चैत्र-नवरात्रि

चैत्र-नवरात्रि

चैत्र-नवरात्रि 
नवरात्रि कब है 2017 के लिए चित्र परिणाम
 वस्तुतः नवरात्रि को एक हिंदू पर्व मात्र ही नही अपितु नये वर्ष का आगाज भी माना जाता है। नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'नौ रातें'। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। नवरात्रि वर्ष में चार बार आता है। पौष, चैत्र,आषाढ,अश्विन  जो की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक मनाया जाता है तथा इसमें माँ दुर्गा की आराधना पूजा आदि करके उन्हें प्रसन्न करते हैं । दुर्गा का मतलब जीवन के दुख कॊ हटानेवाली होता है। नवरात्रि एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में महान उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष चैत्रीय नवरात्रि के प्रारम्भकाल को लेकर व्यर्थ में कुछ मिथ्या भ्रामक स्थिति उतपन्न की गयी है कुछ कलेंडर के कारण किन्तु इस लेख के माध्यम से शास्त्रीय प्रामाणो को ध्यान देते हुए पूर्ण स्पष्ट किया जा रहा है । इस वर्ष चैत्रशुक्लप्रतिपदा 28 मार्च मंगलवार को प्रातः 08:14 से प्रारम्भ हो रही है किन्तु सूर्योदय के समय अमावस्या तिथि होने से इस दिन चैत्र नवरात्र प्रारम्भ को अमान्य मानकर अगले दिन 29 मार्च को ए वत्सर के साथ चैत्रीय नवरात्रो के आरम्भ काल को प्रमाणित किया जाता है उसके विषय में निर्णय सिंधु के पृ०सं०143 में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है...तत्र -"चैत्रशुक्लप्रतिपदि वत्सरारम्भः" तत्रौदयिकी ग्राह्य।।अर्थात सनातन परम्परानुसार प्रमुखरूप से चैत्र शुक्लप्रतिपदा से ही नए वर्ष की शुरुवात माना जाता है और उसमें भी सूर्योदय के समय प्रतिपदा तिथि को वरीयता प्रदान की गयी है।।
हेमाद्रि में ब्रह्मपुराण का कथन है-
 "चैत्रे मासि जगद्ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेंहनि। शुक्लपक्षे समग्रम् तू तदा सूर्योदये सति
 अर्थात चैत्रमास के प्रथमदिन शुक्लपक्ष में सूर्योदय होने के समय में ही ब्रह्मा जी ने संसार की रचना की। उसी बात को ज्योतिर्निबन्ध में भी कहा गया है कि""चैत्रे सितप्रतिपदि यो वारोर्कोदये स वर्षेशः,,,अर्थात चैत्र शुक्लप्रतिपदा के सूर्योदय के समय जो वार होगा वही वर्षेश माना जायेगा ,तथा इस वर्ष चूँकि बुधवार 29 मार्च को चैत्र शक्लप्रतिपदा तिथि को सूर्योदय प्राय हो रहा है तो इस वर्ष का राजा भी '"बुध"' ही होंगे। इस प्रकार पूर्ण स्पस्ट है कि प्रति वर्ष की भाति ही इस वर्ष भी नए वत्सर के साथ ही चैत्रीय नवरात्रों का आरम्भ 29 मार्च से हो रहा है तथा जो की 05 अप्रैल बुधवार को नवमी तिथि को हवन एवम व्रत का पारण किया जाएगा ।।

 शक्ति की आराधना
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 नवरात्रि के नौ रातों में वशेष रूप से तीन देवियों - माँ महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती या सरस्वती के साथ ही माँदुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है, जो की निम्न प्रकार से है-

शैलपुत्री - इसका अर्थ- पहाड़ों की पुत्री होता है।

ब्रह्मचारिणी - इसका अर्थ- ब्रह्मचारीणी।

चंद्रघंटा - इसका अर्थ- चाँद की तरह चमकने वाली।

कूष्माण्डा - इसका अर्थ- पूरा जगत उनके पैर में है।

स्कंदमाता - इसका अर्थ- कार्तिक स्वामी की माता।

कात्यायनी - इसका अर्थ- कात्यायन आश्रम में जन्मि।

कालरात्रि - इसका अर्थ- काल का नाश करने वली।

महागौरी - इसका अर्थ- सफेद रंग वाली मां।

सिद्धिदात्री - इसका अर्थ- सर्व सिद्धि देने वाली।
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  कलश स्थापना का मुहूर्त
इस वर्ष प्रतिपदा तिथि 28 मार्च को प्रातः 08:15 से प्रारम्भ होकर 29 मार्च को 06:33 तक है । किंतु देवीपुराण में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने। मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता,,अर्थात अमावस्या युक्त प्रतिपदा तिथि को ग्रहण न करके द्वितीया को गुणान्वित मुहूर्त मात्र भी हो तो भी द्वितीया युक्त प्रतिपदा को चन्डीपुजा में ग्रहण करना चाहिए तथा 29 मार्च को प्रातः 06:33 ही तक होने से कलश स्थपना के लिए प्रतिवर्ष की भांति अधिक समय नही प्राप्त हो रहा तदपि भक्तजन 29 मार्च को ही सूर्योदये से लेकर अपनी सुविधा के अनुसार कलश स्थापना कर सकते है क्योंकि आचार्यो का मत है कि सूर्योदय कालीन तिथि सम्पूर्ण दिन मान्य रहती है।

 कैसे करें माता को प्रसन्न
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इन नव रात्रियों में माता के भक्तों को चाहिए की अपने घर के मंदिर में माता की भव्य चौकी सजाकर दिव्य आसन लगाये तथा प्रतिपदा तिथि को ही कलश स्थापित करके देवी के परमप्रिय दुर्गाशप्तसती का सम्पूर्ण पाठ किसी विद्वान आचार्य से पाठ करावे वा आरती में परिवार सहित उपस्थित होकर माता का आशीर्वाद ग्रहण करें एवम माता से प्राथना करें की हमारे परिवार में सुखशांति बनाये रखे व अपनी कृपादृष्टि सदा रखें ।

नोट--इसके अतिरिक्त स्वयं भी दुर्गाशप्तसती का पाठ (हिंदीरूपांतरण)एवं दुर्गानवार्ण मंत्र का अधिकाधिक जाप करे।अंत में नवमी तिथि को शप्तसती के मंत्रों से हवन आदि करें तथा यथा शक्ति कन्या व ब्राहाम्ण भोज भी करावें ।
नोट--उच्चारण का विशेष ध्यान रखे यदि संस्कृत में पाठ सम्भव न हो तो हिंदी में ही करें क्योंकि अशुद्ध उच्चारण फलप्राप्ति का मार्ग ही बदल देता है इसके विषय में निम्न कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है-

लंका-युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा और बताए अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ एक सौ आठ नीलकमल की व्यवस्था की गई। वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से चंडी पाठ प्रारंभ किया। यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम के पास पहुँचाई और परामर्श दिया कि चंडी पाठ यथासभंव पूर्ण होने दिया जाए। इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया और राम का संकल्प टूटता-सा नजर आने लगा। भय इस बात का था कि देवी माँ रुष्ट न हो जाएँ। दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था तत्काल असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि मुझे लोग 'कमलनयन नवकंच लोचन' कहते हैं, तो क्यों न संकल्प पूर्ति हेतु एक नेत्र अर्पित कर दिया जाए और प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, तब देवी ने प्रकट हो, हाथ पकड़कर कहा- राम मैं प्रसन्न हूँ और विजयश्री का आशीर्वाद दिया। वहीं रावण के चंडी पाठ में यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों की सेवा में ब्राह्मण बालक का रूप धर कर हनुमानजी सेवा में जुट गए। निःस्वार्थ सेवा देखकर ब्राह्मणों ने हनुमानजी से वर माँगने को कहा। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- प्रभु, आप प्रसन्न हैं तो जिस मंत्र से यज्ञ कर रहे हैं, उसका एक अक्षर मेरे कहने से बदल दीजिए। ब्राह्मण इस रहस्य को समझ नहीं सके और तथास्तु कह दिया। मंत्र में जयादेवी... भूर्तिहरिणी में 'ह' के स्थान पर 'क' उच्चारित करें, यही मेरी इच्छा है। भूर्तिहरिणी यानी कि प्राणियों की पीड़ा हरने वाली और 'करिणी' का अर्थ हो गया प्राणियों को पीड़ित करने वाली, जिससे देवी रुष्ट हो गईं और रावण का सर्वनाश करवा दिया। हनुमानजी महाराज ने श्लोक में 'ह' की जगह 'क' करवाकर रावण के यज्ञ की दिशा ही बदल दी। इसलिये चंडी पाठ के उच्चारण में विशेष ध्यान देना अनिवार्य है।

एकअन्यकथा
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इस पर्व से जुड़ी एक अन्य कथा के अनुसार देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा। और प्रत्याशित प्रतिफल स्वरूप महिषासुर ने नरक का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा। देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं थी। इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्ततः महिषासुर-वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलायीं।
नए वर्ष एवम चैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं तथा मातारानी आपके सम्पूर्ण जीवन को खुशियो व आनन्द से भर दे . यही हमारी सस्नेह शुभकामना है आप सबको।
आचार्य संजय शांडिल्य
           
हर संघर्ष के सेनापति मोदीImage result for narendra modi
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों ने बता दिया है कि देश में इस समय सर्वाधिक लोकप्रिय और विश्वस्त नेता नरेन्द्र मोदी ही हैं। सर्जिकल स्ट्राइक हो या नोटबंदी; जनता ने उनके हर निर्णय को शिरोधार्य किया है। मोदी हर संघर्ष में सेनापति की तरह आगे रहकर नेतृत्व करते हैं। अमित शाह का संगठन कौशल और रणनीतिक सूझबूझ भी निर्विवाद है। कांग्रेस में कैप्टेन अमरिंदर सिंह जनाधार वाले नेता, जबकि राहुल बाबा एक बार फिर पप्पू सिद्ध हुए हैं। अखिलेश और मायावती को जो चोट लगी है, उसे वे कभी नहीं भूल सकेंगे। केजरीवाल का बड़बोलापन काम नहीं आया। चुनावी विशेषज्ञ प्रशांत किशोर का प्रबंध धरा रह गया। बादल परिवार का भ्रष्टाचार पंजाब में भा.ज.पा. को भी ले डूबा। 
 
उत्तर प्रदेश-

 उ.प्र. के चुनावों पर देश ही नहीं, दुनिया भर की निगाह थी। कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर ही जाता है। निःसंदेह उ.प्र. ने 2019 के लिए मोदी का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। जहां तक अखिलेश की बात है, वह अत्यधिक आत्मविश्वास से भरे थे। परिवार में हुआ झगड़ा स्वाभाविक हो या प्रायोजित; पर अमरीका में बैठकर उनकी रणनीति बनाने वाले फेल हो गये हैं। घरेलू झगड़ा और राहुल का साथ, दोनों कदम आत्मघाती सिद्ध हुए। शिवपाल ने भी अखिलेश को हराने में पूरा जोर लगाया। अब शिवपाल का अलग समाजवादी दल भी शीघ्र ही देखने को मिल सकता है।
 अखिलेश ने हार तो तभी मान ली थी, जब उन्होंने राहुल से हाथ मिलाया था। वे यह नहीं समझ सके कि कांग्रेस डूबती नाव है और राहुल बेकार कप्तान। फिर भी उन्होंने गठबंधन किया। यद्यपि इससे उन्हें लाभ ही हुआ। गठबंधन के बिना अखिलेश की सीट इससे भी आधी रह जातीं और कांग्रेस साफ हो जाती। अखिलेश और राहुल को शायद यह समझ आ गया होगा कि लोग उनके चेहरे देखकर मन बहलाने तो आते हैं, पर वोट नहीं देते।
 अब ब.स.पा. की बात करें। मायावती का जातीय समीकरण कागजों पर तो बहुत अच्छा था, पर वह जमीन पर नहीं उतर सका। नोटबंदी से उन्हें भारी नुकसान हुआ। चुनाव के लिए रखे अरबों रुपये एक ही रात में रद्दी हो गये। अतः उनका चुनाव अभियान फीका रहा। यद्यपि नुकसान स.पा. को भी हुआ, पर सत्ता ने इसकी भरपाई कर दी। अब ब.स.पा. में विद्रोह और टूट की पूरी संभावना है। मायावती का राजनीतिक भविष्य भी अब समाप्त सा लगता है।
 जहां तक भा.ज.पा. की बात है, तो उनका पूरा अभियान मोदी केन्द्रित था और उसकी कमान सीधे अमित शाह के हाथ में थी। यद्यपि बिहार का ऐसा ही अभियान सफल नहीं हुआ था। उससे मोदी और अमित शाह ने काफी कुछ सीखा होगा। फिर बिहार और उ.प्र. की परिस्थिति अलग है। भा.ज.पा. ने बड़े जातीय समूहों की बजाय छोटे समूहों को साथ लिया। इससे उसे लाभ हुआ। प्रदेश में मुस्लिम वोटबैंक का मिथक भी टूटा है। मुस्लिम महिलाओं ने भी चुपचाप भा.ज.पा. का साथ दिया है। इससे औरतों को पैर की जूती समझने वाले मजहबी नेताओं को नानी याद आ गयी है। लगता है देश अब जाति, मजहब और वंशवादी राजनीति के कोढ़ से उबर रहा है।

पंजाब- 
उ.प्र. की तरह पंजाब भी एक बड़ा राज्य है। वहां बादल परिवार दस साल से सत्ता में था। भा.ज.पा. की भूमिका वहां छोटे सहयोगी की थी। इस बार माहौल बादल परिवार के विरुद्ध था। इससे कांग्रेस को लाभ हुआ; पर यह जीत वस्तुतः अमरिंदर सिंह की जीत है। यद्यपि राहुल ने उन्हें खूब अपमानित किया। फिर भी वे पार्टी में बने रहे। अंततः उन्हें ही चुनाव की कमान सौंपी गयी। सत्ता विरोध का लाभ ‘आपा’ को भी हुआ। एक समय तो मीडिया उसे विजेता कह रहा था; पर उसकी जीत बहुत दुखद होती। क्योंकि उसकी पीठ पर देश और विदेश में बैठे खालिस्तानियों का हाथ है। सीमावर्ती राज्य में उस जैसी अराजक पार्टी का शासन बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता था। इस नाते वहां कांग्रेस की जीत ठीक ही है।
 भा.ज.पा. को शुरू से ही बादल विरोधी रुझान दिख रहा था। फिर भी उसने साथ नहीं छोड़ा। इसके दो कारण हैं। एक तो दोनों का साथ पुराना है। दूसरा भा.ज.पा. वहां शहरी हिन्दुओं की पार्टी है, तो अकाली ग्रामीण सिखों की। दोनों का मेल वहां सामाजिक सद्भाव का समीकरण बनाता है। इसे बचाने के लिए निश्चित हार का खतरा उठाकर भी भा.ज.पा. अकालियों के संग रही। यदि भा.ज.पा. महाराष्ट्र की तरह वहां भी अलग से सब सीटों पर लड़ती, तो सबसे आगे रहती। लोगों को मोदी और भा.ज.पा. पर विश्वास है, पर बादल परिवार के बोझ ने नाव डुबो दी। अब भा.ज.पा. को चाहिए कि वह ग्रामीण सिखों में से नेतृत्व ढूंढकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये। इससे अगले सभी चुनावों में उसे सफलता मिलेगी।

उत्तराखंड-
 उत्तराखंड में भा.ज.पा. को दो तिहाई स्थान मिले हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत दोनों जगह से चुनाव हार गये हैं। उनका अहंकार और भ्रष्टाचार पूरी पार्टी को ले डूबा। साल भर पहले भा.ज.पा. ने सत्ता पाने के लिए पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में जाल बिछाया था, पर बात नहीं बनी। इस बार भा.ज.पा. ने उन सब विद्रोहियों को भी टिकट दिया था। भा.ज.पा. को गढ़वाल, कुमाऊं, तराई और मैदान, सब तरफ जीत मिली है। उत्तराखंड भा.ज.पा. में चार पूर्व मुख्यमंत्री हैं। अब ताज उनमें से किसी को मिलेगा या पांचवें को, यह देखना बहुत रोचक है।

गोवा-
 गोवा में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। भा.ज.पा. के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पार्सेकर और कई मंत्री भी हार गये हैं। इसमें भा.ज.पा. से नाराज स्वयंसेवकों की भी बड़ी भूमिका है। अर्थात आग घर के चिराग से ही लगी है। अब वहां सरकार किसकी बनेगी, यह समय ही बताएगा।

मणिपुर-
 मणिपुर में भा.ज.पा. के पास खोने को कुछ नहीं था। इसलिए उसे जो मिला, वह ठीक ही है। भा.ज.पा. काफी तेजी से ईसाई और जनजातीय प्रभाव वाले पूर्वोत्तर भारत में आगे बढ़ रही है। इसमें संघ द्वारा संचालित सेवा कार्यों का बड़ा योगदान है। साथ ही असम के पुराने कांग्रेसी और वर्तमान भा.ज.पा. नेता हेमंत बिस्व शर्मा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। कुल मिलाकर इन चुनावों ने भा.ज.पा. का प्रभाव और मोदी का कद बढ़ाया है।
संस्कृत , संस्कृति और मैक्समूलर 

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मैक्समूलर ने 'प्राचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास' लिखा जो कि 1859 में प्रकाशित किया गया। यह वही काल था जब भारत में 1857 की क्रांति हुई थी और जिसे भारतीय राष्ट्रवाद के 'पुनरूज्जीवी पराक्रम' का प्रतीक माना जा रहा था, तब जर्मनी में संस्कृत के प्रति ऐसा ठोस कार्य होना बहुत ही अर्थपूर्ण था। 
इसका अभिप्राय था कि भारतीय राष्ट्रवाद का 'पुनरूज्जीवी पराक्रमी' भाव भारतीयों को ही नहीं, विदेशियों को भी प्रभावित कर रहा था और भारत में चाहे लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्घति भारतीय भाषा को और संस्कृति को मारने का जितना प्रयास कर रही थी पर भारतीय भाषा और भारतीय संस्कृति उस समय भी लोगों को संस्कार बांट रही थी और निरंतर अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। अपनी उपरोक्त पुस्तक में मैक्समूलर ने भारत की ऋग्वेदकालीन आर्य मान्यताओं की बड़ी गंभीर विवेचना की है। अपनी इसी पुस्तक में वह भारत के ऋग्वेद को विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ घोषित करता है। इस ग्रंथ में वह भारतीय भाषा और संस्कृति से तथा भारत के धर्म से अभिभूत दिखायी पड़ता है। उसके इस प्रकार के भाव ने उस समय के विश्व स्तरीय विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कराया था। जिससे संस्कृत को विश्व के ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानने और संस्कारों का पालना बनाने में सहायता मिली। भारत के विषय में यह सत्य है कि इसकी मनीषा विश्व की मार्ग दर्शिका रही है और विश्व की अन्य संस्कृतियों की मनीषा इसके सामने फीकी ही रही है। मैक्समूलर ने इस तथ्य को बड़ी स्पष्टता से अपने ग्रंथ में स्वीकार किया। उसने इस ग्रंथ में भारत की वैदिक संहिताओं ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद तथा परवर्ती स्मृति साहित्य का पूर्ण मनोयोग से विवेचन किया है। उसे भारत के वैदिक धर्म के एकेश्वरवादी स्वरूप ने अधिक प्रभावित किया था। जिसे उसने 'मोनोथीज्म' का नाम दिया था। इसका अभिप्राय था कि मैक्समूलर वेद की इस घोषणा को ही उचित और अंतिम सत्य मानता था कि 'एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात वह परमपिता परमात्मा तो एक ही है परंतु विद्वान लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। भारत की मूलभाषा संस्कृत का विश्व के लिए यह बहुत बड़ा संदेश है कि ईश्वर को एक ही जानो और एक ही मानो। उसके नाम पर लड़ो झगड़ो नही और ना ही अपने अलग-अलग संप्रदाय बनाओ। संस्कृत भाषा की इसी विशेषता को एक संस्कार के रूप में हिंदी ने अपनाया है, और वह भी मनुष्य के न लडऩे झगडऩे को धर्म घोषित करती है। मैक्समूलर ने भारतीय भाषा के इस धर्म की गंभीर विवेचना की, और उसने हमारी संस्कृत और संस्कृति के रोम-रोम में मानवतावाद को एक रस हुए पाया।
मैक्समूलर भारत के धर्म पर लिखता ही नही था अपितु भारतीय विद्या और भाषाशास्त्र पर उत्तम व्याख्यान भी दिया करता था। जिससे लोगों पर उत्तम प्रभाव पड़ता था। उसने भारत से प्रभावित होकर अपनी प्रसिद्घ पुस्तक 'इंडिया व्हाट इट कैन टीच अस' लिखी। इस पुस्तक को विश्व में बड़ी प्रसिद्घि मिली और लोगों को इसके माध्यम से भारत को और भारत की समृद्घ भाषा को समझने का उचित अवसर प्राप्त हुआ। मैक्समूलर लिखता है:-''इस बात का पता लगाने के लिए कि सर्वाधिक सम्पदा और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण ऐसा कौन सा देश है? यदि आप मुझे इस भूमंडल का अवलोकन करने के लिए कहें तो मैं बताऊंगा कि वह देश भारत है, भारत जहां भूतल पर ही स्वर्ग की छटा निखर रही है। यदि आप यह जानना चाहें कि मानव मस्तिष्क की उत्कृष्टतम उपलब्धियों का सर्वप्रथम साक्षात्कार किस देश ने किया है और किसने जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर विचार कर उनमें से कईयों के ऐसे समाधान ढूंढ़ निकाले हैं कि प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों का अध्ययन करने वाले लोगों के लिए भी वे मनन के योग्य हैं तो मैं फिर भारत का ही नाम लूंगा और यदि यूनानी, रोमन और सेमेटिक जाति के यहूदियों की विचारधारा में ही सदा अवगाहन करते रहने वाले हम यूरोपियनों को ऐसा कौन सा साहित्य पढऩा चाहिए जिससे हमारे जीवन का अंतर्तम परिपूर्ण और अधिक सर्वांगीण अधिक विश्वव्यापी यूं, कहें कि संपूर्णतया मानवीय बन जाए और जीवन ही क्यों अगला जन्म तथा शाश्वत जीवन भी सुधर जाए तो मैं एक बार भारत का ही नाम लूंगा।''
इस प्रकार मैक्समूलर ने भारत को विश्व की भाषाओं का, विश्व के धर्मों का और विश्व की संस्कृतियों का एकमात्र प्रेरणा स्रोत बनाकर यह सिद्घ किया कि विश्व में भाषा, धर्म व संस्कृति की समरूपता तभी संभव है जब लोग भारत को जानें और भारत को समझें। उसका मानना था कि अधिकतर लोगों को भारत के प्राचीन साहित्य की खोज परियों की कहानी जैसी लगती होगी। इतिहास का एक अध्याय उसे वे कम मानते हैं। उस साहित्य के शुद्घ और सही होने में संदेह है जो और संदेह किया जाता रहा है। संस्कृत के ग्रंथों की संख्या जिनके हस्तलेख आज भी सुरक्षित हैं, लगभग 10,000 आंकी जाती है। अरिस्टोटल और प्लेटो ने क्या कहा यदि उनसे कहा जाता है कि उनके समय में भारत में जिस भारत की विजय न सही खोज अलेक्जेंडर ने की थी प्राचीन-साहित्य है, जो यूनान के साहित्य की अपेक्षा अधिक समृद्घ है।
अब से लगभग 150 वर्ष पूर्व जब भारत को लोग अंग्रेज जाति का गुलाम समझने की भ्रांति में थे, तब भारतीय भाषा और साहित्य के लिए मैक्समूलर की ऐसी सोच और खोज बहुत ही अर्थपूर्ण थी। जो लोग प्राचीनकाल में विश्व का नेतृत्व करने वालों में यूनान की संस्कृति और वहां की भाषा को प्राथमिकता दे रहे थे-मैक्समूलर की ऐसी धारणा और सिद्घांत के प्रतिपादन से उनकी प्राथमिकता बदल गयी और लोग भारत की ओर देखने लगे। उन्हें लगा कि विश्व संभवत: और संस्कृति का सूर्य तो भारत में जन्मा है। उन्हें मैक्समूलर ने बताया कि दूसरे स्थानों की अपेक्षा भारतवर्ष में हम जिसका पर्यक्षेपण और अध्ययन अधिक कर सकते हैं वह यह है कि धार्मिक विचार और धार्मिक भाषा की उत्पत्ति कैसे होती है उनमें वेग कैसे आता है, विस्तार कैसे होता है, एक मुख से दूसरे मुख तक जाने में उनके रूप कैसे बदल जाते हैं, एक मस्तिष्क से दूसरे में पहुंचने में परिवर्तन कैसे होता है? फिर भी उन सबमें एक समता रहती है जो मूल स्रोत से जहां से उसका उद्गम हुआ किसी न किसी अंश में समान होती है।
मैक्समूलर की मान्यता थी कि संस्कृत के अध्ययन से हमको मानवीय भाषा की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन करने में सफलता मिली है। मैक्समूलर वेदों को भारतीय मान्यता के अनुरूप अपौरूषेय मानता था, इसलिए वेदों की भाषा भी अपौरूषेय ही है। जिससे स्पष्ट है कि संसार को भारत की भाषा-संस्कृत को देवभाषा मानना चाहिए। मैक्समूलर भारत की संस्कृत भाषा के विषय में कहता है कि यह दुर्भाग्य ही था कि संस्कृत की विद्वत्ता के लिए हमारा प्रथम परिचय भारतीय साहित्य के कालिदास और भवभूति के सुंदतापूर्ण वर्णन से ही हुआ और शैव तथा वैष्णवों के द्वंद्व ही हमने देखे। वास्तविक मौलिक और महत्वपूर्ण काल संस्कृत साहित्य का वह है जो बौद्घ धर्म के उदय से पूर्व था, उसका अध्ययन और अधिक गंभीरता से करना आवश्यक है। तब संस्कृत भारत की बोलचाल की भाषा थी। उस समय शिव की उपासना अज्ञात थी। 
भारत के लोग अपनी भाषा के प्रति कितने गंभीर थे उसका चित्रण करते हुए मैक्समूलर का कहना था कि उस अद्र्घनग्न हिंदू पर विचार कीजिए जो भारतीय गगन के नीचे मुक्ताकाश में पवित्र ऋचाओं का पाठ कर रहा है। कंठस्थ प्रणाली से ये मंत्र गीत तीन या चार हजार वर्षों से उसे मिलते रहे हैं। यदि लेखन कला का आविष्कार ना होता और मुद्रण व्यवस्था ना होती, यदि भारत में इंग्लैंड का राज्य न होता तब भी वह युवक ब्राह्मण, उसी के समान करोड़ों उसके देशवासी इसी प्रकार अपनी ऋचाएं कंठस्थ (अर्थात अपनी देवभाषा की उत्कृष्टता का राग जपते) प्रणाली से करते। यह कितने आश्चर्य की बात है कि जो मैक्समूलर कभी भारत आया ही नहीं, उसके मन में भारत और भारतीयता के लिए कितना सम्मान था?
लेखक और पत्रकार भी हैं योगी

लेखक और पत्रकार भी हैं योगी

लेखक और पत्रकार भी हैं योगी 
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संजय तिवारी 
वह गोरखपुर से भाजपा के सांसद हैं। वह बीजेपी के फायर ब्रांड नेता हैं। पूर्वांचल में उन्हें हिंदुत्व के पुरोधा के रूप में जाना जाता है। नाथ सम्प्रदाय के भक्तों के लिए वह धर्मगुरु हैं। लेकिन बहुत काम लोगो को यह जानकारी होगी कि योगी आदित्यनाथ केवल एक धर्म गुरु और राजनेता ही नहीं बल्कि बहुत सफल लेखक , पत्रकार और स्तंभकार भी हैं। योगी की लेखन क्षमता , शैली और उनके विषय हमेशा नयी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शिका के रूप में रहे हैं। भारती संस्कृति , अध्यात्म , राजनीति और राष्ट्रीयता उनके पसंदीदा विषय रहे हैं। वही जितने अच्छे वक्ता हैं उतने  ही प्रभावशील लेखक भी हैं। वह युगवाणी मासिक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं। साप्ताहिक समाचार पत्र हिन्दवी के भी  संपादक हैं।  योगी आदित्यनाथ अब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। 
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यह संयोग ही है कि व्यक्तिगत रूप से योगी आदित्यनाथ के आध्यात्मिक अवतरण से लेकर ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी द्वारा राजनीतिक उत्तराधिकार घोषित करने के क्षणों का गवाह रहने का मुझे भी अवसर मिला है। इस अवधि  में योगी आदित्यनाथ के आध्यात्मिक , सांस्कृतिक और लेखकीय गतिविधियों को भी मैंने करीब से देखा और समझा है। लिखने की उनकी बेचैनी राज ही दिखती है। वह प्रतिदिन दैनंदिन लिखने वाले व्यक्ति हैं। उनके उत्तराधिकारी बनने के बाद से गोरक्षपीठ से जुडी संस्थाओ में एक अलग प्रकार का परिवर्तन भी आया है। राष्रीय , अंतर राष्ट्रीय संगोष्ठियों के आयोजन से लेकर गंभीर विचारो के प्रकाशन तक में वह खुद बहुत रूचि लेते हैं।  इस आधार पर यकीन के साथ लिख सकता हूँ कि योगी की लेखन क्षमता अद्भुत है। युगवाणी के प्रबंध संपादक और हिन्दवी के संपादक रहे डॉ प्रदीप राव कहते हैं कि महाराज जी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि युगवाणी और हिन्दवी का सम्पादकीय लेख वह खुद लिख कर देते हैं ,भले ही उनके पास समय की किल्लत रही हो , वे सम्पादकीय आलेख जरूर लिखते हैं।  योगी की बहुमुखी प्रतिभा का एक आयाम लेखकऔर पत्रकार का भी है। अपने दैनिक वृत्त पर विज्ञप्ति लिखने जैसे श्रमसाध्य कार्य के साथ-साथ वे समय-समय पर अपने विचार को स्तम्भ के रूप में समाचार पत्रों में भेजते रहते हैं।
 योगी के संरक्षकत्व में महंत अवेद्यनाथ के जीवन पर आधारित स्मृति ग्रन्थ  किसी कीर्तिमान से कम नहीं है। डॉ प्रदीप राव बताते हैं कि हिन्दवी के सम्पादकीय लेख सच में राष्ट्रीय धरोहर की तरह हैं।  
अत्यल्प अवधि में ही 'यौगिक षटकर्म', 'हठयोग : स्वरूप एवं साधना', 'राजयोग: स्वरूप एवं साधना' तथा 'हिन्दू राष्ट्र नेपाल' नामक पुस्तकें लिखीं। राजनीतिक जीवन : योगी आदित्‍यनाथ ने गोरखपुर संसदीय क्षेत्र की जनता की मांग पर वर्ष 1998 में लोकसभा चुनाव लड़ा और मात्र 26 वर्ष की आयु में भारतीय संसद के सबसे युवा सांसद बने। जनता के बीच दैनिक उपस्थिति, संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले लगभग 1500 ग्रामसभाओं में प्रतिवर्ष भ्रमण तथा हिन्दुत्व और विकास के कार्यक्रमों के कारण गोरखपुर संसदीय क्षेत्र की जनता ने उन्‍हें वर्ष 1999, 2004 और 2009, 20014  के चुनाव में निरंतर बढ़ते हुए मतों के अंतर से विजयी बनाकर पांच  बार लोकसभा का सदस्य बनाया। हिन्दुत्व के प्रति अगाध प्रेम तथा मन, वचन और कर्म से हिन्दुत्व के प्रहरी योगीजी को विश्व हिन्दू महासंघ जैसी हिन्दुओं की अंतरराष्ट्रीय संस्था ने अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा भारत इकाई के अध्यक्ष का महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा, जिसका सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए उन्‍होंने वर्ष 1997, 2003, 2006 में गोरखपुर में और 2008 में तुलसीपुर (बलरामपुर) में विश्व हिन्दू महासंघ के अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन को संपन्‍न कराया। 
योगी के हिन्दू पुनर्जागरण अभियान से प्रभावित होकर गांव, देहात, शहर एवं अट्टालिकाओं में बैठे युवाओं ने इस अभियान में स्वयं को पूर्णतया समर्पित कर दिया। बहुआयामी प्रतिभा के धनी योगीजी, धर्म के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से राष्ट्र की सेवा में रत हो गए।
योगी की संसद में सक्रिय उपस्थिति एवं संसदीय कार्य में रुचि लेने के कारण केन्द्र सरकार ने उन्‍हें खाद्य एवं प्रसंस्करण उद्योग और वितरण मंत्रालय, चीनी और खाद्य तेल वितरण, ग्रामीण विकास मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी, सड़क परिवहन, पोत, नागरिक विमानन, पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालयों के स्थाई समिति के सदस्य तथा गृह मंत्रालय की सलाहकार समिति, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ विश्वविद्यालय की समितियों में सदस्य के रूप में समय-समय पर नामित किया।

यहाँ यह उल्लेख भी जरुरी लगता है कि जब सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश जेहाद, धर्मान्तरण, नक्सली व माओवादी हिंसा, भ्रष्टाचार तथा अपराध की अराजकता में जकड़ा था उसी समय नाथपंथ के विश्व प्रसिद्ध मठ श्री गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर के पावन परिसर में शिव गोरक्ष महायोगी गोरखनाथ जी के अनुग्रह स्वरूप माघ शुक्ल 5 संवत् 2050 तदनुसार 15 फरवरी सन् 1994 की शुभ तिथि पर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ ने मांगलिक वैदिक मंत्रोच्चारणपूर्वक अपने उत्तराधिकारी पट्ट शिष्य उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ जी का दीक्षाभिषेक सम्पन्न किया। आपने संन्यासियों के प्रचलित मिथक को तोड़ा। धर्मस्थल में बैठकर आराध्य की उपासना करने के स्थान पर आराध्य के द्वारा प्रतिस्थापित सत्य एवं उनकी सन्तानों के उत्थान हेतु एक योगी की भाँति गाँव-गाँव और गली-गली निकल पड़े। सत्य के आग्रह पर देखते ही देखते शिव के उपासक की सेना चलती रही और शिव भक्तों की एक लम्बी कतार आपके साथ जुड़ती चली गयी। इस अभियान ने एक आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण किया और हिन्दू पुनर्जागरण का इतिहास सृजित हुआ। अपनी पीठ की परम्परा के अनुसार आपने पूर्वी उत्तर प्रदेश में व्यापक जनजागरण का अभियान चलाया। सहभोज के माध्यम से छुआछूत और अस्पृश्यता की भेदभावकारी रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया। वृहद् हिन्दू समाज को संगठित कर राष्ट्रवादी शक्ति के माध्यम से हजारों मतान्तरित हिन्दुओं की ससम्मान घर वापसी का कार्य किया। गोरक्षा के लिए आम जनमानस को जागरूक करके गोवंशों का संरक्षण एवं सम्वर्धन करवाया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सक्रिय समाज विरोधी एवं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर भी प्रभावी अंकुश लगाने में आपने सफलता प्राप्त की। 

यू पी में योगी युग शुरू

यू पी में योगी युग शुरू

यू पी में योगी युग शुरू

44 मंत्रियो ,दो उपमुख्यमंत्रियों समेत योगी आदित्यनाथ ने ली शपथ
संजय तिवारी
लखनऊ।  उत्तर प्रदेश में शनिवार से योगी युग की शुरुआत हो गयी। प्रचंड बहुमत पाने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जब काशीराम स्मृति उपवन के विशाल प्रांगण में सूबे की सरकार को प्रस्तुत किया तो इसके साक्षी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,नौ राज्यो के मुख्यमंत्री ,भाजपा के कई दिग्गजो समेत विपक्ष के भी दिग्गज बने। गोरक्षनाथ पीठ के महंत व सांसद योगी आदित्य नाथ योगी ने प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य व डां दिनेश शर्मा समेत 47 सदस्यीय मंत्रिमंडल ने शपथ ली। योगी के मंत्रिमंडल में 22 कैबिनेट, नौ स्वतंत्र प्रभार के राज्य मंत्री तथा 13 राज्य मंत्रियों ने शपथ ली।
शपथ ग्रहण के बाद  कैबिनेट की बैठक हुई और इसके बाद मुख्यमंत्री खुद मीडिया से मुखातिब हुए। उत्तर प्रदेश के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कुर्सी संभालते हुए आज भाजपा के-सबका साथ सबका विकास-का नारा दोहराया और कहा कि प्रदेश सरकार सभी वर्गों के लिए समान रूप से कार्य करेंगी। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए हर संभव प्रयास होगा। किसानों के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। प्रदेश में कृषि आधारित विकास की आवश्यकता है। इसको ध्यान  कर सरकार किसानों और कृषि मज़दूरों के कल्याण की दिशा में ठोस प्रयास करेगी। 
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यूपी की सत्ता संभालने के बाद अपनी पहली प्रेसवार्ता में योगी ने कहा कि हमने जनता से जो वादा किया है, उसे हम पूरा करेंगे। जनता के सामने हमने जनसंकल्प पत्र रखा था, उस पर पूरा काम किया जाएगा। राज्य के विकास के लिए औद्योगिक विकास पर जोर दिया जाएगा। प्रदेश ने जो जनादेश दिया है, उस पर हम पूरी तरह से खरे उतरेंगे। प्रदेश बीते 15 साल में काफी पिछड़ गया है। भोजन, आवास, पेयजल और शौचालय जैसी व्‍यवस्‍था का विकास किया जाएगा।  केंद्र में भाजपा की सरकार ने 'सबका साथ और सबका विकास' का जो संकल्‍प लिया है, उसी प्रकार प्रदेश में काम किया जाएगा।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में योगी ने कहा, “यूपी के लिए आज का दिन ऐतिहासिक है। यूपी चुनाव में बीजेपी को अभूतपूर्व सफलता मिली। विकास और सुशासन ने के लिए बीजेपी को भारी समर्थन देने के लिए हम आभार व्यक्त करते हैं।”
- “इस मौके पर हम प्रदेश की जनता को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि सरकार यूपी को खुशहाली और विकास की ओर तेजी से आगे बढ़ाने के लिए जो भी कदम उठाने की जरूरत पड़ेगी, उसमें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार बीजेपी के लोक कल्याण संकल्प पत्र 2017 में किए गए वादों को पूरा करने के लिए तैयार है। मोदी जी के नेतृत्व में केंद्र में बीजेपी ने सबका साथ, सबका विकास का संकल्प लिया है। उसी का अनुसरण करते हुए सरकार प्रदेश की जनता की सेवा करेगी। 15 साल में यूपी विकास की दौड़ में पिछड़ गया है। यहां सत्ता में रही सरकारों ने भ्रष्टाचार, परिवारवाद, कानून-व्यवस्था की स्थिति से जनता को नुकसान पहुंचाया है। हमारी सरकार जनता के हित में तुरंत कार्रवाई शुरू करेगी। सरकार बगैर किसी भेदभाव के समाज के सभी वर्गों के लिए समान रूप से काम करेगी। इसके लिए शासन-प्रशासन को संवेदनशील बनाया जाएगा।”
मुख्यमंत्री ने कहा कियूपी की कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने के िलए सरकार लगातार सजग रहेगी। सरकार शिक्षा, युवाओं के लिए रोजगार, जनता के लिए स्वास्थ्य और परिवहन की सुविधा मिले, गरीबों के लिए, ग्रामीणों के लिए, खेती करने वालों के लिए काम करेगी। कृषि, किसान और खेतीहर मजदूरों के लिए, महिलाओं के सशक्तिकरण, सुरक्षा और सम्मान के लिए सरकार को कसर बाकी नहीं रखेगी। पहले की सरकारों की बदहाल शासन प्रणाली की वजह से युवाओं को नुकसान हुआ। शिक्षा और स्किल डेवेलपमेंट पर ध्यान देंगे, सरकारी नौकरियों को भ्रष्टाचार मुक्त बनाएंगे। औद्योगिक निवेश पर जोर दिया जाएगा,जिससे युवाओं को राज्य में रोजगार मिलेगा। विश्वास दिलाना चाहता हूं कि यूपी में बदलाव लाने का जो जनादेश मिला है, उसके सकारात्मक परिणाम जल्द दिखने लगेंगे। हम लोगों ने सबका साथ, सबका विकास की बात कही थी, शपथ ग्रहण में आपको वो तस्वीर दिखाई दी होगी।”
उन्होंने कहा कि बीजेपी ने चुनाव से पहले जनता के सामने लोक कल्याण संकल्प पत्र रखा था। हमने जो जनता से वादे किए हैं, उन्हें हर हाल में पूरा करेंगे। किसानों, खेतीहर मजदूरों की आय को दोगुना करने के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं।

इससे पूर्व शपथग्रहण समारोह में योगी के साथ केशव प्रसाद मौर्य और द‍िनेश शर्मा ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ली। कांशीराम स्मृति उपवन में हुए समारोह में नरेंद्र मोदी, अमित शाह और लालकृष्ण अाडवाणी समेत कई बड़े नेता शामिल हुए। सेरेमनी में 9 राज्यों के सीएम भी मौजूद थे। मुलायम-अखिलेश यादव और नारायण दत्त तिवारी भी शपथ ग्रहण में पहुंचे। इनके अलावा  शिवराज सिंह चौहान ,मनोहर पर्रिकर ,देवेंद्र फड़णवीस,  चंद्रबाबू नायडू ,पेमा खांडू ,डॉ. रमन सिंह ,सर्बानंद सोनोवाल ,विजय रूपानी , त्रिवेंद्र सिंह रावत भी मौजूद थे। समारोह में पार्टी के  मंडल से लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी , गृहमंत्री राजनाथ सिंह , उमा भारती ,नितिन गडकरी वेंकैय्या नायडू ,ओम माथुर ,भूपेंद्र सिंह यादव और मनोज तिवारी भी उपस्थित थे।
नवरात्र में शक्तिपूजा

नवरात्र में शक्तिपूजा

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नवरात्र के समय हम शक्ति की पूजा करते हैं।  इन नौ दिनों के दौरान हम ब्रह्मांड की उत्पत्ति में सहायक, भरण-पोषण करने वाली और बुरी शक्तियों का नाश करने वाली उस परम शक्ति की उपासना एक साथ करते हैं। इस दौरान देवी मां की कृपा पाने के लिए पूजा से लेकर प्रतिज्ञा और उपवास जैसे विभिन्न तरीकों से उनकी प्रार्थना की जाती है।
हर सकारात्मक सृजन उस परम शक्ति द्वारा ही होता है। यदि कर्म के साथ-साथ उनका ध्यान भी किया जाए, तो किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल की जा सकती है। 
इन नौ दिनों के दौरान देवी के नौ विभिन्न रूपों और भावों की पूजा की जाती है। आम तौर पर पहले तीन दिनों में स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करने वाली महाकाली की पूजा की जाती है। अगले तीन दिनों में धन का प्रतिनिधित्व करने वाली महालक्ष्मी की पूजा की जाती है और अंतिम तीन दिनों में ज्ञान का प्रतिनिधित्व करने वाली महासरस्वती की पूजा की जाती है।
धन, स्वास्थ्य और ज्ञान, ये सभी जीवन में जरूरी हैं। उनके बिना खुश होकर नहीं रहा जा सकता है। जब ये तीनों कारक संतुलित और व्यवस्थित तरीके से एक साथ आते हैं, तो व्यक्ति और समाज दोनों ही फ लते- फू लते हैं। हालांकि बाहरी धन, स्वास्थ्य और ज्ञान अकेले पर्याप्त नहीं हैं। हम सभी को आंतरिक धन, आंतरिक स्वास्थ्य, और आंतरिक ज्ञान की भी जरूरत पड़ती है। आंतरिक धन में सत्य, धर्म, प्रेम और करुणा जैसे सार्वभौमिक मूल्यों में दृढ़ रहने की क्षमता होती है। आंतरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य मानसिक स्वास्थ्य से है, जिसमें मन अच्छे विचारों से भरा होता है। आंतरिक ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है - खुद की अंतरात्मा के बारे में ज्ञान। हम इन तीनों शक्तियों को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा नवरात्र में लेते हैं। इस प्रकार, हम बाहरी और आंतरिक स्वास्थ्य के लिए पहले तीन दिनों तक दुर्गा की पूजा करते हैं। बीच के तीन दिनों में बाहरी और आंतरिक स्वास्थ्य के लिए लक्ष्मी की पूजा करते हैं।
जब ये तीनों शक्तियां एक साथ आती हैं, तो किसी भी व्यक्ति को पराजित नहीं किया जा सकता है। उनका एकीकरण और सम्मिश्रण बाहरी संसाधनों और आंतरिक गुणों में स्वाभाविक रूप से संतुलन पैदा करता है। इस प्रकार सूझ-बूझ में एकता का व्यक्तिपरक अनुभव होता है। इससे हमें हमारी आंतरिक दुनिया के मनोविकार के साथ-साथ बाहरी दुनिया पर विजय प्राप्त करने में मदद मिलती है।
जब हम हर चीज में अंतर्निहित एकता को देखते हैं, तो हमारे दिलों में करुणा पैदा होती है। हमें यह दृढ़ विश्वास रखना होगा कि किसी को भी दुख का अनुभव नहीं होना चाहिए। किसी को भूखा नहीं रहना चाहिए। किसी को भी शिक्षा, चिकित्सा देखभाल या अपने सिर पर एक छत के बगैर नहीं रहना चाहिए। वास्तव में अंतर्मन में इस भाव का जाग्रत होना ही देवी मां है। एक बार एक मां और उसका शिशु भूस्खलन में फं स गए। वे कुछ दिनों तक मलबे के नीचे दबे रहे। जब खोजी टीम ने उन दोनों को बचा लिया,  तो वे बड़ी मुश्किल से सांस ले पा रहे थे। मां अपनी जान की परवाह किए बगैर बच्चे को स्वस्थ करने का हरसंभव प्रयास करने लगी। जब हम सही मायने में आध्यात्मिकता को समझ पाएंगे, तो मां द्वारा प्रदर्शित व्यवहार को न सिर्फ समझ पाने में सक्षम होंगे, बल्कि वैसे ही व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे। बेशक यहां मां का वात्सल्य प्रेम अपने बच्चे के लिए था, लेकिन अध्यात्म की तरफ मुडऩे के बाद हमें हर व्यक्ति अपने बच्चे के समान दिखाई देने लगता है।
हम देवी की स्तुति शुद्ध ज्ञान, बुद्धि और मन से करते हैं, लेकिन इन सभी से अधिक दूसरों के प्रति प्रेम, दया का भाव दिखाना ही देवी की पूजा के समान है। दरअसल, उनके लिए पूरा संसार संतान के समान है। जब ज्ञान की रोशनी आती है, तो हर तरह का अंधकार मिट जाता है। हमें उस ज्ञान का यथोचित उपयोग करना चाहिए।


वासंतिक नवरात्र

नवरात्रि के पावन त्यौहार के प्रथम दिन पर माँ शैलपुत्री की पूजा-अर्चना की जाती है। माँ शैलपुत्री का स्वरूप ऐसा है कि उनके बाएँ हाथ में कमल का फूल सुशोभित है, जबकि दाएँ हाथ में त्रिशूल है एवं उनकी सवारी नंदी हैं। चैत्र प्रतिपदा के दिन घटस्थापना की जाती है और इसी दिन से चैत्र नवरात्रि प्रारंभ होती है। चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है।

शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है। व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है। इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है। घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है। तथा "दुर्गा सप्तशती" का पाठ किया जाता है।पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए।

दुर्गा पूजा के साथ इन दिनों में तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है। बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए। माता के इन नौ दिनों में ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है। इन दिनों में मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है। नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है।
तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय ओर भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते है। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्व कहा गया है।
चैत्र नवरात्र तिथि
पहला नवरात्र, प्रथमा तिथि, 28 मार्च 2017, दिन मंगलवार
दूसरा नवरात्र, द्वितीया तिथि  29 मार्च 2017, दिन बुधवार
तीसरा नवरात्रा, तृतीया तिथि, 30 मार्च 2017, दिन बृहस्पतिवार
चौथा नवरात्र , चतुर्थी तिथि, 31 मार्च 2017, दिन शुक्रवार
पांचवां नवरात्र , पंचमी तिथि , 1 अप्रैल 2017, दिन शनिवार
छठा नवरात्रा, षष्ठी तिथि, 2 अप्रैल 2017, दिन रविवार
सातवां नवरात्र, सप्तमी तिथि , 3 अप्रैल 2017, दिन सोमवार
आठवां नवरात्रा , अष्टमी तिथि, 4 अप्रैल 2017, दिन मंगलवार
नौवां नवरात्र नवमी तिथि 5 अप्रैल, दिन बुधवार
चुप क्यों है सेक्युलर जमात ?

चुप क्यों है सेक्युलर जमात ?

 नहिदा आफरीन

चुप क्यों है सेक्युलर जमात ?


sanjay tiwari

 अगर म्यूज़िक ,मैजिक, डांस, ड्रामा, थिएटर जैसी चीजें शरिया के खिलाफ है तो फिर कला , फिल्म और संगीत जगत में किसी मुसलमान को होना ही नहीं चाहिए .लेकिन यह दुनिया तो मुसलमान कलाकारों , फिल्मकारों , संगीतकारों से भरी पड़ी है .ताज्जुब यह कि भरी संख्या में काम कर रहे मुस्लिम फिल्मकारों , संगीकारो , कलाकारों , के खिलाफ कभी कोई फतवा नहीं जारी होता ,पर असं की नाहिदा के खिलाफ फ़तवो का क्या मतलब ? फतवे जारी करने वालो के तर्क केवल नाहिदा पर ही लागू क्यों हो रहे ? नाहिद के गाने से कोई मज़हब भला खतरे में कैसे आ गया ? यह कैसा मज़हब है जो एक बालिका के गीत गाने से खतरे में आ जाता है ? ताजुब यह की बात बात पर दिल्ली में जंतर मंतर पर काली पट्टी बाँध कर मौन जुलूस निकालने वाले और मोमबत्तिया जलाने वाले मुख्यधारा के सारे सेक्युलरवादी , बुद्धिजीवी और विचारक अभी तक चुप हैं . कोई नेशनल मीडिया इस पर बहस नहीं करा रहा . पद्मिनी के मुद्दे पर पद्मिनी के अस्तित्व को ही नकार देने वाले कथित बुद्धिजीवी और इतिहासकार या संस्कृतिकर्मी अभी तक नाहिदा के मामले में चुप्पी साढ़े हुए हैं . अभी तक नाहिद के पक्ष में केवल तस्लीमा नसरीन और शोभा डे खुल कर बोल सकी हैं . बुद्धिजीवियों और सेक्युलरवादियों की बाकी जमात कहा है ?
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अपने सुरों से सबका दिल मोह लेनी वाली नहिदा आफरीन मुश्किलों में घिरी हुई हैं। इंडियन आयडल के जरिए पूरे देश को अपनी आवाज का दीवाना बना चुकी नाहिदा के खिलाफ फतवा जारी हुआ है। इसके बावजूद वह इस्लाम के धर्मांधों के आगे झुनके को मंजूर नहीं हैं। साल 2015 में नहीदा इंडियन आयडल जूनियर की फर्स्ट रनरअप रह चुकी हैं। 16 वर्षीय नहिदा के खिलाफ असम में 46 फतवे जारी हुए हैं। उन्हें गाना गाने से रोकने के लिए ये फतवे जारी किए गए हैं। फतवे के अनुसार म्यूजिकल नाइट जैसी चीजें शरिया के खिलाफ हैं। मध्य असम के होजई और नगांव जिलों में ऐसे कई पर्चे बांटे गए जिसमें असमी भाषा में फतवा जारी करने वाले लोगों का नाम लिखा था। पर्चे के मुताबिक, मैजिक, डांस, ड्रामा, थिएटर जैसी चीजें शरिया के खिलाफ है और भावी पीढ़ी भ्रष्ट होगी। काफी पहले “पगाश” नाम के एक लड़कियों के बैंड को इस्लामिक आतंकी कश्मीर में बंद करवा चुके हैं। स्त्री को बुर्के में कैद रखने की कड़ी में इस कोशिश पर भी मुख्य धारा की मीडिया और तथाकथित नारीवादियों ने अब तक परंपरागत चुप्पी ही साध रखी है
 मध्यम असम के होजोई और नागांव जिले में असमिया भाषा में कुछ पर्चे बांटे गए हैं। इन पर्चों पर असममिया भाषा में फतवा लिखा हुआ है। साथ ही इसमें फतवा जारी करने वालों के नाम भी लिखे हुए हैं। पुलिस अधिकारियों के मुताबिक नहिदा ने हाल ही में कुछ आतंकवाद संगठन जैसे आईएस और भी कई संगठन के खिलाफ गाने परफॉर्म किए थे। इस कारण से नाहिदा को निशाने पर साधा गया है। असल में नाहिदा को 25 मार्च को असम के लंका इलाके के उदाली सोनई बीबी कॉलेज में गाना गाना था। फतवे के मुताबिक, ऐसा करना शारिया के खिलाफ माना गया है। जिस वजह से इनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया है। फतवे के मुताबिक रात में कहीं जाकर गाना और म्यूजिकल नाइट जैसी चीजें करना शरिया के खिलाफ होती है।नाहिदा आफरीन दसवी कक्षा की छात्रा हैं। इस पूरे मामले में जब उनकी राय पूछी गई तो उन्होंने कहा, ‘’मैं इस पर क्या कहूं। मुझे लगता है कि मेरा संगीत अल्लाह का तोहफा है।’ निडर नहिदा ने कहा कि वह इन धमकियों के आगे कभी नहीं झुकेंगी। वह संगीत का साथ कभी नहीं छोड़ेंगी।
 यह गज़ब की विडम्बना है.दसवीं क्लास में पढ़ने वाली एक लड़की के खिलाफ 42 मौलवियों ने इसलिए फतवा जारी कर दिया क्योंकि लड़की ने आईएस विरोधी गाना गाया था। 16 साल की नाहिद आफरीन 2015 में सिंगिंग के एक टीवी रिएलिटी शो में द्वितीय विजेता रही थीं। दरअसल नाहिदा ने 25 तारीख को एक मस्जिद और एक कब्रिस्तान के आसपास के क्षेत्र में एक कार्यक्रम किया था। जिसके बाद उनके खिलाफ 42 मौलवियों ने फतवा जारी किया और पब्लिक में गाने पर रोक लगा दी। फतवे में कहा गया है कि 25 तारीख को हुआ नाहिद का कार्यक्रम शरिया कानून के खिलाफ भी था। फतवे में कहा गया है कि अगर मस्जिद, ईदगाह, मदरसा या कब्रिस्तान के आसपास के इलाके में म्यूजिकल नाइट जैसे शरिया विरोधी काम किए जाएंगे तो हमारी भावी पीढ़ियों को अल्लाह के क्रोध सहना पढ़ेगा। विश्वनाथ चरियाली में रहने वाली युवा सिंगर को जब फतवे के बारे में पता लगा तो वह हैरान रह गई। उसने कहा कि गाना गाने की कला उन्हें ऊपर वाले से मिली है, जिसको वह कभी नहीं छोड़ेंगी। अगर इस गॉड गिफ्ट का सही इस्तेमाल नहीं करती हैं तो यह ऊपर वाले का ही अपमान होगा।
आशु परिहार जो कुछ समय पहले की फतवे की दुनिया से बाहर आई है, उसने जैसे ही सुना की मौलवियों द्वारा एक और  बेटी को फतवे दिया जा रहे है उसने उस बेटी के लिए देशभर के लोगो से गुहार लगाई कि मेरी तरह इस बेटी के साथ भी पूरा देश खड़ा रहे ताकि इन फतवो को कड़ा जबाब मिल सके. साथ ही आशु परिहर ने कहा कि वह इस बच्ची के साथ हमेशा खड़ी रहेगी जो देश के लिए अच्छा कार्य करेगा इसके साथ में हमेशा खड़ी रहूंगी साथ की उन्होंने यह भी कहा कि अगर किसी को कोई प्रॉब्लम तो इन बच्ची से तो में इसे अपने परिवार का हिस्सा बनाने के लिए भी तैयार हूँ . 

 महात्मा श्यामानंद जी से शुरू होता है श्रीरामजन्मभूमि का इतिहास 

संजय तिवारी 

 अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि का मसाला फिर चर्चा में है। यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि आगामी 4 अप्रैल को भगवान श्रीराम का जन्मदिन है। इसी बीच भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि श्रीरामजन्मभूमि के मुद्दे को दोनों पक्ष मिल बैठ कर सुलझाए तो अच्छा हो। सामाजिक सद्भाव के लिए भी यह अच्छी सलाह है। अब स्वाभाविक है कि इस मुद्दे पर देश भर में चर्चाये होंगी। इसीक्रम में श्रीरामजन्मभूमि के ऐतिहासिक पक्ष पर भी दृष्टिपात करना जरूरी हो जाता है। अयोध्या से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य और साक्ष्य इस इतिहास के मुकम्मल गवाह हैं। 
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रामजन्मभूमि का खूनी इतिहास केवल उतना ही पुराना है जितना हमारे विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास का विषय है। भारतीय इतिहास को प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक के बटवारे में डाल कर पढ़ाने की व्यवस्था विश्वविद्यालयो में की गयी है। आधुनिक और मध्यकालीन इतिहास लिखने वाले और उनके पाठ्यक्रम तय करने वाले लोगो को ही असली इतिहासकार बता कर भारत के तथाकथित सेक्युलर , सहिष्णु विद्वान् लंबी लंबी बहस करते हैं और पिछले 60 -70  वर्षो से उन्हें ही भारत के इतिहास के अधिकृत विद्वान् बताकर उन्ही के प्रमाणन को सत्य का दर्ज़ा देते आ रहे हैं।  ये वे ही इतिहासकार हैं जिनको रानी पद्मिनी और उनका जौहर भी काल्पनिक लगता है। इनको वह कुछ भी नहीं दिखाई देता जो भारत का अपना और खुद के गौरव से जुड़ा हो। इनको ही आइना दिखने के लिए यह आलेख सामने है। सबकुछ तिथिवार है। यह है श्रीरामजन्मभूमि का इतिहास -  Image result for ram janmabhoomi photos

जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और
ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ।
दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और
तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर
दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४
लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने
देंगे। रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत
सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण
कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया । मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ
पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।
इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया.. इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव
मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥ देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज
श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान
आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५
दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥ पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज
रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा। रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज
रणविजय सिंह की पत्नी थी। जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।
लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी। रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने
अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे। उस समय का मुग़ल शासक अकबर था।
शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी..अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस
की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी . इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा। यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा। फिर औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा। ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय
सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते, उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे। 1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे चिमटाधारी साधुओं
की सेना भी कहते थे । जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया ।
चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी । जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर
भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है ,यह समय सन्
1680 का था । बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के
माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर
अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब
हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर हमला करने
की हिम्मत नहीं की। औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस
भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है,और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है। शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था । औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी. नबाब
सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं। लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की “ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और
मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान
होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी। “लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62” नासिरुद्दीन हैदर के समय मे
मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें
बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं
की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस संग्राम
मे भीती,हंसवर,,मकर ही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा। नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा "इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई। अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था। हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे पुनः रामलला की स्थापना की गयी। कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी। सन 1857 की क्रांति मे बहादुर शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ मे दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया । जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया। इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया। 
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३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। लेकिन २ नवम्बर १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था। ४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया। लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया। परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में विराजमान हैं।
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 राम मंदिर विवाद को सुलझाने की बीते 30 साल में 8 कोशिशें हुईं लेकिन ये सभी नाकाम रहीं। 1986 में पहली बार तब के कांची कामकोटि शंकराचार्य ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से बातचीत की लेकिन वो किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। इसके बाद पीएम रहे चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हाराव, अटल बिहारी वाजपेयी की समय भी कोशिशें हुईं। बता दें कि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर विवाद का हल आपसी बातचीत के जरिए हल करने को कहा था। जानें, किस-किसने क्या कदम उठाए...
1986
- कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रेसिडेंट अली मियां नदवी के बीच बातचीत हुई। लेकिन वो किसी नतीजे पर नहीं पहुंची।
1990
- तब पीएम रहे चंद्रशेखर ने दोनों (हिंदू-मुस्लिम) समुदायों के बीच गतिरोध तोड़ने की कोशिश की। ये बातचीत उस वक्त टूट गई, जब वीएचपी वालंटियर्स पर मस्जिद के एक हिस्से को तोड़ने का आरोप लगा।
 दिसंबर 1992
- बाबरी मस्जिद ढांचे को गिराए जाने (6 दिसंबर, 1992) के 10 दिन बाद पीएम रहे पीवी नरसिम्हाराव ने जस्टिस लिब्रहान की अगुवाई में एक जांच कमीशन का गठन किया। कमीशन ने 17 साल बाद 2009 में अपनी रिपोर्ट पेश की।
- इसे सही मायने में सुलह की कोशिश माना जा सकता है। हालांकि इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।
 जून 2002
- अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने ऑफिस में एक अयोध्या सेल बनवाई और उसमें पार्टी के सीनियर पदाधिकारी शत्रुघ्न सिंह को अप्वाइंट किया।
- सेल को इसलिए बनाया गया था ताकि वह हिंदू और मुस्लिम लीडर्स से बात कर सके। लेकिन ये कोशिश भी कामयाब नहीं हो पाई।
 अप्रैल 2015
- ऑल इंडिया हिंदू महासभा के प्रेसिडेंट स्वामी चक्रपाणि और मुस्लिमों की ओर दायर पिटीशंस की अगुआई करने वाले मोहम्मद हाशिम अंसारी के बीच मुलाकात हुई। हालांकि इस मुलाकात के बाद कोई खास पहल नहीं हुई।
- अंसारी ने हनुमान गढ़ी मंदिर के महंत ज्ञान दास से बातचीत की शुरुआत की। इसमें प्लान था कि विवादित 70 एकड़ की जमीन पर मंदिर और मस्जिद बनाई जाए। दोनों के बीच 100 फीट की दीवार रहेगी।
 मई 2016
- ऑल इंडिया अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी ने अंसारी के साथ मुलाकात की। बातचीत आगे बढ़ती, इसके पहले ही अंसारी का निधन हो गया।
नवंबर 2016
- हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पलक बसु ने कोर्ट के बाहर सेटलमेंट का सुझाव रखा। इसमें 10 हजार हिंदू और मुसलमानों के साइन किया हुआ प्रपोजल फैजाबाद कमिश्नर के सामने रखा गया।
- सेटलमेंट के लिए सारे डॉक्युमेंट सुप्रीम कोर्ट में रखे जा चुके हैं।
 मार्च 2017
- सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर मसले का हल आपसी बातचीत के जरिए करने को कहा। ये कहा कि कोर्ट मीडिएटर बनने को तैयार है।

किसका-क्या दावा?
- बीजेपी, वीएचपी समेत कई हिंदू संगठन विवादित जमीन पर राम मंदिर और सुन्नी वक्फ बोर्ड समेत कई मुस्लिम संगठन वहां मस्जिद होने का दावा करते हैं। 
- हिंदुओं का कहना है कि वह जगह रामजन्म भूमि है, वहां भगवान राम का मंदिर था जिसे मुगल शासक बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने 1528 में तुड़वा दिया और उसकी जगह मस्जिद बनवा दी, जिसे बाबरी मस्जिद कहा गया।

कौन हैं 3 पक्ष?
- निर्मोही अखाड़ा: विवादित जमीन का एक-तिहाई हिस्सा यानी राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह।
- रामलला विराजमान:एक-तिहाई हिस्सा यानी रामलला की मूर्ति वाली जगह। 
- सुन्नी वक्फ बोर्ड: विवादित जमीन का बचा हुआ एक-तिहाई हिस्सा।

क्या है राम मंदिर का मुद्दा?
- राम मंदिर मुद्दा 1989 के बाद अपने उफान पर था। इस मुद्दे की वजह से तब देश में सांप्रदायिक तनाव फैला था। देश की राजनीति इस मुद्दे से प्रभावित होती रही है।
- हिंदू संगठनों का दावा है कि अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली पर बाबरी मस्जिद बनी थी। मंदिर तोड़कर यह मस्जिद 16वीं शताब्दी में बनवाई गई थी।
- राम मंदिर आंदोलन के दौरान 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिरा दिया गया था। मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या दिया था फैसला?
- 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल, एस यू खान और डी.वी. शर्मा की बेंच ने मंदिर मुद्दे पर अपना फैसला भी सुनाते हुए अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ जमीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया था।
- बेंच ने तय किया था कि जिस जगह पर रामलला की मूर्ति है, उसे रामलला विराजमान को दे दिया जाए। राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्मोही अखाड़े को दे दी जाए। बचा हुआ एक-तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाए।