दबाव में तड़पने लगी है जिंदगी

दबाव में तड़पने लगी है जिंदगी

दबाव में तड़पने लगी है जिंदगी 
संजय तिवारी 
तो क्या जिंदगी सच में दबाव  में तड़प रही है ? आखिर यह कैसा समय आ गया ? कौन सा दबाव है जिसको अब चोटी के आध्यात्मिक लोग भी नहीं सह पा रहे हैं ? समाज में जो सर्वाधिक सफल दीखते है आखिर विफल क्यों हैं अपने निजी जीवन में ? धन , दौलत , शोहरत सब तो कमाया है इन सबने।  फिर भी आत्महत्या ? 12 मई से 12 जून के बीच वैसे तो अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन तीन घटनाओ ने देश को झकझोर सा दिया है। इन घटनाओ की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसी बीच अनेक विद्यार्थियों ने भी आत्महत्याएं की हैं। आत्महत्या की यह प्रवृत्ति वास्तव में चिंता में डालने वाली है। इस पर सोचने और उचित कदम उठाने का समय शायद आ चुका है। यह कही न कही भौतिकता की तरफ हमारी अंधी दौड़ का परिणाम भी हो सकता है। क्योकि इस दौर में हमारे समाज ने मानवीय गुणों , योग्यताओ , संवेदनाओ आदि सद्गुणों की अनदेखी करते हुए केवल बहुतिक उपलब्धियों की तारीफ़ करनी शुरू कर दी है। ऐसे में संवेदनशील शरीर शायद इस हालात में खुद को अनुपयुक्त पाने लगे हैं। अधिकाँश मनोवैज्ञानिक और  समाजशास्त्री मान रहे हैं कि समाज में जितनी नकारात्मकता बढ़ी है उसका असर हर परिवार पर पड़ा है। जो मुखिया है वह कई प्रकार के दबावों में है। समाज की जिम्मेदार संस्थाएं स्वयं क्षत विक्षत हैं। ऐसे में इस तरह की घटनाओ का होना आश्चर्यजनक नहीं है। अभी जिस तरह के हालात हैं ,इनमे ऐसी घटनाएं और  बढ़ने वाली हैं। पहले तीन प्रमुख घटनाओ को जानते हैं , फिर दुनिया के मनोवैज्ञानिकों के विश्लेषण पर बात करते हैं। 


भय्यूजी महाराज 
ग्लैमर की चकाचौँध छोड़ शांति की तलाश में आध्यात्म की राह अपनाने वाले भय्यूजी महाराज ने मंगलवार को खुदकुशी कर ली। खुदकुशी से पहले एक कागज पर उन्होंने लिखा- 'बहुत ज्यादा तनाव में हूं, छोड़ कर जा रहा हूं।' इसके बाद भय्यूजी ने अपनी बंदूक से खुद को गोली मार ली। जब तक अस्पताल लेकर पहुंचे तब तक भय्यूजी इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। भय्यूजी महाराज के लाखों-करोड़ों चाहने वाले थे। देश की नामी हस्तियां उनसे मिलने आती थीं। लेकिन फिर भी अकेलेपन से वो पार न पा सके और जिंदगी खत्म कर ली।
भय्यूजी पहली नामी शख्सियत नहीं हैं, जिन्होंने आत्महत्या की।


 दो जांबाज पुलिस अफसर 
 मई महीने में देश के दो जाबांज अफसरों ने भी खुद को गोली मारकर जिंदगी खत्म कर ली। पहले मुंबई के सुपरकॉप कहे जाने वाले हिमांशु रॉय तो दूसरे यूपी एटीएस के अफसर राजेश साहनी। हिमांशु रॉय ने 12 मई को मुंबई में अपने घर में खुद को गोली मार ली तो वहीं राजेश साहनी, 29 मई को उनके दफ्तर में मृत मिले। खास बात ये है कि हिमांशु रॉय की मौत को आज पूरा एक महीना हुआ है। एक महीने में तीन हस्तियों ने अपनी जिंदगी खत्म कर ली।

हिमांशु थे सुपरकॉप
मुंबई के पुलिस विभाग में संयुक्त आयुक्त (अपराध शाखा) एवं आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) जैसी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभा चुके हिमांशु रॉय 1988 बैच के आईपीएस अधिकारी थे। 23 जून, 1963 को मुंबई में ही जन्मे एवं पले-बढ़े रॉय की गिनती हाल के दिनों के तेजतर्रार पुलिस अधिकारियों में होती थी। उनके नेतृत्व में कई महत्त्वपूर्ण मामलों का खुलासा हुआ।मुंबई पुलिस में साइबर क्राइम विभाग की स्थापना भी उन्होंने ही तत्कालीन पुलिस आयुक्त डी.शिवनंदन के सुझाव पर की थी। इसके अलावा हिमांशु कई महत्वपूर्ण मामलों से भी जुड़े रहे थे। 2013 के आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग मामले की जांच का श्रेय हिमांशु रॉय को ही जाता है। रॉय 2008 में मुंबई पर हुए आतंकी हमले की जांच टीम का भी हिस्सा रहे। 11 जुलाई, 2006 को पश्चिम रेलवे की उपनगरीय ट्रेन में हुए सिलसिलेवार धमाकों की जांच में रॉय शामिल रहे थे। इन धमाकों में 209 लोग मारे गए थे, 700 घायल हुए थे। लेकिन इतने बहादुर अफसर भी अकेलेपन से पार न पा सके और जीवन लीला समाप्त कर ली।

राजेश साहनी की मुस्कुराहट के पीछे था अकेलापन ?
पुलिस महकमे में साहनी ऐसे चंद अफसरों में शुमार थे, जो किसी तरह के विवाद और चर्चाओं से दूर थे। तमाम व्यस्तताओं के बीच उनका चेहरा हमेशा मुस्कराता रहता था। महकमे के साथी हों या फिर मीडियाकर्मी सब उनके कायल थे। 1992 बैच के पीपीएस सेवा में चुने गए राजेश साहनी 2013 में अपर पुलिस अधीक्षक बने थे। वह मूलतः बिहार के पटना के रहने वाले थे।

1969 में जन्मे राजेश साहनी ने एमए राजनीति शास्त्र से किया था। राजेश साहनी ने बीते सप्ताह आईएसआई एजेंट की गिरफ्तारी समेत कई बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया था। उत्तर प्रदेश पुलिस के काबिल अधिकारियों राजेश साहनी की गिनती होती है। बीते सप्ताह आईएसआई एजेंट की गिरफ्तारी समेत कई बड़े ऑपरेशन को राजेश साहनी ने अजाम दिया था। राजेश साहनी 1992 में पीपीएस सेवा में आए थे। 2013 में वह अपर पुलिस अधीक्षक के पद पर प्रमोट हुए थे। इतनी काबिलियत और जुनून के बावजूद राजेश साहनी अकेलेपन की भेंट चढ़ गए।


जिंदगी इतनी सस्ती तो नहीं !
इन तीनों हस्तियों के जीवन को देखें तो शायद ही कोई कमी नजर आए। एक इंसान को जिस पद, प्रतिष्ठा और पैसे की चाह होती है, वो भय्यूजी महाराज से लेकर साहनी तक तीनों के पास था। लेकिन फिर भी तीनों की मौत का कारण पहली नजर में अवसाद यानी तनाव है। वो तनाव जिसने इन तीनों को भरी दुनिया में अकेला कर दिया। इसीलिए जरूरी है कि आप भी जीवन ने तनाव न लें और खुद को अकेलेपन का शिकार होने से भी बचाएं।

आत्महत्या का मनोविज्ञान
बहुमूल्य जीवन को लोग आखिर क्यों गँवाते हैं? वे कौन से कारण हैं, जिनकी वजह से लोग आत्महत्या करते है? आत्महत्या के इन कारणों को व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों में तलाश करते हुए सुविख्यात फ्रांसीसी समाज शास्त्री एमिल दुर्खिम कहते हैं कि आत्महत्या बहुत कुछ व्यक्ति का समाज के साथ सम्बन्ध, समाज की स्थिरता, अस्थिरता और समाज में संव्याप्त मूल्यों पर निर्भर करती है, जिससे कि व्यक्ति घिरा होता है। इस आधार पर अपनी पुस्तक ‘द स्यूसाइड’ में वह आत्महत्या को तीन रूपों में वर्गीकृत करते हैं, 
(1) एनामिक स्यूसाइड 
(2) इगोइस्टिक स्यूसाइड 
 (3) इल्ट्रइस्टिक स्यूसाइड।
एनामिक स्यूसाइड तब होते हैं, जब सामाजिक संतुलन बुरी तरह से प्रभावित होता है। अमेरिका में 1931 के दौरान ‘ग्रेट डिप्रेशन’ का एक युग आया। जिसमें आत्महत्या की दर 10 से 16 प्रतिशत बढ़ गई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अपने शत्रु से घिरे आस्ट्रियावासियों में आत्महत्या की यह वृत्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ी थी। आतंकवाद से ग्रसित कश्मीर घाटी में भी इसी तरह से आत्महत्याओं को देखा जा सकता है। जिनकी संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। ‘द स्टेट्स ऑफ हेल्थ इन कश्मीर’ के नाम से छपे शोध पत्र में यह रहस्योद्घाटन छपा है कि आत्महत्या करने वाले अधिकाँश लोगों में किसी तरह के शारीरिक या मानसिक रोग की पूर्व शिकायत की थी। दुर्खिमब् ने विभिन्न देशों में अलग-अलग मानसिक कालखंडों में किए गए अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि विषम सामाजिक परिस्थितियों के अभाव के समय, आत्महत्या के विरुद्ध सबसे बड़ा सुरक्षा दल दूसरे लोगों के साथ मेल जोल व ऐक्य भाव होता है। आधुनिकतम अध्ययन की पुष्टि करता है।

स्यूसाइड में व्यक्ति अपने समाज के साथ साथ यहाँ बिना पाता है । स्वयं को अलग थलग व असहाय अनुभव करता है। समूह या परिवार से दृढ़ पाकर उचित नहीं कर पाता। समाज का नियंत्रण उस पर कठोर होता है। यह स्थिति किसी शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न भी हो सकती है।

आत्महत्या का तीसरा स्वरूप है एल्ट्रइस्टिक स्यूसाइड। किसी समाज या संस्कृति के मूल्य उसके व्यवस्था तंत्र के कारण होते हैं। इन मूल्यों में गड़बड़ी के कारण व्यक्ति समाज या अपने परिवार कुटुँब के बंधनों में इतना जकड़ जाता है कि उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं बचता। अपने देश, जाति व समाज के नाम पर भावावेश में वह प्राणों का उत्सर्ग कर देता है भारत की सतीप्रथा व जापान की हाराकिरी इसके उदाहरण है। वियतनाम युद्ध में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा आत्महत्या व 1907 में जिम जोन के सौ से भी अधिक अनुयायियों द्वारा युयाना में आत्महत्या इसी के अन्य उदाहरण हैं।

आत्महत्या एक आक्रमण कृत्य
मनःविशेषज्ञों के अनुसार आत्महत्या एक आक्रमण कृत्य है, जिसमें व्यक्ति का स्वयं को समाप्त करने के पीछे दूसरों को दुख देने का भाव निहित रहता है। सिम फ्रायड ने आत्महत्या पर सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक अध्ययन व शोध किया था। फ्रायड ने इसे आक्रामक वृत्ति का रूप माना है, इस कृत्य द्वारा व्यक्ति कल्पना में अपने नियम व आदर्श व्यक्ति पर प्रकार कर सुखानुभूति पाता है। स्वयं को समाप्त कर मानता है कि उसने उस व्यक्ति को खत्म कर दिया, जिसमें उसने अपनी पहचान बनाई फ्रायड का मानना था कि आत्महत्या किसी को मारने को नहीं इच्छा से पूर्व दमन के अभाव में नहीं हो सकती है। प्यार न मिल पाना भी व्यक्ति को आत्महत्या की ओर उकसा सकता है।

रचनात्मक पक्ष पर उसके ध्वंसात्मक पक्ष की जीत
कार्ल मेनिंजर के अनुसार आत्महत्या व्यक्ति के रचनात्मक पक्ष पर उसके ध्वंसात्मक पक्ष की जीत है। मेनिंजर के अनुसार जीने की इच्छा ‘सुपर ईगो’ में विद्यमान स्वाभिमान के भाव पर निर्भर करती है। जब यह स्वाभिमान किसी भी कारण वश न्यून हो जाता है, तो आहत व्यक्ति भूखे व परित्यक्त शिशु की स्थिति में स्वयं को पाता है। जो समाविष्ट वस्तु का विनाश चाहता है। आत्महत्या क्षरा उस प्रिय वस्तु के नाश में सफल हो जाता है। जिसके समावेश ने सुपर ईगो की रचना में सहायता की थी। अपनी पुस्तक ‘मैन एगेन्स्ट हिमसेल्फ’ में मेनिंजर लिखते हैं कि व्यक्ति में किसी के प्रति हिंसा की भावना का अंत तीन रूपों में होता है, (1) मारने की इच्छा (2) मारे जाने की इच्छा और (3) मरने की इच्छा।

मनोवैज्ञानिक एल्फ्रेड एडलर आत्महत्या के कारण के रूप में मन में चल रहे द्वंद्वों की अपेक्षा व्यक्ति एवं समाज के बीच संबंधों को अधिक महत्व देते हैं। सामाजिक संबंध के बिना जीवन निरर्थक एवं निरुद्देश्य हो जाता है और आत्महत्या की ओर प्रेरित होता है।

मानव मन के मर्मज्ञ बौमेस्टर आत्महत्या को स्व से बचने या भागने का प्रयास का परिणाम मानते हैं। अपनी गलतियों कमियों व दुर्बलताओं के असहनीय अनुभवों के बोध से भागते ऐसे लोग अंततः ऐसी स्थिति में प्रवेश कर जाते हैं, जिसमें आत्महत्या के दुष्परिणाम के बारे में सोचने का अधिक श्रम करने की परवाह नहीं करते।

सुविख्यात मनीषी रोला के अनुसार मृत्यु ही जीवन को पूर्ण मूल्य देती है। अतः मृत्यु की निश्चितता हमें जीवन को गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित करती है, जिससे कि हम अपनी क्षमताओं व शक्तियों का अधिकतम विकास व उपयोग कर सकें। इस संदर्भ में आत्महत्या जीवन से हार व इसे वृथा बरबाद करने का कृत्य है, क्योंकि इससे जीवन की समूची क्षमताओं की अनुभूति पर तुषारापात हो जाता है।

ब्राँस के अनुसार सभी आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि छोटी -छोटी आत्महत्याओं द्वारा बनती है। जिनमें व्यक्ति दूसरों से कटता जाता है, जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेता है और जीवन मूल्यों की खोज बंद कर देता है। इस तरह आत्महत्या का अंतिम कुकृत्य अवास्तविक निर्णयों की एक लंबी शृंखला का परिणाम होता है।

एबनॉर्मल साइकोलॉजी इरविन और बखरा सरासान लिखते हैं कि 9 प्रतिशत व्यक्ति आत्महत्या करते समय किसी न किसी मनोरोग के शिकार होते हैं। मनोरोग में अवसाद व मूढ़ विकास को प्रमुख कारण माना गया है। इसके बाद व्यक्तित्व दोष एवं मादक द्रव्यों के सेवन को भी आत्महत्या का प्रमुख कारण बतलाया गया है। व्यक्तित्व दोष में समस्या के समाधान में अक्षमता, रचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव, बिगड़े अंतर्वैयक्तिक संबंध, शरीर व मनःरोगों पर नियंत्रण का अभाव, सामाजिक सामंजस्य का अभाव आदि हो सकते हैं। अमेरिका में ऐसे 2379 व्यक्तियों पर किए गए अध्ययन के दौरान पाया गया है कि इनमें 98 प्रतिशत किसी न किसी प्रकार से रुग्ण थे। इनमें 94 प्रतिशत मनःरोग से पीड़ित थे।

एक आश्चर्यजनक तथ्य अध्ययन के दौरान उभरकर आया है कि अवसाद की गहनतम दशा से उबरने के दौरान ही आत्महत्या के अधिकाँश निर्णय लिए जाते हैं। अवसाद की घटना के दौरान मात्र एक प्रतिशत खतरा होता है, जबकि इससे राहत के दौर में खतरा 15 प्रतिशत अधिक बढ़ जाता है।

तीन श्रेणियां
‘एबनॉर्मल साइकोलॉजी एंड मॉर्डन लाइफ’ पुस्तक के अंतर्गत फारवेदी और लिएमेन आत्महत्या करने वाले को 3 श्रेणी में विभाजित करते हैं। प्रथम श्रेणी वाले वास्तव में मरना नहीं चाहते। वे दूसरों पर अपने विषाद व आत्महत्या के विचार को व्यक्त करना चाहते हैं। ये न्यूनतम जहर न्यून जख्म या ऐसे ही गैरघातक तरीके अपनाते हैं और बचाव की पर्याप्त तैयारी रखते हैं। आत्महत्या का प्रयास करने वालों में दो तिहाई लोग इसी वर्ग में आते हैं। दूसरे श्रेणी के लोग मरने के लिए कृत संकल्पित होते हैं और कोई संकेत नहीं छोड़ते। ये अधिक घातक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इस वर्ग में तीन से पाँच प्रतिशत लोग ही आते हैं। तीसरी श्रेणी में लोग अनिश्चित मनःस्थिति में रहते व मौत को भाग्य के हाथ छोड़ देते हैं। इसमें 3 प्रतिशत लोग आते हैं। इनके उत्प्रेरक कारण मनचाही वस्तु का खो जाना, जीवन में अर्थहीनता, आर्थिक समस्या, बिगड़े संबंध आदि कुछ भी हो सकते हैं, जिनमें समाधान की कुछ आशा शेष नहीं रहती है।

मानसिक दुर्बलता का परिणाम
आत्महत्या के जैविक कारणों पर भी वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के मनोचिकित्सक जे जॉन मान, वर्षों लंबे शोध के आधार पर आत्महत्या को गहरे विषाद का परिणाम नहीं बल्कि मानसिक दुर्बलता का परिणाम बताते हैं, जिसके कारण व्यक्ति भावनात्मक आवेग को सहन नहीं का पाता और इसके प्रवाह में बह जाता है। डॉ. मान आत्महत्या की प्रवृत्ति की जड़ मस्तिष्क के विशेष भाग प्रिफ्रंटल कॉर्टेक्स में तलाशते हैं मस्तिष्क का यही भाग मानवीय भाव संवेदनाओं की गंगोत्री है। इसी में सेराटॉनिन नामक न्यूरोट्राँसमीटर पाया जाता है। डॉ. मान की शोध के अनुसार सेराटॉनिन की मात्रा जितनी कम होगी, व्यक्ति आत्महत्या के लिए उतना ही अधिक उद्यत होगा। शराब सेवन करने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क में देखा जाता है कि सेराटॉनिन का स्राव कम होने लगता है। यही कारण है कि शराब पीने वालों में आत्महत्या की संख्या अधिक होती है।

आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद 
‘एबनॉर्मल साइकोलॉजी- करेंट परस्पेक्टिव’ में रिचार्ड बूटनिम और जॉन रोस आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद को मानते हुए कहते हैं कि इस स्थिति में आत्महत्या के विचार से शायद ही कोई बच पाता हो। सबसे उन्मत्त से लेकर सबसे सौम्य एवं विचारशील व्यक्ति तक जीवन में हताशा-निराशा के दौर में ऐसे विचारों की चपेट में आ सकता है। फ्रायड जैसा मनोचिकित्सक तक इस विचार से अछूता नहीं रह पाया। 39 वर्ष की आयु में ऐसे ही एक दौर में अपने एक आत्मीय संबंधी के नाम उसने लिखा था कि लंबे समय से मेरे मन में जीवन को समाप्त करने का विचार उठ रहा है, जो तुम्हारे खोए जाने की घटना से अधिक दर्द भरा नहीं है। विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक व भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस राधाकृष्णन ने लिखा है कि विधेयात्मक विचारों के अभाव में हर व्यक्ति अपने जीवन में एक बार आत्महत्या की बात अवश्य सोचता है।

जीवन बहुमूल्य और बेशकीमती है
आत्महत्या के विचार एवं इसके वीभत्स कृत्य के बीच की दूरी व्यक्ति की संघर्ष शक्ति व जीवटता द्वारा निर्धारित होती है। जो कि आधुनिक युग में भोग लिप्सा एवं प्रगति की अंधी दौड़ में बेतहाशा निचुड़ती जा रही है। इसका रहस्य आत्मसंयम- सादगी व उदारता सहिष्णुता वाली जीवनशैली में निहित है। आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को अपनाकर ही हम आत्महत्या के विचार प्रवाह को ध्वस्त कर पाएँगे व आत्महत्या की बाढ़ को थाम पाएँगे और तभी मालूम हो सकेगा कि जीवन बहुमूल्य और बेशकीमती है।
अपने उपनिषदों पर गर्व कीजिये ,  व्यवस्था बनाइये

अपने उपनिषदों पर गर्व कीजिये , व्यवस्था बनाइये

अपने उपनिषदों पर गर्व कीजिये ,  व्यवस्था बनाइये 
संजय तिवारी 
उपनिषद् केवल  भारतीय जिज्ञासुओं के लिए ही अद्भुत नहीं हैं बल्कि  अनेक पाश्चात्य विद्वानों को भी उपनिषदों को पढ़ने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ है। तभी वे इन उपनिषदों में छिपे ज्ञान के उदात्त स्वरूप से प्रभावित हुए है। इन उपनिषदों की समुन्नत विचारधारा, उदात्त चिन्तन, धार्मिक अनुभूति तथा अध्यात्मिक जगत् की रहस्यमयी गूढ़ अभिव्य्क्तियों से वे चमत्कृत होते रहे हैं और मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा करते आये हैं।लगभग पूरा पश्चिम आज उपनिषद् से प्रभावित भी है और इस बारे में अधिक से अधिक जानना चाहता है। ये तो हम भारतीय है जो लगातार पश्चिम की ओर मुँह उठाये कुछ पाना चाहते हैं। ज़रा पश्चिम को देखिये किस तरह से वह भारत के इस ज्ञान के लिए जिज्ञासु है और पा लेने के लिए लालायित है। 
भारतीय-संस्कृति की प्राचीनतम एवं अनुपम धरोहर के रूप में वेदों का नाम आता है। 'ॠग्वेद' विश्व-साहित्य की प्राचीनतम पुस्तक है। मनीषियों ने 'वेद' को ईश्वरीय 'बोध' अथवा 'ज्ञान' के रूप में पहचाना है। विद्वानों ने उपनिषदों को वेदों का अन्तिम भाष्य 'वेदान्त' का नाम दिया है। इससे पूर्व वेदों के लिए 'संहिता' 'ब्राह्मण' और 'आरण्यक' नाम भी प्रयुक्त किये जाते हैं। उपनिषद ब्रह्मज्ञान के ग्रन्थ हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘समीप बैठना‘ अर्थात् ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप बैठना। इस प्रकार उपनिषद एक ऐसा रहस्य ज्ञान है जिसे हम गुरु के सहयोग से ही समझ सकते हैं। ब्रह्म विषयक होने के कारण इन्हें 'ब्रह्मविद्या' भी कहा जाता है। उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के सन्दर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है। उपनिषद वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग तथा सारभूत सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं, अतः इन्हें 'वेदान्त' भी कहा जाता है। उपनिषदों ने जिस निष्काम कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग का दर्शन दिया उसका विकास श्रीमद्भागवतगीता में हुआ। यहाँ यह जानने की कोशिश करते हैं कि पश्चिमी दुनिया ने उपनिषदों को किस रूप में देखा है। पश्चिम के कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण विद्वानों की दृष्टि में यह क्या है -

जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर
'मेरा दार्शनिक मत उपनिषदों के मूल तत्त्वों के द्वारा विशेष रूप से प्रभावित है। मैं समझता हूं कि उपनिषदों के द्वारा वैदिक-साहित्य के साथ परिचय होना, वर्तमान शताब्दी का सनसे बड़ा लाभ है, जो इससे पहले किसी भी शताब्दी को प्राप्त नहीं हुआ। मुझे आशा है कि चौदहवीं शताब्दी में ग्रीक-साहित्य के पुनर्जागरण से यूरोपीय-साहित्य की जो उन्नति हुई थी, उसमें संस्कृत-साहित्य का प्रभाव, उसकी अपेक्षा कम फल देने वाला नहीं था। यदि पाठक प्राचीन भारतीय ज्ञान में दीक्षित हो सकें और गम्भीर उदारता के साथ उसे ग्रहण कर सकें, तो मैं जो कुछ भी कहना चाहता हूं, उसे वे अच्छी तरह से समझ सकेंगे उपनिषदों में सर्वत्र कितनी सुन्दरता के साथ वेदों के भाव प्रकाशित हैं। जो कोई भी उपनिषदों के फ़ारसी, लैटिन अनुवाद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करेगा, वह उपनिषदों की अनुपम भाव-धारा से निश्चित रूप से परिचित होगा। उसकी एक-एक पंक्ति कितनी सुदृढ़, सुनिर्दिष्ट और सुसमञ्जस अर्थ प्रकट करती है, इसे देखकर आंखें खुली रह जाती है। प्रत्येक वाक्य से अत्यन्त गम्भीर भावों का समूह और विचारों का आवेग प्रकट होता चला जाता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त उच्च, पवित्र और एकान्तिक अनुभूतियों से ओतप्रोत हैं। सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे।'
'भारत में हमारे धर्म की जड़े कभी नहीं गड़ेंगी। मानव-जाति की ‘पौराणिक प्रज्ञा’ गैलीलियो की घटनाओं से कभी निराकृत नहीं होगी, वरन् भारतीय ज्ञान की धारा यूरोप में प्रवाहित होगी तथा हमारे ज्ञान और विचारों में आमूल परिवर्तन ला देगी। उपनिषदों के प्रत्येक वाक्य से गहन मौलिक और उदात्त विचार प्रस्फुटित होते हैं और सभी कुछ एक विचित्र, उच्च, पवित्र और एकाग्र भावना से अनुप्राणित हो जाता है। समस्त संसार में उपनिषदों-जैसा कल्याणकारी व आत्मा को उन्नत करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। ये सर्वोच्च प्रतिभा के पुष्प हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था के आधार बनकर रहेंगे।' शोपेन हॉवर के उपरान्त अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने उपनिषदों पर गहन विचार किया और उनकी महिमा को गाया।

अलबरुनी
उपनिषदों की सार-स्वरूपा 'गीता' भारतीय ज्ञान की महानतम् रचना है।

दारा शिकोह
 'मैने क़ुरान, तौरेत, इञ्जील, जुबर आदि ग्रन्थ पढ़े। उनमें ईश्वर सम्बन्धी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिन्दुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ीं। इनमें से उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है, जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। हज़रत नबी ने भी एक आयत में इन्हीं प्राचीन रहस्यमय पुस्तकों के सम्बन्ध में संकेत किया है।

इमर्सन
पाश्चात्य विचार निश्चय ही वेदान्त के द्वारा अनुप्राणित हैं।


मैक्समूलर
मृत्यु के भय से बचने, मृत्यु के लिए पूरी तैयारी करने और सत्य को जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए, उपनिषदों के अतिरिक्त कोई अन्य-मार्ग मेरी दृष्टि में नहीं है। उपनिषदों के ज्ञान से मुझे अपने जीवन के उत्कर्ष में भारी सहायता मिली है। मै उनका ॠणी हूं। ये उपनिषदें, आत्मिक उन्नति के लिए विश्व के समस्त धार्मिक साहित्य में अत्यन्त सम्मानीय रहे हैं और आगे भी सदा रहेंगे। यह ज्ञान, महान, मनीषियों की महान् प्रज्ञा का परिणाम है। एक-न-एक दिन भारत का यह श्रेष्ठ ज्ञान यूरोप में प्रकाशित होगा और तब हमारे ज्ञान एवं विचारों में महान् परिवर्तन उपस्थित होगा।

प्रो. ह्यूम
 सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली।

प्रो. जी. आर्क
 मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ साधन के रूप में उपनिषद ही सहायक हो सक्ते हैं।

पॉल डायसन
वेदान्त (उपनिषद-दर्शन) अपने अविकृत रूप में शुद्ध नैतिकता का सशक्ततम आधार है। जीवन और मृत्यु कि पीड़ाओं में सबसे बड़ी सान्तवना है।

डा. एनीबेसेंट
भारतीय उपनिषद ज्ञान मानव चेतना की सर्वोच्च देन है।

बेबर
भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।

उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय
उपनिषदों के रचयिता ॠषि-मुनियों ने अपनी अनुभुतियों के सत्य से जन-कल्याण की भावना को सर्वोपरि महत्त्व दिया है। उनका रचना-कौशल अत्यन्त सहज और सरल है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इन ॠषियों ने कैसे इतने गूढ़ विषय को, इसके विविधापूर्ण तथ्यों को, अत्यन्त थोड़े शब्दों में तथा एक अत्यन्त सहज और सशक्त भाषा में अभिव्यक्त किया है। भारतीय दर्शन की ऐसी कोई धारा नहीं है, जिसका सार तत्त्व इन उपनिषदों में विद्यमान न हो। सत्य की खोज अथवा ब्रह्म की पहचान इन उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। जन्म और मृत्यु से पहले और बाद में हम कहां थे और कहां जायेंगे, इस सम्पूर्ण सृष्टि का नियन्ता कौन है, यह चराचर जगत् किसकी इच्छा से परिचालित हो रहा है तथा हमारा उसके साथ क्या सम्बन्ध है— इन सभी जिज्ञासाओं का शमन उपनिषदों के द्वारा ही सम्भव हो सका है।

क्रमशः 

ब्रह्म :पुरुषोत्तम

ब्रह्म :पुरुषोत्तम

ब्रह्म :पुरुषोत्तम 
संजय तिवारी 

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः
वह जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया। 
वह (ब्रह्म) पूर्ण है। यह (आत्मा) भी पूर्ण है। पूर्ण से हीपूर्ण की उत्पत्ति होती है। पूर्ण के पूर्ण में मिल (विलीन हो) जानेपर पूर्ण ही बचा रहता है।

उपनिषदों में ब्रह्म की कल्पना इसी प्रकार की गयी है।पहली बार प्रकट होने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। इसीलिए इसे स्वयंभू नाम दिया जाता है। यह स्वयं सत्तावान है। विश्व का उद्भव इसी से होता है। मृत्यु के बाद सभी इसी में समा जाते हैं। कुल मिलाकर बढ़ने वाले को ब्रह्म कहा जाता है। उपनिषदों की रचनामें उस संन्यासी तबके ने भूमिका निभायी थी जो ब्राह्मण तबके केप्रभुत्व और अपनी ही अवधारणधारणाओं से कटे आडम्बर युक्तराजयज्ञों से खुद को सहमत नहीं पा रहा था। ये यज्ञ राजा द्वाराप्रवर्तित होते थे। समझ थी कि राज्याभिषेक के यज्ञ राजसूय और सालों की तैयारी के बाद होने वाले अश्वमेध के क्रम में शुद्ध हो कर राजा दैवी गुणों से युक्त हो जाता है।

धार्मिक चिंतन के स्वरूप में आये इस बदलाव के फलस्वरूप वैदिक देवताओं की स्थिति कमजोर होती गयी। इनके विरुद्ध प्रतिक्रिया संन्यास के रूप में हुई। सांसारिक आसक्तियों, विषय-वासनाओं और अनुरागों का परित्याग करने वाले को संन्यासी कहा गया। संन्यास की परंपरा का इस काल में जबर्दस्त फैलाव हुआ। संन्यासी समाज से दूर जंगलों में एकांतवास करते थे। कभी-कभी वे समूह में भी रहते। इस तबके ने सामाजिक-आर्थिक वर्चस्व के मुकावले परित्याग का आदर्श प्रस्तुत किया। सृष्टि के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली नयी चिंतनधाराओं की तलाश में तपस्या या साधना की। ऋग्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मणग्रंथों और आरण्यकों में मौजूद मुनि, वातरासन, यति, ब्रात्य और श्रमण परंपरा की मौजूदगी के संकेत देने वाले संदर्भ और कथाओं के आधार पर अध्ययनकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि रुढ़िग्रस्त वैदिक धर्म से असहमति जताने वाले आरंभिक चिंतकों को ही ऋग्वेद में वातरासन कह कर संबोधित किया गया है। उन्हें ही आरण्यकों के काल में श्रमण कहा गया। वही ऋग्वेदिक यति भी हैं ऐतरेय ब्राह्मण की कथा में जिनकी हत्या इन्द्र द्वारा की गयी।  

ऋग्वेदिक काल के अंत में जब वर्णवाद की शुरुआत हुई। यह तबका बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसने नये वैदिक अनुष्ठानों, बलि प्रथा और वेदों को प्रमाण मानने से इनकार किया। कालक्रम में संन्यासियों के भी दो रूप प्रकट हुए। एक ने स्वयं की मुक्ति की तलाश में साधना और तपस्या करते हुए जंगलों में ही जीवन बिता दिया। वहीं, दूसरा ज्ञान प्राप्ति के बाद समाज में लौट कर पुनः आया। इस वर्ग ने पूरे समाज की मुक्ति के उद्देश्य के प्रति समर्पित अभियान संगठित किये। अपना पूरा जीवन इन अभियानों की सफलता के लिए होम कर दिया।

आरंभिक उपनिषदों में उसी परम तत्त्व की व्याख्या की गयी। इनमें आत्मा और ब्रह्म को एक बताया गया। कहा गया कि सृष्टि में व्याप्त चेतन शक्ति ब्रह्म है तो, मनुष्य में व्याप्त चेतन शक्ति आत्मा है। अन्न से निर्मित मनुष्य के शरीर को इसने अन्नमय कोश, अन्नमय कोश में मौजूद प्राणदायिनी शक्ति को प्राणमय कोश, मनुष्य में मौजूद मनन की शक्ति को मनोमय कोश, मनोमय कोश में मौजूद इससे भी सूक्ष्म चेतन शक्ति को विज्ञानमय कोश तथा विज्ञानमय कोश में निहित सूक्ष्मतम कोश को आनंदमय कोश नाम दिया गया। उसकी नजरों में यही अनंदमय कोष विशुद्धानंद का स्थान है। शरीर आनंदमय कोश के रूप में ही अमर औरं अपार्थिव आत्मा का आधार है।

उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग माने जाते हैं। इनमें ब्रह्म के स्वरूप का विशद विवेचन किया गया है। इनमें ब्रह्म प्राप्ति के विविध साधन पर भी विस्तार से चर्चा की गयी है। अनेक अध्ययनकर्त्ता उपनिषद् का अर्थ सांसारिक क्लेशों के विनाश, ब्रह्म की प्राप्ति और आवगमन के बंधनों से मुक्ति के रूप में करते हैं। पाणिनी ने उपनिषद् शब्द का उपयोग (जीविकोपनिषदावौपम्ये: 1.4.61) रहस्य अथवा परोक्ष के अर्थ में किया है।

उपनिषदों की संख्या को लेकर अध्ययनकर्त्ताओं में मतभेद है। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार इसकी संख्या 108 है। शंकराचार्य ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरेय, छांदोग्य और बृहदारण्यक, इन दस उपनिषदों पर भाष्य लिखा है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग कहे गये हैं। मान्यता है कि ऋग्वेद के दस, शुक्ल यर्जुर्वेद के 19, कृष्ण यर्जुर्वेद 12, सामवेद के 16 तथा अथर्ववेद 31 उपनिषद् हैं।

उपनिषदों की रचना शैली और भाषा पर विचार करते हुए अध्ययनकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि इनकी रचना कई शताब्दियों में क्रमशः हुई है। इसकी उपासना पद्धति में विष्णु, शिव, शक्ति आदि की ब्रह्म के रूप में स्थिति प्रतिपादित है। इनमें जीवात्मा और परमात्मा के एकत्व का सूक्ष्म (तत्त्वमसि) विवेचन किया गया है। अध्ययनकर्ताओं की मान्यता है कि दार्शनिक चिंतन की  भारतीय धाराओं के बीज उपनिषदों में मौजूद हैं। इन्हीं के आधार पर भारतीय निवृत्तिमार्ग का विकास हुआ है। आटोवेकर ने रचनाकाल की दृष्टि से उपनिषदों को चार भागों में बांटा है। उनका मानना है कि बृहदारण्यक, छांदोग्य, कौशीतकी और ब्रहृमोपनिषद सबसे प्राचीन हैं। ऐतरेय, तैत्तरीय और काठक को वह पाणिनी के पूर्व का मानते हैं। उन्हें प्रतीत होता हैं कि केन और ईश भी पाणिनी के पूर्व के हो सकते हैं। वहीं, उनकी नज़रों में, श्वेताश्वतर, मैत्रायणी जैसे उपनिषद पाणिनी के बाद के हैं।


विषय की दृष्टि से उपनिषदों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-ज्ञानप्रतिपादक उपनिषद्, ब्रह्मप्रतिपादक उपनिषद् और साधना प्रतिपादक उपनिषद्। ज्ञानप्रतिपादक उपनिषदों की मान्यता है कि जीवन को मोक्ष या मुक्ति की ओर अग्रसर करने के लिए भावनाओं और विचारों का परिशोघन आवश्यक है। ये इसे अपने विचार का विषय बनाते हैं। इस श्रेणी में ईशावास्य, कठ, केन, प्रश्न, मुंडक, माण्डुक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, श्वेताश्वतर, गर्भ, मुद्गल, आक्षि, आध्यात्म, महोपनिषद्, मैत्रायिणी, शिवसंकल्प, आश्रमद्वय, वज्रसूचिक,  कौशीतकि, अथर्वविंश, स्कंद, सर्वसार, शुकररहस्य, यान्त्रिक, प्रणव, निलरालंब, जावाल, दर्शन, गायत्री, अमृतनाद, एकाक्षर, नादबिन्दु, भावना, योगराज तथा आत्मपूजोपनिषद, कुल पैतीस उपनिषदों को रखा जाता है।

इन उपनिषदों में ब्रह्मविद्या के स्वरूप पर तो चर्चा की गयी है। प्रश्नोत्तर के रूप में आसक्तिओं का आधार बनने वाले विचारों की निःसारता का प्रतिपादन कर सत्य की ओर संकेत किया गया है। कठोपनिषद् का नचिकेता-यम संवाद इसी का उदाहरण है। इस कथा में नचिकेता ने यम से तीन वरदान मांगे - पिता की क्रोधग्नि की शांति, यज्ञीय विधान तथा परलोक का ज्ञान। प्रश्नोपनिषद् में श्रद्धा ब्रह्मचर्य, तप और धैर्य, इन चार चीजों को ब्रह्मप्राप्ति की आधारशिला बताया गया है। मुंडकोपनिषद् में शौनक-अंगिरा संवाद के रूप में परा और अपरा विद्या का विवेचन किया गया है। ऐतरेय उपनिषद् सृष्टि के उद्भव की प्रक्रिया अथवा क्रम का ज्ञान कराता है। अक्षुपनिषद् योग की सात भूमिकाओं की जानकारी देता है। यह सूर्य और सांकृतिमुनि के बीच के संवाद के रूप में इस विषय पर यह चर्चा करता है। ईशोपनिषद समुच्चय सिद्धांत का उपदेशक है। यह ब्रह्म की व्यापकता पर चर्चा करता है। यह ब्रह्म और आत्मा में अभेद की समझ पर जोर देता है। वेदांत के प्रधान सिद्धांतों और गीता में वर्णित कर्मयोग के सिद्धांतों के आरंभिक स्वरूप की प्रस्तुति करता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् प्रकृति और पुरुष से संबद्ध चिंतन को प्रस्तुत करता है, जो बाद के दौर में सांख्यसिद्धांत के रूप में व्याख्यायित होता है।

ब्रह्मप्रतिपादक या ब्रह्मविद्या के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले उपनिषदों की संख्या भी 35 ही है। ब्रह्मोपनिषद्, ब्रह्मविद्या, तेजोबिन्दु, क्षुरिका, योगतत्त्व, सुबाल, मंडल, हंस, स्वयंवेद्य, जावालि, मेनपी, शाण्डिल्य, परंब्रह्म, कठसद्र, कुण्डिक, आसणिक, संन्यास, नारदपरिव्राजक, पैंगल, महावाक्य, आत्मबोध, कैवल्य, ब्रह्मबिन्दु, आत्मा, पंचब्रह्म, शारीरिक, शाट्यायन, याज्ञवल्क्य, जावाल, परमहंस, निर्वाण, परमहंस परिव्राजक, भिक्षुक, तुरीयातीत और अवधूत।

साधनाप्रतिपादक उपनिषदों की संख्या चालीस है। इनमें योग साधना की विभिन्न पद्धतियों तथा इससे प्राप्त हो वाले परिणाम का वर्णन किया गया है। इन उपनिषदों में साधना के प्रकारों में लौकिक और पारलौकिक, दोनों प्रकार के लाभों का संकेत है। इनकी रचना का काल बहुत बाद का है। इनके नाम हैं: योचूड़ामणि, अन्नपूर्णा, विशिखब्राह्मण अद्वयतारक, पाशुपतिब्रह्म, प्रणाग्निहोम, योगकुण्डली, ध्यानबिन्दु, अक्षमालिका, रुद्राक्षजाबाल, रामपूर्वतापिनी, कृष्णोपनिषद्, गणपति, नृसिंहपूर्वतापिनी, नृसिंहोत्तरतापिनी, नृसिंहषठचक्र, दक्षिणमूर्ति, रुद्र, कालाग्निरुद्र, गारुड़, लांगूल, गायत्रीरहस्य, सावित्री, सरस्वति, देवी वहबृच, सौभाग्यलक्ष्मी, त्रिपुरा, सीता, राधा, तुलसी, नारायण्, सूर्य , चतुर्वेद, चाक्षुष और कलिसंवरण। इन उपनिषदों के  विषयों से स्पष्ट है कि इनकी रचना के काल तक अवतारवाद के आधार पर सांप्रायिक ईष्टदेवों की साधना का पर्याप्त प्रचार हो चुका था। इनमें शिव, कृष्ण, राम, गणपति, नृसिंह, हनुमान, सरस्वति, लक्ष्मी, सीता, राधा, तुलसी आदि देवों की साधना तथा इसकी फलश्रुति पर चर्चा की गयी है। इनमें से अधिकांश कम से कम डेढ़ हजार वर्ष बाद की रचना है।

हालांकि सूत्र ग्रंथों की रचना के काल तक संन्यासियों के प्रतिरोधी स्वरूप को कुंद करने के उपाय किये गये। वर्णाश्रम (चार वर्ण साथ चार आश्रम) की समझ के साथ समझौते के प्रयास किये गये। लेकिन संन्यासियों के बीच से ही कोई न कोई धारा फूटती चली गयी, जिसने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध प्रतिरोध को जारी रखा। इस प्रतिरोध के परिणामस्वरूप  ही श्रमण कहलाने वाली धाराओं की नीव पड़ी। बौद्ध, जैन और आजीवक-जैसी धाराएं इनमें काफी शक्तिशाली प्रमाणित हुईं। बुद्ध-महावीर कल में ऐसे दर्जनों संप्रदाय अस्तित्वमान हो चुके थेजिनका लक्ष्य सत्य की तलाश करना था।  बौद्ध ग्रंथों में ऐसे 63 तथा जैन ग्रंथों में ऐसे 363 सम्प्रदायों की चर्चा आयी है। इन्हीं प्रतिरोधी प्रयासों के बीच देववादी चिंतन कीप्रासंगिकता घटती चली गयी। अंततः शैव, वैष्णव तथा कुछ औरआगे के दौर में शाक्त मतों के उद्भव और प्रसार का आधारनिर्मित हुआ। 
क्रमशः