जिनका लगा है सब कुछ दांव पर

 जिनका लगा है सब कुछ दांव पर 

डॉ अर्चना तिवारी 


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इस बार का चुनाव कई मायनो में हर बार से अलग है। यह ऐसे माहौल में हो रहा है जब कोई लहर  नहीं दिख रही। समाजवादी पार्टी ने अभी अभी अपने कुनबे का संग्राम झेला है तो जनता ने केंद्र सरकार द्वारा लागू की गयी नोटबंदी की मुहीम झेली है। इस बार सपा कांग्रेस गठबंधन से अखिलेश और बसपा से खुद मायावती सामने हैं लेकिन भाजपा ने अभी तक किसी चेहरे को आगे नहीं किया है। कहने को हर चुनाव राजनेता की परीक्षा होती है। आमतौर पर पांच साल में एक बार होने वाली परीक्षा में नेता तन-मन-धन सब कुछ झोंक देते है । इस साल में होने वाले चुनाव इस बार कुछ अलग है। इस चुनाव मे बहुत से महारथियो की प्रतिष्ठा इस कदर फंसी हुई है कि वह अभी नहीं तो कभी नहीं की स्थिति मे है। आइए जानते हैं कि किस सियासी दिग्गज की प्रतिष्ठा इस बार आर-पार की हद तक है और उनका सब कुछ दांव पर है।

   
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अखिलेश य़ादव

वर्ष 2012 के चुनाव मे मिस्टर क्लीन बनकर यूपी की समाजवादी पार्टी की सरकार संभाली और साल 2017 तमाम जोड़-तोड़-लड़ाई के बाद में अब समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को हासिल कर पार्टी भी संभाल ली। एक तरह से मुलायम युग से अखिलेश कालखंड में पार्टी को लाने वाले यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का इस चुनाव मे सब कुछ दांव पर है। साख, शान, समझ, संगठन और सियासी सलाहियत। अखिलेश यादव न सिर्फ सरकार के चेहरा बल्कि अब सपा सुप्रीमो भी हैं। वह भी उस तरह नहीं जैसे कि उनके लिए उनके पिता मुलायम सिंह ने सोचा होगा। वह अपनी शर्तों पर और अपने तरीकों से सपा सुप्रीमो बने हैं। इतनी ही नहीं अपनी पार्टी की परंपरागत कांग्रेस विरोध की तासीर के उलट उन्होंने कांग्रेस से समझौता किया है। उन्होंने ग्रांड ओल्ड पार्टी रही कांग्रेस को जूनियर पार्टनर बनाने में कामयाबी तो हासिल कर ली है पर तालमेल में उसे एक हद तक ही झुका सके हैं। अब अखिलेश यादव की साख, उनका विकास का मंत्र और उनकी राजनैतिक समझ समेत इस चुनाव मे सब कुछ कसौटी पर है। हालांकि कांग्रेस से समझौते के बाद से ही कहा जाने लगा है कि उन्हें बैसाखी की जरुरत क्यों पड़ी।  

डिम्पल यादव

समाजवादी पार्टी मे एक वाकया बहुत आम है कि 23 मई 2014 को लोकसभा चुनाव हारने के बाद सपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने एक मीटिंग ली थी। उन्होंने कहा था कि ‘संसद में मोदी का मुकाबल कौन करेगा। हम पांच ही सांसद पहुंचे हैं। डिंपल यादव तो बोलती नहीं हैं। अक्षय नए हैं, ऐसे में मुझे और धर्मेंद्र को ही मोदी का मुकाबला करना होगा।’ डिंपल यादव के लोकसभा में दिए गए एक भाषण की सोशल मीडिया में खामियां में टांग खिंचाई हुई थी। अब डिंपल यादव अखिलेश के साथ ही पार्टी का महिला चेहरा भी है। सपा के सबसे बडे नेता मुलायम सिंह यादव की गैर-मौजूदगी में इतिहास में पहली बार जारी पार्टी के घोषणापत्र के मौके पर भी अखिलेश के बाद सबसे ज्यादा तवज्जो डिंपल यादव को ही मिली। पार्टी में भी और मीडिया में भी। लिहाजा उनका सब कुछ दांव पर है। कन्नौज से सांसद डिंपल और कांग्रेस की नई उम्मीद बन चुकी प्रियंका गांधी के साथ कार्यक्रमों को लेकर गठबंधन के थिकटैंक बात कर रहे हैं। सपा की हारजीत तय करेगी कि यूपी में डिंपल को जनता ने पार्टी का महिला चेहरा और पार्टी में सेकेंड इन कमांड बनने की ख्वाहिश को कितना बल मिल पाता है।    

प्रो रामगोपाल

मुलायम के भाई और यदुकुल मे रार की कई बड़ी वजहों मे से एक वजह प्रो रामगोपाल यूं तो पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। पर अखिलेश यादव की पार्टी मे ताजपोशी में उनकी भूमिका सबसे अहम थी। पार्टी मे हो रही उठापटक से लेकर, राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाने और यहां तक कि पार्टी और सिंबल अखिलेश को दिलाने तक। मुलायम सिंह ने 2004 में संभल सीट रामगोपाल के लिए छोड़ दी थी और खुद मैनपुरी से सांसद का चुनाव लड़ा था। रामगोपाल इस सीट से जीत हासिल करके पहली बार संसद पहुंचे थे। अखिलेश यादव के इस समय ‘फिलास्फर और गाइड’ बन चुके रामगोपाल यादव का सब कुछ दांव पर हैं क्योंकि पार्टी जीती तो उनके समर्थक उन्हें चाणक्य तक बुला सकते है नहीं तो वह कहीं के नहीं रहेंगे। क्योंकि राष्ट्रीय अध्यक्ष से संरक्षक तक के पद पर पहुंच चुके मुलायम की वह फिलहाल आंख की किरकिरी बन चुके हैं।

नरेश उत्तम

अखिलेश यादव ने पार्टी की कमान संभालने के बाद पहली नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नरेश उत्तम की ही की थी। यूपी के फतेहपुर से ताल्‍लुक रखने वाले नरेश उत्तम वर्ष 1980 में मुलायम सिंह के संपर्क में आने के बाद राजनीति में आए। उत्‍तम साल 1989 में सबसे पहले जनता दल प्रत्‍याशी के रूप में जहानाबाद से विधायक चुने गए थे। वर्ष 1989 से 1991 के बीच मुलायम सिंह की पहली सरकार में वे मंत्री थे। 1993 में मुलायम के दूसरे कार्यकाल में दौरान उन्‍हें यूपी पिछड़ा आयोग का सदस्‍य बनाया गया और मंत्री पद दिया गया। 2006 और 2012 में भी वे एमएलसी थे। रोचक बात है कि जब अखिलेश यादव उत्‍तर प्रदेश सपा के अध्‍यक्ष थे तो उत्‍तम उनके डिप्‍टी थे। जब अखिलेश और शिवपाल के बीच झगड़ा शुरू हुआ था उस समय उत्‍तम सीएम के साथ खड़े हुए थे। नरेश उत्तम ने अपनी वफादारी के सफर को मुलायम से अखिलेश तक पहुंचा दिया है पर उनका सब कुछ दांव पर है क्योंकि सरकार बनी तो वाह वाह वरना वो हर तरफ से निशाने पर होंगे।



अरविद सिंह गोप

अरविंद सिंह गोप ने लखनऊ विश्वविद्यालय से बतौर छात्रनेता अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। जब मुलायम सरकार में अमर सिंह की तूती बोलती थी तो उऩसे उनकी करीबियों की वजह से वह सत्ता और संगठन में लगातार एक के बाद एक सीढी चढ़ते गए। बेनी वर्मा, आज़म खान जैसे नेता जब समाजवादी पार्टी छोड़कर चले गये तो वह संगठन में कद्दावर हो गये। कभी शिवपाल यादव के करीबी रहे अरविंद सिंह गोप अखिलेश के सिपाही बन गये है। यहां तक कि शिवपाल यादव ने अपनी सूची में उनका टिकट तक काट दिया था। अखिलेश की समाजवादी पार्टी के युग में उन्हें थिंकटैंक का रुतबा हासिल है। पर इस रुतबे के ही चलते उनका सब कुछ दांव पर है क्योंकि उन्हें पार्टी संगठन के साथ ही अपने जिले की राजनीति में अपने वर्चस्व को भी बचाना है।    





अपर्णा यादव
मुलायम की छोटी बहू और प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव समाजवादी पार्टी की लखनऊ कैंट से उम्मीदवार हैं। माना जा रहा था कि अखिलेश युग में उनका टिकट कट सकता है पर कैंट से भाजपा का टिकट रीता बहुगुणा जोशी को मिल जाने के बाद उन्हें टिकट देकर अखिलेश यादव ने राजनैतिक रणनीति का परिचय दिया है। उन्हें सिर्फ अपनी सीट जीतने की चुनौती के साथ ही उनका सब कुछ दांव पर है। परिवार से लेकर सरकार तक अपनी साख और राजनीति के ककहरे मे खुद को माहिर साबित करने के लिए उन्हें सब कुछ दांव पर लगाना होगा। यह बात और है कि यह उनका राजनीति में पहला कदम है।

अमित शाह

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश लोकसभा मे भारतीय जनता पार्टी की जीत का सबसे बड़ा श्रेय ले चुके अमित शाह के लिए यह चुनाव सिर्फ एक राज्य का चुनाव नहीं है। राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी भी उन्हें प्रभारी के तौर पर यूपी में पार्टी को लोकसभा की ऐतिहासिक जीत का ईनाम बताई जाती है। अब भाजपा अपना शक्ति प्रदेश यानी यूपी वापस पाना चाहती है। पार्टी के सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी ने उन्ही में सारी शक्ति निहित कर दी हैं ऐसे में उनका सब कुछ दांव पर है। यह साबित करने के लिए भी लोकसभा की जीत सिर्फ एक तुक्का या मोदी सुनामी का परिणाम नहीं थी और उसमें संगठनात्मक कौशल का भी बड़ा हाथ था।

केशव मौर्या

भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के बाद जब अपना अध्यक्ष बदलने की कवायद शुरु कि तो उसे कई दिन के मंथन के बाद सांसद बने केशव मौर्या जैसा नाम जब सामने आया तो बहुत से राजनीतिक पंडितों को हैरानी हुई। दरअसल मौर्य कोइरी समाज के हैं और यूपी में कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा ओबीसी में आते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के साथ अन्य चुनावों में भी बीजेपी को गैर यादव जातियों में इन जातियों का समर्थन मिलता रहा है। केशव प्रसाद मौर्य के बारे में कहा जाता है कि उन्होने संघर्ष के दौर में पढ़ाई के लिए अखबार भी बेचे और चाय की दुकान भी चलाई। आज केशव दंपती पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, कामधेनु लाजिस्टिक आदि के मालिक हैं और साथ ही जीवन ज्योति अस्पताल में दोनों पार्टनर हैं। कामधेनु चेरिटेबल सोसायटी भी बना रखी है। कहा जाता हैकि मौर्या का चयन आरएसएस या विहिप के इशारे पर किया गया है। वह विश्व हिंदू परिषद से 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे। 2002 में शहर पश्चिमी विधानसभा सीट से उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी के रूप में राजनीतिक सफर शुरू किया लेकिन 2002 और 2007 में बसपा प्रत्याशी राजू पाल और पूजा पाल के हाथों हार का सामना करना पड़ा। 2012 के चुनाव में उन्हें सिराथू विधानसभा और 2014 में फूलपुर लोकसभा चुनाव में विजय हासिल की।इस बार प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर भाजपा को सिरमौर बनाने पर वह देश के बड़े भाजपा नेताओ में शुमार हो जाएगे पर विपरीत परिस्थिति में उनका बलि का बकरा बनना तय है। ऐसे में उनका सब कुछ दांव पर है।

राजनाथ सिंह

बतौर गृहमंत्री और कभी-कभी प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में कार्यवाहक के तौर कार्य रहे राजनाथ सिंह को वैसे तो एक राज्य के चुनाव पर सब कुछ साख पर नहीं है। लेकिन यूपी में बतौर मुख्यमत्री छाप छोडने के अलावा यूपी राजनाथ सिह का गृहप्रदेश है। उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर पहली बार यूपी के कृष्णानंद राय हत्याकांड में उनके प्रदर्शन के बाद ही स्थापित किया गया था। उनके बेटे को भी इस बार टिकट मिला है और वह राजधानी लखनऊ के सांसद हैं। यूपी की शानदार समझ रखने वाले राजनाथ सिंह का पार्टी संगठन और राजनीति में सियासी कद क्या होगा यह यूपी चुनाव ही तय करेंगे। चर्चा तो यह भी है कि सरकार बनाने के स्थिति में वह मुख्यमंत्री के सबसे प्रबल दावेदारों में से एक हैं। यही वजह है कि राजनाथ सिंह का भी सब कुछ दांव पर है।    

स्वामी प्रसाद मौर्य

विधानसभा में करीब एक दशक तक बसपा की आवाज रहे स्वामी प्रसाद मौर्य अब हाथी से उतर कर भगवाधारी हो चुके हैं। मौर्य के बेटे भी मैदान में है पर उनकी बेटी को टिकट नहीं मिला है। मौर्य को सिर्फ बेटे की सीट ही नहीं जीतनी बल्कि अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास भी दिलाना है। उन्हें भाजपा से ज्यादा अपनी पुरानी पार्टी को यह एहसास दिलाना है कि उसने क्या खोया है। बसपा में मायावती पर सीधा हमला करने के बाद अब उनके पास वापसी का कोई रास्ता बचा नहीं है। सपा उन पर डोरे डाल कर थक चुकी है। ऐसे मे इस चुनाव मे अगर मनमुताबिक नतीजे लाने के लिए उनका सब कुछ दांव पर है।

बृजेश पाठक

कभी बसपा के ब्राह्मण चेहरे सतीश मिश्र के साये की तरह चलने वाले लोकसभा और राज्यसभा दोनों में सांसद रहे बृजेश पाठक अब भाजपाई हो गये हैं। उन्हें लखनऊ से उम्मीदवार बनाया गया है। उन्हें न सिर्फ अपनी सीट जीतनी है बल्कि ब्राह्मणो मे नेता बनने के लिए अपने राजनीतिक गुरु सतीश मिश्र से मुकाबला भी करना है। बसपा को यह साबित भी करना है कि ब्राह्मण नेता मतलब सिर्फ उनके गुरु ही नहीं है। ऐसे में उनका सब कुछ दांव पर होना लाज़मी है।  

रीता बहुगुणा जोशी

यह सियासत की बलिहारी है कि पीढियों से कांग्रेसी रही रीता बहुगुणा जोशी घुरविरोधी भाजपा की झंडाबरदार बन  गयी हैं। पार्टी ने उनको उसी सीट से उम्मीवार बना दिया है जहां से वह भाजपा के उम्मीदवार को हराकर माननीय बनी थीं। राजनाथ सिंह की सरपरस्ती उन्हें चाहिए जिनके खिलाफ वह चुनाव लड़ीं थीं। उन्हें भी सिर्फ अपनी सीट ही नहीं जीतनी बल्कि साबित करना है कि ब्राह्मण और पहाड़ी मतदाता में उनकी तूती बोलती है। यही कसौटी उनका सब कुछ दांव पर लगा रही है क्योंकि उनके मुकाबला मुलायम की छोटी बहू अपर्णा से हैं जो पहाड़ की ही हैं।

राहुल गांधी
उत्तर प्रदेश में कई बार किस्मत आजमा चुके राहुल गाधी के लिए इस बार चुनाव अंग्रेजी की कहावत ‘नाउ ओर नेवर’ बन चुके हैं। उन्होंने पार्टी की सेहत सुधारने के लिए खाट पंचायत की, मोदी कैप से नीतिश कुमार के कैंप मे पहुचें चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को आजमाया, 27 साल यूपी बेहाल का नारा दिया और समाजवादी पार्टी के जूनियर पार्टनर की भूमिका भी स्वीकार कर ली। अब राहुल का जोर यूपी मे पटरी से उतर चुकी कांग्रेस को ट्रैक पर लाने पर है। यूपी में अल्पसंख्यक वोटों को कांग्रेस का दरवाजा दिखाने को बेताब राहुल का सब कुछ यूपी में दांव पर है।

प्रियंका गांधी

पहली बार प्रियंका गांधी ने यूपी के इस चुनाव मे रायबरेली और अमेठी से बाहर की भूमिका स्वीकार की है। यूपी चुनाव प्रियंका का पॉलिटिकल लांच है। सपा और कांग्रेस के गठबंधन में उन्हें ही प्रमुख रणनीतिकार माना जा रहा है। प्रियंका गांधी को लेकर रायबरेली मे इंदिरा की छवि होने की बात की जाती है। ऐसे में अपने गढ से बाहर प्रियंका गांधी के लिए यह चुनाव उनके लिए सब कुछ दांव पर लगने सरीखा है क्योंकि इसे उनके बड़े राजनीतिक आकार की नींव कहा जा सकता है।

मायावती

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का भी सब कुछ दांव पर है। उन्हें वोट ट्रांसफर का चमत्कार कहा जाता है पर पिछले लोकसभा चुनाव मे उनकी पार्टी का खाता नहीं खुला। उन्हें तकरीबन बीस फीसदी वोट मिले थे पर शिखर से शून्य तक का सफर उनके लिए डरावने सपने जैसा ही था। मायावती के काडर में भी सेंध लगी थी और पहली बार दलित वोट छिटककर दूसरी तरफ गया था। उनकी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर तक खतरे में आ गया। ऐसे मे विधानसभा चुनाव में न सिर्फ उन्हें वापसी करनी है बल्कि सरकार बनाकर उन्हे साबित करना है कि वह सिर्फ नाम की आयरन लेडी नहीं है।

अंबिका चौधरी

समाजवादी पार्टी के वाकपटु और मुलायम के बेहद करीबी अंबिका चौधरी अब हाथी पर सवार हो गये हैं। मुलायम के विश्वास पात्र होने का आलम यह है कि उन्हें चुनाव हारने के बाद विधानपरिषद के जरिए माननीय बनाया गया और बाद में मंत्री। अखिलेश युग मे ताल नहीं बिठा पाए पर वह बसपाई हो जाएगे यह किसी ने नहीं सोचा था। राजनीति में कुछ भी असंभव नही की तर्ज पर अंबिका चौधरी की नाटकीय एंट्री के बाद अब उन्हे अपनी सीट नहीं राजनीतिक वजूद के लिए लड़ना है ऐसे में उनका सब कुछ दांव पर है। कि

जयंत चौधरी

जयंत चौधरी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया. उच्च शिक्षा उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स एंड पॉलिटकिल साइंस से हासिल की. ब्रिटेन में पढ़ाई के बाद जयंत राजनीति मे आए और अपने पिता को छोटे से चौधरी बना दिया और खुद बन गये छोटे चौधरी। भाजपा से मिलकर संसद पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून के मुखर आलोचक जयंत ने उत्तर प्रदेश के नोएडा, ग्रेटर नोएडा,मथुरा, हाथरस आगरा और अलीगढ़ जैसे जिलों में बड़े किसान आंदोलनों का नेतृत्व किया. भट्टा पारसौल, बाजना और टप्पल में प्रदर्शनकारियों पर हुई कार्रवाई ने पूरे देश में बड़ी बहस का रूप ले लिया. सांसद के रूप में जयंत चौधरी ने स्टैंडिंग कमेटी ऑन कॉमर्स,एग्रीकल्चर एंड कॉमर्स. कमेटी ऑन एथिक्स, कंसल्टिव कमेटी ऑन फाइनेंस का भी प्रतिनिधित्व किया. वह क्लाइमेट पार्लियामेंट एंड ग्लोब इंडिया ऑर्गनाइजेशन के सक्रिय सदस्य भी हैं। राष्ट्रीय लोक दल के लिए वह केवल ब्लूप्रिंट नहीं तैयार कर रहे है बल्कि अपनी पार्टी का चेहरा भी हैं। उनके राजनैतिक भविष्य के लिहाज से उनका सब कुछ दांव पर है।
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छोटे दलो का मेल क्या बिगाड़ेगा बड़ो का खेल

 चुनाव की घोषणा होने से पहले जो छोटे दल अपने दम पर सरकार बनाने का दावा कर रहे थे। वही दल अब बड़ी पार्टियों से हाथ मिलाने की तमन्ना रखने लगे है। हालाँकि इन छोटे दलो ने 2012 विधानसभा ने राष्ट्रिय पार्टियों को नुकसान पहुचाया था लेकिन इस बार यही दल बड़ी पार्टियों का दामन थामने की तैयारियों में है और कुछ ने तो दामन थाम भी लिया है। लेकिन अपना रुतबा बरक़रार रखने के लिए छोटे दलो ने भी सियासी समर का खाका बनाना शुरू कर दिया है। आरएलडी , पीस पार्टी , आल इण्डिया मजलिस -ए -इत्तेहादुल मुसलमीन , ,जेडीयू , अपना दल के कृष्णा पटेल और अनुप्रिया पटेल के दो अलग अलग गुट ,रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया और भासपा समेत कई ऐसे दल है जो अकेले या समूह में ताल ठोकने को तैयार है। आइये जानते है की सियासी रण में छोटे दलो की क्या है तैयारियां।

बसपा से छीनेंगे दलित वोटबैंक ,भाजपा की करेंगे मदद
दलित वोट बैंक का वोटकटवा बनने के लिए रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया ने भी विधानसभा चुनाव के मैदान में अपने प्रत्याशी उतार दिए है। हालाँकि केंद्र सरकार में आरपीआई प्रमुख रामदास अठालवे मंत्री है और उत्तर प्रदेश की सियासी हवा का रुख समझते हुए कई बार उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन करने की इच्छा भी ज़ाहिर की। भाजपा के साथ होने वाला गठबंधन  20 -25 सीट के एवज़ में सिर्फ तीन चार सीट पार्टी की झोली में आने से नही हो सका। पार्टी के बड़े नेताओ की माने तो अब पार्टी का लक्ष्य अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतार कर बसपा में जाने वाले दलित पिछड़े वोटो को अपने खाते में लाना है। पार्टी के नेता रामदास अठालवे लव मैरेज को बढ़ावा देने की बात करते नज़र आये थे जबकि भाजपा लव जिहाद जैसे मुद्दों पर एंटी नज़र आती है। भले ही दोनों पार्टियों की सोच अलग हो लेकिन पार्टी के नेता कहते है कि आर पी आई प्रदेश में भाजपा के लिए दलित और पिछड़ा वोटबैंक में सेंध लगाएगी तो इसके बदले उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार में उन्हें जगह दी जाएगी।

2012 विधानसभा की तरह इस बार भी मजबूत सीट पर बनानी है पकड़
इस दल के अलावा संतकबीर नगर से विधायक डॉ अयूब की पीस पार्टी भी बड़ी पार्टियों से गठबंधन की चाहत रखती थी लेकिन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के बाद अब नए गठबंधन की कोई उम्मीद नज़र नही आती इसके लिए पार्टी ने अपने ही उम्मीदवारों को उतारने का मन बना लिया है। पिछली बार के आंकड़ो पर नज़र डाले तो अयूब की पीस पार्टी ने 2012 विधानसभ चुनाव में 4 सीट हासिल की थी लेकिन वो अपने विधायको को संभाल नही पाए नतीजा नेता बागी हो गए। इस बार पीस पार्टी कोई जोखिम नही लेना चाहती इसके लिए टिकट बटँवारा भी सोच समझ कर हो रहा है।


निगाह मुस्लिम वोटबैंक पर , अकेले दिखाएंगे दमख़म
मुस्लिम वोट बैंक को टारगेट करते हुए इस बार असद उद्दीन ओवैसी की आल इण्डिया मजलिस इत्तहादुल मुस्लेमीन भी मैदान में है।यह पहली बार है जब असद उद्दीन ओवैसी की पार्टी विधानसभा चुनाव में अपना दम दिखाएगी। विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी को झटका देने के लिए  आल इण्डिया मजलिस इत्तहादुल मुस्लेमीन ने खुद को मुसलमानो का हमदर्द बताते हुए ज़्यादा से ज़्यादा सीट पाने की कवायद शुरू कर दी। जिसके लिए पिछले दिनों ओवैसी ने लखनऊ में जनसभा की और फिर सड़को पर पैदल निकल कर आम जनता से मुलाक़ात की। माना जा रहा है की अगर मुस्लिम वोटबैंक मीम के खाते में आया तो समाजवादी पार्टी और पीस पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। मीम के प्रदेश अध्यक्ष तौहीद नजमी की माने पार्टी बिना गठबंधन ही मैदान में उतरने का  दम रखती है ।

कई दलो के समूह के साथ बड़ो को  टक्कर देने की कवायद
समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की चाहत रखने वाले  राष्ट्रिय लोकदल  ने भी सपा कांग्रेस गठबंधन के बाद अपने कदम वापस खींच लिए। पार्टी के छोटे चौधरी जयंत सिंह ने पहले तो समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की बात को राजनैतिक साज़िश करार दिया इसी दौरान अंदरखाने से खबर आयी की रालोद- सपा गठबंधन की बात चल रही है लेकिन कांग्रेस से गठबंधन होते ही रालोद फिर बैकफुट पर आ गयी और छोटे दलो के साथ हाथ मिला लिया। पार्टी के राष्ट्रिय महासचिव जयंत चौधरी मानते है की किसानों और आम जनता की बात करने वाले महान दल, एन सी पी ,जेडीएस ,जेडीयू और बीएस 4 का गठबंधन जनता के सामने बड़ी पार्टियों का विकल्प बन कर सामने आएगा।

आरक्षण मुद्दे पर भाजपा पर वार , पिछडो के वोटबैंक पर नज़र
अपना दल के एक गुट कि नेता और केद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की बहन पल्लवी पटेल भी दलित और पिछड़ा वोट पाने की रेस में है। विधानसभा चुनाव में अनुप्रिया पटेल को भाजपा का साथी बता कर पिछड़ा वोट अपने पाले में लाने के लिए पल्लवी पटेल ने पिछडो के हक़ में आवाज़ उठानी शुरू कर दी है।आरक्षण के मुद्दे पर अपनी बहन और धुर विरोधी पार्टी की नेता अनुप्रिया पटेल को भाजपा के हाथ की कठपुतली भी करार दिया जिससे वोटरों पर फर्क पड़ना तय है।   पल्लवी ने कुछ दिन पहले ही कहा था की भाजपा आरएसएस के एजेंडे पर ही काम करती है। अंदरखाने की माने तो अगर गठबंधन होता है तो पल्लवी कांग्रेस के साथ जाएँगी। फ़िलहाल पल्लवी ने विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार कर रखी है।जानकारों की माने तो इस लिस्ट में दलित और पिछड़े वर्ग को ज़्यादा तरजीह दी गयी है।


पीला - केसरिया मिल कर लड़ेगा राम मंदिर की लड़ाई
बीजेपी के राम मंदिर के सपने को पूरा करने का बीड़ा ओम प्रकाश राजभर की पार्टी भासपा ने उठाया है अगर भाजपा और भासपा का गठबंधन होता है तो विधानसभा चुनाव में भासपा का खाता खुलना तय है।और पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने यह साफ़ भी कर दिया है की अगर भाजपा के केसरिया झंडे के साथ पिला झण्डा मिलता है तो उनकी पार्टी भाजपा के  साथ मिलकर राममंदिर बनाने की लड़ाई लड़ेंगे। देखा जाये तो अगर भाजपा और भासपा की दोस्ती अगर चुनाव तक तय हो जाए तो इस चुनाव में सपा- बसपा मुक्त प्रदेश के नारे को भी मज़बूती मिलेगी।पूर्वांचल में 122 ऐसी सीट है जहा अपने वोटबैंक की वजह से पार्टी की पकड़ बहुत मज़बूत है। पूर्वांचल की 67 सीट ऐसी है जहा एक लाख राजभर समाज के वोटर है जो ओमप्रकाश के लिए फायेमंद साबित हो सकते है। राजभर ने भी उत्तर प्रदेश के सियासी समर में विरोधियो को मात देने की योजना बनानी शुरू कर दी है बस इंतज़ार तो भाजपा की हामी का है जिसके बाद भासपा अपने उम्मीदवार मैदान में उतार कर अपना दमखम दिखाएगी।

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अपने ही तो है , दागी हैं तो क्या हुआ
 "ये तेरा दाग ये मेरा दाग मेरा दाग़ तेरे दाग से बेहतर है  " उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ ऐसी ही इबारत लिखी जा रही हैं. विधान सभा चुनाव 2017 के लिए सभी दलों ने बाहुबलियों को अपना दम ख़म दिखाने का मौक़ा दिया है. सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भले ही दागियों को पार्टी से दूर रखने का एलान किया हो लेकिन दागियों और बाहुबलियों को टिकट देने में वो पीछे नहीं हैं. वहीँ भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी दागियों को गले लगाने से परहेज़ नहीं किया है.
यूपी विधान सभा चुनाव 2012 में डीपी यादव को पार्टी में शामिल किये जाने के खेलाफ खड़े होने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विधान सभा चुनाव 2017 के लिए टिकट बटवारे में "गुड़ खाये गुलगुले से परहेज़" वाली कहावत पर अमल किया है. माफिया मुख्तार अंसारी के भाई अफ़ज़ाल अंसारी की क़ौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय को लेकर मुखर विरोध करने वाले सीएम ने फैज़ाबाद की गोसाईंगंज सीट से माफिया अभय सिंह, फरुखाबाद से विजय सिंह, टाण्डा अम्बेडकरनगर से अज़ीमुलहक़ पहलवान, शाहजहांपुर से राममूर्ती वर्मा, गोण्डा से सीएमओ अपहरणकांड के आरोपी विनोद कुमार सिंह उर्फ़ पंडित सिंह, एलएलबी की छात्रा शशि अपहरण व हत्याकांड के आरोपी आनन्द सेन और आईपीएस को थप्पड़ मारने वाले पवन पांडेय को फैज़ाबाद से टिकट दिया है. इन दागियों पर कई संगीन अपराध पुलिस के रजिस्टर में दर्ज हैं लेकिन क्योंकि ये अपने हैं इस लिए इन के दाग अच्छे हैं
 
जिन दागियों को टिकट नहीं मिला
समाजवादी परिवार में अंसारी बंधुओ को लेकर भूचाल आया था दरअसल समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने क़ौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय करा दिया था इसी विलय को लेकर सीएम् अखिलेश यादव विरोध कर रहे थे. अब जब की समाजवादी पार्टी पर अखिलेश यादव का एक छत्र राज है तो अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमनमणि त्रिपाठी,  ज्ञानपुर भदोही से विधायक विजय मिश्रा, कानपुर कैंट से अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी के भाई सिकबाततुल्लाह अंसारी का टिकट काट दिया गया है. ये सभी शिवपाल सिंह यादव खेमे के बताये जाते हैं.

भाजपा भी दागियों पर मेहरबान
उत्तर प्रदेश विधान सभा 2017 में भारतीय जनता पार्टी के लिए भी करो या मारो वाली स्थिति है. यही वजह है की भारतीय जनता पार्टी "साम - दाम दण्ड - भेद" पर अमल कर रही है. भारतीय जनता पार्टी ने इस बार सीधे दागियों को चुनावी मैदान में उतारने के बजाये बेटे, बहू या बीवी को उम्मीदवार बनाया है. भाजपा ने कर्नेलगंज से अजय प्रताप सिंह उर्फ़ लल्ला भैया, गोंडा से ब्रजभूषण शरण सिंह के बेटे प्रतीक भूषण, आज़मगढ़ की फूलपुर सीट से रमाकांत यादव के बेटे अरुण यादव, हमीरपुर से अशोक सिंह चंदेल और इलाहबाद की मेजा सीट से माफिया उदय भान करवरिया की पत्नी नीलम करवरिया को टिकट से नवाज़ा है. हालांकि पार्टी विद डिफ़रेंस का दावा करने वाली भाजपा के खुद प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या पर क़रीब डेढ़ दर्जन मुक़दमे दर्ज है साथ ही उन की डिग्री को लेकर भी विवाद है। 

दागियों से बहनजी को भी गुरेज़ नहीं
"चढ़ गुंडों की छाती पर - मुहर लगाओ हाथी पर" नारे के ज़रिये 2007 के विधान सभा चुनाव में विजय पताका फहराने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती भी दागियों पर मेहरबान हैं. चिल्लूपार गोरखपुर से हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी,  लैकफेड के आरोपी रंगनाथ मिश्रा भदोही, बेहट सहारनपुर से मोहम्मद इक़बाल, बुलंदशहर से अलीम खान समेत क़रीब एक दर्जन सीटों पर दागियों को बहुजन समाज पार्टी ने गले लगाया है। 

राष्ट्रीय लोक बना दागियों का ठिकाना
विधान सभा चुनाव में सत्ताधारी दल से गठबंधन की आस लगाए राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह सब को गले लगा रहे हैं बुलंदशहर की डिबाई सीट से विधायक भगवान शर्मा उर्फ़ गुड्डू पंडित सपा से 2012 का विधान सभा चुनाव जीते थे. लेकिन फिर भाजपा में शामिल हो गए भाजपा से टिकट नहीं मिला तो वापस सपा में जाने की कोशिश की और अब उन का ठिकाना अब राष्ट्रीय लोक दल हैं भगवान् शर्मा के साथ उन के भाई मुकेश शर्मा को भी आरएलडी ने उम्मीदवार बनाया है. इसी तरह सोनू मोनू भी सुल्तानपुर से राष्ट्रीय लोक दल उम्मीदवार हैं। 


निर्दलीय दागी रहे हैं जनता की पसंद
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव 2017 में एक तरफ जहाँ राजनितिक दलों ने दागियों को गले लगाया है तो कई निर्दलीय भी किस्मत आज़माने जा रहे हैं. इन में कुछ नाम ऐसे हैं जो पहले भी निर्दल चुनाव लड़ कर विजय पताका फहराते रहे हैं इन्हें में रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया। अखिलेश सरकार में कैबिनेट मंत्री राजा भैया पर प्रतापगढ़ में तैनात डिप्टी एसपी जियाउलहक की ह्त्या का आरोप लगा जिस के बाद उन को कैबिनेट से हटा दिया गया था सीबीआई से क्लीन चिट मिलते ही राजा भैया को दोबारा अखिलेश कैबिनेट में ले लिया गया. इस लिस्ट में आगरा जेल में बंद माफिया मुख्तार अन्सारी का नाम भी शामिल है. जो कभी साइकिल तो कभी हाथी और कभी निर्दल चुनाव जीतते रहे हैं 2012 के विधान सभा चुनाव में राजा भैया 88,285 वोटों से जीते थे.
सियासत में न कोई स्थाई दोस्त होता है और ना ही कोई दुश्मन होता है यहाँ तो बस सीट जीतने की जुगत काम आती ऐसे में हर दल दुसरे के दागी पर तो जम कर निशाना साध रहे हैं लेकिन अपने दाग को कुछ इस तरह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं की "कुछ दाग़ अच्छे होते हैं" 


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यूपी: 403 सीटें, लेकिन आज तक 35 का आंकड़ा पार नहीं कर पाईं महिलाएं



महिला सशक्तिकरण को लेकर पूरे साल लम्बे-चौड़े वादे करने वाले राजनीतिक दल हर चुनाव में महिलाओं को विधानसभा में भेजने के मामले में पीछे क्यों हट जाते हैं, यह एक अहम सवाल है? चुनावी सच तो यह है कि हर बार महिलाओं को उपेक्षा का शिकार होना ही पड़ता है। अब यूपी में 17वीं विधानसभा का गठन होने जा रहा है। देखना है कि टिकट देने के मामले में इन राजनीतिक दलों के दावे कितने हकीकत में बदलते हैं। अबतक के हुए चुनावों में तो यह दावे सच्चाई से काफी दूर रहे हैं।


16वीं विधानसभा में 35 महिला विधायक
 साल 2012 विधानसभा चुनाव पर यदि गौर किया जाए तो सभी दलों को मिलाकर चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की कुल संख्या 583 थी।
 अब तक के विधानसभा चुनावों में पिछली यानी 16वीं विधानसभा ही ऐसी थी, जिसमें सबसे अधिक 35 महिलाएं विधायक बनीं।
इससे अलावा 1985 की विधानसभा ही ऐसी थी, जिसमें इतनी ज्यादा यानी कि 31 महिलाओं ने विधानसभा में प्रवेश किया था।
15वीं विधानसभा का ये रहा हाल
यही हाल इसके पहले 2007 में गठित हुई 15वीं विधानसभा का भी था।
 इस चुनाव में कुल 6086 उम्मीदवारों में सिर्फ 370 महिलाएं ही थीं।
यह आंकडा जरा भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इसमें 126 निर्दलीय उम्मीदवार थे, जबकि छह बड़े दलों के 1225 उम्मीदवारों में सिर्फ 90 महिलाएं थी।
 क्षेत्रीय पार्टियों के 647 उम्मीदवारों में सिर्फ 47 महिलाएं थी। कुल 370 उम्मीदवारों में जीतने की दर साढ़े पांच फीसदी के आसपास थी।


2012 की क्या रही स्थिति
बीजेपी
 बीजेपी ने सबसे अधिक महिला प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा था।
 कुल 40 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा, जिसमें से केवल छह महिला प्रत्याशी ही विधायक बन सकीं।
समाजवादी पार्टी
34 महिलाओं को टिकट दिया, जिसमें 18 महिलाएं विधायक बनीं।
बसपा
33 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा तो सिर्फ तीन महिला प्रत्याशी ही चुनाव जीत सकीं।
कांग्रेस
 28 महिलाओं को इस चुनाव में टिकट दिया उसमें से केवल 4 महिलाओं विधानसभा की चौखट तक पहुंच सकी।


2007 में क्या थी स्थिति
 इसके पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में 182 महिलाएं चुनाव लड़ीं थीं। इसमें से 23 महिलाएं चुनाव जीती थीं।
 इसमें भी 6 सपा से, 10 बीएसपी से, कांग्रेस से 1, 1 राष्ट्रीय लोक दल से और भाजपा से 5 महिला विधायक जीती थीं।

2002 से 1957 तक यह थी महिलाओं की विधानसभा में स्थिति

- 2002 के चुनाव में 26 महिलाएं विधायक बनीं।
- 1996 के चुनाव में 20 महिला विधायक बनीं।
- 1993 के चुनाव में 14 महिला विधायक बनीं।
- 1991 के चुनाव में 10 महिला विधायक बनीं।
- 1989 के चुनाव में 18 महिला विधायक बनीं।
- 1985 के चुनाव में 31 महिला विधायक बनीं।
- 1980 के चुनाव में 23 महिला विधायक बनीं।
- 1977 के चुनाव में 11 महिला विधायक बनीं।
- 1974 के चुनाव में 21 महिला विधायक बनीं।
- 1969 के चुनाव में 18 महिला विधायक बनीं।
- 1967 के चुनाव में 06 महिला विधायक बनीं।
- 1962 के चुनाव में 20 महिला विधायक बनीं।
- 1957 के चुनाव में 18 महिला विधायक बनीं।
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