भारतीय परिपेक्ष्य में वैवाहिक विच्छेद -प्राच्य से वर्त्तमान तक


डॉ अर्चना तिवारी 
9450887187 

भारतीय जीवन संस्कृति में सिर्फ योग, अर्थात जोड़ने को जगह दी गयी है।  यहाँ किसी भी रूप में टूट या विभाजन सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य नहीं है।  भारतीय सभ्यता के समग्र विकास इसी जोड़ने की शैली से शुरू होकर आगे बढ़ता है। यह पूरी यात्रा एक नदी के प्रवाह की तरह चलती है जिसमे अंत तक निर्वहन की अद्भुत शक्ति विराजमान , विद्यमान रहती  है।  हर महँ नदी वह होती है जो अपने उद्गम से निकल कर समुद्र या उस स्वरुप के अपने अंत तक चल कर ही स्वयं  समाधिस्थ कराती है। इसीलिए यहाँ कही भी विच्छेद या टूट नहीं है।  भारत की संस्कृति और सभ्यता में केवल जोड़ना ही सिखाया जाता है। इसकी प्रथम इकाई ही युगल स्वरुप है। शिव- पार्वती,, राम-सीता, कृष्ण-राधा, विष्णु-लक्ष्मी  रूप ही एक इकाई मानी जाती है। मनुष्य के उद्भव में भी अकेला कोई पुरुष या स्त्री भर नहीं है।  इसकी अवधारणा ही मनु-शतरूपा से होती है। तात्पर्य यह की हमारी संस्कृति में युगल स्वरुप ही मूल इकाई है और इसी से सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ने का समूचा विधान रचा  गया है। भारत के इतिहास में सृष्टि के उद्भव से अब तक यही परम्परा चल भी रही है। जिस मूल इकाई से सृष्टि के सञ्चालन के क्रम को बढाते हुए चलने की दृष्टि दी गयी है उसकी अवधारणा में ही एक पुरुष और एक स्त्री तत्व के रूप में निर्धारित किये गए है। 
हमारी जीवन संस्कृति केवल संस्कारो के वशीभूत है क्योकि संस्कार ही वे दर्शन है जिनसे सृष्टि को चलना है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन को सोलह आधारभूत संस्कारो में संयोजित किया गया है। इन सोलह संस्कारो में सबसे महत्वपूर्ण है विवाह संस्कार। विवाह वह संस्कार है जो एक पुरुष को उसके योग्य स्त्री प्रदान कर समाज की प्रथम इकाई के रूप में एक युगल  का निर्माण करता है।  यह ठीक वैसे ही है जैसे ऑक्सीजन के एक अनु में दो परमाणु होते है। या हम कह सकते है की अणु  बनाने के लिए काम से काम दो परमाणुओ का संयोजन जरुरी होता है। फिर ये अणु  ही किसी भी तत्व को स्वरुप , आकार , प्रकार देते है और तब एक तत्व अस्तित्व में आता है।  ठीक उसी प्रकार जब एक पुरुष और एक स्त्री अपने गुण -धर्म के आधार पर विवाह जैसे संयोजन की संस्कारशाला से निकलते है तब एक युग्म बनाता है और तब ही सृजन की संभावना बन पाती है। यही प्रक्रिया पेड़ , पौधों , वनस्पतियो में भी होती है।  अर्थात विवाह एक ऐसी वैज्ञानिक सत्यता है जिसके बिना सृष्टि चल ही नहीं सकती। इसी विवाह की युग्म निर्माता शैली से परिवार बनता है। परिवार से घर बनाता है।  कई घर मिलते है तो कुल बनाता है।  कई कुल मिलते है तो कुटुंब बनाता है।  कई कुटुंब मिलते है तो ग्राम बनाता है।  ग्राम से ब्लॉक , तहसील , जनपद , मंडल , प्रांत , राष्ट्र और फिर इस विश्व का निर्माण होता है। इस निर्माण की प्रक्रिया को आधार देता है विवाह संस्कार। वही से सूंदर , स्वस्थ , प्रगतिशील , शिक्षित समाज के निर्माण का आधार तय हो जाता है।  इसलिए भारतीय विवाह परंपरा को बहुत ही सावधानी पूर्वक स्थापित किया गया है जिसे काम से काम सात जन्मो तक निभाने की अवधारणा दी गयी है। हमारे संस्कारो में और दर्शन में सात जन्म की बात इस लिए है क्योकि हमारे यहाँ पुनर्जन्म प्रमाणित है।



विवाह शब्द वि+वाह से बना है।  वि विशेष या महत्वपूर्ण विशिष्ट के लिए प्रयुक्त हुआ है तो वाह का अर्थ हैं वहन करना ,ढोना ,बोझ उठाना यथा माल वाहक=माल ले जाने वाला, निवाँह=गुजारा करना प्रवाह= बहाव आदि। 
कुछ  लोग अज्ञानता वश विवाद तथा विवाह का अन्तर भूल  जाते है।  वे शायद यह नही जानते ‘द’का अर्थ है दाता तथा ‘ह’ का अर्थ है हरणं करने वाला मिटाने वाला।  जहां विवाद में दूसरे  के दोषों व दुर्बलता  को उजागर कर उसे शत्रु मानते हुए नीचे दिखाने का प्रयास किया जाता है, इसके विपरीत विवाह में  स्नेह व आत्मीयता के साथ उसे सम्मान दिया जाता है।  विवाह में तो सभी विषमता दुर्बलता  व दोष का हरण है, स्नेहपूर्ण निरकरण है या फिर उन्हें स्वीकार कर धैर्यपूर्वक सहना है।  विवाह केवल कामेक्षा की पूर्ती का साधन भर नहीं है। रति या मैथुन को विद्धानो ने पाशविक कर्म माना है।  उनका कहना है पशु पक्षी तो मात्रा विशेष ॠतु में ही कामोन्मुख होते हैं किन्तु मनुष्य तो शायद पशुओं से भी हीन है।  प्राचीन मनीषियो ने गहन चिन्तन मनन के बाद काम को नियंत्रित कर विवाह प्रणाली को विकासित किया समाज में सुख शान्ति बनाए रखने के लिए अगम्यागमन का निषेध किया। परस्त्री आसक्ति की निन्दा की।  इतनी ही नही विवाह को धार्मिक सामाजिक समारोहों के रूप में मान्यता दी उसे गरिमा  मंडित किया पत्नी को धर्मपत्नी की संज्ञा दी। यज्ञ व सभी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को बराबर का स्थान दिया उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी गई विवाह में वर को विष्णु तथा वधु को लक्ष्मी का रूप मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा आज भी प्रचलित है।  राम विवाह, शिव विवाह राधा विवाह का शास्त्रो में विस्तार पूवर्क किया गया है| वास्तव में विवाह गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्धार है।  घर परिवार समाज की ईकाई है घर के योगदान से समाज मजबुत होता है तो समाज के सहयोग व सहायता से परिवार में सुख शान्ति बढ़ती है बालक के जन्म से परिवार बढ़ता है तो समाज का भविष्य भी सुरक्षित होता है। बच्चों के पालन -पोषण के लिए धर परिवार में स्नेह सौहार्दपूर्ण वातावरण आवश्यक है।  किसी विवाह का टूटना मात्र दो व्यक्तियों  का अलग हो जाना नहीं बल्कि परिवार व समाज का बिखराव है।  बचपन की बगिया में कंटीली झाड़ियों का उगना जिससे न केवल वर्तमान आहत होता है बल्की भविष्य भी मुरझा जाता है।  जब कभी विवाह का प्रशन हो तो ज्योतिषी का फर्ज हैं कि वह विवाह का महत्त्व स्वयं समझें व दुसरे को भी समझाएं। मानव मन की कामेच्छा को नियमित व नियंत्रित करने के लिए ही विवाह संस्था बनायी गईं।  योग एक प्रकार से कामेच्छा को नियमित एवं नियंत्रण करने की प्रकिया ही है।  लेकिन अगर सभी योगी बन जाएंगे तो सृष्टि के विस्तार जीवन मत्यु की प्रकि्या में व्यवधान आ जाएगा।  इसलिये समाज में विधिपूर्वक शुक्र को नियंत्रण करने के लिए मनीषियों ने विवाह प्रकि्या का सृष्टि में प्रावधान किया। 

 प्रत्येक व्यक्ति के लिए कामेच्छा की नियमित व निमन्त्रण में रखना उसके अपने वश में नहीं है इसकों ज्यादा नियन्त्रित करने में यह अनियंत्रित हो जाती है और दुरचार को बढावा मिलता है।  उस स्थिति  में व्यक्ति और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता।  समाज में यौन दुराचार पर अंकुश लगाना एक स्वस्थ व सुखी समाज  निमार्ण करना ही इसका उद्देश्य था।   भावी संतती देह व मन से स्वास्थय व सबल हो इसके लिए विवाह पूर्व शौर्य प्रदर्शन तथा बुद्धि बल परीक्षा या स्पर्धा  का आयोजन एक सामान्य बात थी।  कन्या को भी विविध कलाओं तथा विधाओ में निपुण बनाने का प्रयास होता था उसका यह करणा होता की उस कन्या का विवाहित जीवन सुखी व खुशहाल हो। वास्तव में यह  किसी मज़हब या पंथ की बात नहीं है।  ये संस्कार तब से भारत में है जब से यह सृष्टि है।  तब धरती पर हिन्दू , मुसलमान, आदि की पांथिक अवधारणाएं नहीं होती थी।  धरती पर ईसाइयत कुल दो हज़ार साल से है।  इस्लाम केवल डेढ़ हजार साल से है लेकिन हमारे यहाँ विवाह की परंपरा तो आदिकाल से ही है। शिव और पारवती के विवाह की कथा ही आज भी हमारे वैवाहिक आयोजनों में लोकमंगल गान बन कर स्थापित है।  राम और सीता की वैवाहिक गृहस्थी रही हो अथवा कृष्ण और राधाकी युगल जोड़ी , हर जगह शिव पार्वती संवाद की महत्ता स्थापित है। दरसल इस पूरी व्यवस्था में एक मूल विंदु यह है की सृजन के लिए एक पुरुष तत्व और एक नारी तत्व आवश्यक है।  लेकिन ऐसा नहीं की कोई भी पुरुष और कोई नारी कुछ भी कर सकते है।  इसके लिए सम्बंधित स्त्री और पुरुष तत्व की युगलबन्दी के लिए भी गुण -धर्म  निर्धारित किये गए है जिनके आधार पर यह युग्म बनाता है और फिर विवाह के संस्कार से उन्हें एक किया जाता है।  यह युग्म ऐसा होता है जिसमे विघटन की कोई अवधारणा ही नहीं हो सकती।  यह ठीक वैसे ही है जैसे एक तत्व को  एक दूसरे तत्व से संयोजित करा कर  एक यौगिक बना दिया गया  तो दोनों के समन्वित रूप का वह यौगिक ही उनका निवास रहेगा।  इनमे से किसी को भी अलग करने की कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है।  हमें यदि नमक बनाना है तो सोडियम  और क्लोरीन को ही संयोजित करना होगा।  तभी नमक बन सकेगा।  इनमे से किसी भी एक तत्व को बदल दिया जय तो नमक नहीं पाया जा सकता। बने हुए नमक में यदि कुछ भी और मिलाया जाएगा तो नमक का अस्तित्व तो नहीं रह जाएगा। हमें पाना नमक है और सोडियम की जगह हाइड्रोजन का इस्तेमाल करेंगे तो नमक की बजाय तेजाब बन जायेगा।  जाहिर है की जो पाना चाहते थे वह तो नहीं ही मिला , और नहीं तो इतनी घातक चीज़ सामने आ गयी जो विध्वंस ही करेगी। विवाह ठीक ऐसी ही विधि परंपरा है जिसे भारतीय जीवन दर्शन में स्वीकार किया गया। इसीलिए भारतीय जीवन संस्कृति की किसी भी अवधारणा में विवाह विच्छेद जैसे किसी व्यवस्था का उल्लेख हमारे किसी भी ऐतिहासिक अध्ययन में नहीं है। 
  विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ है। श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है। विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूषन देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।" फिर अग्नि से प्रार्थना है- "हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।" फिर इन्द्र से प्रार्थना है- "हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें। 
 ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- हे वधु ! तुम सास, ससुर, ननद, देवर समस्त परिवार की साम्राज्ञी बनो -


"सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वसुरामं भव। 
सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "

 हमारे शास्त्रों ने चयन का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं| प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है| विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है| वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है

सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतुछटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
सात वचनों के महत्व को यदि समझ लिया जाये तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा...


तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!...१...


कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना| कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम 
भाग में अवश्य स्थान दें| यदि आप स्वीकार करते हैं तो मुझे वामांग में आना स्वीकार है।  धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य है।  जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है।  पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है। 


पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!...२...


कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। इस वचन के द्वारा समाज व कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है।  आजकल गृ्हस्थी में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद होने पर पति/पत्नी अपने पत्नि/पति के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देते हैं। 

 
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!...३..


तीसरे बचन में कन्या कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। 


कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!...४...


कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपका है।  यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ। इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं।  विवाह पश्चात कुटुम्ब पोषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके।  यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे। 


स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!....५...


इस वचन में कन्या जो कहती है वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है।  बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते।  यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है। 


न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!...६...


कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें| यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं| विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं| ऎसे 
व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा| यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले। 


परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!...७..


अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें।  यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, ये सभी भली भान्ति जानते हैं, इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।  विवाह के इस सर्वश्रेष्ठ रूप में, ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है, वशर्ते कि आज के निष्ठाहीनता के युग में स्त्री-पुरुष दोनों ही इनका निर्वाह करें तो।  इसी लिए भारत में कभी वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद के लिए किसी क़ानून की आवश्यकता पड़ी ही नहीं क्योकि एक बार युग्म बन जाने के बाद उसे तोड़ सकने के लिए कोई सपने में भी सोच नहीं सकता था।  यही कारन रहा की यह परंपरा हज़ारो साल तक चलती रही और अभी भी चल रही है। यह अलग बात है कि समाज में अन्य सभ्यताओ के विकास और संस्कारो में आयी विकृतियों ने आज ऐसे कानून की आवश्यकता पर बहस करने को मज़बूर कर दिया है। 



भारत में विवाह विच्छेद के प्रमाण नहीं 
ऐसा नहीं की गृहस्ती में खटपट न होती हो।  भारत में भी पति पत्नी के बीच नोक झोक, झगड़े और वादविवाद की स्थितियां आती रही है लेकिन यहाँ सम्बन्ध विच्छेद की कोई गुंजाइश नहीं देखि गयी।  नहीं पति तो किसी किसी ने गृहत्याग तक कर दिया पर पति पत्नी की अवधारणा और उसके बंधन पर कोई आंच नहीं आयी। यहाँ तक की गौतम ऋषि और अहिल्या के बीच चन्द्रमा द्वारा किये गए घात के बाद बड़ी कटु स्थिति आयी पर उसे भी ऋषि गौतम ने शापानुग्रह के द्वारा सलीके से ठीक कर दिया। राम से लेकर कृष्ण के काल तक भी किसी पति पत्नी के युग्म में विघटन की कोई घटना उल्लिखित नहीं है। कृष्ण के बाद केवल तब एक विघटन मिलता है जब गौतम बुद्ध गृह त्याग कर निकल जाते है। लेकिन यहाँ भी केवल गृह त्याग है , विघटन तो बिलकुल नहीं है। यहाँ गृहस्त जीवन को सृष्टि का पालनहार बताया गया है। सृष्टि के पारम्भ से लेकर भारत में अंग्रेजो के शासन काल तक हमारी सांस्कृतिक अवधारणा के अनुसार ही विवाह संपन्न होते रहे तथा निभाए जाते रहे।  अंग्रेजी शासन के बाद जब भारत का नया संविधान लिखा गया उसके बाद से विवाह विच्छेद की चर्चा शुरू हुई और 1955 में पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम जैसा एक क़ानून सामने आया।  यह वह समय था जब मूल भारतीयता को हिन्दू संज्ञा दी जा चुकी थी। इससे लगभग एक हज़ार साल पहले से ही भारत में भारतीय शासन व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी।  यवनो के आलावा और भी जो आक्रमणकारी यहाँ आये उनकी अपनी परम्पराए भी आयी पर हमारी भारतीयता ने खुद को बहुत सलीके से अपने को बचा कर रखा। सबसे ज्यादा दिक्कत होनी शुरू हुई मुग़ल शासको के समय। उनके लिए स्त्री केवल एक भोग्य बस्तु थी और उसी रूप में वे भारतीय स्त्रियों का भी उपयोग करना चाहते थे। उन्होंने किया भी।  हमें उस दिशा में नहीं जाना लेकिन यह सच है की मुग़ल शासन की आंच से ही बाद में कानूनों का निर्माण होने लगा और 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम बना दिया गया।  
हिन्दू विधि में सहमति से विवाह विच्छेद
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 विवाह विच्छेद की व्यवस्था भी करता है लेकिन इस में विवाह के पक्षकारों की सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था 1976 तक नहीं थी। मई 1976 में एक संशोधन के माध्यम से इस अधिनियम में धारा 13-ए व धारा 13-बी जोड़ी गईं, तथा धारा 13-बी में सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई। धारा 13-बी में प्रावधान किया गया है कि यदि पति-पत्नी एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे हैं तो वे यह कहते हुए जिला न्यायालय अथवा परिवार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं कि वे एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे है, उन का एक साथ निवास करना असंभव है और उन में सहमति हो गई है कि विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर विवाह को समाप्त कर दिया जाए। इस तरह का आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय आवेदन प्रस्तुत करने की तिथि से छह माह उपरांत और अठारह माह पूरे होने के पूर्व यदि ऐसा आवेदन पक्षकारों द्वारा वापस नहीं ले लिया जाता है तो उस आवेदन की सुनवाई और जाँच के उपरान्त इस बात से संतुष्ट हो जाने पर कि आवेदकों के मध्य विवाह संपन्न हुआ था और पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत आवेदन के कथन सही हैं, डिक्री पारित करते हुए दोनों पक्षकारों के मध्य विवाह को डिक्री की तिथि से समाप्त किए जाने की घोषणा कर देता है।
 
हिन्दू विधि में अलगाव  के आधार


 प्रारंभिक हिन्दू विधि में तलाक या विवाह विच्छेद की कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं थी। हिन्दू विधि में विवाह एक बार हो जाने के बाद उसे खंडित नहीं किया जा सकता था। विवाह विच्छेद की अवधारणा पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 से हिन्दू विधि में सम्मिलित हुई। वर्तमान में हिन्दू विवाह को केवल उन्हीं आधारों पर विखंडित किया जा सकता है जो कि इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त किए गए हैं। बिना किसी आधार के तो अलगाव  केवल आपसी सहमति से संभव है। जब विवाह विच्छेद के लिए आपसी सहमति न हो तो कानून में वर्णित आधार उपलब्ध होने पर ही अलगाव संभव हो सकता है। चूंकि प्रारंभिक हिन्दू विधि में विवाह विच्छेद की अवधारणा अनुपस्थित थी, इस कारण से न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना कोई भी रीति तलाक या विवाह विच्छेद हेतु उपलब्ध नहीं है और हिन्दू विवाह केवल न्यायालय के माध्यम से ही विखंडित किया जा सकता है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 में वे आधार वर्णित हैं जिन पर एक हिन्दू विवाह विच्छेद संभव हो सकता है। हिन्दू विवाह का एक पक्षकार निम्न में से किसी भी आधार पर विवाह विच्छेद के लिए न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर सकता है, यदि विवाह का दूसरा पक्षकार ..
1. जारता- 
विवाह के उपरांत अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा पूर्वक यौन संबंध स्थापित कर जारकर्म का दोषी हो।
2. क्रूरतापूर्ण व्यवहार 
अपने जीवनसाथी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार का दोषी हो। (क्रूरता को परिभाषित करना आसान काम नहीं है। यह विवाह के पक्षकारों के सामाजिक स्तर और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किस तरह का आचरण वैसी क्रूरता है जिस पर तलाक की डिक्री प्रदान की जा सकती है।)

3. परित्याग 
विवाह विच्छेद का आवेदन प्रस्तुत करने की तिथि के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष से आवेदनकर्ता का परित्याग का दोषी हो।

4. धर्म का परित्याग
हिंदू धर्म त्याग कर दूसरा धर्म ग्रहण कर चुका हो।

5. विकृतचित्तता
लाइलाज विकृतचित्त हो, अथवा लगातार या बीच-बीच में ऐसे मनोविकार से पीड़ित रहता हो जिस के कारण यथोचित रूप से आवेदनकर्ता के उस के साथ निवास करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती हो।

6. असाध्य कुष्ठ रोग
उग्र और असाध्य रूप से कुष्ठ रोगी हो।

7. यौन रुग्णता
संक्रामक रूप से यौन रोगी हो चुका हो।
8. संन्यास 
धार्मिक संहिता के अंतर्गत संन्यास ग्रहण करहो हो, और उस ने संसार का त्याग कर दिया हो।

9. लापता 
यदि कोई पुरुष अथवा स्त्री लापता हो जाय। 


अब हिन्दू विधि में वर्णित पति पत्नी के अलगाव के लिए जो भी क़ानून बना है वह देश के हर परिभाषित हिन्दू व्यक्ति पर लागू है।  इसी विधि के आधार पर आज हज़ारो अलगाव संबंधी मुकदमे देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे है।  यह भी सच है की सभ्यताओ के विकास के साथ पारिवारिक विघटन की घटनाये काफी प्रकाश में आ रही है।  यह सांस्कृतिक क्षरण पर चिंता का विदुः हो सकता है।  इस पर समाज के जिम्मेदार लोग अवश्य सोच रहे होंगे।  लेकिन यह सोचने की बात है की जिस संस्कृत को हज़ारो वर्षो तक अलगाव संबंधी की नियम की जरूरत ही नहीं पड़ी , अगर आज उसी देश में वैवाहिक संबंधों को लेकर उनमे विच्छेद के बारे में बहस करनी पद रही है तो यह चिंता की बात है।  यह सोचने का विषय है कि आखिर आज हम सभ्य हो रहे है या तब थे जब ऐसे किसी विध्वंसक कानून की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी।  

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