साक्षात्कार अनुपम से -



अनुपम मिश्र (जन्म 1948 -निधन 2016) 


संजय तिवारी 
  यकीन करना कठिन लगता है , अनुपम भाई नहीं रहे। पिछले पांच दशको में पर्यावरण शब्द जब भी सामने आया है ,उसी पल अनुपम मिश्र का चेहरा भी दिखने लगता है। अनुपम अर्थात जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद् । पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यानाकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के अनुपम मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली , वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया । उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने अहम काम किया । गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के आयोजनों के अलावा इस प्रकृति पुरुष से लगभग तीस वर्षो का संपर्क रहा है । उत्तराखंड की त्रासदी के बाद दिल्ली में उनसे आखिरी बार मिला था ,तब यह आभास भी नहीं था कि यह जीवन की ही आखिरी मुलाकात है।

अनुपम जी का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्र और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के घर  सन् 1948  में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968 में संस्कृत पढ़ने के बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया। तब से आज तक वही काम, वहीं पर। गाँधी मार्ग पत्रिका का संपादन। कुछ लेख, कुछेक किताबें। "आज भी खरे हैं तालाब" को खूब प्यार मिला। कोई दो लाख प्रतियां छपी।जब सरकार को पर्यावरण जैसे किसी शब्द कि परवाह नहीं थी, तब उन्होंने गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष स्थापित कर दिया था।
 अस्सी के दशक में उनकी पुस्तक हमारा पर्यावरण, हिंदी में देश के समग्र पर्यावरण अध्ययन का पहला दस्तावेज था। “आज भी खरे हें तालाब” ने  समाज और सरकार कि जल संरक्षण के प्रति दिशा ही बदल दी। गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। वह इस प्रतिष्ठान की पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक भी थे । उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया है। वे 2001  में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे।  वह गोरखपुर एन्विरोंमेंटल एक्शन ग्रुप के सलाहकार भी थे , इस नाते रियो सममिट से लेकर जलवायु परिवर्तन सम्मलेन कोपेनहेगेन ,वारसा सम्मलेन और बाली तक के सभी आयोजनों में इसके प्रतिनिधि के रूप में डॉ शीराज़ को जोड़ कर अपनी चिंताए बाँटते रहे।  2009  में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था। आज भी खरे हैं तालाब के लिए 2011  में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अनुपम मिश्र ने इस किताब को शुरू से ही कॉपीराइट से मुक्त रखा है। 1996  में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। 2007 -2008  में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हें  कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।


प्रमुख चर्चित पुस्तके

राजस्थान की रजत बूँदें
अंग्रेज़ी अनुवाद में : राजस्थान की रजत बूँदें
आज भी खरे हैं तालाब 
 उनकी इस पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब जो ब्रेल लिपि सहित तेरह भाषाओं में प्रकाशित हुई की एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं।
‘साफ माथे का समाज’ 



साक्षात्कार अनुपम से -

प्रकृति की चिट्ठी तो पढ़ो 



पर्यावरण को लेकर सरकार भी तो काफी जागरूक है ?
किस बात से जागरूकता दिखती है आपको। साल में 365 दिन होते हैं, लेकिन पर्यावरण दिवस सिर्फ एक ही दिन होता है। समाज और सरकार का दुर्भाग्य है कि वो पर्यावरण की चिंता सिर्फ एक ही दिन करते दिखते हैं। विकास का दौर चल रहा है और उसकी कीमत प्रकृति चुका रही है। ऐसे में कभी अरावली की खैर नहीं तो कभी हिमालय की खैर नहीं’। सरकार को जीडीपी बढ़ानी है। उसके लिए विशाल स्तर पर निर्माण का काम करना है। कहीं नोएडा बन रहा है, तो कहीं उससे भी बड़ा ग्रेटर नोएडा बन रहा है। कहीं गुड़गांव बन रहा है तो कहीं इंद्रप्रस्थ और कहीं उसका भी विस्तार इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन बन रहा है। इस विस्तार में होने वाले हर निर्माण कार्य में रेत लगती है। सीमेंट लगता है। अब ये सीमेंट, रेत कहां से आ रही है। सीमेंट कारखाने से निकलता है, वो भी पत्थर तोड़कर बनता है। लेकिन रेत को बनाने में नदियों को हजारों साल लगते हैं। वो पत्थरों को घिसकर रेत बनाती हैं और किनारों पर छोड़ती हैं। पहले हमारी जरूरतें इतनी नहीं थीं, तसलों में भरकर रेत-मिट्टी से छोटे-छोटे घर बनाते थे, मोहल्ले बस जाते थे, शहर बस जाते थे। अब तो लग रहा है जैसे सृष्टि का नए सिरे से निर्माण हो रहा है। नए नियम गढ़े जा रहे हैं। इसी के चलते रेत माफिया नाम से एक नया शब्द आया है। इसकी वजह से नदियों का रास्ता बदला जा रहा है। जंगल काटे जा रहे हैं।

पानी की कमी कहा ले जायेगी अब ?

हमें अपनी तकनीक पर अंधविश्वास हो चला है। हम दिल्ली को पीने का पानी 300 किलोमीटर दूर से लाकर दे रहे हैं। सरकारों का दावा होता है कि हम लोगों को प्यासा नहीं मरने देंगे। ये हो भी रहा है। सरकार सैकड़ों किलोमीटर दूर से पानी लाकर दे रही है। लेकिन शहर के सभी तालाब नष्ट कर दिए गए हैं। 1908 में दिल्ली राजधानी बनी थी, तब दिल्ली में 800 तालाब थे, अब एक भी नहीं है। हमारा भूजल खत्म हो चला है। ऐसे में अगर किसी दिन 300 किलोमीटर दूर भी पानी नहीं रहेगा तो? तो दिल्ली पर कितना बड़ा संकट आ जाएगा। यही संकट गांवों पर आने वाला है। आज शहर बनते हैं तो सबसे पहले भूजल को नष्ट करने का काम किया जाता है। लेकिन हम लोग 364 दिन सोते रहते हैं और एक दिन, पर्यावरण दिवस पर कहते हैं कि बूंद-बूंद बचाओ। ये डराने की बात नहीं है, चिंता की बात है। इसीलिए आज आप सिर्फ सोचें। कुछ अपने भविष्य के लिए सोचें। जिन्हें काम करना है वो बिना किसी मदद के कर रहे हैं। हम जैसे लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, लेकिन आम जन और सरकार सिर्फ एक दिन के लिए जागती है।

सरकार ने पर्यावरण मंत्रालय तो बनाया है , कुछ तो काम होता होगा ?

 आज सरकार के पास पर्यावरण मंत्रालय है, लेकिन वो आम लोगों के हित के लिए नहीं, बल्कि बड़े-बड़े प्रोजेक्टों की बाधा दूर करने के लिए है। सरकार सिर्फ पर्यावरण संबंधी नीतियों के नाम पर पर्यावरण का मजाक उड़ा रही है। उसे भविष्य की नहीं, वर्तमान की चिंता है। वो विकास तो कर रही है, लेकिन भविष्य के विनाश को नहीं देख रही। काश उनको भी सदबुद्धि आ जाए। पर्यावरण महज प्राकृतिक संसाधनों से मिलकर नहीं निर्मित होता बल्कि सुखद पर्यावरण बनता है मानव और प्रकृति के बीच परस्पर सहज संबंध से। 'विकास' शब्द को राजनेताओं ने निहित स्वार्थों के तहत् इस्तेमाल किया है।

  विकास का घमंड है हमारे नेताओं में?


 'विकास' शब्द हर भाषा में पिछले कुछ दिन पहले आया है। हिन्दी की बात नहीं कर रहा हूं, अंग्रेजी में भी प्रोग्रेस या डेवलमेंट इस अर्थ में इस्तेमाल नहीं हुआ है।देश के इतिहास के सबसे अच्छे स्वर्ण युग का भी पन्ना पलटकर देखें, उसमें आपको भगवान रामचन्द्र भी. यह कहते हुए कभी नहीं मिलेंगे कि वे अयोध्या में विकास करने के लिए राजा बनना चाहते थे। गांधीजी के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में 50 हजार पन्ने लिखे और बोले हैं और वे बाद में उनके जाने के बाद सरकार ने 'कलेक्टेड वर्ड्‍स ऑफ महात्मा गांधी' अंग्रेजी में और  'संपूर्ण गांधी वांड्‍मय' हिन्दी 500-500 पृष्ठों के 100 वाल्यूम छापे हैं। उसमें कहीं भी एक जगह गांधीजी यह कहते नहीं मिलते कि मैं भारत को इसलिए आजाद करना चाहता हूं कि इसका विकास कर सकूं।  यह एक्सस्ट्रीम दो उदाहरण दिए गांधीजी और रामराज्य, इसमें विकास कहीं भी नहीं मिलता है। आज के सम्मानीय नेता जब विकास की बात करते हैं तो उनकी मंशा समझा जाना चाहिए। विकास की परिभाषा है कि लोगों को सुख मिले और उनके दु:ख दूर हो। चलने के लिए अच्छी सड़कें मिले, पढ़ने के लिए अच्‍छे और साफ-सुथरे स्कूल हों, किसान अच्छी खेती कर सकें। अभी हाल ही में उत्तरा खंड में जो सबसे बड़ी त्रासदी हुई हिमालय की, उसे विकास के तराजू पर तौलें तो हमारे पहाड़ में सारी आबादी 6 से 7 हजार फुट पर बसी हुई है। समाज के विवेक ने कहा कि इससे ऊपर बसाहट की जरूरत नहीं। हमारे मंदिर 10 हजार फुट की ऊंचाई पर है। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर भी फोरलेन और हाईवे बनाया जा  सकता है। मानव भूमि का विकास कर सकते हैं, लेकिन देवभूमि का नहीं। हमारे नेताओं में विकास का करने का घमंड है।

   प्रकृति भेज रही है मानव को पोस्टकार्ड... बेटा तुम भूल गए...?

  उत्तराखंड त्रासदी के बाद हिमालय का यह दौर ऐसा है कि प्रकृति एक छोटा सा पोस्टकार्ड लिखकर भेज रही है कि 'बेटा तुम भूल गए कि हम कौन और तुम कौन।' हिमालय का इतिहास ढाई करोड़ साल से कम नहीं है।क्या हम हिमालय को कुछ सिखा  सकते हैं। क्या हम उसे रौंदकर निकल सकते हैं।हिमालय हमें बताना चाहता है कि पिछले 20-25 सालों में मनुष्य ने कुछ गलतियां की हैं, जिन्हें हिमालय ने उदारतापूर्वक क्षमा किया। उसने गलतियां बताने के लिए यह सब किया।

 केदारनाथ मंदिर ठीक जगह बना था, इसमें कंस्ट्रक्शन की कसर नहीं थी, इसलिए बचा। हमारे शरीर में जिस तरह से आंख लगाई गई है, उसी तरह हमारे चारों धाम के मंदिर बने हैं।  इस त्रासदी में शंकराचार्यजी द्वारा बनाया गया केदारनाथ मंदिर तो बच गया, लेकिन मनुष्य द्वारा बनाई गई शंकराचार्यजी की समाधि बह गई।इसे पता चलता है कि हमने इस घंमड के साथ मंदिर के सामने गुरु की समाधि का निर्माण किया। विवेक से निर्माण का काम नहीं किया।

 उत्तराखंड त्रासदी के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार मना जाएगा ?

 आज हमारा एक क्षण भी बिना बिजली के नहीं चलता है। बिजली ने हमें मोह में डाल दिया है, हम बिना बिजली के नहीं रह सकते हैं। हमें यह मोह रहता है कि बिजली हमेशा बनी रहे, जबकि शहरों में आज भी आठ घंटे का ब्लैकआउट होता है। हमें यह समझना होगा कि बिजली जिन चीजों से निर्मित होती है, उनकी एक सीमा है, जैसे कोयला का सीमित भंडार। पानी से बिजली हर जगह नहीं बनाई जा सकती है। परमाणु से बिजली बनाने में बचे कचरे को क्या किया जाएगा।  लकड़ी जलाने के बाद उसकी राख से बर्तन मांज सकते हैं, लेकिन परमाणु ऊर्जा की राख का कुछ नहीं कर सकते हैं।
 परमाणु ऊर्जा को लेकर भारत में इतना आग्रह क्यों है?मनमोहन सिंह जी की सरकार के समय संसद में प्रस्ताव पारित नहीं होने पर प्रधानमंत्री इस्तीफा तक देने पर अड़ गए थे ?

 विनोबाजी ने एक वाक्य कहा था कि 'यह जमाना स्वतंत्र ठोकर खाने का है। हम भी परमाणु ऊर्जा को लेकर ठोकर खाना चाहते हैं।  हम जापान, चेरनोबिल में हुए परमाणु हादसे से सबक नहीं लेना चाहते हैं। यह पीढ़ियों को अंगूठों को तोड़ने वाली ठोकर होती है। 5-10 दुनिया के लोगों से पूछना चाहिए कि अमेरिका की कंपनी हमें क्यों यह रिएक्टर देना चाहती है। ऐसे कदमों से देश का अंगूठा टूटेगा।

विकास का खेती से क्या रिश्ता बनता है ? इसे आप किस रूप में देखते है ?

  हर युग का एक झंडा होता है, इस युग में विकास झंडा है, जिसमें खेती शब्द नहीं आता है। विकास का मतलब होता है बड़ी-बड़ी बिल्डिंग। प्राकृतिक संसाधनों को रुपए में कैसे बदलें, कोयला बिक जाए, लौह अयस्क बाहर बिक जाए। रुपए गिरने का कारण खनन विरोधी आंदोलनों को महत्व दिया। खनन को रोक दिया गया। रुपया अगर ऊपर चढ़ता हो तो आदमियों का भी खनन करके बेच दिया जाना चाहिए। सारी पार्टियों का एजेंडा एक है- देश का विकास तुरंत करना।   प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से विकास करना चाहते हैं। हमें अनाज नहीं चाहिए। हम प्लास्टिक और कम्प्यूटर खाकर भी पेट भर लेंगे। हम कृषि को महत्व नहीं देना चाहते हैं।


श्रद्धा शब्द 

"हमारे समय का अनुपम आदमी. ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे. सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हंसमुख, कोर-कोर मानवीय. इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक. दो जोड़ी कुर्ते-पायजामे और झोले वाले इंसान. गांधी मार्ग के पथिक. 'गांधी मार्ग' के सम्पादक. पर्यावरण के चिंतक. 'राजस्थान की रजत बूँदें' और 'आज भी खरे हैं तालाब' जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक."
 ओम थानवी ,वरिष्ठ पत्रकार

जब जनसत्ता शुरू हुआ था तो अनुपम मिश्र हर हफ्ते पर्यावरण और पानी से जुड़े लेख लिखते थे । प्रभाष जोशी के वह मित्र थे । लेकिन जनसत्ता आते तो बाकी साथियों से भी मिलते । गांधी शांति प्रतिष्ठान में रहते थे सो पैदल ही आते थे । बहुत ही मामूली खादी के कपड़े और साधारण सा चप्पल पहने जब वह आते तो लगता जैसे साफ पानी की कोई नदी आ गईं हो । जे पी ने जब चंबल के डाकुओं का समर्पण करवाया था तब उन के साथ अनुपम मिश्र भी थे । प्रभाष जोशी भी । चिपको आंदोलन से भी वह जुड़े रहे । बहुत सारे काम किए , किताबें और लेख लिखे अनुपम ने पर जल्दी ही वह पानी को समर्पित हो गए । पानी में भी तालाबों के पानी पर । तालाबों के पानी को वह खरा बताते थे । जब तक भारत में तालाब रहेंगे , अनुपम मिश्र जीवित रहेंगे , पानी बन कर। उन्हें प्रणाम !
दयानन्द पांडेय , वरिष्ठ पत्रकार 


 जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन लगाने वाले अनुपम मिश्र का निधन बहुत बड़ी क्षति है । हिंदी के दिग्गज कवि और लेखक भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम बीते एक बरस से प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे थे। विकास की तरफ़ बेतहाशा दौड़ते समाज को कुदरत की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए 'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं।  मेरे लिए तो एक अभिभावक की तरह थे। 
डॉ शीराज़ अख्तर वाज़ेह, प्रख्यात पर्यावरणविद


"देश प्रेम के इस उन्मादी दौर में जब विकास के नाम पर सिर्फ विनाश की मूर्खतापूर्ण होड़ लगी है, आपका जाना हमें सही अर्थों में अनाथ कर गया."
 स्वानंद किरकिरे ,गीतकार


 "स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस दौर में वे चिट्ठी-पत्री और पुराने टेलीफोन के आदमी थे. लेकिन वे ठहरे या पीछे छूटे हुए नहीं थे. वे बड़ी तेज़ी से हो रहे बदलावों के भीतर जमे ठहरावों को हमसे बेहतर जानते थे."
 प्रियदर्शन, वरिष्ठ पत्रकार


"प्रकृति, पर्यावरण और हमारी बदलती जीवनशैली को लेकर उनकी चिंता, समुदाय आधारित उनके समाधान और खासकर राजस्थान में पानी को लेकर उनका काम कालजयी है. वे हमारे दिल में हमेशा रहेंगे."
सौमित्र राय पत्रकार 

 "सही अर्थों में भारतीय परिवेश, प्रकृति को गहराई तक समझने वाले अद्भुत विचारक,पर्यावरणविद, निश्चित ही अपनी तरह के विरले कर्मयोगी."
 कलापीनी कोमकली ,कुमार गंधर्व की बेटी

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