साक्षात्कार 

यात्रा जड़ो के तलाश की 

पारिजात से दूसरी जन्नत और शब्दपखेरू तक 



चौबीस भाषाओं के लेखकों को बुधवार को 'साहित्य अकादमी पुरस्कार 2016' देने की घोषणा की गई। हिन्दी की जानी मानी लेखिका नासिरा शर्मा को उनकी रचना पारिजात के लिए इस साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार देने का ऐलान हुआ । कुल 24 भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट रचनाओं के लिए इस अवॉर्ड को दिया जाता है। नासिरा जी  के अभी तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास और तीन लेख-संकलन प्रकािशत हो चुके हैं। उन्होंने राजस्थानी लेखकों की कहानियों का संपादन भी किया है। उनके दो लघु उपन्यास शब्दपखेरू और दूसरी जन्नत शीघ्र आने वाले है।  1948 में इलाहाबाद में जन्मी सुश्री शर्मा ने फ़ारसी भाषा और साहित्य में एम.ए. किया है। उनकी हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और पश्तो भाषाओं पर गहरी पकड़ है। इस अवार्ड और साहित्य के वर्त्तमान परिवेश को लेकर नासिरा जी से अपना भारत के संपादक विचार संजय तिवारी ने लाबी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश -



क्या महसूस कर रही हैं ?
सच पूछिए तो , जब कल पहला फोन आया , राव साहब का ,तो मैं बिलकुल प्रतिक्रियाहीन थी। कुछ समझ में नहीं आया।  शाम तक फोन आते रहे और इंटरव्यू का सिलसिला चलता रहा। आज नार्मल हूँ और बहुत खुश भी। क्योकि जिन लोगो से भी बात हो रही है , वे सभी बहुत खुश हैं। लोगो के लहजे ने मुझे बहुत ख़ुशी दी है। 

साहित्य अकादमी के लिए तो यह पुरस्कार लेकर आपने इतिहास रचा है। क्या कहेंगी ?
इसे स्त्री पुरुष के नज़रिये से मत देखिये। सच है कि बहुत दिनों बाद एक महिला रचनाकार को यह अवार्ड मिला है लेकिन यह सृजन का सम्मान है। मैं इसको उसी रूप में देखती और दिखाना चाहती हूँ।
पारिजात के बारे में लोग जानना चाहेंगे।  इसको चुनने की कोई वजह ?
समुद्र मंथन से पारिजात की उत्पत्ति है , यह सभी जानते है। बाराबंकी के पास पारिजात होने की जानकारी हुई तो मैं भी देखने गयी और फिर इसके उस प्राचीनता की तलाश की जिसके कारण पारिजात प्रसिद्ध है। महाभारत काल में कंचनवन  में पांडवो द्वारा अपने हथियार इसी वृक्ष की शाखाओ पर छिपाने की कथा आती है। पारिजात की प्राचीनता , इसका अस्तित्व, इसका झुकना और उठना , इन सबने बहुत भीतर तक प्रभावित किया और पारिजात की जमीन बन गयी। 

यह संयोग है कि आप और अनुपम मिश्र एक ही वर्ष में पैदा हुए। इसी सप्ताह उन्होंने धरती से विदा ली , उसका अभी शोक चल ही रहा था की आपको पुरस्कार मिलाने की घोषणा हुई। किस नज़रिये से खुद को यहाँ पाती है?क्यों कि अनुपम जी तो आपके रचना संसार का भी हिस्सा रहे है ?
जी हां , अनुपम भाई मुझे बहुत मानते थे। जब मैंने कुइयाँजान लिखा तो अनुपम जी को ही एक चरित्र के रूप में उतारा। उनकी पुस्तक तालाब खरे पढ़ चुकी थी और बहुत गहरे तक उससे प्रभावित भी थी। मेरे कुइया जान में जिस चरित्र को पानी के लिए संघर्ष करते और संवाद करते दिखाया गया है वह अनुपम जी ही हैं। उनके जाने का बहुत दुःख है। इसे मैं निजी क्षति भी मानती हूँ। कुइयाँजान में जिस मुद्दे को मैंने उठाया उसके प्रेरणा तो अनुपम जी ही थे। 

साहित्य के वर्त्तमान सन्दर्भ और मानक को आप किस रूप में देखती है ?

संजय जी , आज के रचनाकार या लेखक लोग पश्चिम की तरफ देख कर वह से ही प्रेरित होने में लगे रहते है। वे हर उदाहरण उधर से लेना चाहते है। कोई एशिया में देख ही नहीं रहा जब कि पश्चिम में कुछ भी  नहीं है। सबकी जड़े एशिया में  ही है। हमने काफी कोशिश की। बहुत पहले रामायण को मैंने जब फ़ारसी में तैयार किया तब विद्यानिवास जी ने इसको आगे बढ़ाने के कई प्रयास किये लेकिन कुछ ख़ास हो नहीं पाया। यदि उस समय सबने साथ दिया होता तो हम अपनी जड़ो के साथ फ़ैल रहे होते।

आपकी साहित्य साधना कब और कैसे आरम्भ हुई और उसके लिए प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

घर में लिखने पढ़ने का माहौल था। उससे कहाँ बचा जा सकता था। स्कूल में भी कहानी प्रतियोगिता आयोजित होती। दोनों जगह रचनात्मक माहौल सृजन की दुनिया को लगातार अंकुर फोड़ने की प्रक्रिया में रखते जिसके कारण लेखन एक सहज प्रक्रिया के रूप में जीवन का हिस्सा बनता चला गया।

सृजन से पूर्व, सृजन के समय और सृजन के पश्चात् आपकी मन:स्थिति क्या होती है?


लिखने से पहले एक बेचैनी, कभी-कभी उदासी, अक्सर खामोशी की कैफियत बनती है। लिखते समय जज्बात और ख्यालात का हुजूम उत्तेजना भरता है। तब कोई शोर या आवाज किसी तरह का खलल कभी मूड खराब करता है तो कभी तेज गुस्सा दिलाता है। उसका कारण भी है कि आपके हाथ से दरअसल भाषा का तारतम्य फिसल जाता है। जो बहाव सहज रूप से निकलता है वह फिर बनावट से पूरा होता है जो मुझे ठीक नहीं लगता। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। जब कहानी गिरफ्त में हो तो बाकी चीजें बेकार सी लगती हैं। कयामत भी आकर गुजर जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लिखने के बाद एक अजीब-सी खुशी, इत्मीनान-सा महसूस होता है मगर इस अहसास से मैं कोसों दूर रहती हूँ कि मैंने कोई शहकार रचा है क्योंकि कहानी मुकम्मल हो जाने के बाद भी, अभिव्यक्ति और किरदार की सहजता को लेकर मैं काफी सोचती और शब्दों को अक्सर बदलती रहती हूँ। जब हर तरफ से मुतमईन हो जाती हूँ तभी छपने भेजती हूँ।

साहित्य को आप किन शब्दों में परिभाषित करेंगी?

इन्सान बने रहने की कोशिश और इन्सान बने रहने के लिए दूसरों को उस कोशिश में शामिल करना।

इतनी लम्बी साहित्य साधना में क्या कभी आपका जी ऊबा है?

बीच-बीच में काफी इधर- उधर के काम  भी करती हूँ। इसलिए हमेशा ताजगी का अहसास बना रहता है। लेखन और लेखक का भारी लबादा पहनना और उसे तकलीफ के साथ घसीटते जाना मेरी फितरत नहीं है। जीवन को जितना सुगम जी सकेंगे ,उतनी ही संवेदना आपके भीतर आएगी और बेहतर लिखने के अवसर मिलेंगे।

लोक जीवन और सामाजिक संदर्भो में  साहित्य की भूमिका को आप किस प्रकार देखती हैं?

कहानियों में अवाम का दखल दरअसल एक महत्त्वपूर्ण 'गारा' है जिससे आप कहानी बनाते हैं। मगर अफसोस जिस अवाम के लिए हम लिखते हैं ज्यादातर वे लोग साहित्य नहीं पढ़ पाते हैं। पहला कारण शिक्षित न होना और दूसरा मेहनत मजदूरी और सर छिपाने की जद्दोजहद के बाद उनके पास थककर सोने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। हम खुद ही लिखते हैं और खुद ही पढ़ते हैं। जो शिक्षित है, जिन्हें साहित्य से लगाव है; उन तक पुस्तकें उस तरह सुलभ नहीं है जैसी होनी चाहिए। साहित्य की कोई कृति न सामूहिक रूप से समाज की धारा बदल पाई, न समाज की कुरीतियों की जड़ से उखाड़ पाई और न पुराने कानूनों में संशोधन करा पाई। मगर हाँ, व्यक्तिगत रूप से कुछ व्यक्तियों को, बिखरे रूप से, जरूर बदल पाई। मगर वास्तविकता तो यह है कि क्या अकेला चना भाड़ भूंज सकता है? कहने का अर्थ साफ है कि सामाजिक जकड़न और जड़ सोच वाले कुनबे में जो व्यक्ति बदला, वह पूरे परिवार को नहीं बदल पाया; मगर उसे घर निकाला जरूर मिला। तो भी अपवाद की कमी नहीं है। यह अपवाद कब सामूहिक फोर्स में बदलेंगे और अवाम और साहित्यकार में कब संवाद स्थापित होगा; कहा नहीं जा सकता है। अभी तो हम सब कोशाँ हैं।

बच्चो के लिए भी आपने विपुल मात्रा में सृजन किया है। हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में उसकी स्थिति और भूमिका पर आपका दृष्टिकोण क्या है?

बच्चों के लिए मैंने बचपन से लिखा। लगातार लिखा। मगर उस लेखन का उस तरह नोटिस नहीं लिया गया जिसको राष्ट्र के स्तर पर पहचान का नाम दिया जा सकता है; क्योंकि हिन्दी की दुनिया में बाल-साहित्य का कोई अहम रोल नजर नहीं आता है जबकि उसके लिखने वालों की संख्या काफी है और वे जो केवल बाल-रचनाओं के साहित्यकार हैं; उनको भी वह सम्मान और पहचान किसी मंच पर जैसी विदेशों के रचनाकारों को मिली हुई है, नहीं प्राप्त है। जबकि बहुत कुछ बाल-भवन, नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा होता रहता है, मगर वह सब कुछ मुख्यधारा जैसा नजर नहीं आता है, न इनकी चर्चा खास व आम में बराबर से होती है। बाल पत्रिकाएँ भी हैं। बाल-साहित्य पुरस्कार भी हैं। मगर जिस तरह उर्दू में अब्बू खाँ की बकरी को साहित्यिक कृति होने का तमगा मिला हुआ है या हर बड़े लिखने वाले ने बच्चों के लिए भी लिखा है वैसा रिवाज हिन्दी में देखने को नहीं मिलता है; भले ही अन्य भारतीय भाषाओं में हो।
 बच्चों के लिए लिखना आसान काम नहीं है। जबरदस्ती लिखवाना भी नहीं चाहिए मगर जो लिखते हैं उनको आदर व सम्मान मिलना चाहिए और हमारी मानसिकता में यह बात दाखिल हो जानी चाहिए कि बच्चों का एक बड़ा संसार है; जिसमें जिज्ञासा, मासूमियत, भय, खुशी, चीजों को देखने और महसूस करने का बिल्कुल अलग अनुभव है। जिसको समेटने का अर्थ है कि हम अपनी रचनाओं में केवल नई पीढ़ी को जगह नहीं दे रहे है बल्कि अपने कलम और अपनी सोच को निरन्तर शादाबी बख्श रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि लेखक इन्सानी अहसास को अपने कलम से कागज पर उतारता है न कि खानाबन्दी किये इन्सानों में से किसी को उठाता है। गरीब-अमीर, अफसर-नौकर, मर्द-औरत, बूढ़े-बच्चे सब मिल कर परिवार में रहते हैं और समाज की संरचना करते हैं, मगर जब साहित्यकार कलम उठाता है तो उसकी रचना से अक्सर बाल पात्रा गायब रहते हैं। आखिर क्यों? क्या स्वयं उसका बचपन उसका पीछा कभी छोड़ता है? कहने का मतलब सिर्फ इतना कि हम अपने तक सीमित न रहें।

साधारणतया कहानी की एक परिभाषा दी जाती है कि कहानी घटना या घटनाओं का सुसंयोजित रूप है। आज की कहानी इस दृष्टि से काफी भिन्न नजर आती है। तो क्या इसको कहानी नहीं मानना चाहिए?

आप लोग अखबार से आते है। बेहतर बता सकते है कि घटनाएँ यदि कहानियाँ हैं तो फिर रिपोर्टिंग क्या है? पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन का बुनियादी फर्क यह है कि एक में सूचना होती है और दूसरे में अहसास। रपट की सीमा जहाँ समाप्त होती है, कहानी वहाँ से शुरू होती है। कहानी इन्सान के अन्दर की दुनिया को खोलती है। बाहर के ब्यौरे गैरज़रूरी तौर से नहीं देती है। कहानी मेरी नजर में वह है जो घटनाओं का उल्लेख न करके उस घटना के प्रभाव का वर्णन करे जो इन्सान पर बीती है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह लेखन रिपोर्ताज भी हो सकता है और लेख भी कहला सकता है।

साहित्य लेखन में महिलाओं की क्या स्थिति है और उसका मूल्यांकन किस प्रकार किया जाता है?

हिन्दी साहित्य में महिलाओं का हमेशा से योगदान रहा है मगर हाँ, अब संख्या काफी बढ़ गई है। विभिन्न तरह के मुद्दों को लेकर उनकी कलम मुखर हुई है। यदि आप सवाल सम्पूर्ण औरत की स्थिति पर करते तो अच्छा होता। अभी तक सही तरीके से हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन नहीं हो पाया तब उस लेखन के लिए क्या कहूँ जो गैरजरूरी तरीके से मुख्य धारा से अलग हो अपनी पहचान बनाने के संघर्ष में रत है। व्यक्तिगत स्तर  पर मैंने कभी भी किसी रचनाकार को स्त्री या पुरुष के रूप में नहीं देखा है।

विभिन्न साहित्यिक विमर्शों के सन्दर्भ में आपकी क्या मान्यता है? इसकी प्रासंगिकता के सन्दर्भ में आप क्या लिखती हैं?

बुनियादी तौर पर मैं साहित्य में खानाबन्दी की कायल नहीं हूँ। हम एक समाज में रहते हैं। समाज के बाँटे जाने पर एतराज करते हैं। मगर वही काम हम अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में करने से बाज नहीं आते हैं। कुछ जुल्म हमारे यहाँ हुए हैं। उनका सिलसिला आज भी अफसोसनाक तरीके से जारी है मगर उसको इस तरह से खत्म करने की दलीलें कि विमर्श व आरक्षण देकर खत्म किया जाय, न न्यायसंगत लगती है, न तर्कसंगत लगती है। यही कारण है कि हम बहुत सारे मुद्दों से जूझने के बावजूद कहीं पहुँचे नहीं हैं।

कुछ लोगों का मत है कि कहानी पाठकों से कट गई है।  क्या यह सही है?

इसमें कोई शक नहीं है कि आज पाठकों के वैसे खत नहीं मिलते हैं जैसे कि बीस वर्ष पहले मिलते थे। जिसमें कहानी पर जमकर बात होती थी। कहीं पर कुछ घटा तो है जो संवाद की स्थिति नहीं बन पाती है। इसमें कोई शक नहीं है कि हमने कुछ जगहों पर बेजा हस्तक्षेप कर उनको पीछे धकेल दिया है जिनकी राय और प्यार की हमें जरूरत होनी चाहिए। शायद इसी के चलते पाठकों में पुस्तक खरीदने की संख्या भी घटी है। पहले दाम ज्यादा; फिर उपलब्ध नहीं। खरीददारी लाइब्रेरी या अन्य संस्थाओं में बल्क के रूप में होती है तो वहाँ पाठक नहीं। बात केवल लेखक, प्रकाशक, पाठक के बीच तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति का तंग दायरा और गैर जरूरी मुद्दों पर फोकस भी इस दुर्दशा में शामिल हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पाठक नहीं हैं। पाठक पूरे हैं ,उनको नया चाहिए।

हिन्दी कहानी साहित्य का भविष्य कैसा है?

हिन्दी में कहानियाँ लिखी जा रही हैं। बेहतर भी और खूबसूरत भी। जैसे-मधुसूदन आनन्द की 'ज़र्राह', मेराज अहमद की 'अमरूद और हरी पत्तियाँ', हसन जमाल की 'जमील मुहम्मद की बीवी', अब्दुल बिस्मिल्लाह की 'कागज के कारतूस', चित्रा मुद्गल की 'मिट्टी', रवीन्द्र कालिया की 'सुन्दरी बहुत देर तक' याद रह जाने वाली कहानियाँ हैं। मगर परेशानी यह है कि हमारे कलम पर कुछ नाम चढ़ गये हैं। हम लगातार उसे दोहराते रहते हैं। कहानियों के नए नामों के लिए जगहें तंग हैं या फिर हम पढ़ते ही नहीं हैं क्योंकि भीड़ बहुत है। पत्रिकाएँ फिलहाल बहुत हैं। खेमे असंख्य है। पैमाना तय नहीं, कसौटी का कोई प्रामाणिक मंच नहीं। अपनी डफली अपना राग है। मगर यह समय निकल जायेगा। भुला दिए जाने के बाद भी बेहतर चीजें सामने आयेंगी। ऐसा हो रहा है। धूल, धुआँ, शोर, परिदृश्य को वक़्ती तौर से धुँधला बना सकते हैं; मगर कब तक? इसलिए जरूरी है कि अपनी जड़ो की तलाश नए संदर्भो और तकनीक के आलोक में की जाय। 

इस बीच नया क्या देने वाली है आप ?

देखिये दो बड़ी पृष्ठभूमि लेकर दो रचनाये बिलकुल आने ही वाली है। एक तो आभासी दुनिया अर्थात सोशल मीडिया के अभुदय पर आधारित है। इसका सन्दर्भ यह है कि इस नए माध्यम में हज़ारो लोग एक दूसरे से शब्दो के जरिये घुल मिल रहे है। नए तरह के रिश्ते बन और बिगड़ रहे है। सब्दो का बड़ा ही घना मायाजाल फेसबुक और अन्य ऐसे माध्यमो में उपयोग हो रहा है।  इस माध्यम को लेकर ही मैंने शब्दपखेरू  नाम से एक लघु उपन्यास लिखा है।  सोशल  मीडिया की लव स्टोरी है इसमे। अद्भुत कथानक है जिसे आज की पीढ़ी जरूर पसंद करेगी। इस माध्यम में कैसे लडकिया बेवकूफ बन जाती है। किस तरह फेक रिश्ते बनाकर लोग छल कर रहे है। कैसे इसमे सच के रिश्ते भी कायम हो रहे है। इसी पृष्ठभूमि को लिया है। दूसरी रचना भी एक लघु उपन्यास ही है जो इसी महीने आने वाला है। इसका शीर्षक है दूसरी जन्नत। इसमे मैंने उस विंदु को लिया है जिसके कारण सामाजिक और धार्मिक आज़ादी नहीं मिलती लेकिन उस विदुः पर आधुनिक विज्ञान ने आज़ादी सुलभ कराई है। यह विषय है बांझपन। पुराने लखनऊ के पृष्ठभूमि को लेकर एक मुसलमान दंपत्ति की इस कहानी में लड़की अपने बांझपन को दूर करने के लिए बहु महँगा स्पर्म खरीदती है। फिर वह पता लगाती है की यह स्पर्म किसका है और पता करते करते वह लेबनॉन के उस व्यक्ति से मिलती है। इस कहानी में समाज है , संस्कृति है , उर्दू है , उर्दू के पक्ष में खड़े हिन्दू हैं ,लखनऊ है , अदालत है , तलाक है , शरीयत है ,कर्बला है , हुसैन हैं ,धर्म है और सबसे बढ़कर मानवता है , सृजन है। 
परिचयजन्म : 22 अगस्त 1948, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, लेख

नासिरा शर्मा हिन्दी की प्रमुख लेखिका हैं। उनका जन्म १९४८ में इलाहाबाद में हुआ। साहित्य उन्हें विरासत में मिला। फ़ारसी भाषा व साहित्य में एम ए करने के अतिरिक्त हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अतिरिक्त साहित्य कला व सांस्कृतिक विषयों की विशेषज्ञ हैं। २००८ में अपने उपन्यास कुइयाँजान के लिए यू॰के॰ कथा सम्मान से सम्मानित हिन्दी लेखिका।

प्रकाशित कृतियाँ- अब तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास, तीन लेख-संकलन, सात पुस्तकों के फ़ारसी से अनुवाद, 'सारिका', 'पुनश्च'का ईरानी क्रांति विशेषांक, 'वर्तमान साहित्य' के महिला लेखन अंक तथा 'क्षितिजपार' के नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का सम्पादन। 'जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं' के नाम से रिपोर्ताजों का एक संग्रह प्रकाशित। इनकी कहानियों पर अब तक 'वापसी', 'सरज़मीन' और 'शाल्मली' के नाम से तीन टीवी सीरियल और 'माँ', 'तडप', 'आया बसंत सखि','काली मोहिनी', 'सेमल का दरख्त' तथा 'बावली' नामक दूरदर्शन के लिए छह फ़िल्मों का निर्माण।

पुरस्कार-सम्मान- २००८ में अपने उपन्यास कुइयाँजान के लिए यू॰के॰ कथा सम्मान से सम्मानित।

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : सात नदियाँ एक समंदर, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, जिंदा मुहावरे, अक्षयवट, कुइयॉजान, जीरो रोड
कहानी संग्रह : शामी कागज, पत्थरगली, इब्ने मरियम, संगसार, सबीना के चालीस चोर, खुदा की वापसी, इंसानी नस्ल, गूंगा आसमान, दूसरा ताजमहल, बुतखाना
अनुवाद : शाहनामा-ए- फिरदौसी, गुलिस्ता-ए-सादी, बर्निंग पायर, इकोज आफ इरानियन रेवोल्यूशन : प्रोटेस्ट पोएट्री, किस्सा जाम का, काली छोटी मछली, फारसी की रोचक कहानियाँ
लेख संग्रह : किताब के बहाने, औरत के लिए औरत, राष्ट्र और मुसलमान
रिपोर्ताज : जहां फौव्वारे लहू रोते हैं

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