आज़ाद भारत में आधी दुनिया 


डॉ  अर्चना तिवारी 
अध्यक्ष , गृहविज्ञान विभाग 
गंगोत्री देवी महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,
गोरखपुर 
मोबाइल : 9450887187

आज़ाद भारत में आधी दुनिया की यात्रा को रेखांकित करना कोई आसान बात नहीं है। १९४७ से लेकर अब तक भारतीय समाज और व्यवस्था को जिन जिन रास्तो से होकर गुजरना पैदा है उन सभी पर बहुत से मील के पत्थर हमारी माताओ , बहनों , बेटियो , और सहयात्रियो के नाम के भी गड़े है।  भारत की आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति की गाथा भर नहीं है।  वस्तुतः यह कहानी बनती है एक नए भारत के निर्माण की।  नए भारत के स्वरुप की।  नए भारत के सपने की।  नए भारत के अस्तित्व की। ..... और इस कहानी को केवल समाज के एकांगी चरित्र या कल्पना से लिखा ही नहीं जा सकता। वैसे भी भारतीय जीवन दर्शन और संस्कृति में समाज को सुव्यवस्थित संस्कारित रूप में संचालित करने के लिए पुरुष और स्त्री दोनों की ही भूमिका का निर्धारण और मूल्यांकन सुनिश्चित है।  

दरअसल देश की आज़ादी के संदर्भो और उस समय के काल खंड से लेकर अब तक की सामाजिक यात्रा को विवेचना और मीमांसा के स्तर पर देखने और समझने की जरूरत है। १९४७  से अब तक लगभग ७० वर्ष गुजर चुके है।इतने समय के खंड में दो इतिहास  समाहित होते है।  इन वर्षो में केवल भारत ही नहीं वरन दुनिया भर में बदलाव हुए है और उन सभी बदलावों का असर भारतीय समाज पर भी पड़ना स्वाभाविक है।जहा तक आधी आबादी के वजूद और अस्मिता का प्रश्न है तो एक बात तो दावे से कही जा सकती है की इसमें जितना परिवर्तन आया है वह कम नहीं है। जिस तरह से आज किसी गांव , कसबे या शहर से गुजरते हुए हर किसी को साइकिल , स्कूटी या पैदल आती जाती बालिकाओ की बाहरी संख्या दिखती है वैसा १९४७ में तो नहीं ही रहा होगा।  तात्पर्य यह की आज लड़कियों के लिए अभ्होतपूर्व साधन भी उपलब्ध हो रहे है।  बिटिया आज घर की चारदीवारी में कैद नहीं है।  वह बाहर की आबोहवा से रूबरू हो रही है और दुनिया के बदलाव में अपनी सक्रिय हिस्सेदारी भी निभा रही है। 
आज़ाद भारत में आधी दुनिया की यात्रा 
इस पूरे समीकरण को समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण आंकड़ों पर भी नज़र दाल लेना उचित होगा।  स्वाधीन भारत की प्रथम लोकसभा में केवल २२ महिलाओ को जगह मिली थी , आज यह संख्या ६८ है। १६ वी लोकसभा में यह प्रतिशत के लिहाज से १२ है।  राज्यसभा में यह प्रतिशत १२. है। हालांकि विश्व की सांसदों में महिला सहभागिता का औसत २२ फ़ीसदी है। महिलाओ की सबसे अच्छी स्थिति अफ्रीका के एक देश रवांडा की संसद में दिखती है।  यहाँ ६३. फीसदी महिलाये  प्रतिनिधित्व कर रही है। भारत की पंचायते भी महिलाओ के दमदार    प्रदर्शन का इतिहास लिख रही है। उत्तर प्रदेश में पंचायतो में ४४ फीसदी से ज्यादा पर महिलाये काबिज है।  बिहार में 9040 पंचायतों में 130091 निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में से महिला प्रतिनिधियों की संख्या 70400 है जो 54.12 फीसदी है।बिहार के अलावा मणिपुर में महिलाओं को पंचायतों में 43.66 फीसदी और कर्नाटक में 42. 89 फीसदी प्रतिनिधित्व हासिल है। लेकिन इन तीन राज्यों को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में यह आंकड़ा 40 फीसदी को पार नहीं कर पाया है। देश की कुल 239582 पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 1039058 है जो मात्र 36. 87 फीसदी है।
यद्यपि उन लोगो को यह प्रगति बहुत संतोषजनक नहीं लगाती होगी जो नारी समाज की तुलना सीधे पुरुषो से करने के हिमायती है।  पर यह सोचने की बात है की देश में शिक्षा , स्वास्थय , राजनीति , मीडिया , कला , संस्कृति , विज्ञान , अंतरिक्ष , खेल , और विज्ञापन की साड़ी दुनिया कही न कही आधी दुनिया के दमदार प्रदर्शन और उपस्थिति से प्रभावित है।  जहां इनकी संख्या काम भी है वहा इनकी थीड़ी उपस्थिति भी सारे समीकरणों पर भारी पड़  जाती है।  वास्तव में कहा जा सकता है कि भारत का नवनिर्माण ही  इसकी आज़ादी के साथ हुआ। राष्‍ट्र निर्माण के विभिन्न स्तरों पर भारतीय नारी का असीम योगदान रहा है। महिलाओं ने न सिर्फ कड़े संघर्ष से मिली स्वतंत्रता को बनाए रखा बल्कि हर क्षेत्र में अपने देश का नाम मेहनत, लगन और आत्मविश्वास के साथ बुलंदियों तक पहुंचाया।
राजनैतिक और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में महिलाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। विजय लक्ष्मी पंडित ने 1946, 1947, 1950 और 1963 में संयुक्तराष्‍ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1953-54 में वह संयुक्तराष्‍ट्र महासभा की सदस्य भी रहीं। 1962-64 में महाराष्‍ट्र की राज्यपाल और 1964-66 तक लोकसभा की सदस्य रहीं। कुल्सुम जे. सायानी ने 1957 में यूनेस्को के तत्वावधान में हुए प्रौढ़ शिक्षा सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें 1959 में समाज सेवा के लिए पद्‍मश्री तथा 1969 में नेहरू साक्षरता पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया। जैनब बेगम 1972 में विधानसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं तथा कई वर्षों तक ज़िला कांग्रेस कमेटी श्रीनगर की अध्यक्षा रहीं। उन्होंने पिछड़ी हुई जातियों के लिए 27 वर्ष तक निरंतर कार्य किया। वह इनके बीच रहीं, इनके दुख-दर्द को समझा और बराबर जन कल्याण में जुटी रहीं। उन्होंने युद्ध विधवाओं को बसाने के लिए बहुत-सी योजनाएं बनाईं जिससे वे अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकें। अहिंसा आंदोलनों में सहभागिता करने वाली अनुसूया बाई स्वतंत्रता के बाद केन्द्रीय विधान सभा की सदस्या चुनी गईं।
इंदिरा गांधी ने देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शासन व्यवस्था बखूबी संचालित की। उनके नेतृत्व में भारत राजनीतिक मोर्चे पर ही आगे नहीं बढ़ा बल्कि आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में उसने उल्लेखनीय प्रगति की है। बैंकों में राष्‍ट्रीयकरण से समाजवाद तथा पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश के आर्थिक विकास को नई दिशा दी। विज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं। अपनी सूझ-बूझ और दूरदर्शिता से उन्होंने भारत की विदेशी नीति को नए आयाम दिए। बंगला देश के स्वतंत्रता आंदोलन और पाकिस्तान से युद्ध के दौरान उन्होंने अद्वितीय भूमिका निभाई। राजधानी में एशियाई खेलों का सफल आयोजन तथा मार्च, 1983 में नई दिल्ली में गुट निरपेक्ष राष्‍ट्रों का शिखर सम्मेलन आयोजित कर उन्होंने अन्तर्राष्‍ट्रीय जगत में भारत का मान बढ़ाया। गुट निरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्षा के रूप में उन्होंने युद्ध की विभीषिका को कम कर विश्‍व शांति की स्थापना के लिए अथक प्रयास किए। उनके देश की बागडोर संभालने के वक़त देश गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था। 1962 के चीनी हमले और 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के कारण आर्थिक स्थिति गड़बड़ाई हुई थी। 1965 में सूखे ने हालात और भी भयावह कर दिए थे। निर्गुट राष्‍ट्र सम्मेलन में भारत का बोलबाला कम हो रहा था। ऐसी अनेक समस्याओं को धैर्य से हल करके इंदिरा गांधी ने भारत की प्रतिष्‍ठा और लोकप्रियता में शानदार वृद्धि की।
शांतिदूत मदर टेरेसा ने विदेशी होते हुए भी भारत को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। कलकत्ता में ‘द सोसाइटी ऑफ द मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी’ नामक संस्था के माध्यम से उन्होंने ग़रीबों, दीन-दुखियों, लाचारों की सेवा का बीड़ा उठाया। उन्होंने करुणा तथा प्रेम को नया अर्थ प्रदान किया। अनेक अंतर्राष्‍ट्रीय व राष्‍ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित मदर टेरेसा अपनी पूरी ज़‍िन्दगी दया का फ़रिश्ता बनी रहीं। उन्होंने दया, प्रेम, सेवा, मानवता के संदर्भों को भारत के परिप्रेक्ष्य में पूरी दुनिया में वितरित किया।
दुर्गाबाई देशमुख ने महि‍लाओं के कल्याण के लिए केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना की। 1953 से 1965 तक वह इसकी चेयरमैन रहीं। उन्होंने अखिल भारतीय महिला परिषद् की कार्यकता के नाते व्यापक सामाजिक कार्य किए। वह महिला शिक्षा की राष्‍ट्रीय कमेटी, आंध्र महिला संघ, विश्‍ववि‍द्यालय महिला संघ, नारी रक्षा समिति तथा नारी निकेतन से सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। महिला व समाज कल्याण पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। 1975 में उन्हें पद्‍म भूषण की उपाधि प्रदान की गई।
पद्‍मजा नायडू ने 1956-67 तक पश्चिम बंगाल की प्रथम महिला राज्यपाल के तौर पर उल्लेखनीय कार्य किया। 1968-74 तक वह नेहरू मैमोरियल एंड म्यूज़ियम की अध्यक्षा भी रहीं। पदम भूषण डॉ. मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी ने मद्रास में कैंसर अस्पताल की स्थापना की। वह मद्रास स्टेट सोशल वेलफेयर एडवाइज़री बोर्ड की 1957 तक अध्यक्षा रहीं। दिल्ली की सुविख्यात समाज सुधारक रुस्तमजी फरीदोनजी ने महिलाओं के लिए नागरिक एवं राजनीतिक दोनों अधिकारों के लिए संघर्ष किया। वह अंत तक इंडिया ऐजूकेशन फंड एसोसिएशन की अध्यक्षा रहीं। उन्होंने दिल्ली के ‘लेडी इरविन कॉलेज फॉर वुमन’ की स्थापना भी की। दक्षिण भारत की समाज सुधारक लक्ष्मी मेनन 1952 में राज्य सभा हेतु निर्वाचित हुईं। 1952-57 तक संसदीय सचिव, 1952-57 तक डिप्टी मिनिस्टर, 1957-62 तक राज्य मंत्री तथा 1962-67 तक विदेश मंत्रालय में रहीं। उन्हें 1957 में पद्‍म भूषण से सम्मानित किया गया। 1967 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर अपना सारा समय महिलाओं के सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यों को समर्पित कर दिया। वह ऑल इंडिया वुमेंस कान्फ्रेंस की फाउंडर मेंबर थीं। पद्‍मश्री से सम्मानित दिल्ली की सविता बेन 1946-53 तक दिल्ली प्रदेश सेविका दल की जनरल ऑफिसर कमांडिंग रहीं। उन्होंने हरिजन व मज़दूर बच्चों के लिए तीन स्कूल खोले। दिल्ली में हरिजन प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, महिलाओं के लिए ट्रेनिंग तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र तथा दो केन्द्र शरणार्थी महिलाओं के लिए खोले। 1956-57 में वह दिल्ली पालिका केन्द्र की प्रथम महिला उपाध्यक्ष रहीं। 1972 में वह राज्य सभा हेतु निर्वाचित हुईं उपरोक्त के अलावा भी असंख्य अन्य महिलाओं ने देश की राजनीति में सक्रिय भाग लेकर इसके विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
1972-73 में महाराष्ट्र व उत्तराखंड में महिलाओं ने शराब विरोधी अभियान छेड़े। उत्तराखंड में महिलाओं ने वृक्षों से चिपककर बिगड़ते हुए पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता जताई, इन्हीं वर्षों में महाराष्ट्र में महिलाओं का बढ़ती महंगाई के खिलाफ़ अभियान शुरू हुआ। 1975 में वामपंथी महिलाओं ने पुणे में पुरोग्रामी स्त्री संगठन तथा मुंबई में स्त्री मुक्ति संगठन स्थापित करके दलित महिलाओं व देशवासियों के उत्थान की दिशा में काम किया। 1975 में प्रगतिवादी महिला संगठन ने हैदराबाद में पहला दहेज़ विरोधी मोर्चा निकाला। 80 के दशक में महिला दक्षता समिति, कर्मिका, नारी रक्षा समिति, सहेली ने मिलकर दहेज़ के ख़िलाफ़ आवाका बुलंद की और इस सामाजिक बुराई के ख़िलाफ लोगों में चेतना पैदा की। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी जी ने जिस सत्याग्रह को अपनाया था उसे उन्होंने इस देश की साधारण महिलाओं से ही सीखा था। बातचीत द्वारा समस्या का हल निकालना, वार्तालाप करना, धीरे-धीरे विरोधी को अपने अनुकूल ढालना-यह सब तरीके महिलाओं ने अपने अनुभवों से ही विकसित किए हैं।
वर्तमान में भी महिलाएं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में महापौर, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राज्य मंत्री और सांसदों के पद पर आसीन हो देश की प्रगति के लिए कार्यशील हैं। देश के विभिन्न राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में भी महिलाएं विभिन्न पदों पर आसीन हैं। अनेक सामाजिक संगठनों के बल पर राष्‍ट्र की छवि निखारने का बीड़ा महिलाओं ने उठाया है, उनका यह कार्य श्‍लाघा योग्य है। आज भी उत्तर प्रदेश के पांच  महानगरो की महापौर महिलाये है। देश के पांच  राज्यो की मुख्यमंत्री महिलाये है।  देश की विदेश मंत्री के रूप में सुषमा स्वराज के योगदान को भला कैसे नहीं रेखांकित किया जाएगा।  देश में इस समय सबसे बड़ी विपक्ष की नेता सोनिया गांधी भी महिला ही है।  उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री रह चुकी मायावती की दमदार राजनैतिक उपस्थिति को भला कौन नकार सकता है। 
किसी भी राष्‍ट्र के निर्माण में साहित्य की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है। विशिष्‍ट साहित्य समाज के नागरिकों में उत्तम गुणों का संचार करता है तथा राष्‍ट्र को अंतरर्राष्‍ट्रीय स्तर पर मान दिलाता है। भारतीय साहित्य क्षेत्र में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर नई पीढ़ी की महिला रचनाकारों में भी राष्‍ट्र के प्रति ग़ौर, आस्था के भाव व नागरिकों के लिए चेतना के स्वर प्रस्फुटित होते आए हैं। कहानी के क्षेत्र में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, कवियित्रियों में कीर्ति चौधरी, शकुंत माथुर, इंदु जैन, स्नेहमयी चौधरी, अनामिका कात्यायनी के अतिरिक्त समग्र साहित्य के क्षेत्र में अमृता प्रीतम, अजीत कौर, अनिता देसाई, कमला दास, शशि देशपांडे, मंजीत कौर टिवाणा, पदमा सचदेव, प्रतिभा दे, लिली मिश्रा दे, राजम कृष्णन, प्रभजोत कौर, कुर्रतुल-एन-हैदर, तारा मीरचंदानी, मालती चंदर, महाश्वेता, कला प्रकाश, आशापूर्णा देवी, कुंदनिका कपाड़िया, सुनेत्र गुप्ता, इंदिरा गोस्वामी, नवनीता देव सेन सहित अनेक महिला रचनाकारों ने विभिन्न भाषाओं में अपनी रचनाओं में भारतीय जन-जीवन, मानवीय संवेदनाओं का गहन चित्रण कर के देश-विदेश में भारत का मस्तक ऊंचा किया। अरुंधती राय को उनके उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ के लिए बहुप्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला।
आज मीडिया, पत्रकारिता एवं जनसंचार के क्षेत्र में भी महिलाओं का वर्चस्व क़ायम है। सेना, वायुयान उड़ाना, पर्वतारोहण आदि विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी भागीदारी करके लैंगिक असमानता को दूर कर दिखाया है। शिक्षा, विज्ञान, खेल-कूद, व्यवसाय, सूचना-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों से अधिक योग्य सिद्ध हो रही हैं। 9 मई, 1984 को कुमारी बछेंद्रीपाल एवरेस्ट चोटी पर विजय पताका फहराने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं। 5 अक्तूबर, 1989 को केरल उच्च न्यायालय की भूतपूर्व न्यायाधीश एम. फातिमा बीवी ने सर्वोच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश के पद को सुशोभित किया। गीत-संगीत के क्षेत्र में महिलाओं ने आकाश की बुलंदियों को स्पर्श करके विदेशियों को भी मोहित किया है। एम. एस. सुब्बलक्ष्मी ने अपनी मीठी वाणी से कर्नाटकीय संगीत को पश्चिम के लोगों में लोकप्रिय कर दिया। स्वर कोकिला लता मंगेशकर तथा आशा भोंसले की मीठी तान सुनकर भारतीय ही नहीं सुदूर देशों में बसे विदेशी भी झूम उठते हैं। प्रथम महिला आई.पी.एस. किरण बेदी ने भारत की सबसेे बड़ी तिहाड़ जेल में कैदियों को सुधार कर अपने प्रयास शुरू किए। उन्हें वांछित सफलता के साथ-साथ मैगासेसे पुरस्कार और जोसफ बियुस पुरस्कार मिले, साथ ही विश्वव्यापी प्रसिद्धि भी। कमला देवी चट्टोपाध्याय भारतीय संस्कृति, कला रंगमंच और साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर रहीं हैं वह समाज सेवा और राजनीति में भी अग्रणी रहीं। उन्होंने भी मैगासेसे पुरस्कार हासिल कर भारत का मान बढ़ाया।
मीरा नायर, कल्पना लाजमी, पूजा भट्ट जैसी महिलाओं ने बतौर निर्देशक रजत पट का स्पर्श किया है तो अभिनेत्रियों के दौर पर अभिनय कला को समृद्ध करने वाली महिलाओं की फेहरिस्त काफ़ी लंबी है तथापि देविका रानी, नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वैजयन्ती माला, वहीदा रहमान, ललिता पवार, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, माधुरी दीक्षित, ऐश्वर्या राय, तब्बू सरीखी अभिनेत्रियों ने देश-विदेश के दर्शकों के दिलों पर राज करते हुए भारतीय सिनेमा की पहचान विश्व भर में बनाई है।
आर्थिक स्तर पर महिलाओं ने स्वयं उद्यमी बनकर राष्‍ट्रीय विकास करते हुए अपनी जगतव्यापी पहचान बनाई है। सौंदर्य जगत में शहनाज़ हुसैन ऐसा नाम है जिसने भारत के कोने-कोने में मौजूद जड़ी-बूटियों को लेकर छोटा-सा व्यवसाय शुरू किया और सफलता के शीर्ष पर सौंदर्य जगत में कीर्तिमान स्थापित कर दिया। फै़शन के नभ पर दैदीप्यमान आशिमा-लीना सिंह ने एक सिलाई मशीन से कपड़े सिलने की शुरूआत कर फैशन की दुनिया में तहलका मचा दिया। आज विभिन्न तकनीकी संस्थानों में महिलाएं बढ़-चढ़ कर प्रवेश ले रही हैं। उनमें आत्मगौरव, आत्मविश्वास व साहस का संचार हुआ है और देश के आर्थिक विकास में योगदान दे रही हैं। इसी प्रकार अनेक निजी महिला संगठनों के अलावा महिला मंडल, सोसायटी फॉर प्रोफैशनल इंस्टीट्यूशन, वाई. डब्ल्यू. सी. ए., महिला पॉलिटेक्निक जैसी तमाम संस्थाओं के माध्यम से आज हज़ारों महिलाएं देश के आर्थिक विकास की दिशा में अहम भूमिका निभा रही हैं।
राष्‍ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है तथापि देश के चहुंमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उसने सशक्त ढंग से पूरा किया है। अपने अस्तित्त्व की स्वतंत्रता क़ायम रखते हुए वह पुरुषों से भी चार क़दम आगे निकल गई हैं। संकीर्णता, जात-पात, धार्मिक कट्टरता, भेदभाव, मानसिक गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर महिलाओं ने देश को एक नई सोच, नया विचार प्रदान किया है।
उन सभी नेताओं का राष्‍ट्र ऋणी रहेगा जिन्होंने सच्चे अर्थों में राष्‍ट्र को गुलामी के बंधनों से मुक्त कराया और स्वतंत्रता के उपरांत नि:स्वार्थ भाव से इसका नवनिर्माण करते हुए विश्व के शिखर तक पहुँचाया। राष्‍ट्र और आज़ाद भारत के हम सभी नागरिक उन सभी जानी-अनजानी महिलाओं के प्रति भी कृतज्ञ हैं जिन्होंने हमें मुक्त हवा में सांस लेने की स्थिति प्रदान की हमें प्रकाश प्रदान करके खुद गुमनामी के अंधेरों में खो जाने वाली उन अज्ञात वीरांगनाओं को भी।
संविधान और आधीआबादी 

भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को सामान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39 (घ)) की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है (अनुच्छेद 15(3)), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51(ए)(ई)) और साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियाँ सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 42)].
भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी. महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था। एक थाने (पुलिस स्टेशन) में मथुरा नामक युवती के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिसकर्मियों के बरी होने की घटना 1979-1980 में एक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी. विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से कवर किया गया और सरकार को साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता को संशोधित करने और हिरासत में बलात्कार की श्रेणी को शामिल करने के लिए मजबूर किया गया।महिला कार्यकर्ताएं कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेद, महिला स्वास्थ्य और महिला साक्षरता जैसे मुद्दों पर एकजुट हुईं.
चूंकि शराब की लत को भारत में अक्सर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है, महिलाओं के कई संगठनों ने आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में शराब-विरोधी अभियानों की शुरुआत की.कई भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के तहत महिला अधिकारों के बारे में रूढ़िवादी नेताओं की व्याख्या पर सवाल खड़े किये और तीन तलाक की व्यवस्था की आलोचना की.
1990 के दशक में विदेशी दाता एजेंसियों से प्राप्त अनुदानों ने नई महिला-उन्मुख गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) के गठन को संभव बनाया. स्वयं-सहायता समूहों एवं सेल्फ इम्प्लॉयड वुमेन्स एसोसिएशन (सेवा) जैसे एनजीओ ने भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक प्रमुख भूमिका निभाई है। कई महिलाएं स्थानीय आंदोलनों की नेताओं के रूप में उभरी हैं। उदाहरण के लिए, नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर.
भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तीकरण (स्वशक्ति) वर्ष के रूप में घोषित किया था। महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गयी थी।
2006 में बलात्कार की शिकार एक मुस्लिम महिला इमराना की कहानी मीडिया में प्रचारित की गयी थी। इमराना का बलात्कार उसके ससुर ने किया था। कुछ मुस्लिम मौलवियों की उन घोषणाओं का जिसमें इमराना को अपने ससुर से शादी कर लेने की बात कही गयी थी, व्यापक रूप से विरोध किया गया और अंततः इमराना के ससुर को 10 साल की कैद की सजा दी गयी। कई महिला संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस फैसले का स्वागत किया गया .अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन बाद, 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को पारित कर दिया जिसमें संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है।यह अलग बात है कि यह बिल अभी तक क़ानून बनने की प्रतीक्षा ही कर रहा है।
जातीय जड़ता में सियासत : कहा है स्त्री


जातीय जड़ता में जकड़ती जा रही भारतीय राजनीति के रंग से समाज का रंग भी

बदलने लगा है। उतर प्रदेश में आसन्न चुनावो की गर्मी के साथ  ही जातीय

आंकड़ो के जादूगरों ने अपने अपने ढंग से राजनीतिक डालो के लिए आंकड़े भी

जुटाने शुरू कर दिए है।  सभी राजनीतिक डालो की ओर  से जातीय आधार पर

ताकतवर नेताओ को अपने खेमे की ओर लाने की कवायद भी चल रही है। हर दल  को

जातीय वोट की चिंता है लेकिन  जाति की इस चुनावी वैतरणी में कोई यह जानने

की कोशिश नहीं कर रहा कि हर जाती में महिलाये भी होती है।  कोई राजनीतिक

दाल यह भी समझने का प्रयास नहीं कर रहा कि उसके जाति की चौसर पर सम्बंधित

समाज की , जाती की स्त्री की दशा क्या हो चुकी है या क्या होने वाली है।

भारत में यह सामान्य प्रचलन मान लिया गया है कि पुरुष की जाती के आधार पर

उस जाती की समस्त महिलाये भी वोट करती है। ख़ास तौर पर आरक्षण के बाद ,

यानी मंडल  लागू होने के बाद से जिस तरह से लोक कलयाणकारी सरकार बनाने के

लिए होने वाले चुनाव में जाती की लहार चलाई जा रही है उसके घातक असर को

अभी तक हमारे जान नायक समझ ही नहीं पा रहे है। उनकी इस जातीय समझ  वाली

भूमिका के चलते समाज की क्या दशा हो गयी है , इस तरफ वह नज़र ही नहीं

डालना चाहते। वोट बैंक  सुरक्षित करने के चक्कर में उन्होंने समूची

स्त्री जाति को ही असुरक्षित कर दिया है।  हालात यह हो चुकी है की जो

समाज पहले  हर महिला को सुरक्षित  रखने की कोशिश करता था , आज वह अब अपनी

जाती के हिसाब से ही महिलाओ के साथ बर्ताव करता है।

दर असल जाती की राजनीति ने कई स्तर  पर असर डाला है। इसने समाज की एका को

तो प्रभावित ही किया है , साथ ही हर जाती को दूसरी जाती के विपक्ष के रूप

में भी अस्थापित कर दिया है।  वास्तव में यह त्रासद और संकटपूर्ण दशा है।

 सामाजिक संस्थानों के अध्ययन भी इसी तरफ इशारा करते है। दरअसल भारतीय

राजनीति की विडम्बना है है की केवल कुछ जातियो को वोट बैंक बना कर सत्ता

के सिंहासन पर काबिज होने वाले राजनीतिक

दल  सत्ता के साथ उसी अंदाज़ में खेलते भी है।  वोट के आधार पर कुछ जातियो

की महिलाये उनके लिए विशेष बन जाती है और कुछ जाती की महिलाओ का कोई

पूछनहार तक नहीं होता। स्कूल , कॉलेज , हाट , बाज़ार , दूकान , ,खेत

खलिहान से लगायत  विधान सभाओ और संसद के गलियारों तक में महिलाओ के साथ

होने वाला बर्ताव बहुत सुखद नहीं दीखता। पता नहीं क्यों आजकल सभी

राजनीतिक लोगो में सामाजिक चेतना की जगह जातीय चेतना ज्यादा प्रबल दिखने

लगी है।  अब नेताओ को उनके सामाजिक योगदान के आधार पर नहीं बल्कि उनकी

जाती के आधार पर पार्टियों में महत्त्व दिया जाने लगा है।  उदाहरण के लिए

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दम्भ भरने वाली भाजपा को ही लिया जा सकता

है।  उत्तर प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष बनाये गए केशव प्रसाद मौर्या

खुद स्वीकार करते है की पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने से पहले

उन्होंने कभी भी अपने नाम के आगे जाती सूचक  टाइटल  नहीं लगाया था।  वह

अपना नाम केवल केशव प्रसाद लिखा करते थे अब उनको केशव प्रसाद मौर्या

लिखना पद रहा है। ऐसा सिर्फ इसलिए  की समाज के सभी पिछड़े वर्ग  उर ख़ास

तौर पर मौर्या जाती  तक यह सन्देश दिया जा सके की उनके जाती के आदमी को

पार्टी ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया है।

यही हाल सभी  का है।  इसमे कोई भी काम नहीं है।   पार्टी यह सोचने को ही

तैयार नहीं है की का कितना घातक असर समाज पर।, ख़ास तौर से महिलाओ पर  रहा

है।  एक और उदाहरण यहाँ देना उचित लगता है।  अभी हाल ही में डी शहर की

ईदय विदारक बलात्कार की घटना हुई।  मुझे याद नहीं है की ऐसी लोमहर्षक कोई

घटाना इससे पहले हुई हो।  यह घटना इतनी भयावह थी जिसके सामने दिल्ली का

बहुचर्चित निर्भया काण्ड भी  था।  सरे राह सड़क से एक लड़की और एक महिला को

गुंडे बन्दूक की नोक पर गाडी से खींच लिए।  लड़की के पिता और हिला के पति

के सामने ही वहशीपने का नंगा नाच खेला गया।  बेटी और पत्नी उनकी आँखों के

सामने ही चिल्लाती रही। क्रूरता , वहशीपन और मानवीयता की साड़ी सीमाओ से

भी ज्यादा उन गुंडों ने समाज और मर्यादा की हर सीमा को तोड़ा यकीन इतनी

वीभत्स और घिनौनी घटना पर भी सामाजिक चेतना के अलामबरदारो के खुद के भीतर

कोई चेतना जागते हमने नहीं देखा।  बुलंदशहर इ वहशीपन का शिकार यह परिवार

ऐसी जाती का नहीं था  को अपना वोटबैंक मिलता।  दो दिन की सुर्खियों के

बाद यह रा प्रकरण शांत हो गया।  एक दलित रोहित बेमुला पर नसद थाप करने

वाली उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला मायावती जी के लिए बुलंदशहर की

यह घटना इसलिए आयने नहीं रखती क्योकि पीड़ित महिलाये सवर्ण जाती की थी

लेकिन दरिंदे दलित थे।

वास्तव में भारत की राजनीति आज ऐसे मुकाम पर कड़ी दिख रही है जहां वाल

सत्ता ही सर्वोपरि है।  किन हमारे नायक यह भूल जाते है की समाज का नाम

जाती नहीं आई।  थोड़े समय के लिए जातीय चेतना उभार कर आप सत्ता पा कटे है

लेकिन सत्ता तो आपको समाज में ही  चलानी है। नेता यह भूल जाते  है की

जिस भी जाती की राजनीति वे करना चाहते है उन सभी जातियो में आधी भागीदारी

महिलाओ की भी है।  जातियो को आरक्षण के नाम पर बाँट चुके नेताओ को यह भी

सोचना  होगा की दशको से लंबित महिला आरक्षण बिल को उन्होंने संसद में पास

 ई होने दिया है।  महिलाओ के लिए तो जाती से अधिक उस महिला आरक्षण की

जरूरत है।  राजनीति के ये खिलाड़ी यह भूल जाते है की अब भारत की बेतिया भी

समझदार हो चुकी है और उन्हें अपने ओ की चिंता होने लगी है। कल्पना कीजिये

की जातीय राजनीति के विरुद्ध  यदि कोई एक महिला केवल महिला अधिकारों के

लिए  राजनीति शुरू करे और पुरुषो के विरुद्ध  महिलाओ को संगठित कर आगे

चले तब जो भयावह दृश्य बनेगा उससे कैसे पर पा सकेंगे।  क्या अब हमारी

राजनीति हमें मैला पुरुष संघर्ष के लिए प्रेरित करेगी।

एक नज़र कुछ ख़ास तथ्यों पर :

  इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन (आईपीयू) की रिपोर्ट  बताती है कि भारत की

संसद या विधानसभा में महिला जनप्रतिनिधियों की काफी कम उपस्थिति महिलाओं

के प्रति भेदभावपूर्ण राजनीतिक मानसिकता का प्रतीक है। इस साल की आईपीयू

की रिपोर्ट में इस मोर्चे पर भारत को 103वें नंबर पर रखा गया है। इस सूची

में पहले दस नंबर पर रवांडा, बोलिविया, अंडोरा, क्यूबा, सेशेल्स, स्वीडन,

सेनेगल, फिनलैड, इक्वेडोर व दक्षिण अफ्रीका जैसे देश हैं। पड़ोसी देशों

में सिर्फ श्रीलंका से ही बेहतर स्थिति में भारत है। पिछले साल आईपीयू ने

189 देशों की संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर जो

वरीयता सूची बनाई थी, उसमें भारत का स्थान एक सौ ग्यारहवां था। तब भी और

आज भी सीरिया, नाइजर, बांग्लादेश, नेपाल व पाकिस्तान के अलावा चीन व

सिएरा लियोन जैसे देश इस मामले में भारत से आगे हैं। आईपीयू की रिपोर्ट

के हिसाब से संसद में हर दस सदस्यों में सिर्फ एक महिला है। समानुपातिक

प्रतिनिधित्व की दहलीजपर भले ही महिलाएं नहीं पहुंच पाई हैं, लेकिन पहले

की तुलना में उनकी उपस्थिति का दायरा थोड़ा बहुत जरूर बढ़ा है। इस समय

543 सदस्यों वाली लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 65 है। राज्यसभा

में 243 सांसदों में 31 महिलाएं है। यह जरूर है कि 1952 के पहले आम चुनाव

से लेकर 2014 के चुनाव तक महिला सांसदों की संख्या बेहद धीमी रफ्तार से

बढ़ी है। 1952 में बीस महिला चुनाव जीत पाईं। यह संख्या लोकसभा के कुल

सदस्यों का 4.1 फीसद थी।

बाद के चुनाव में महिलाओं के मैदान में उतरने की संख्या तो बढ़ती गई

लेकिन उस अनुपात में वे लोकसभा तक नहीं पहुंच सकीं। 1957 में 45 महिलाओं

ने चुनाव लड़ा। यह आंकड़ा कुल उम्मीदवारों का 2.9 फीसद ही था। 22 महिलाओं

ने चुनाव जीत कर सदन में अपनी उपस्थिति 4.5 फीसद दर्ज कराई। तीसरे आम

चुनाव में 1962 में 31 महिलाएं संसद में पहुंची जो कुल सांसदों का 6.3

फीसद थीं। तब 66 महिलाएं चुनाव मैदान में उतरी थीं यानी कुल उम्मीदवारों

का महज 3.2 फीसद। 1967 में तो यह फीसद 2.8 रह गया लेकिन 67 महिलाओं ने

चुनाव लड़ा। यह बात अलग है कि 29 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका

प्रतिनिधित्व घट कर 5.6 फीसद रह गया।

यह 1971 में गिर कर 4.1 फीसद रह गया। कुल उम्मीदवारों की तीन फीसद यानी

86 महिलाओं ने चुनाव लड़ा लेकिन जीत सकीं 21 ही। 1977 में तो स्थिति और

गड़बड़ा गई। महिलाओं की उम्मीदवारी सिकुड़ कर 2.9 फीसद पर आ गई। 70

महिलाओं में से 19 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका हिस्सा सबसे कम 3.5

फीसद ही रहा। 1980 का चुनाव इस मायने में अहम रहा कि पहली बार महिला

उम्मीदवारों की संख्या ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया। उस साल 143 महिलाओं

ने चुनाव लड़ा। हालांकि यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 3.1 फीसद ही था। 28

महिलाएं (कुल सदस्यों का 5.2 फीसद) ही चुनाव जीत पाई। उसके बाद से महिला

उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। हालांकि कुल उम्मीदवारी में उनका

फीसद कम ही बढ़ा।

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में 162

महिलाएं यानी कुल उम्मीदवारों में तीन फीसद मैदान में उतरीं। 42 को सफलता

मिली जिसके बल पर लोकसभा में उन्होंने अपनी हिस्सेदारी 8.2 फीसद कर ली।

1989 में कुल उम्मीदवारों में 3.2 फीसद यानी 198 महिला उम्मीदवार थीं।

लेकिन जीत पाई केवल 29 ही और पिछली बार का लोकसभा में हिस्सेदारी का फीसद

8.2 से घट कर 5.5 पर आ गया। 1991 में कुल 326 महिलाएं मैदान में थीं।

उम्मीदवारी में 3.8 फीसद का यह हिस्सा 37 सीटों पर जीत के साथ लोकसभा में

महिलाओं की 7.1 फीसद उपस्थिति दर्ज करा गया। 1996 में 40 महिलाएं लोकसभा

पहुंची। यह कुल सदस्य संख्या का 7.4 फीसद था। लेकिन 599 महिलाओं ने तब

चुनाव लड़ा था। और कुल उम्मीदवारों में उनका फीसद पहली बार चार को पार कर

4.3 हुआ था। 1998 में महिला उम्मीदवारों की संख्या घटकर 274 रह गई। यह

कुल उम्मीदवारों का 5.8 फीसद था। लेकिन उस चुनाव में 43 महिलाओं ने जीत

दर्ज कर लोकसभा में अपनी हिस्सेदारी 7.9 फीसद कर ली। यह सिलसिला 1999 में

भी जारी रहा। तब चुनाव हालांकि 284 महिलाओं ने ही लड़ा लेकिन कुल

उम्मीदवारी में अपना हिस्सा 6.1 फीसद कर लिया। तीन साल में तीन चुनाव

होने की वजह से कुल उम्मीदवारों की संख्या वैसे भी उस साल कम रही थी।

बहरहाल 1999 में 49 महिलाओं ने चुनाव जीता और अपना हिस्सा नौ फीसद कर

लिया। 2004 में 355 महिलाएं (कुल उम्मीदवारों का 6.5 फीसद) चुनाव लड़ी और

45 (कुल सांसदों का 8.3 फीसद) जीत गईं। 2009 में हुए आम चुनाव में 556

महिलाएं मैदान में उतरीं। यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 6.9 फीसद थी। खास

बात यह है कि पहली बार महिलाओं ने पचास का आंकड़ा पार कर 59 सीटें जीतीं

और पहली बार लोकसभा में उनकी उपस्थिति दहाई तक पहुंच कर 10.9 फीसद हो गई।

2014 में लोकसभा में महिलाओँ का फीसद बारह को पार कर गया। इस तरह 62 साल

के सफर में महिला सांसदों की संख्या बीस से 65 हो पाई है।

सिर्फ लोकसभा की ही यह तस्वीर नहीं है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में

तो ऐसे मौके भी आए हैं जब एक भी महिला चुनाव नहीं जीत पाई। केरल,

उत्तराखंड, नगालैंड व मेघालय जैसे राज्य जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में

अग्रणी माने जाते हैं वहां की विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे

कम है। नगालैंड ने तो इस मामले में मिसाल कायम की है। राज्य की साठ

सदस्यों की विधानसभा में पिछले पचास साल में एक भी महिला नहीं पहुंची है।

एक चुनाव में तो करीब दो सौ पुरुष उम्मीदवारों के बीच केवल चार महिलाएं

थीं। यह हालत तब है जब राज्य में हमेशा पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने

ज्यादा मतदान किया है।

अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर व मेघालय के किसी भी विधानसभा चुनाव में महिला

उम्मीदवारों की संख्या कभी भी 25 तक नहीं पहुंच पाई है। सफलता के मामले

में रिकार्ड बना 2013 में हुए मेघालय विधानसभा चुनाव में जहां चार

महिलाएं चुनाव जीत कर विधायक बनीं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की

विधानसभा में सिर्फ एक बार महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्रमशः नौ व आठ फीसद

रहा। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या केरल में ज्यादा है। वहां भी

विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति आमतौर पर अपवाद के रूप में 1996 को

छोड़ कर छह फीसद के आसपास ही रही है।

वैश्विक आंकड़ों में संतुलन कम

जाहिर है कि ये आंकड़े आधी आबादी के लिए निराशाजनक है। खास तौर से तब जब

मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। वजह साफ है। राजनीतिक

पार्टियां महिलाओं को ज्यादा उम्मीदवार बनाने में विशेष रूचि नहीं लेती।

इस जाते आईपीयू की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। लेकिन

आईपीयू जिस आधार पर तुलना करता है उसमें विसंगतियां ज्यादा हैं। संबंधित

देश की आबादी और वहां के प्रमुख सदन के सदस्यों की संख्या को ध्यान में

नहीं रखा गया। यह सही है कि पूरी दुनिया में राजनीति में महिलाओं की

संख्या लगातार बढ़ रही है।

आईपीयू की वरीयता सूची में रवांडा आश्चर्यजनक रूप से पहले स्थान पर है।

सितंबर 2013 में वहां हुए चुनाव में 63.8 फीसद महिलाएं जीतीं। यह पूरी

दुनिया में पहला मौका था जब किसी देश में महिला सांसदों की संख्या साठ

फीसद के पार पहुंची। बाद के नौ स्थानों पर अंडोरा, क्यूबा, स्वीडन,

दक्षिण अफ्रीका, सेशेल्स, सेनेगल, फिनलैंड इक्वेडोर व बेल्जियम जैसे देश

हैं। इस सूची में कनाडा का 54वें व अमेरिका का 72वें स्थान पर होना

भारतीय राजनीति के पैरोकारों को सुखद लग सकता है लेकिन दक्षिण एशिया के

पड़ोसी देशों से तुलना की जाए तो श्रीलंका को छोड़ कर बाकी सभी देशों की

स्थिति भारत से बेहतर है। श्रीलंका की 225 सदस्यों वाली संसद में महिलाओं

की संख्या केवल तेरह है और इस नाते आईपीयू की सूची में उसे 133वां स्थान

मिला है।

यह हालत तब है जब श्रीलंका में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री का पद महिला

संभाल चुकी है। नेपाल में कभी कोई महिला राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं

बनी लेकिन वहां की संसद में 30 फीसद महिलाएं हैं। सूची में उसका स्थान

35वां है। नेपाली सांसद में हर तीन सांसद में एक महिला है। चीन में करीब

25 फीसद सांसद महिलाएं हैं। रैकिंग में वह 53वें नंबर पर निचले सदन में

24 फीसद महिलाओं की वजह से है। जहां तक महिला अधिकारों और समानता की बात

है मुस्लिम बहुल दो पड़ोसी देशों- बांग्लादेश व पाकिस्तान की स्थिति

अच्छी नहीं मानी जाती लेकिन संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने के

मामले में ये दोनों देश भारत से आगे हैं। पाकिस्तान में ऊपरी सदन में 17

फीसद और निचले सदन में 21 फीसद महिलाएं हैं। महिला सांसदों की कुल संख्या

84 है और आईपीयू की सूची में उसका स्थान 64वां है। बांग्लादेश में 20

फीसद सांसद महिला हैं। अरसे से राष्ट्राध्यक्ष के पद पर दो बेगमों के

होने को देखते हुए यह संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन भारत के 12 फीसद से तो

यह ज्यादा है ही।

अफगानिस्तान के दोनों सदनों में 97 महिला प्रतिनिधि हैं। पिछले पांच साल

में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की राजनीति में स्थित सुधरी है। जिन सदनों

में महिलाओं की नुमाइदंगी तीस फीसद से ज्यादा है, उनकी संख्या पांच साल

में पांच से बढ़ कर 42 हो गई है। 40 फीसद से ज्यादा महिला प्रतिनिधियों

वाले सदनों की संख्या इस अरसे में एक से तेरह हो गई है। चार सदनों में

महिलाओं की संख्या पचास फीसद से ज्यादा है। आईपीयू की सूची में भारत के

पिछड़ने पर चिंता भले ही जताई जाए, यूरोप के विकसित देशों में भी स्थिति

ज्यादा अच्छी नहीं है। 1995 में आईपीयू की सूची में पहले दस स्थान पर

यूरोपीय देशों का दबदबा था। 2015 की रिपोर्ट में पहले दस देशों में चार

सब सहारा अफ्रीका के हैं। 1995 की सूची के फिनलैंड, सेशेल्स व स्वीडन

जैसे देश ही 2015 में टॉप टैन में अपनी जगह बचाए रख पाए हैं।

संख्या कम अधिकार ज्यादा

 सरकार में मंत्री पद संभालने के मोर्चे पर भारत दुनिया में 37वें नंबर

SHARE THIS
Previous Post
Next Post