देश के अलग-अलग राज्यों में होली का उत्सव

देश के अलग-अलग राज्यों में होली का उत्सव 
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ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 50 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है।
कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है।
हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है।
बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है।
महाराष्ट्र की रंग पंचमी  में सूखा गुलाल खेलने,
गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन
पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है।
तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है
मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है।
दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है,
छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है।
बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है
नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

कुमाऊँ की बैठक होली
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उत्तरांचल के कुमाऊं मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में तो नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं। इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है. बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है.  फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है.शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है. बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है.

“…..रंग डारी दियो हो अलबेलिन में…
……गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए….
……गए लछमन रंग लेने को गए……
……रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें….
……रंग डारी दियो हो बहुरानिन में….”

इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है. कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है.वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं. यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं .”

बंगाल का  “दोल उत्सव”
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कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाक़ी देश कल सोचता है. कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है.यहाँ देश के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है. राज्य में इस त्यौहार को“दोल उत्सव” के नाम से जाना जाता है. इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफ़ेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं. इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं. दोल शब्द का मतलब झूला होता है. झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं. इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीक़ा भी बदला है. वरिष्ठ पत्रकार तपस मुखर्जी कहते हैं कि अब पहले जैसी बात नहीं रही. पहले यह दोल उत्सव एक सप्ताह तक चलता था.  इस मौक़े पर ज़मीदारों की हवेलियों के सिंहद्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण का मंदिर होता था. वहाँ पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था. देश के बाक़ी हिस्सों की तरह, कोलकाता में भी दोल उत्सव के दिन नाना प्रकार के पकवान बनते हैं. इनमें पारंपरिक मिठाई संदेश और रसगुल्ला के अलावा, नारियल से बनी चीज़ों की प्रधानता होती है.  मुखर्जी बताते हैं कि अब एकल परिवारों की तादाद बढ़ने से होली का स्वरूप कुछ बदला ज़रूर है, लेकिन इस दोल उत्सव में अब भी वही मिठास है, जिससे मन (झूले में) डोलने लगता है. कोलकाता की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ मिली-जुली आबादी वाले इलाक़ों में मुसलमान और ईसाई तबके के लोग भी हिंदुओं के साथ होली खेलते हैं. वे राधा-कृष्ण की पूजा से भले दूर रहते हों, रंग और अबीर लगवाने में उनको कोई दिक्क़त नहीं होती.कोलकाता का यही चरित्र यहाँ की होली को सही मायने में सांप्रदायिक सदभाव का उत्सव बनाता है.

महाराष्ट्र की रंग पंचमी और कोंकण का शिमगो
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महाराष्ट्र और कोंकण के लगभग सभी हिस्सों मे इस त्योहार को रंगों के त्योहार के रुप मे मनाया जाता है। मछुआरों की बस्ती मे इस त्योहार का मतलब नाच,गाना और मस्ती होता है। ये मौसम रिशते(शादी) तय करने के लिये मुआफिक होता है, क्योंकि सारे मछुआरे इस त्योहार पर एक दूसरे के घरों को मिलने जाते है और काफी समय मस्ती मे व्यतीत करते हैं। महाराष्ट्र में होली के बाद पंचमी के दिन रंग खेलने की परंपरा है। यह रंग सामान्य रूप  से सूखा गुलाल होता है। विशेष भोजन बनाया जाता है जिसमे पूरनपोली अवश्य होती है। मछुआरों की बस्ती मे इस त्योहार का मतलब नाच,गाना और मस्ती होता है। ये मौसम रिशते(शादी) तय करने के लिये मुआफिक होता है, क्योंकि सारे मछुआरे इस त्योहार पर एक दूसरे के घरों को मिलने जाते है और काफी समय मस्ती मे व्यतीत करते हैं। राजस्थान में इस अवसर पर विशेष रूप से जैसलमेर के मंदिर महल में लोकनृत्यों में डूबा वातावरण देखते ही बनता है जब कि हवा में लाला नारंगी और फ़िरोज़ी रंग उड़ाए जाते हैं। मध्यप्रदेश के नगर इंदौर में इस दिन सड़कों पर रंग मिश्रित सुगंधित जल छिड़का जाता है।

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 लगभग पूरे मालवा प्रदेश में होली पर जलूस निकालने की परंपरा है। जिसे गेर कहते हैं। जलूस में बैंड-बाजे-नाच-गाने सब शामिल होते हैं। नगर निगम के फ़ायर फ़ाइटरों में रंगीन पानी भर कर जुलूस के तमाम रास्ते भर लोगों पर रंग डाला जाता है। जुलूस में हर धर्म के, हर राजनीतिक पार्टी के लोग शामिल होते हैं, प्राय: महापौर (मेयर) ही जुलूस का नेतृत्व करता है। प्राचीनकाल में जब होली का पर्व कई दिनों तक मनाया जाता था तब रंगपंचमी होली का अंतिम दिन होता था और उसके बाद कोई रंग नहीं खेलता था।

पंजाब का होला मोहल्ला
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पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री  अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है।कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिख शौर्यता के हथियारों का प्रदर्शन और वीरत के करतब दिखाए जाते हैं। इस दिन यहाँ पर अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है।कभी आपको मौका मिले तो देखियेगा जरुर। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ पर होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला मोहल्ला का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर, भांग की तरंग में मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। जुलूस तीन काले बकरों की बलि से प्रारंभ होता है। एक ही झटके से बकरे की गर्दन धड़ से अलग करके उसके मांस से ‘महा प्रसाद’ पका कर वितरित किया जाता है। पंज पियारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद करते हैं। अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है। कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।

तमिलनाडु की कामन पोडिगई
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तमिलनाडु में होली का दिन कामदेव को समर्पित होता है। इसके पीछे भी एक किवदन्ती है। प्राचीन काल मे देवी सती (भगवान शंकर की पत्नी) की मृत्यू के बाद शिव काफी क्रोधित और व्यथित हो गये थे।इसके साथ ही वे ध्यान मुद्रा मे प्रवेश कर गये थे।उधर पर्वत सम्राट की पुत्री भी शंकर भगवान से विवाह करने के लिये तपस्या कर रही थी। देवताओ ने भगवान शंकर की निद्रा को तोड़ने के लिये कामदेव का सहारा लिया।कामदेव ने अपने कामबाण के शंकर पर वार किया।भगवन ने गुस्से मे अपनी तपस्या को बीच मे छोड़कर कामदेव को देखा। शंकर भगवान को बहुत गुस्सा आया कि कामदेव ने उनकी तपस्या मे विध्न डाला है इसलिये उन्होने अपने त्रिनेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया। अब कामदेव का तीर तो अपना काम कर ही चुका था, सो पार्वती को शंकर भगवान पति के रुप मे प्राप्त हुए। उधर कामदेव की पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की। ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। यह दिन होली का दिन होता है। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रुप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है।

राजस्थान की होली
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होली के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा होली। सलंबर कस्बे में आदिवासी गेर खेलकर होली मनाते हैं। इस दिन यहां के युवक हाथ में एक बांस जिस पर घूंघरू और रूमाल बंधा होता है, जिसे गेली कहा जाता है लेकर नृत्य करते हैं। इस दिन युवतियां फाग के गीत गाती हैं।

मध्यप्रदेश में भगौरिया

भील होली को भगौरिया कहते हैं। इस दिन युवक मांदल की थाप पर नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुंह पर गुलाल लगाता है और बदले में वह भी यदि गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह के लिए सहमत हैं। यदि वह प्रत्युत्तर नहीं देती तो वह किसी और की तलाश में जुट जाता है।

मालवा की होली- होली के दिन लोग एक-दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। कहते हैं कि इससे होलिका राक्षसी का अंत हो जाता है।

गुजरात में गोलगधेड़ों

भील जाति के लोग होली को गोलगधेड़ों के नाम से मनाते हैं। इसमें किसी बांस या पेड़ पर नारियल और गुड़ बांध दिया जाता है उसके चारों और युवतियां घेरा बनाकर नाचती हैं। युवक को इस घेरे को तोड़कर गुड़, नारियल प्राप्त करना होता है। इस प्रक्रिया में युवतियां उस पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो जिस युवती पर वह गुलाल लगाता है वह उससे विवाह करने के लिए बाध्य हो जाती है।

बस्तर का कामुनी पेडम

इस दिन लोग कामदेव का बुत सजाते हैं, जिसे कामुनी पेडम कहा जाता है। उस बुत के साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चुड़ियां तोड़कर, सिंदूर पौंछकर विधवा का प दिया जाता है। बाद में एक चिता जलाकर उसमें खोपरे भुनकर प्रसाद बांटा जाता है।

मणिपुर में याओसांग

होली याओसांग के नाम से मनाई जाती है। यहां धुलेंडी वाले दिन को पिचकारी कहा जाता है। याओसांग का मतलब नन्हीं सी झोपड़ी जो नदी के तट पर बनाई जाती है। इस दिन इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोपड़ी को अलाव की भांति जला दिया जाता है। इस झोपड़ी में लगने वाली सामग्री को बच्चों द्वारा चुराकर लाने की प्रथा है। इसकी राख को लोग मस्तक पर लगाते हैं एवं ताबीज भी बनाया जाता है। पिचकारी के दिन सभी एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। बच्चे घर-घर जाकर चांवल, सब्जी इत्यादि इकट्ठा करते हैं और फिर विशाल भोज का आयोजन किया जाता है।

ब्रज (मथुरा, वृंदावन, बरसाना, नंदगांव, गोवर्धन) की प्रसिद्ध होली

बरसाने की प्रसिद्ध लट्ठमार होली
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होली शुरू होते ही सबसे पहले ब्रज रंगों में डूबता है।
यहाँ भी सबसे ज्यादा मशहूर है बरसाना की लट्ठमार होली। बरसाना राधा का जन्मस्थान है।
मथुरा (उत्तर प्रदेश) के पास बरसाना में होली कुछ दिनों पहले ही शुरू हो जाती है।
लट्ठमार होली में शामिल होने के लिए देश विदेश से लाखों लोग यहां पहुंचते हैं।
होली के समय वहां का माहौल ही अलग और अद्भुत होता है। होली के कुछ दिनों पहले लट्ठमार होली खेली जाती है।
कहा जाता है कि कृष्ण और उनके दोस्त राधा और उनकी सहेलियों को तंग करते थे जिसपर उन्हें मार पड़ती थी।
इस दौरान ढोल की थापों के बीच महिलाएं पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं।
हजारों की संख्या में लोग उनपर रंग फेंकते हैं।

‘बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ इस गीत के साथ ही ब्रज की होली की मस्ती शुरू होती है. वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है. वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है. होता ये है कि होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरूष होते हैं क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थीं. दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है. दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं. साथ ही पहुँचने लगती हैं कीर्तन मंडलियाँ. इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है. ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं. बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं. दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है.

मान्यता

इस दिन लट्ठ महिलाओं के हाथ में रहता है और नन्दगाँव के पुरुषों (गोप) जो राधा के मन्दिर ‘लाडलीजी’ पर झंडा फहराने की कोशिश करते हैं, उन्हें महिलाओं के लट्ठ से बचना होता है।
इस दिन सभी महिलाओं में राधा की आत्मा बसती है और पुरुष भी हँस-हँस कर लाठियाँ खाते हैं। आपसी वार्तालाप के लिए ‘होरी’ गाई जाती है, जो श्रीकृष्ण और राधा के बीच वार्तालाप पर आधारित होती है।
महिलाएँ पुरुषों को लट्ठ मारती हैं, लेकिन गोपों को किसी भी तरह का प्रतिरोध करने की इजाजत नहीं होती है। उन्हें सिर्फ गुलाल छिड़क कर इन महिलाओं को चकमा देना होता है।
अगर वे पकड़े जाते हैं तो उनकी जमकर पिटाई होती है या महिलाओं के कपड़े पहनाकर, श्रृंगार इत्यादि करके उन्‍हें नचाया जाता है।
माना जाता है कि पौराणिक काल में श्रीकृष्ण को बरसाना की गोपियों ने नचाया था। दो सप्ताह तक चलने वाली इस होली का माहौल बहुत मस्ती भरा होता है।
एक बात और यहाँ पर जिस रंग-गुलाल का प्रयोग किया जाता है वो प्राकृतिक होता है, जिससे माहौल बहुत ही सुगन्धित रहता है।
अगले दिन यही प्रक्रिया दोहराई जाती है, लेकिन इस बार नन्दगाँव में, वहाँ की गोपियाँ, बरसाना के गोपों की जमकर धुलाई करती है।

परंपरा एवं महत्त्व

उत्तर प्रदेश में वृन्दावन और मथुरा की होली का अपना ही महत्त्व है। इस त्योहार को किसानों द्वारा फसल काटने के उत्सव एक रूप में भी मनाया जाता है। गेहूँ की बालियों को आग में रख कर भूना जाता है और फिर उसे खाते है। होली की अग्नि जलने के पश्चात बची राख को रोग प्रतिरोधक भी माना जाता है। इन सब के अलावा उत्तर प्रदेश के मथुरा, वृन्दावन क्षेत्रों की होली तो विश्वप्रसिद्ध है। इसके अलावा एक और उल्लास भरी होली होती है, वो है वृन्दावन की होली यहाँ बाँके बिहारी मंदिर की होली और ‘गुलाल कुंद की होली‘ बहुत महत्त्वपूर्ण है। वृन्दावन की होली में पूरा समां प्यार की ख़ुशी से सुगन्धित हो उठता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि होली पर रंग खेलने की परंपरा राधाजी व कृष्ण जी द्वारा ही शुरू की गई थी।

मुक़ाबला

नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ. और शुरू हो जाती है होली. पुरूषों को बरसाने वालियों की टोली की लाठियों से बचना होता है और नंदगाँव के हुरियारे लाठियों की मार से बचने के साथ साथ उन्हें रंगों से भिगोने का पूरा प्रयास करते हैं. इस दौरान होरियों का गायन भी साथ-साथ चलता रहता है. आसपास की कीर्तन मंडलियाँ वहाँ जमा हो जाती हैं. इसे एक धार्मिक परंपरा के रूप में देखा जाता है. ‘कान्हा बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ ‘फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर’ और ‘उड़त गुलाल लाल भए बदरा’ जैसे गीतों की मस्ती से पूरा माहौल झूम उठता है. लोग मृदंग और ढोल ताशों की थाप पर थिरकने लगते हैं. कहा जाता है कि ‘सब जग होरी, जा ब्रज होरा’इसका आशय यही है कि ब्रज की होली और जगहों से बिल्कुल अलग होती है

50 दिन की होली: रसीली-रंगीली ब्रज की होली

ब्रज और होली एक दूसरे के पर्याय है। होली की चर्चा होते ही ब्रज और ब्रज की चर्चा होते ही होली की स्मृतियां साकार हो उठती है। रसराज श्रीकृष्ण और रस-साम्राज्ञी राधिका द्वारा प्रेम-प्रतीति पूर्ण होली ब्रज में खेली गई थी और इसीलिए ब्रज की होली में रंग के साथ रस की वृष्टि भी होती है। राधा-कृष्ण की लीला भूमि ब्रज की होली में मनुहार, माधुर्य और मादकता का अद्भुत संगम है। श्रीकृष्ण द्वारा राधा से होली खेलने की मनुहार, राधा की पिचकारियों से बरसे रंग की फुहार और ब्रज के गोप-गोपिकाओं के परस्पर प्रेम में सने मधुर बोलों की भावभीनी स्मृतियां आज भी ब्रज के कण-कण में व्याप्त है। आकाश में उड़ते अबीर-गुलाल और पिचकारियों से बरसते रंग के मध्य कृष्ण की बांसुरी तथा राधिका के नूपुरों की रुनझुन-रुनझुन से ब्रज रसमय है, रंगमय है।

होली-पर्व की सांस्कृतिक परम्परा में अनुपम-अद्भुत है ब्रज की होली। ब्रज की होली विशिष्ट है, विलक्षण है। देश के अन्य भागों में होली होती है एक-दो दिन की किंतु ब्रज में होली होती है 50 दिनों की। ब्रज में बसंत पंचमी के दिन सामूहिक होली जलने वाले स्थानों पर होली का दांड़ा रोप दिया जाता है और वहां लकड़ी, कन्डे आदि एकत्रित होने लगते है। बसंत पंचमी से ही मंदिरों में भगवान के श्रृंगार में अबीर-गुलाल का प्रयोग होने लगता है और धमार के स्वर गूंजने लगते है। गांव की चौपालों पर ढोलक खनकने लगती है,झांझ-मंजीरे झंकृत हो उठते है और गूंज उठते है होली के रसिया।

ब्रज की होली की यह अन्यतम विशेषता है कि यहां रंग-गुलाल के अतिरिक्त अनेकानेक प्रकार से होली खेली जाती है। एक ओर पुरुषों का दल, दूसरी ओर स्त्रियों का दल और साखी गाते हुए होली खेली जाती है। रंग में भीगे कोड़ों को मारते हुए होली खेली जाती है, लाठियों से होली खेली जाती है, अंगारों की होली होती है,फूलों की होली होती है। कुछ वर्षो पूर्व तक गोबर, कीचड़ और धूल से भी होली खेली जाती थी। होली खेलने का प्रकार कुछ भी हो, होली में जो रस बरसता है वह रस स्वर्ग में भी नहीं है इसीलिए कहा जाता है- ऐसो रस बरसै ब्रज होरी सो रस बैकुंठऊ में नांइ।

ब्रज में होली का रस-रंग मदमाते फागुन की फगुनौटी बयार के साथ तीव्रता से उभरने लगता है। फागुन माह के स्वागत में- ”भागन ते फागुन आयौ रे कोई जीबै सो खेले होरी फागु” के स्वर गूंज उठते है। ब्रज में फागुन के आगमन की सूचना पंडित जी के पत्रे या मुनादी से नहीं होती है। ब्रज की स्त्रियों के होठों और नयनों में बिहंसती मुस्कान और नयनों में हंसते काजल से हो जाती है फागुन की पहचान।

खेतों में लहलहाती सरसों और उद्यान-वाटिकाओं में सुरभित पुष्पों के मादक वातावरण में ब्रजबालाओं के नुकीले नयन होली खेलते है, प्रेम-प्रीति की पचरंग पिचकारी चलाते है-

 

आजौ नैना री नुकीले नये ढंग खेलि रहे रंग होरी
नैन ही खेलें, नैन खिलामें, नैना डारें रंग,
नैनां मारे प्रेम-प्रीत की पिचकारी रे पचरंग,
भिजोई दैं बरजोरी।

होली सामान्यत: देवर-भाभी का पर्व है किन्तु मथुरा से लगभग 50 किलोमीटर दूर जाव नामक गांव में राधा और बलराम अर्थात् जेठ और बहू का हुरंगा होता है। इस अनूठे हुरंगे में बलराम के प्रतीक रूप में बठैन गांव के हुरिहार जाव गांव की स्त्रियों से होली खेलते है किन्तु मर्यादा के साथ। चैत्र कृष्ण द्वितीया से लेकर नवमी तक हुरंगों के अतिरिक्त ब्रज के आठ गांवों- मुखराई, ऊमरी, नगरी, रामपुर, अहमल कलां, सबला का नगला तथा सौंख में चन्दा की चांदनी में रात्रि को चरकुला नृत्य के आयोजन होते है। ब्रजांगनाएं सैकड़ों दीपकों से जगमगाता काफी वजनी चरकुला सिर पर रखकर स्वर-ताल पर नृत्य करती है। नृत्य के अन्त में नृत्यांगनाओं को आशीर्वाद दिया जाता है- जुग-जुग जीऔ गोरी नाचनहारी। बसंत पंचमी से चैत्र कृष्णा नवमी तक गीत-संगीत-नृत्य संजोये 50 दिनों तक विविध रूपों से मुखरित ब्रज की होली में यमुना की लहरे पिचकारियां चलाती है और गिरिराज गोवर्धन गुलाल उड़ाता है। ब्रज की होली के रंग में रंगभीने, रसभीने ब्रजवासियों का मन तृप्त नहीं हो पाता है और उनकी सदा यह कामना रहती है- चिरंजीवी रहे ब्रज की रंग होरी, चिरंजीवी रहे ब्रज की रस-होरी।

अंगारों की होली

मथुरा जिले की छाता तहसील में फालैन गांव आज भी जलते अंगारों पर पण्डा के चलने के का गवाह है। यह क्षेत्र भक्त प्रह्लाद का क्षेत्र कहलाता है और यहां पण्डा होलिका दहन के बाद अंगारों पर चलता है।

फूलों की होली
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मंदिर-देवालयों में रंग गुलाल-अबीर की रौनक होती है तो कहीं भक्त भगवन के साथ फूलों की होली खेलते है. इस दौरान मंदिरों की छटा इंद्रधनुषी हो जाती है. रोज़ अलग-अलग कलाकार अपने फ़न का मुज़ाहिरा कर अपने प्रिय कान्हा के साथ होली खेलने का चित्रण करते हैं.वैसे कान्हा का वृन्दावन तो जयपुर से दूर है मगर गोविंद देव मंदिर में जब फाग उत्सव का आयोजन किया गया तो वहाँ बरसाना भी था और जमुना का तट भी क्योंकि गोविंद देव जयपुर के अधिपति माने जाते है.

मंदिर से जुड़े गौरव धामानि कहते हैं, “यह ढाई सौ साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा है और रियासत काल से चली आ रही है. दरसल ठाकुर जी (भगवान) को रिझाने के लिए फाग उत्सव शुरू किया गया था, जो अब भी जारी है.”

वह बताते हैं, “तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राज्य भर के क़रीब ढाई सौ कलाकार अपनी कला का भक्ति भाव से प्रदर्शन करते हैं. इसमें जात-पात या मजहब का कोई सवाल नहीं है. कई मुस्लिम कलाकार भी इसमे भाग लेंते हैं.”

कत्थक गुरु डाक्टर शशि सांखला कहती हैं, “कृष्ण कथानक और होली का गहरा रिश्ता है. कत्थक और गोविंद देव अलग-अलग नही हैं. श्रीकृष्ण को कत्थक का आराध्य देव मना जाता है. होली आती है तो कृष्ण को याद किया जाता है क्योंकि उनका स्वभाव चंचल है.”

काशी (बनारस) की होली… अक्खड़, अल्हड़
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अपने अनूठेपन के साथ काशी की होली अलग महत्व रखती है।
काशी की होली बाबा विश्वनाथ के दरबार से शुरू होती है।
रंगभरी एकादशी के दिन काशीवासी भोले बाबा संग अबीर-गुलाल खेलते हैं।
होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है।
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भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में घुली बनारसी होली की बात ही निराली है। फागुन का सुहानापन बनारस की होली में ऐसी जीवंतता भरता है कि फिजा में रंगों का बखूबी अहसास होता है। बाबा विश्वनाथ की नगरी में फाल्गुनी बयार भारतीय संस्कृति का दीदार कराती है, संकरी गलियों से होली की सुरीली धुन या चौराहों के होली मिलन समारोह बेजोड़ हैं। गंगा घाटों पर आपसी सौहार्द के बीच रंगों की खुमारी का दीदार करने देश-विदेश के सैलानी जुटते हैं। यहां की खास मटका फोड़ होली और हुरियारों के ऊर्जामय लोकगीत हर किसी को अपने रंग में ढाल लेते हैं। फाग के रंग और सुबह-ए-बनारस का प्रगाढ़ रिश्ता यहां की विविधताओं का अहसास कराता है। गुझिया, मालपुए, जलेबी और विविध मिठाइयों, नमकीनों की खुशबू के बीच रसभरी अक्खड़ मिजाजी और किसी को रंगे बिना नहीं छोड़ने वाली बनारस की होली नायाब है।
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बुढ़वा मंगल तक उल्लास

मंदिरों, गलियों और गंगा घाटों से लबरेज इस उम्दा शहर का जिक्र जेहन में पुरातनता, पौराणिकता, धर्म एवं संस्कृति के साथ साड़ी, गलीचे, लंगड़ा आम आदि विशेषणों को ताजा कर देता है। अपने अनूठेपन के साथ काशी की होली अलग महत्व रखती है। काशी की होली बाबा विश्वनाथ के दरबार से शुरू होती है। रंगभरी एकादशी के दिन काशीवासी भोले बाबा संग अबीर-गुलाल खेलते हैं और फिर सभी होलियाना माहौल में रंग जाते हैं। होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है।

होली पर निकलती है बारात

बनारस की होली का एक अनूठा और मस्ती भरा रंग है होली की बारात।
इसमें यहां के मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ निकलने वाली होली बारात में बाकायदा दूल्हा रथ पर सवार होता है।
बारात के नियत स्थान पर पहुंचते ही महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन करती हैं।
मंडप सजाया जाता है, जिसमें दुल्हन आती है, फिर शुरू होती है वर-वधू के बीच बहस और दुल्हन के शादी से इंकार करने पर बारात रात में लौट जाती है।

भांग, ठंडाई के बिना कैसी होली
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भांग और ठंडाई के बिना बनारसी होली की कल्पना भी नहीं कर सकते।
यहां भांग को शिवजी का प्रसाद मानते हैं , जिसका रंग जमाने में अहम रोल होता है।
होली पर यहां भांग का खास इंतजाम करते हैं। तमाम वरायटीज की ठंडाई घोटी जाती है , जिनमें केसर , पिस्ता , बादाम , मघई पान , गुलाब , चमेली , भांग की ठंडाई काफी प्रसिद्ध है।
कई जगह ठंडाई के साथ भांग के पकौडे़ बतौर स्नैक्स इस्तेमाल करते हैं , जो लाजवाब होते हैं।
भांग और ठंडाई की मिठास और ढोल – नगाड़ों की थाप पर जब काशी वासी मस्त होकर गाते हैं , तो उनके आसपास का मौजूद कोई भी शख्स शामिल हुए बिना नहीं रह सकता।
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अस्सी का बहुचर्चित कवि सम्मेलन

अस्सी घाट के बहुचर्चित कवि सम्मेलन के बिना बनारसी होली की चर्चा अधूरी है।
एक समय था , जब यहां मशहूर हास्य कवि चकाचक बनारसी , पं . धर्मशील चतुर्वेदी , सांड बनारसी , बदरी विशाल , बेधड़क बनारसी , बेढब बनारसी आदि शरीक होते थे।
यहां हास्य के फुहारों के बीच संतरी हों या मंत्री , कलेक्टर हों या सरकार सबकी बखिया उधेड़ी जाती थीं और हंसी – मजाक के बीच संस्कृति , समाज और राष्ट्र की मौजूदा गतिविधियों से रूबरू कराया जाता था।
चकाचक के निधन के बाद अस्सी के हास्य कवि सम्मेलन पर विराम लग गया।

होरियारों का जोगीरा

‘जोगीरा सारा .. रा .. रा .. रा .. रा …’ की हुंकार बनारस की होली का अलग अंदाज दरसाता है। जोगीरा की पुकार पर आसपास के हुरियारे वाह – वाही लगाए बिना नहीं रह सकते और यही विशेषता अल्हड़ मस्ती दर्शाती है। इसके अलावा ‘ रंग बरसे भींगे चुनर वाली , रंग बरसे ..’ और ‘ होली खेले रघुबीरा अवध में होली खेले रघुबीरा ‘ जैसे गीतों की धुनें भी भांग और ठंडाई से सराबोर पूरे बनारस ही झूमा देती हैं। गंगा घाटों पर मस्ती का यह आलम रहता है कि विदेशी पर्यटक भी अपने को नहीं रोक पाते और रंगों में सराबोर हो ठुमके लगाते हैं।
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‘ रंग , भंग , गारी ( गाली ) और संगीत बनारसी होली की विशेषता है…

एक जमाना था , जब सिद्धेश्वरी देवी , जानकी बाई छप्पन छुरी जैसे गायकी के दिग्गज महीने भर पहले से होली गीत बनाते थे। रईसों में होड़ मचती थी कि कौन सबसे सिद्धहस्त संगीतज्ञ या गायकी के धनी का साथ पाता है। ऐसे ही , जानकी बाई का संगीत नहीं सुन पाने से एक रईस ने उन्हें छुरी से 56 बार चोट पहुंचाई , तभी से उनका नाम जानकी बाई छप्पन छुरी पड़ गया। अब गायकी लुप्त हो रही है , जिसे बचाना हमारा धर्म है , अगर बनारसी होली के सभी गाने मिला दें , तो सचमुच बनारस ( बना हुआ रस ) हो जाए। ‘

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