काबा और मक्केश्वर महादेव शिवलिंग


जब इस्लाम नहीं था - 2 
काबा और मक्केश्वर महादेव शिवलिंग


इस्लाम से बहुत पहले से यह धरती, , यह आकाश यह वायुमंडल , यह सौर मंडल सभी थे, हैं और आगे भी रहेंगे। दुनिया आजकल यह जानने का प्रयास कर रही है कि धरती पर जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था तब यह धरती आखिर कैसी रही होगी। इसलाम से महज 600  साल पहले ही ईसाइयत का प्रादुर्भाव हुआ था। अब तो यह दुनिया मान ही चुकी है कि इन दोनों से बहुत हजार साल पहले ही धरती पर राम और कृष्ण जैसे दो ऐतिहासिक व्यक्तियों का जन्म भारत में हो चुका था। कुछ साल पहले तक इन दोनों को मिथकीय चरित्र कहने का चलन था लेकिन अब सब प्रमाणित हो चुका है। ऐसे में अब यह जान लेना बहुत आवश्यक हो जाता है कि जब धरती पर  और क्रिश्चियन जैसी उपासना पद्धतियां नहीं थीं तब धरती कैसी रही होगी। आइये पहले विवेचना इस्लाम से ही करते हैं।     
इस्लाम के लिए काबा कितना महत्वपूर्ण है , इस बारे में किसी को बताने की आवश्यकता नहीं। काबा ही इस्लाम की सबसे पहली उपासनास्थली  है। इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में 'हज्ज़' या 'काबा' यात्रा भी एक है। हज तीर्थयात्रा के दौरान भी मुस्लिमों को तवाफ़ नामक महत्त्वपूर्ण पांथिक  परंपरा पूरी करने का निर्देश है, जिसमें काबे की सात परिक्रमाएँ की जाती हैं। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मक्का के महादेव का नाम आता है। वस्तुतः काबा (अरबी: الكعبة, अंग्रेज़ी: Ka'aba, सही उच्चारण: क'आबा) मक्का, सउदी अरब में स्थित एक घनाकार (क्यूब के आकार की) इमारत है जो इस्लाम धर्म का सबसे पवित्र स्थल है। उच्च भाव और ईश्वर के प्रति प्रेम नमाज़ (=नमस्) की उपर्युक्त प्रार्थनाओं में वर्णित है, पाठक उस पर स्वयं विचार कर सकते हैं। सांधिक नमाज़ का इस्लाम में बड़ा मान है। वस्तुतः वह संघशक्ति को बढ़ाने वाला भी है।  एशिया, यूरोप और अफ़्रीका निवासी हजारों मुसलमान जिस समय एक ही स्वर, एक ही भाषा और एक भाव से प्रेरित हो ईश्वर के चरणार्विन्द में अपनी भक्ति पुष्पाजंलि अर्पण करने के लिए एकत्र होते हैं, तो कैसा आनन्दमय दृश्य होता है। उस समय की समानता का क्या कहना। एक ही पंक्ति में दरिद्र और बादशाह दोनों खड़े होकर बता देते हैं कि ईश्वर के सामने सब ही बराबर हैं। इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में 'हज्ज़' या 'काबा' यात्रा भी एक है। इस बात के अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि 'काबा' अरब का प्राचीन मन्दिर है जो मक्का शहर में है।
इसके वास्तविक प्रमाण के रूप में रूप में विक्रम की प्रथम शताब्दी के आरम्भ में रोमक इतिहास लेखक 'द्यौद्रस् सलस्' लिखता है -
यहाँ इस देश में एक मन्दिर है, जो अरबों का अत्यन्त पूजनीय है। महात्मा मुहम्मद के जन्म से प्रायः 600 वर्ष पूर्व ही इस मन्दिर की इतनी ख्याति थी कि 'सिरिया, अराक' आदि प्रदेशों से सहस्रों यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थ आया  करते थे। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मक्का के महादेव का नाम आता है। ह. ज्रु ल्–अस्वद् (=कृष्ण पाषाण) इन सब विचारों का केन्द्र प्रतीत होता है। यह काबा दीवार में लगा हुआ है। आज भी उस पर चुम्बन देना प्रत्येक 'हाज़ी' (मक्कायात्री) का कर्तव्य है। यद्यपि क़ुरान में इसका विधान नहीं, किन्तु पुराण के समान माननीय 'हदीस' ग्रन्थों में उसे भूमक नर भगवान का दाहिना हाथ कहा गया है। यही मक्केश्वरनाथ है जो काबा की सभी मूर्तियों के तोड़े जाने पर भी स्वयं ज्यों का त्यों विद्यमान है। इतना ही नहीं, बल्कि इनका जादू मुसलमानों पर भी चले बिना नहीं रहा और वह पत्थर को बोसा यानी अँकवार  देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं, यद्यपि अन्य स्थानों पर मूर्तिपूजा के घोर विरोधी हैं।
इस पवित्र मन्दिर के विषय में क़ुरान में आया है-
निस्सन्देह पहला घर मक्का में स्थापित किया गया, जो कि धन्य है तथा ज्ञानियों के लिए उपदेश है।  महाप्रभु ने मनुष्य के लिए पवित्र गृह 'कअबा' बनाया।
जिस प्रकार यहाँ काबा के लिए 'पहला घर' और 'पवित्र गृह' कहा गया है, उसी प्रकार मक्का नगर के लिए भी उम्मुलकुरा (ग्रामों की माँ) अथवा पहला शब्द आया है। उस समय मक्का के मन्दिर में 360 मूर्तियाँ थीं। आरम्भ में जब 'किधर मुख करके नमाज़ पढ़ी जाए' यह सवाल महात्मा मुहम्मद के सम्मुख आया तो एकेश्वर भक्त महात्मा ने सारे अरब के श्रद्वास्पद किन्तु मूर्ति पूर्ण मक्का मन्दिर को अयोग्य समझा, अमूर्तिपूजक एकेश्वर भक्त यहूदियों के मुख्य स्थान 'योरुशिलम्' मन्दिर की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ने की आज्ञा अपने अनुयायियों को दी। इस प्रकार मक्का निवास के अन्त तक अर्थात् तेरह वर्ष इसी प्रकार नमाज़ पढ़ी जाती रही। मदीना में आने पर भी कितने ही दिनों तक 'योरुशिलम्' की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ी जाती रही। अन्त में यहूदियों के अभिमान-हमारे ही काबा का आश्रय मुहम्मद के अनुयायी भी करते हैं-को हटाने के लिए क़ुरान के निम्न आदेश के अनुसार पवित्र काबा मन्दिर ही मुसलमानों का किब्ला (अग्रिम स्थान) हुआ। उक्त वाक्य यह है-

"अनजान लोग कहेंगे, इन (मुसलमानों) को क्या बात थी, जिसने की इन्हें किब्ला से फेर दिया। कह (हे मुहम्मद !) ईश्वर के लिए पूर्व–पश्चिम सब समान हैं।"
"हम तेरे मुख को (हे मुहम्मद !) उठा देखते हैं। अवश्य तुझे हम उस किब्ला की ओर फेरेंगे, जो तुझे अभीष्ट है। सो जहाँ तुम रहो, वहाँ से अपने मुँह को पवित्र मस्ज़िद (काबा) की ओर फेर लो, और वह लोग जिनको पुस्तक (तौरेत) दी गई (अर्थात् यहूदी) निस्सन्देह जानते हैं कि उनके ईश्वर की ओर से यही ठीक है।"
"यदि तू सम्पूर्ण प्रमाण लावे, तब भी किताब वाले (यहूदी) तेरे किब्ले के अनुयायी न होंगे, और न तू उनके किब्ले का अनुयायी हो।"
प्रथम वाक्य में 'क़िब्ला' बदलने पर होने वाले आक्षेप का उत्तर दूसरे और तीसरे में बदलने का विधान किया गया है। यह 'क़िब्ला' का विधान भी वास्तव में मुसलमानों की एकता के अभिप्राय से किया गया है। वास्तुव में तो—"प्रभु ! तेरे लिए और पच्छिम है। जिस ओर मुख फेरो, उधर ही प्रभु है। निस्सन्देह परमात्मा विशाल और ज्ञानी है।"
"(मनुष्यों) को 'हज्ज़' के लिए बुला कि तेरे पास दूर से पैदल और ऊँटों पर चले आवें।"
"भगवान के लिए 'हज्ज़' और उम्रा पूरा करो, और यदि (किसी प्रकार) रोके गए, तो यथाशक्ति बलिदान (क़ुर्बानी) करो। जब तक कि बलि ठिकाने पर न पहुँच जाए, सिर की हजामत न बनवाएँ और जो तुममें से रोगी हो या जिसके सिर में पीड़ा हो, तो इसके बदले उपवास करें, या दान देवें, या बलिदान करें। जब तुम सकुशल हो तो जो कोई हज्ज़ के साथ 'उम्रा' चाहे यथाशक्ति बलि भेजे, और जो न पाये तो तीन दिन का उपवास हज्ज़ के समय में, और सात उपवास जब लौट कर जाये, यह पूरे दस (उपवास) उन लोगों के लिए हैं, जिनके घर 'काबा' के पास नहीं है।"
आवश्यक न होने से 'तवाफ़' (परिक्रमा) 'सफ़ा', 'मर्बा' पहाड़ियों के बीच ककड़ी फेंकते दौड़ना 'सई' कहते हैं।  इसलिए उन विधियों के बारे में लिखना संभव नहीं है।

इतिहाकार द्यौद्रस् सलस्
सम्‍पूर्ण विश्‍व क्‍या भारत के लोग ही यह कटु सत्‍य स्‍वीकार नही कर सकते कि इस्लाम ने सनातन की  आस्‍था माने जाने वाले असंख्‍य मंदिर तोड़े है और उनके स्‍थान पर उसी मंदिर के अवशेष से अपने उपासनास्थलों का निर्माण करवाया। ये गतिविधियां इतनी प्रंचडता के साथ की जाती थी कि तक्षशिला विश्वविद्यालय और सोमनाथ मंदिर विध्‍वंश किये गये, यह बहुत बाद की सत्य घटनाएं हैं । इस्लाम की नीव इस आधार पर रखी गई कि दूसरों की आस्था का अनादर करों और उनके ही  पवित्र स्थलों को खंडित कर वहाँ इस्लामी केंद्रों की स्थापना की जाय । इस कार्य में  बाधा डालने वाले जो लोग भी सामने आये उन लोगो को मौत के घाट उतार दिया जाये। भले ही वे लोग मुस्लिमो को परेशान न करते हो। मुहम्‍मद साहब और मुसलमानों के हमले से मक्‍का और मदीना के आस पास का पूरा इतिहास बदल दिया गया। इस्लाम एक तलवार से उपजा पंथ था है और रहेगा। 

गोवर्धन पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी
स्वामी जी के अनुसार मक्केशश्वर शिवलिंग के अलावा भी बहुत से ऐसे शिवालय रहे हैं जिनको इस्लाम के उदय के बाद कब्जा कर मस्जिद बना दिया गया। इनमे भारत की प्रमुख जाना मस्जिद भी शामिल है।  जमा मस्जिद को वह जम्बेश्वर महादेव शिवलिंग प्रमाणित करते हैं। स्वामी जी का कहना है कि धरती पर सनातन उपासना पद्धति इस्लाम या ईसाइयत के जन्म से बहुत पहले से विद्यमान रही है। जिन कबीलों से इस्लाम जैसे पंथ निकले उनके लिए जो पद्धति और उसे समय के लोगो के आस्था के केंद्र या ऐसी जगहें दिखीं वही वे काबिज होकर अपना प्रचार करने लगे। मक्केश्वर महादेव का उल्लेख तो हमारे कई पुराणों में भी प्रमुखता से किया गया है। इसमें कोई संशय ही नहीं कि जिसे इस्लाम का सबसे पवित्र स्थल बताया जा रहा है वह सनातन संस्कृति में ज्योतिर्लिंग रहा है लेकिन आजकल उनके अधिपत्य में है।   

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती
द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भी कई  बार इस बात को कह चुके हैं कि मक्का में मक्केश्वर महादेव मंदिर है। मुहम्मद साहब भी शैव थे, इसलिए वे मक्केश्वर महादेव को मानते थे। एक बार वहां लोगों ने बुद्ध की मूर्ति लगा थी, वह इसके बहुत विरोधी थें। अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग को 'लात' कहा जाता था। मक्का के कावा में जिस काले पत्थर की उपासना की जाती रही है, भविष्य पुराण में उसका उल्लेख मक्केश्वर के रूप में हुआ है। इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य यहूदियों द्वारा इसकी पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। इराक और सीरिया में सुबी नाम से एक जाति थी यही साबिईन है। इन साबिईन को अरब के लोग बहुदेववादी मानते थे। कहते हैं कि साबिईन अर्थात नूह की कौम। माना जाता है कि भारतीय मूल के लोग बहुत बड़ी संख्या में यमन में आबाद थे, जहां आज भी श्याम और हिन्द नामक किले मौजूद हैं। विद्वानों के अनुसार सऊदी अरब के मक्का में जो काबा है, वहां कभी प्राचीनकाल में 'मुक्तेश्वर' नामक एक शिवलिंग था जिसे बाद में 'मक्केश्‍वर' कहा जाने लगा।

काफिरों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध
अभी कुछ साल पहले तक मक्का के गेट पर साफ-साफ लिखा था कि काफिरों का अंदर जाना गैर-कानूनी है। कहा जा रहा है अब इस बोर्ड को उतार दिया गया है और लिख दिया है नॉन-मुस्लिम्स का अंदर जाना माना है। इसका मतलब है कि ईसाई, जैनी या बौद्ध धर्म को भी मानने वाले इसके अंदर नहीं जा सकते हैं।
मुसलमाने के पैगम्‍बर मुहम्‍मद एक ऐसे विध्‍वंसक गिरोह का नेतृत्‍व करते थे जो धन और वासना के पुजारी थे। मुहम्‍मद ने मदीना से मक्का के शांतिप्रिय मुर्तिपूजकों पर हमला किया और जबरजस्‍त नरसंंहार किया। मक्‍का का म‍दीना के अपना अगल अस्तितव था किन्‍तु मुहम्‍मद साहब के हमले के बाद मक्‍का मदीना को एक साथ जोड़कर देखा जाने लगा। जबकि मक्‍का के लोग जो कि शिव के उपासक माने जाते है। मुहम्‍मद की टोली ने मक्‍का में स्‍थापित कर वहां पे स्थापित की हुई 360 में से 359 मूर्तियाँ नष्ट कर दी और सिर्फ काला पत्थर सुरक्षित रखा जिसको आज भी मुस्‍लिमों द्वारा पूजा जाता है। उसके अलावा अल-उज्जा, अल-लात और मनात नाम की तीन देवियों के मंदिरों को नष्ट करने का आदेश भी महम्मद ने दिया और आज उन मंदिरों का नामो निशान नहीं है (हिशम इब्न अल-कलबी, 25-26)। इतिहास में यह किसी हिन्दू मंदिर पर सबसे पहला इस्लामिक आतंकवादी हमला था।उस काले पत्थर की तरफ आज भी मुस्लिम श्रद्धालु अपना शीश जुकाते है। किसी हिंदू पूजा के दौरान बिना सिला हुआ वस्त्र या धोती पहनते हैं, उसी तरह हज के दौरान भी बिना सिला हुआ सफेद सूती कपड़ा ही पहना जाता है। जिस प्रकार हिंदुओं की मान्यता होती है कि गंगा का पानी शुद्ध होता है ठीक उसी प्रकार मुस्लिम भी अबे जम-जम के पानी को पाक मानते हैं। जिस तरह हिंदू गंगा स्नान के बाद इसके पानी को भरकर अपने घर लाते हैं ठीक उसी प्रकार मुस्लिम भी मक्का के अबे जम-जम का पानी भर कर अपने घर ले जाते हैं। ये भी एक समानता है कि गंगा को मुस्लिम भी पाक मानते हैं और इसकी अराधना किसी न किसी रूप में जरूर करते हैं।

वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास
प्रख्‍यात प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में समझाया है कि मक्का और उस इलाके में इस्लाम के आने से पहले से मूर्ति पूजा होती थी। हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर थे, गहन रिसर्च के बाद उन्होंने यह भी दावा किया कि काबा में भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग है। पैगंबर मोहम्मद ने हमला कर मक्का की मूर्तियां तोड़ी थीं। यूनान और भारत में बहुतायत में मूर्ति पूजा की जाती रही है, पूर्व में इन दोनों ही देशों की सभ्यताओं का दूरस्थ इलाकों पर प्रभाव था। ऐसे में दोनों ही इलाकों के कुछ विद्वान काबा में मूर्ति पूजा होने का तर्क देते हैं। हज करने वाले लोग काबा के पूर्वी कोने पर जड़े हुए एक काले पत्थर के दर्शन को पवित्र मानते हैं जो कि हिन्‍दूओं का पवित्र शिवलिंग है। वास्‍तव में इस्लाम से पहले मिडिल-ईस्ट में पीगन जनजाति रहती थी और वह हिंदू रीति-रिवाज को ही मानती थी। पी एन ओक ने सिद्ध कर दिया है मक्केश्वर शिवलिंग ही हजे अस्वद है। मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्का मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत यानी काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं।


जमजम है पवित्र गंगा
एक प्रसिद्ध मान्‍यता के अनुसार काबा में भी “पवित्र गंगा” है जो महापंडित रावण के कारण वहां प्रवाहित हुईं थीं। रावण शिव भक्त था वह शिव के साथ गंगा और चन्द्रमा के माहात्म्य  को समझता था और यह जानता था कि कि क‍भी शिव को गंगा से अलग नही किया जा सकता। जहाँ भी शिव होंगे, पवित्र गंगा की अवधारणा निश्चित ही मौजूद होती है। काबा के पास भी एक पवित्र झरना पाया जाता है, इसका पानी भी पवित्र माना जाता है। इस्लामिक काल से पहले भी इसे पवित्र (आबे ज़म-ज़म) ही माना जाता था। रावण की तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर भगवान शिव ने रावण  को एक शिवलिंग प्रदान किया जिसें लंका में स्‍थापित करने का कहा और बाद जब रावड़ आकाश मार्ग से लंका की ओर जाता है पर रास्ते में कुछ ऐसे हालत बनते हैं की रावण को शिवलिंग धरती पर रखना पड़ता है। वह दुबारा शिवलिंग को उठाने की कोशिश करता है पर खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं। वेंकटेश पण्डित के अनुसर यह स्थान वर्तमान में सऊदी अरब के मक्का नामक स्थान पर स्थित है।

इस बारे में वेंकटेश पण्डित के ग्रन्थ 'रामावतारचरित' के युद्धकांड प्रकरण में उपलब्ध एक बहुत अद्भुत प्रसंग 'मक्केश्वर लिंग' से संबंधित हैं, जो आम तौर पर अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। वह प्रसंग काफी दिलचस्प है। शिव रावण द्वारा याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर महादेव) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर नहीं रखना। रावण आकाशमार्ग से लंका की ओर जाता है पर रास्ते में कुछ ऐसे हालत बनते हैं की रावण को शिवलिंग धरती पर रखना पड़ता है। वह दुबारा शिवलिंग को उठाने की कोशिश करता है पर खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं। वेंकतेश पण्डित के अनुसर यह स्थान वर्तमान में सऊदी अरब के मक्का नामक स्थान पर स्थित है।
सऊदी अरब के पास ही यमन नामक राज्य भी है जहाँ श्री कृष्ण ने कालयवन नामक राक्षस का विनाश किया था। जिसका जिक्र श्रीमदभगवत पुराण में भी आता है। पहले राजा भोज ने मक्का में जाकर वहां स्थित प्रसिद्ध शिव लिंग मक्केश्वर महादेव का पूजन किया था, इसका वर्णन भविष्य-पुराण में निम्न प्रकार है :-

"नृपश्चैवमहादेवं मरुस्थल निवासिनं !
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्य समन्विते :
चंद्नादीभीराम्भ्यचर्य तुष्टाव मनसा हरम !
इतिश्रुत्वा स्वयं देव: शब्दमाह नृपाय तं!
गन्तव्यम भोज राजेन महाकालेश्वर स्थले !! "

संदर्भ
 क़ुरान 5:13:4
 क़ुरान 5:13:4,2:17:1, 2:17:3,2:17:4,2:14:3,20:4:2
 नियमित समय में काबा यात्रा करना और उसके अतिरिक्त अन्य समयों में वही 'उम्रा' है,2:24:8

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