विवाह एवं वैवाहिक जीवन…





आइये जाने तलाक के योग,कारण और उपचार—





कुंडली और जीवनसाथी—



युवक/वर की कुंडली—
यदि वर की कुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो उसे सुंदर पत्नी मिलती है। यदि कन्या की कुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र में से कोई भी हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा धनवान होता है।
जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होता है तथा स्वग्रही होकर सप्तम भाव में ही उपस्थित होता है तो जातक को सुंदर, आकर्षक, प्रभामंडल से युक्त एवं सौभाग्यशाली पत्नी प्राप्त होती है। जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होकर भाग्य भाव में उपस्थित होता है तो जातक को शीलयुक्त, रमणी एवं सुंदर पत्नी प्राप्त होती है तथा विवाह के पश्चात जातक का निश्चित भाग्योदय होता है।
जब सप्तमेश एकादश भाव में उपस्थित हो तो जातक की पत्नी रूपवती, संस्कारयुक्त, मृदुभाषी व सुंदर होती है तथा विवाह के पश्चात जातक की आर्थिक आय में वृद्धि होती है या पत्नी के माध्यम से भी उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो जातक को चतुर, मृदुभाषी, सुंदर, सुशिक्षित, संस्कारवान, तीखे नाक-नक्श वाली, गौरवर्ण, संगीत, कला आदि में दक्ष, भावुक एवं चुंबकीय आकर्षण वाली, कामकला में प्रवीण पत्नी प्राप्त होती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली में सप्तम भाव में मिथुन या कन्या राशि उपस्थित हो तो जातक को कोमलाङ्गी, आकर्षक व्यक्तित्व वाली, सौभाग्यशाली, मृदुभाषी, सत्य बोलने वाली, नीति एवं मर्यादाओं से युक्त बात करने वाली, श्रृंगारप्रिय, कठिन समय में पति का साथ देने वाली तथा सदैव मुस्कुराती रहने वाली पत्नी प्राप्त होती है। उन्हें वस्त्र एवं आभूषण बहुत प्रिय होते हैं।
जिस जातक के सप्तम भाव में कर्क राशि स्थित होती है, उसे अत्यंत सुंदर, भावुक, कल्पनाप्रिय, मधुरभाषी, लंबे कद वाली, छरहरी तथा तीखे नाक-नक्श वाली, सौभाग्यशाली तथा वस्त्र एवं आभूषणों से प्रेम करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।
यदि किसी जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में कुंभ राशि स्थित हो तो ऐसे जातक की पत्नी गुणों से युक्त धार्मिक, आध्यात्मिक कार्यो में गहरी अभिरुचि रखने वाली एवं दूसरों की सेवा और सहयोग करने वाली होती है।
सप्तम भाव में धनु या मीन राशि होने पर जातक को धार्मिक, आध्यात्मिक एवं पुण्य के कार्यो में रुचि रखने वाली, सुंदर, न्याय एवं नीति से युक्त बातें करने वाली, वाक्पटु, पति के भाग्य में वृद्धि करने वाली, सत्य का आचरण करने वाली और शास्त्र एवं पुराणों का अध्ययन करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।



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कन्या/युवती की कुंडली-जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त होता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में गुरु उपस्थित हो तो उसे सुंदर, धनवान, बुद्धिमान पति व श्रेष्ठ संतान मिलती है।भाग्य भाव में या सप्तम, अष्टम और नवम भाव में शुभ ग्रह होने से ससुराल धनाढच्य एवं वैभवपूर्ण होती है।
कन्या की जन्मकुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र आदि में से कोई उपस्थित हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा उसे सुख व वैभव प्राप्त होता है। कुंडली के लग्न में चंद्र हो तो ऐसी कन्या पति को प्रिय होती है और चंद्र व शुक्र की युति हो तो कन्या ससुराल में अपार संपत्ति एवं समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करती है।
कन्या की कुंडली में वृषभ, कन्या, तुला लग्न हो तो वह प्रशंसा पाकर पति एवं धनवान ससुराल में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।कन्या की कुंडली में जितने अधिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध या चन्द्र लग्न को देखते हैं या सप्तम भाव को देखते हैं, उसे उतना धनवान एवं प्रतिष्ठित परिवार एवं पति प्राप्त होता है।
कन्या की जन्मकुंडली में लग्न एवं ग्रहों की स्थिति की गणनानुसार त्रिशांश कुंडली का निर्माण करना चाहिए तथा देखना चाहिए कि यदि कन्या का जन्म मिथुन या कन्या लग्न में हुआ है तथा लग्नेश गुरु या शुक्र के त्रिशांश में है तो उसके पति के पास अटूट संपत्ति होती है तथा कन्या सदैव ही सुंदर वस्त्र एवं आभूषण धारण करने वाली होती है।
कुंडली के सप्तम भाव में शुक्र उपस्थित होकर अपने नवांश अर्थात वृषभ या तुला के नवांश में हो तो पति धनाढच्य होता है।सप्तम भाव में बुध होने से पति विद्वान, गुणवान, धनवान होता है, गुरु होने से दीर्घायु, राजा के संपत्ति वाला एवं गुणी तथा शुक्र या चंद्र हो तो ससुराल धनवान एवं वैभवशाली होता है। एकादश भाव में वृष, तुला राशि हो या इस भाव में चन्द्र, बुध या शुक्र हो तो ससुराल धनाढच्य और पति सौम्य व विद्वान होता है।हर पुरुष सुंदर पत्नी और स्त्री धनवान पति की कामना करती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में सूर्य हो तो उसकी पत्नी शिक्षित, सुशील, सुंदर एवं कार्यो में दक्ष होती है, किंतु ऐसी स्थिति में सप्तम भाव पर यदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो दाम्पत्य जीवन में कलह और सुखों का अभाव होता है।
जातक की जन्मकुंडली में स्वग्रही, उच्च या मित्र क्षेत्री चंद्र हो तो जातक का दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है तथा उसे सुंदर, सुशील, भावुक, गौरवर्ण एवं सघन केश राशि वाली रमणी पत्नी प्राप्त होती है। सप्तम भाव में क्षीण चंद्र दाम्पत्य जीवन में न्यूनता उत्पन्न करता है।
जातक की कुंडली में सप्तमेश केंद्र में उपस्थित हो तथा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि होती है, तभी जातक को गुणवान, सुंदर एवं सुशील पत्नी प्राप्त होती है।पुरुष जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में शुभ ग्रह बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित हो तो ऐसा जातक सौभाग्यशाली होता है तथा उसकी पत्नी सुंदर, सुशिक्षित होती है और कला, नाटच्य, संगीत, लेखन, संपादन में प्रसिद्धि प्राप्त करती है। ऐसी पत्नी सलाहकार, दयालु, धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि रखती है।
दाम्पत्य सुख के उपाय—-



१॰ यदि जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादश स्थान स्थित मंगल होने से जातक को मंगली योग होता है इस योग के होने से जातक के विवाह में विलम्ब, विवाहोपरान्त पति-पत्नी में कलह, पति या पत्नी के स्वास्थ्य में क्षीणता, तलाक एवं क्रूर मंगली होने पर जीवन साथी की मृत्यु तक हो सकती है। अतः जातक मंगल व्रत। मंगल मंत्र का जप, घट विवाह आदि करें।
२॰ सप्तम गत शनि स्थित होने से विवाह बाधक होते है। अतः “ॐ शं शनैश्चराय नमः” मन्त्र का जप ७६००० एवं ७६०० हवन शमी की लकड़ी, घृत, मधु एवं मिश्री से करवा दें।
३॰ राहु या केतु होने से विवाह में बाधा या विवाहोपरान्त कलह होता है। यदि राहु के सप्तम स्थान में हो, तो राहु मन्त्र “ॐ रां राहवे नमः” का ७२००० जप तथा दूर्वा, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें। केतु स्थित हो, तो केतु मन्त्र “ॐ कें केतवे नमः” का २८००० जप तथा कुश, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें।
४॰ सप्तम भावगत सूर्य स्थित होने से पति-पत्नी में अलगाव एवं तलाक पैदा करता है। अतः जातक आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ रविवार से प्रारम्भ करके प्रत्येक दिन करे तथा रविवार कप नमक रहित भोजन करें। सूर्य को प्रतिदिन जल में लाल चन्दन, लाल फूल, अक्षत मिलाकर तीन बार अर्ध्य दें।
५॰ जिस जातक को किसी भी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो नवरात्री में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक ४४००० जप निम्न मन्त्र का दुर्गा जी की मूर्ति या चित्र के सम्मुख करें।
“ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।।”
६॰ किसी स्त्री जातिका को अगर किसी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो श्रावण कृष्ण सोमवार से या नवरात्री में गौरी-पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जप करना चाहिए-
“हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी कान्त कान्तां सुदुर्लभाम।।”
७॰ किसी लड़की के विवाह मे विलम्ब होता है तो नवरात्री के प्रथम दिन शुद्ध प्रतिष्ठित कात्यायनि यन्त्र एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें एवं यन्त्र का पंचोपचार से पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जइ लड़की स्वयं या किसी सुयोग्य पंडित से करवा सकते हैं।
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोप सुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।”
८॰ जन्म कुण्डली में सूर्य, शनि, मंगल, राहु एवं केतु आदि पाप ग्रहों के कारण विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो गौरी-शंकर रुद्राक्ष शुद्ध एवं प्राण-प्रतिष्ठित करवा कर निम्न मन्त्र का १००८ बार जप करके पीले धागे के साथ धारण करना चाहिए। गौरी-शंकर रुद्राक्ष सिर्फ जल्द विवाह ही नहीं करता बल्कि विवाहोपरान्त पति-पत्नी के बीच सुखमय स्थिति भी प्रदान करता है।
“ॐ सुभगामै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्।।”
९॰ “ॐ गौरी आवे शिव जी व्याहवे (अपना नाम) को विवाह तुरन्त सिद्ध करे, देर न करै, देर होय तो शिव जी का त्रिशूल पड़े। गुरु गोरखनाथ की दुहाई।।”
उक्त मन्त्र की ११ दिन तक लगातार १ माला रोज जप करें। दीपक और धूप जलाकर ११वें दिन एक मिट्टी के कुल्हड़ का मुंह लाल कपड़े में बांध दें। उस कुल्हड़ पर बाहर की तरफ ७ रोली की बिंदी बनाकर अपने आगे रखें और ऊपर दिये गये मन्त्र की ५ माला जप करें। चुपचाप कुल्हड़ को रात के समय किसी चौराहे पर रख आवें। पीछे मुड़कर न देखें। सारी रुकावट दूर होकर शीघ्र विवाह हो जाता है।
१०॰ जिस लड़की के विवाह में बाधा हो उसे मकान के वायव्य दिशा में सोना चाहिए।
११॰ लड़की के पिता जब जब लड़के वाले के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें तो लड़की अपनी चोटी खुली रखे। जब तक पिता लौटकर घर न आ जाए तब तक चोटी नहीं बाँधनी चाहिए।
१२॰ लड़की गुरुवार को अपने तकिए के नीचे हल्दी की गांठ पीले वस्त्र में लपेट कर रखे।
१३॰ पीपल की जड़ में लगातार १३ दिन लड़की या लड़का जल चढ़ाए तो शादी की रुकावट दूर हो जाती है।
१४॰ विवाह में अप्रत्याशित विलम्ब हो और जातिकाएँ अपने अहं के कारण अनेल युवकों की स्वीकृति के बाद भी उन्हें अस्वीकार करती रहें तो उसे निम्न मन्त्र का १०८ बार जप प्रत्येक दिन किसी शुभ मुहूर्त्त से प्रारम्भ करके करना चाहिए।
“सिन्दूरपत्रं रजिकामदेहं दिव्ताम्बरं सिन्धुसमोहितांगम् सान्ध्यारुणं धनुः पंकजपुष्पबाणं पंचायुधं भुवन मोहन मोक्षणार्थम क्लैं मन्यथाम।
महाविष्णुस्वरुपाय महाविष्णु पुत्राय महापुरुषाय पतिसुखं मे शीघ्रं देहि देहि।।”
१५॰ किसी भी लड़के या लड़की को विवाह में बाधा आ रही हो यो विघ्नकर्ता गणेशजी की उपासना किसी भी चतुर्थी से प्रारम्भ करके अगले चतुर्थी तक एक मास करना चाहिए। इसके लिए स्फटिक, पारद या पीतल से बने गणेशजी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्टित, कांसा की थाली में पश्चिमाभिमुख स्थापित करके स्वयं पूर्व की ओर मुँह करके जल, चन्दन, अक्षत, फूल, दूर्वा, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजा करके १०८ बार “ॐ गं गणेशाय नमः” मन्त्र पढ़ते हुए गणेश जी पर १०८ दूर्वा चढ़ायें एवं नैवेद्य में मोतीचूर के दो लड्डू चढ़ायें। पूजा के बाद लड्डू बच्चों में बांट दें।
यह प्रयोग एक मास करना चाहिए। गणेशजी पर चढ़ये गये दूर्वा लड़की के पिता अपने जेब में दायीं तरफ लेकर लड़के के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें।
१६॰ तुलसी के पौधे की १२ परिक्रमायें तथा अनन्तर दाहिने हाथ से दुग्ध और बायें हाथ से जलधारा तथा सूर्य को बारह बार इस मन्त्र से अर्ध्य दें- “ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्त्र किरणाय मम वांछित देहि-देहि स्वाहा।”
फिर इस मन्त्र का १०८ बार जप करें-
“ॐ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्र प्रिय यामिनि। विवाहं भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।”
१७॰ गुरुवार का व्रत करें एवं बृहस्पति मन्त्र के पाठ की एक माला आवृत्ति केला के पेड़ के नीचे बैठकर करें।
१८॰ कन्या का विवाह हो चुका हो और वह विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी-सी हल्दी, एक सिक्का डाल कर लड़की के सिर के ऊपर ७ बार घुमाकर उसके आगे फेंक दें। उसका वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।
१९॰ जो माता-पिता यह सोचते हैं कि उनकी पुत्रवधु सुन्दर, सुशील एवं होशियार हो तो उसके लिए वीरवार एवं रविवार के दिन अपने पुत्र के नाखून काटकर रसोई की आग में जला दें।
२०॰ विवाह में बाधाएँ आ रही हो तो गुरुवार से प्रारम्भ कर २१ दिन तक प्रतिदिन निम्न मन्त्र का जप १०८ बार करें-
“मरवानो हाथी जर्द अम्बारी। उस पर बैठी कमाल खां की सवारी। कमाल खां मुगल पठान। बैठ चबूतरे पढ़े कुरान। हजार काम दुनिया का करे एक काम मेरा कर। न करे तो तीन लाख पैंतीस हजार पैगम्बरों की दुहाई।”
२१॰ किसी भी शुक्रवार की रात्रि में स्नान के बाद १०८ बार स्फटिक माला से निम्न मन्त्र का जप करें-
“ॐ ऐं ऐ विवाह बाधा निवारणाय क्रीं क्रीं ॐ फट्।”
२२॰ लड़के के शीघ्र विवाह के लिए शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को ७० ग्राम अरवा चावल, ७० सेमी॰ सफेद वस्त्र, ७ मिश्री के टुकड़े, ७ सफेद फूल, ७ छोटी इलायची, ७ सिक्के, ७ श्रीखंड चंदन की टुकड़ी, ७ जनेऊ। इन सबको सफेद वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु व्यक्ति घर के किसी सुरक्षित स्थान में शुक्रवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२३॰ लड़की के शीघ्र विवाह के लिए ७० ग्राम चने की दाल, ७० से॰मी॰ पीला वस्त्र, ७ पीले रंग में रंगा सिक्का, ७ सुपारी पीला रंग में रंगी, ७ गुड़ की डली, ७ पीले फूल, ७ हल्दी गांठ, ७ पीला जनेऊ- इन सबको पीले वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु जातिका घर के किसी सुरक्षित स्थान में गुरुवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२४॰ श्रेष्ठ वर की प्राप्ति के लिए बालकाण्ड का पाठ करे।



मंगली दोष का ज्योतिषीय आधार (Astrological analysis of Manglik Dosha)—-



मंगल उष्ण प्रकृति का ग्रह है.इसे पाप ग्रह माना जाता है. विवाह और वैवाहिक जीवन में मंगल का अशुभ प्रभाव सबसे अधिक दिखाई देता है. मंगल दोष जिसे मंगली के नाम से जाना जाता है इसके कारण कई स्त्री और पुरूष आजीवन अविवाहित ही रह जाते हैं.इस दोष को गहराई से समझना आवश्यक है ताकि इसका भय दूर हो सके.
वैदिक ज्योतिष में मंगल को लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में दोष पूर्ण माना जाता है.इन भावो में उपस्थित मंगल वैवाहिक जीवन के लिए अनिष्टकारक कहा गया है.जन्म कुण्डली में इन पांचों भावों में मंगल के साथ जितने क्रूर ग्रह बैठे हों मंगल उतना ही दोषपूर्ण होता है जैसे दो क्रूर होने पर दोगुना, चार हों तो चार चार गुणा.मंगल का पाप प्रभाव अलग अलग तरीके से पांचों भाव में दृष्टिगत होता है



जैसे: लग्न भाव में मंगल (Mangal in Ascendant ) लग्न भाव से व्यक्ति का शरीर, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व का विचार किया जाता है.लग्न भाव में मंगल होने से व्यक्ति उग्र एवं क्रोधी होता है.यह मंगल हठी और आक्रमक भी बनाता है.इस भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख सुख स्थान पर होने से गृहस्थ सुख में कमी आती है.सप्तम दृष्टि जीवन साथी के स्थान पर होने से पति पत्नी में विरोधाभास एवं दूरी बनी रहती है.अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि जीवनसाथी के लिए संकट कारक होता है.
द्वितीय भाव में मंगल (Mangal in Second Bhava) भवदीपिका नामक ग्रंथ में द्वितीय भावस्थ मंगल को भी मंगली दोष से पीड़ित बताया गया है.यह भाव कुटुम्ब और धन का स्थान होता है.यह मंगल परिवार और सगे सम्बन्धियों से विरोध पैदा करता है.परिवार में तनाव के कारण पति पत्नी में दूरियां लाता है.इस भाव का मंगल पंचम भाव, अष्टम भाव एवं नवम भाव को देखता है.मंगल की इन भावों में दृष्टि से संतान पक्ष पर विपरीत प्रभाव होता है.भाग्य का फल मंदा होता है.



चतुर्थ भाव में मंगल (Mangal in Fourth Bhava) चतुर्थ स्थान में बैठा मंगल सप्तम, दशम एवं एकादश भाव को देखता है.यह मंगल स्थायी सम्पत्ति देता है परंतु गृहस्थ जीवन को कष्टमय बना देता है.मंगल की दृष्टि जीवनसाथी के गृह में होने से वैचारिक मतभेद बना रहता है.मतभेद एवं आपसी प्रेम का अभाव होने के कारण जीवनसाथी के सुख में कमी लाता है.मंगली दोष के कारण पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ जाती है और दोष निवारण नहीं होने पर अलगाव भी हो सकता है.यह मंगल जीवनसाथी को संकट में नहीं डालता है.



सप्तम भाव में मंगल (Mangal in Seventh Bhava) सप्तम भाव जीवनसाथी का घर होता है.इस भाव में बैठा मंगल वैवाहिक जीवन के लिए सर्वाधिक दोषपूर्ण माना जाता है.इस भाव में मंगली दोष होने से जीवनसाथी के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव बना रहता है.जीवनसाथी उग्र एवं क्रोधी स्वभाव का होता है.यह मंगल लग्न स्थान, धन स्थान एवं कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है.मंगल की दृष्टि के कारण आर्थिक संकट, व्यवसाय एवं रोजगार में हानि एवं दुर्घटना की संभावना बनती है.यह मंगल चारित्रिक दोष उत्पन्न करता है एवं विवाहेत्तर सम्बन्ध भी बनाता है.संतान के संदर्भ में भी यह कष्टकारी होता है.मंगल के अशुभ प्रभाव के कारण पति पत्नी में दूरियां बढ़ती है जिसके कारण रिश्ते बिखरने लगते हैं.जन्मांग में अगर मंगल इस भाव में मंगली दोष से पीड़ित है तो इसका उपचार कर लेना चाहिए.



अष्टम भाव में मंगल (Mangal in Eigth Bhava) अष्टम स्थान दुख, कष्ट, संकट एवं आयु का घर होता है.इस भाव में मंगल वैवाहिक जीवन के सुख को निगल लेता है.अष्टमस्थ मंगल मानसिक पीड़ा एवं कष्ट प्रदान करने वाला होता है.जीवनसाथी के सुख में बाधक होता है.धन भाव में इसकी दृष्टि होने से धन की हानि और आर्थिक कष्ट होता है.रोग के कारण दाम्पत्य सुख का अभाव होता है.ज्योतिष विधान के अनुसार इस भाव में बैठा अमंलकारी मंगल शुभ ग्रहों को भी शुभत्व देने से रोकता है.इस भाव में मंगल अगर वृष, कन्या अथवा मकर राशि का होता है तो इसकी अशुभता में कुछ कमी आती है.मकर राशि का मंगल होने से यह संतान सम्बन्धी कष्ट देता है।



द्वादश भाव में मंगल (Mangal in Twelth Bhava) कुण्डली का द्वादश भाव शैय्या सुख, भोग, निद्रा, यात्रा और व्यय का स्थान होता है.इस भाव में मंगल की उपस्थिति से मंगली दोष लगता है.इस दोष के कारण पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम व सामंजस्य का अभाव होता है.धन की कमी के कारण पारिवारिक जीवन में परेशानियां आती हैं.व्यक्ति में काम की भावना प्रबल रहती है.अगर ग्रहों का शुभ प्रभाव नहीं हो तो व्यक्ति में चारित्रिक दोष भी हो सकता है..



भावावेश में आकर जीवनसाथी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.इनमें गुप्त रोग व रक्त सम्बन्धी दोष की भी संभावना रहती है.



जब दो कुंडली के मिलान में ग्रहों का माकूल साथ हो तो प्रेम भी होगा और प्रेम विवाह भी। ज्योतिष की मानें तो चंद्र और शुक्र का साथ किसी भी व्यक्ति को प्रेमी बना सकता है और यही ग्रह अगर विवाह के घर से संबंध रखते हों तो इस प्रेम की परिणति विवाह के रूप में तय है। ऐसा नहीं कि प्रारब्ध को मानने से कर्म की महत्ता कम हो जाती है लेकिन इतना तय है कि ग्रहों का संयोग आपके जीवन में विरह और मिलन का योग रचता है। किसी भी व्यक्ति के प्रेम करने के पीछे ज्योतिषीय कारण भी होते हैं। कुंडली में शुक्र और चंद्र की प्रबलता है तो किसी भी जातक का प्रेम में पड़ना स्वाभाविक है। कुंडली में पाँचवाँ घर प्रेम का होता है और सातवाँ घर दाम्पत्य का माना जाता है। लग्न, पंचम, सप्तम या एकादश भाव में शुक्र का संबंध होने से प्रेम होता है। जब पाँचवें और सातवें घर में संबंध बनता है तो प्रेम विवाह में तब्दील हो जाता है।शुक्र या चंद्र के अलावा वृषभ, तुला और कर्क राशि के जातक भी प्रेम करते हैं। शुक्र और चंद्र प्रेम विवाह करवाते हैं तो सूर्य की मौजूदगी संबंधों में विच्छेद का कारण भी बनती है। सूर्य और शुक्र या शनि का आपसी संबंध जोड़े को अलग करने में मुख्य भूमिका निभाता है। सप्तम भाव का संबंध यदि सूर्य से हो जाए तो भी युवा प्रेमी युगल का नाता लंबे समय तक नहीं चलता। इनकी युति तलाक तक ले जाती है। अब आँखें चार हों तो कुंडली देख लें, संभव है शुक्र और चंद्र का साथ आपको प्रेमी बना रहा हो।
प्राय: सभी माता-पिता यह चाहते हैं कि उनकी बेटी या बेटे की शादी होने के बाद उनका जीवन सुखमय और सौहार्दपूर्ण रहे। दोनों में वैचारिक मतभेद नहीं हों और वे तरक्की करें। लेकिन शादी होने के बाद यदि पति-पत्नी के बीच क्लेश और विवाद होने लगें और नौबत तलाक तक आ जाए, तो यह विचारणीय विषय है।
विवाह के बाद यदि दांपत्य सुख न मिले या पति-पत्नी के बीच मतभेद जीवनपर्यन्त चलते रहें, आपसी सामंजस का अभाव हो, तो इसका ज्योतिषीय कारण कुंडली में कुछ बाधक योगों का होना हो सकता है। क्योंकि बाधक योग होने पर ही पति-पत्नी के बीच वैचारिक मतभेद होते हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव कम होने लगता है। यदि ऎसी स्थिति किसी के साथ हो तो भयभीत नहीं हों, इन बाधक योगों के उपचार कर लेने से प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है। दांपत्य सुख में बाधक योग कौन से संभव हैं और उनका परिहार ज्योतिष में क्या बताया गया है इसे समझें।
विवाह भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण संस्कार है। कहते हैं कि जोड़ियां संयोग से बनती हैं जो कि परमात्मा द्वारा पहले से ही तय होती हैं। यह भी सत्य है कि अच्छी पत्नी व अच्छी सन्तान भाग्य से ही मिलती है। पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही जीवन साथी मिलता है, यदि सुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन सुखमय और कुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन दुखमय होता है।
जन्मकुंडली में विवाह का विचार सातवें भाव से होता है। इस भाव से पति एवं पत्नी, काम (भोग विलास), विवाह से पूर्व एवं पश्चात यौन संबंध, साझेदारी आदि का विचार मुख्य रूप से किया जाता है।
फलित ज्योतिष में योग की महत्ता—
सप्तम यानी केन्द्र स्थान विवाह और जीवनसाथी का घर होता है. इस घर पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव होने पर या तो विवाह विलम्ब से होता है या फिर विवाह के पश्चात वैवाहिक जीवन में प्रेम और सामंजस्य की कमी रहती है.
जिनकी कुण्डली में ग्रह स्थिति कमज़ोर हो और मंगल एवं शुक्र एक साथ बैठे हों उनके वैवाहिक जीवन में अशांति और परेशानी बनी रहती है. ग्रहों के इस योग के कारण पति पत्नी में अनबन रहती है.
शनि और राहु का सप्तम भाव होना भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं माना जाता है क्योंकि दोनों ही पाप ग्रह दूसरे विवाह की संभावना पैदा करते हैं.
राहु, सूर्य, शनि व द्वादशेश पृथकतावादी ग्रह हैं, जो सप्तम (दाम्पत्य)और द्वितीय (कुटुंब) भावों पर विपरीत प्रभाव डालकर वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते हैं। दृष्टि या युति संबंध से जितना ही विपरीत या शुभ प्रभाव होगा उसी के अनुरूप वैवाहिक जीवन सुखमय या दुखमय होगा।
राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।
चन्द्रमा मन का कारक है,और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।
अष्टकूट मिलान(वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी) आवश्यक है और ठीक न हो तो भी वैचारिक मतभेद रहता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त होता है।
जब सप्तमेश एकादश भाव में उपस्थित हो तो जातक की पत्नी रूपवती, संस्कारयुक्त, मृदुभाषी व सुंदर होती है तथा विवाह के पश्चात जातक की आर्थिक आय में वृद्धि होती है या पत्नी के माध्यम से भी उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
क्यों हे आजकल मेलापक की जरुरत/आवश्यकता—विवाह योग्य वर वधु का भली-भांति विचार कर इन दोनों का मेलापक मिलान करना चाहिए| दम्पति की प्रकृति, मनोवृति एंव अभिरुचि तथा स्वाभावगत अन्य विशेषताओं में कितनी समानता है| यह हम नक्षत्र मेलापक से जान सकते है प्रणय या दांम्पत्य संबधों के लिए वर वधु का मेलापक अनिवार्य रूप से विचारणीय है|
कुछ लोग यह कह सकते है कि ज्योतिषियों द्धारा मेलापक के बाद किए गये विवाह भी बहुधा असफल होते देखें गये है| अनेक दांम्पत्यो में वैचारिक मतभेद या वैमनस्य रहता है| अनेक युगल गृह-क्लेश से परेशान होकर तलाक ले लेते है तथा अनेक लोग धनहीन, सन्तानहीन या प्रेमहीन होकर बुझे मन से गाड़ी ढकेलते देखें जाते है| मेलापक का विचार करने के बाद विवाह करना सुखमय दांमपत्य जीवन की क्या गारंटी है| यह कैसे कहां जा सकता है इस प्रकार की शंकाएं अनेकलोगों के मन में रहती है ज्योतिषी द्धारा मेलापक मिलवाने के बाद विवाह करने पर भी काफी लोगों का दांमपत्य जीवन आज सुखमय नहीं है इसके कुछ कारण है |
1 बिना जन्मपत्री मिलाएं विवाह करना 2 नकली जन्मपत्री बनवाकर मिलान करवाना 3 प्रचलित नाम से मिलान करवाना 4 जन्मकुंडली का ठीक न होना 5 जिस किसी व्यक्ति से जन्मपत्रियों का मिलान का निणर्य करा लेना|
जिस किसी से मिलवान करा लेना आज ज्योतिष कुछ ऐसे लोगों के हाथों में फंस गया है जिनको ज्योतिष शास्त्र की यथार्थ जानकारी तो क्या प्रारंभिक बातें भी ठीक-ठीक रूप से पता नहीं है ज्योतिष शास्त्र से अनभिज्ञ ज्योतिषीयो की संख्या हमारे देश में ज्यादा है यधपि तो पांच प्रतिशत व्यक्ति ज्योतिष शास्त्र के अधिकारी विदा्न भी है किन्तु मेलापक का कार्य करने वाले लोगों में अधिकांश लोग इस शास्त्र की पुरी जानकारी नही रखते| जो लोग इस शास्त्र के अच्छे ज्ञाता या विद्वान है सामान्य लोग उनके पास पहुंच नहीं पाते तथा ये विद्वान अपने स्तर से उतर कर कार्य नहीं करते| इन्ही कारणों से मेलापक का कार्य अनेक नीम-हकीम ज्योतिषीयो द्दारा हो जाता है|
कुडंलीयो का मेलापक करना या विधी मिलाना एक जिम्मेदारीपूर्ण कार्य है| जिसमें सुझबुझ की आवश्यकता है| बोलते नाम से नक्षत्र व राशियां ज्ञात कर उनके आधार पर रेडीमेड मेलापक सारणी से गुण संख्या निकाल लेते है यदि 18 से गुण कम हो तो विवाह को अस्वीकृत कर देते है| यदि 18 से ज्यादा गुण हो तो विवाह की स्वीकृति दे देते है यदि जन्मपत्री उपलब्ध हो तो यह देखते हैं कि वर कि कुडंली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्धादश, में मंगल तो नहीं है| अगर मंगल इन्ही भावों में हो तो कन्या की कुडंली में इन्ही भावों में मंगल ढुढते है| यदि कन्या कि कुडंली में इन्ही भावो में मंगल मिला तो गुण-दोष का परिहार बता देते है|
मंगल की बजाय यदि इन्ही भावों में से किसी में शनि, राहु, केतु, या सूर्य मिल जाय तो भी गुण दोष का परिहार बताकर जन्मपत्रियों के मिल जाने की घोषणा 5-10 मिनटों में ही कर देते है| मेलापक करना एक उत्तरदायित्य पूर्ण कार्य है इसे नामधारी ज्योतिषी दो अपरिचित व्यक्तीयो के भावी भाग्य एवं दामपत्य जीवन का फैसला कर देता है यह कैसी विडम्बना है कि आज हर एक पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचक, पुजारी, साधु एवं सन्यासी स्वयं को ज्योतिषी बतलाने में लगा हुआ है| इससे भी दुभाग्य की बात यह है कि जनता ऐसे तथाकथित ज्योतिषीयों के पास अपने भाग्य का निणर्य कराने, मुहूर्त और मेलापक पूछने जाती है तथा ये नामधारी ज्योतिषी लोगों के भाग्य का फैसला चुटकियाँ बजाते-बजाते कर देते है| यही कारण है कि इन लोगों से मेलापक मिलवाने के बाद ही वैवाहिक जीवन सुखमय न होने के असंख्य उदाहरण सामने आते है|
मै यह नहीं कहता कि पण्डित, करमकाण्डी, कथावाचन या पुजारियों में सभी लोग ज्योतिष से अनभिज्ञ होते है इनमें भी कुछ लोग ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञात होते है परन्तु इनकी संख्या प्रतिशत की दष्टि काफी कम है| ज्योतिष को न जानने वाले लोगो की संख्या सवाधिक है|
मेरी राय में मेलापक का विचार ज्योतिष शास्त्र के अच्छे विद्वान से कराना चाहिए| उन्हें विचार करने के लिए भी पुरा अवसर देना चाहिए| मेलापक विचार कोई बच्चों का खेल नहीं है यह एक गूढ़ विषय है, जिसका सावधानी पूवर्क विचार करना चाहिए तथा नक्षत्र मेलापक के साथ-साथ लड़के की कुडंली से स्वास्थ्य, शिक्षा, भाग्य, आयु, चरित्र एवं संतान क्षमता का विचार अवश्य है| कन्या की कुडंली से स्वा स्वास्थ्य, स्वभाव, भाग्य, आयु, चरित्र एवं प्रजनन क्षमता का विचार कर लेना चाहिए|



बाधक योग—–
जन्म कुंडली में 6, 8, 12 स्थानों को अशुभ माना जाता है। मंगल, शनि, राहु-केतु और सूर्य को क्रूर ग्रह माना है। इनके अशुभ स्थिति में होने पर दांपत्य सुख में कमी आती है।
-सप्तमाधिपति द्वादश भाव में हो और राहू लग्न में हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा होना संभव है।
-सप्तम भावस्थ राहू युक्त द्वादशाधिपति से वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है। द्वादशस्थ सप्तमाधिपति और सप्तमस्थ द्वादशाधिपति से यदि राहू की युति हो तो दांपत्य सुख में कमी के साथ ही अलगाव भी उत्पन्न हो सकता है।
-लग्न में स्थित शनि-राहू भी दांपत्य सुख में कमी करते हैं।
-सप्तमेश छठे, अष्टम या द्वादश भाव में हो, तो वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है।
-षष्ठेश का संबंध यदि द्वितीय, सप्तम भाव, द्वितीयाधिपति, सप्तमाधिपति अथवा शुक्र से हो, तो दांपत्य जीवन का आनंद बाधित होता है।
-छठा भाव न्यायालय का भाव भी है। सप्तमेश षष्ठेश के साथ छठे भाव में हो या षष्ठेश, सप्तमेश या शुक्र की युति हो, तो पति-पत्नी में न्यायिक संघर्ष होना भी संभव है।
-यदि विवाह से पूर्व कुंडली मिलान करके उपरोक्त दोषों का निवारण करने के बाद ही विवाह किया गया हो, तो दांपत्य सुख में कमी नहीं होती है। किसी की कुंडली में कौन सा ग्रह दांपत्य सुख में कमी ला रहा है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लें।
विवाह योग के लिये जो कारक मुख्य है वे इस प्रकार हैं-
सप्तम भाव का स्वामी खराब है या सही है वह अपने भाव में बैठ कर या किसी अन्य स्थान पर बैठ कर अपने भाव को देख रहा है।
सप्तम भाव पर किसी अन्य पाप ग्रह की द्रिष्टि नही है।
कोई पाप ग्रह सप्तम में बैठा नही है।
यदि सप्तम भाव में सम राशि है।
सप्तमेश और शुक्र सम राशि में है।
सप्तमेश बली है।
सप्तम में कोई ग्रह नही है।
किसी पाप ग्रह की द्रिष्टि सप्तम भाव और सप्तमेश पर नही है।
दूसरे सातवें बारहवें भाव के स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हैं,और गुरु से द्रिष्ट है।
सप्तमेश की स्थिति के आगे के भाव में या सातवें भाव में कोई क्रूर ग्रह नही है।
विवाह नही होगा अगर—–
सप्तमेश शुभ स्थान पर नही है।
सप्तमेश छ: आठ या बारहवें स्थान पर अस्त होकर बैठा है।
सप्तमेश नीच राशि में है।
सप्तमेश बारहवें भाव में है,और लगनेश या राशिपति सप्तम में बैठा है।
चन्द्र शुक्र साथ हों,उनसे सप्तम में मंगल और शनि विराजमान हों।
शुक्र और मंगल दोनों सप्तम में हों।
शुक्र मंगल दोनो पंचम या नवें भाव में हों।
शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ हो और पंचम या नवें भाव में हो।
शुक्र बुध शनि तीनो ही नीच हों।
पंचम में चन्द्र हो,सातवें या बारहवें भाव में दो या दो से अधिक पापग्रह हों।
सूर्य स्पष्ट और सप्तम स्पष्ट बराबर का हो।
विवाह में देरी—–
सप्तम में बुध और शुक्र दोनो के होने पर विवाह वादे चलते रहते है,विवाह आधी उम्र में होता है।
चौथा या लगन भाव मंगल (बाल्यावस्था) से युक्त हो,सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नही होती है।
सप्तम में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं।
चन्द्रमा से सप्तम में गुरु शादी देर से करवाता है,यही बात चन्द्रमा की राशि कर्क से भी माना जाता है।
सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो,कोई शुभ ग्रह योगकारक नही हो,तो पुरुष विवाह में देरी होती है।
सूर्य मंगल बुध लगन या राशिपति को देखता हो,और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।
लगन में सप्तम में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योग कारक नही हों,परिवार भाव में चन्द्रमा कमजोर हो तो विवाह नही होता है,अगर हो भी जावे तो संतान नही होती है।
महिला की कुन्डली में सप्तमेश या सप्तम शनि से पीडित हो तो विवाह देर से होता है।
राहु की दशा में शादी हो,या राहु सप्तम को पीडित कर रहा हो,तो शादी होकर टूट जाती है,यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है।
विवाह का समय—–
सप्तम या सप्तम से सम्बन्ध रखने वाले ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
कन्या की कुन्डली में शुक्र से सप्तम और पुरुष की कुन्डली में गुरु से सप्तम की दशा में या अन्तर्दशा में विवाह होता है।
सप्तमेश की महादशा में पुरुष के प्रति शुक्र या चन्द्र की अन्तर्दशा में और स्त्री के प्रति गुरु या मंगल की अन्तर्दशा में विवाह होता है।
सप्तमेश जिस राशि में हो,उस राशि के स्वामी के त्रिकोण में गुरु के आने पर विवाह होता है।
गुरु गोचर से सप्तम में या लगन में या चन्द्र राशि में या चन्द्र राशि के सप्तम में आये तो विवाह होता है।
गुरु का गोचर जब सप्तमेश और लगनेश की स्पष्ट राशि के जोड में आये तो विवाह होता है।
सप्तमेश जब गोचर से शुक्र की राशि में आये और गुरु से सम्बन्ध बना ले तो विवाह या शारीरिक सम्बन्ध बनता है।
सप्तमेश और गुरु का त्रिकोणात्मक सम्पर्क गोचर से शादी करवा देता है,या प्यार प्रेम चालू हो जाता है।
चन्द्रमा मन का कारक है,और वह जब बलवान होकर सप्तम भाव या सप्तमेश से सम्बन्ध रखता हो तो चौबीसवें साल तक विवाह करवा ही देता है।
तलाक/विवाह विच्छेद के प्रमुख करक—
राहु तथा केतु गृह–
ज्योतिष शास्त्रानुसार राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं। राहु या केतु जिस भाव में बैठते हैं, उस भाव के स्वामी के समान बन जाते हैं तथा जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उस ग्रह के गुण ग्रहण कर लेते हैं। राहु, शनि के अनुरू प विच्छोदात्मक ग्रह हैं। अत: ये जिस भाव में होता है संबंधित भाव में विच्छेद कर देता है। उदाहरण के लिए ये चौथे भाव में होने पर माता से विच्छेद, पांचवें भाव में होने पर पुत्र से, सप्तम में होने पर पत्नी से, दसवें भाव में होने पर पिता से विच्छेद करा देता है। केतु ग्रह जिस ग्रह के साथ बैठता है उसके प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ा देता है।
ऋषि पराशर मत में राहु की उच्च राशि वृषभ तथा केतु की उच्च राशि वृश्चिक मानी गई है। अन्य ज्योतिषियों ने राहु की उच्च राशि मिथुन तथा केतु की उच्च राशि धनु मानी है। वर्तमान में यही मत प्रभावी है। अत: ये दोनों ग्रह अपना शुभाशुभ फल किसी अन्य ग्रह के सहयोग से दे पाते हैं। तीसरे, छठे, दसवें भाव का कारक ग्रह राहु है। दूसरे तथा आठवें भाव का कारक ग्रह केतु है। राहु-केतु से निर्मित विशिष्ट अशुभ योग- [1] जब चंद्र, सूर्य ग्रह राहु के संसर्ग में आते हैं, तो कुंडली में ग्रहण योग निर्मित होता है। जो कि एक अशुभ योग है।
[2] राहु और केतु के मध्य सभी ग्रह आ जाने पर कुंडली में कालसर्प योग निर्मित होता है।
सावधानी: इस योग के अध्ययन में ध्यान रखना चाहिए कि राहु मुख का कारक है। जब ग्रह केतु से राहु की ओर अग्रसर होते हैं, तो उस स्थिति में सभी ग्रहों का ग्रहण काल की ओर अग्रसर होना कहलाता है। वे ग्रह राहु के मुख में जाकर पीडि़त होते हैं। [यह एक अशुभ योग है]।
जब ग्रह राहु से केतु के मध्य होते हैं, तो उस स्थिति को ग्रहण से मुक्ति की स्थिति कहते हैं। क्योंकि सभी ग्रह राहु के मुख से बाहर की ओर अग्रसर होते हैं। अगर कुंडली में ये योग पाए जाते हैं, तो भी डरने की आवश्यकता नहीं है।
मंगल का सप्तम में प्रभाव—
मंगल का सप्तम में होना पति या पत्नी के लिये हानिकारक माना जाता है,उसका कारण होता है कि पति या पत्नी के बीच की दूरिया केवल इसलिये हो जाती है क्योंकि पति या पत्नी के परिवार वाले जिसके अन्दर माता या पिता को यह मंगल जलन या गुस्सा देता है,जब भी कोई बात बनती है तो पति या पत्नी के लिये सोचने लायक हो जाती है,और अक्सर पारिवारिक मामलों के कारण रिस्ते खराब हो जाते है। पति की कुंडली में सप्तम भाव मे मंगल होने से पति का झुकाव अक्सर सेक्स के मामलों में कई महिलाओं के साथ हो जाता है,और पति के कामों के अन्दर काम भी उसी प्रकार के होते है जिनसे पति को महिलाओं के सानिध्य मे आना पडता है। पति के अन्दर अधिक गर्मी के कारण किसी भी प्रकार की जाने वाली बात को धधकते हुये अंगारे की तरफ़ मारा जाता है,जिससे पत्नी का ह्रदय बातों को सुनकर विदीर्ण हो जाता है,अक्सर वह मानसिक बीमारी की शिकार हो जाती है,उससे न तो पति को छोडा जा सकता है और ना ही ग्रहण किया जा सकता है,पति की माता और पिता को अधिक परेशानी हो जाती है,माता के अन्दर कितनी ही बुराइयां पत्नी के अन्दर दिखाई देने लगती है,वह बात बात में पत्नी को ताने मारने लगती है,और घर के अन्दर इतना क्लेश बढ जाता है कि पिता के लिये असहनीय हो जाता है,या तो पिता ही घर छोड कर चला जाता है,अथवा वह कोर्ट केश आदि में चला जाता है,इस प्रकार की बातों के कारण पत्नी के परिवार वाले सम्पूर्ण जिन्दगी के लिये पत्नी को अपने साथ ले जाते है। पति की दूसरी शादी होती है,और दूसरी शादी का सम्बन्ध अक्सर कुंडली के दूसरे भाव से सातवें और ग्यारहवें भाव से होने के कारण दूसरी पत्नी का परिवार पति के लिये चुनौती भरा हो जाता है,और पति के लिये दूसरी पत्नी के द्वारा उसके द्वारा किये जाने वाले व्यवहार के कारण वह धीरे धीरे अपने कार्यों से अपने व्यवहार से पत्नी से दूरियां बनाना शुरु कर देता है,और एक दिन ऐसा आता है कि दूसरी पत्नी पति पर उसी तरह से शासन करने लगती है जिस प्रकार से एक नौकर से मालिक व्यवहार करता है,जब भी कोई बात होती है तो पत्नी अपने बच्चों के द्वारा पति को प्रताणित करवाती है,पति को मजबूरी से मंगल की उम्र निकल जाने के कारण सब कुछ सुनना पडता है।



मंगली दोष के उपाय—-
लगन दूसरे भाव चतुर्थ भाव सप्तम भाव और बारहवें भाव के मंगल के लिये वैदिक उपाय बताये गये है,सबसे पहला उपाय तो मंगली जातक के साथ मंगली जातक की ही शादी करनी चाहिये। लेकिन एक जातक मंगली और उपरोक्त कारण अगर मिलते है तो दूसरे मे देखना चाहिये कि मंगल को शनि के द्वारा कहीं द्रिष्टि तो नही दी गयी है,कारण शनि ठंडा ग्रह है और जातक के मंगल को शांत रखने के लिये काफ़ी हद तक अपना कार्य करता है,दूसरे पति की कुंडली में मंगल असरकारक है और पत्नी की कुंडली में मंगल असरकारक नहीं है तो शादी नही करनी चाहिये। वैसे मंगली पति और पत्नी को शादी के बाद लालवस्त्र पहिन कर तांबे के लोटे में चावल भरने के बाद लोटे पर सफ़ेद चन्दन को पोत कर एक लाल फ़ूल और एक रुपया लोटे पर रखकर पास के किसी हनुमान मन्दिर में रख कर आना चाहिये। चान्दी की चौकोर डिब्बी में शहद भरकर रखने से भी मंगल का असर कम हो जाता है,घर में आने वाले महिमानों को मिठाई खिलाने से भी मंगल का असर कम रहता है,मंगल शनि और चन्द्र को मिलाकर दान करने से भी फ़ायदा मिलता है,मंगल से मीठी शनि से चाय और चन्द्र से दूध से बनी पिलानी चाहिये।



सातवें भाव का अर्थ—-
जन्म कुन्डली का सातंवा भाव विवाह पत्नी ससुराल प्रेम भागीदारी और गुप्त व्यापार के लिये माना जाता है। सातवां भाव अगर पापग्रहों द्वारा देखा जाता है,उसमें अशुभ राशि या योग होता है,तो स्त्री का पति चरित्रहीन होता है,स्त्री जातक की कुंडली के सातवें भाव में पापग्रह विराजमान है,और कोई शुभ ग्रह उसे नही देख रहा है,तो ऐसी स्त्री पति की मृत्यु का कारण बनती है,परंतु ऐसी कुंडली के द्वितीय भाव में शुभ बैठे हों तो पहले स्त्री की मौत होती है,सूर्य और चन्द्रमा की आपस की द्रिष्टि अगर शुभ होती है तो पति पत्नी की आपस की सामजस्य अच्छी बनती है,और अगर सूर्य चन्द्रमा की आपस की १५० डिग्री,१८० डिग्री या ७२ डिग्री के आसपास की युति होती है तो कभी भी किसी भी समय तलाक या अलगाव हो सकता है।केतु और मंगल का सम्बन्ध किसी प्रकार से आपसी युति बना ले तो वैवाहिक जीवन आदर्शहीन होगा,ऐसा जातक कभी भी बलात्कार का शिकार हो सकता है,स्त्री की कुंडली में सूर्य सातवें स्थान पर पाया जाना ठीक नही होता है,ऐसा योग वैवाहिक जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है,केवल गुण मिला देने से या मंगलीक वाली बातों को बताने से इन बातों का फ़ल सही नही मिलता है,इसके लिये कुंडली के सातंवे भाव का योगायोग देखना भी जरूरी होता है।



सातवां भाव और पति पत्नी—-
सातवें भाव को लेकर पुरुष जातक के योगायोग अलग बनते है,स्त्री जातक के योगायोग अलग बनते है,विवाह करने के लिये सबसे पहले शुक्र पुरुष कुंडली के लिए और मंगल स्त्री की कुन्डली के लिये देखना जरूरी होता है,लेकिन इन सबके बाद चन्द्रमा को देखना भी जरूरी होता है,मनस्य जायते चन्द्रमा,के अनुसार चन्द्रमा की स्थिति के बिना मन की स्थिति नही बन पाता है। पुरुष कुंडली में शुक्र के अनुसार पत्नी और स्त्री कुंडली में मंगल के अनुसार पति का स्वभाव सामने आ जाता है।



स्त्री कुन्डली में ग्रह-फ़ल—
House Sun Moon Mars Mercury Jupiter Venus Saturn Rahu Ketu
1st क्रोधी अल्पायु विधवा भाग्यवान परिव्रता सुखी बांझ नि:संतान दुखी
2nd गरीब धनी नि:संतान धनी धनी भाग्यवान दुखी गरीब कपटी चिंतित
3rd संतान अच्छी सुखी भाई नही संतान सहित अच्छे भाई धनी होशियार धनी रोगी
4th रोगी दुर्भागिन दुखी अच्छे घरवाली सुखी सुखी करुणावाली रोगी माता को कष्ट
5th पुत्र से दुखी अच्छी संतान नि:संतान समझदार कलाकुशल बहुसंतान नि:संतान नि:संतान संतान से दुख
6th सुखी रोगी स्वस्थ क्रोधी संकटवाली गरीब शिल्पी धनी धनी
7th दुखी पतिप्रिया विधवा पतिव्रता इज्जतदार पतिप्रिया विधवा दुखी पति से दुखी
8th विधवा दुखी चरित्रहीन कृतघ्न रोगी दुखी दुखी पति से दुखी दुखी
9th धार्मिक बेकार संतान शुभकार्य शिष्ट धनी आचारहीन दुष्कर्मा दुष्कर्मा चिन्तित
10th उच्चाभिलाषी धार्मिक बेकार संतान शुभकार्य सुशील धनी आचारहीन दुष्कर्मा आचारहीन
11th धनी कलाकुशल धनी पतिव्रता शिष्ट संतान अतिधनी शिष्ट संतान स्वस्थ भाग्यवान
12th क्रोधी अपंग पापिनी वैरागिन शुभव्यय शुभकार्य मूर्ख मक्कार बीमार



पुरुष कुण्डली में ग्रह फ़ल—-
भाव सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु
1st बहादुर सुखी घायल सुखी विद्वान सुखी दुखी बीमार अय्याश
2nd गरीब धनी ऋणी विद्वान धनी धनी निर्धन निर्धन पापी
3rd स्वस्थ सराहनीय साहसी विजयी पापी पापी साहसी साहसी बहादुर
4th दुखी सुखी दुखी सुखी सुखी सुखी दुखी घर में अशुभ दुखी
5th कम संतान बहुसंतान नि:संतान निकम्मी संतान प्रतापी बुद्धिमान संतान से कष्ट कुबुद्धि निर्बुद्धि
6th विजयी अल्पायु विजयी बीमार अय्याश रोगी विजयी बहादुर शक्तिवान
7th कुलटा स्त्री सुभार्या पत्नी से कष्ट धर्मात्मा सुभार्या अय्याश कुलटा स्त्री रोगी पत्नी कुभार्या
8th अल्पायु रोगी शरारती कलाकुशल अल्पायु आचारहीन नेत्ररोगी रोगी कलहकर्ता
9th अधर्मी धर्मी आचारहीन सुखी धर्मी तपस्वी अधर्मी वक्ता कुलपालक
10th बहादुर पितृहीन कटुवक्ता राजपुरुष अधर्मी स्त्रीपालक गरीब इज्जतदार पिता को कष्ट
11th धनी धनी धनी धनी धनी बुद्धिमान धनी विख्यात धनी
12th मूडी कामी कुभार्या गरीब कपटी रोगी दुखी कुजाति दु:स्वभाव



कुण्डली में प्रेम विवाह—-
ज्योतिषशास्त्र में “शुक्र ग्रह” को प्रेम का कारक माना गया है । कुण्डली में लग्न, पंचम, सप्तम तथा एकादश भावों से शुक्र का सम्बन्ध होने पर व्यक्ति में प्रेमी स्वभाव का होता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पंचम भाव प्रेम का भाव होता है और सप्तम भाव विवाह का। पंचम भाव का सम्बन्ध जब सप्तम भाव से होता है तब दो प्रेमी वैवाहिक सूत्र में बंधते हैं। नवम भाव से पंचम का शुभ सम्बन्ध होने पर भी दो प्रेमी पति पत्नी बनकर दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त करते हैं।
पंचम भाव का स्वामी पंचमेश शुक्र अगर सप्तम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बनती है । शुक्र अगर अपने घर में मौजूद हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है।
शुक्र अगर लग्न स्थान में स्थित है और चन्द्र कुण्डली में शुक्र पंचम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह संभव होता है। अगर कुण्डली में प्रेम विवाह योग नहीं है और नवमांश कुण्डली में सप्तमेश और नवमेश की युति होती है तो प्रेम विवाह की संभावना 100 प्रतिशत बनती है। शुक्र ग्रह लग्न में मौजूद हो और साथ में लग्नेश हो तो प्रेम विवाह निश्चित समझना चाहिए । शनि और केतु पाप ग्रह कहे जाते हैं लेकिन सप्तम भाव में इनकी युति प्रेमियों के लिए शुभ संकेत होता है। राहु अगर लग्न में स्थित है तोनवमांश कुण्डली या जन्म कुण्डली में से किसी में भी सप्तमेश तथा पंचमेश का किसी प्रकार दृष्टि या युति सम्बन्ध होने पर प्रेम विवाह होता है। लग्न भाव में लग्नेश हो साथ में चन्द्रमा की युति हो अथवा सप्तम भाव में सप्तमेश के साथ चन्द्रमा की युति हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है। सप्तम भाव का स्वामी अगर अपने घर में है तब स्वगृही सप्तमेश प्रेम विवाह करवाता है। एकादश भाव पापी ग्रहों के प्रभाव में होता है तब प्रेमियों का मिलन नहीं होता है और पापी ग्रहों के अशुभ प्रभाव से मुक्त है तो व्यक्ति अपने प्रेमी के साथ सात फेरे लेता है। प्रेम विवाह के लिए सप्तमेश व एकादशेश में परिवर्तन योग के साथ मंगल नवम या त्रिकोण में हो या फिर द्वादशेश तथा पंचमेश के मध्य राशि परिवर्तन हो तब भी शुभ और अनुकूल परिणाम मिलता है।



क्या उपाय करें–



आज दांपत्य जीवन की सबसे बड़ी समस्या हैं पति-पत्नी के बीच छोटे-छोटे विवाद। कभी-कभी यही छोटे-छोटे विवाद तलाक का कारण बनते हैं। तलाक के कारण क्या-क्या हैं? ऐसा क्यों होता है? क्यों कुछ दंपत्ति अपना दांपत्य जीवन का निर्वाह ठीक ढंग से कर नहीं पाते? ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसका कारण जन्म पत्रिका का सप्तम स्थान होता है। कुण्डली के इस स्थान में यदि सूर्य, गुरु, राहु, मंगल, शनि जैसे ग्रह हो या इस स्थान पर इनकी दृष्टि हो तो जातक का वैवाहिक जीवन परेशानियों से भरा होता है। सप्तम स्थान पर सूर्य का होना निश्चित ही तलाक का कारण है। गुरु के सप्तम होने पर विवाह तीस वर्ष की आयु के पश्चात करना उत्तम होता है। इसके पहले विवाह करने पर विवाह विच्छेद होता हैं या तलाक का भय बना रहता है। मंगल तथा शनि सप्तम होने पर पति-पत्नी के मध्य अवांछित विवाद होते हैं। राहु सप्तम होने पर जीवन साथी व्यभिचारी होता है। इस कारण उनके मध्य विवाद उत्पन्न होते हैं, जिनसे तलाक होने की संभावना बढ़ जाती है।एक परिवार में पति-पत्नी में अथाह प्रेम है। दोनों एक दूसरे के लिए पूर्ण समर्पित हैं। आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हैं। अचानक उनमें कटुता व तनाव उत्पन्न हो जाता है। जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के लिए पूर्ण सम्मान रखते थे, आज उनमें झगड़ा हो गया है। स्थिति तलाक की आ गई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ?




घर-परिवार में बाधा के लक्षण

परिवार में अशांति और कलह।
बनते काम का ऐन वक्त पर बिगड़ना।
आर्थिक परेशानियां।
योग्य और होनहार बच्चों के रिश्तों में अनावश्यक अड़चन।
विषय विशेष पर परिवार के सदस्यों का एकमत न होकर अन्य मुद्दों पर कुतर्क करके आपस में कलह कर विषय से भटक जाना।
परिवार का कोई न कोई सदस्य शारीरिक दर्द, अवसाद, चिड़चिड़ेपन एवं निराशा का शिकार रहता हो।
घर के मुख्य द्वार पर अनावश्यक गंदगी रहना।
इष्ट की अगरबत्तियां बीच में ही बुझ जाना।
भरपूर घी, तेल, बत्ती रहने के बाद भी इष्ट का दीपक बुझना या खंडित होना।
पूजा या खाने के समय घर में कलह की स्थिति बनना।
व्यक्ति विशेष का बंधन—
हर कार्य में विफलता।
हर कदम पर अपमान।
दिल और दिमाग का काम नहीं करना।
घर में रहे तो बाहर की और बाहर रहे तो घर की सोचना।
शरीर में दर्द होना और दर्द खत्म होने के बाद गला सूखना।
इष्ट पर आस्था और विश्वास रखें।
हमें मानना होगा कि भगवान दयालु है। हम सोते हैं पर हमारा भगवान जागता रहता है। वह हमारी रक्षा करता है। जाग्रत अवस्था में तो वह उपर्युक्त लक्षणों द्वारा हमें बाधाओं आदि का ज्ञान करवाता ही है, निद्रावस्था में भी स्वप्न के माध्यम से संकेत प्रदान कर हमारी मदद करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम होश व मानसिक संतुलन बनाए रखें। हम किसी भी प्रतिकूल स्थिति में अपने विवेक व अपने इष्ट की आस्था को न खोएं, क्योंकि विवेक से बड़ा कोई साथी और भगवान से बड़ा कोई मददगार नहीं है। इन बाधाओं के निवारण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं।
उपाय : पूजा एवं भोजन के समय कलह की स्थिति बनने पर घर के पूजा स्थल की नियमित सफाई करें और मंदिर में नियमित दीप जलाकर पूजा करें। एक मुट्ठी नमक पूजा स्थल से वार कर बाहर फेंकें, पूजा नियमित होनी चाहिए।
स्वयं की साधना पर ज्यादा ध्यान दें।
गलतियों के लिये इष्ट से क्षमा मांगें।
इष्ट को जल अर्पित करके घर में उसका नित्य छिड़काव करें।
जिस पानी से घर में पोछा लगता है, उसमें थोड़ा नमक डालें।
कार्य क्षेत्र पर नित्य शाम को नमक छिड़क कर प्रातः झाडू से साफ करें।
घर और कार्यक्षेत्र के मुख्य द्वार को साफ रखें।
हिंदू धर्मावलंबी हैं, तो गुग्गुल की और मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं, तो लोबान की धूप दें।
व्यक्तिगत बाधा निवारण के लिए उपाय —-
व्यक्तिगत बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक लेकर शाम को अपने सिर के ऊपर से तीन बार उतार लें औरउसे दरवाजे के बाहर फेंकें। ऐसा तीन दिन लगातार करें। यदि आराम न मिले तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डालकर फ्लश चला दें। निश्चित रूप से लाभ मिलेगा।
हमारी या हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की ग्रह स्थिति थोड़ी सी भी अनुकूल होगी तो हमें निश्चय ही इन उपायों से भरपूर लाभ मिलेगा।
अपने पूर्वजों की नियमित पूजा करें। प्रति माह अमावस्या को प्रातःकाल ५ गायों को फल खिलाएं।
गृह बाधा की शांति के लिए पश्चिमाभिमुख होकर क्क नमः शिवाय मंत्र का २१ बार या २१ माला श्रद्धापूर्वक जप करें।
यदि बीमारी का पता नहीं चल पा रहा हो और व्यक्ति स्वस्थ भी नहीं हो पा रहा हो, तो सात प्रकार के अनाज एक-एक मुट्ठी लेकर पानी में उबाल कर छान लें। छने व उबले अनाज (बाकले) में एक तोला सिंदूर की पुड़िया और ५० ग्राम तिल का तेल डाल कर कीकर (देसी बबूल) की जड़ में डालें या किसी भी रविवार को दोपहर १२ बजे भैरव स्थल पर चढ़ा दें।
बदन दर्द हो, तो मंगलवार को हनुमान जी के चरणों में सिक्का चढ़ाकर उसमें लगी सिंदूर का तिलक करें।
पानी पीते समय यदि गिलास में पानी बच जाए, तो उसे अनादर के साथ फेंकें नहीं, गिलास में ही रहने दें। फेंकने से मानसिक अशांति होगी क्योंकि पानी चंद्रमा का कारक है।
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के जीवन के 16 महत्वपूर्ण संस्कार बताए गए हैं, इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार में से एक है विवाह संस्कार। सामान्यत: बहुत कम लोगों को छोड़कर सभी लोगों का विवाह अवश्य ही होता है। शादी के बाद सामान्य वाद-विवाद तो आम बात है लेकिन कई बार छोटे झगड़े भी तलाक तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों को दूर रखने के लिए ज्योतिषियों और घर के बुजूर्गों द्वारा एक उपाय बताया जाता है।



अक्सर परिवार से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए मां पार्वती की आराधना की बात कही जाती है। शास्त्रों के अनुसार परिवार से जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या के लिए मां पार्वती भक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। मां पार्वती की प्रसन्नता के साथ ही शिवजी, गणेशजी आदि सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। अत: सभी प्रकार के ग्रह दोष भी समाप्त हो जाते हैं।



ज्योतिष के अनुसार कुंडली में कुछ विशेष ग्रह दोषों के प्रभाव से वैवाहिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में उन ग्रहों के उचित ज्योतिषीय उपचार के साथ ही मां पार्वती को प्रतिदिन सिंदूर अर्पित करना चाहिए। सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। जो भी व्यक्ति नियमित रूप से देवी मां की पूजा करता है उसके जीवन में कभी भी पारिवारिक क्लेश, झगड़े, मानसिक तनाव की स्थिति निर्मित नहीं होती है।
– सप्तम स्थान में स्थित क्रूर ग्रह का उपाय कराएं।



– मंगल का दान करें ।



– गुरुवार का व्रत करें।



– माता पार्वती का पूजन करें।



– सोमवार का व्रत करें।



– प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं और पीपल की परिक्रमा करें।



सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र




किसी भी श्रद्धा-विश्वास-युक्त स्त्री के द्वारा स्नानादि से शुद्ध होकर सूर्योदय से पहले नीचे लिखे मन्त्र की १० माला प्रतिदिन जप किये जाने से घर में सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है तथा उसका सौभाग्य बना रहता है। किसी शुभ दिन जप का आरम्भ करना चाहिये तथा प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में विधिपूर्वक हवन करवा कर यथाशक्ति कुमारी, वटुक आदि को भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिये। इस मन्त्र के हवन में समिधा केवल वट-वृक्ष की लेनी चाहिये।



मन्त्रः- ” ॐॐ ह्रीं ॐ क्रीं ह्रीं ॐ स्वाहा।”



साथ ही नीचे लिखे “सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र” का प्रतिदिन कम-से-कम एक पाठ करना चाहिये। इससे सौभाग्य की रक्षा होती है।



सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र—



निशम्यैतज्जामदग्न्यो माहात्म्यं सर्वतोऽधिकम्।
स्तोत्रस्य भूयः पप्रच्छ दत्तात्रेयं गुरुत्तमम्।।१
भगवंस्त्वन्मुखाम्भोजनिर्गमद्वाक्सुधारसम्।
पिबतः श्रोत्रमुखतो वर्धतेऽनुरक्षणं तृषा।।२
अष्टोत्तरशतं नाम्नां श्रीदेव्या यत्प्रसादतः।
कामः सम्प्राप्तवाँल्लोके सौभाग्यं सर्वमोहनम्।।३
सौभाग्यविद्यावर्णानामुद्धारो यत्र संस्थितः।
तत्समाचक्ष्व भगवन् कृपया मयि सेवके।।४
निशम्यैवं भार्गवोक्तिं दत्तात्रेयो दयानिधिः।
प्रोवाच भार्गवं रामं मधुराक्षरपूर्वकम्।।५
श्रृणु भार्गव यत्पृष्टं नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
श्रीविद्यावर्णरत्नानां निधानमिव संस्थितम्।।६
श्रीदेव्या बहुधा सन्ति नामानि श्रृणु भार्गव।
सहस्त्रशतसंख्यानि पुराणेष्वागमेषु च।।७
तेषु सारतरं ह्येतत् सौभाग्याष्टोत्तरात्मकम्।
यदुवाच शिवः पूर्वं भवान्यै बहुधार्थितः।।८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य भार्गव।
ऋषिरुक्तः शिवश्छन्दोऽनुष्टुप् श्रीललिताम्बिका।।९
देवता विन्यसेत् कूटत्रयेणावर्त्य सर्वतः।
ध्यात्वा सम्पूज्य मनसा स्तोत्रमेतदुदीरयेत्।।१०
।।अथ नाममन्त्राः।।
ॐ कामेश्वरी कामशक्तिः कामसौभाग्यदायिनी।
कामरुपा कामकला कामिनी कमलासना।।११
कमला कल्पनाहीना कमनीय कलावती।
कमलाभारतीसेव्या कल्पिताशेषसंसृतिः।।१२
अनुत्तरानघानन्ताद्भुतरुपानलोद्भवा।
अतिलोकचरित्रातिसुन्दर्यतिशुभप्रदा।।१३
अघहन्त्र्यतिविस्तारार्चनतुष्टामितप्रभा।
एकरुपैकवीरैकनाथैकान्तार्चनप्रिया।।१४
एकैकभावतुष्टैकरसैकान्तजनप्रिया।
एधमानप्रभावैधद्भक्तपातकनाशिनी।।१५
एलामोदमुखैनोऽद्रिशक्रायुधसमस्थितिः।
ईहाशून्येप्सितेशादिसेव्येशानवरांगना।।१६
ईश्वराज्ञापिकेकारभाव्येप्सितफलप्रदा।
ईशानेतिहरेक्षेषदरुणाक्षीश्वरेश्वरी।।१७
ललिता ललनारुपा लयहीना लसत्तनुः।
लयसर्वा लयक्षोणिर्लयकर्त्री लयात्मिका।।१८
लघिमा लघुमध्याढ्या ललमाना लघुद्रुता।
हयारुढा हतामित्रा हरकान्ता हरिस्तुता।।१९
हयग्रीवेष्टदा हालाप्रिया हर्षसमुद्धता।
हर्षणा हल्लकाभांगी हस्त्यन्तैश्वर्यदायिनी।।२०
हलहस्तार्चितपदा हविर्दानप्रसादिनी।
रामा रामार्चिता राज्ञी रम्या रवमयी रतिः।।२१
रक्षिणी रमणी राका रमणीमण्डलप्रिया।
रक्षिताखिललोकेशा रक्षोगणनिषूदिनी।।२२
अम्बान्तकारिण्यम्भोजप्रियान्तभयंकरी।
अम्बुरुपाम्बुजकराम्बुजजातवरप्रदा।।२३
अन्तःपूजाप्रियान्तःस्थरुपिण्यन्तर्वचोमयी।
अन्तकारातिवामांकस्थितान्तस्सुखरुपिणी।।२४
सर्वज्ञा सर्वगा सारा समा समसुखा सती।
संततिः संतता सोमा सर्वा सांख्या सनातनी ॐ।।२५
।।फलश्रुति।।
एतत् ते कथितं राम नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
अतिगोप्यमिदं नाम्नां सर्वतः सारमुद्धृतम्।।२६
एतस्य सदृशं स्तोत्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।
अप्रकाश्यमभक्तानां पुरतो देवताद्विषाम्।।२७
एतत् सदाशिवो नित्यं पठन्त्यन्ये हरादयः।
एतत्प्भावात् कंदर्पस्त्रैलोक्यं जयति क्षणात्।।२८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं मनोहरम्।
यस्त्रिसंध्यं पठेन्नित्यं न तस्य भुवि दुर्लभम्।।२९
श्रीविद्योपासनवतामेतदावश्यकं मतम्।
सकृदेतत् प्रपठतां नान्यत् कर्म विलुप्यते।।३०
अपठित्वा स्तोत्रमिदं नित्यं नैमित्तिकं कृतम्।
व्यर्थीभवति नग्नेन कृतं कर्म यथा तथा।।३१
सहस्त्रनामपाठादावशक्तस्त्वेतदीरयेत्।
सहस्त्रनामपाठस्य फलं शतगुणं भवेत्।।३२
सहस्त्रधा पठित्वा तु वीक्षणान्नाशयेद्रिपून्।
करवीररक्तपुष्पैर्हुत्वा लोकान् वशं नयेत्।।३३
स्तम्भेत् पीतकुसुमैर्णीलैरुच्चाटयेद् रिपून्।
मरिचैर्विद्वेषणाय लवंगैर्व्याधिनाशने।।३४
सुवासिनीर्ब्राह्मणान् वा भोजयेद् यस्तु नामभिः।
यश्च पुष्पैः फलैर्वापि पूजयेत् प्रतिनामभिः।३५
चक्रराजेऽथवान्यत्र स वसेच्छ्रीपुरे चिरम्।
यः सदाऽऽवर्तयन्नास्ते नामाष्टशतमुत्तमम्।।३६
तस्य श्रीललिता राज्ञी प्रसन्ना वाञ्छितप्रदा।
एतत्ते कथितं राम श्रृणु त्वं प्रकृतं ब्रुवे।।३७
।।श्रीत्रिपुरारहस्ये श्रीसौभाग्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं।।
शुभ ग्रह हमेशा शुभ नहीं होते(पति पत्नी में अलगाव के ज्योतिषीय कारण )—
ज्योतिषीय नियम है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल का ह्वास और शुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल की समृद्धि होती है। जैसे, मानसागरी में वर्णन है कि केन्द्र भावगत बृहस्पति हजारों दोषों का नाशक होता है। किन्तु, विडंबना यह है कि सप्तम भावगत बृहस्पति जैसा शुभ ग्रह जो स्त्रियों के सौभाग्य और विवाह का कारक है, वैवाहिक सुख के लिए दूषित सिद्ध हुआ हैं।
यद्यपि बृहस्पति बुद्धि, ज्ञान और अध्यात्म से परिपूर्ण एक अति शुभ और पवित्र ग्रह है, मगर कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति वैवाहिक जीवन के सुखों का हंता है। सप्तम भावगत बृहस्पति की दृष्टि लग्न पर होने से जातक सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान, स्वाभिमानी और कर्मठ तथा अनेक प्रगतिशील गुणों से युक्त होता है, किन्तु ‘स्थान हानि करे जीवा’ उक्ति के अनुसार यह यौन उदासीनता के रूप में सप्तम भाव से संबन्धित सुखों की हानि करता है। प्राय: शनि को विलंबकारी माना जाता है, मगर स्त्रियों की कुंडली के सप्तम भावगत बृहस्पति से विवाह में विलंब ही नहीं होता, बल्कि विवाह की संभावना ही न्यून होती है।
यदि विवाह हो जाये तो पति-पत्नी को मानसिक और दैहिक सुख का ऐसा अभाव होता है, जो उनके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ जाता हैं। वैद्यनाथ ने जातक पारिजात, अध्याय 14, श्लोक 17 में लिखा है, ‘नीचे गुरौ मदनगे सति नष्ट दारौ’ अर्थात् सप्तम भावगत नीच राशिस्थ बृहस्पति से जातक की स्त्री मर जाती है। कर्क लग्न की कुंडलियों में सप्तम भाव गत बृहस्पति की नीच राशि मकर होती है। व्यवहारिक रूप से उपयरुक्त कथन केवल कर्क लग्न वालों के लिए ही नहीं है, बल्कि कुंडली के सप्तम भाव अधिष्ठित किसी भी राशि में बृहस्पति हो, उससे वैवाहिक सुख अल्प ही होते हैं।
एक नियम यह भी है कि किसी भाव के स्वामी की अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर स्थिति से उस भाव के फलों का नाश होता है। सप्तम से षष्ठ स्थान पर द्वादश भाव- भोग का स्थान और सप्तम से अष्टम द्वितीय भाव- धन, विद्या और परिवार तथा उनसे प्राप्त सुखों का स्थान है। यद्यपि इन भावों में पाप ग्रह अवांछनीय हैं, किन्तु सप्तमेश के रूप में शुभ ग्रह भी चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र किसी भी राशि में हों, वैवाहिक सुख हेतु अवांछनीय हैं। चंद्रमा से न्यूनतम और शुक्र से अधिकतम वैवाहिक दुख होते हैं। दांपत्य जीवन कलह से दुखी पाया गया, जिन्हें तलाक के बाद द्वितीय विवाह से सुखी जीवन मिला।
पुरुषों की कुंडली में सप्तम भावगत बुध से नपुंसकता होती है। यदि इसके संग शनि और केतु की युति हो तो नपुंसकता का परिमाण बढ़ जाता है। ऐसे पुरुषों की स्त्रियां यौन सुखों से मानसिक एवं दैहिक रूप से अतृप्त रहती हैं, जिसके कारण उनका जीवन अलगाव या तलाक हेतु संवेदनशील होता है। सप्तम भावगत बुध के संग चंद्रमा, मंगल, शुक्र और राहु से अनैतिक यौन क्रियाओं की उत्पत्ति होती है, जो वैवाहिक सुख की नाशक है।
‘‘यदि सप्तमेश बुध पाप ग्रहों से युक्त हो, नीचवर्ग में हो, पाप ग्रहों से दृष्ट होकर पाप स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की स्त्री पति और कुल की नाशक होती है।’’सप्तम भाव के अतिरिक्त द्वादश भाव भी वैवाहिक सुख का स्थान हैं। चंद्रमा और शुक्र दो भोगप्रद ग्रह पुरुषों के विवाह के कारक है। चंद्रमा सौन्दर्य, यौवन और कल्पना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण उत्पन्न करता है।
दो भोगप्रद तत्वों के मिलने से अतिरेक होता है। अत: सप्तम और द्वादश भावगत चंद्रमा अथवा शुक्र के स्त्री-पुरुषों के नेत्रों में विपरीत लिंग के प्रति कुछ ऐसा आकर्षण होता है, जो उनके अनैतिक यौन संबन्धों का कारक बनता है। यदि शुक्र -मिथुन या कन्या राशि में हो या इसके संग कोई अन्य भोगप्रद ग्रह जैसे चंद्रमा, मंगल, बुध और राहु हो, तो शुक्र प्रदान भोगवादी प्रवृति में वृद्धि अनैतिक यौन संबन्धों की उत्पत्ति करती है।
ऐसे व्यक्ति न्यायप्रिय, सिद्धांतप्रिय और दृढ़प्रतिज्ञ नहीं होते बल्कि चंचल, चरित्रहीन, अस्थिर बुद्धि, अविश्वासी, व्यवहारकुशल मगर शराब, शबाब, कबाब, और सौंदर्य प्रधान वस्तुओं पर अपव्यय करने वाले होते हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों का गृहस्थ जीवन सुखी रह सकता है? कदापि नहीं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों की भांति शुभ ग्रहों की विशेष स्थिति से वैवाहिक सुख नष्ट होते हैं।
इन कुंडलियों को देखते हैं—
कुंडली 1
एक उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छे पद पर कार्यरत युवती का विवाह 21अक्टूबर 1996 को हुआ और फिर परस्पर वैचारिक मतभेद एवं अहं भाव के कारण दो वर्ष बाद नवंबर 1998 में तलाक हो गया, क्यों? सप्तम भावगत बृहस्पति, द्वादश भावगत सप्तमेश और सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि इसके दोषी हैं। राजवधू डायना की कुंडली के सप्तम भावगत शुक्र से यौन शक्ति का अतिरेक उत्पन्न हुआ, जिसके कारण उनके अनेक व्यक्तियों से यौन संबन्ध स्थापित हुए और अन्तत: अपनी मानसिक एवं दैहिक सुखों की अन्यत्र तृप्ति हेतु उन्होंने राजमहल के सुखों का त्याग कर दिया।
कुंडली 2
इसके द्वादश भावगत मिथुन राशिस्थ शुक्र के संग बुध और केतु से जातक का भोगवादी स्वभाव चरम सीमा पर है। सप्तम भाव पर तीन मित्र,सूर्य, मंगल और बृहस्पतिद्ध मगर दूषित ग्रहों की दृष्टि से सप्तम भाव पीड़ित है। उच्च राशिस्थ बृहस्पति की मूलत्रिकोण धनु राशि षष्ठ भाव में है, इसलिए षष्ठेश के रूप में बृहस्पति से लग्न भाव भी दूषित है और इसकी पंचम, सप्तम एवं नवम सभी दृष्टियां निष्फल है, जिसके कारण यह व्यक्ति विद्या, पुत्र, रोजगार और भाग्य समृद्धि से वंचित है। इसके अनेक युवतियों से अनैतिक यौन संबन्ध स्थापित हुए। इसने अपने घर-परिवार के स्थापन और व्यवसायिक कार्यों पर कभी ध्यान केन्द्रित नहीं किया, बल्कि अपना सारा धन शराब, शबाब और लाटरी-सट्टा के माध्यम से नष्ट कर दिया। इसका विवाह 40 वर्ष की उम्र में हुआ।
कुंडली 3
तमिलनाडू की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की कुंडली में सप्तम भावगत स्वगृही और पाप ग्रहों से मुक्त बृहस्पति से बलवान हंस योग, दशम भावगत उच्च राशिस्थ शुक्र से बलवान बलवान मालव्य योग और नवम भावगत सूर्य-बुध से बुध-आदित्य योग के रुप में अनेक राजयोग विद्यमान हैं, जो सामाजिक और राजनैतिक जीवन में धन, पद एवं प्रतिष्ठा देय हैं, मगर वैवाहिक सुख नहीं। इतनी सुदृढ़ कुंडली होने पर भी जयललिता जी अविवाहित हैं। इसके दोषी केवल सप्तम भावगत देव गुरु बृहस्पति है। 40 वर्षीय अभिनेत्री मनीषा कोईराला जल्द ही शादी करने जा रही हैं। उनकी कुंडली में भी सप्तम भावगत बृहस्पति है और जो बहुत देर से शादी का योग बनाता है। गायिका अनुराधा पौड़वाल की कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति और उस पर मंगल एवं शनि की दृष्टि है, वह दो विवाहों के उपरांत भी वैवाहिक सुखों से वंचित है।
कुंडली 4
राजवधू डायना की कुंडली के सप्तम भावगत शुक्र से यौन शक्ति का अतिरेक उत्पन्न हुआ, जिसके कारण उनके अनेक व्यक्तियों से यौन संबन्ध स्थापित हुए और अन्तत: अपनी मानसिक एवं दैहिक सुखों की अन्यत्र तृप्ति के लिए उन्होंने राजमहल के सुखों का त्याग कर दिया। स्वग्रही शुक्र के कारण ही उनका विवाह प्रिंस चाल्र्स से हुआ। यही नहीं चतुर्थ भाव में चंद्र केतु की युति ने जहां डायना को मानसिक रूप से परेशान रखा वहीं उनके पारिवारिक जीवन को भी नष्ट किया। कुटुंब भाव का स्वामी बृहस्पति नीच का होकर तृतीय भाव में शनि के साथ बैठा है जिसने डायना के पति के साथ विवाहके बाद वैचारिक मतभेद बनाए रखने में मदद की। शनि की तृतीय दृष्टि पंचम यानी बृहस्पति के घर पर है जिसके कारण उसकी प्रेम संबंधी अपेक्षाएं कभी पूरी नहीं हो सकीं और वह सच्चे प्रेम को पाने के लिए भटकती रही।



दाम्पत्य सुख और मंगल ग्रह—
Posted on मार्च 26, 2011 by vastushastri08
ज्योतिष शास्त्रों में मंगलग्रह को पराक्रम का कारक माना गया है। सौर परिवार में इसे सेनापति का पद प्राप्त है।
सामान्यतः लोग मंगल के नाम से भयभीत रहते हैं। विशेषकर जब कुण्डली को मंगली या मंगलीक कह दिया जाता है। जबकी
मेरे अनुभव में मंगल जैसा मंगलकारी ग्रह कोई नहीं हो सकता। तभी तो कहा गया है-



धरणी गर्भ संभूतं पिद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं मंगलं प्रणाम्यहम।।



अर्थात्- जो धरती के गर्भ से उत्पन्न हुये हैं, जिनकी प्रभा बिजली के समान लाल है। जो कुमार हैं तथा अपने कर में शक्ति
लिये हुये हैं उन मंगल को मैं नमस्कार करता हूँ।
मानव को सफलता हेतु जितना आवष्यक परिश्रम हैं उतनाही आवष्यक हमारा घरेलु योगदान हैं ,हमे हमारे घर का वातावरण कब शांत तथा सोहार्दपूर्ण मिल सकता है, जब हमारी अघोगिनी सुलक्षणा हो, गृहस्थ धर्म जानती हो, पति को उसके हर सुख-दुख में साथ देने वाली हो, त्याग, सेवा, धैर्य, क्षमा तथा सहिष्णुता जानती हो और इनके द्वारा पती को हरदम उन्नती कि और अग्रेसर करने का प्रयास करती हों।
सौरमण्डल की प्रथम राषि मेष का स्वामी मंगल है। मेष राषि अग्नि तत्व राषि है। अतएव इसका स्वामी मंगल भी अग्नि ग्रह है। यह शौर्य का कारक है। यह सेनापति का भी कारक है। इसका रंग सिंदूरी है। यह भूमि का भी कारक है। ‘मंगल’ का नाम सुनते ही मनुष्यो में हलचल मच जाती है क्योंकि इसके द्वादष, प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम भाव में होने पर जातक या जातिका मंगली कहलाते हैं। मंगली प्रभाव के संबध में प्रथक से विवेचना की जायेगी। प्रस्तुत आलेख में मंगल का दाम्पत्यसुख पर क्या अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा उसका ही विवेचन किया जा रहा है।विवाह एवं दाम्पत्य सुख हेतु सप्तम भाव,सप्तमेश,कारक ग्रह इन के साथ साथ सम्पम भाव में उपस्थित ग्रह भी सत्य को उजागर करते है, महर्षि पाराशर के अनुसार सप्तम भाव विवाह, यौन संबंध और पति-पत्नी के आपसी विचारों को प्रस्तुत करता हैं, कुछ ग्रह सप्तमेश होकर परम सुख प्रदान करते तो कुछ निस्टता प्रदान करता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का ज्यिोतीष शास्त्र के सभी विद्वानों का मानना है कि सप्तम भाव का मंगल अशुभ फलदाई होता है, ऐसे जातक को स्त्री झगडालु, रोगी,कुरूप,पराजित कराने वाली, कुलक्षणी निर्धन तथा दुराचरणी मिलती हैं। जिस कारण जातक का दाम्पत्य जीवन दुख भरा होता हैं, मिथुन,कन्या,वृच्छिक,मकर,सिंह तथा धनु राशि वाले जातकों के जन्म कंुडली में सप्तम भाव में मंगल हो तो ऐसे जातकों की स्त्री संताप प्राप्ती हेतु व्याभिचार करती हैं, मंगल यदि कर्क या मिन का हो तो ऐसे जातक की स्त्री का स्वभाव बहुत ही कठोर होता हैं। जिस कारण जातक का दांपत्य जीवन दुःखदाई हो जाता हैं, ऐसे जातकोकी रूचि अपके से कम उम्र की कन्याओं में होती है, जातक के जन्म कुंडली में मंगल पर यदि शनि की दृष्टि हो तो ऐसे जातक रति क्रिया में उटपंताग हरकते करते हैं जिस कारण जातक के पत्नी की अपने पति में रूची खत्म हो जाती हैं तथा ऐसे जातक का दांपत्य जीवन बदतर बन जाता हैं। सप्तम भाव का मंगल जातक को प्रबल मंगली बनाता तथा ऐसे जातक को मंगली लडकी से ही विवाह करना चाहिए जिससे उनका दांपत्य जीवन सुखि रहता हैं।



लग्ने व्यये च पाताले-जामित्रे-चाष्टमे,
कुजे कन्या मर्तृ विनाशाय भर्ता कन्या निवाशकः।।
मंगल के मारकत्व हेत यह श्लोक प्रचलित हैं अर्थात जिस जातक के जन्म कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तमया द्वादश भाव में मंगल विराजमान हो तो ऐसे में कन्या के पति की मृत्यु निश्चित हैं इस योग के अनेकों अपवाद भी हैं, जातक के जन्म कुंडली में लग्न में मेष, चतुर्थ में वृश्चिक सप्तम में मकर, अष्टम में कर्क तथा द्वादश भाव में धनु राशि हो तब वैधन्य योग नहीं बनता तात्पर्य सप्तम भाव य मंगल जातक का वैवाहिक जीवन सामान्य नहीं रखता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का विचार उनकी रूची, प्रकृति समानता आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन कर सुखमय दाम्पत्य जीवन हेतु कुछ नियम बना रखे हैं।
1. यदि किसी जातक/जातिका की अन्य कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में हो तो जातक किसी रजस्वला स्त्री से
संभोग करता है। कतिपय विद्वान ज्योतिषियों ने महिला की कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में होने पर बांझ होना कहा है। हमारे
अनुभाव में आया है कि पुरुष की कुण्डली में मंगल द्वितीयेष षष्टेष या अष्टमेष होकर सप्तम भाव में हो तो पत्नी बांझ या
गर्भ को गिराने की इच्छुक रहती है। महिला के सप्तम् भाव में मंगल उसे बांझ बनाता है। यह शोध का विषय है। मंगल रज
का कारण हैं षिषु पर मांस, मंगल ग्रह से ही चढ़ता है।
2. यदि जातक/जातिका की कुण्डली में मंगल एवं बुध सम-विषम राषियों में बैठकर एक दूसरे को देखे तो पुरुष
जातक नपुंसक तथा जातिका षण्डत्व दोष से पीड़ित होंगे। यहां सम विषम राषियों से तात्पर्य यथा मंगल मेष का हो तथा
बुध कर्क राषि का हो। यह योग जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में घटित हो सकता है। स्त्रियों में आयुर्वेद के अनुसार षण्डत्व
दोष होता है। इस दोष से पीड़ित स्त्री में ठण्डापन होता है। वह पुरूष संग के लिये उत्तेजित नहीं होती हैं। पुरुष उसके इस
दोष को जान नहीं पाता है, वह यौन क्रिया के लिये उत्कृष्ठित नहंीं रहती।
3. इसी प्रकार का फलित मंगल और सूर्य एक दूसरे को देखे अर्थात मंगल और सूर्य समसप्तक हो तो भी पुरुष से
नपंुसकता के लक्षण रहते हैं। इस योग में मंगल और सूर्य दोनों ही अग्नि ग्रह होते हैं। जो पुरुषत्व की ऊर्जा को कम करते
हैं। संभव है कि जातक शरीर से हृष्ठ-पुष्ठ हो परन्तु उसकी जननेंद्रिय में उत्तेजना कम रहती है।
4. यदि किसी महिला की जन्म कुण्डली मे सप्तम भाव में मंगल की राषि या मंगल का नवांष हो तो जातिका का
पति पर स्त्री गामी हो सकता है। क्योंकि पति पूर्ण पौरुष वाला होता है। जातिका को इस प्रकार का अनुभव मंगल की महादषा
में देखने को मिल सकता है? यदि यह दषा विवाह से पूर्व या जन्म से पूर्व ही निकल गयी हो तो अंतरदषा। प्रत्यंतर दषा
में संभव है। जातिका का लग्नेष कमजोर होगा तो पति उसको दबाकर रखेगा तथा उसकी यौन लिप्तता में वृद्धि रहेगी।
5. मंगल सप्तम भाव में हो तो जीवन साथी की मृत्यु 30 वर्ष की आयु में हो सकती है। यदि मंगल 10 से 20 अंष
के मध्य हो कथित योग घटित हो सकता है। मंगल विच्छेदात्यक ग्रह है अतएव विवाह विच्छेद की परिस्थितियाँ बन सकती
है। पति-पत्नी अलग-अलग रह सकते हैं। मंगल के साथ सूर्य या बुध या दोनों हों तो विवाह में एक साल के अंदर ही उक्त
फलित में से कोई एक फल अवष्य अनुभव में आयेगा।
6. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के
लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं। किन्तु मैं मकर राषि में चंद्र के ऐसे फल से सहमत नहीं हँू। इसी राषि में मंगल उच्च का तथा शनि स्वक्षेत्री होता है। जो चरित्र नहंी गिरने देता है।पाठक शोध करें।
7. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तमेष होकर 6, 8 या 12 वें भाव में हो तथा शनि सूर्य एक साथ कहीं भी हो एवं लग्न भाव में राहू हो तो जातिका शीध्र ही निष्चित रूप से विघवा हो जाती है। सप्तमेष का जिस भाव में बैठना सप्तम भाव के फल को नष्ट
करता हैं वैधव्य कारक राहू का लग्न में होना भी सप्तम भाव के फल को बिगाड़ता है। सौर मंडल की प्राकृतिक कुण्डली में सूर्य तुला राषि में नीच का होता है उसका शनि के साथ बैठना भी उत्तम फल नहीं देता है। क्योंकि दोनों परस्पर शत्रु ग्रह है।
8. किसी जातिका की द्विस्वभाव लग्न हो तथा मंगल और चन्द्र दोनों सम सप्तम होकर लग्न सप्तमभाव में स्थित होकर परस्पर देख रहे हो तो जातिका शीध्र ही विधवा हो जाती है। मंगल चंद्र का सम सप्तक होना दाम्पत्य सुख में बाधक होता है।
9. यदि किसी पुरूष जातक की जन्मकुण्डली में मंगल तथा सूर्य कर्क राषि के होकर सप्तम भाव में हो तो जातक की पत्नी उसके निर्देष पर पर पुरूष से यौन संम्बंध स्थापित करती हैं। कर्क राषि में सूर्य अष्टमेष होकर मंगल से पुष्टि करता है। अष्टमेष जहां भी बैठता है उस
भाव की शुचिता को शंकास्पद बना देता है। सुखेष का सप्तम भाव में स्थित होना भी अधिक सुखद स्थिति नहीं है। दोनों में संबध विच्छेद की जिम्मेदारी भी मंगल सूर्य पर रहती है। जातक धन या पुत्र प्राप्ति के उद्देष्य से अपनी पत्नी से इस प्रकार का अवैध कृत्य कराता है।
10. किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल तथा शनि एक दूसरे के नवांष मे हो तो जातिका बहुत अधिक कामुक रहती है। यहां तक की एक महिला दूसरी महिला के साथ समलैंगिक संबन्ध रखती हैं पर पुरुष गामिनी होना तो उसके लिये सहज है। (मंगल और षनि एक दूसरे की राषि में हो तब भी कथित फल अवष्य घटित होता है। यदि मंगल और शनि एक दूसरे के नक्षत्र में हो तब भी समलैंंिगकता पुर्व
पर पुरूष गामिनी होते देखा गया है।
11. यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तम या अष्टम भाव में दो पापग्रहों के साथ स्थित हो परन्तु इस योग में सप्तमेष सप्तम भाव में न हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु विवाह के पष्चात दो से पांच वर्ष के अन्दर हो जाती हैं यही योग किसी महिला की कुण्डली में भी हो तो उसके साथ भी यही फलित होगा। ग्रहों की बलवत्ता भी फल कथन के लिये विचार में रखना अत्यंत आवष्यक हैं यदि कोई कुयोग जिस प्रकार लिखा गया है। उसी प्रकार हो तब तो जीवन कथित फल अवष्य घटित होते हैं परन्तु किसी कुयोग पर शुभ ग्रह के फल के अवसर जुटाकर पूर्णतः घटित नहीं होने देगा। उसी प्रकार कोई सुयोग कुण्डली में हो तथा पाप ग्रह उसे प्रभावित कर रहे हो तो पष्चात् हताष हो जाने पर मिलेगा। यह सर्वत्र विचारणीय है।
12. इसी प्रकार मंगल तथा शुक्र किसी जातिका की जन्म कुण्डली में समसप्तक हो तो भी इस प्रकार के योग वाली दो महिलाओं के मध्य समलैंगिक संबध रहते हैं। मंगल और शुक्र दोनों ही समसप्तक होने पर महिला जातकों को यौन क्रीड़ा के लिये उत्तेजित करते हैं। दुष्चरिचत्र होना अंसभव नहंी है। पर पुरुष से अतिषय कामुकता की पूर्ति हेतु संबंध रखती है। पुरुष के षिषन का भी चुंबन तक कर लेती हैं।
13. यदि किसी जाति का मंगल, वृष राषि को हो तो भी जातिका में अतिषय कामुकता रहती है। यह योग किसी भाव में हो जातिका को यौन संतुष्टि के लिये उकसाता हैं कोई भी पुरूष जातक समान्य स्तर तक अपनी पत्नी की यौन संतुष्टि कर सकता है। फलतः स्त्री अपनी तृप्ति के
लिये पर पुरुष का या अन्य स्त्री के साथ कृत्रिम साधनों से काम तृप्ति करती है।
14. मंगल, सूर्य तथा राहू लग्न में स्थित हों तो जीवन साथी की मृत्यु शीध्र हो जाती है। या लम्बें समय के लिये दोनों के यौन सम्पर्क टूट जाते हैं साथ ही यदि द्वितीय भाव में शुक्र स्थित हो तो जातक के किसी अन्य स्त्री/पुरूष से अनैतिक यौन सम्बन्ध रहे।
15. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक
राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन में मन व प्रेम की विशेष भूमिका रहती हैं। यदि मंगल दोष विद्यमान हो लेकिन अपने मन को नियंत्रित कर जीवन साथी से प्रेम भाव बढ़ा दिया जावे तो दाम्पत्य जीवन अच्छा रहता हैं। लेकिन प्रतिरोध की स्थित अशुभ ही करती हैं। अतः मन के कारक चंद्र व शुक्र जो प्रेम कारक हैं से भी मंगल दोष बन रहा हो तो जातक अपने अंह स्वभाव, जिद्दिपन एव जीवनसाथी से प्रेम की कमी, घृणा के कारण मंगल दोष अपना प्रभाव अवश्य दिखाता हैं।



मंगल दोष के विभिन्न प्रकार–क्यों जरूरी है मंगली का मंगली से ‍विवाह :-
जिस जातक की जन्म कुंडली, लग्न/चंद्र कुंडली आदि में मंगल ग्रह, लग्न से लग्न में (प्रथम), चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों में से कहीं भी स्थित हो, तो उसे मांगलिक कहते हैं।
गोलिया मंगल ‘पगड़ी मंगल’ तथा चुनड़ी मंगल : जिस जातक की जन्म कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12वें भाव में कहीं पर भी मंगल स्थित हो उसके साथ शनि, सूर्य, राहु पाप ग्रह बैठे हो तो व पुरुष गोलिया मंगल, स्त्री जातक चुनड़ी मंगल हो जाती है अर्थात द्विगुणी मंगली इसी को माना जाता है।
मांगलिक कुंडली का मिलान : वर, कन्या दोनों की कुंडली ही मांगलिक हो तो विवाह शुभ और दाम्पत्य जीवन आनंदमय रहता है। एक सादी एवं एक कुंडली मांगलिक नहीं होना चाहिए।
मंगल-दोष निवारण : मांगलिक कुंडली के सामने मंगल वाले स्थान को छोड़कर दूसरे स्थानों में पाप ग्रह हो तो दोष भंग हो जाता है। उसे फिर मंगली दोषरहित माना जाता है तथा केंद्र में चंद्रमा 1, 4, 7, 10वें भाव में हो तो मंगली दोष दूर हो जाता है। शुभ ग्रह एक भी यदि केंद्र में हो तो सर्वारिष्ट भंग योग बना देता है।
शास्त्रकारों का मत ही इसका निर्णय करता है कि जहाँ तक हो मांगलिक से मांगलिक का संबंध करें। ‍िफर भी मांगलिक एवं अमांगलिक पत्रिका हो, दोनों परिवार अपने पारिवारिक संबंध के कारण पूर्ण संतुष्ट हो, तब भी यह संबंध श्रेष्ठ नहीं है। ऐसा नहीं करना चाहिए।ऐसे में अन्य कई कुयोग हैं। जैसे वैधव्य विषागना आदि दोषों को दूर रखें। यदि ऐसी स्थिति हो तो ‘पीपल’ विवाह, कुंभ विवाह, सालिगराम विवाह तथा मंगल यंत्र का पूजन आदि कराके कन्या का संबंध अच्छे ग्रह योग वाले वर के साथ करें। मंगल यंत्र विशेष परिस्थिति में ही प्रयोग करें। देरी से विवाह, संतान उत्पन्न की समस्या, तलाक, दाम्पत्य सुख में कमी एवं कोर्ट केस इत्या‍दि में ही इसे प्रयोग करें। छोटे कार्य के लिए नहीं। विशेष : विशेषकर जो मांगलिक हैं उन्हें इसकी पूजा अवश्य करना चाहिए। चाहे मांगलिक दोष भंग आपकी कुंडली में क्यों न हो गया हो फिर भी मंगल यंत्र मांगलिकों को सर्वत्र जय, सुख, विजय और आनंद देता है। निम्न 21 नामों से मंगल की पूजा करें :-
1. ऊँ मंगलाय नम:
2. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
3. ऊँ ऋण हर्वे नम:
4. ऊँ धनदाय नम:
5. ऊँ सिद्ध मंगलाय नम:
6. ऊँ महाकाय नम:
7. ऊँ सर्वकर्म विरोधकाय नम:
8. ऊँ लोहिताय नम:
9. ऊँ लोहितगाय नम:
10. ऊँ सुहागानां कृपा कराय नम:
11. ऊँ धरात्मजाय नम:
12. ऊँ कुजाय नम:
13. ऊँ रक्ताय नम:
14. ऊँ भूमि पुत्राय नम:
15. ऊँ भूमिदाय नम:
16. ऊँ अंगारकाय नम:
17. ऊँ यमाय नम:
18. ऊँ सर्वरोग्य प्रहारिण नम:
19. ऊँ सृष्टिकर्त्रे नम:
20. ऊँ प्रहर्त्रे नम:
21. ऊँ सर्वकाम फलदाय नम:
विशेष : किसी ज्योतिषी से चर्चा करके ही पूजन करना चाहिए। मंगल की पूजा का विशेष महत्व होता है। अपूर्ण या कुछ जरूरी पदार्थों के बिना की गई पूजा प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है..
मंगल दोष/ योग निवारणार्थ…..कृपया मंगलनाथ मंदिर , जो उज्जैन ( मध्य प्रदेश ) में स्थित हे ..वहा जाकर विशेष रूप से “भात पूजा” अवश्य करवाएं…इस पूजा से शादी में विलम्ब/ कर्जमुक्ति..आदि में लाभ मिलता हे..अतः ऐसे जातक शीघ्र लाभ हेतु मंगलनाथ मंदिर आकर भात पूजा जरुर करवाएं..संपर्क—पंडित दयानंद शास्त्री-०९०२४३९००६७

शादी से पहले ‘सेहत-कुंडली’ मिलाएँ
विवाह एक सामाजिक संस्कार है, जो दो दिलों का मिलन है। विवाह-संस्था के द्वारा परिवार के रूप में कुटुम्ब परंपरा आगे बढ़ती है। शादी से पहले अभिभावक दूल्हा-दुल्हन की जन्मपत्री का मिलान कराते हैं। जन्मपत्री में ग्रह के उपयुक्त मिलान होने पर ही शादी तय होती है।
शादी से पहले अपको अपने भावी पाटर्नर के साथ प्रीमैरिज काउंसलिंग जरूर करना चाहिए| इसमें हम ब्लडग्रुप, एचआईवी,थैलेसीमिया,और हेपेटाइटिस बी जैसी जांच होती हैं| ताकि आपका स्वास्थ्य को आंका जा सके |मुझे लगता हैं कि हर पढें-लिखे और समझदार परिवार को शादी से पहले वर–वधू की यह जांच जरूर करवानी चाहिए,ताकि वे सेहतमंद रहे| प्रीमैरिज काउंसलिंग करवाने से आप दोनों नए जीवन की शुरुआत सहजता से कर सकेंगे |
चिकित्सकों के अनुसार विवाह पूर्व मेरिज-काउंसलिंग होना जरूरी है। एक-दूसरे के विचारों, व्यवहारों, पसंद-नापसंद के अतिरिक्त स्वास्थ्य दृष्टि से शारीरिक गुणों में भी मिलान होना जरूरी है। यदि कोई भी युवक-युवती किसी अनजाने रोग से ग्रसित है तो वह अपने जीवनसाथी को तो रोग देगा/देगी ही, साथ ही आने वाली पीढ़ी को भी रोग से ग्रसित कर सकता/सकती है।
अतः चिकित्सकों के अनुसार जन्म-कुंडली के साथ स्वास्थ्य-कुंडली का मिलान होना जरूरी है, जो सुखी-समृद्ध वैवाहिक जीवन की सबसे पहली शुरुआत होगी। कई रोग पारिवारिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं जैसे मधुमेह, थैलेसीमिया, मोटापा, हृदयरोग,हिमोफीलिया, कलर ब्लाइंडनेस, गंजापन आदि। यदि पति-पत्नी दोनों को मधुमेह है तो आशंका यह व्यक्त की जाती है कि आधी संतानों को 40 वर्ष की वय के उपरांत मधुमेह कभी भी उभर सकता है।
आज के आधुनिक जीवन में कई युवक-युवतियाँ विवाह-पूर्व असुरक्षित यौन-संबंधों के जाल में उलझ जाते हैं। उनकी थोड़ी-सी लापरवाही एड्स जैसे गंभीर रोग को आमंत्रण दे सकती है। ऐसे संबंधों से अन्य संक्रमण जैसे सिफीलिस, गोनोरिया, हरपीज होना भी आम है। ये सभी रोग विवाह के बाद एक जीवनसाथी से दूसरे जीवनसाथी को ‘गिफ्ट’ के रूप में मिल जाते हैं तथा बच्चों को भी पैदा होते ही घेर लेते हैं। ऐसे संक्रमणों और आत्मघाती रोगों से बचने के लिए स्वास्थ्य-पत्री मिलान अत्यंत जरूरी है। यह स्वास्थ्य-पत्री 6हिस्सों में हो सकती है
एड्स-पत्री : विवाह पूर्व युवक-युवतियों को एड्स का संक्रमण है या नहीं, इस हेतु एचआईवी टेस्ट करा लेना चाहिए। एड्स एक लाइलाज रोग है, इसका बचाव ही उपचार है।
सिफीलिस-पत्री : यह रोग सर्पकीट ट्रेपोनेमा से होता है। यह यौन संचारित रोग है। भारत में हर 25 में से 1 व्यक्ति को यह रोग है। यह रोग स्वयं को तो नुकसान पहुँचाता है, साथ ही आने वाली पीढ़ी जन्मजात सिफीलिस रोग लेकर पैदा होती है। इससे जन्मजात हृदयरोग भी हो सकता है तथा कई युवतियों में यह बार-बार गर्भपात हो जाने का कारण भी बनता है।
थैलेसीमिया-पत्री : थैलेसीमिया मेजर एक ऐसा रोग है जिसमें बच्चे का खून स्वतः समाप्त होता जाता है। बच्चे को नियमित रूप से रक्त चढ़ाना पड़ता है। अतः थैलेसीमिया मेजर न हो, इस हेतु भावी पति-पत्नी को एचबीए-2 नामक हिमोग्लोबिन का टेस्ट कराना चाहिए जिससे थैलेसीमिया माइनर होने का पता लग जाए। यदि दूल्हा-दुल्हन दोनों एचबीए-2 पॉजीटिव हैं तो विवाह तय नहीं करना चाहिए।
हेपेटाइटिस बी एवं सी-पत्री : हेपेटाइटिस बी एवं सी लीवर को प्रभावित करने वाले संक्रामक रोग हैं, जो कालांतर में व्यक्ति की जान ले सकते हैं। यह रोग शारीरिक संपर्क से फैल सकता है अतः इस रोग का पता विवाह पूर्व हो जाना जरूरी है। भारत की कुल आबादी के 4-5प्रतिशत लोग हेपेटाइटिस-बी से प्रभावित हैं।
ब्लड ग्रुप-पत्री : यदि महिला का ब्लड ग्रुप नेगेटिव और पुरुष का पॉजीटिव है तथा इसके चलते बच्चे का ब्लड ग्रुप भी पॉजीटिव है तो समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं अतः ब्लड ग्रुप का मिलान भी विवाह पूर्व हो जाए तो बेहतर है।
टॉर्च-पत्री : टॉर्च गर्भवती महिलाओं को प्रभावित करने वाला 4 रोगों का समूह है जिनमें टॉक्सोप्लाज्मोसिस, सायटोमेगालोवायरस,रुबेला एवं हरपिज शामिल हैं। ये रोग युवतियों में विवाह पूर्व होने पर भावी संतान मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हो सकती है अतः विवाह पूर्व टॉर्च टेस्ट करा लेना चाहिए।



सुखी वैवाहिक /दाम्पत्य जीवन का ज्योतिषीय कारण—



विवाह एक जाटिल संस्था है| जब मान, मुल्य, धामिक आस्था व परपराऐ बिखरने लगें तथा स्वाथॅ, सता लोभ को प्राथमिकता मिले वहां विवाह पर कुछ भी कहना मानों शत्रुता मोल लेना है| एक बार अमेरिका में किसी न्यायधीश ने कहा था विवाह अनुबंध अन्य किसी भी प्रकार के अनुबंध से भिन्न है| यदि कोई व्यापारीक गठबंधन टुटता है| तो मात्र संबंधित दो दलों पर ही इसका प्रभाव पड़ता है| इसके विपरीत विवाह विच्छेद मात्र दो व्यक्तियो को ही नहीं अपितु परिवार व समाज को झकझोर कर रख देता हैं| बिखरे परिवार के बच्चे असुरक्षा की भावना में पलते व बढ़ते है| तो कभीं समाज विरोधी कायौ मे समलित हो जाते है| इस प्रकार देश व समाज की खुशहाली में बाधा पड़तीं है|
१ विवाह गृहस्थ जीवन का प्रवेश द्वारा है| देश व समाज का भविष्य को सजने संवारने की विधा है|पति-पत्नी का परस्पर प्रगाढ प्रेम बच्चों मे स्नेह, संवेदना परस्पर सहयोग व सहायता के गुणो को पुब्ट करता है| भावी पीढ़ी में सहजता सजगता व सच्चाई देश के भविष्य को उज्ज्वल बनती है| वैवाहिक जीवन में सभी प्रकार के तनाव व दबाव सहने की क्षमता का आंकलन करने के लिए भारत में कुंडली मिलान विधा का प्रयोग शताब्दीयो से प्रचलित है|
( 2 ) यदि सप्तम भाव हीनबली है तो उसका मिलान ऐसी कुंड़ली से जो उस अशुभता का प्रतिकार कर सके| उदाहरण के लिए मंगलीक कन्या के लिए मंगलिक वर का ही चयन करें| कुंड़लियो का बल परास्पर आकषर्ण देह व मन की समता जानकर किए गए विवाह दामपत्य खुख व स्थायित्व को बढाते हैं|
उदृाहरण >>के लिए यदि वर या कन्या की कुंड़ली में शुक्र अथवा मंगल सप्तमस्थ है तो इसे यौन उत्तेजना व उदात संवेगों का कारक जानें| वहां दूसरी कुंड़ली के सप्तम भाव में मंगल या शुक्र की उपस्थिति एक अनिवार्य शर्त बन जाती है| यदि असावधानी वश सप्तमस्थ बुध या गुरु वाले जातक से विवाह हो जाए तो यौन जीवन में असंतोष परिवार में कलह, कलेश व तनाव को जन्म देता है| इतिहास ऐसें जातकों से भरा पड़ा है जहां अनमेल विवाह के कारण परिवारिक जीवन नरक सरीखा होगा|
( ३ )लग्न में मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि होने पर जातक विवाहेतर प्रणय संबंधो की और उन्मुख होता है| कारण उस अवस्था में सप्तम भाव बाधा स्थान होता हैं| अतः यौन जीवन में असंतोष बना रहता है| यदि दशम भाव का संबंध गुरु से हो तो जातक दुराचार मे संलिप्त नहीं होता|
काम सुख के लिए अभिमान,अंहता यदि विष तो दैन्यता, विनम्रता, सेवा सहयोग की भावना, रुग्ण दंपत्य को सवस्थ व निरोग बनाने की अमृत औषधीहै|
मधुर गृहस्थ जीवन कैसे बनाएँ यह प्रत्येक गृहस्थी के लियें ज्योतिषीय द्ष्टि से चितन करना अवश्यक हैं| गृहस्थ जीवन काम-वासना या स्वेच्छाचारिता के लिए नहीं हुआ करता यह एक पवित्र बंधन होता है जिसमें आत्मवंश की वल्ली को निरन्तर बनाने के साथ-साथ लौकिक एंवं पारपौकिक सुख की कामना छिपी रहती हैं| विवाह से पूर्व प्रायः जीवन साथी बचपन से विवाह तक अलग-अलग परिवार के सदस्य होते हैं और बच्चपन के संस्कार प्रायः स्थाई भाव जमाएं रहते हैं, ये संस्कार और स्थाई भाव समय के साथ बदल नहीं पाते और गृहस्थी को नारकीय या स्वणिैम बना डालते है|
ज्योतिषिय गृह योगों के अधार पर एक दुसरे की अपेक्षाओं को समझकर चला जाय तो गृहस्थ जीवन मधुर बना रहता है|
गृहस्थ जीवन के वैसे तो कईं भाग महत्वपूर्ण होते है लेकिन अभिव्यक्ति एंव चितन ही सबसे महत्वपूर्ण होते है छोटी-छोटी बातों पर आशंका करना या अंतर्मन में कुछ और होते हुएं वाणी से कुछ का कुछ कह देना दामपत्य जीवन में बिगाड़ ला देता हैं|
यहां पर कुछ ज्योतिषीय योग दे रहा हूँ| ( 1 ) दादश भाव में धनु या वृश्चिक का राहु हो, चन्द्र शनिदेव सप्तम, दितीय, लग्न या नवम में हो तो एक दूसरे के प्रति भा्तिया, आशंकाएं तथा आत्मभय पैदा करवा देतें हैं|
( 2 ) नीच के गुरु, चन्द्र मीन में बुध-शनि भी अनावश्यक प्रंसगो में आंशकाए खडीं करवा देता है यह योग स्त्री कि कुंडली में हो तीव्रतर प्रभाव डालता हैं|
( 3 ) तीसरे एवं पाचवें भाव का अधिपति सूर्य शनि मंगल में से कोई भी हो तथा नीचस्थ होकर गुरु से संबध कर रहें हो तो अपने ही परिजनो के यवहार में दोहरापन रहने से गृहस्थ जीवन में आशांति हो जाती है|
(4) दुसरे तीसरे स्थान पर नीचस्थ ग्रहो का बैठना अप्रिय भाषण का कारण होता है लेकिन सूर्य वास्तविकता को उजागार करवाता हैं चन्द्रमा चंचलता पैदा करवाकर कुत्रिम व्यवहार करवा देता है जिसकी पोल कुछ समय में ही खुल जाती है और स्वंय को लज्जित भी करवा देती हैं|
(5)सत्तमेश, लग्नेश का नीचस्थ शुक्र से संबंध बना हो या स्वंय शुक्र ही इनका स्वामी हो और नवमांश में हीनाश मंगल के साथ संबंध कर रहा हो तो अंतरंग संबधों को लेकर शीतयुद्ध चलता रहता है तथा इन्ही की महादशा एंव अन्तरदशा आ जाय तब भंयकर विस्फोट की आंशका बन जाती है|
ऐसी स्थती में पुरुष के ग्रह हो तो स्त्री को वयर्थ भातिंयो से बचना चाहिए ऐसी स्थती में सोमवार को भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिएं|
(6 )मंगल-चन्द्रमा कर्क राशि में एक साथ हो तो दोहरी बातें करने के कारण गृहस्थ जीवन में निराधार आशंकाए खड़ी हो जाती हैं
(7 )मीन राशि में बुध के साथ शनि या केतु दुसरे,तीसरे भाव में हो आधी बात छोड़कर रहस्य बनायें रखने कि आदत हो जाती है|
(8 )गुरु – शुक्र मकर राशि में हो तो दोहरी वार्ताओ में दक्ष बनाता है तथा रहस्यवादी होकर भी बहुत व्यवहारिक व्यक्तित्व दिखाईं देता है जबकि आंतरिक रुप से स्वार्थ पराकाष्ठा होती है पुरुष के योग तो संकारात्मक परिणामकारी होते है| लेकिन स्त्री वर्ग को असुरक्षा सी महसुस करवाता है|
( 9 ) दुसरें भाव में पापगृह हो तथा बारहवें भाव में शुभ गृह हो या देखते हो तो जीवन साथी को समझने में भूल करवा देता हैं|
( 10 ) चतुर्थ भाव में शुक्र या चंन्द्रमा नीच राशि का हो तो घर का सुख की क्षति करते है
( 11 ) ब्यव भाव में वृषभ का शनि बकि् हो अब्टम भाव में चंन्द्र,राहु हो गोचर का शनि जब भी मेषराशि पर भ्रमण करेगा उस समय गृह कलह लड़ाई झगड़े.दुर्घटना आदि के योग बनतें है|



विवाह शब्द वि+वाह से बना हैं| वि विशेष या महत्वपूर्ण विशिष्ट के लिए प्रयुक्त हुआ है तो वाह का अर्थ हैं वहन करना ,ढोना ,बोझ उठाना यथा माल वाहक=माल ले जाने वाला, निवाँह=गुजारा करना प्रवाह= बहाव आदि|
कुछ जातक अज्ञानता वश विवाद तथा विवाह का अन्तर भुल जाते है| वे शायद यह नही जानते ‘द’का अर्थ है दाता तथा ‘ह’ का अर्थ है हरणं करने वाला मिटाने वाला| जहां विवाद में दुसरे के दोषों व दुरबॅलता को उजागर कर उसे शत्रु मानते हुए नीचे दिखाने का प्रयास किया जाता है| इसके विपरीत विवाह में दुसरे के दोष व दुबॅलताओ की अनदेखी कर उन्हे छिपाकर, स्नेह व आत्मीयता के साथ उसे सम्मान दिया जाता है| विवाह में तो सभी विषमता दुरबलता व दोष का हरण है, स्ने हपूण निरकरण है या फिर उन्हें सवीकार कर धैयपूर्वक सहना है|
रति या मैथुन को विद्धानो ने पाशविक कर्म माना हैं| उनका कहना है पशु पक्षी तो मात्रा विशेष ॠतु में ही कामोन्मुख होते हैं किन्तु मनुष्य तो शायद पशुओं से भी हीन है| प्राचीन मनीषियो ने गहन चिन्तन मनन के बाद काम को नियंत्रित कर विवाह प्रणाली को विकासित किया समाज में सुख शान्ति बनाए रखने के लिए अगम्यागमन का निषेध किया| परस्त्री आसक्ति की निन्दा की| इतनी ही नही विवाह को धार्मिक सामाजिक समारोहों के रूप में मान्यता दी उसे गरीमा मंडित किया पत्नी को धर्मपत्नी की संज्ञा दी |यज्ञ व सभी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को बराबर का स्थान दिया उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी गई विवाह में वर को विष्णु तथा वधु को लक्ष्मी का रूप मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा आज भी प्रचलित है| राम विवाह, शिव विवाह राधा विवाह का शास्त्रो में विस्तार पूवर्क किया गया है|



विवाह गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्धार है| घर परिवार समाज की ईकाई है घर के योगदान से समाज मजबुत होता है तो समाज के सहयोग व सहायता से परिवार में सुख शान्ति बढ़ती है बालक के जन्म से परिवार बढ़ता है तो समाज का भविष्य भी सुरक्षित होता है |बच्चों के पालन -पोषण के लिए धर परिवार में स्नेह सौहार्दपूर्ण वातावरण आवश्यक है| किसी विवाह का टूटना मात्र दो ब्यक्तीयो का अलग हो जाना नहीं बल्कि परिवार व समाज का बिखराव है| बचपन की बगिया में कंटीली झाड़ियों का उगना जिससे न केवल वर्तमान आहत होता है बल्की भविष्य भी मुरझा जाता है| जब कभी विवाह का प्रशन हो तो ज्योतिषी का फर्ज हैं कि वह विवाह का महत्त्व स्वयं समझें व दुसरे को भी समझाएं|
मानव मन की कामेच्छा को नियमित व नियंत्रित करने के लिए ही विवाह संस्था बनायी गईं| योग एक प्रकार से कामेच्छा को नियमित एवं नियंत्रण करने की प्रकिया ही है| लेकिन अगर सभी योगी बन जाएंगे तो सृस्टी के विस्तार जीवन मत्यु की प्रकि्या में व्यवधान आ जाएगा| इसलिये समाज में विधिपूर्वक शुक्र को नियंत्रण करने के लिए मनीषियों ने विवाह प्रकि्या का सृष्टि में प्रावधान किया| प्रत्येक व्यक्ति के लिए कामेच्छा की नियमित व निमन्त्रण में रखना उसके अपने वश में नहीं है इसकों ज्यादा नियन्त्रित करने में यह अनियंत्रित हो जाती है और दुरचार को बढावा मिलता है| उस स्थती में व्यक्ति और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता| समाज में यौन दुराचार पर अंकुश लगाना एक स्वस्थ व सुखी समजा निमार्ण करना ही इसका उद्देश्य था
भावी संतती देह व मन से स्वास्थय व सबल हो इसके लिए विवाह पूर्व शौर्य प्रदर्शन तथा बुद्धि बल परीक्षा या स्पधाँ का आयोजन एक सामान्य बात थी| कन्या को भी विविध कलाओं तथा विधाओ में निपुण बनाने का प्रयास होता था उसका यह करणा होता की उस कन्या का विवाहित जीवन सुखी व खुशहाल हो|



vivaah sahajeevan nahi balki srijan



जीव मात्र की मूल प्रवृत्ति है स्व-जाति के जैविक सातत्य-क्रमिकता को बनाये रखना, ताकि उस प्रजाति का मूलोच्छेद न हो | मानव श्रेष्ठतम जीव होने के कारण जैविक के साथ साथ सांस्कृतिक–सामाजिक क्रमिकता को भी बनाए रखता है और उसका मूल है समाज-राष्ट्र-संस्कृति की सबसे छोटी इकाई परिवार | विवाह उसी इकाई की मूल संस्था या प्रथा है|
जहां तक सहजीवन, अर्थात बिना विवाह के साथ-साथ रहने की बात है, क्या इन तथाकथित अति-आधुनिक अल्ट्रा-माडर्न लोगों को अपनी पुत्रियों और बहनों और पुत्रों के अविवाहित कामाचार स्वीकार हैं ? क्या वे अपनी पत्नियों और अन्य पुरुष का सहजीवन स्वागत योग्य मानेंगे?
भारत में विवाह संस्था का अनुशासनात्मक विकास हुआ। यहां विवाह-संस्था स्थाई है। लेकिन अमरीका में विवाह संस्था समाप्त प्रायः है, वहां स्वाद की भाँति पत्नियां व पति बदले जाते हैं। अमरीका-यूरोप, भारत में आया, उस संस्कृति-प्रभावित कन्याएं अपना शरीर दिखाती हैं, देह सुंदर है, इसे दिखाने में गलत क्या है? इसी से अविवाहित सहजीवन का चलन बढ़ा। कई देशों में हाल ही में यौन सम्बंधों को वैध ठहराने वाला वक्तव्य दिया गया है। वह उनकी जीडीपी का महत्वपूर्ण भाग है | परन्तु ऐसा भोगवादी सहजीवन अंतत: विषादका कारण है।
ऐसे लोगों की दृष्टि में काम-सुख की सामाजिक मर्यादा रूढ़िवाद है और मुक्त यौन-सुख, आधुनिकता। स्वयं "कामसूत्र" के रचयिता आचार्य वात्स्यायन ने भी परस्त्री सहजीवन को गलत ठहराया है, उनका कथन है कि, "राजाओं, मंत्रियों, वरिष्ठों को उचित है कि वे परस्त्री गमन जैसे निन्दनीय कार्य में प्रवृत्त न हों।" तथा "पराई स्त्रियों से संबंध दोनों लोकों को नष्ट करता है।
सारी दुनिया के आदिम समाज स्वच्छंद थे। विवाह संस्था का विकास बाद में हुआ, तथापि भारत में ऋग्वैदिक काल में ही स्त्री-पुरुषों के लिए नियम थे | ऋग्वेद का यम-यमी प्रकरण सूक्त (10.10.1 से 14) इस सम्बन्ध में निश्चित नियम प्रस्तुत करता है---यम और यमी भाई-बहन थे। किसी विशिष्ट परिस्थिति में यमी ने यम से प्रेम सम्बंध की याचना की। यम ने ऐसी मित्रता से साफ इनकार किया –“न ते सखा सख्यम् वष्टि एतत् सऽलक्ष्मा यत् विषऽरूपा भवति।“ यम ने ऐसे सम्पर्क को अधम बताया। यही यम अनुशासक व आचरण मर्यादा के नीति-नियम निधारक हुए और ऐसे नियम-अनुशासन को यमानुशासन कहा गया|
भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। पश्चिम में कोई ऋग्वेद नहीं उदित हुआ। कोई श्वेतकेतु नहीं हुआ। ऋग्वेदिक समाज स्त्री-पुरुष, संबंधों को लेकर सतर्क था | पत्नी रूपवती है पर अपना सौन्दर्य सिर्फ पति को दिखाती है। दूसरे लोग केवल वस्त्र देखते हैं या केवल वाणी सुनते हैं | ऋग्वेद 10.71.4 के सरस्वती सूक्त का मन्त्र है --
. उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचं, उत त्वः श्रृण्वन् न श्रृणोत्येनम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उषति सुवासाः ||

-अर्थात-कोइ व्यक्ति सरस्वती ( विद्या या ज्ञान) को केवल शब्द से जानता है परन्तु देख (समझ) नहीं पाता, कोइ सुनता है परन्तु श्रोतस्थ( आत्मस्थ ) नहीं कर पाता| वह किसी विशिष्ट को ही अपने सौन्दर्य का वास्तविक ज्ञान-दर्शन कराती है जैसे रूपवती पत्नी अपना सौन्दर्य केवल अपने पति को दिखाती है|


ऋग्वेदिक समाज पति-पत्नी के बीच प्रेम को लेकर भी सतर्क था। ऋग्वेद के सर्वप्रथम पूज्य देवता अग्नि, विवाह में पति-पत्नी का मन मिलाते हैं- दंपति समनसा कृणोपि अग्नि: (ऋग्वेद 5.3.2) विवाह संस्कार में अग्नि के सात फेरे की परम्परा इसी वजह से आयी।
संसार में दांपत्य जीवन में प्राय: एकपत्नीत्व ही सबसे अधिक प्रचलित है तथा अधिकांश समाजों में पुरुष की प्रधानता पाई जाती है। यूं परिवार के विभिन्न रूप, पुरुषप्रधान-पितृवंशीय, स्त्रीप्रधान-मातृ-वंशीय, बहुपत्नीत्वसमाज, बहुपतित्व समाज आदि भी पाए जाते हैं|
विवाह शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। समाज द्वारा स्वीकार की गई- 'परिवार की स्थापना करने वाली कोई भी पद्धति' |
विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन, जहाँ एक ओर समाज स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी) को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। 'पति' का अर्थ है पालन करने वाला-भरतार तथा 'भार्या' का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी। विवाह समाज में नवजात प्राणियों--संतान की स्थिति का निर्धारण करता है|
विवाह का उद्गम- मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था। विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध की पूरी स्वतंत्रता थी। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनके आधार पर पश्चिमी विद्वान विवाह की आदिम दशा कामचार की अवस्था मानते हैं जो बाद में बहुपत्नी प्रथा में विकसित हुई और अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने का नियम प्रचलित हुआ। परन्तु भारत में बहुभार्यता सदैव नारी की स्वयं की इच्छा, नारी के भरणपोषण की सदिच्छा, राजनीतिक आवश्यकता एवं विशिष्ट स्थितियों से जुड़ा रहा है |
विवाह की संस्था मानव समाज में जैवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह संस्था मनुष्य के पूर्वज समझे जाने वाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं वे प्रायः एक ही नर/मादा के साथ सारा जीवन व्यतीत करते हैं।
मानव समाज के विकास के एक स्थल पर, जब संतान की आवश्यकता के साथ उसकी सुरक्षा की आवश्यकता हुई एवं यौन मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत व्यक्तिगत व सामाजिक परिणाम हुए तो श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित की ताकि प्राकृतिक काम संवेग की व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ साथ स्त्री-पुरुष के आपसी सौहार्दिक सम्बन्ध एवं सामाजिक समन्वयता भी बने रहे | यजु.१०/४५ में कथन है—
“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“
--------अर्थात पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। स्त्री के लिए भी यही सत्य है | अतः दाम्पत्य-भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है, स्त्री को भी |




विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ है। श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है।
विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूषन देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।" फिर अग्नि से प्रार्थना है- "हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।" फिर इन्द्र से प्रार्थना है- "हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें।
ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- हे वधु ! तुम सास, ससुर, ननद, देवर समस्त परिवार की साम्राज्ञी बनो ----
"सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वसुरामं भव।
सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "



हमारे शास्त्रों ने चयन का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं| प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है| विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है| वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है।
सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतु, छटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
सात वचनों के महत्व को यदि समझ लिया जाये तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा...
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!...१...
----कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना| कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम
भाग में अवश्य स्थान दें| यदि आप स्वीकार करते हैं तो मुझे वामांग में आना स्वीकार है |

--धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य है| जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है| पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है|

पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!...२...
----कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
------इस वचन के द्वारा समाज व कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है| आजकल गृ्हस्थी में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद होने पर पति/पत्नी अपने पत्नि/पति के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देते हैं|
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!...३..
तीसरे बचन में कन्या कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ |
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!...४...
कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे| अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपका है| यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ |
--------इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं| विवाह पश्चात कुटुम्ब पोषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है| अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी कैसे चल पाएगी| इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके| यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे |
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!....५...
इस वचन में कन्या जो कहती है वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है| बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते| यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है|
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!...६...
कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें| यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं| विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं| ऎसे
व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा| यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले|
परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!...७..
अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें | यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
--------विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, ये सभी भली भान्ति जानते हैं, इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है|
इस प्रकार विवाह के इस सर्वश्रेष्ठ रूप में, ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है, वशर्ते कि आज के निष्ठाहीनता के युग में स्त्री-पुरुष दोनों ही इनका निर्वाह करें तो |
विवाह के विभिन्न पक्ष
-वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और स्वार्थत्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, मनुष्य तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता । पुरुष, प्रकृति के बिना और शिव, शक्ति के बिना अधूरा है।
धार्मिक दृष्टि से विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। यज्ञ या कोइ भी धार्मिक अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता | पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास के कारण भी विवाह हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य है। रोमनों का विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहने हेतु उनका मृतक संस्कार यथाविधि होना तथा अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहने चाहिए| यहूदियों के अनुसार विवाह से बचने वाला व्यक्ति हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है। औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।
आर्थिक पक्ष के अनुसार प्रसूति के समय में तथा उसके बाद कुछ काल तक कार्यसक्षम न होने के कारण पत्नी को पति के अवलंब की आवश्यकता होती है, इस कारण दोनों में श्रम-विभाजन होता है, पत्नी बच्चों के लालन पालन और घर के काम को सँभालती है और पति पत्नी तथा संतान के भरणपोषण का दायित्व लेता है। नव-युग, औद्योगिक युग के कारण स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गईं, इससे पति-पत्नी, परिवार की स्थिति में कुछ अंतर आने लगा है। फिर भी, पत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।
विधिक दृष्टि से विवाह का एक क़ानूनी पक्ष भी है। परिणय सहवास मात्र नहीं है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार व स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड अथवा क़ानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होने वाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वर-वधू की सहमति से होने वाला विशुद्ध क़ानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह अनुबंध अन्य अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है, जिनमें अनुबंध करने वाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैं, किंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वर-वधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैं; वे समाज की रूढ़ि, परंपरा और क़ानून द्वारा निश्चित होते हैं।
सामाजिक दृष्टि के अनुसार विवाह का सामाजिक व नैतिक पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है, बालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्र निर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यद्यपि आजकल शिशु-शालाएँ, बालोद्यान, स्कूल और राज्य बच्चों के पालन, शिक्षण और सामाजीकरण के कुछ कार्य अपने ऊपर ले रहे हैं, तथापि निश्चय ही बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।
विवाह विच्छेद के सम्बन्ध में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य है। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है यथा हिंदू एवं रोमन कैथोलिक ईसाई समाज | किंतु विवाह विच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाह विच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही दिया जाता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। परन्तु विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, इस अधिनियम के अंतर्गत वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
विवाह-प्रथा के भविष्य व उस की समाप्ति की तथा राज्य द्वारा बच्चों के पालन की कल्पना समय समय पर होती रही है | वर्तमान में औद्योगिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों से तथा पश्चिमी देशों में तलाकों की बढ़ती हुई भयावह संख्या के आधार पर विवाह की संस्था के लोप की भविष्यवाणी होरही है | विवाह के परंपरागत स्वरूपों में बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राग्वैवाहिक सतीत्व और पवित्रता को गहरा धक्का पहुंचाया है।
किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाह प्रथा के बने रहने का प्रबल कारण है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते अर्थात वंश वृद्धि, संतान का पालन, सच्चे दांपत्य प्रेम और सुख प्राप्ति । यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। राज्य और समाज शिशुशालाओं और बालोद्यानों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी परिवार में होती है। सहजीवन से भी दाम्पत्य प्रेम व सच्चा सुख संभव नहीं है अतः भविष्य में विवाह एक महत्त्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें।







मुख्यत: परिवार के अंतर्गत पति, पत्नी और उनके बच्चों का समूह माना जाता है, परंतु विश्व के अधिकांश भागों में परिवार का अर्थ एक सम्मिलित रूप से निवास करने वाले रक्त संबंधियों का वह समूह है जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा (गोद लेने) द्वारा परिवार की स्वीकृति प्राप्त व्यक्ति भी सम्मिलित होते हैं। 'मानव समाज में परिवार एक बुनियादी तथा सार्वभौमिक इकाई है। यह सामाजिक जीवन की निरंतरता, एकता एवं विकास के लिए आवश्यक प्रकार्य करता है। अधिकांश पारंपरिक समाजों में परिवार सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों एवं संगठनों की इकाई रही है। आधुनिक औद्योगिक समाज में परिवार प्राथमिक रूप से संतानोंत्पत्ति, सामाजीकरण एवं भावनात्मक संतोष की व्यवस्था से संबंधित प्रकार्य करता है।'[1]



परिवार से अभिप्राय



विश्व के सभी समाजों में शिशु का जन्म और पालन पोषण का उत्तरदायित्व परिवार का ही होता है। शिशुओं को संस्कार देने और समाज के आचार, व्यवहार और नियमों में दीक्षित करने का दायित्व मुख्यत: परिवार का ही होता है। इसी परम्परा और नियम के द्वारा समाज की सांस्कृतिक विरासत और संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्वभाविक रूप से हस्तांतरित होती रहती है।



'भारत में ख़ासकर गांवों में परिवार बड़े हैं। लेकिन शहरों में परिवार छोटे हैं। शहरों में बच्चे को मां बाप के साथ छोटे से मकान में रहना पड़ता है। कुछ परिवारों में बच्चा अपने चाचा, चाची, मां, पिताके साथ रहता है। परन्तु इन सभी परिवारों में मां बच्चे के बीच सबसे अधिक नजदीकी रिश्ता है। बच्चे के विकास में भी मां की ही सबसे ज़्यादा बड़ी भूमिका रहती है। बच्चा पैदा होने के बाद से मां के आंचल में रहते हुये भी सीखना शुरू कर देता है। मां की लोरियां उसे सिर्फ़ सुलाती ही नहीं उसके अन्दर प्रारंभ से ही सुनने, ध्यान देने और समझने की क्षमता भी विकसित करती हैं। दूसरी ओर मां-पिता या बाबा-दादी, नाना-नानी द्वारा सुनायी गयी कहानियां उसका नैतिक,चारित्रिक विकास करने के साथ ही उसके अंदर मानवीय मूल्यों की नींव भी डालती हैं। इसीलिये मां को पहली शिक्षकभी कहा जाता है।' [2]



परिवार का आधार



परिवार के सदस्यों की सामाजिक मर्यादा और सीमा परिवार से ही निर्धारित होती है। नर नारी के यौन संबंधों का आधार मुख्यत: परिवार के अंतर्गत परिवार की सीमा में निहित होता है। वर्तमान में औद्योगिक सभ्यता से उत्पन्न जनसंकुल समाज और नगर को यदि इसके अंतर्गत ना लेकर छोड़ दिया जाए तो व्यक्ति का परिचय मुख्यत: उसके परिवार और कुल पर आधारित ही होता है।



परिवार के प्रकार



विश्व के विभिन्न प्रदेशों और विभिन्न कालों में रचना, आकार, संबंध, और कार्य की दृष्टि से परिवार के अनेक भेद किये हैं, परंतु परिवार के उपर्युक्त कार्य सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सनातन हैं। परिवार में देश, काल, प्रथा और परिस्थिति के कारण एक या एक से अधिक पीढ़ियों का, एक या एक से अधिक दंपतियों (पति-पत्नियों) का समूह होना संभव है। किसी भी परिवार के सदस्य एक निश्चित पारिवारिक अनुशासन व्यवस्था के अंतर्गत पति - पत्नी, भाई - बहन, दादा (पितामह) - पोता (पौत्र), चाचा - भतीजा, सास - पुत्रवधु जैसे अनेक संबंधों में बंधा रहता है जिसमें कर्तव्यों एवं अधिकारों से परस्पर बद्ध, अन्य दूसरे सामाजिक समूहों से अलग एक अभिन्न और घनिष्टतम अंतरंग समूह के रूप में एक साथ रहते हैं।



परिवार में कार्यविभाजन



परिवार के अंतर्गत स्त्री और पुरुष के मध्य कार्य का विभाजन भी सदैव से निश्चित, पारम्परिक और सार्वकालिक है। स्त्रियों का अधिकांश समय सामान्यत: घर में ही व्यतीत होता है। परिवार के सदस्यों का भोजन बनाना, शिशुओं की देखभाल और पालन पोषण, घर की स्वच्छ्ता का ध्यान रखना, वस्त्रों की सिलाई आदि अनेक ऐसे काम हैं जो परिवार की स्त्री के लिए होते हैं। पुरुष के लिए हमेशा से बाहरी कार्य और अधिक श्रमसाध्य कार्य निश्चित हैं - जैसे खेती, व्यापार, उद्योग, पशुओं का पालन, शिकार और युद्ध आदि। परंतु स्त्री पुरुष का यह कार्य विभाजन सब समाजों में समान नहीं है। इसके लिए कोई सामान्य सूची भी बनाना बहुत ही कठिन है क्योंकि कुछ समाजों में स्त्रियाँ भी खेती और शिकार जैसे पुरुषों के कार्यों में समान रूप से भाग लेती हैं।



परिवार संस्था का विकास



विवाह का परिवार के स्वरूपों से गहन संबंध है। 'लेविस मार्गन' जैसे विकासवादियों का मत है कि मानव समाज की प्रारंभिक अवस्था में विवाह प्रथा प्रचलित नहीं थी और समाज में पूर्ण कामाचार का प्रचलन था। इसके बाद समय के साथ साथ धीरे धीरे सामाजिक विकास के क्रम में 'यूथ विवाह', जिसमें कई पुरुषों और कई स्त्रियों का सामूहिक रूप से पति पत्नी होना), 'बहुपति' विवाह, 'बहुपत्नी' विवाह और 'एक पत्नी' या 'एक पति' की व्यवस्था समाज में विकसित हुई। वस्तुत: 'बहुविवाह' और 'एकपत्नी' की प्रथा असभ्य एवम सभ्य दोनों ही समाजों में पाई जाती है। अत: यह मत सुसंत प्रतीत नहीं होता। मानव शिशु के पालन पोषण के लिए एक दीर्घ अवधि अपेक्षित है। पहले शिशु की बाल्यावस्था में ही दूसरे अन्य छोटे शिशु उत्पन्न होते रहते हैं। गर्भावस्था और प्रसूति के समय में माता की देख-रेख का होना आवश्यक है। पशुओं की भाँति मनुष्य में रति की कोई विशेष ऋतु निश्चित नहीं है। अत: संभावना है कि मानव समाज के आरंभ में या तो पूरा समुदाय ही या केवल पति पत्नी और शिशुओं का समूह ही परिवार कहलाता था।



परिवार का स्वरूप



मानव सम्बंधों पर कार्य कर रहे वैज्ञानिकों को कोई ऐसा समाज नहीं मिला जहाँ विवाह के संबंध परिवार में ही होते हों, इस कारण से परिवार चाहे पितृसत्तात्मक हों या मातृसत्तात्मक, परिवार में पत्नी या पति को अतिरिक्त सदस्यता प्रदान की ही जाती है। युगल परिवार या एकाकी परिवार में पति और पत्नी मिलकर अपनी पृथक घर - गृहस्थी स्थापित करते हैं, परंतु अधिकांशत: समाजों में परिवार 'बृहत्तर कौटुंबिक समूह' का अंग ही माना जाता है और जीवन के विभिन्न प्रसंगों में परिवार के सदस्यों पर घनिष्ट संबध के अतिरिक्त 'बृहत्तर कौटुबिक समूह' का भी नियंत्रण होता है।अमेरिका जैसे उद्योग प्रधान देशों में कुटुंबियों के सम्मिलित एवं बड़े परिवार के स्थान पर युगल परिवार या एकल की बहुलता हो गई है। अमेरिका का समाज पितृसत्तात्मक है, किंतु वहाँ का युगल परिवार किसी एक 'बृहत्तर कुटुंब' का अंग नहीं माना जाता। एकल या युगल परिवार में पति पत्नी और उनके अविवाहित शिशु सम्मिलित माने जाते हैं। सम्मिलित परिवारों में इनके अतिरिक्त विवाहित बच्चे और उनकी संतान, विवाहित भाई अथवा बहन और उनके बच्चे एक साथ रह सकते हैं। सम्मिलित परिवार में रक्त संबंधियों की मान्यता भिन्न भिन्न समाजों में भिन्न भिन्न है। भारत में एक सम्मिलित परिवार में साधारणत: 10 से लेकर 12 तक सदस्य होते हैं, किंतु कुछ परिवारों में सदस्यों की संख्या 50 - 60 या 100 तक भी होती है। 'समाज के कई बड़े संयुक्त परिवारों से मिलने पर एक बात सामने आई कि इन परिवारों में व्यक्ति से ज़्यादा अहमियत परिवार की होती है। वहां व्यक्तिगत पहचान कोई मुद्दा नहीं होता। परिवार में कुछ बंदिशें होती हैं, जिनका परिवार के सभी सदस्यों को अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। समाजशास्त्री मानते हैं कि बडे़ संयुक्त परिवारों को सही ढंग से चलाने के लिए लोगों को खुद से ज़्यादा परिवार को महत्त्वपूर्ण मानना पड़ता है।'[3]



विवाह, वंशावली, स्वामित्व और शासनाधिकार के विभिन्न रूपों के आधार पर परिवारों के विभिन्न रूप और प्रकार हो जाते हैं।



मातृसत्तात्मक परिवार



मातृस्थानीय परिवार में पति अपनी पत्नी के घर का स्थायी या अस्थायी सदस्य बनता है, मातृस्थानीय परिवार साधारणत: मातृवंशीय होते हैं। बहुधा परिवार की संपत्ति का स्वामित्व मातृस्थानीय परिवार में नारी को प्राप्त है। मातृसत्तात्मक परिवारों में मामा या माता का अन्य सबसे बड़ा रक्तसंबंधी (पुरुष) घर का मुखिया होता है।



पितृसत्तात्मक परिवार



पितृस्थानीय परिवार में पत्नी पति के घर जाकर रहती है। पितृस्थानीय परिवार पितृवंशीय होते हैं। बहुधा परिवार की संपत्ति का स्वामित्व पितृस्थानीय परिवार में पुरुष को प्राप्त है। पितृसत्तात्मक परिवारों में साधारणत: पिता अथवा घर का सबसे बड़ा पुरुष घर का मुखिया होता है।



संपत्ति का उत्तराधिकारी



प्राय: संपत्ति का उत्तराधिकारी परिवार की ज्येष्ठ संतान होती है। परंतु यह आवश्यक नियम नहीं है। भारत की गारो जैसी जनजाति में सबसे छोटी लड़की ही पारिवारिक संपत्ति की स्वामिनी होती है। अनेक समाजों में परिवार के सभी स्त्री या पुरुष सदस्यों में स्वमित्व निहित रहता है और कुछ परिवारों में पुरुष तथा स्त्री दोनों को संपत्ति का समान उत्तराधिकार प्राप्त है। परिवार का शासन अधिकांशत: समाजों में पुरुषों के पास होता है। अंतर बस इतना ही है कि पितृसत्तात्मक परिवारों में साधारणत: पिता अथवा घर का सबसे बड़ा पुरुष और मातृसत्तात्मक परिवारों में मामा या माता का अन्य सबसे बड़ा रक्तसंबंधी (पुरुष) घर का मुखिया होता है। अत: संसार के अधिकांश भागों के समाजों में पुरुष की प्रधानता पाई जाती है।



परिवार का प्रचलित स्वरूप



विश्व में दांपत्य जीवन में प्राय: 'एकपत्नी' परिवार ही सबसे अधिक प्रचलित है, किंतु अनेक समाजों में पुरुषों को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की भी छूट प्राप्त है। इसके विपरीत टोडा और खस जनजातियों में और तिब्बत के कुछ प्रदेशों में बहुपति प्रथा, एक प्रकार के यूथ विवाह की प्रथा आज भी प्रचलित है। इसी प्रकार भारत में खासी, गारो और अमरीका में होपी, हैडिया जैसी जनजातियाँ भी हैं जो मातृस्थानीय और मातृवंशीय हैं। विवाह के इन रूपों में परिवार की रचना और स्वरूप में अंतर पड़ जाता है।



परिवार पर औद्योगिक क्रांति का प्रभाव



आधुनिक औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप परिवार की रचना और कार्यों में गंभीर परिवर्तन आये हैं। पहले सभी समाजों में परिवार समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण, मौलिक और संगठित संस्था थी। जीवन के अधिकांश व्यापार परिवार के माध्यम से ही संपन्न होते थे। इन औद्योगिक समाजों में परिवार अब उत्पादन की इकाई नहीं रह गयी है, कार्य विभक्त हो गये हैं, जैसे - बच्चों के शिक्षण का कार्य शिक्षण संस्थाओं ने लिया है, भोजन व रसोई का कार्य व्यावसायिक भोजनालयों, जलपानगृहों में चला गया है। मनोरंजन के लिए पृथक संगठन स्थापित हो गए हैं, सामाजिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व राज्य के पास चला गया और धर्म के घटते हुए प्रभाव के कारण धार्मिक कृत्यों का स्थान गौण को गया है। पति - पत्नी का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है। फिर भी परिवार बना हुआ है और उसके द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न होते हैं, जो परिवार का 'स्थायी' या 'अवशिष्ट कार्य' कहलाता है।



कबीलाई परिवार



जनजातियों में, जो सामाजिक विकास क्रम में आदिम अवस्था के अधिक निकट हैं, विवाह और परिवार के लगभग सभी रूप मिलते हैं। इन परिवारों में विकास के क्रम के आधार से पूर्वापर क्रम निर्धारित करना संभव नहीं है। कंदमूल और शिकार पर बसर करनेवाले अंडमानी आदिमवासियों में एकपत्नीत्व का नियम है और वे पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय हैं। उत्तरी अमरीका के खेतिहर होपी कबीले में एकपत्नीत्व या एकपतित्व की प्रथा है किंतु वे मातृवंशीय और मातृस्थानीय है। अधिकांश जनजातीयों में परिवार का संयुक्त रूप है, परंतु जहाँ पति पत्नी अलग घर में रहते हैं, वे भी एक बृहत्तर परिवार का ही अंग होते हैं और इस परिवार की सम्मिलित सम्पत्ति, आर्थिक क्रियाओं, धार्मिक कृत्यों तथा अनेक परिवारिक अधिकारों एवं कर्तव्यों आदि से जुड़ी एक पृथक इकाई भी होती है। वंशावली के दो प्रकारों में से कोई कबीला या जनजाती या तो पितृवंशीय होती है या मातृवंशीय। जो कबीले मातृवंशीय हैं वे प्राय: मातृस्थानीय भी हैं, जहाँ पति परिवार का स्थायी या अस्थायी सदस्य होता है।



कबीलों में नारी का स्थान



गारो कबीले में तो वह आगंतुक मात्र है, जो रात भर का मेहमान होता है। किंतु मातृवंशीय और मातृस्थानीय कबीले बहुत कम हैं। बहुपतित्व कबीले तो और भी कम हैं। पितृवंशीय कबीलों में ही बहुपति प्रथा पाई गई है और इनमें नारी का स्थान पुरुष की अपेक्षा हीन है। पितृस्थानीय कबीलों में पुरुष को एक से अधिक पत्नी रखने की प्राय: अनुमति है, किंतु ऐसा बहुत कम होता है। विशिष्ट तथा शक्तिशाली व्यक्ति ही ऐसा कर पाते हैं। ऐसी अवस्था में पत्नियाँ एक घर में भी रहती हैं और पास पास बने अलग अलग घरों में भी। यूथ विवाह अपने शुद्ध रूप में किसी भी कबीले में नहीं मिलता। जौनसार बाबर में भ्रातुक बहुपति प्रथा है। वहाँ सगे भाई कभी कभी एक से अधिक पत्नियाँ रख लेते हैं और वे सब भाइयों की सामूहिक पत्नियाँ होती हैं, जो एक गृहस्थी तथा परिवार का अंग होती हैं।



शक्तिशाली वर्ग पुरुष



मातृवंशीय और मातृस्थानीय कबीलों में भी शासक व शक्तिशाली वर्ग पुरुष ही है, किंतु नारी के अधिकारों तथा प्रतिष्ठा की दृष्टि से पितृवंशीय और पितृस्थानीय कबीलों की अपेक्षा इन कबीलों में नारी की स्थिति प्राय: अच्छी है। कई पितृवंशीय कबीलों में भी नर और नारी का महत्व समान ही है, किंतु अधिकांश कबीलों में पुरुष की अपेक्षा उसका महत्व कम है।



विवाह विच्छेद और पुनर्विवाह



कबीलों में विवाह विच्छेद और पुनर्विवाह का पुराना नियम है और इस संबंध से स्त्री और पुरुष को प्राय: समान अधिकार हैं। वास्तव में अधिकांश कबीले पितृवंशीय हैं और नारी को विवाह के बाद पुरुष के परिवार, कुटुंब और बस्ती में जाना पड़ता है, जहाँ पति के माता, पिता, भाई तथा अन्य रक्त संबंधी और मित्र होते हैं। वहाँ उसे पति के परिवार का अंग बनकर परिवार के बड़े लोगों के अनुशासन में रहना होता है और पति के कुलाचार का पालन करना होता है। विवाह विच्छेद की अवस्था में नारी को अपने माता पिता की शरण लेनी पड़ती है। मातृस्थानीय कबीलों में परिवार अधिक स्थायी दिखाई देता है। यह रक्त संबंधियों का एक नैसर्गिक समूह जान पड़ता है। बहुत कम कबीले ऐसे हैं जहाँ लड़के या लड़कियों के लिए विवाह के पूर्व ब्रह्मचर्य पालन का नियम हो। कुछ कबीलों में विवाह के पूर्व परीक्षण काल की व्यवस्था भी पायी जाती है। जौनसार बाबर के खसों में अभ्यागतों के स्वागत में परिवार की अविवाहित लड़कियों को संभोग के लिए प्रस्तुत करने की प्रथा है। इससे यह स्पष्ट है कि परिवार का अस्तित्व नर नारी की वासना तृप्ति के लिए नहीं, वरन परिवार द्वारा उसे मर्यादित किया जाता है।



भारतीय परिवार



भारत मुख्यत: एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की पारिवारिक रचना कृषि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी है। इसके अतिरिक्त भारतीय परिवार में परिवार की मर्यादा और आदर्श परंपरागत है। विश्व के किसी अन्य समाज़ में गृहस्थ जीवन की इतनी पवित्रता, स्थायीपन, और पिता - पुत्र, भाई - भाई और पति - पत्नी के इतने अधिक व स्थायी संबंधों का उदाहरण प्राप्त नहीं होता। विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, जातियों में सम्पत्ति के अधिकार, विवाह और विवाह विच्छेद आदि की प्रथा की दृष्टि से अनेक भेद पाए जाते हैं, किंतु फिर भी 'संयुक्त परिवार' का आदर्श सर्वमान्य है। संयुक्त परिवार में संबंधी पति - पत्नी, उनकी अविवाहित संतानों के अति रिक्त अधिक व्यापक होता है। अधिकतर परिवार में तीन पीढ़ियों और कभी कभी इससे भी अधिक पीढ़ियों के व्यक्ति एक ही घर में, अनुशासन में और एक ही रसोईघर से संबंध रखते हुए सम्मिलित संपत्ति का उपभोग करते हैं और एक साथ ही परिवार के धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों में भाग लेते हैं। मुसलमानों और ईसाइयों में संपत्ति के नियम भिन्न हैं, फिर भी संयुक्त परिवार के आदर्श, परंपराएँ और प्रतिष्ठा के कारण इनका सम्पत्ति के अधिकारों का व्यावहारिक पक्ष परिवार के संयुक्त रूप के अनुकूल ही होता है। संयुक्त परिवार का कारण भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त प्राचीन परंपराओं तथा आदर्श में निहित है। रामायण और महाभारत की गाथाओं द्वारा यह आदर्श जन जन प्रेषित है।



परिवार की स्थिरता



कृषि कार्य ने सर्वत्र ही पारिवारिक जीवन की स्थिरता प्रदान की है। अत: भारतीय समाज में परंपरा से उत्पादन कार्य, उपभोग, और सुरक्षा की मूलभूत इकाई परिवार है। अपवादों को छोड़ दें तो भारतीय समाज पितृवंशीय, पितृस्थानीय और पितृभक्त है। यहाँ पुरुष की अपेक्षा नारी का महत्व कम माना जाता है। संपत्ति पर नारी का बहुत सीमित अधिकार माना गया है। किंतु घर गृहस्थी के अनेक मामलों में उसकी महत्ता स्वीकृत है।



एक विवाह की मान्यता



साधारणत: एक विवाह की मान्यता प्रचलित है, परंतु पुरुष को एक से अधिक विवाह करने का अधिकार प्राप्त है। परंपरागत आदर्श के अनुसार 'विधवा विवाह' का निषेध किया जाता है, किंतु विधुर का पुनर्विवाह हो सकता है। 'पतिव्रत धर्म' की बहुत महिमा है और समाज में प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता है।



पूजा का महत्व



पितर पूजा का भी भारी महत्व है। पितृ कर्मकांड जाते हैं और मृत पितरों की पूजा का भी विधान है। उच्च जातियों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में विवाह विच्छेद और विधवा विवाह प्रचलित है, परंतु जब कोई जाति अपनी मर्यादा को ऊँचा करना चाहती है तो इन दोनों प्रथाओं का निषेध कर देती है।



वयोवृद्ध पुरुष मुखिया



घर का सबसे अधिक वयोवृद्ध पुरुष, यदि वह कार्यनिवृत्त न हो गया हो तो संयुक्त परिवार का कर्ता धर्ता अथवा मुखिया माना जाता है। कहीं कहीं उसे मालिक या स्वामी भी कहते हैं। यह पुरुष कर्ता अन्य वयोवृद्ध अथवा वयस्क सदस्यों की सलाह से या बिना सलाह के ही परंपरा के आधार पर परिवार में कार्य का विभाजन, उत्पादन, उपभोग आदि की व्यवस्था करता है और परिवार तथा उसके सदस्यों से संबधित सामाजिक महत्व के कार्य और कार्य पद्धति का निर्णय करता है।



वयोवृद्ध नारी महिला वर्ग की मुखिया



घर की सबसे वयोवृद्ध नारी परिवार के महिला वर्ग की मुखिया होती है और जो भी कार्य महिलाओं की ज़िम्मेदारी होते हैं, उनकी देखभाल और व्यवस्था करने का प्रयास करती है, जैसे - भोजन तैयार करना, बच्चों का पालन पोषण तथा सिलाई, कताई आदि की व्यवस्था करना इन महिलाओं का मुख्य कार्य है। अधिकतर महिलाएँ खेती के या व्यवसाय के कुछ साधारण कार्यों में भी पुरुषों का हाथ बँटाती हैं।



संयुक्त परिवार



Main.jpg मुख्य लेख : संयुक्त परिवार
संयुक्त परिवार में चाचा, ताऊ की विवाहित संतान, उनके विवाहित पुत्र, पौत्र आदि भी हो सकते हैं। साधारणत: पिता के जीवन में उसका पुत्र परिवार से अलग होकर स्वतंत्र गृहस्थी नहीं बसाता है। यह अभेद्य परंपरा नहीं है, कभी कभी अपवाद भी पाये जाते हैं। ऐसा भी समय आता है जब रक्त संबंधों की निकटता के आधार पर एक संयुक्त परिवार दो या अनेक संयुक्त अथवा असंयुक्त परिवारों में विभक्त हो जाता है। असंयुक्त परिवार भी कालक्रम में संयुक्त परिवार का ही रूप ले लेता है और संयुक्त परिवार का क्रम बना रहता है।



समाजशास्त्री सुशीला जैन कहती हैं कि 'संयुक्त परिवारों में प्यार का दायरा बड़ा होता है। बच्चों को सभी का लाड-प्यार मिलता है। ज़ाहिर है कि उनका मानसिक विकास ज़्यादा होगा। परिवार में बड़े-बुजुर्ग होने की वजह से बच्चों में संस्कार जल्दी आ जाते हैं। परिवार में यदि कोई विधवा है, तो उसकी देखभाल केवल संयुक्त परिवार में ही हो सकती है। प्यार और सम्मान बच्चों को यहां बचपन से मिल जाते हैं।[4]



संयुक्त परिवार में परिवर्तन



भारत के समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली बहुत प्राचीन है, यद्यपि इसके आंतरिक स्वरूप में बहुर्विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकार के नियमों में, समयानुसार परिवर्तन होता रहा है। औद्योगिक क्रांति ने पाश्चात्य देशों में परंपरागत संयुक्त परिवार का स्वरूप ही भंग कर दिया है जिसका कारण बढ़ते हुए यंत्रीकरण के फलस्वरूप व्यक्ति को परिवार से बाहर मिली आजीविका, सुरक्षा और उन्नति की सुविधाओं को कारण बताया जाता है। भारत में भी औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नई अर्थव्यवस्था और नये औद्योगिक तथा आर्थिक संगठनों का आरंभ होने के कारण परिवार संस्था का विघटन प्रारम्भ हो चुका है।



मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि एकल परिवारों में पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों पर अहम टकराने लगते हैं। उनके बीच के मनमुटाव को दूर करने के लिए उनके पास कोई तीसरा व्यक्ति नहीं होता है। अक्सर ऐसे मामलों में तलाक की नौबत आ जाती है। जानकार मानते है कि तलाक के ज़्यादातर मामले एकल परिवारों से आते हैं। इसके अलावा आत्महत्या और मानसिक अवसाद से जुड़े ज़्यादातर मामले भी एकल परिवारों की देन हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेले रहने वाले व्यक्ति हमेशा एक अज्ञात डर से भयभीत रहते हैं और कई बार यह डर इतना बढ़ जाता है कि नतीजा आत्महत्या के रूप में सामने आता है।[5]



यातायात और संचार के नये साधन उपलब्ध हो रहे हैं, नगरीकरण भी बहुत तेज़ी से हो रहा है। पाश्चात्य विचारधारा और पाश्चात्य शिक्षा दीक्षा और आदर्शों का प्रभाव भी परिवार के स्वरूप को प्रभावित कर रहा है। विशेषकर स्वाधीनता के बाद विवाह, उत्तराधिकार, दत्तकग्रहण और सांपत्तिक अधिकार के विषय में जो क़ानून बनाये जा रहे हैं उन्हें परिवार की संयुक्त प्रणाली के लिए हानिकारक समझा जाता है। इसी प्रकार आयकर के नियम भी इसके प्रतिकूल पड़ते हैं। वयस्क मताधिकार राजनीतिक लोकतंत्र भी संयुक्त परिवार के एकसत्तात्मक और व्यष्टिपरक अस्तित्व पर प्रहार कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब अर्थव्यवस्था और उत्पादन के साधनों में भी मूलभूत परिवर्तन हो रहा है, परिवार के शासन, रचना और कार्यों में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है और वह दिखायी भी दे रहा है। अभी यह कहना कठिन है कि परिवार का संयुक्त रूप समाप्त हो रहा है। नगरों और ग्रामों में संयुक्त परिवार पहले से कम हो गए हैं। परिवर्तन के संबंध में विद्वानों में मुख्यत: दो प्रकार की विचारधाराएँ है -



एक विचार के अनुसार परिस्थिति के प्रभावस्वरूप परिवार में कतिपय परिवर्तन होने पर भी उसका संयुक्त रूप नष्ट नहीं हो रहा है।
दूसरे विचार के अनुसार औद्योगिक सभ्यता भारत में भी संयुक्त परिवार को बहुत कुछ उसी एकल परिवार के रूप में प्रचलित करेगी जो अमरीका तथा यूरोप में प्रचलित है। वर्तमान पारिवारिक विघटन और परिवर्तनों को इस विकासक्रम की आरंभिक अवस्था बताया जाता है।
भारत में मातृसत्तात्मक परिवार



भारत के मालावार प्रदेश में नायर और तिया जाति में मातृ स्थानीय तथा मातृवंशी परिवार वर्तमान तक रहे हैं। ऐसे परिवारों में पति अपने बच्चों के घर में एक अस्थायी आगंतुक होता है। उसके बच्चों की देखभाल उसका मामा करता है और उसके बच्चे अपनी माँ के परिवार का नाम ग्रहण करते हैं। परिवार का रूप संयुक्त है, जिसमें माँ की और उसकी पुत्री अथवा पौत्रियों की संतान होती है। इन परिवारों में घर का मुखिया मातृपक्षीय पुरुष होता है। असम राज्य के गारो और ख़ासी जनजातियों में भी मातृवंशीय और मातृस्थानीय परिवार की प्रथा है।



भारत में बहुपति परिवार




उत्तर प्रदेश के जौनसार बाबर में खस नाम की जनजाति में और आस पास के कुछ क्षेत्रों में बहुपति प्रथा है। परिवार में सब भाइयों की एक पत्नी और कभी-कभी एकाधिक सामूहिक पत्नियाँ हेती हैं। नीलगिरि की टोडा जनजाति में भी बहुपति प्रथा है, किंतु यहाँ एक स्त्री के पतियों में भाइयों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी हो सकते हैं। गैर जनजातीय समाज में कहीं भी बहुपति प्रथा नहीं मिलती।

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6 June 2018 at 05:33

Thanks and I appreciate your knowledge and Skill for this post. Find Aaj Ka Rashifal in Hindi, Daily Horoscope in Hindi. Let me share the Weekly Hindi rashifal 2018. Rashifal is a Vedic Astrology techniques to know your future life.

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29 July 2019 at 02:48

hello sir, my name is monika my age is 23 year old. i want to know about my Kundli. can you please tell, when will i get government job and when i will get marry? My date timing is 10:20 PM, DOB is 29 May 1995, i just want to about my Kundli details. please contact me on my mai and give me full details of my Kundli 2019.

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18 November 2019 at 09:31

Name- Manish
Date of Birth- 19.10.1987
Birth Time- 08:35 am
Birth place- Banswara ( Rajasthan )
Email- manish.madhwani.mm@gmail.com
Please mail me your contact

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