महावतार 


संजय तिवारी 
 भारत और भारतीयता को एक जन्म में समझ पाना बहुत कठिन लगता है। यह विलक्षण धरती है। जीवन के लगभग ५० वर्ष बीत चुके।  इसको जीतनी जानने की कोशिश करता हूँ उतना ही लगता है की कुछ जान नहीं पाया हूँ अब तक। भीतर एक अलग छटपटाहट होती है की मई तो नहीं ही जान सका लेकिन आने वाली पीढियां तो और भी नहीं जान पाएंगी , क्योकि भारत के हम लोग अपने भारत को ही छोड़ , सारी दुनिया के प्रपंच से नाव बिहान को सिंचित कर रहे है। दुःख तो इस बात का है कि अपने वर्त्तमान से तो विमुख हो ही रहे है , विरासत से कोसो दूर छूटते जा रहे है। पश्चिमी  दुनिया के लोग जब ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए  योगी, या दा  सेकैरेड्स ऑव इंडिया ,  या इस तरह की  इंडिया: दैट इज़ द  वंडर जैसी पुस्तके लेकर आते है तब हमारे यहाँ के कुछ जागरूक लोग उन्हें पढने के बाद अपनी तलाश में लगते है। यह ठीक है कि हम एक हज़ार साल से ज्यादा समय तक पराधीन रहे है लेकिन अब तो आज़ाद है ? पिछले 70 वर्षो में तो कुछ होना चाहिए था ? खैर यह बहस चलेगी तो बहुत लंबी हो जायेगी।  यहाँ तो मैं  महज़ एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ अपनी आध्यातिक सांस्कृतिक विरासत का जिसने आज भी दुनिया को अचम्भे में डाले हुए है। मई भी अभागा अनभिज्ञ था वर्षो तक लेकिन जब से महावतार बाबाजी के बारे में सजीव जानकारी मिली है उसी पल से अद्भुत ऊर्जा से सराबोर पा रहा हूँ। इस महँ आत्मा को लेकर मैंने पढ़ा कई जगह है लेकिन जानता नहीं था। आइये , भारत की इस महान विभूति के बारे में थोड़ी चर्चा करते है -  


महावतार बाबाजी के बारे में परमहंस योगानंद ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में 1945 में बताया था। उन्होंने बताया कि किस प्रकार हिमालय में रहते हुए बाबाजी ने सदियों से आध्यात्मिक लोगों का मार्गदर्शन किया है। बाबाजी सिद्ध हैं जो साधारण मनुष्य कि सीमाओं को तोड़ कर समस्त मानव मात्र के आध्यात्मिक विकास के लिए चुपचाप काम कर रहे हैं। बाबाजी ने ही आदि शंकराचार्य और संत कबीर को दीक्षा दी थी।
जिसने जब भी देखा एक ही उम्र बताई
बाबाजी के जन्मस्थान और परिवार के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चल सका। जो लोग भी उनसे जब भी मिले, उन्होंने हमेशा उनकी उम्र 25-30 वर्ष ही बताई। लाहिड़ी महाराज ने बताया था कि उनकी शिष्य मंडली में दो अमेरिकी शिष्य भी थे। वे अपनी पूरी शिष्य मंडली के साथ कहीं भी कभी भी पहुंच जाया करते थे। परमहंस योगानंद ने अपनी पुस्तक में बाबाजी से जुड़ी दो घटनाओं का उल्लेख किया है जिनपर एक बार तो भरोसा नहीं होता।
ऐसे टाल दी शिष्य की मृत्यु
पहली घटना का उल्लेख करते हुए योगानंद ने लिखा है कि एक बार रात में बाबाजी अपने शिष्यों के साथ थे। पास ही में अग्नि जल रही थी। बाबाजी ने उस अग्नि से एक जलती हुई लकड़ी उठाकर अपने एक शिष्य के कंधे पर मार दी। जलती हुई लकड़ी से इस तरह मारे जाने पर बाबाजी के शिष्यों ने विरोध किया। इस पर बाबाजी ने उस शिष्य के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि मैंने तुम्हें कोई कष्ट नहीं पहुंचाया है बल्कि आज होने वाली तुम्हारी मृत्यु को टाल दिया है।
मृत हो कर  यूं जिंदा हो गया
इसी तरह जो दूसरी बात का उल्लेख योगानंद ने किया है, उसके अनुसार एक बार बाबाजी के पास एक व्यक्ति आया और वह जोर-जोर से उनसे दीक्षा देने की जिद करने लगा। बाबाजी ने जब मनाकर दिया तो उसने पहाड़ से नीचे कूद जाने की धमकी दी। इसपर बाबाजी ने कहा 'कूद जाओ', उस शख्स ने आव देखा न ताव पहाड़ी से कूद गया। यह दृश्य देख वहां मौजूद लोग हतप्रद रह गए। तब बाबाजी ने शिष्यों से कहा- 'पहाड़ी से नीचे जाओ और उसका शव लेकर आओ।' शिष्य पहाड़ी से नीचे गए और क्षत-विक्षत शव लेकर आ गए। शव को बाबाजी के सामने रख दिया। बाबाजी ने शव के ऊपर जैसे ही हाथ रखा, वह मरा हुआ व्यक्ति सही सलामत जिंदा हो गया। इसके बाद बाबाजी ने उससे कहा कि 'आज से तुम मेरी टोली में शामिल हो गए। तुम्हारी ये अंतिम परीक्षा थी।'
साधकों की ऐसे करते हैं मदद, उन्हें पता ही नहीं चलता
बाबाजी दुनियादारी से दूर रहकर योग साधकों को इस तरह सहायता करते हैं कि कई बार साधकों को उनके बारे में मालूम तक नहीं रहता। परमहंस योगानन्द ने ये भी बतलाया है कि सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग की शिक्षा देने वाले बाबाजी ही हैं। बाद में लाहिड़ी महाशय ने अनेक साधकों को क्रिया योग की दीक्षा दी। लगभग 30 वर्ष बाद उन्होंने योगानंद के गुरु श्री युक्तेश्वर गिरी को दीक्षा दी। योगानंद ने 10 वर्ष अपने गुरु के साथ बिताए, जिसके बाद स्वयं बाबाजी ने उनके सामने प्रकट होकर उन्हें क्रिया योग के इस दिव्य ज्ञान को पाश्चात्य देशों में ले जाने का निर्देश दिया।


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हिमालय पर स्थित महावतार बाबाजी की गुफा।


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गुफा तक पहुंचने का मैप।

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महावतार बाबाजी की प्रतिमा।

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परमहंस योगानंदजी महाराज 

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परमहंस योगानंद के गुरु युक्तेश्वर गिरी।


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yoganand ji 

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लाहिड़ी महाशय 


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परमहंस योगानंद 

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परमहंस योगानंद के बचपन से ही उनके जीवन में चमत्कारिक घटनाएं होने लगी थीं। उनके द्वारा लिखित योगी कथामृत में इन बातों का विस्तार से सिलसिलेवार उल्लेख किया गया है। परमहंस योगानंद का बचपन का नाम मुकुन्द था। वो अपनी मां के देहांत के बाद घर से भाग गए थे। बड़ी मुश्किल से उनके बड़े भाई उनको ढूंढ़ कर वापस लाए थे।
लाहिड़ी महाराज ने कहा-'तम्हारा ये पुत्र एक दिन योगी बनेगा'
परमहंस योगानंद की मां ज्ञानप्रभा घोष भी लाहिड़ी महाराज की शिष्या थीं। एक दिन वह उनको लेकर लाहिड़ी महाराज के पास गईं तो उन्होंने उनसे कहा कि तुम्हारा ये पुत्र एक दिन योगी बनेगा। जब योगानंद 11 साल के हुए, उनकी मां का निधन हो गया। मां के निधन से दुखी योगानंद घर से भाग गए। पर उनके बड़े भाई मुश्किल से उनको वापस लेकर आए थे।
साधु ने कहा-'अगली बीमारी तुम्हारे लिए अंतिम होगी'
जब योगानंद के पिताजी लाहौर में थे, उस समय उनके घर एक साधु आया। उस साधु ने योगानंद की माता से कहा था कि-हे मां, अब तुम्हारा इस संसार में रहना ज्यादा समय तक संभव नहीं होगा। तुम्हारी अगली बीमारी तुम्हारे लिए अंतिम होगी। थोड़ी देर मौन रहने के बाद साधु ने कहा कि तुम्हें अमानत के लिए एक चांदी का ताबीज दिया जाएगा। लेकिन वह तुम्हें आज नहीं, कल मिलेगा।
'ताबीज अपने आप तुम्हारे हाथ में आ जाएगा'
साधु ने योगानंद की माताजी से कहा कि कल सुबह जब तुम ध्यान में बैठोगी तो चांदी का ताबीज अपने आप तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। इसे तुम्हें अपने बड़े बेटे अनंत को देना हैं और उससे कहना कि ये ताबीज वो तुम्हारी मौत के 14 महीने बाद छोटे भाई मुकंद को दे दे। जब ये ताबीज मुकुंद के पास पहुंच जाएगा, उसके कुछ समय बाद ये अदृश्य हो जाएगा। इसके अगले दिन वैसा ही हुआ जैसा साधु ने योगानंद की मां से कहा था।
ताबीज लेते ही एक अलग तरह की आध्यात्मिक अनुभूति हुई
इस घटना के दो साल बाद योगानंद की मां का निधन हो गया और उसके 14 महीने बाद ये ताबीज उनके बड़े भाई अनंत ने योगानंद को दिया। जैसे ही योगानंद के बड़े भाई ने ये ताबीज उनको दिया, उसी समय उनको एक अलग तरह की आध्यात्मिक अनुभूति हुई। ताबीज पर एक मंत्र उभरा हुआ था। योगानंद ने अपने पास कुछ दिन तक ताबीज रखा और फिर उसे संभालकर रख दिया। कुछ दिन बाद जब वह ताबीज देखने पहंचे तो वह उन्हें नहीं मिला।

बालक मुकुन्द (परमहंस योगानन्द) ने अपने बाल अवस्था से ही गेरूए कपड़े अपने आप पहनना शुरू कर दिया था। जब उनकी क्लास के दूसरे बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे होते तो वह चुपचाप दिन में और रात में श्मशान में जाकर घंटों बैठे रहते। इतनी कम उम्र में जलती चिताओं के बीच बैठे रहने के बाद भी उनको जरा सा भी डर नहीं लगता था।

परिजन जानते थे ये बनेंगे योगी
परमहंस योगानन्द भविष्य में योगी बनेंगे। ये बात उनके परिवार के लोग जानते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि किसी तरह उनको योगी बनने के रास्ते से रोका जाए। इसके लिए उनके परिजनों ने भरसक प्रयास भी किया, लेकिन उनके सारे प्रयास बेकार साबित हुए। इसी के चलते वह एक बार घर से भाग भी गए थे। तब उनके बड़े भाई उन्हें वापस घर लेकर आए थे। जब योगानन्द वापस आ गए तो उनके पिता ने कहा कि हम तुम्हारे रास्ते में बाधा नहीं बनेंगे, लेकिन हम इतना चाहते हैं कि तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो। पिता के इस आश्वासन के बाद तो उनके सपनों को जैसे पंख से लग गए।
स्कूल की जगह जाते थे श्मशान
इस सबके बाबजूद भी योगानंद की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह स्कूल की जगह श्मशान में अपना ज्यादा से ज्यादा समय गुजारते। सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और परीक्षाएं आ गई। उस समय उनके मित्र ने परीक्षा में आने वाले संभावित प्रश्न उनको बता दिए। परीक्षा से एक दिन पूर्व योगानंद को पार्क में कागज के कुछ टुकड़े पड़े हुए मिले। उन्होंने उन कागज के टुकड़ों को उठाकर देखा तो उसमें संस्कृत के कुछ श्लोक लिखे थे। उन कागज के टुकड़ों को वह एक पंडित के पास लेकर पहुंचे और उनसे इन पर लिखे श्लोक का अर्थ समझाने के लिए कहा। पंडित ने उन्हें श्लोक का अर्थ समझा दिया। आश्चर्य तो उस समय हुआ, जब परीक्षा में उन्हीं श्लोकों का अर्थ पूछा गया। इसके बाद योगानंद कलकत्ता से वाराणसी आ गए।

तिकोनी दाड़ी वाले गेरूआ कपड़े पहने हुए एक संत दिखाई दिए
वाराणसी की संकरी गलियों का एक अलग ही तरह का नजारा रहता है। योगानंद किसी काम से बाजार जा रहे थे। जैसे ही वह अपने निवास स्थान से निकले, उन्हें कुछ दूरी पर तिकोनी दाड़ी वाले गेरूआ कपड़े पहने हुए एक संत दिखाई दिए। योगानंद के आश्चर्य की सीमा न रही, ये संत बिलकुल वैसे ही थे, जो उन्हें प्राय: हर रात सपने में दिखाई देते थे। योगानंद दौड़कर उनके पास पहुंच गए। ये कोई और नहीं बल्कि लाहिड़ी महाराज के शिष्य युक्तेश्वर गिरीजी थे। उन्होंने योगानंद से बंगाली भाषा में कहा कि 'तुम आ गए मुकुन्द', 'मैं तुम्हारी कितने सालों से प्रतीक्षा कर रहा था।' इसके बाद वह योगानन्द का हाथ पकड़कर काशी के राणामहल इलाके में अपने डेरे में ले गए।

muslim fakeer aur yukteshwaranand ji
मुस्लिम फ़कीर को हिन्दू संत से मिली थी सिद्धिया

 बात 1935 की है। परमहंस योगानंद उत्तरी कलकत्ता में श्रीरामपुर कॉलेज के छात्र थे। वह पास में ही गंगा किनारे एक हॉस्टल में रहते थे। एक दिन उनके गुरू युक्तेश्वरजी पहली बार उनसे मिलने यहां आए। उन्होंने योगानंदजी से कहा जिस कमरे में तुम रह रहे हो, सालों पहले इसमें एक मुस्लिम फकीर रहता था। उसके पास चमत्कारिक शक्तियां थीं। उसने अपनी कई शक्तियों का प्रदर्शन मेरे सामने किया था।
युक्तेश्वरजी ने योगानंद से कहा कि ये बड़ी और दिलचस्प बात है। उस फकीर का नाम अफजल खान था। सालों पहले उसकी एक हिंदू संत से मुलाकात हुई और उसे अनेक सिद्धियां प्राप्त हो गईं। इसके पीछे की वजह बताते हुए युक्तेश्वरजी ने कहा कि सालों पहले बंगाल के एक गांव में एक संन्यासी अफजल से मिला। उन्होंने अफजल से कहा कि बेटा मुझे बहुत प्यास लगी है, थोड़ा पानी पिला दो। अफजल ने संन्यासी से कहा कि मैं तो मुसलमान हूं आपको पानी कैसे पिला सकता हूं। और हिंदू होते हुए मेरे हाथ से कैसे पानी पिएंगे।

ऐसे खुश हुए थे संत
संन्यासी ने कहा बेटा में तुम्हारे सत्य बोलने से खुश हूं। मैं इस तरह की बातों को नहीं मानता। तुम मुझे पानी पिलाओ। अफजल ने संन्यासी को पानी पिला दिया। पानी पीने के बाद संत ने उसे प्यार भरी नजर से देखा और कहा कि बेटे तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म बहुत अच्छे हैं। इस वजह से में तुम्हें एक योग क्रिया सिखा रहा हूं। इससे तुम्हारी अदृश्य लोकों में से किसी एक पर सत्ता स्थापित हो जाएगी। इससे जो शक्तियां तुम्हें मिलेंगी उनका उपयोग अच्छे उद्देश्य के लिए ही करना। भूल से भी इनका उपयोग किसी गलत काम के लिए नहीं करना।

संत ने दी थी चेतावनी
- संन्यासी ने अफजल से ये भी कहा कि मैं देख रहा हूं कि पिछले जन्म के कुछ गलत काम अभी भी तुम्हारे बीज में हैं। जिन्हें तुम कभी भी अच्छे कामों पर हावी नहीं होने देना।
- इसके बाद संन्यासी अफजल को सिद्धि की प्रक्रिया समझाकर चले गए। अफजल ने 20 साल तक इस सिद्धि का कठोर अभ्यास किया। धीरे-धीरे उसके चमत्कारों की चर्चा होने लगी। वह हवा में हाथ उठाकर कहता हजरत में मुझे ये चीज चाहिए, वह चीज पल भर में उसके सामने आ जाती।
- उसके इस काम से हमेशा उसके आसपास लोगों की भीड़ रहती। अदृश्य शक्ति के चलते वह अपनी हर छोटी से छोटी इच्छा को भी पूरी करने में समर्थ था।

गायब होने लगा सामान
युक्तेश्वरजी ने कहा कि समय के साथ अफजल गलत रास्ते पर चल पड़ा। उसने संन्यासी की चेतावनी को अनसुना करना शुरू कर दिया। वह जिस चीज को भी छूता वह थोड़ी देर बाद गायब हो जाती। इस कारण जिस घर-दुकान पर वह जाता लोग परेशान हो जाते। थोड़ी देर बाद उन्हें अपने यहां से कोई कीमती सामान गायब मिलता।

लोग होने लगे परेशान
युक्तेश्वरजी ने योगानंद को बताया कि उसने अदृश्य शक्ति के सहारे हीरे-जवाहरात की दुकानों से से खूब माल उड़ाया। इसी तरह उसे अपने लोगों के साथ ट्रेन से कहीं जाना होता तो वह टिकट खरीदने से पहले टिकिट की पूरी की पूरी गड्डी छू लेता फिर लेने से मना कर देता। और ऐसे ही ट्रेन में चढ़ जाता । ट्रेन में अपने लोगों को टिकिट बांट देता। उसके इस काम से कलकत्ता के लोग परेशान रहने लगे। पुलिस भी असहाय हो गई। कोई कुछ कर ही नहीं पा रहा।

युक्तेश्वरजी को दिखाया चमत्कार
- युक्तेश्वरजी ने योगानंद से कहा कि यह मकान पहले मेरे एक मित्र का था। उसकी अफजल से मुलाकात हो गई और उसने उसे यहां रहने के लिए बुला लिया। अफजल ने मकान के आसपास रहने वाले लोगों को बुला लिया। उन लोगों में एक मैं भी था (युक्तेश्वरजी)।
- उसने युक्तेश्वरजी से कहा तुम एक पत्थर अपना नाम लिखकर गंगा में फेंक दो। उन्होंने वैसा ही किया। थोड़ी देर बाद अफजल ने वह पत्थर घर में रखे एक बर्तन में से युक्तेश्वरजी से निकलवाया। उन्होंने देखा कि वह वहीं पत्थर है जिसपर उन्होंने अपना नाम लिखकर फेंका था।
ऐसे गायब कर दी घड़ी
उसी समय अफजल ने कमरे में खड़े एक व्यक्ति की घड़ी और सोने की चैन छूकर देखी, थोड़ी देर में वह गायब हो गई। सामान गायब होने से वह युवक उदास हो गया। उसने अफजल से घड़ी वापस करने कहा तो अफजल ने कहा तुम्हारे घर की तिजोरी में 500 रुपए रखे हैंस वह मुझे लाकर दो उसके बाद तुम्हारा सामान मिल जाएगा।

आसमान से आ गए सोने के बर्तन
इसी तरह अफजल ने वहां खड़े लोगों से अपने पसंद की खाने-पीने का सामान मांगने कहा जिसने जो बताया उसे पलभर में अफजल ने दे दिया। कुछ लोगों ने सोने के बर्तन में खाने के लिए भोजन मांगा को उन्हें अफजल में सोने के बर्तन में ही खाना खाने दिया। अचरज की बात तो यह है कि वह सिर्फ हवा हाथ उठा हजरत कहता था और पलभर बर्तन खनखने की आवाज आती और सोने की थालियों में खाना आ जाता।

हजरत से मंगाई शराब
युक्तेश्वर महाराज के साथ ही खड़े एक व्यक्ति से अफजल ने कुछ मांगने कहा। वह व्यक्ति शराब पीने का आदी था। उसने अपने लिए शराब देने के लिए कहा। अफजल ने हवा में हाथ ऊंचा कर कहा हजरत शराब की बोतल चाहिए। पलभर में वहां शराब की चार-पांच बोतल आ गईं।

ऐसे चली गई शक्ति
युक्तेश्वरजी ने योगानंद को बताया कि उस दिन के बाद वह अफजल से कभी नहीं मिले। सालों बाद कलकत्ता के एक अखबार में अफजल के बारे में खबर छपी थी जिसमें उसने बताया था कि किस तरह उसे एक हिंदू संत की कृपा से सिद्धि प्राप्त हुई थी। उसने ये भी बताया था कि संत ने सिद्धि के गलत उपयोग नहीं करने की चेतावनी दी थी। उसने ये भी बताया था कि किस तरह उसकी शक्ति स्वयं उन संन्यासी ने वापस ले ली।



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