भक्ति और अध्यात की आड़ में गन्दा धंधा , आसाराम से रामरहीम तक

भक्ति और अध्यात की आड़ में गन्दा धंधा , आसाराम से रामरहीम तक

भक्ति और अध्यात की आड़ में गन्दा धंधा , आसाराम से रामरहीम तक 
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संजय तिवारी 
भारत में भक्ति और अध्यात्म के नाम पर धंधा चलाने वालो की कमी नहीं है। भोले भाले लोगो को अपने कुछ चमत्कार और उसी की आड़ में बुने गए जाल में फांसना बहुत आसान है। इसी कड़ी में एक नाम जुड़ा है बाबा राम रहीम का। राम रहीम के आलावा और भी कई बाबा लोग हैं जिन्होंने धर्म और अध्यात्म की आड़ में बहुत बड़े बड़े साम्राज्य बनाये लेकिन अपने कुछ कुकृत्यों में ऐसा फंसे की अभी तक जेल की हवा खा रहे हैं। इस बार मामला है पंजाब और हरियाणा की समूची राजनीति को प्रभावित करने वाले डेरा सच्चा सौदा के संचालक बाबा गुरुमीत राम रहीम का। मामला यौन शोषण का है और आज कोर्ट ने फैसला भी तय कर लिया है। इससे पहले हरियाणा में ही 
बाबा मपाल को लेकर हुए तमाशे को दुनिया देख चुकी है। पिछले साल उतरप्रदेश में जय गुरुदेव के अनुयायी रामबृक्ष की कहानी भी सबने देखी। आसाराम अभी भी जेल में हैं। भीमानंद और स्वामी नित्यानंद की कहानिया भी जान सामान्य में हैं।मुसलमान, ईसाई ,बौद्ध और इस तरह के अन्य मज़हबी बाबाओ की कमी नहीं है। बिजनौर के मौलाना अनवारुल हक़ , केरल के फादर रॉबिन , ‘निकाह हलाला’ करने वाले तीन इमाम औरअसम के एक बौद्ध भिक्षु के यौन शोषण सम्बन्धी विवाद बहुत चर्चा में है। हर मज़हब में इस तरह के दरिंदे मौजूद है जो संत का चोला पहन कर अपनी दूकान चला रहे हैं।  आइये एक नज़र डालते हैं इन बाबाओ पर -

उत्तर भारत में डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह बड़ी ताकत हैं। 29 अप्रैल 1948 को तत्कालीन पंजाब के सिरसा में बलोचिस्तीनी साधू शाह मत्तन जी ने डेरा डाला, जो बाद में मस्ताना बाबा के नाम से जाने गए। उन्हीं ने अपने डेरे को सच्चा-सौदा का नाम दिया। उनका सूफी फकीर जैसा स्वाभाव था। नतीजतन लाखों लोग उनसे जुड़ते चले गए। 1960 में सतनाम सिंह डेरा प्रमुख बने। 13 सितंबर 1990 में गुरमीत सिंह (वर्तमान डेरा प्रमुख) ने गद्दी संभाली।

गुरमीत राम रहीम सिंह का साम्राज्य

गुरमीत राम रहीम सिंह का जन्म 15 अगस्त, 1967 को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के गुरूसर मोदिया में जाट सिख परिवार में हुआ। इन्हें महज सात साल की उम्र में ही 31 मार्च 1974 को तत्कालीन डेरा प्रमुख शाह सतनाम सिंह जी ने ये नाम दिया था। 23 सितंबर, 1990 को शाह सतनाम सिंह ने देशभर से अनुयायियों का सत्संग बुलाया और गुरमीत राम रहीम सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। गुरमीत राम रहीम सिंह अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं। डेरा प्रमुख की दो बेटियां और एक बेटा है। बड़ी बेटी चरणप्रीत और छोटी का नाम अमरप्रीत है, जबकि उन्होंने इन दो बेटियों के अलावा एक बेटी को गोद लिया हुआ है। गुरमीत राम रहीम के बेटे की शादी बठिंडा के पूर्व एमएलए हरमिंदर सिंह जस्सी की बेटी से हुई है। इनके सभी बच्चों की पढ़ाई डेरे की ओर से चल रहे स्कूल में हुई है। इनके दो दामाद रूहेमीत और डॉ. शम्मेमीत हैं।
शुरुआत में डेरा का प्रभाव हरियाणा के सिरसा, फतेहबाद, हिसार और पंजाब के मनसा, मुक्तसर और बठिंडा तक ही सीमित था, लेकिन 1990 में जब बाबा राम रहीम डेरा प्रमुख बने तो इसका विस्तार तेज हुआ। डेरा सच्चा सौदा 104 तरह के सामाजिक कार्यक्रम चलाने का दावा करता है। डेरा के मुताबिक, प्राकृतिक आपदा में लोगों की मदद करना, अस्पतालों को देहदान, रक्त दान करना, स्वच्छता अभियान चलाना, वृक्षारोपण करना, भ्रूण हत्या और नशे के मुक्ति सबसे प्रमुख कार्य हैं। डेरा का यह भी दावा है कि अनाथ बच्चों को अपनाने और वेश्यावृत्ति उन्मूलन के क्षेत्र में भी हम काम करते हैं।

65 साल से चल रहा है डेरा का आश्रम

हरियाणा के सिरसा जिले में डेरा का आश्रम 65 सालों से चल रहा है। डेरा का साम्राज्य विदेशों तक फैला हुआ है। देश में डेरा के करीब 46 आश्रम हैं और उसकी शाखाएं अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड से लेकर ऑस्ट्रेलिया और यूएई तक फैली हुई हैं। दुनियाभर में इसके करीब पांच करोड़ अनुयायी हैं, जिनमें से 25 लाख अकेले हरियाणा में ही मौजूद हैं।

रॉक स्टार गुरमीत राम रहीम सिंह

अपने समर्थकों के बीच नाचते-गाते और झूम-झूमकर थिरकते बाबा राम रहीम का नाम यूं तो पिछले करीब दो दशकों से देश और विदेश में गूंज रहा है। यही कारण है कि वे अपने अनुयायियों के बीच एक संत होने के साथ एक 'रॉक स्टार' भी हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी पंजाब और हरियाणा में डेरा को एक बड़ी ताकत माना जाता है और यही वजह है कि ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा के चुनाव तक सभी दलों के नेता बाबा से समर्थन की आस लगाकर उनकी शरण में आते रहे हैं।

पतंजलि की तरह ही MSG के नाम से कारोबार

बाबा रामदेव के पतंजलि प्रोडक्ट्स की तरह ही राम रहीम भी MSG नाम से प्रोडक्ट्स बाजार में बेचते हैं। MSG के पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली-एनसीआर में 200 स्टोर हैं। कंपनी के प्रोडक्ट्स में दाल, अनाज, चावल, आटा, देसी घी, मसाले, अचार, जैम, शहद, मिनरल वॉटर और नूडल्स शामिल हैं। बाबा के पास हरियाणा के सिरसा में करीब 700 एकड़ की खेती की जमीन है। वो एक गैस स्टेशन और मार्केट कॉम्पलेक्स भी चलाते हैं।


शाह सतनाम सिंह मस्ताना की विरासत को गुरमीत राम रहीम सिंह ने अपने कार्यकाल में कई गुना बढ़ा दिया। उन्होंने सर्वधर्म के प्रतीक के रूप में अपने नाम के साथ राम, रहीम, सिंह जोड़ा। जब डेरा प्रमुख ने सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी का वेष धारण किया तो सिखों का गुस्सा फूट पड़ा। फलस्वरूप पंजाब में कई दिनों तक सांप्रदायिक तनाव बना रहा।

डेरा सच्चा सौदा से जुड़े विवाद

24 अक्टूबर 2002 को सिरसा के सांध्य दैनिक के संपादक रामचंद्र छत्रपति पर कातिलाना हमले का आरोप। छत्रपति को घर से बुलाकर पांच गोलियां मारी गई। साध्वी से यौन शोषण और रणजीत की हत्या पर खबर प्रकाशित करने के कारण उन पर हमला हुआ।


 400 साधुओं को नपुंसक बनाने के मामले की भी चल रही सीबीआई जांच। साधुओं को ईश्वर से मिलाने के नाम पर उनके अंडकोष काटकर नपुंसक बनाए जाने का आरोप है। सीबीआई इस मामले की सात से ज्यादा सील बंद रिपोर्ट हाईकोर्ट में पेश कर चुकी है। हंसराज चौहान की याचिका पर केस दर्ज हुआ।

 डेरे के पूर्व मैनेजर फकीर चंद 1991 में गायब हो गए थे। हाईकोर्ट में याचिका दायर कर आरोप लगाया गया कि फकीर चंद को डेरा प्रमुख ने गायब कराया। यह मामला भी सीबीआई के पास जांच के लिए आया।

 पंजाब पुलिस ने डेरा प्रमुख के खिलाफ धार्मिक भावना आहत करने के आरोप में बठिंडा में मामला दर्ज किया। खालसा दीवान और श्रीगुरु सभा बठिंडा के अध्यक्ष राजिंदर सिंह सिद्धू की शिकायत पर केस दर्ज हुआ।

 मिलिट्री इंटेलीजेंस की रिपोर्ट पर हाईकोर्ट ने लिया था संज्ञान। आरोप था कि पूर्व सैनिक डेरे में अनुयायियों को सैनिक ट्रेनिंग दी जा रही है।

साध्वी यौन शोषण 

डेरा प्रमुख पर आने वाले सीबीआईकोर्ट के फैसले के मद्देनजर हरियाणा और पंजाब सरकारों की सांसें फूली हुई हैं।
पिछले कई चुनाव में डेरा प्रमुख के एक इशारे ने हरियाणा और पंजाब में सरकारें बनाने-बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाई है। चुनाव में किस पार्टी का समर्थन करना है और किसकी अनदेखी की जानी है, इसका निर्णय हालांकि डेरा प्रमुख स्वयं करते हैं, लेकिन इशारा डेरे की राजनीतिक विंग की तरफ से आता है, जिसके बाद डेरा अनुयायी मतदान करते हैं। पिछले चुनाव में हरियाणा में डेरे ने भाजपा का समर्थन किया था, जिसके बाद दो दर्जन सीटों पर भाजपा उम्मीदवार जीत की स्थिति में पहुंच पाए थे। हरियाणा और पंजाब दो राज्य ऐसे हैं, जहां डेरे का पूरा दखल और प्रभाव है। 2007 के विधानसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा ने पंजाब में कांग्रेस का समर्थन कर मालवाक्षेत्र में इस पार्टी को बढ़त दिलाई थी। 2014 के विधानसभा चुनाव में डेरे ने हरियाणा में भाजपा का समर्थन किया था, जबकि पंजाब में भी इसी पार्टी के प्रति नरम मिजाज दिखाया। पंजाब के मालवा क्षेत्र में 13 जिले आते हैं, जिनमें पांच दर्जन विधानसभा सीटें हैं।
हरियाणा की 36 विधान सभा सीटों पर प्रभाव
हरियाणा के नौ जिलों की करीब तीन दर्जन विधानसभा सीटों पर डेरे का पूरा दखल रखता है। हरियाणा में 15 से 20 लाख अनुयायी डेरे से जुड़े हैं, जिनके नियमित सत्संग होते हैं। ऐसे में यदि कोई भी सरकार विपरीत कार्रवाई करती है तो उसे राजनीतिक नुकसान का डर हमेशा सताता रहता है। प्रदेश में सिरसा, हिसार, फतेहाबाद, कैथल, जींद, अंबाला, यमुनानगर और कुरुक्षेत्र जिले ऐसे हैं, जहां डेरा सच्चा सौदा का पूरा असर महसूस किया जा सकता है।

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संत रामपाल , हरियाणा

सन् २००६ में रामपाल के हिसार में सतलोक आश्रम में जमीन को लेकर विवाद हुआ था , इस विवाद में एक व्यक्ति की हत्या भी हुई थी , जिसमें रामपाल के विरुद्ध केस चला था। लेकिन इनके समर्थकों ने हिसार  कोर्ट में बवाल मचा दिया था जिसके कारण केस को हाईकोर्ट में चलाना  पड़ा था। उस वक़्त उच्च न्यायालय के बार - बार बुलाने  पर भी रामपाल हाजिर नहीं हुए थे हमेशा बहानेबाजी कर के बचते रहे। एक बार जुलाई २००६ में ग्रामीण लोगों के साथ एक लड़ाई झगड़ा हुआ इस दौरान जब पुलिस रामपाल को गिरफ्तार करने को आई तो इनके हजारों समर्थक आश्रम में जमा हो गए थे और रामपाल तक पुलिस का पहुंचना मुश्किल कर  दिया था। इसके बाद सन् २०१३ में करोनथा गांव में उनके आश्रम में झड़प हुई थी जिसमें २ लोगों की जाने गई थी तथा कुछ अन्य लोग भी घायल हुए थे।
रामपाल का जन्म सोनीपत के धनाणा गांव में १९५१ में हुआ था। इन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण करने के तत्पश्चात हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग में अभियंता बन गए थे। उन्हीं दिनों में रामपाल सत्संग करने में रूचि लेने लगे और संत रामपाल दास बन गए थे। सन् २००० में रामपाल ने अपने अभियंता पद से स्तीफा दे दिया और बाद में करोंथा गांव में सतलोक आश्रम की स्थापना की थी , हालांकि इनके गिरफ्तार होने के बाद आश्रम सरकार के क़ब्ज़े में है। संत रामपाल की बाबा बनने की कहानी जितनी दिलचस्प है। उतनी है उनकी गिरफ्तारी के बाद तहखानों से मिली सामग्री भी। जी हां, पिछले साल 20 नवंबर को हत्या के आरोप में रामपाल की गिरफ्तारी के बाद जब सतलोक आश्रम में सर्च अभियान चलाया गया था तो वहां से करोड़ों रुपए की खाद सामग्री मिली थी। जैसे, 7000 किलो देसी घी, 99 कार्टून सरसों का तेल, 186 कार्टून पारले बिस्कुट, 45 कैन सोयाबीन रिफाइंड तेल, 154 कट्टे मिल्क पाउडर, 600 कट्टे आटा और 600 कट्टे चीनी आदि । तलाशी के दौरान पुलिस को कई चौंकाने वाली चीजों का पता चला था। रामपाल का आश्रम किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था। इसके अंदर स्विमिंग पूल, एलईडी टीवी से लेकर अस्पताल तक थे। सर्च के दौरान देशद्रोह व हत्‍या के आरोपी कबीरपंथी बाबा रामपाल के बरवाला (हिसार, हरियाणा) स्थित सतलोक आश्रम में महिला टॉयलेट में सीसीटीवी कैमरा लगा था। इतना ही नहीं, कैमरे का मुंह भी टॉयलेट के अंदर की ओर था। रामपाल खुद सिंहासन पर बैठता था और लिफ्ट से मंच पर प्रकट होता था। 5 लाख रुपए का मसाजर भी उसके कमरे से मिला था। इसके अलावा, कंडोम और अश्लील साहित्य भी बरामद किया गया था। इनके  निजी कक्ष में रहती थीं 6 सेविकाएं, खाता था धतूरे से बनी दवा।  सतलोक आश्रम संचालक रामपाल की मुसीबतें तब और बढ़ गई थी जब हाईकोर्ट में उनके खिलाफ नरबलि का आरोप लगाया गया था। दरअसल, जींद निवासी हरिकेश ने याचिका दायर कर कहा था कि अगस्त 2014 में उनके बेटे का शव आश्रम में मिला था। आशंका है कि उसकी बलि दी गई है, लेकिन पुलिस ने आत्महत्या का केस दर्ज किया था। जिस पर पीडि़त ने सीबीआई जांच की मांग की थी।
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आसाराम बापू 

पूरा नाम: आसूमल थाऊमल हरपलानी अथवा आसूमल सिरूमलानी,
जन्म: 17 अप्रैल 1941, नवाबशाह जिला, सिंध प्रान्त) 

भारत के एक कथावाचक, आध्यात्मिक गुरु एवं स्वयंभू सन्त हैं जो अपने शिष्यों को एक सच्चिदानन्द ईश्वर के अस्तित्व का उपदेश देते हैं। उन्हें उनके भक्त प्राय: बापू के नाम से सम्बोधित करते हैं। आसाराम 400 से अधिक छोटे-बड़े आश्रमों के मालिक हैं। उनके शिष्यों की संख्या करोड़ों में है। आसाराम बापू सामान्यतः विवादों से जुड़े रहे हैं जैसे आपराधिक मामलों में उनके खिलाफ दायर याचिकाएँ, उनके आश्रम द्वारा अतिक्रमण, 2012 दिल्ली दुष्कर्म पर उनकी टिप्पणी एवं 2013 में नाबालिग लड़की का कथित यौन शोषण। उन पर लगे आरोपों की पर्त एक के बाद एक खुलती जा रही है। न्यायालय ने उन्हें न्यायिक हिरासत में रखने का निर्णय लिया है। फ़िलहाल आसाराम जोधपुर जेल की सलाखों के पीछे कैद हैं। इनके खिलाफ  यौन शोषण का मामला 2013 को प्रकाश में आया जब एक एफ आई आर दिल्ली के कमला नगर थाने में रात 2 बजे दर्ज हुई। घटना जोधपुर के मड़ई में स्थित फार्म हाउस में 16 अगस्त की बताई जाती है। एफ़ आई आर में लड़की ने आरोप लगाया है बापू ने रात उसे कमरे में बुलाया व 1 घंटे तक व यौन छेड़छाड़ की। मेडिकल जाँच में किसी प्रकार के निशान नहीं प्राप्त हुए न रेप की पुष्टि हुई। लड़की उत्तरप्रदेश के शाहजहा पुर की निवासी है जो 12 व्ही में छिंदवाड़ा में आश्रम के कन्या छात्रा वास में पढ़ती थी। 

स्वामी नित्यानंद 
इस लिस्ट में एक और स्वयं-भू भगवान स्वामी नित्यानंद का नाम भी है जो एक सेक्स स्कैंडल में शामिल थे. उनके ऊपर तमिल अभिनेत्री रणजीता के साथ यौन गतिविधियों में शामिल होने के आरोप है।  दक्षिण भारत में स्वामी नित्यानंद की बहुत बड़ी पीठ है। इस स्वामी के पास अकूत धन भी है। इनका विडिओ भी वायरल हो चुका  है। 

स्वामी भीमानंद 
इच्छाधारी संत स्वामी भीमानन्द  को 'महाराज चित्रकूट वाले' के नाम से भी जाना जाता है. उनके ऊपर भी बड़े पैमाने पर सेक्स रैकेट में शामिल होने का आरोप है।दिल्ली में इस बाबा के कारनामो की लम्भी फेहरिश्त है। भीमानंद और यूँ विवाद का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है।   

बिजनौर में पकड़ाया इमाम

साल भर पहले बिजनौर में एक इमाम, मौलाना अनवरुल हक़ एक औरत का रेप करते हुए पकड़ाया. 40 साल का मौलाना, 30 साल की औरत का रेप कर रहा था. मौलाना ने औरत को ये झांसा देकर अपने कमरे पर बुलाया था कि ऐसी कुछ पूजा है, जो उसे अकेले करनी होगी. वहां उसका रेप कर धमकी दी, पति को बताया तो ठीक नहीं होगा.

फादर रॉबिन
कुछ महीनों पहले केरल से एक 16 साल की लड़की के रेप होने की खबर आई. लड़की प्रेगनेंट हुई, उसे बच्चा भी हुआ. रेप करने वाला एक पादरी था. फादर रॉबिन, जिसपर रेप का आरोप था, बच्चों की बेहतरी के लिए काम करता था.

 औरतों के साथ ‘निकाह हलाला’ करने वाले तीन इमाम.

 अभी हाल ही में एक पत्रिका के  स्टिंग ऑपरेशन में मुरादाबाद में इमाम नदीम को पैसे लेकर निकाह हलाला करते हुए पाया गया. यानी तलाकशुदा औरत अपने पिछले पति के पास फिर से जा सके, इसके लिए उसे फिर से शादी करना ज़रूरी होता है. इमाम उनके साथ सोकर दूसरी शादी की कमी पूरी करते हैं. ज़ाहिर सी बात है, इसके बाद औरत को अपने पिछले पति से फिर से शादी करने की इजाज़त मिल जाती है. पता पड़ा कि इमाम एक औरत के साथ सोने के लिए 25 हजार से 1 लाख लेता था. बता दें कि झांसा देकर औरत के साथ सेक्स करना भी संविधान के मुताबिक रेप के दायरे में आता है. उत्तर प्रदेश और दिल्ली में मिलकर ऐसे कई इमाम स्टिंग में पकड़े गए.

तेजपुर यूनिवर्सिटी में रेप हुई लड़की को इंसाफ दिलाने की मांग करते स्टूडेंट्स के बनाए पोस्टर.

बीते दिनों असम में एक 12 साल की लड़की का रेप हुआ, मीडिया में जिसकी खबर सुनने को नहीं आई. ये रेप एक बौद्ध भिक्षु ने बच्ची के हाथों पूजा करवाने के बहाने किया. घर से दूर एक मंदिर में उसे पूजा के लिए बुलाया और उसके भाई को सामान लेने भेज दिया. फिर अपने कमरे में उसका रेप कर उसे धमकी दी कि इस बारे में किसी से कहा तो परिवार का भविष्य बिगड़ जाएगा.
पुराण वक्ता रोमहर्षण : सूत  जी

पुराण वक्ता रोमहर्षण : सूत जी

पुराण वक्ता रोमहर्षण : सूत  जी 

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रोमहर्षण का जन्म सूत जाति में हुआ था। शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मणी माता तथा क्षत्रिय पिता से उत्पन्न सन्तान सूत जाति में गिनी जाती है। इस जाति का मुख्य काम रथ-सारथ्य तथा घोड़ों के साधने संचालन का था। ज्यों-ज्यों जाति का विस्तार होता गया, राजा ने सारथी के काम से इन सबकी जीविका का प्रबन्ध न होने से स्तुति पाठ तथा वंश-कीर्ति का काम भी इन्हें दे दिया, पर वेद विद्या ग्रहण करने का इनको अधिकार नहीं था।

महर्षि वेद व्यास बहुत ही उदार विचारों के थे। रोमहर्षण के स्तुति पाठ तथा शास्त्रों-पुराणों में उनकी रुचियों को देख व्यास जी ने रोमहर्षण को अपना शिष्य बना लिया। रोमहर्षण ने पुराण विद्या का ऐसा पारायण किया कि उनकी प्रतिभा चमत्कृत हो गयी। जाति से अन्त्यज होते हुए भी व्यास जी की कृपा से पुराणों-शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया और कई ग्रन्थों की रचना की।

भगवान वेदव्यास ने रोमहर्षण को समस्‍त पुराणों को पढ़ाया और आशीर्वाद दिया कि ‘तुम समस्‍त पुराणों के वक्‍ता बनोगे। इसीलिये रोमहर्षण समस्‍त पुराणों के वक्‍ता माने जाते हैं। ये सदा ऋषियों के आश्रमों में घूमते रहते थे और सबको पुराणों की कथा सुनाया करते थे। नैमिषारण्‍य में अठासी हज़ार ऋषि निवास करते थे। सूत जी उनके यहां सदा कथा कहा करते थे। यद्यपि ये सूत जाति के थे, फिर भी पुराणों के वक्‍ता होने के कारण समस्‍त ऋषि इनका आदर करते थे और उच्‍चासन पर बिठाकर इनकी पूजा करते थे। इनकी कथा इतनी अद्भुत होती थी कि आसपास के ऋषिगण जब सुन लेते थे कि अमुक जगह सूत जी आये हैं, तब सभी दौड़-दौड़कर इनके पास आ जाते और विचित्र कथाएं सुनने के लिये इन्‍हें घेरकर चारों ओर बैठ जाते। पहले तो ये सब ऋषियों की पूजा करते, उनका कुशल-प्रश्‍न पूछते और कहते- "ऋषियों! आप कौन-सी कथा मुझसे सुनना चाहते हैं?" इनके प्रश्‍न को सुनकर शौनक या कोई वृद्ध ऋषि किसी तरह का प्रश्‍न देते और कह देते- "रोमहर्षण सूत जी! यदि हमारा यह प्रश्‍न पौराणिक हो और पुराणों में गाया हो, तो इसका उत्‍तर दीजिये।"

ऐसी कौन-सी बात है, जो पुराणों में न हो। पहले तो सूत उनके प्रश्‍न का अभिनन्‍दन करते और फिर कहते- "आपका यह प्रश्‍न पौराणिक ही है। इसके सम्‍बन्‍ध में मैंने अपने गुरु भगवान वेदव्यास से जो कुछ सुना है, उसे आपके सामने कहता हूँ, सावधान होकर सुनिये।" इतना कहकर सूत जी कथा का आरम्‍भ करते और यथावत समस्‍त प्रश्‍नों का उत्‍तर देते हुए कथाएं सुनाते। इस प्रकार ये सदा भगवल्लीला कीर्तन में लगे रहते थे। इनसे बढ़कर भगवान का कीर्तनकार कौन होगा।

मृत्यु

रोमहर्षण की मृत्‍यु भगवान बलदेव के द्वारा हुई। नैमिषारण्य में तीर्थयात्रा करते हुए बलदेव जी पहुंचे। ये उस समय व्‍यासासन पर बैठे थे। उन्‍हें देखकर उठे नहीं। इस पर बलराम जी को क्रोध आ गया और उन्‍होंने इनका सिर काट लिया। महर्षि शौनक ने बलराम जी से कहा- "रोमहर्षण का वध करके जहाँ आप ब्रह्महत्या के दोषी हुए, वहीं आपने हम ऋषियों का भी बहुत अहित किया। रोमहर्षण के वध से पुराण विद्या के लोप होने का भय हो गया है। बिना सोचे-विचारे किए गये कार्य का दुष्परिणाम स्वयं अपने के अलावा बहुतों का अहित करता है।"

महर्षि शौनक की व्यथाभरी बात सुनकर बलदेव स्तब्ध रह गये, पर अब क्या कर सकते थे। खेद तथा दु:ख से सिर झुकाकर कहा- "ऋषिवर! निश्चय ही मैं अपराधी हूँ। मुझे नहीं पता था कि आप लोगों ने स्वयं रोमहर्षण को यह सम्मान दिया था। मैं तो यही समझता था कि वह अभिमान से इस आसन पर बैठकर उद्दण्ड हो गया है। अपने अविवेक से मैंने जो कर्म किया है, इसका कर्मफल मैं भोगूँगा, पर पुराण गाथा आगे चले, इसके लिए क्या होगा?" शौनक ने कहा- "रोमहर्षण का पुत्र उग्रश्रवा भी अधिक विद्वान् है। हम उसे बुलाकर पुराण-गाथा श्रवण करने का प्रबन्ध करेंगे। इस विद्या का लोप नहीं होने देंगे। श्रुति के माध्यम से हम इसे ग्रहण कर इसकी परम्परा बढ़ाते रहेंगे।"

बलदेव शौनक के चरणों पर गिरकर बोले- "मुनिवर! आप उग्रश्रवा को बुलाकर इस व्यास गद्दी पर बैठाइए। मैं उनके आसनासीन होने पर उनसे अपने अपराध की क्षमा-याचना करूँगा तथा ब्रह्मा-हत्या दोष के निवारण के लिए तीर्थों में घूम-घूमकर प्रायश्चित्त करूँगा।" ऋषि शौनक ने उग्रश्रवा को बुलाकर सारी स्थिति बतायी तथा उसे व्यास गद्दी पर बैठाया। बलदेव ने अपने अपराध की क्षमा माँगी और प्रायश्चित्त के लिए चले गये। उग्रश्रवा ने पुराण सुनाना प्रारम्भ किया। आजकल जो पुराण उपलब्ध हैं, उसमें कई में रोमहर्षण का संवाद मिलता है, कई में उग्रश्रवा का मिलता है। रोमहर्षण के जीवनकाल में ही उग्रश्रवा को ऋषि तथा ब्राह्मण समाज में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उग्रश्रवा ऋषियों की श्रेणी में थे।

इससे विदित होता है कि प्राचीन काल में जाति से अधिक गुण का सम्मान होता था। प्राचीन काल में प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा विद्या अर्जित करने में जाति बाधक नहीं होती थी।
सनातन सत्य है , अधर्म का नाश होगा ही

सनातन सत्य है , अधर्म का नाश होगा ही

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संजय तिवारी 
सनातन परंपरा में अधर्म का नाश सुनिश्चित है। न तो संत का कपड़ा पहन लेने से कोई संत हो जाता है और न ही उसमे संत के गन आ सकते हैं। संत होने के लिए हमारी परंपरा में बहुत कड़ी शर्ते हैं , नियम हैं और साधना है। भारतीय संत परंपरा में सन्यासी होना सभी के लिए संभव नहीं है। शास्त्र सम्मत सन्यासी होना बहुत कठिन है लेकिन आजकल जिस तरह से भगवाधारी , संत का चोला पहने गैर संत लोगो ने अपना प्रभुत्व हासिल कर दिया है ,अब समय आ गया है कि उस पर अंकुश लगाया जाय। हमारी परंपरा में संत , संन्यासी होने की पहली शर्त है कि व्यक्ति ब्राह्मण यानी द्विज हो। द्विज का अर्थ ,जिसके दो जन्म हो चुके हो, एक माता के गर्भ से , दूसरा यज्ञोपवीत के समय। दूसरी शर्त है वेदपाठी हो। तीसरी शर्त कि किसी सक्षम आचार्य , गुरु द्वारा दीक्षित हो , चौथी शर्त ,वह अपने पूरे कुल का पिण्डा दान करने के बाद स्वयं का पिंड दान करे और फिर गुरु उसे संन्यास की दीक्षा दे। सन्यासी केवल भिक्षाटन पर जीवन यापन करता है। किसी मठ , महल या ऐश्वर्य में नहीं। 
अब यह जन को अर्थात लोक को विचार करना है कि वह संत अथवा सन्यासी के रूप में जिस व्यक्ति से जुड़ रहा है वह वास्तव में सन्यासी ही है या सन्यासी का रूप धारण कर कोई भोग विलासी पिपासु ? वास्तविकता यह है कि जो एक बार सन्यासी बन चुका उसके लिए परमपिता के लोक से बड़ा कुछ भी नहीं होता। इस धरती के किसी भोग या ऐश्वर्य से उसे कुछ लेना देना नहीं होता। 
यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की लोग संत और सन्यासी के रूप में पूजे जा रहे हैं जिनका संत या सन्यासी भाव से कोई सम्बन्ध नहीं है। दुःख तो यह है कि हमारी राजसत्ता भी ऐसे पाखंडियों को ही प्रश्रय दे रही है। राजसत्ता को भी संत साधको और वास्तविक सन्यासियों की सुधि नहीं है। वह उन्हें ही महत्व देती है जिनके पास मतावलम्बियों की संख्यात्मक वोट शक्ति हो। ऐसे पाखंडियो को हमारी राजसत्ता ने अब सत्ता का हिस्सा भी बनाना शुरू कर दिया तो सन्यासी की कौन सुने ?
रामरहीम अर्थात रामपाल अर्थात आशाराम अर्थात नित्यानंद अर्थात भीमनद , जयगुरुदेव और न जाने कितने, ऐसे संत सामने आ चुके जो वास्तव में कभी संत थे ही नहीं लेकिन राजसत्ता ने उन्हें संत का दर्जा देकर खूब सम्मानित किया। इनमे से कोई भी संत की पहली ही शर्त पूरी नहीं करता। इनमे से कोई द्विज नहीं है। ये सभी गैर ब्राह्मण, यानी अद्विज है और ये कथित बाबा ही देवदासी रखते है, जिसके लिए ब्राह्मण आज तक बदनाम हो रहे है। मुझे यह लिखने कोई संकोच नहीं है कि संत के नाम पर जितने लोगो को आज की राजसत्ता ने प्रश्रय दिया है उनमे से अधिकाँश सन्यासी के किसी गुण धर्म से जुड़े नहीं हैं। एक ब्राह्मण संत करपात्री जी महाराज ने राजनीति में कुछ शुद्धिकरण का प्रयास किया था , राजनीतिक पार्टी भी बनायीं , चुनाव भी जीते , लेकिन कभी अपने लिए न तो कोई महल बनाया और न ही ऐश्वर्य का सामन जुटाया। अंजुरी की भिक्षा से ही जीवन गुजार दिया।
यह शाश्वत सत्य है की एक ब्राह्मण
जब बाबा बनता है,
तो वह शंकराचार्य होता है,
धन की लालसा नही होती ,
किसी का बलात्कार नही करता।
कलयुग में इन पाखंडी बाबाओं का ही बोलबाला है। राष्ट्र हित और धर्म के प्रति इनकी कोई निष्ठा नहीं है।
यह सिर्फ अपनी दुकान चलाते हैं और कुछ हमारे अपने ही मूर्ख भाई इनके भक्त बनकर ढोंगी बाबाओ और इनके नाम को बढावा देते हैं।
जय गुरुदेव(यादव),
गुरमीत राम रहीम(जाट),
रामपाल(जाट)
राधे मां(खत्री),
आशाराम(सिंधी),
नित्यानंद द्रविण जैसे
गैर ब्राह्मणों ने सनातन परंपरा की वाट लगाई है। बाबाओ ने किया देश का बेडा गर्क और ब्राम्हण तो
जबरदस्ती बदनाम है.....?
इन सबके बावजूद बाबा चाहे किसी भी जात,धर्म या सम्प्रदाय का हो,आज वो धर्म की आस्था का प्रतीक है इसलिए हमारी आस्था से खिलवाड़ करने वाले ऐसे किसी भी धर्म के बाबाओ के भक्तों को ये समझना चाहिए कि कौन धर्म के कर्म कर रहा है और कौन धर्म की आड़ में अधर्म की दुकान चला रहा है। हमारी परम्परा है -धर्म की विजय, अधर्म का विनाश होता रहा है और होता रहेगा माध्यम बदलते रहेंगे....लेकिन परिणाम एक ही होगा.. धर्म की जय हो.... अधर्म का नाश हो।
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ऋषि पंचमी :  सप्तर्षियों के स्मरण और पूजा का दिन

ऋषि पंचमी : सप्तर्षियों के स्मरण और पूजा का दिन

ऋषि पंचमी :  सप्तर्षियों के स्मरण और पूजा का दिन 
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संजय तिवारी 

सृष्टि में सृष्टि से पूर्व आया था दर्शन। इस दर्शन का आधार थी श्रुति। श्रुति से स्मृति , स्मृति से पुराण , पुराण से इतिहास और फिर साहित्य तक की यात्रा कराई सात ऋषियों ने। सृष्टि के दर्शन को लोक तक पहुंचने का दायित्व ऋषि समुदाय का ही था। उन्होंने इस कार्य को बहुत ही लगन से किया और इतनी मज़बूत नीव तैयार की जिससे आज भी सृष्टि में सनातन संस्कृति विद्यमान है। आज अपने उन्ही दार्शनिक तत्वज्ञानी  महामनीषियों की पूजा का दिन है। 

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि : ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

1. वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

2.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

3. कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

4. भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

5. अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

6. वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

7. शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
पितृपक्ष 

पितरो के प्रति श्रद्धा के दिन 
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संजय तिवारी 
भारतीय जीवन संस्कृति की अति महत्वपूर्ण विशेषता है अपने पूर्वजो के प्रति सम्मान की भावना।  इसी सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए हमारी सांस्कृति यात्रा में पितृपक्ष के रूप में वर्ष के पंद्रह दिन एक वार्षिक पड़ाव के रूप में आते है।  इन दिनों में भारत की संस्कृति में विशवास करने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने पितरो को याद करता है। यह अद्भुत परंपरा है जो सृष्टि के साथ ही विधान के रूप में चली आ रही है। सृष्टि में इस पृथ्वी नाम के उपग्रह पर मनुष्य जो जीवन व्यतीत करता है उसके बाद भी उसकी जीवन यात्रा चलती रहती है। सूक्ष्म रूप ग्रहण करने के बाद पृथ्वी वाला शरीर छोड़ चुके प्राणी की उस अनंत यात्रा को सफल और सुगम बनाने के लिए आवश्यक होता है कि उसके वंशज उसे श्रद्धा और सम्मान के साथ उस यात्रा के योग्य सुविधा संपन्न करे। इसी कार्य के लिए हमारे यहाँ पितृ पक्ष का विशिष्ट महत्व होता है। पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में जाना जाता है, पितृपक्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को चालू होता है और सर्वपितृ अमावस्या पर 16 दिनों के बाद समाप्त होता है। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पूर्वज (पितृ) की पूजा करते हैं, खासकर उनके नाम पर भोजन दान और तर्पण के द्वारा। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार पितृ पक्ष के 16 दिनों में  पितरों को यमलोक से मुक्त किया जाता है और उन्हें पृथवी पर जाने की इजाजत होती है।
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पितृपक्ष 2017 तारीख

०५           सितम्बर               (मंगलवार)           पूर्णिमा श्राद्ध

०६           सितम्बर               (बुधवार)               प्रतिपदा श्राद्ध

०७           सितम्बर               (बृहस्पतिवार)     द्वितीया श्राद्ध

०८           सितम्बर               (शुक्रवार)              तृतीया श्राद्ध

०९           सितम्बर               (शनिवार)             चतुर्थी श्राद्ध

१०           सितम्बर               (रविवार)               महा भरणी, पञ्चमी श्राद्ध

११           सितम्बर               (सोमवार)             षष्ठी श्राद्ध

१२           सितम्बर               (मंगलवार)           सप्तमी श्राद्ध

१३           सितम्बर               (बुधवार)               अष्टमी श्राद्ध

१४           सितम्बर               (बृहस्पतिवार)     नवमी श्राद्ध

१५           सितम्बर               (शुक्रवार)              दशमी श्राद्ध

१६           सितम्बर               (शनिवार)             एकादशी श्राद्ध

१७           सितम्बर               (रविवार)               द्वादशी श्राद्ध, त्रयोदशी श्राद्ध

१८           सितम्बर               (सोमवार)             मघा श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध

१९           सितम्बर               (मंगलवार)           सर्वपित्रू अमावस्या

पितृ पक्ष का आखिरी दिन ‘सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या’ के रूप में जाना जाता है, पितृ पक्ष 2017 का यह सबसे महत्वपूर्ण दिन है।अपने पूर्वजो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए हमारी सभ्यता ने प्रति वर्ष 15 दिन निर्धारित किया है। इन दिनों में श्रध्दापूर्वक पितरो को याद कर उनके लिए विधि पूजन , पिंड दान और तर्पण का विधान हमारे शास्त्रो में बताया गया है। पितर दो प्रकार के होते है -

आज़ान पितर -

 जिन पितरो की अंतिम क्रिया और संस्कार पूरी विधि और श्रद्धापूर्वक की जाती है वे आज़ान पिटर कहलाते है। इन पितरो को अपने वंशजो से पूर्ण श्रद्धा मिलती है और ये तृप्त होकर आज़ान पितर बन कर स्थापित होते है। वह से फिर अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार इनकी मुक्ति या पुनर्जन्म की व्यवस्था बनाती है। इन्हें अपने वंशजो से किसी प्रकार की अतृप्ति नहीं होती।

 मर्त्यपितर -

वे पितर जिनका श्रद्धा कर्म और अंतिम क्रिया विधि पूर्वक नहीं होती है वे सदैव अतृप्त होकर मर्त्य पितर के रूप में भटकते रहते है। इनको आज़ान बनाने का अवसर नहीं मिलपाता और ये सदैव अपने वंशजो की प्रतीक्षा में रहते है। पितरलोक में इनको स्थान ही नहीं मिलता। ये पितरलोक में प्रवेश के लिए अपने वंशजो द्वारा श्राद्ध कर्म किये जाने की हमेशा प्रत्यक्ष करते है।

  शास्त्रो के अनुसार जब मनुष्य का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक करने के बाद उसकी संतान के  द्वारा पिंडोदक और पिंडछेदन की क्रिया सम्पन करा दी जाती है तब उस आत्मा को आज़ानपितर  के रूप में पितरलोक में स्थान मिल जाता है और अपने वंशजो से उसकी कोई अन्य अपेक्षा शेष नहीं रह जाती। पितरो के प्रति इसी श्रद्धा की पूर्ती के लिए शास्त्रो ने विधान तय कर इस कार्य के लिए उत्तर भारत में गया जी नामक स्थान को निर्धारित किया है जहा प्रतिवर्ष पितृपक्ष में लोग अपने पितरो को अपनी श्रद्धा पूर्ण कर आज़ान पितर के रूप में पितरलोक में स्थापित करने जाते है।

पूजा से ही पितृ दोष से मुक्ति 


 विवाह के कई वर्षो बाद भी संतान सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो ,वंश वृद्धि नहीं हो पा रही हो ,यदि आपके परिवार में अस्थिरता का वातावरण हो, परिवारजन मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे है , घर मे कलह क्लेश का वातावरण हमेशा बना रहता है , यदि आपको पग पग पर बाधा  का सामना करना पड़ रहा है ,यदि आप किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है तो मत्स्यपुराण का संकेत यह कहता है कि आपके घर मे पितृ दोष है यानि आपके घर के पितृ अतृप्त हैं| क्या आप अपने घर के पितरो की शांति के लिए साल मे एक बार आने वाले पितृ पक्ष मे पिंड दान, तर्पण और उनके निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध श्रदा पूर्वक करते है ? जिस तरह आप अपने और अपने परिवार जनों के जन्म दिन मनाते है, शादी की साल गिरह बड़ी धूम धाम से मनाते है , साल मे आने वाले कई त्योहारों को श्रधा पूर्वक मनाते है और लाखो रुपये खर्च कर देते है  पर क्या आप उतने ही धूम धाम से साल मे सिर्फ 15 दिन चलने वाले पितृ पक्ष पर्व मे अपने पितरो को ,आपके उन परिजनों को जो अब इस दुनिया मे नहीं है के नाम से श्राद्ध करते है, क्या आप पितृ पक्ष मे पिंड दान और तर्पण करके ब्रह्मिनो को भोजन कराते है ?

जो मनुष्य अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में  पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है। उस घर व उस परिवार का किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता है.वही जो मनुष्य पितृ पक्ष मे तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं।

 तीन ऋणों से मुक्ति

पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें हम उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकते हैं। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है।

 अपात्र ब्राह्मण से न कराएं श्राद्ध

श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा।  इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध  पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की  तिथियों में ही किए जाएं।यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।

 किसका श्राद्ध कौन करे?

 पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है।

तर्पण और श्राद्धकर्म के लिए श्रेष्ठ समय

 पितृ शांति के लिए तर्पण का श्रेष्ठ समय संगवकाल यानी सुबह 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से मुक्ति भी देता है। इसी प्रकार शास्त्रों के अनुसार तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय कुतपकाल होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह समय हर तिथि पर सुबह 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।ऐसी धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते है। ऐसी स्थिति में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी कठिनाई के ग्रहण करते हैं।

श्राद्ध की विधि

 जिस तिथि को आपको घर मे श्राद्ध करना हो उस दिन प्रात: काल जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो जाये . पितरो के निम्मित भगवन सूर्य देव को जल अर्पण करे और अपने नित्य नियम की पूजा करके अपने रसोई घर की शुद्ध जल से  साफ़ सफाई करे, और पितरो की सुरुचि यानि उनके पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाये | भोजन को एक थाली मे रख ले और पञ्च बलि के लिए पांच जगह 2 - 2  पूरी या रोटी जो भी आपने बनायीं है उस पर थोड़ी सी खीर रख कर पञ्च पत्तलों पर रख ले| एक उपला यानि गाय के गोबर का कंडे को गरम करके किसी पात्र मे रख दे| अब आप अपने घर की दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाये| अपने सामने अपने पितरो की तस्वीर को एक चोकी पर स्थापित कर दे| एक महत्वपूर्ण बात जो मै  बताना चाहता हू वो यह है की पितरो की पूजा मे रोली और चावल वर्जित है। रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं तो आप भी अपने पितरो को चन्दन का टिका लगाये और सफ़ेद पुष्प अर्पण करे| उनके समक्ष धूप  और शुद्ध घी का दीपक जलाये. हाथ जोड़ कर अपने पितरो से प्रार्थना करे।