओं के मन में जिंदा है, जिसे ये जाहिल, उजड्ड, असभ्य और अशिष्ट 'धर्मनिरपेक्ष तबके' के लोग कभी नहीं समझ सकते, यह उनकी कल्पनाशीलता की तुलना में कहीं अधिक जटिल है। चित्तौड़ के कण कण में, वहां से सदियों पुराने मंदिरों और धार्मिक स्थलों में रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा लोकगीतों और भजनों के रूप में सुनने व अनुभव करने की पात्रता भी इन दुराग्रही धनपशुओं में नहीं है ।
 ये समझ लें कि महारानी पद्मिनी का चित्रण अगर होगा तो केवल पारंपरिक पवित्रता के साथ ही होगा ! कोई भी अन्य प्रयत्न राजपूताने को ही नहीं, समूचे भारत को धधका सकता है । इसी मनोदशा में विरोध प्रदर्शन की वैधता को देखा और समझा जाना चाहिए ! ऐतिहासिक साक्ष्य को लेकर एक तथ्य देखा जाना चाहिए कि भीष्म, द्रौपदी, विक्रमादित्य या राजा भोज, भारत की संस्कृति में पीढ़ियों से रचे बसे हैं ! इतिहास लिखने में तत्वचिन्तक भारतीयों की रूचि नहीं रही ! आज की भाषा में वे सदा लो प्रोफाईल रहे ! किन्तु आमजन ने अपने तीज त्योहारों में, उत्सवों में उन्हें जिन्दा रखा !
"धर्मनिरपेक्षतावादी" बढ़चढ़ कर जिस ऐतिहासिक साक्ष्य की बात करते हैं, क्या वे इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मध्यकालीन युग में किये गए व्यापक भीषण नर संहार, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों के विनाश को भी इस आधार पर नकारेंगे, क्योंकि किसी मुग़ल इतिहासकार ने तो ऐसा कुछ लिखा नहीं ? आखिर ये लोग उस समय के अत्याचारियों को, खल नायकों को कोमल भावों बाला, उदार और नायक के रूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं ?
दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारत के शैक्षणिक जगत पर वामपंथी काबिज हो गए, जिनके कारण सत्ताधीशों ने प्रो. के. एस. लाल जैसे विचारक इतिहासकार को दरकिनार कर दिया और उनकी लिखी पुस्तकें ‘The Legacy of Muslim Rule in India’ और ‘Muslim slave system in Medieval India’ आदि को विचार बाह्य कर दिया ! अब इसे सुनियोजित षडयंत्र नहीं तो क्या कहा जाये ? भारत की संघर्ष पूर्ण गौरव गाथा को भुलाना और हिंसक आतताईयों, आक्रान्ताओं को महिमा मंडित करना, यही इन अंग्रेजीदां धर्मनिरपेक्षता वादियों का एकसूत्री कार्यक्रम है !
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केंद्र की सत्ता में बैठी आज की भाजपा, जिससे औसत राष्ट्रभक्तों को बड़ी आशा थी, कि अब शायद स्थिति कुछ बदलेगी, वह आशा भी तब टूट गई, जब कल बुल्डोग नुमा मुखाकृति बनाकर एक केन्द्रीय मंत्री ने करणी सेना के प्रदर्शन पर आक्रोश व्यक्त किया !
साक्ष्य उपलब्ध न होने का अर्थ यह नहीं है कि घटना हुई ही नहीं ! थोड़ी देर के लिए पद्मिनी की चर्चा को छोड़कर चंद्रगुप्त की ओर आते हैं ! क्या किसी यूनानी रिकोर्ड में मौर्य पुरातनता के प्रतीक चंद्रगुप्त के अस्तित्व की पुष्टि होती है ? सोमनाथ पर महमूद गजनवी के आक्रमण के दस्तावेजी प्रमाण कहाँ हैं ? किन्तु ये दर्दनाक ऐतिहासिक घटनायें जन स्मृति में कायम है और समय के उलटफेर में भी हिंदुओं ने इन्हें भुलाया नहीं है । भले ही प्रस्तुति उतनी अच्छी नही हुई हो, किन्तु बीके करकरा ने एक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी है “चित्तोड़ की नायिका - रानी पद्मिनी” ! उक्त पुस्तक में करकरा ने जोर देकर कहा है कि मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' में पद्मिनी का उल्लेख 1526 में सारंगपुर के नारायण दास द्वारा लिखी गई छिताई चरित से प्रभावित है ! करकरा का प्रभावी तर्क है कि जब नारायण दास और जायसी जैसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, तो पद्मिनी की ऐतिहासिकता को किवदंती बताना निरी मूर्खता है ! जन चेतना में गुजरात की देवल रानी भी विद्यमान हैं, जिनका विवाह अपहरण के बाद जबरन सुल्तान के बेटे से करा दिया गया था । इसके अलावा, खिलजी के प्रसिद्ध दरबारी कवि अमीर खुसरो द्वारा 1303 में खिलजी के चित्तौड़ मार्च के समय लिखी गई कहानी “सुलैमान और शबा की रानी” में छुपे सन्दर्भ को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । खिलजी के सैन्य अभियानों के दौरान हुए जौहर के अन्य उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे कि रणथंभौर की रानी रंगा देवी द्वारा किया गया जौहर । भले ही वामपंथी पोंगे इन साक्ष्यों को अप्रत्यक्ष कहकर नकारें, किन्तु पद्मिनी की ऐतिहासिकता स्वयंसिद्ध है ! और भला मुस्लिम दरबारी इतिहासकार अपने आका हुजूर खिलजी की असफलता की इस दर्दनाक घटना को क्यूं और कैसे लिख सकते थे ?
ऐतिहासिक प्रामाणिकता की मांग बेमतलब है, क्योंकि इतना तो तय है कि अलाउद्दीन खिलजी एक हत्यारा दरिंदा था, जो सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर गद्दी पर बैठा था । हिन्दू राजाओं के खिलाफ अपने सैन्य अभियानों में उसने क्रूरतम जघन्य कत्लेआम किये थे ! स्वयं अमीर खुसरो लिखता है कि चित्तोड़ में हिन्दू आबादी को सूखी घांस की तरह काटा गया ! इतिहासकार आर सी मजुमदार ने लिखा है कि खिलजी की अर्थनीति ने देश को खून से नहला दिया ! सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने उलेमाओं से ऐसे नियम बनाने को कहा, जिससे हिन्दू जमींदोज रहें, यह सुनिश्चित किया जाए कि उनके पास कोई संपत्ति न हो ! उन्हें केवल जीवित भर रहने के लिए जजिया कर देना ही होगा, उन्हें इतना दयनीय बना दो, ताकि वे विद्रोह की सोच भी न सकें ! उसके कालखंड में अपने सम्मान की रक्षा के लिए हजारों हिंदू महिलाओं द्वारा जौहर किये जाने की एक नहीं तीन तीन घटनाएँ हुई थीं ! और हमारे फिल्मी भांड धनपशु कहते हैं वह एक रसिक प्रेमी था ? घिन आती है इन लोगों पर !

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 राजपूत इतिहास
 रानी पद्मावती को पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता था। वे चित्तौड़गढ़ की रानी थी। कहा जाता है कि खिलजी वंश का शासक अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती को पाना चाहता था। रानी को जब ये पता चला तो उन्होंने कई अन्य राजपूत महिलाओं के साथ जौहर कर लिया। यह बात सुप्रसिद्ध इतिहासकार आर वी सिंह द्वारा लिखित राजपूताना का इतिहास नमक पुस्तक में भी दर्ज है।

 संजय की  लीला
संजय लीला भंसाली की फिल्म की कहानी खिलजी और पद्मावती को केंद्र में रखकर बुनी गई है। रानी पद्मावती को अलाउद्‌दीन खिलजी की प्रेमिका बताया जा रहा है। उसके सपने में पद्मावती के साथ प्रेम-प्रसंग के दृश्यों को फिल्माने की बात सामने आ रही है।

करणी सेना व राजपूत सभा के पदाधिकारियों की पीड़ा
 राजपूत करणी सेना के अध्यक्ष महिपाल मकराना और राजपूत सभा के अध्यक्ष गिर्राज सिंह लोटवाड़ा ने शनिवार को मीडिया से कहा कि अगर इतिहास और परंपराओं के साथ छेड़छाड़ होगी तो इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा। पदाधिकारियों ने कहा कि रानी पद्मिनी हमारा गौरव हैं। उन्होंने अलाउद्दीन के पास जाने के बजाय जौहर (आग में कूदना) करने को बेहतर समझा। फिल्म में उन्हें अलाउद्‌दीन की प्रेमिका बताया जा रहा है, जो सरासर गलत है। हम राजपूतों की धरती पर अपने पूर्वजों को लेकर दिखाई जा रही अश्लीलता को बर्दाश्त नहीं करेंगे। करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा कि दीपिका-रणवीर के रिलेशन कुछ भी हों लेकिन इस फिल्म में उन्हें प्रेमी-प्रेमिका के रूप में नहीं दिखाया जाना चाहिए। अलाउद्दीन-पद्मिनी के लव सीन को नहीं फिल्माया जाना चाहिए। फिल्म बनाने का विरोध करने के लिए करणी सेना के पदाधिकारियों ने राजपूत समाज के अन्य संगठनों व बाहरी राज्यों में संपर्क किया है।
भंसाली को पत्र लिख कहा था इतिहास से छेड़छाड़ ना करें
 हंगामे के बाद गुजरात व हैदराबाद से राजपूत संगठनों के पदाधिकारी जयपुर भी पहुंच गए। करणी सेना के पदाधिकारियों ने बताया कि फिल्म में शूट किए जाने वाले दृश्यों को लेकर संजय लीला भंसाली से बात करने का प्रयास किया। लेकिन वे बात करने को ही तैयार नहीं हुए। करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा कि सितंबर माह में जब मीडिया में पद्मावती फिल्म बनाए जाने की खबर आई और उसमें रणबीर सिंह व दीपिका पादुकोण लीड रोल में है। फिल्म में पद्मावती के साथ खिलजी के प्रेम-प्रसंग के दृश्यों पर शूटिंग की जाने की बात सामने आई थी। करनी सेना ने संजय लीला भंसाली को सितंबर माह में पत्र लिखकर कहा था कि रानी पद्मनी के इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जाए। लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं मिला।
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रानी की असली और फिल्मी कहानी को लेकर जंग…


 करणी सेना का आरोप है कि फिल्म में रानी पद्मावती की छवि और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है।करणी सेना का कहना है कि मूवी के एक ड्रीम सीन में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच लव सीन फिल्माया जाएगा। यह बर्दाश्त नहीं होगा। ऐसा सीन राजपूतों का अपमान होगा।हालांकि, भंसाली का कहना है कि मूवी में कोई इंटीमेट सीन नहीं होगा।इसी करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने एकता कपूर के सीरियल जोधा-अकबर का भी भारी विरोध किया था।करणी सेना का आरोप था कि सीरियल में भी इतिहास को तोड़-मरोड़ कर जोधा को गलत तरीके से पेश किया गया था।

कौन थीं रानी पद्मावती?
 रानी पद्मावती को पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता था। वे चित्तौड़गढ़ की रानी और राजा रतनसिंह की पत्नी थीं। इन्हें बेहद खूबसूरत माना जाता था।कहा जाता है कि खिलजी वंश का शासक अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती को पाना चाहता था। रानी को जब ये पता चला तो उन्होंने कई दूसरी राजपूत महिलाओं के साथ जौहर कर लिया।ऐसा माना जा रहा है कि बाजीराव मस्तानी की तरह इस फिल्म में भी खिलजी और पद्मावती को सेंटर में रखकर कहानी को बुना जा रहा है।
 पद्मावती का जन्म सिंहल देश में हुआ। उसके पिता राजा गंधर्वसेन व माता चंपावती थी। उसका विवाह मेवाड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ। महारानी बन चित्तौड़गढ़ फोर्ट पहुंची पद्मावती के सौंदर्य के चर्चे उस समय पूरे देश में चर्चित होने लगे। इस दौरान रावल रतनसिंह ने किसी बात पर नाराज होकर राघव चेतन नामक राज चारण को देश निकाला दे दिया। राघव ने दिल्ली दरबार में जाकर महारानी पद्मावती के सौंदर्य का बखान अल्लाउद्दीन के सामने इस तरह किया कि वह रानी पद्मावती को हासिल करने की लालायित हो उठा और चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। खिलजी की सेना के कूच करते ही रावल रतनसिंह ने चित्तौड़गढ़ फोर्ट में राजपूतों की सेना एकत्र करना शुरू कर दिया। खिलजी की सेना ने कई माह तक फोर्ट को घेरे रखा,लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। सफलता मिलती नहीं देख खिलजी ने एक दांव खेला। उसने रतनसिंह के समक्ष प्रस्ताव रखा कि एक बार वे महारानी पद्मावती के दीदार करवा दे। इसके बाद वह घेरा उठा देगा। इस प्रस्ताव से रतनसिंह आग बबूला हो गए। लेकिन पद्मावती ने खूनखराबा रोकने के लिए अपने पति को इसके लिए तैयार कर लिया। चित्तौड़गढ़ फोर्ट में स्थित महारानी के महल में लगे एक शीशे को इस तरह लगाया गया कि उसमें पद्मावती के स्थान पर खिलजी को सिर्फ प्रतिबिम्ब नजर आए। प्रतिबिम्ब में ही पद्मावती को देखते ही खिलजी की नीयत डोल गई और उसने बाहर निकलते समय उसे छोड़ने बाहर तक आए रतनसिंह को पकड़ लिया। रतनसिंह की जान की एवज में खिलजी ने प्रस्ताव रखा कि पद्मावती को सौंपने के बाद ही वह रतनसिंह को रिहा करेगा। इस प्रस्ताव के बाद पद्मावती ने अपने सात सौ लड़ाकों को तैयार किया और प्रस्ताव भेजा कि वह दासियों के साथ खिलजी से मिलने आ रही है। सात सौ पालकियों में दासियों के स्थान पर लड़ाकों के साथ पद्मावती खिलजी के डेरे में पहुंची और हमला बोल दिया। देखते ही देखते रतनसिंह को आजाद करवा कर वह फोर्ट में लौट गईं।
शाका और जौहर
 इससे खफा हो खिलजी ने आक्रमण कर दिया। फोर्ट में रसद कम होने और संख्या में कम होने के कारण तीस हजार राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना धारण कर शाका करने फोर्ट के गेट खोल आक्रमण बोल दिया। दूसरी तरफ फोर्ट में मौजूद पद्मावती ने सोलह हजार राजपूत महिलाओं के साथ जौहर करने का निर्णय किया। सभी महिलाओं ने पहले गोमुख सरोवर में स्नान कर कुलदेवी की पूजा की। गोमुख के उत्तर में स्थित मैदान में जौहर तैयार करवाया गया। महारानी पद्मावती के नेतृत्व में सोलह हजार महिलाएं बारी-बारी से जौहर की चिता में कूद पड़ी।

क्या कहा करणी सेना ने?

 राजपूत करणी सेना के लीडर लोकेंद्र सिंह कालवी ने कहा- जिस रानी ने देश और कुल की मर्यादा के लिए 16 हजार रानियों के साथ जौहर कर लिया था, उसे इस फिल्म में खिलजी की प्रेमिका के रूप में दिखाना बेहद आपत्तिजनक है। इस पूरी कहानी को ही ग्लैमराइज करके दिखाना हमारी संस्कृति पर तमाचा है। हम चुप नहीं रहेंगे। ये फिल्मकार क्रिएटिविटी के नाम पर हमारे इतिहास के साथ कुछ भी कर दें और हम चुप बैठें, ये कैसे हो सकता है? ये फिल्म बननी नहीं चाहिए।राजपूत समाज ने कहा कि भंसाली को कई बार पत्र लिखे गए। उनसे कहा गया कि इतिहास को सही तरीके से पेश करें, लेकिन वे नहीं माने। राजपूत समाज के पास बहुत समृद्ध लाइब्रेरी है। इतिहास की किसी भी किताब में पद्मावती को अलाउद्दीन की प्रेमिका नहीं बताया गया है।समाज के लोगों ने कहा- एेतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ कर पद्मावती को बदनाम किया जा रहा है। तथ्यों से छेड़छाड़ किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं की जाएगी।करणी सेना ने कहा- चेतावनी के बाद भी भंसाली ने विवादित पार्ट नहीं हटाए तो बुरे नतीजे भुगतने होंगे।
फिल्मकार संजय लीला भंसाली की अल्लाउद्दीन खिलजी एवं जौहर करने वाली रानी पदमिनी के प्रेम प्रसंग पर फिल्मी कहानी बनाने पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। भंसाली फिल्म की शूटिंग बंद कर जयपुर से रवाना हो चुके हैं। इस विवाद पर कॉलेज एवं स्कूली पाठ्यक्रम में दिए गए तथ्यों और प्रदेश के इतिहासकारों से बातचीत में स्पष्ट रूप से सामने आया है कि जिस तथ्य का कहीं जिक्र तक नहीं है उनको लेकर भंसाली ने कहां से फिल्म की स्क्रिप्ट लिख डाली। इतिहासकार कहते हैं कि चित्तौडगढ़ के 42वें शासक रावल रतन सिंह की 15 रानियों में से एक थी रानी मदन कंवर पदमिनी। जिन्हें इतिहासकार पदमावती के नाम से जानते हैं।
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पाठ्यक्रम में पद्मावती 

 रानी पदमिनी के जौहर एवं अल्लाउद्दीन खिलजी से जुड़ी कहानियां राजस्थान के स्कूल, कॉलेज (बीए पार्ट 1 और बीए पार्ट- 2) एवं यूनिवर्सिटी (एमए प्रथम वर्ष या द्वितीय सेमेस्टर ) में पढ़ाई जा रही है। इनमें कहीं भी प्रेम प्रसंग के बारे में नहीं बताया गया है। सवा दो शताब्दी बाद लिखी कथा इतिहासकार बताते हैं कि सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने 1540 ईस्वी में अवधी भाषा में चित्तौड़ पर हुए 1303 ईस्वी के आक्रमण पर पदमावती काव्य लिखा। किवदंतियों के आधार पर घटना से सवा दो शताब्दी बाद ये काव्य लिखा गया। जायसी के अनुसार आध्यात्मिक संदेशों के लिए इस रचना को चुना है। चित्तौड़ मनुष्य के शरीर का प्रतीक है। रावल रतन सिंह उसकी आत्मा और पदमावती उसकी बुद्धि। अल्लाउद्दीन खिलजी माया या भ्रम है, जो बुद्धि को भटकाने का प्रयास है।

क्या कहता है जायसी का पद्मावत

 मलिक मोहम्मद जायसी ने पदमावत नामक काव्य में 1303 ईस्वी में चित्तौडगढ पर हुए आक्रमण और ऐतिहासिक विजय का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने रानी पदमिनी का नाम पदमावती रखा। इसमें कथाकार बताया है कि रानी पदमावती बड़ी सुंदर थी। अल्लाउद्दीन खिलजी ने पदमावती की सुंदरता के बारे में सुना तो देखने के लिए लालायित हुआ। खिलजी की सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया और रावल रतन सिंह के पास पदमावती से मिलने का संदेश भिजवाया। भरोसा दिया कि पदमावती से मिलकर वह चितौड़ छोड़कर चल देंगे और आक्रमण नहीं करेंगे। रावल रतन सिंह ने इस बारे में पदमावती से बातचीत की। रानी इससे सहमत नहीं थी, लेकिन युद्ध टालने के लिए एक उपाय निकाला। खिलजी उनकी परछाई को कमल के तालाब में देख सकता है। शर्त यह रहेगी की खिलजी को बगैर शस्त्र आना होगा। खिलजी ने तालाब में पदमिनी का प्रतिबिंब देखा। रानी की सुंदरता पर मोहित खिलजी ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में रावल रतन सिंह और उनके सैनिक मारे गए। हालांकि, जब तक अल्लाउद्दीन दुर्ग तक पहुंचते, उससे पहले ही पदमिनी ने हजारों महिलाओं के साथ जौहर कर लिया था। पद्मिनी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की अद्वितीय सुंदरी राजकन्या तथा चित्तौड़ के राजा भीमसिंह अथवा रत्नसिंह की रानी थी। उसके रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। पद्मिनी संबंधी कथाओं में सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि अलाउद्दीन ऐसा कर सकता था लेकिन किसी विश्वसनीय तथा लिखित प्रमाण के अभाव में ऐतिहासिक दृष्टि से इसे पूर्णतया सत्य मान लेना कठिन है।सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो में एक इतिहासलेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फारसी इतिहासलेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फरिश्ता ने चित्तौड़ की चढ़ाई (सन् १३०३) के लगभग ३०० वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत' (रचनाकाल १५४० ई.) की रचना के ७० वर्ष पश्चात् सन् १६१० में 'पद्मावत्' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया।
तारीखे अलाई

सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहास लेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र ख़ाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र ख़ाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत' की रचना के 70 वर्ष पश्चात सन् 1610 में 'पद्मावत' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। गौरीशंकर हीराचंद ओझा का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फ़रिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यही है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रत्नसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी।

रानी पद्मिनी का महल, चित्तौड़गढ़

ओझा जी (गौरीशंकर हीराचंद) के अनुसार पद्मिनी की स्थिति सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में तो अनैतिहासिक है लेकिन ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये कुंभलगढ़ का जो प्रशस्तिलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु 1303 ई. के 157 वर्ष पश्चात सन् 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। भट्टिकाव्यों, ख्यातों और अन्य प्रबंधों के अलावा परवर्ती काव्यों में प्रसिद्ध 'पद्मिनी के महल' और 'पद्मिनी के तालाब' जैसे स्मारकों के प्रामाणिक रूप आज भी मौजूद हैं।
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 महारानी पद्मिनी : इतिहास और कथा 
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी। उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि-

"हम तो आपसे मित्रता करना चाहते हैं, रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।"

रत्नसिंह ख़िलज़ी का यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि

"मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिकों का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।

रानी को अपनी नहीं पूरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।[2] अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है और उसकी बदनामी होगी, उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चित्तौड़ के क़िले में अलाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिति की तरह किया। रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचोंबीच था। दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के ज़रिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीं से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उनका सौन्दर्य देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और थोड़ी ही देर तक दिखने वाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा,

"इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।"

अलाउद्दीन ने अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए एक योजना भी बना ली। महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उन्हें गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुल्तान अकेले आया था, इसलिए महराजा रत्नसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना बातें करते हुए सुल्तान के साथ गये। अलाउद्दीन से द्वार के बाहर आकर राणा रत्नसिंह ने कहा-

"हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"

तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट ख़िलज़ी ने जैसे ही इशारा किया झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था। रत्नसिंह को क़ैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा। रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उन्होंने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि-

"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे।"

रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अलाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया। उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया। इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उनकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे। अलाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के क़ाफ़िले को दूर से देख रहे थे। सुल्तान ख़िलज़ी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा-

"सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"

सुल्तान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा-

"क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?"

कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। रानी पद्मिनी को उनके पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी।
प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज क़ैद थे। राणा रत्नसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उन पर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये।
इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुल्तान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। लेकिन दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से गोरा को घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिलजी नीचे गिर गया। भयभीत सुल्तान सेना सहित दिल्लीकी ओर मुड़ गया।
रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुल्तान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उनकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी।

राजदंपति फिर से मिलन पर खुश तो हुए, लेकिन गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ। यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रत्नसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थकी हुयी चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के नगाड़ों व हाहाकारों ने जगाया। इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चित्तौड़ विजय करने के लिए ठान ली। आखिर उसके छ:माह से ज़्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया। जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी भी हतप्रभ हो गया। महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक़्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया-

बादल बारह बरस रो, लड़ियों लाखां साथ।
सारी दुनिया पेखियो, वो खांडा वै हाथ।।

रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। यह जौहर हमेशा भारतवासियों को इस बात की याद दिलाती रहेगी कि भारत की स्त्रियों के लिए उनका सम्मान सर्वोपरी है.

 सोते मन में स्मृति सुन्दरी ,लहर लहर लहरे |
चित्र खीचती चपला क्षितिज पर, कोई न ठहरे ||
जौहर की जीत लिए दिल में ,तेज तेगा वेग बढे |
पद्मिनी की सुन्दरता में खलजी की खिल्ली उड़े ||

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इतिहासकारों के तर्क

यह युद्ध केवल राजनीतिक फायदे के लिए हुआ था। प्रेस प्रसंग का एक भी सबूत अभी तक नहीं मिला है। जिस कवि ने ये रचना की थी, उसकी एक भी लाइन में प्रेम प्रसंग की बात नहीं है। 
-प्रो. के.जी.शर्मा, इतिहासकार

पदमिनी का खिलजी के साथ प्रेम-प्रसंग होता तो वह हजारों महिलाओं के साथ जौहर क्यों करती? खिलजी ने यह युद्ध पदमिनी से ज्यादा राजनीतिक फायदे के लिए किया था। इतिहास पर फिल्में जरूर बननी चाहिए, लेकिन पूरे अनुसंधान के साथ। रिसर्च के बाद ही गांधीजी पर फिल्म बनी थी। कोई विवाद नहीं हुआ।
 -प्रो. आरएस खंगारोत, इतिहासकार
पाण्डव कुलभूषण मोरवीनंदन खाटूश्याम

पाण्डव कुलभूषण मोरवीनंदन खाटूश्याम

पाण्डव कुलभूषण मोरवीनंदन खाटूश्याम


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दादा का नाम : महाबली भीमसेन
दादी का नाम : हिडिंबा
पिता का नाम : महाबली घटोत्कच
माता का नाम : कामकटंककटा (मोरवी)
अस्त्र  : तीन अमोघ बाण, धनुष
वाहन  : नीला घोड़ा
पाठ्य  : स्कन्द पुराण (कौमारिका खंड)
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हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी कलियुग में कृष्ण के अवतार हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलियुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।

श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे अति बलशाली गदाधारी भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या मौरवी के पुत्र हैं। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। भगवान् शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये; इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्निदेव प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।

सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक के बारे में जानने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है; ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था; बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा ये बाण आपके पैर को भी वेध देगा। तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा; बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ देगा। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।

अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया; जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति, युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली, कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।

उनका शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है। खाटूश्याम परिवारों की एक बड़ी संख्या के परिवार देवता है।
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बर्बरीक

श्री खाटू श्याम जी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक था। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। श्याम नाम उन्हें कृष्ण ने दिया था। इनका यह नाम इनके घुंघराले बाल होने के कारण पड़ा।

श्री मोरवीनंदन खाटूश्याम जी

ऋषि वेदव्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के अनुसार महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ। कामकटंककटा को "मोरवी" नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया। ये वही वीर बर्बरीक हैं जिन्हें आज लोग खाटू के श्री श्याम, कलयुग के अवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जाने जाते हैं।
बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवान् श्री कृष्ण के पास द्वारका ले गये और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से कहा— हे पुत्र मोर्वेय! जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो। तत्पश्चात् वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा— हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग क्या है? वीर बर्बरीक के इस निश्छ्ल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा— हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है। जिसके लिए तुम्हें बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी। अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो। श्री कृष्ण के कहने पर बालक बर्बरीक ने भगवान् को प्रणाम किया। श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को "सुहृदय" नाम से अलंकृत किया।
तत्पश्चात् बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र, विद्या हासिल कर, महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नवदुर्गा की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। यहाँ उन्हें "चण्डील" नाम मिला। माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयीं। जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उनका यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं।
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एक बार की बात है बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया है।

महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। तब माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे। जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ दिनों में महाभारत युद्ध में नहीं हो सकती और पाण्डवों की हार निश्चित हो जाएगी। ऐसा सोचकर श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया। उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी, तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयीं। देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योद्घाटन सभी उपस्थित योद्धाओं के समक्ष निम्न प्रकार किया—

देवियों ने कहा: "द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित होकर पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित होकर बोलीं— “हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ। पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जाति का भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भाँति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से अति दु:खी हूँ। आपलोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपके शरण में आयी हूँ।”

गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा-सा छा गया। थोड़ी देर के मौन के पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा— “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है कि हम सभी को भगवान् विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।”

तभी देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा— "हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं, जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें। हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। आपलोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं ही उसका वध कर सकता हूँ।”

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले— “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तुम्हारे अहंकार ने इस देवसभा को चुनौती दी है। इसका दण्ड तुम्हें अवश्य मिलेगा। अपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे। तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्मयुद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे।"

ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर-चूर हो गया। वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला— “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आपके शरणागत हूँ। त्राहिमाम! त्राहिमाम! रक्षा कीजिए प्रभु!”

यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े, वह बोले— “वत्स! तुने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ। हाँ, इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा। फलतः तुम्हें कलयुग में देवताओं के समान पूजनीय होने का वरदान स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भगवान से प्राप्त होगा।”

तत्पश्चात् भगवान् श्री हरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा—


तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !
शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)


भावार्थ: "उस समय देवताओं की सभा में श्री हरि ने कहा— हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देवरूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे।"

वहाँ उपस्थित सभी लोगों को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा— "अपने अभिशाप को वरदान में परिणति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गये और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया। इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए और इसमें श्री कृष्ण का कोई दोष नहीं है।"


इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!

यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !
उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)
भावार्थ: "ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त (श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया और इस नविन जागृत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा— "मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आपलोग इसकी स्वीकृति दीजिए।"


ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !
यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !
तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ: तत्पश्चात् मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा— " हे वत्स! जबतक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जबतक सूर्य, चन्द्रमा है, तबतक तुम सभी के लिए पूजनीय होओगे।


देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !
स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ: "तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियों की मर्यादा जैसी है वैसी ही बनाए रखोगे"


बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !
पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)
भावार्थ: "तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात, पित्त, कफ से पीड़ित रोगी होंगे, उनका रोग बड़ी सरलता से मिटाओगे"


इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !
इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)

भावार्थ: "और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो, इस भाँती वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अंतर्ध्यान कर गयीं।"


बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !
देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !
ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)
भावार्थ: "वीर बर्बरीक का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं उनके धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया (क्योंकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था) उसके बाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ।"

योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुईं १४ देवियों (सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चण्डी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर कर दिया एवं भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान दिया। वीर बर्बरीक ने भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया, जिसे श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी बहस छिड़ गयी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। श्री कृष्ण ने कहा बर्बरीक के शीश से पूछा जाए कि उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है। तब वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया है और इस युद्ध में केवल भगवान् श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चल रहा था। वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभमंडल उद्भाषित हो उठा एवं उस देव स्वरुप शीश पर पूष्प की वर्षा होने लगी और देवताओं ने शंखनाद किया। तत्पश्चात् भगवान् श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा— "हे वीर बर्बरीक आप कलियुग में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तों के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे। अतएव, आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, हमलोगों से जो अपराध हो गये हैं, उन्हें कृपा कर क्षमा कीजिए।"

इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड़ गयी। सैनिकों ने पवित्र तीर्थों के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजा शीश के समीप फहराये। इस दिन सभी ने महाभारत का विजय-पर्व धूमधाम से मनाया।

वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है। ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में "माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड" के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।
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शीश के दानी

जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होंने अपना शीश बिना किसी झिझक के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। श्री कृष्ण पाण्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे। बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुए का साथ देने का वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्धभूमिपूजन के लिए करनी थी इसलिए श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार

भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों-बार  देते हैं इसीलिए उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

हारे का सहारा

जैसा कि इस आलेख मे बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था, इसीलिए बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।

हारे हुए की तरफ से युद्ध करने की प्रतिज्ञा व् दादी माँ हिडिम्बा से मिले आदेश के कारण ही। भगवान श्री कृष्ण की मन में उठी समस्या के कारण ही बर्बरीक व बाबा के शीश को भगवान वासुदेव द्वारा माँगा गया। क्योंकि एक तो कुरु सेना अठारह दिनों से पहले खत्म नही हो सकती थी। तथा अन्य तथ्य यह था कि महाबली बर्बरीक हारे हुए कमजोर की तरफ से युद्ध करते इस लिए अंत में महाबली बर्बरीक के इलावा कोई नही बचता। क्योंकि जिस तरफ से वह युद्ध करते तो सामने वाला कमजोर हो जाता। फिर अपनी प्रतिज्ञा अनुसार उन्हें हारे हुए की तरफ से युद्ध करना होता। अतः अंत में केवल महाबली बर्बरीक ही जीवित रहते।

मोरछड़ी धारक

बाबा हमेशा मयूर के पंखों की बनी हुई छड़ी रखते हैं इसलिए इन्हें मोरछड़ी वाला भी कहते हैं।


सन्दर्भ:


Sikar District web site
Photo gallery of Sikar

वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक जी का चरित्र स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक दिया हुआ है।.. 'कौमारिक खंड' के ५९वे अध्याय से ६६वे अध्याय तक यह दिव्य कथा वर्णित है।..
५९वा अध्याय : घटोत्कचआख्यान वर्णनम
६०वा अध्याय : मोर्वीघटोत्कच संवाद एवं घटोत्कचद्वारा मोर्व्याबर्बरीकपुत्रोत्पत्ति वर्णनम
६१वा अध्याय : महाविद्यासाधने गणेश्वरकल्प वर्णनम (बर्बरीकआख्यान वर्णनम)
६२वा अध्याय : कालिकाया रुद्रविर्भाव वर्णनम
६३वा अध्याय : बर्बरीकवीरता वर्णनम
६४वा अध्याय : भीमततपोत्रबर्बरीकसंवाद वर्णनम
६५वा अध्याय : देवीसत्वन वर्णनम, कलेश्वरी वर्णनम
६६वा अध्याय : बर्बरीकबल वर्णनम, श्री कृष्णेनबर्बरीकशिरपूजनम कथम, गुप्तक्षेत्रेमहात्म्य वर्णनम
यूपी विधानसभा चुनाव

यूपी विधानसभा चुनाव

यूपी विधानसभा चुनाव

संजय तिवारी 


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उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव की बाज़ चुकी रणभेरी ने अब राजनीतिक पंडितो की नींद हराम कर दी है। बिना किसी लहर और मुद्दे के यह चुनाव बिलकुल परंपरा से हट कर होता दिख रहा है। अभी तक प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही समाजवादी पार्टी के छह महीने तक चले अंतरकलह और पार्टी पर अखिलेश यादव के कब्जे के बाद कांग्रेस से हुए उनके गठबंधन के कारण यह मामला अब और भी दिलचस्प हो चुका है। कांग्रेस ही वह एक मात्रा पार्टी रही है जिसकी खिलाफत कर के मुलायम सिंह यादव ने समाजवाद का अपना कुनबा बढ़ाया और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सिरमौर बन कर शासन करते रहे। आज उनके बेटे ने जब पार्टी हथिया लिया तो उसने सबसे पहले उसी कांग्रेस से हाथ मिला कर अपनी नयी पारी की शुरुआत कर दी। हालांकि अब से कुछ माह पहले तक जब कोई कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबंधन की चर्चा करता था तो लोग है कर ताल दिया करते थे। आज वह गठबंधन हो चुका है। 
प्रदेश में राजनीती की दूसरी धुरंधर खिलाड़ी बसपा सुप्रीमो मायावती भी इस बार सत्ता में आने की अपनी दावेदारी कर रही हैं और जी जान से उन्होंने कोशिश भी शुरू कर दी है। खुद की पार्टी को मज़बूती देने के लिए उन्होंने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर के सभी को काम पर भी लगा दिया है। भाजपा की सूची आते आते बहुत देर हुई है। यहाँ यह दिलचस्प है की पहले दूसरे और तीसरे चरण के चुनाव इन्ही तीन के बीच लड़ा भी जाना है। पहले चरण की 73 , दूसरे चरण की 67  और तीसरे चरण की 69  सीट पर अब सभी की सेनाये जैम चुकी हैं। यह कुल संख्या 209 होती है जो यह तय करेगी कि अबकी उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर कौन काबिज होने वाला है। 
दरअसल , ये सभी सीटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हैं जहां माहौल को ध्रुवीकरण के रूप में देखने की कोशिश की जा रही है।  

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 प्रथम चरण की खास बातें 


 11 फरवरी को होगा प्रथम चरण का मतदान।
 यूपी की 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों पर प्रत्‍याशी अपनी किस्‍मत आजमाएंगे।
 शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, एटा और कासगंज में होगा चुनाव।
इस चरण में पूर्व भाजपा उपाध्‍यक्ष लक्ष्‍मीकांत वाजपेयी, भाजपा के राष्‍ट्रीय मंत्री श्रीकांत शर्मा, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, संगीत सोम सहित कई नामचीन नेताओं की प्रतिष्‍ठा दांव पर लगी है।
 इस चरण में कैराना, बुढ़ाना, चरथावल, नोएडा, दादरी सहित कई सीटों पर प्रत्‍याशियों का मु‍काबला दिलचस्‍प होगा।
इस चरण में मुजफ्फरनगर की सीट पर समाजवादी पार्टी का वर्तमान विधायक है, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद सपा केे लिए इस सीट को बचाना एक बड़ी चुनाैैती होगी।
 इस चरण की शामली विधानसभा का गठन वर्ष 2008 में हुआ था।
शामली से  2012 में कांग्रेस के विधायक पंकज मलिक ने सपा केे वीरेंद्र सिंह को हराकर सपा की लहर में कांग्रेस की झोली में एक सीट डाल दी थी।
 इस चरण में मुजफ्फरनगर की बुढ़ाना सीट पर पहली बार चुनाव वर्ष 1957 में हुआ था, 1967 के परिसीमन में यह सीट खत्‍म हो गई थी, लेकिन 2008 में यह फिर अस्तित्‍व में आई थी।
 इस चरण में दादरी विधानसभा में भी मतदान होना है, इस सीट पर आजतक समाजवादी पार्टी का खाता नहीं खुला है, यहां से कांग्रेस चार बार जबकि बीजेपी और बीएसपी दो-दो बार जीत दर्ज करा चुकी है।
 इस चरण में हापुड़ विधानसभा में भी चुनाव होना है,यहां से 2012 सहित आठ बार कांग्रेस ने जीत का स्‍वाद चखा है। 

 द्वितीय चरण की खास बातें

इस चरण में 11 जिलों की 67 सीटों पर चुनाव होना है।
यहां नामांकन भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी है।
यहां 15 फरवरी को मतदान और 11 मार्च को मतगणना होनी है।
इस चरण में सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर और बदांयू में चुनाव होना है।
इस चरण में सहारनपुर की नकुड़ विधानसभा सीट पर पहली बार 1952 में चुनाव हुआ था।
सहारनपुर देहात की सीट का नाम 2007 के विधानसभा चुनावों तक हरोड़ा सीट था और यह बहुजन समाज पार्टी की प्रिय सीटों में से एक है।
मायावती खुद हरोड़ा सीट से 2002 में चुनाव लड़कर जीत हासिल कर चुकी हैं।
संभल जिले की असमौली विधानसभा 2012 में अस्तित्‍व में आई थी।
यूपी कांग्रेस के वरिष्‍ठ उपाध्‍यक्ष इमरान मसूद सहारनपुर से अपनी किस्‍मत आजमाने जा रहे हैं। इन्‍होंने लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की बोटी-बोटी करने का विवादित बयान दिया था।
रामपुर की स्‍वार सीट से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां के पुत्र छोटे आजम यानि अब्‍दुल्‍ला आजम खां की सियासी पारी शुरू होने जा रही है।
बदांयू को समाजवादी पार्टी के कदृदावर नेता सांसद धर्मेंद यादव का गढ़ माना जाता है।
बदायूू ही वह सीट है जहां से अपने नेता धर्मेंद यादव के खिलाफ सपा विधायक आबिद रजा ने बगावत की थी।


तृतीय चरण की खास बातें

 इस चरण में 12 जिलों की 69 सीटों पर चुनाव होना है।
 इसमें फर्रुखाबाद, हरदोई, कन्नौज, मैनपुरी, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी और सीतापुर में चुनाव होना है। यहां 19 फरवरी को मतदान होगा।
इटावा को मुलायम सिंह यादव का गढ़ माना जाता है, ऐसे में सपा के लिए यह सीट जीतना प्रतिष्‍ठा की बात है।
बाराबंकी में समाजवादी पार्टी छोड़कर गए कद्दावर नेता बेनी प्रसाद वर्मा के बेटे राकेश वर्मा अपनी किस्‍मत आजमाने के लिए मैदान में उतरकर सपा से बगावती तेवर दिखाएंगे।
कन्नौज सांसद और सीएम अखिलेश यादव की पत्‍नी डिंपल यादव की प्रतिष्‍ठा दांव पर रहेगी।
लखनऊ कैंट विधानसभा से मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव और कांग्रेस का हाथ छोड़ बीजेपी का दामन थामने वाली रीता बहुगुणा जोशी के बीच होने वाली सियासी लड़ाई को देखना दिलचस्‍प होगा।

 
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बसपा के सामने गढ बचाने की चुनौती 
प्रथम चरण की सीट वाले क्षेत्र को  बसपा का गढ माना जाता है।यहां पिछले तीन चुनावों से लगातार नीला झंडा लहराया है। वर्ष 2012 में साइकिल के पक्ष में बही हवा भी समीकरण नहीं बदल सकी थी। पर वर्तमान में हालात अलग हैं। मुजफ्फरनगर जिले की सीटों पर अब भी दंगों की छाया दिख रही है तो सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद नये समीकरण सतह पर आ गए हैं। भाजपा भी मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ऐसे में बसपा के सामने इन सीटों को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। चरथावल विधानसभा सीट पर लगातार तीन चुनावों से बसपा का ही दबदबा रहा है। वर्ष 2007 और 2012 में यहां बसपा की भाजपा से कड़ी टक्कर हुई थी। पिछले चुनाव में बसपा के नूर सलीम राणा ने भाजपा के विजय कुमार से 12706 वोट से धूल चटाई थी। वर्तमान चुनाव में बसपा ने एक बार फिर राणा को ही उम्मीदवार बनाया है और भाजपा ने इस बार फिर विजय कश्यप को मौका दिया है। इस बार यह लड़ाई और तीखी होने की संभावना है क्योंकि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद इस सीट के हालात बदले—बदले से हैं। बसपा प्रत्याशी पर दंगो में साम्प्रदायिकता फैलाने का आरोप लगे थे, जिससे उनकी छवि कट्टर मुस्लिम नेता की बन गयी है। इसके चलते बसपा का परम्परागत वोट भी उनसे छिटक सकता है। बहरहाल इस सीट पर सपा ने 2012 में प्रत्याशी रहे मुकेश चौधरी को फिर मैदान में उतारा है।
तीसरी विधानसभा से लेकर 15वीं विधानसभा तक जेवर विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी, अब यह अनारक्षित सीट है। वर्ष 1991, 1993 और 1996 के चुनाव में यहां कमल खिल चुका है। कांग्रेस भी यहां से तीन बार जीत दर्ज कर चुकी है। पिछले तीन चुनाव में इस सीट पर लगातार बसपा और कांग्रेस में कड़ी टक्कर हुई है। पर हर बार यह सीट बसपा के ही खाते में गई। सपा का अब तक यहां से खाता नहीं खुला है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से भाजपा के महेश कुमार शर्मा ने सपा के नरेंद्र भाटी को 280212 वोटों से हराया था। बसपा ने मौजूदा विधायक वेदराम भाटी को यहां से फिर प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में भाटी को 38 फीसदी मत मिले थे। कांग्रेस के धीरेन्द्र सिंह 32 और सपा के विजेन्द्र को 20 प्रतिशत मतों से ही संतोष करना पड़ा था। इस बार भाजपा ने धीरेन्द्र सिंह को मौका दिया है। जबकि सपा ने नरेन्द्र नागर को मैदान में उतारा है। सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद अब क्षेत्र में नये सियासी समीकरण तैर रहे हैं।
वर्ष 1996 के चुनावों से हाथरस (सु.) सीट बसपा के कब्जे में है। रामवीर उपाध्याय लगातार तीन बार इस क्षेत्र से विधानसभा पहुंच चुके हैं। वर्ष 2012 में गेंदा लाल चौधरी ने 37 फीसदी मतों के साथ नीला झंडा फहराया था। भाजपा के राजेश कुमार ने 32 फीसदी वोट झटक कर उन्हें कड़ी टक्कर दी थी। सपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी राजेश राज जीवन को 19 प्रतिशत वोट मिले थे। अब सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद जिले के राजनीतिक समीकरणों ने एक बार फिर करवट बदली है। इस बार चुनाव में भाजपा ने कई दलों का स्वाद चख चुके पूर्व विधायक हरी शंकर माहौर को प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस ने फिर राजेश राज जीवन पर विश्वास जताया है। बसपा से जिला पंचायत सदस्य बृज मोहन राही भी मुकाबले मे हैं। यहां त्रिकोणीय मुकाबला होने के आसार हैं।।
आगरा बसपा का गढ माना जाता है। यहां विधानसभा की नौ सीटे हैं। साल 2007 के चुनाव में पार्टी ने सात विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था। वर्ष 2012 में उसे छह सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा को दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और एक सीट सपा के खाते में आयी थी। बात करें एत्मादपुर विधानसभा सीट की तो वर्ष 2007 तक यह अनारक्षित सीट थी। तब भी वर्ष 1996 और 2007 के चुनावों में बसपा को जीत मिली। नये परिसीमन के तहत वर्ष 2012 में जब यह सीट सामान्य घोषित की गई, तब भी बसपा के धर्मपाल सिंह 34 फीसदी मतों के साथ विजयी हुए थे। सपा के प्रेम सिंह ने इनको कड़ी टक्कर दी थी, उन्हें 30 प्रतिशत और भाजपा के राम प्रकाश सिंह को 21 फीसदी वोट मिले थे।
 आगरा छावनी में वर्ष 2002, 2007 और 2012 में हाथी जनता की पसंद रहा है। वर्तमान में विधायक गुटियारी लाल दुबेश को बसपा ने प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में उन्हें 32 फीसदी वोट मिले थे। उन्होंने भाजपा के जीएस धर्मेश को सात हजार वोटों से हराया था। सपा को 22 और कांग्रेस को 11 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा ने इस बार फिर दुबेश को ही प्रत्याशी बनाया है। इस दलित—मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में पिछले तीनों चुनाव में बसपा की भाजपा से कड़ी टक्कर हुई है। इसके पहले वर्ष 1989 से लेकर 1996 तक लगातार चार बार यह सीट भाजपा के कब्जे में रही है। इसलिए यहां भाजपा को कमतर नहीं आंका जा सकता है।
इन सीटों पर अब तक नहीं खुला बसपा का खाता
ऐसा नहीं कि बसपा प्रथम चरण की 73 सीटों पर मतदाताओं को समान रूप से प्रभावित करती है। इनमें कुछ सीटे ऐसी हैं, जिन पर अभी तक पार्टी का खाता नहीं खुला है। इनमें कैराना, थानाभवन, बुढाना, मुजफ्फरनगर, किठौर और गढमुक्तेश्वर विधानसभा सीट शामिल हैं।


मायावती के लिए करो या मरो जैसी स्थिति

 मिशन- 2017 में सभी राजनीतिक दल जीजान से जुटे हुए हैं लेकिन इस तैयारी में सबसे ज्यादा तैयार बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ही नज़र आयी हैं. बसपा ने सबसे पहले अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये और चुनावी तैयारियों में जुट गईं. मायावती ने वक्त की नब्ज़ को भी अच्छी तरह से पकड़ा है. इसी वजह से उन्होंने इस बार पहली बार सोशल मीडिया को भी अपना हथियार बनाया है.
समाजवादी पार्टी जिन दिनों परिवार के विवाद में उलझी थी उन दिनों मायावती यूपी विधानसभा के 403 टिकट फाइनल करने में लगी हुई थीं. बीजेपी चुनाव की तैयारी तो कर रही थी लेकिन उसने बिना दूल्हे की बारात सजा ली थी. बहुत तलाश के बावजूद भाजपा मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाई और मजबूरन वह अपने प्रत्याशियों की सूची घोषित करने में जुट गई. कांग्रेस की हालत यह रही कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बगैर वह ऐसे प्रत्याशी कहाँ से लाये जो सम्मानजनक तरीके से चुनाव लड़ सकें. बाक़ी दलों की हालत तो ज़िक्र के भी लायक नहीं दिख रही है.
बसपा सुप्रीमो ने 2017 के चुनाव के लिये ऐसे विशेषज्ञों को तलाशा है जो उनकी ब्रांडिंग कर सकें. आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले विशेषज्ञ मायावती के मीडिया का काम संभाल रहे हैं. वह सूबे के विभिन्न इलाकों से बसपा के बारे में फीडबैक ले रहे हैं. फीडबैक लेने के बाद वह इलाकों के मुद्दे तय कर रहे हैं. यह विशेषज्ञ दूसरे दलों के प्रचार के तरीके पर भी पर नज़र रख रहे हैं. मायावती ने इस चुनाव में फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप का भी खूब इस्तेमाल किया है. हर विधानसभा क्षेत्र से लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिये जोड़ा गया है.
इस अभियान में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आधिकारिक तौर पर तो न तो मायावती न ही बीएसपी ट्विटर पर है, मिलते जुलते नामों से कई अकाउंट बनाये गये हैं. बीएसपी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ट्विटर पर हैं. यही वजह है कि अब ट्विटर पर मायावती भी ट्रेंड करने लगी हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के लिये मायावती ने वक्त के साथ खुद को बदलने का फैसला किया है और इसका असर अब दिखने भी लगा है. मायावती को अपनी ब्रांडिंग करानी पड़ी क्योंकि यूपी में अखिलेश यादव एक बड़ा ब्रांड बन चुके हैं. अखिलेश ने काम बोलता है का नारा पेश किया तो मायावती की तरफ से भी नारा आया कि बहन जी को आने दो. 'बहनजी को आने दो' के नाम से दस पोस्टरों की एक सीरीज बनाई गई है. यह पोस्टर बदली हुई मायावती की तस्वीर स्पष्ट करेंगी.
मायावती की टीम ने 30 सेकेण्ड से लेकर पांच मिनट तक के 15 वीडियो तैयार किये हैं. इन वीडियो के ज़रिये समाजवादी घमासान और नरेन्द्र मोदी के जुमलों का जवाब देने की कोशिश की गई है. डेढ़ मिनट के एक वीडियो में मायावती को आयरन लेडी बताया गया है. बसपा के चुनाव प्रचार में इस बार मायावती बहुत मज़बूत तस्वीर में नज़र आयेंगी. इस बार के प्रचार में वोटर तक यह सन्देश जाएगा कि मायावती को किसी सहारे की ज़रुरत नहीं है.
मायावती के प्रचार में अखिलेश राज में हुए दंगों पर भी फोकस किया गया है. समाजवादी पार्टी में कितने बाहुबली हैं उन पर भी रौशनी डाली गई है. कुछ पोस्टर भी दिखेंगे जिनमें अखिलेश यादव के साथ यह बाहुबली अभय सिंह, पवन पाण्डेय, गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद को दिखाया गया है. इस प्रचार सामग्री को चुनाव आयोग से हरी झंडी मिलने का इंतज़ार किया जा रहा है. यह सब मायावती 2014 का लोकसभा चुनाव देखने के बाद कर रही हैं. उनके लिये करो या मरो वाली स्थिति है. उन्हें पता है कि अभी नहीं तो कभी नहीं.
मायावती इससे पहले के किसी भी चुनाव में मीडिया को अपना मानकर नहीं चलती थीं. उन्होंने कई बार कहा है कि मेरे कार्यकर्त्ता अखबार नहीं पढ़ते. वह मीडिया को मनुवादी बताती थीं. लेकिन इस बार मायावती का अंदाज़ बिलकुल बदला हुआ है. इस बार वह वह जल्दी-जल्दी प्रेस कांफ्रेंस करने लगी हैं. जल्दी-जल्दी उनके प्रेस नोट आने लगे हैं. प्रधानमंत्री की हर रैली के बाद मायावती ने प्रेस नोट के ज़रिये जवाब दिया है. मायावती बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि हाथी को किसी भी सूरत में बैठने नहीं देना है क्योंकि एक बार वह बैठ गया तो जल्दी उठने वाला नहीं है.
मायावती में इन दिनों गज़ब का कांफीडेंस नज़र आने लगा है. वह पत्रकारों के सवालों के जवाब देने लगी हैं. कैमरे के सामने मुस्कुराने लगी हैं. उनके कांफीडेंस का अंदाजा इसी बात से लगता है कि उन्होंने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी. उन्होंने किसी के साथ भी गठबंधन नहीं किया. मायावती का सीधा मुकाबला यूपी के विकास के लिए लगातार चार साल तक काम करने वाले अखिलेश यादव से है. मायावती कभी अखिलेश पर निशाना भी नहीं साधती हैं. अखिलेश भी कभी उनके खिलाफ कुछ नहीं बोलते हैं बावजूद इसके उन्हें चुनाव में अखिलेश की परवाह नहीं है क्योंकि वह जानती हैं कि चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे लड़ा जाता है. चुनाव जाति के भरोसे लड़ा जाता है. अपने प्रत्याशियों की घोषणा करने के बाद मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ में जुट गई हैं. दलित-मुस्लिम गठजोड़ के साथ-साथ मायावती सतीश चन्द्र मिश्र के ज़रिये ब्राह्मण वोटों में भी सेंध लगा ही रही हैं. मुस्लिम वोटों को बड़ी संख्या में हासिल करने के लिये मायावती ने 97 मुसलमानों को टिकट दिया है. 87 दलितों और 66 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने सभी जातियों को चुनाव में साधने की कोशिश की है. टिकट बांटने में मायावती ने अगड़ी-पिछड़ी, कायस्थ और पंजाबी सभी जातियों में सामंजस्य बिठाने की कोशिश की है. मायावती की निगाह 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी टिकी हुई है. मायावती विधानसभा चुनाव में आने वाले परिणाम से ज्यादा बसपा को मिलने वाले वोटों के प्रतिशत पर टिकी हैं. लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली केन्द्र सरकार में खुद को बारगेनिंग पावर में लाने की कोशिश में भी लगी हैं मायावती। 
पिछले  विधानसभा चुनाव में हालांकि बसपा की सरकार नहीं बन पाई थी और अधिकतम जगह हाथी के बजाय साइकिल ने स्पीड पकड़ी थी, मगर गाजियाबाद में हाथी सरपट दौड़ा था। जिले की पांचों सीटों पर प्रमुख दलों के उम्मीदवार तय हो जाने और उनके नामांकन भर जाने के बाद सबकी नजर इस बात पर लगी है कि आखिर इस बार हाथी की चाल क्या रहेगी? पांच में से चार सीट बहुजन समाज पार्टी के पास हैं। बसपा जहां उन्हें बचाने की कोशिश करेगी, वहीं तमाम दल की कोशिश रहेगी कि इस बार हाथी की चाल में रुकावट बन जाएं। 2012 के विधानसभा चुनाव में हालांकि बसपा की सरकार नहीं बन पाई थी और अधिकतम जगह हाथी के बजाय साइकिल ने स्पीड पकड़ी थी, मगर गाजियाबाद में हाथी सरपट दौड़ा था। भाजपा का गढ़ माने जाने वाले गाजियाबाद में बसपा के चार विधायक जीते थे। दलित व मुस्लिम समीकरण ने लोनी में जाकिर अली और मुरादनगर में वहाब चौधरी को हाथी पर चढ़ाकर विधानसभा तक पहुंचा दिया तो गाजियाबाद में वैश्य दलित गठजोड़ ने सुरेश बंसल को विधायक बना दिया। साहिबाबाद में दलित व ब्राहमणों ने अमरपाल शर्मा का खुलकर साथ दिया और वह जीत गए। इस बार बसपा की पहली चुनौती इन चार सीटों को अपने पास रखने की रहेगी। पांचों सीटों पर उसके प्रत्याशियों की घोषणा सबसे पहले हुई थी। सभी चार सीटिंग एमएलए प्रत्याशी बनाए गए हैं। मुरादनगर के विधायक वहाब चौधरी को मुरादनगर के बजाय मोदीनगर का प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा करीब छह माह पहले कर दी गई थी। उनके स्थान पर मुरादनगर से सुधन रावत को प्रत्याशी बनाया गया। बसपा में पूरे साल कई उतार-चढ़ाव भी देखे गए। पूर्व सांसद व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव का निष्कासन हुआ और चुनाव से ठीक पहले वह भाजपा में शामिल हो गए। सीटिंग ऑपरेशन में बसपा के जिलाध्यक्ष वीरेंद्र जाटव नप गए और उनके स्थान पर पुराने अध्यक्ष प्रेमचंद भारती को फिर से बागडोर दे दी गई। हालांकि बसपा के परंपरागत मतदाताओं के लिए ये चीजें बहुत ज्यादा मायने नहीं रखतीं। उनकी नजर तो बस मायावती पर रहती है।

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भाजपा ने खरमास समाप्त होने के बाद प्रत्याशियों को घोषित करने के लिए जिस शुभ  मुहुर्रत का इंतजार किया, आखिरकार उस महुर्रत में प्रत्याशियों की घोषणा किए जाने के बाद भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ रहा है। दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल होने विधायकों को टिकट दिए जाने के बाद जिस तरह से पूरे यूपी में बगावती तेवर मुखर हो रहे हैं, उसकी आग से सहारनपुर जनपद भी  अछूता नहीं रहा है। सहारनपुर जनपद की सात सीटों में चार सीटों पर ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया गया है, जो बसपा और कांग्रेस से भाजपा में आए हैं। जबकि दो सीटों पर उन लोगों को प्रत्याशी बना दिया गया है, जिन्हें स्थानीय कार्यकर्ता पसंद ही नहीं कर रहे हैं।
 प्रदेश की नंबर वन विधानसभ  सीट बेहट । यहां से भाजपा ने विधायक महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाया है। महावीर सिंह राणा को करीब डेढ़ साल पहले बसपा से निलंबित कर दिया गया था। महावीर सिंह के बडे  भाई और पूर्व सांसद जगदीश सिंह राणा को भी  बसपा से निकाल दिया गया था। इन दोनों भाईयों ने ही छह माह पूर्व भाजपा का दामन थामा था। महावीर सिंह राणा के खिलाफ कोई अपराधिक मुकदमा तो दर्ज नहीं है, लेकिन दो दर्जन से अधिक पेट्रोल पंपों के मालिक हैं। हरियाणा के गुड़गांव में एक ट्रेक्टर एजेंसी का संचालन भी  करते हैं। 2012 के विस चुनाव में महावीर सिंह राणा बसपा के टिकट पर चुनाव लडे थे और जीत दर्ज की थी। इनके भाई जगदीश राणा के सैफई महोत्सव में जाने और सपा नेता शिवपाल सिंह यादव से मुलाकात करने पर दोनों को बसपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया था।
प्रदेश के दूसरे नंबर की सीट है नकुड़। इस सीट से भाजपा ने लोक लेखा समिति उत्तर प्रदेश के चेयरमैन रहे और वर्तमान विधायक डा. धर्म सिंह सैनी को अपना प्रत्याशी बनाया है। करीब छह माह पूर्व डा. धर्म सिंह सैनी के छोटे भाई चरण सिंह सैनी की पत्नी का निधन हो गया था तो उस वक्त बसपा से निकाले गए स्वामी प्रसाद मौर्य ने डा. सैनी के गांव सोना सैयद माजरा  पहुंचकर शोक संवेदना व्यक्त की थी। तभी  से डा. धर्म सिंह सैनी मायावती, नसीमुद्दीन सिद्दकी की आंखों में खटक रहे थे। सितंबर माह में सहारनपुर में हुई मायावती की रैली के दो दिन बाद डा. धर्म सिंह सैनी पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए उनका टिकट काट दिया था। टिकट कटने के बाद डा. धर्म सिंह सैनी एक सप्ताह तक शांत रहे और अंतत भाजपा में शामिल हो गए। डा. सैनी के खिलाफ कोई अपराधिक मामला दर्ज नहीं है। डा. सैनी को बसपा का सबसे ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता रहे हैं, यही वजह है कि बसपा सुप्रीमो ने उन्हें विपक्ष के लिए निर्धारित लोक लेखा समिति के चेयरमैन का पद दिलाया।
तीसरे नंबर की सीट सहारनपुर शहर से वर्तमान विधायक राजीव गुंबर को प्रत्याशी बनाया गया है। राजीव गुंबर भाजपा के पुराने सिपाही हैं और 2014 में सहारनपुर शहर सीट पर हुए उप चुनाव में विधानसभा  का चुनाव लडे थे। इनसे पहले इस सीट पर भाजपा के राघव लखनपाल शर्मा द्वारा लोकसभ  चुनाव जीतने के बाद यह सीट रिक्त हो गई थी। राजीव गुंबर प्लाइवुड कारोबारी के साथ साथ कई स्कूलों में उनकी बसों का संचालन भी  होता है। भाजपा के पुराने कार्यकर्ता होने के नाते उन्हें 2014 में उप चुनाव प्रत्याशी बनाया गया था।
चौथे नंबर की सीट सहारनपुर देहात पर भाजपा ने दो साल पहले बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले पूर्व विधायक मनोज चौधरी पर दांव खेला है। मनोज चौधरी देवबंद विस क्षेत्र से बसपा के टिकट पर 2007 में चुनाव जीते थे। 2012 में सपा के राजेंद्र राणा ने मनोज चौधरी को पराजित किया था। मनोज चौधरी गुर्जर समाज से ताल्लुक  रखते हैँ। समाज में उनकी छवि अव्यवहारिक रुप से जानी जाती है। बसपा में रहते हुए वे बसपा के बहुत कार्यक्रमों में ही शिरकत करते थे, यही शैली उनकी भाजपा के प्रति भी  रही। मनोज चौधरी की पत्नी गायत्री चौधरी सहारनपुर में जिला पंचायत की अध्यक्ष भी  रह चुकी है। इनके पिता रामपुर मनिहारान नगर पंचायत के चेयरमैन रह चुके हैं।
पांचवीं विधानसभा  देवबंद की बात करें तो यहां पर भाजपा ने एक अनजान व्यक्ति कुंवर ब्रिजेश पर दांव लगाया है। यह मूल रुप से उत्तराखंड के रहने वाले बताए जाते हैं, लेकिन काफी समय पहले परिवार समेत सहारनपुर में आकर बस गए थे। परिवार समेत भाजपा से जुडे हुए हैं और निष्ठावान कार्यकर्ता की छवि से जाने जाते हैं। गैस एजेंसी के मालिक होने के साथ साथ   अन्य कई कारोबार भी  हैं। लेकिन इनके प्रत्याशी बनाए जाने का देवबंद विधानसभा  क्षेत्र में काफी विरोध हो रहा है, कारण यह चुनाव के वक्त ही अपनी सक्रियता दिखाते हैं।
छठें नंबर की सीट रामपुर मनिहारान सुरक्षित सीट पर भाजपा ने पूर्व विधायक स्व. रामस्वरुप निम के पुत्र देवेंद्र निम को अपना प्रत्याशी बनाया है। देवेंद्र गैस एजेंसी का संचालन करने के साथ ही सरकारी अस्पताल के ठेकेदार भी  हैं। इनकी छवि पार्टी कार्यकर्ताओं में कोई खास नहीं है। जाटव समाज से ताल्लुक रखने वाले देवेंद्र निम का इस सीट पर इसलिए विरोध हो रहा है, क्योंकि इस सीट पर एक भी  परिवार जाटव समाज का निवास नहीं करता है। इस सीट पर सर्वाधिक चमार मतदाता है। पार्टी में इनकी कोई खास सक्रियता भी  नहीं रही है।
प्रदेश की सातवीं और सहारनपुर जनपद की अंतिम विधानसभा  सीट पर भाजपा ने विधायक प्रदीप चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया है। प्रदीप चौधरी भी  चार माह पूर्व कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। कांग्रेस में यहां पर पूर्व विधायक इमरान मसूद का दबदबा होने के कारण प्रदीप ने कांग्रेस को अलविदा कहा था। इनके पिता स्व. मास्टर कंवरपाल सिंह  पूर्व विधायक रह चुके हैं। कंवरपाल और प्रदीप चौधरी की छवि ईमानदार नेताओं में शामिल है। कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं है।
जनपद में घोषित किए गए सभी  भाजपा प्रत्याशियों में चार ऐसे प्रत्याशी है, जो बसपा और कांग्रेस से आए हैं। महावीर सिंह, धर्म सिंह सैनी, मनोज चौधरी और प्रदीप चौधरी का खुलकर विरोध हो रहा है। ऐसे में बगावती तेवर भी  उठ रहे हैं। बगावती तेवर का उदाहरण इसी से लगाया जा सकता है कि बेहट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे आदित्य प्रताप राणा का टिकट काटकर महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाए जाने पर आदित्य प्रताप ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का खुला ऐलान भी  कर दिया है।

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इस सीट पर चुनाव लड़कर दो बार मुख्यमंत्री बन चुकी है मायावती

 जिस सीट से विधानसभा  का चुनाव लड़कर बसपा सुप्रीमो मायावती दो बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी है, वह सीट आरक्षित से अब सामान्य हो चुकी है, लेकिन आरक्षित विधायकों का ही इस सीट पर कब्जा चला आ रहा है। बदलते परिवेश में इस सीट पर समीकरण कुछ भी  बने, लेकिन कब्जा बसपा का ही चला आ रहा है। खास बात यह  रही कि इस सीट से चुनाव जीतने और मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा ही नहीं कर पाई।
 सहारनपुर देहात के जिस विधानसभा  सीट को जाना जाता है, वर्ष 1996 में उस सीट को हरोड़ा सीट से जाना जाता था। वर्ष 2007 के विधानसभा  चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा कराए गए परिसीमन के बाद हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था और इस सीट को अनुसूचित जाति के आरक्षित सीट से सामान्य कर दिया गया था। इस परिसीमन के बाद अब जनपद में केवल रामपुर मनिहारान सीट ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। हरोडा (अब सहारनपुर देहात) सीट को बसपा का अभेद किला माना जाता है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस सीट से सबसे पहले 1996 में चुनाव लड़ा था। उस वक्त मायावती को 84647 वोट मिले थे, जबकि मायावती के सामने चुनाव लड़ी सपा प्रत्याशी बिमला राकेश को 57229 वोट मिले थे। 1996 में चुनाव जीतने के बाद मायावती, सपा बसपा गठबंधन के तहत मुख्यमंत्री बनी थी। लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। उस वक्त सपा बसपा के बीच तय हुआ था कि दोनों दल छह छह माह मुख्यमंत्री पद पर रहेंगे, लेकिन पहली छमाही पूरी होने के बाद बसपा का सपा से गठबंधन समाप्त हो गया। जिसके बाद इस सीट पर 1998 में उप चुनाव हुए और जगपाल सिंह विजयी हुए। जगपाल ने बीजेपी के मोहर सिंह को पराजित किया था।
वर्ष 2002 में हुए विधानस•ाा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती ने फिर से हरोड़ा सीट से चुनाव लड़ा। मायावती ने 70 हजार 800 वोट प्राप्त कर सपा की बिमला राकेश को पराजित किया। बिमला राकेश को 41 हजार 899 वोट मिले थे। 2002 में हुए विधानसभा  चुनाव के बाद बसपा और भाजपा में गठबंधन हुआ और मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बनी। भाजपा और बसपा का गठबंधन भी  ज्यादा समय तक नहीं चल सका और मायावती ने करीब एक साल शासन करने के बाद भाजपा का साथ छोड़ दिया। जनपद की सहारनपुर देहात सीट ऐसी रही है कि इस सीट पर चुनाव लड़ने के बाद मायावती को दो दो बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस सीट को मायावती के लिए लकी भी  माना जाता है।
2012 में विधानसभा  चुनाव कराए जाने से पहले प्रदेश में विधानसभा  सीटों का परिसीमन कराया गया तो हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था। इस सीट पर अनुसूचित जाति के लिए जो आरक्षण था वह भी  समाप्त कर दिया गया था और इस सीट को सामान्य कर दिया गया था। सामान्य सीट होने के बावजूद यहां से बसपा के जगपाल सिंह लगातार जीत दर्ज करते आ रहे हैं।

सहारनपुर देहात सीट एक नजर में

पुरुष मतदाता- 171464
महिला मतदाता- 144982
थर्ड जेंडर मतदाता-10
कुल मतदाता- 316456
मतदान केंद्रों की संख्या 176
मतदेय स्थलों की संख्या-300
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 शहर सीट पर कभी  खाता नहीं खोल पाई बसपा

सहारनपुर शहर सीट की बात करें तो यह सीट ऐसी है, जहां पर 1996 से आज तक बहुजन समाज पार्टी अपना खाता ही नहीं खोल पाई है। इस सीट पर बसपा प्रत्याशी तीसरे और चौथे नंबर पर ही रहे हैं। सहारनपुर शहर सीट सामान्य सीट रही है। इस सीट पर भाजपा, सपा और जनता पार्टी के प्रत्याशी अपनी जीत दर्ज करते आए हैं। जनपद की राजनीति में सहारनपुर शहर सीट का अहम रोल है। इस सीट पर सभी  बिरादरियों के मतदाता निवास करते हैं। सहारनपुर जनपद को बसपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन इस गढ़ के बावजूद शहर सीट से बसपा प्रत्याशी विजयश्री हासिल नहीं कर सके हैं। विधानसभा  चुनाव के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि वर्ष 1996 से अब तक शहर सीट पर जनता पार्टी, सपा और भा जपा का ही कब्जा रहा है। वर्ष 1996 में हुए विधानसभा  चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी संजय गर्ग ने 77690 मत प्राप्त कर भाजपा के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया था। उस वक्त लाजकृष्ण गांधी ने 69281 मत प्राप्त किए थे। वर्ष 2002 में हुए विधानसभा  चुनाव में पूर्व विधायक संजय गर्ग ने जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और 64706 मत प्राप्त कर रालोद के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया। पूर्व विधायक लाजकृष्ण गांधी को 36702 वोट मिले थे। इस चुनाव में बसपा प्रत्याशी लियाकत अली को 11115 मतों पर ही संतोष करना पड़ा था। 2007 के विधानसभा  चुनाव में   भा जपा ने राघव लखनपाल शर्मा को अपना प्रत्याशी बनाकर चुनाव मैदान में उतारा था तो राघव ने यह सीट संजय गर्ग से कब्जा ली। राघव लखन पाल शर्मा ने 76049 वोट प्राप्त कर संजय गर्ग को दूसरे नंबर पर पहुंचा दिया था। संजय गर्ग को 57875 वोट मिले थे। 2012 के विधानसभा  चुनाव में भा जपा के राघव लखनपाल शर्मा ने 85187 वोट प्राप्त कर पुन: इस सीट पर कब्जा किया और कांग्रेस प्रत्याशी स्व. सलीम इंजीनियर को परास्त किया। सलीम इंजीनियर कुल 72544 वोट प्राप्त कर दूसरे नंबर पर रहे थे। पिछले चार चुनावों के नतीजों पर नजर डालने के बाद यह ही पता चलता है कि सहारनपुर शहर सीट पर जीत दर्ज करना सपा और भाजपा के अलावा अन्य दलों के प्रत्याशियों के लिए टेडी खीर ही साबित होगी।

सहारनपुर शहर सीट एक नजर में

पुरुष मतदाता  - 210096
महिला मतदाता- 182625
थर्ड जेंडर मतदाता-37
कुल मतदाता- 392760
मतदान केंद्र- 96
मतदेय स्थल-384

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महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं राजनीतिक दल

 आज राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, लेकिन यहां पर राजनीतिक दल महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं। पिछले चुनावी परिदृश्य पर नजर डाले तो दस साल से सहारनपुर जनपद की किसी भी  सीट पर कोई महिला विधायक नहीं बनी है। इस बाद अब तक प्रमुख राजनीतिक दलों के जो संभावित प्रत्याशी नजर आ रहे हैं, उनमें सपा को छोड़कर शेष अन्य किसी भी भी  दल ने महिला प्रत्याशी पर भरोसा नहीं जताया है। राजनीतिक दलों पर महिला प्रत्याशियों पर कितना भरोसा है, इसका जीता जागता प्रमाण वर्तमान में देखने को मिल रहा है। हाल ही में सपा द्वारा जारी प्रत्याशियों की सूची रामपुर मनिहारान सीट से बिमला राकेश पर भरोसा जताया है। इसके अलावा बसपा सुप्रीमो ने जो सूची जारी की है, उस सूची में किसी भी  महिला प्रत्याशी का नाम नहीं है। कांग्रेस और भजपा की सूची में भी किसी महिला प्रत्याशी का इनाम नही है।
अब बात करते हैं महिला विधायक की बाबत। वर्ष 2002 में हुए विधानसभ  चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती यहां पर हरोड़ा विधानसभा  सीट से जीती थी और विधायक बनी थी। बाद में मायावती ने इस सीट से त्यागपत्र दे दिया था और 2003 में इस सीट पर उप चुनाव संपन्न कराया गया। 2003 के उप चुनााव में सपा की बिमला राकेश ने इस सीट से जीत दर्ज की थी। इसके बाद नागल विधानसभ  सीट पर 2005 में हुए उप चुनाव में पूर्व विधायक इलम सिंह की पत्नी सत्तो देवी ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2007 में हुए विधानसभा  चुनाव में देवबंद सेीट से भा जपा प्रत्याशी शशिबाला पुंडीर और हरोड़ा सीट से सपा प्रत्याशी के रुप में बिमला राकेश ने चुनाव लड़ा था, लेकिन यह दोनों ही महिलाएं जीत नहीं सकी थी।  2007 और वर्ष 2012 में हुए विधानसभा  चुनाव के बाद कोई भी  महिला प्रत्याशी जीत कर नहीं आ सकी है। ६  माह पूर्व देवबंद विधानसभ  सीट पर हुए उप चुनाव में सपा ने महिला प्रत्याशी मीना राणा को मैदान में उतारा था, लेकिन वह भी  जीत दर्ज करने में कामयाब नहीं हो सकी। मीना राणा फिर से देवबंद सीट से ही चुनाव मैदान में डटने को तैयार हैं।


सहारनपुर जनपद में विधायक बनी महिलाएं

-- 1996 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2002 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2003 में बिमला राकेश सपा से, हरोड़ा सीट
-- 2005 में सत्तो देवी बसपा से, नागल सीट

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समाप्त होगा भाजपा का वनवास?

 भाजपा के वरिष्ठ नेता  जनता से 14 सालों से सत्ता से दूर रही भा जपा का वनवास समाप्त करने का आग्रह कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी  है कि क्या सहारनपुर की जनता भी  भाजपा का वनवास समाप्त करेगी। क्योंकि दस सालों से यहां पर केवल भाजपा एक ही सीट पर कब्जा करती आई है। अन्य सीटों पर भाजपा दूसरे और तीसरे नंबर पर सीमटती रही। यहां पर 1996 के विधानसभा  चुनाव में   भाजपा ने दो सीट कब्जाई थी। उनमें एक सरसावा से स्व. निर्यभपाल शर्मा तथा देवबंद से पूर्व विधायक सुखबीर सिंह पुंडीर ने विजय  दर्ज की थी। इसके बाद वर्ष 2002 में हुए विधानसभा  चुनाव में सरसावा की सीट पर डा. धर्म सिंह सैनी ने तथा देवबंद सीट पर राजेंद्र राणा ने बतौर बसपा प्रत्याशी के रुप में कब्जा कर लिया था। 2002 के विधानसभा  चुनाव में जनपद से भाजपा क ा पत्ता पूरी तरह से साफ हो गया था। 2002 से 2007 तक जनपद की सभी  सीटों पर भाजपा पांच साल तक वनवास भोगती रही।
वर्ष 2007 में हुए विधानसभा  चुनाव भा जपा प्रत्याशियों को विजयी बनाने के पूरे प्रयास पार्टी पदाधिकारियों और नेताओं द्वारा किए गए, लेकिन तमाम तरह की कोशिशों के बावजूद शहर सीट से राघवलखन पाल शर्मा ने सपा के संजय गर्ग को हरा कर जीत दर्ज की। कुछ इसी तरह के समीकरण वर्ष 2012 के चुनाव में भी  बने और केवल शहर सीट पर ही राघव लखनपाल शर्मा ने पुन: विधायक चुने गए। वर्ष 2014 में हुए लोकसभा  चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में राघव लखनपाल शर्मा सांसद बने तो इसके बाद हुए उप चुनाव में सहारनपुर सीट पर भाजपा के ही राजीव गुंबर ने जीत दर्ज की। लोकसभा  चुनाव के दौरान बही मोदी लहर से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। इस दरम्यान नोटबंदी के कारण जनता बैंकों की लाइन में लगकर परेशान हो चुकी हैं, महंगाई की मार भी  जनता झेल रही है। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि जनपद की जनता क्या सहारनपुर जनपद में भाजपा की सीटों में इजाफा कराएगी या फिर भाजपा एक ही सीट पर अपना दबदबा कायम रहेगी, यह तो मतदान के दौरान जनपद की जनता ही बताएगी?
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दलबदल का गज़ब है दलदल


इस बार दलबदल का दलदल गज़ब का है। पार्टियों की सूचियां चुगली कर रही हैं कि किसी को भी अपने काडर और कार्यकर्ताओ पर जैसे भरोसा ही नहीं रह गया है। सभी बाहरी दिग्गजो को सलीके से खड़ा कर कुछ पाना चाहते हैं।  यह अलग बात है कि बसपा को छोड़ कर बाकी हर जगह अन्तर्कलह और बागी तेवर नज़र आने लगे हैं। खुद को उत्तर प्रदेश की सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के रूप में प्रस्तुत कर रही भाजपा को ही देखिये। कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने राजनीतिक वजूद के विस्तार का अभियान जो भाजपा चला रही है उसे अपने ही शक्ति केंद्र कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में जिताऊ उम्मीदवारों के लिए दलबदलुओं का सहारा लेना पड़ रहा है। पार्टी विद अ डिफरेंस की उत्तर प्रदेश में टिकटों के बंटवारे को लेकर जो गति हुई है वह जगहंसाई का सबब है। कोई छोटा बड़ा राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसके नेता या जिसकी बैसाखी की जरुरत उसे न पड़ी हो। हद तो यह है कि एक फीसदी से कम वोट पाने वाले अपना दल और एक जाति विशेष तक सीमित रहने वाली ओमप्रकश राजभर की भारतीय समाज पार्टी को भी हमसफर बनाना पड़ रहा है। अजीब सी स्थिति है। यह राजनीति भी समझ से पर है कि अपना दल ने पिछली बार 76 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिसमें 69 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई थी। अकेले अनुप्रिया पटेल सदन पहुंचने में कामयाब हुई थीं। सिर्फ बनारस, बलिया, गाजीपुर और मऊ इलाकों तक सिमटी रहने वाली भासपा केवल वोटकटवा बनकर रह गयी थी। बावजूद इसके भाजपा नेतृत्व को यह लग रहा है कि बिना इन दोनों दलों के चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल है। शायद इसी आशंका के चलते ही इन दलों को 8-10 सीटें देने पर सहमति बन गयी हैं जबकि इन सीटों पर इन दलों के पास भी कोई जिताउ उम्मीदवार नहीं है। अपना दल दो फाड़ हो चुका है। मां बेटी अलग-अलग हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भी अपना दल को दो सीटें दी गयीं थी। प्रतापगढ़ की सीट पर इस दल के पास अपना कोई उम्मीदवार ही नहीं था। हरवंश सिंह ने यह टिकट ‘जुगत’लगाकर लिया था। बाद में वह कमल के निशान पर लड़ने को तैयार हो गये।

भाजपा की चुनावी तैयारियों को इससे भी समझा जा सकता है कि उसने अपने सांसद केशव मौर्य को प्रदेश की कमान दी और फिर बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे उन स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में शामिल कराया जिनके ऊपर हिंदू देवी देवताओं पर फितरे कसने का आरोप है। लखनऊ की सारी की सारी सीटें सिर्फ पिछले चुनाव को छोड़ दी जाएँ तो पारंपरिक तौर पर भाजपा की कही जाती हैं। बावजूद इसके लखनऊ कैंट की विधायक और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी को पार्टी में शामिल कराया गया। बसपा के ब्राह्मण चेहरों में से एक पूर्व सांसद बृजेश पाठक को लखनऊ मध्य से आजमाया है। भाजपा की तीसरी सूची बीते मंगलवार को जारी हुई। 67 उम्मीदवार की सूची में 25 दलबदलू उम्मीदवार हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो 265 सीटें पाने का लक्ष्य रखने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने में कितनी और किस तरह कामयाब होगी यह लाख टके का सवाल है। भाजपा की सूची ही दलबदलुओँ से शुरु होती है। विधानसभा संख्या 1 और 2 पर पार्टी ने बसपा छोड़कर आए महावीर राणा और धर्म सिंहसैनी को पहली ही सूची में ही टिकट दे दिया।

सबसे अधिक बसपाइयों पर ही भाजपा की कृपा बरसी है। जुगल किशोर के बेटे सौरभ सिंह और उनके करीबी रूमी साहनी और बाला प्रसाद अवस्थी को पार्टी ने उम्मीदवार बना दिया है। दलबहादर कोरी, आर के चौधरी, दीनानाथ भास्कर, दारा चौहान, फागू चौहान, जयवीर सिंह, ममतेश शाक्य, राजेश त्रिपाठी, रजनी तिवारी अंशुल वर्मा, उत्कृष्ण मौर्य, रमानाथ कश्यप सरीखे तकरीबन तीन दर्जन ऐसे लोगों को हाथी से उतार कर कमल का फूल थमा दिया गया है। भाजपा की ओर से प्रसाद पाने वालो में दूसरे स्थान पर सपाई रहे हैं। शेरबहादुर सिंह के बेटे, मयंकेश्वर शरण सिंह, पक्षालिका सिंह, कुलदीप सेंगर सरीखे एक दर्जन से अधिक नाम ऐसे हैं जिनके बिना सरकार बनाने का बीजेपी का सपना पूरा होता नहीं दिखा इसीलिय पार्टी में इन्हें जगह दी गयी। समाजवादी पार्टी की वर्तमान महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष के बेटे हर्ष वाजपेयी तक को भाजपा ने टिकट दे दिया है।

कांग्रेस से आए संजय जायसवाल, माधुरी वर्मा और शिवगणेश लोधी के परिवार को भी टिकट दिया गया है। राष्ट्रीय लोकदल के दलबीर सिंह को भी पार्टी ने टिकट देकर नवाजा। हद तो यह है कि पार्टी ने दूसरे दलों से बाहुबली भी लिए हैं। लल्ला भैया और खब्बू तिवारी का नाम शामिल है। इसी तरह पार्टी ने एनसीपी से आए विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के बेटे फतेहबहादुर को भी भाजपा ने  इस तरह भाजपा की पूरी सूची देखी जाय तो कोई छोटा और बड़ा दल ऐसा नहीं है जिसमें सेंधमारी का दावा करके अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़े नेता न नज़र आएँ। लेकिन जमीनी हकीकत ठीक उलट है भाजपा को विद्रोह शांत कराने में आधे से अधिक ताकत लगानी पड़ेगी। और अगर वह असफल होती है तो इसका एकमात्र कारण दलबदलुओं पर दांव लगाना ही होगा।

कमोबेश बसपा की भी यही स्थिति है। बसपा में सबसे चौकाने वाला दलबदल तो अंबिका चौधरी की शक्ल में हुआ। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक अंबिका चौधरी बसपा में शामिल हुए हालांकि उनका सपा मे टिकट घरेलू कलह के चलते अखिलेश यादव ने काट दिया। इसी तरह बसपा ने भाजपा कांग्रेस से आए नवाजिश आलम खान, अवधेश वर्मा, नवाब काजिम अली, दिलनवाज खान, जमील सिद्दीकी सरीखे नामों को पार्टी में न सिर्फ शामिल किया बल्कि माननीय बनने की दौड़ में उतार दिया है। और तो और सत्ता की तरफ देख रही मायावती जिन्होंने अपने पूरे शासन काल में उमाकांत और रमाकांत परिवार को मुख्यमंत्री आवास से गिरफ्तार करा कर वाहवाही लूटी और जिनका चुनाव का एजेंडा ही सपा की गुंडागर्दी से निपटना है वह भी सत्ता पाने के लिए मुख्तार अंसारी भाइयों को दो सीट देने को तैयार है। इसके लिए बाकायदा उन्होंने अपने घोषित प्रत्याशी भी वापस ले लिए।

वहीं विकास के नाम और अखिलेश के काम पर चुनाव लड़ रही समाजवादी पार्टी भी पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद दलबदलुओं के मोह से मुक्त नहीं हो सकता।  अपने गढ़ समझे जाने वाले संडीला विधानसभा में उसने बसपा से आए अब्दुल मन्नान को टिकट दिया है तो वहीं भाजपा के रहे एक विधायक विजय बहादुर यादव और कांग्रेसी विधायक रहे मुकेश श्रीवास्तव को भी साइकिल की सवारी करा दी है। वहीं अखिलेश यादव के निजाम में समाजवादी पार्टी ने जे पी जायसवाल, अयोध्या पाल, अमर सिंह परमार और अंशू देवी निषाद को टिकट देकर दल बदल पर अपना भरोसा जताया है। पूरे पांच साल तक सरकार के हमकदम बनकर रहे एमआईएम के बरेली से विधायक शहजिल इस्लाम को अखिलेश ने अपनी पार्टी से ही चुनाव मैदान में उतार दिया। वहीं कांग्रेस का दामन भी दलबदलुओं के दाग से इतर नहीं है। अब तक जारी सूची में भी मुकेश चौधरी, शेरबाज खान और अमरपाल शर्मा को हाथ का साथ पकड़ा दिया। वहीं रालोद समेत कई ऐसे छोटे दल हैं जिनकी मजबूरी हो दलबदल कर आए मजबूत प्रत्याशी बन जाते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव साबित करते हैं कि हर दल को अपनों से ज्यादा दूसरों पर भरोसा है और दलबदल के दलदल से कोई भी पार्टी अछूती नहीं है।

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 इस गठबंधन का तो कहना ही क्या 

यह सच है कि  इतिहास अकसर खुद को दोहराता है। हालांकि उसके किरदार बदलते रहते है। उस बार नरसिम्हाराव कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। दिग्गज की हैसियत वाली अपनी कांग्रेस पार्टी का गठबंधन उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से किया था। विज्ञान का एक नियम है कि ऊष्मा बडे पिंड से छोटे पिंड की ओर संचारित होती है। राजनीति में यह विज्ञान चल गया। दिग्गज दोयम दर्जे की हैसियत मे आ गये और दोयम दर्ज सबल हो गया। आज फिर दिग्गज और दोयम की हैसियत वाले दो दल गठबंधन कर रहे हैं। मगर हैसियत बदली हुई है। इसे अतिश्योक्ति न माना जाय तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यहां से कांग्रेस के पुनर्उत्थान का दरवाजा खुल सकता है। दरअसल इस गठजोड़ की सबसे बड़ी लाभार्थी भी वही है। इसलिए भी क्योंकि वह अपने कदाचित सबसे बुरे दौर में है। सपा से एक बड़ा समझौता उस पी के की सबसे बड़ी राजनीतिक चतुराई है जिसे खुद कांग्रेसी बेकार का बोझ बताते फिर रहे थे। अकेले लड़ने पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा होता और ठीकरा फिर राहुल गांधी के कुर्ते फाड़ता मगर अब वह नफे में है। जीत का श्रेय और सीट उसकी होगी और नुकसान का दोष सपा की कलह या अखिलेश की असफलता को जाएगा। सपा भी भला क्या करती गठबंधन उसकी मजबूरी थी। उसे ढंग से पता था कि अखबारी पन्नों पर पसरी विकास की जमीनी हकीकत क्या है। विकास के लंबे चौड़े दावों के बीच भी सत्ता विरोधी रुझान से मुक्त हो पाना उसके बूते का नहीं था। मायावती के अचानक हमलावर होने और बड़ी तादाद में मुस्लिमों को टिकट देने से उन्हें मिली बढ़त में यही एक रास्ता था। वरना मुस्लिम वोट बैंक के खिसकने का यह चुनाव एक बड़ा अवसर होता। मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की जो विकास यात्रा 25 में पूरी की उसमें इस मुस्लिम मतदाताओँ का किरदार बेहद अहम रहा। उन्होने जो माई (मुस्लिम+यादव) समीकरण तैयार किया उसमें मुस्लिम मतदाताओं की तादाद माई के यादव मतदाताओं से दोगुनी से थोड़ी अधिक थी। इन मतदाताओं को बांधे रखने के लिए मुलायम सिहं यादव ने ‘परिंदा पर नहीं मार सकता’ और ‘मुल्ला मुलायम’ करतब किए। उत्तर प्रदेश मे करीब 70 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां 20-30 फीसदी मुस्लिम है। इनमें कुछ सीटों मे अल्पसंख्यक मतदाताओं की तादाद 41 से 45 फीसदी तक भी बैठती है।

सूबे मे 19.3 फीसदी मुस्लिम आबादी है जो 143 सीटों पर अपनी उपस्थिति का एहसास करा सकती है। समाजवादी पार्टी के आपसी अंतर्कलह के तकरीबन एक दूसरे से गुथे और बुने हुए तार जब घटनाक्रम के मार्फत लोगो के सामने आए उसी समय बहुजन समाज पार्टी का उभार तेज हो गया। अल्पसंख्यक मतदाता बसपा की ओर उम्मीदभरी निगाह से देखने लगे। उन्हें भाजपा के विकल्प के तौर पर आपस में लड़ती हुई सपा के मुकाबले बसपा बेहतर नज़र आई। मायावती ने भी 97 उम्मीदवार उतार कर यह जताने की कोशिश की कि वह असली खैरख्वाह है, भाजपा से वही मुकाबिल है। यह भी सही है कि सूबे मे दलित और मुस्लिम गठबंधन प्रभावकारी भूमिका अदा कर सकता है। 21.1 फीसदी दलित उत्तर प्रदेश में है। 66 उपजातियां हैं इनमें 13 फीसदी सिर्फ जाटव हैं जो मायावती की बिरादरी के कहे जाते है। 8 फीसदी अन्य दलित जातियां हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव मे समाजवादी पार्टी 29.13 फीसदी वोट पाकर 224 सीटे जीतने मे कामयाब हो गयी थी। हलाकि 53 जगहो पर समाजवादी उम्मीदवारों को जमानते भी जब्त हुई थी। उसे 2 करोड़ 20 लाख 90 हजार के आसपास वोट मिले यह 29.13 फीसदी बैठता है। बसपा को 1 करोड़ 96 लाख 43 हजार के आसपास वोट मिले जो 25.91 फीसदी बैठता है। दोनों पार्टोयों के बीच तकरीबन सिर्फ 25 लाख वोटों का अंतर था। ऐसे में सपा और कांग्रेस गठबंधन से पहले बसपा की उम्मीदों का हिलोरे मारना गैरवाजिब नही था क्योंकि इससे काफी ज्यादा वोट सत्ता विरोधी रुझान में इधर उधर होते रहते है। यही नही 2007 के चुनाव में बसपा ने जब 30.43 फीसदी वोट हासिल कर सरकार बनाई थी तब उसे सूबे के 1 करोड़ 58 लाख 72 आसपास मतदाताओं ने पसंद किया था। जबकि दूसरे पायदान पर रहने वाली समाजवादी पार्टी को 25.43 फीसदी वोट मिले थे उसे 1 करोड़ 32 लाख 67 हजार मतदाताओ ने वोट दिया था।

उत्तर प्रदेश मे ही नही कहीं भी आमने सामने की लडाई मे बसपा के लिए मैदान मारना मुश्किल होता है। ऐसे मे काग्रेस-सपा और भाजपा के मजबूती से लड़ते हुए दौर मे अपने लिए उम्मीदो का पहाड़ खडा करना मायावती के लिए बेवजह नहीं था। लेकिन वह जिस तरह मुस्लिम ध्रुवीकरण को आमंत्रण दे रही थीं वह भाजपा की बांछे खिलाने के लिए कम नहीं था। पश्चिम उत्तर प्रदेश मे मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से हालात भले सामान्य हो गये हों पर मुस्लिम जाटव और जाट के साथ जाने को तैयार नहीं दिख रहा है। यही हाल राजनैतिक रुप से जाट और जाटव का मुस्लिम के साथ खडे होने को लेकर है। इस इलाके में तकरीबन 73 सीटें तो आती ही हैं।

अखिलेश यादव को यह लगना लाज़मी था कि जो कांग्रेस 2007 में 44 लाख 89 हजार के आसपास वोट पाई थी वह 2012 के चुनाव मे 88 हजार 72 हजार के आंकडे तक पहुंच गये यह कम दिलचस्प नहीं है। इन दोनों चुनावों में उसका वोट प्रतिशत क्रमशः 8.61 और 11.65 था। यानी दोनों चुनावों के बीच कांग्रेस ने अपना वोट दोगुना और वोट प्रतिशत करीब करीब डेढ गुना बढा लिया। हालांकि सीटों के लिहाज से उसे बहुत फायदा नहीं हुआ पर कांग्रेस की निरंतर बढ़ती हैसियत पर अखिलेश यादव की नज़र पड़ना स्वाभाविक था। अपने लिए जगह तलाश रही कांग्रेस के लिए भी कोई न कोई कंधा दरकार था क्योकि बिहार मे उसका टेकआफ गठबंधन से ही हुआ। यह कांग्रेस की मजबूरी है कि विज्ञान के पुराने सिद्धांत को नए किरदारों से पुनः प्रमाणित करे। यह समझौता कांग्रेस के वजूद का पर्याय है। कांग्रेस के संगठन को भी दुरुस्त करने के लिए जरुरी है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि उसने नारे 27 साल यूपी बेहाल मे अखिलेश यादव के भी पांच साल है। मुलायम के तकरीबन 6 साल हैं। जनता को उसे इसका जवाब देना होगा।

अखिलेश यादव के लिए यह गठबंधन जरुरी है। काग्रेस के लिए मजबूरी है। अगर इस गठबंधन की ठीक से पड़ताल की जाय तो यह कांग्रेस के लिए जरुरी और अखिलेश के लिए मजबूरी भी हो सकता है। पर रालोद के बिना मजबूरी और जरूरी की कसौटी पर यह गठबंधन खरा उतर पाएगा इसे लेकर संदेह का उठना लाज़मी है।  अखिलेश यादव को खुश होना चाहिये कि वह मुस्लिम मतदाताओ को रोकने का बड़ा दांव खेल रहे है जबकि कांग्रेस को खुश होना चाहिए कि अब बहुत साल बाद उनका पुराना अल्पसंख्यक उनका दरवाजा देख लेगा। 1996 में बसपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब उत्तराखड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। देश में दिग्गज की हैसियत वाली उस समय की कांग्रेस ने उभरती हुई बसपा को ज्यादा सीट दी थी खुद 125 सीट पर चुनाव लड़ा था। काग्रेस को उस चुनाव में 33 सीटे और 8.35 फीसदी वोट मिले थे। जबकि हैसियत बना रही बसपा को 67 सीटें हासिल हुई थीं तब जबकि अपने वोट का ट्रांसफर कराने की शक्ति वाली नेता मायावती बसपा की यूपी का चेहरा बन चुकी थी। उसके बाद भी मुलायम की समाजवादी पार्टी को 110 और भाजपा को 174 सीटें हाथ लग गयी थी। उस गठबंधन के बारे मे राहुल गांधी में 2007 कहा था कि इस गठबंधन में कांग्रेस ने खुद को बेच दिया था। अखिलेश यादव वोट ट्रांसफर कराने की कसौटी पर अभी कसे ही नहीं गये है। जहा तक राहुल गाधी का सवाल है तो वह भी तीन चार चुनाव से प्रचार करने के बाद यूपी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। ऐसे मे भाजपा को 1996 की पुनरावृत्ति का उम्मीद का जगना बेवजह नहीं कहा जा सकता है। इस बार के गठबंधन में इतिहास नए किरदारों के बीच दोहराएगा। अबकि बड़ा पिंड छोटे पिंड की ओर ऊष्मा का संचरण करेगा यह विज्ञान की कसौटी पर कसा गया सिद्धांत है। राजनीति में प्रयोग हुआ सत्य है।


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