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जातीय जड़ता में सियासत : कहा है नारी

जातीय जड़ता में सियासत : कहा है नारी



अर्चना तिवारी 
जातीय जड़ता में जकड़ती जा रही भारतीय राजनीति के रंग से समाज का रंग भी
बदलने लगा है। उतार प्रदेश में आसन्न चुनावो की गर्मी के साथ  ही जातीय
आंकड़ो के जादूगरों ने अपने अपने ढंग से राजनीतिक डालो के लिए आंकड़े भी
जुटाने शुरू कर दिए है।  सभी राजनीतिक डालो की ओर  से जातीय आधार पर
ताकतवर नेताओ को अपने खेमे की ओर लाने की कवायद भी चल रही है। हर दल  को
जातीय वोट की चिंता है लेकिन  जाति की इस चुनावी वैतरणी में कोई यह जानने
की कोशिश नहीं कर रहा कि हर जाती में महिलाये भी होती है।  कोई राजनीतिक
दाल यह भी समझने का प्रयास नहीं कर रहा कि उसके जाति की चौसर पर सम्बंधित
समाज की , जाती की स्त्री की दशा क्या हो चुकी है या क्या होने वाली है।
भारत में यह सामान्य प्रचलन मान लिया गया है कि पुरुष की जाती के आधार पर
उस जाती की समस्त महिलाये भी वोट करती है। ख़ास तौर पर आरक्षण के बाद ,
यानी मंडल  लागू होने के बाद से जिस तरह से लोक कलयाणकारी सरकार बनाने के
लिए होने वाले चुनाव में जाती की लहार चलाई जा रही है उसके घातक असर को
अभी तक हमारे जान नायक समझ ही नहीं पा रहे है। उनकी इस जातीय समझ  वाली
भूमिका के चलते समाज की क्या दशा हो गयी है , इस तरफ वह नज़र ही नहीं
डालना चाहते। वोट बैंक  सुरक्षित करने के चक्कर में उन्होंने समूची
स्त्री जाति को ही असुरक्षित कर दिया है।  हालात यह हो चुकी है की जो
समाज पहले  हर महिला को सुरक्षित  रखने की कोशिश करता था , आज वह अब अपनी
जाती के हिसाब से ही महिलाओ के साथ बर्ताव करता है।
दर असल जाती की राजनीति ने कई स्तर  पर असर डाला है। इसने समाज की एका को
तो प्रभावित ही किया है , साथ ही हर जाती को दूसरी जाती के विपक्ष के रूप
में भी अस्थापित कर दिया है।  वास्तव में यह त्रासद और संकटपूर्ण दशा है।
 सामाजिक संस्थानों के अध्ययन भी इसी तरफ इशारा करते है। दरअसल भारतीय
राजनीति की विडम्बना है है की केवल कुछ जातियो को वोट बैंक बना कर सत्ता
के सिंहासन पर काबिज होने वाले राजनीतिक
दल  सत्ता के साथ उसी अंदाज़ में खेलते भी है।  वोट के आधार पर कुछ जातियो
की महिलाये उनके लिए विशेष बन जाती है और कुछ जाती की महिलाओ का कोई
पूछनहार तक नहीं होता। स्कूल , कॉलेज , हाट , बाज़ार , दूकान , ,खेत
खलिहान से लगायत  विधान सभाओ और संसद के गलियारों तक में महिलाओ के साथ
होने वाला बर्ताव बहुत सुखद नहीं दीखता। पता नहीं क्यों आजकल सभी
राजनीतिक लोगो में सामाजिक चेतना की जगह जातीय चेतना ज्यादा प्रबल दिखने
लगी है।  अब नेताओ को उनके सामाजिक योगदान के आधार पर नहीं बल्कि उनकी
जाती के आधार पर पार्टियों में महत्त्व दिया जाने लगा है।  उदाहरण के लिए
दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दम्भ भरने वाली भाजपा को ही लिया जा सकता
है।  उत्तर प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष बनाये गए केशव प्रसाद मौर्या
खुद स्वीकार करते है की पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने से पहले
उन्होंने कभी भी अपने नाम के आगे जाती सूचक  टाइटल  नहीं लगाया था।  वह
अपना नाम केवल केशव प्रसाद लिखा करते थे अब उनको केशव प्रसाद मौर्या
लिखना पद रहा है। ऐसा सिर्फ इसलिए  की समाज के सभी पिछड़े वर्ग  उर ख़ास
तौर पर मौर्या जाती  तक यह सन्देश दिया जा सके की उनके जाती के आदमी को
पार्टी ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया है।
यही हाल सभी  का है।  इसमे कोई भी काम नहीं है।   पार्टी यह सोचने को ही
तैयार नहीं है की का कितना घातक असर समाज पर।, ख़ास तौर से महिलाओ पर  रहा
है।  एक और उदाहरण यहाँ देना उचित लगता है।  अभी हाल ही में डी शहर की
ईदय विदारक बलात्कार की घटना हुई।  मुझे याद नहीं है की ऐसी लोमहर्षक कोई
घटाना इससे पहले हुई हो।  यह घटना इतनी भयावह थी जिसके सामने दिल्ली का
बहुचर्चित निर्भया काण्ड भी  था।  सरे राह सड़क से एक लड़की और एक महिला को
गुंडे बन्दूक की नोक पर गाडी से खींच लिए।  लड़की के पिता और हिला के पति
के सामने ही वहशीपने का नंगा नाच खेला गया।  बेटी और पत्नी उनकी आँखों के
सामने ही चिल्लाती रही। क्रूरता , वहशीपन और मानवीयता की साड़ी सीमाओ से
भी ज्यादा उन गुंडों ने समाज और मर्यादा की हर सीमा को तोड़ा यकीन इतनी
वीभत्स और घिनौनी घटना पर भी सामाजिक चेतना के अलामबरदारो के खुद के भीतर
कोई चेतना जागते हमने नहीं देखा।  बुलंदशहर इ वहशीपन का शिकार यह परिवार
ऐसी जाती का नहीं था  को अपना वोटबैंक मिलता।  दो दिन की सुर्खियों के
बाद यह रा प्रकरण शांत हो गया।  एक दलित रोहित बेमुला पर नसद थाप करने
वाली उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला मायावती जी के लिए बुलंदशहर की
यह घटना इसलिए आयने नहीं रखती क्योकि पीड़ित महिलाये सवर्ण जाती की थी
लेकिन दरिंदे दलित थे।
वास्तव में भारत की राजनीति आज ऐसे मुकाम पर कड़ी दिख रही है जहां वाल
सत्ता ही सर्वोपरि है।  किन हमारे नायक यह भूल जाते है की समाज का नाम
जाती नहीं आई।  थोड़े समय के लिए जातीय चेतना उभार कर आप सत्ता पा कटे है
लेकिन सत्ता तो आपको समाज में ही  चलानी है। नेता यह भूल जाते  है की
जिस भी जाती की राजनीति वे करना चाहते है उन सभी जातियो में आधी भागीदारी
महिलाओ की भी है।  जातियो को आरक्षण के नाम पर बाँट चुके नेताओ को यह भी
सोचना  होगा की दशको से लंबित महिला आरक्षण बिल को उन्होंने संसद में पास
 ई होने दिया है।  महिलाओ के लिए तो जाती से अधिक उस महिला आरक्षण की
जरूरत है।  राजनीति के ये खिलाड़ी यह भूल जाते है की अब भारत की बेतिया भी
समझदार हो चुकी है और उन्हें अपने ओ की चिंता होने लगी है। कल्पना कीजिये
की जातीय राजनीति के विरुद्ध  यदि कोई एक महिला केवल महिला अधिकारों के
लिए  राजनीति शुरू करे और पुरुषो के विरुद्ध  महिलाओ को संगठित कर आगे
चले तब जो भयावह दृश्य बनेगा उससे कैसे पर पा सकेंगे।  क्या अब हमारी
राजनीति हमें मैला पुरुष संघर्ष के लिए प्रेरित करेगी।

एक नज़र कुछ ख़ास तथ्यों पर :

  इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन (आईपीयू) की रिपोर्ट  बताती है कि भारत की
संसद या विधानसभा में महिला जनप्रतिनिधियों की काफी कम उपस्थिति महिलाओं
के प्रति भेदभावपूर्ण राजनीतिक मानसिकता का प्रतीक है। इस साल की आईपीयू
की रिपोर्ट में इस मोर्चे पर भारत को 103वें नंबर पर रखा गया है। इस सूची
में पहले दस नंबर पर रवांडा, बोलिविया, अंडोरा, क्यूबा, सेशेल्स, स्वीडन,
सेनेगल, फिनलैड, इक्वेडोर व दक्षिण अफ्रीका जैसे देश हैं। पड़ोसी देशों
में सिर्फ श्रीलंका से ही बेहतर स्थिति में भारत है। पिछले साल आईपीयू ने
189 देशों की संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर जो
वरीयता सूची बनाई थी, उसमें भारत का स्थान एक सौ ग्यारहवां था। तब भी और
आज भी सीरिया, नाइजर, बांग्लादेश, नेपाल व पाकिस्तान के अलावा चीन व
सिएरा लियोन जैसे देश इस मामले में भारत से आगे हैं। आईपीयू की रिपोर्ट
के हिसाब से संसद में हर दस सदस्यों में सिर्फ एक महिला है। समानुपातिक
प्रतिनिधित्व की दहलीजपर भले ही महिलाएं नहीं पहुंच पाई हैं, लेकिन पहले
की तुलना में उनकी उपस्थिति का दायरा थोड़ा बहुत जरूर बढ़ा है। इस समय
543 सदस्यों वाली लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 65 है। राज्यसभा
में 243 सांसदों में 31 महिलाएं है। यह जरूर है कि 1952 के पहले आम चुनाव
से लेकर 2014 के चुनाव तक महिला सांसदों की संख्या बेहद धीमी रफ्तार से
बढ़ी है। 1952 में बीस महिला चुनाव जीत पाईं। यह संख्या लोकसभा के कुल
सदस्यों का 4.1 फीसद थी।
बाद के चुनाव में महिलाओं के मैदान में उतरने की संख्या तो बढ़ती गई
लेकिन उस अनुपात में वे लोकसभा तक नहीं पहुंच सकीं। 1957 में 45 महिलाओं
ने चुनाव लड़ा। यह आंकड़ा कुल उम्मीदवारों का 2.9 फीसद ही था। 22 महिलाओं
ने चुनाव जीत कर सदन में अपनी उपस्थिति 4.5 फीसद दर्ज कराई। तीसरे आम
चुनाव में 1962 में 31 महिलाएं संसद में पहुंची जो कुल सांसदों का 6.3
फीसद थीं। तब 66 महिलाएं चुनाव मैदान में उतरी थीं यानी कुल उम्मीदवारों
का महज 3.2 फीसद। 1967 में तो यह फीसद 2.8 रह गया लेकिन 67 महिलाओं ने
चुनाव लड़ा। यह बात अलग है कि 29 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका
प्रतिनिधित्व घट कर 5.6 फीसद रह गया।
यह 1971 में गिर कर 4.1 फीसद रह गया। कुल उम्मीदवारों की तीन फीसद यानी
86 महिलाओं ने चुनाव लड़ा लेकिन जीत सकीं 21 ही। 1977 में तो स्थिति और
गड़बड़ा गई। महिलाओं की उम्मीदवारी सिकुड़ कर 2.9 फीसद पर आ गई। 70
महिलाओं में से 19 ही जीत पाईं और लोकसभा में उनका हिस्सा सबसे कम 3.5
फीसद ही रहा। 1980 का चुनाव इस मायने में अहम रहा कि पहली बार महिला
उम्मीदवारों की संख्या ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया। उस साल 143 महिलाओं
ने चुनाव लड़ा। हालांकि यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 3.1 फीसद ही था। 28
महिलाएं (कुल सदस्यों का 5.2 फीसद) ही चुनाव जीत पाई। उसके बाद से महिला
उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। हालांकि कुल उम्मीदवारी में उनका
फीसद कम ही बढ़ा।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में 162
महिलाएं यानी कुल उम्मीदवारों में तीन फीसद मैदान में उतरीं। 42 को सफलता
मिली जिसके बल पर लोकसभा में उन्होंने अपनी हिस्सेदारी 8.2 फीसद कर ली।
1989 में कुल उम्मीदवारों में 3.2 फीसद यानी 198 महिला उम्मीदवार थीं।
लेकिन जीत पाई केवल 29 ही और पिछली बार का लोकसभा में हिस्सेदारी का फीसद
8.2 से घट कर 5.5 पर आ गया। 1991 में कुल 326 महिलाएं मैदान में थीं।
उम्मीदवारी में 3.8 फीसद का यह हिस्सा 37 सीटों पर जीत के साथ लोकसभा में
महिलाओं की 7.1 फीसद उपस्थिति दर्ज करा गया। 1996 में 40 महिलाएं लोकसभा
पहुंची। यह कुल सदस्य संख्या का 7.4 फीसद था। लेकिन 599 महिलाओं ने तब
चुनाव लड़ा था। और कुल उम्मीदवारों में उनका फीसद पहली बार चार को पार कर
4.3 हुआ था। 1998 में महिला उम्मीदवारों की संख्या घटकर 274 रह गई। यह
कुल उम्मीदवारों का 5.8 फीसद था। लेकिन उस चुनाव में 43 महिलाओं ने जीत
दर्ज कर लोकसभा में अपनी हिस्सेदारी 7.9 फीसद कर ली। यह सिलसिला 1999 में
भी जारी रहा। तब चुनाव हालांकि 284 महिलाओं ने ही लड़ा लेकिन कुल
उम्मीदवारी में अपना हिस्सा 6.1 फीसद कर लिया। तीन साल में तीन चुनाव
होने की वजह से कुल उम्मीदवारों की संख्या वैसे भी उस साल कम रही थी।
बहरहाल 1999 में 49 महिलाओं ने चुनाव जीता और अपना हिस्सा नौ फीसद कर
लिया। 2004 में 355 महिलाएं (कुल उम्मीदवारों का 6.5 फीसद) चुनाव लड़ी और
45 (कुल सांसदों का 8.3 फीसद) जीत गईं। 2009 में हुए आम चुनाव में 556
महिलाएं मैदान में उतरीं। यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 6.9 फीसद थी। खास
बात यह है कि पहली बार महिलाओं ने पचास का आंकड़ा पार कर 59 सीटें जीतीं
और पहली बार लोकसभा में उनकी उपस्थिति दहाई तक पहुंच कर 10.9 फीसद हो गई।
2014 में लोकसभा में महिलाओँ का फीसद बारह को पार कर गया। इस तरह 62 साल
के सफर में महिला सांसदों की संख्या बीस से 65 हो पाई है।
सिर्फ लोकसभा की ही यह तस्वीर नहीं है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में
तो ऐसे मौके भी आए हैं जब एक भी महिला चुनाव नहीं जीत पाई। केरल,
उत्तराखंड, नगालैंड व मेघालय जैसे राज्य जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में
अग्रणी माने जाते हैं वहां की विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे
कम है। नगालैंड ने तो इस मामले में मिसाल कायम की है। राज्य की साठ
सदस्यों की विधानसभा में पिछले पचास साल में एक भी महिला नहीं पहुंची है।
एक चुनाव में तो करीब दो सौ पुरुष उम्मीदवारों के बीच केवल चार महिलाएं
थीं। यह हालत तब है जब राज्य में हमेशा पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने
ज्यादा मतदान किया है।
अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर व मेघालय के किसी भी विधानसभा चुनाव में महिला
उम्मीदवारों की संख्या कभी भी 25 तक नहीं पहुंच पाई है। सफलता के मामले
में रिकार्ड बना 2013 में हुए मेघालय विधानसभा चुनाव में जहां चार
महिलाएं चुनाव जीत कर विधायक बनीं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की
विधानसभा में सिर्फ एक बार महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्रमशः नौ व आठ फीसद
रहा। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या केरल में ज्यादा है। वहां भी
विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति आमतौर पर अपवाद के रूप में 1996 को
छोड़ कर छह फीसद के आसपास ही रही है।

वैश्विक आंकड़ों में संतुलन कम

जाहिर है कि ये आंकड़े आधी आबादी के लिए निराशाजनक है। खास तौर से तब जब
मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। वजह साफ है। राजनीतिक
पार्टियां महिलाओं को ज्यादा उम्मीदवार बनाने में विशेष रूचि नहीं लेती।
इस जाते आईपीयू की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। लेकिन
आईपीयू जिस आधार पर तुलना करता है उसमें विसंगतियां ज्यादा हैं। संबंधित
देश की आबादी और वहां के प्रमुख सदन के सदस्यों की संख्या को ध्यान में
नहीं रखा गया। यह सही है कि पूरी दुनिया में राजनीति में महिलाओं की
संख्या लगातार बढ़ रही है।
आईपीयू की वरीयता सूची में रवांडा आश्चर्यजनक रूप से पहले स्थान पर है।
सितंबर 2013 में वहां हुए चुनाव में 63.8 फीसद महिलाएं जीतीं। यह पूरी
दुनिया में पहला मौका था जब किसी देश में महिला सांसदों की संख्या साठ
फीसद के पार पहुंची। बाद के नौ स्थानों पर अंडोरा, क्यूबा, स्वीडन,
दक्षिण अफ्रीका, सेशेल्स, सेनेगल, फिनलैंड इक्वेडोर व बेल्जियम जैसे देश
हैं। इस सूची में कनाडा का 54वें व अमेरिका का 72वें स्थान पर होना
भारतीय राजनीति के पैरोकारों को सुखद लग सकता है लेकिन दक्षिण एशिया के
पड़ोसी देशों से तुलना की जाए तो श्रीलंका को छोड़ कर बाकी सभी देशों की
स्थिति भारत से बेहतर है। श्रीलंका की 225 सदस्यों वाली संसद में महिलाओं
की संख्या केवल तेरह है और इस नाते आईपीयू की सूची में उसे 133वां स्थान
मिला है।
यह हालत तब है जब श्रीलंका में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री का पद महिला
संभाल चुकी है। नेपाल में कभी कोई महिला राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं
बनी लेकिन वहां की संसद में 30 फीसद महिलाएं हैं। सूची में उसका स्थान
35वां है। नेपाली सांसद में हर तीन सांसद में एक महिला है। चीन में करीब
25 फीसद सांसद महिलाएं हैं। रैकिंग में वह 53वें नंबर पर निचले सदन में
24 फीसद महिलाओं की वजह से है। जहां तक महिला अधिकारों और समानता की बात
है मुस्लिम बहुल दो पड़ोसी देशों- बांग्लादेश व पाकिस्तान की स्थिति
अच्छी नहीं मानी जाती लेकिन संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने के
मामले में ये दोनों देश भारत से आगे हैं। पाकिस्तान में ऊपरी सदन में 17
फीसद और निचले सदन में 21 फीसद महिलाएं हैं। महिला सांसदों की कुल संख्या
84 है और आईपीयू की सूची में उसका स्थान 64वां है। बांग्लादेश में 20
फीसद सांसद महिला हैं। अरसे से राष्ट्राध्यक्ष के पद पर दो बेगमों के
होने को देखते हुए यह संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन भारत के 12 फीसद से तो
यह ज्यादा है ही।
अफगानिस्तान के दोनों सदनों में 97 महिला प्रतिनिधि हैं। पिछले पांच साल
में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की राजनीति में स्थित सुधरी है। जिन सदनों
में महिलाओं की नुमाइदंगी तीस फीसद से ज्यादा है, उनकी संख्या पांच साल
में पांच से बढ़ कर 42 हो गई है। 40 फीसद से ज्यादा महिला प्रतिनिधियों
वाले सदनों की संख्या इस अरसे में एक से तेरह हो गई है। चार सदनों में
महिलाओं की संख्या पचास फीसद से ज्यादा है। आईपीयू की सूची में भारत के
पिछड़ने पर चिंता भले ही जताई जाए, यूरोप के विकसित देशों में भी स्थिति
ज्यादा अच्छी नहीं है। 1995 में आईपीयू की सूची में पहले दस स्थान पर
यूरोपीय देशों का दबदबा था। 2015 की रिपोर्ट में पहले दस देशों में चार
सब सहारा अफ्रीका के हैं। 1995 की सूची के फिनलैंड, सेशेल्स व स्वीडन
जैसे देश ही 2015 में टॉप टैन में अपनी जगह बचाए रख पाए हैं।

संख्या कम अधिकार ज्यादा

 सरकार में मंत्री पद संभालने के मोर्चे पर भारत दुनिया में 37वें नंबर
पर है। नरेंद्र मोदी के 27 केंद्रीय मंत्रियों के मंत्रिमंडल में आठ
महिलाओं को जगह मिली है। यह 22.7  फीसद है। मंत्री पद पाने वाली महिलाएं
हैं- सुषमा स्वराज , स्मृति ईरानी , मेनका गाधी , हर सिमरन कौर बादल ,
उमा भारती , अनुप्रिया पटेल  साध्वी निरंजन ज्योति और निर्मल सीतारमण।
अंतर राष्ट्रीय  परिदृश्य कुछ इस प्रकार है।
चीन इस सूची में 65वें नंबर पर है। वहां 26 मंत्रियों में सिर्फ तीन
महिलाएं हैं। यह 11.5 फीसद है और रैकिंग में वह 65वें नंबर पर हैं। नेपाल
में हर तीसरी सांसद महिला है। उसका नंबर 59वां है। अफगानिस्तान में तीस
मंत्रियों में सिर्फ तीन महिलाएं हैं । भूटान में दस मंत्री हैं, महिला
केवल एक ही। पाकिस्तान के निचले और ऊपरी सदन में महिलाओं की संख्या काफी
अच्छी है लेकिन सऊदी अरब, वानुआतु, टोंगा व हंगरी की तरह वहां किसी महिला
को मंत्री पद के योग्य नहीं मान गया। श्रीलंका में 28 मंत्रियो में से दो
ही महिला हैं। बांग्लादेश में तीस मंत्री है।
डी को विक्सित कहने वाले देशो की भी दशा बाहत ठीक नहीं है।  फिनलैंड में
जरूर 16 मंत्रियों में से दस महिला हैं। स्वीडन में दस महिला मंत्री है
और फ्रांस व नार्वे में आठ-आठ। फिनलैंड में तो महिलाओं के पक्ष में 62.5
फीसद मंत्री पद है, अन्य देशों में यह पचास फीसद के आसपास है। लेकिन
ब्रिटेन में यह महज 22.7 फीसद है और सूची में उसका स्थान 36वां है।
अमेरिका में बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में स्थिति मामूली ही बेहतर है। 23
में से छह महिला मंत्रियों का फीसद 26.1 फीसद बैठता है और यह अमेरिका को
दुनिया में 29वें स्थान पर पहुंचा दिया है।
दुनिया के 273 सदनों में से 43 (15.8 फीसद) में अध्यक्ष पद महिलाओं के
हाथ में है। इनमें लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन भी हैं। उपाध्यक्ष पद
पर जरूर महिलाओं का फीसद 28.7 है। 634 सदनों में उनकी संख्या 169 है। 174
देशों के 249 सदनों में 106 में कम से कम एक उपाध्यक्ष महिला हैं। 152
देशों में से दस- अर्जेंटीना, ब्राजील, रिपब्लिक आफ कोरिया, सेंट्रल
अफ्रीकन रिपब्लिकन, चिली, क्रोएशिया, लाइबेरिया, लिथुआनिया, माल्टा व
स्विटजरलैंड में महिला राष्ट्राध्यक्ष हैं। 193 देशों में से 14 में ही
सरकार की कमान महिलाओं के हाथ में है। पिछले एक साल में दुनिया भर में
महिला मंत्रियों की संख्य 670 से 715 हुई है।

(आंकड़े आई पी यू  की एपोर्ट से लिए गए है )




 लटका हुआ है महिला आरक्षण बिल  :

इ महिला आरक्षण बिल पर अमल से इस स्थिति को सुधारा जा सकता है। महिलाओं
को लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसद आरक्षण देने के लिए लगभग
हर पार्टी सैद्धांतिक रूप से सालो से सहमत है। सार्वजनिक मंच पर इसे
वैचारिक बहस का मुद्दा जरूर बना दिया जाता है लेकिन जब इस पर कानून बनाने
की बात आती है तो सभी बगले झांकने लगते हैं। आधे अधूरे तर्कों के सहारे
महिला आरक्षण का विरोध किया जाता है और उसके पैरोकार इसी को बहाना बना कर
कदम पीछे खींच लेते हैं। कुछ समय के लिए सत्ता में रही एचडी देवगौड़ा
सरकार ने 1996 में पहली बार लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पेश किया। 1997
में लोकसभा भंग होने के साथ ही बिल भी मर गया। अगली बार भी यही हुआ। 1998
में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिल पेश किया लेकिन अप्रैल 1999 में
लोकसभा भंग हो जाने की वजह से बिल अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सका। 1999
में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन
(एनडीए)की सरकार बनी। 2004 में कार्यकाल खत्म होने से कुछ पहले ही बिल
पेश करने की मुंह दिखाई कर दी गई। बिल पर और धूल जमती चली गई। यूपीए
सरकार के पहले कार्यकाल में 2008 में कहीं जाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
ने बिल पेश किया। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में 2010 में राज्यसभा
ने बिल पास कर दिया। मामला लोकसभा में अटक गया। और तब से अटका हुआ ही है।
जानिये जनेऊ का विज्ञानं

जानिये जनेऊ का विज्ञानं


संजय तिवारी 


ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥

जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।

‘उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’
किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।



हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।

यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता।

मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है। आओ जानते हैं जनेऊ के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ ही उसके स्वास्थ लाभ के बारे में।

हर हिन्दू का कर्तव्य : हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।

ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।

ब्रह्मचारी और विवाहित : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है।

जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।

तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है।

चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।

नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।

पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।

जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।

चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।

जनेऊ धारण वस्त्र : जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।

मेखला, कोपीन, दंड : मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है।

कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।

जनेऊ धारण : बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है।

यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।

गायत्री मंत्र : यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं।

‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण,
‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण,
‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है।

गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।



ऐसे करते हैं संस्कार : यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्‍वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।

फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।

इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।

शाम को खाना खाने के पश्चात्‌ दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूं। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है।

कब पहने जनेऊ : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है।

लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं,
क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।

अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।

* किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।

* विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।

* जब भी मूत्र या शौच विसर्जन करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।

जनेऊ संस्कार का समय : माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।

मुहूर्त : नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं।

पुनश्च: : पूर्वाषाढ, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, ज्येष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्र द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दसमी, एकादसी, तथा द्वादसी तिथियां, रवि, शुक्र, गुरु और सोमवार दिन, शुक्ल पक्ष, सिंह, धनु, वृष, कन्या और मिथुन राशियां उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन यानी यज्ञोपवीत यानी जनेऊ संस्कार शुभ होता है।

जनेऊ के नियम :
1. यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।

2. यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।

3. जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएं भी यज्ञोपवीत संभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।

4.यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।

5.देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।

जनेऊ पहनने के ये हैं 7 जबरदस्त फायदे...
अमरेश सौरभ | 

भारतीय संस्कृति में यज्ञोपवीत यानी जनेऊ धारण करने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही है. 'उपनयन' की गिनती सोलह संस्कारों में होती है. पर आज के दौर में लोग जनेऊ पहनने से बचना चाहते हैं. नई पीढ़ी के मन में सवाल उठता है कि आख‍िर इसे पहनने से फायदा क्या होगा?
जनेऊ केवल धार्मिक नजरिए से ही नहीं, बल्कि सेहत के लिहाज से भी बेहद फायदेमंद है. जनेऊ पहनने के फायदों की यहां संक्षेप में चर्चा की गई है.
1. जीवाणुओं और कीटाणुओं से बचाव
जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं, वे मल-मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुंह बंद रखते हैं. इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणुओं और कीटाणुओं के प्रकोप से बच जाते हैं.  

2. तन निर्मल, मन निर्मल
जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है. ऐसा करने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों पर भी दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से है. इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की श‍िकायत नहीं होती है. पेट साफ होने पर शरीर और मन, दोनों ही सेहतमंद रहते हैं.
3. बल व तेज में बढ़ोतरी
दाएं कान के पास से वे नसें भी गुजरती हैं, जिसका संबंध अंडकोष और गुप्तेंद्रियों से होता है. मूत्र त्याग के वक्त दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से वे नसें दब जाती हैं, जिनसे वीर्य निकलता है. ऐसे में जाने-अनजाने शुक्राणुओं की रक्षा होती है. इससे इंसान के बल और तेज में वृद्ध‍ि होती है.
4. हृदय रोग व ब्लडप्रेशर से बचाव
रिसर्च में मेडिकल साइंस ने भी पाया है कि जनेऊ पहनने वालों को हृदय रोग और ब्लडप्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है. जनेऊ शरीर में खून के प्रवाह को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है.
5. स्मरण शक्ति‍ में इजाफा
कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्त‍ि में भी इजाफा होता है. कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें एक्ट‍िव हो जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्त‍ि से होता है. दरअसल, गलतियां करने पर बच्चों के कान ऐंठने के पीछे भी मूल मकसद यही होता था.
6. मानसिक बल में बढ़ोतरी
यज्ञोपवीत की वजह से मानसिक बल भी मिलता है. यह लोगों को हमेशा बुरे कामों से बचने की याद दिलाता रहता है. साथ ही ऐसी मान्यता है कि जनेऊ पहनने वालों के पास बुरी आत्माएं नहीं फटकती हैं. इसमें सच्चाई चाहे जो भी हो, पर केवल मन में इसका गहरा विश्वास होने भर से फायदा तो होता ही है.
7. आध्यात्म‍िक ऊर्जा की प्राप्त‍ि
जनेऊ धारण करने से आध्यात्म‍िक ऊर्जा भी मिलती है. ऐसी मान्यता है कि यज्ञोपवीत में प्रभु का वास होता है. यह हमें कर्तव्य की भी याद दिलाता है. 
संस्कृत की संस्कृति को बचने का अद्भुत प्रयास

संस्कृत की संस्कृति को बचने का अद्भुत प्रयास

विश्व का अकेला संस्कृत भाषी अख़बार सुधर्मा 


संजय तिवारी 

यह किसी महापुरुष की दैवी शक्ति और संकल्प का ही प्रमाण है।  भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक के मैसूर शहर से एक दैनिक संस्कृत अखबार प्रकाशित होता है। नाम है सुधर्मा।  वर्ष 1970 के 15 जुलाई से अनवरत प्रकाशित इस अखबार के संस्थापक थे पंडित वरदराजा आयंगर। बहुत काम लोगो को मालूम है कि पंडित वरदराज आयंगर ही वह शख्शियत है जिनके प्रयास से 1976 में आकाशवाणी ने तथा 1990 में दूरदर्शन ने संस्कृत में समाचारो तथा कार्यक्रमो का प्रसारण शुरू किया था। पंडित आयंगर का मानना था कि संस्कृत को जितने कठिन भाषा के रूप में प्रायोजित किया जाता है , दरअसल संस्कृत बहुत ही सरल है। संस्कृत की स्थापना और उन्नति के लिए वह पूरे जीवन संघर्ष करते रहे। 15  जुलाई 1970 से स्थापित सुधर्मा के वह 20 वर्षो तक संपादक रहे। सुधर्मा आज विश्व के 90 देशो में इ-पेपर पर उपलब्ध है। इस अख़बार के सम्पादकीय समिति में द्वारिका पीठाधीश्वर ,श्रृंगेरी पीठाधीश्वर ,कांची पीठाधीश्वर, श्रीपेजवारमत्त पीठाधीश्वर,श्री अहोबिलमत्त पीठाधीश्वर, श्री गणपति सचिदानंद स्वामी जी ,श्री शिवरात्रि राजेंद्र स्वामी जी ,श्री आदिचनचलागीरी मठ , परकलामठ के अलावा पूर्व राष्ट्रपति बी डी जट्टी ,पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई , पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी एन  भगवती और इ एस  वेंकतरामैया के अलावा कई बड़े राजनेता ,विद्वान् और चिंतक शामिल रहे है। 
वर्ष 1990  में पंडित वरदराजा आयंगर के परमनिर्वाण के बाद से उनके द्वितीय पुत्र के वी  संपत कुमार यह दायित्व निभा रहे है।  लेकिन अब वह इसे चला पाने में काफी कठिनाइयों का अनुभव करते है।  संस्कृत को लेकर अखबारी चिंताओं से वह बहुत दुखी है। वह नहीं समझ पा रहे कि पंडित वरदराजा आयंगर द्वारा स्थापित इस विश्व धरोहर को वे कैसे सम्हाल सके।  सुधर्मा के 46 वर्ष की इस यात्रा को आगे बढ़ाने में बहुत बाधाएं  आने लगी है। संस्कृत भाषा का एकमात्र यह पत्र बहुत कठिन दौर में है।  

संस्कृत अखबार सुधर्मा
संस्कृत अखबार सुधर्मा
संस्कृत को लेकर सरकारी स्तर पर चाहे कितनी भी बड़ी – बड़ी बातें क्यों हो जाए, हकीकत कुछ और ही है. इसका जीता – जागता उदाहरण संस्कृत अखबार ‘सुधर्म’ है जो आर्थिक दिक्कतों की वजह से बंद होने की कगार पर खड़ा है। सुधर्मा दुनिया का एकमात्र संस्कृत दैनिक अखबार है जो यदि अपना अस्तित्व बचा पाया तो एक महीने बाद अपनी लॉन्चिंग का 46वां साल पूरा कर लेगा।  यह एक पन्ने का अखबार है और इसका सकुर्लेशन तकरीबन 4,000 है। हालांकि इसके ई-पेपर के एक लाख से ज्यादा पाठक हैं जिनमें ज्यादातर इजरायल, र्जमनी और इंग्लैंड के हैं।आयंगर के पुत्र और सुधर्मा के संपादक के वी संपत कुमार कहते हैं कि अखबार की छपाई जारी रखना बहुत संघर्षपूर्ण रहा है और कोई सरकारी या गैर सरकारी सहायता नहीं मिल रही जिससे इसे जारी रखा जा सके। 
दरसल यह संकट केवल सुधर्मा नाम वाले एक अखबार का नहीं रह गया है।  वास्तव में यह संस्कृत की संस्कृति के सामने आया ऐसा संकट है जिससे समग्र भारतीयता भी जुडती है। सुधर्मा की निरन्तरता बहुत जरूरी है।
मोदी ने कहा था, ‘क्या हो अगर काले धन के खिलाफ भी एक सर्जिकल स्ट्राइक हो जाए

मोदी ने कहा था, ‘क्या हो अगर काले धन के खिलाफ भी एक सर्जिकल स्ट्राइक हो जाए


सटीक समय ,अचूक निशाना

 संजय तिवारी 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक कुछ नहीं करते। वह इस तरह से करते है की सब अचानक लगता है। चाहे पाकिस्तान के खिलाफ की गयी सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर कला धन के खिलाफ। वह सीधे हल्लाबोलते है। हल्ला नहीं करते। यही उनके काम करने का तरीका है जो उनका हर कदम लोगो को और खासकर उनके विरोधियो को चौकात रहता है। यह भी खास बात है की उनका निशाना कभी भी चूकता नहीं है। काला धन के खिलाफ अभी ताज़ी कार्रवाई इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमे खासकर उत्तर प्रदेश के उनके विरोधियो की साँसे ही टंग  गयी है। अब से ठीक 15 दिन पहले वडोदरा में एक समारोह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘क्या हो अगर काले धन के खिलाफ भी एक सर्जिकल स्ट्राइक हो जाए।’ तब किसी को उनकी मंशा का अंदाजा नहीं था। लेकिन मंगलवार रात मोदी ने अचानक राष्ट्र को संबोधित करते हुए आधी रात से देश में 500 और 1000 रुपये के नोटों को खत्म करने का एलान किया, तब उनकी बात की गहराई का पता चला। 




प्रधानमंत्री के इस फैसले को अगले साल उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यो में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी चुनाव प्रचार के वक्त लोगों के सामने ‘निर्णयात्मक सरकार’ की छवि प्रस्तुत करना चाहती है। हालांकि, सरकार के इस फैसले के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। नोट बंद होने की वजह से चुनाव में खड़े कई केंडिडेट चुनाव में खर्च की जाने वाली राशि को लेकर परेशान हो सकते हैं। मोदी सरकार इससे विपक्षी दल के लोगों का मुंह बंद करना चाहती है जो उसे काले धन को रोकने के लिए किए गए प्रयासों के लिए घेर रहे थे या फिर आगे घेर सकते थे। हालांकि, यह अचानक से लिया गया फैसला नहीं है। मोदी सरकार इसपर पिछले 6 महीने से काम कर रही थी। इसको लागू करने से पहले कुछ बाकी काम निपटाने की वजह से इसे छिपाकर रखा गया। वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा प्रिंसिपल सेक्रेटरी निरिपेंद्र मिश्रा, पिछले और मौजूदा आरबीआई गवर्नर, वित्त सचिव अशोक लवासा, आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास को ही इस बात की जानकारी थी।



 दरअसल मोदी ने नोटों पर अचानक प्रतिबन्ध लगाकर यूपी, हरियाणा और गुजरात सहित उन पांच राज्यों की धनबल की  सियासत पर ही  ग्रहण लगा दिया है जहाँ चुनाव सर पर आ गए हैं और धन्ना सेठों ने चुनाव लड़ने की रक़म अपने ठिकानों पर बोरों और दीवानों के भीतर छुपा रखी है. यह रक़म इतनी बड़ी है कि इन्हें बैंकों में जमा कर इन्कम टैक्स विभाग से बच पाना संभव नहीं होगा. सपा और बसपा जैसी पार्टियों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती मानी जा रही है। इस खर्चीले दौर में करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च हो जाते हैं. चुनाव आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर हो चुका है. एसोसियेशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की रिसर्च में भी यह बात साफ़ हो चुकी है कि देश में सिर्फ 16 फीसदी बुद्धिजीवी ही चुनाव लड़ते हैं. चुनाव लड़ने वाले शेष 84 फीसदी लोग खनन या शिक्षा माफिया हैं. बिल्डिंग बनाने वाले और ठेकेदार हैं. जिन लोगों के पास बेहिसाब सम्पत्ति है वही चुनाव लड़ पाते हैं। ब्लैक मनी रखने वाले अपने पास बड़े नोट ही रखते हैं. चुनाव सर पर हैं. तैयारियां अंतिम चरण में हैं. कई लोगों के टिकट भी फाइनल हो चुके हैं ऐसे समय में अचानक बगैर समय दिए हुए प्रधानमंत्री ने तुरंत 500 और 1000 रुपये के नोट बंद करने का एलान कर ऐसे लोगों की धडकनें बढ़ा दी हैं जिनके गोदामों में बेहिसाब धन भरा हुआ है. सरकार ने मौक़ा दिया है कि बैंकों में अपने गोदामों में भरे नोटों को नये नोटों से बदल लें। 



काले धन पर एक नजर

वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी किए गए 1999 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में मौजूद कुल जीडीपी का 20.7 प्रतिशत पैसा काला धन था। वहीं 2007 में इसका साइज बढ़कर 23.2 प्रतिशत हो गया। कुल 180 देशों में भारत का काला धन है। इसमें से 70 हजार करोड़ रुपए तो सिर्फ स्विस बैंक में ही है। इस बैंक में भारत का सबसे ज्यादा काला धन है। सभी बैंकों में कुल मिलाकर कितना काला धन है इस बात की जानकारी नहीं हो सकी है। 500 और 1000 के नोटों पर प्रतिबन्ध दरअसल भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और नकली नोटों की बढ़ती समस्या से बचने के मकसद से लगाया गया है. दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत ऐसा देश है जहाँ के बारे में यह माना जाता है कि जितना पैसा बैंकों में है उससे बहुत ज्यादा पैसा लोगों के पास कैश के रूप में मौजूद है. बैंक में तो वह पैसा रखा जाता है जिस पर टैक्स जमा होता है. लेकिन चुनाव लड़ने के लिए, बिल्डिंगें बनाने के लिए, ठेके लेने के लिए, रिश्वत देने के लिए और बिजनेस करने के लिए जो पैसा अपने पास रखा जाता है वह ज्यादातर 500 और 1000 के ही नोट होते हैं.


 बिगड़ेगा पांच राज्यो में चुनाव का गणित 



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 500 और 1 हजार के नोट बंद कर देने के बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में होने वाले चुनाव में वित्तीय संकट खड़ा हो सकता है। उत्तर प्रदेश और पंजाब एक ऐसा राज्या है जहां पैसा चुनाव मैनजमेंट का एक बड़ा हिस्सा होता है। इस फैसले के बाद पैसा खर्च करने की पार्टियों की रणनीतियों में बदलाव हो सकते हैं।

एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि 'चुनाव से पहले राजनीतिक दलो के पास अभियान चलाने के लिए पहले ही कालाधन रखा हो सकता है। इस फैसले के बाद नकदी का यह ढेर अब एक बेकार ढेर हो गया है। चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियों के लिए आज का यह फैसला किसी आपदा से कम नहीं है। राजनीतिक पार्टिया अब चुनावी रणनीतियों में बदलाव करने के लिए मजबूर हो जाएंगी।'
राजनीतिक विशलषकों का कहना है कि 500 और 1,000 रुपये के नोटों के बंद होने से दूसरों की तुलना में राजनीतिक दल अधिक प्रभावित हो सकते हैं। विशेष रूप से उन क्षेत्रीय खिलाड़ियों को जो अभी तक नियमों को चकमा देकर नकदी की सतत प्रवाह को सुनिश्चित करने के जटिल तरीके में महारथ रखते थे



2014 में आम चुनाव में जब्त हुए थे 330 करोड़ रुपए



आपको बता दें चुनाव आयोग द्वारा सभी राजनीतिक पार्टियों को यह दिशा निर्दश जारी होते है कि चुनाव प्रचार में लगाई जाने वाली राशि पहले से ही घोषित करें जिससे पारदर्शिता रहे, लेकिन फिर भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव प्रचार में बड़े पैमाने पर काले धन का इस्तेमाल होता है। साल 2014 में आम चुनाव में 330 करोड़ रुपए जब्त किए गए थे।


बड़े नोट बन्द होने से उड़े नेताओं के होश


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बड़े नोट बन्द करने के अचानक फैसले से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी में लगे नेताओं के होश फाख्ता हो गये हैं। राज्य विधानसभा के चुनाव चार महीने में होने हैं, और इसकी तैयारी में संभावित उम्मीदवारों के साथ ही राजनीतिक दल पूरी ताकत से लगे हैं। ऐसे में 500 और 1000 के नोट अचानक बन्द कर दिये जाने से चुनाव की तैयारी में लगे नेताओं के होश उड़ गये।काले धन पर मोदी के सबसे बड़े वार को भाजपा यूपी में भुनाने की तैयारी में जुट गई है। नेतृत्व ने मोदी सरकार के इस फैसले को यूपी में परिवर्तन यात्रा समेत पार्टी की रैली और सम्मेलनों में प्रमुखता से उठाने के निर्देश दिए हैं। बुधवार को दिल्ली में शीर्ष नेताओं के साथ बैठक के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी के रणनीतिकारों को कालेधन के मुद्दे को पूरी मजबूती के साथ जनता के बीच ले जाने को कहा है। 500 और 1000 के नोट बंद करने के फैसले के बाद पार्टी की रणनीति काले धन को लेकर विरोधियों पर हल्ला बोलने की है। सपाई कुनबे में सियासी ड्रामे के बीच ठंडे पड़ रहे पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे से चिंतित नजर आ रहे यूपी भाजपा के नेताओं को मोदी ने विधान सभा चुनाव से पहले सबसे बड़ा मुद्दा थमा दिया है। आम जनता से सीधे जुड़े इस मुद्दे को पार्टी किसी भी हाल में ठंडा नहीं होने देना चाहती है। पार्टी के नेताओं का मानना है कि पुराने नोट अचानक चलन से बाहर होने का सीधा और सबसे बड़ा असर यूपी में सपा व बसपा के चुनाव प्रचार अभियान पर पड़ेगा। हाई प्रोफाइल चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुकी दोनों पार्टियों के लिए अपने कार्यकर्ताओं को बांधे रखना मुश्किल होगा। भाजपा की योजना चुनाव प्रचार के मोर्चे पर सपा व बसपा को काले धन पर घेरने की है।  



देशभर में 500 रूपए और 1000 रूपए के नोटों को समाप्त कर और 500 रूपए के नए नोट व 2000 रूपए के नए नोट चलन में लाने का केंद्र सरकार का यह निर्णय काले धन को जमा करने वालों के लिए मुश्किल भरा हो सकता है। मगर इस निर्णय ने उत्तरप्रदेश चुनाव की तैयारियों को प्रभावित किया है। दरअसल देशभर में बड़े नोट्स को लेकर किए गए इस निर्णय से हड़कंप मच गया है।उत्तरप्रदेश में व्यापक चुनाव प्रचार अभियान कर रहे दलों समेत अन्य पार्टियों को भी इस तरह के निर्णय से झटका लगा है। दरअसल कथिततौर पर ये दल अपने बड़े खर्च के लिए इन नोट्स को चलन में नहीं ला सकेंगे और न ही ये अपने नोटों को बैंकों में जमा कर अपनी आय की घोषणा नहीं कर पाऐंगे। ऐसे में इनके नोट बर्बाद माने जा सकते हैं। फौरी तौर पर बाजार में पुराने नोटों के मंगलवार मध्यरात्रि से ही चलन से बाहर हो जाने के कारण बुधवार की सुबह से ही ये अपने खर्च पुराने नोटों से नहीं कर पाऐंगे ऐसे में यह रकम बर्बाद हो जाएगा। इन पार्टियों का बड़ा धन व्यर्थ हो जाएगा। चुनाव में प्रचार-प्रसार करने वाली इन कंपनियों को अपने खर्च पर नियंत्रण रखना होगा। हालांकि इस निर्णय से भाजपा को भी नुकसान हो सकता है। सरकार द्वारा इस तरह के प्रयास को कालेधन के विरूद्ध बड़ा प्रयास माना जा रहा है। हालाकि छोटे बजट वाले दलों को कुछ आसानी हो सकती है। अपनी चुनावी तैयारी करने वाली कांग्रेस, सपा और बसपा को भी इस निर्णय से बड़ा नुकसान हो सकता है।

 एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, ‘प्रधानमंत्री का यह निर्णय अव्यवहारिक है। नोटों के चलन को बन्द करने से पहले एक ‘एलार्म’ देना चाहिए था। नोट बन्द करने की तिथि घोषित होने पर लोग अपनी जरूरत का सामान तो खरीद लेते।’ उनका तर्क था, ‘मेरे चुनाव क्षेत्र में कई शादियां हैं, ऐसे में इस निर्णय से शादियों के इन्तजाम प्रभावित हो रहे हैं। सब्जी की व्यवस्था कैसे हो। शादी के लिए अन्य जरूरी सामान कैसे खरीदे जायेंगे।’ उन्होंने कहा, ‘एक दिन बाद 2000 और उसके कुछ दिन बाद 4000 रूपये मात्र निकालने से कैसे काम चलेगा। यह निर्णय मोदी के तानाशाह रवैये को ही दर्शाता है।’पूरब के एक जिले में चुनाव की तैयारियों में जोर शोर से लगे इन नेताजी ने कहा अचानक लिए गये इस फैसले से जन सामान्य के सामने कठिनाई खड़ी कर दी है। तमाम किसान ऐसे हैं जो गन्ना जैसे कैश क्राप के जरिये लाखों रूपये आर्जित करते हैं और वे ज्यादातर पैसे घर में ही रखते हैं। उनके सामने तो विकट समस्या पैदा हो जायेगी।सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी(बसपा) के नेता इस निर्णय पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं हैं, जबकि कांग्रेस फैसले को सही लेकिन इसके तरीके को गलत ठहरा रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मोदी के फैसले को सही ठहरा रही है। भाजपा नेताओं का कहना है कि प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोट बन्द कर काले धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की है। सपा के एक नेता ने स्वीकार किया कि अचानक इन नोटों के चलन बन्द करने से चुनाव लडऩे में दिक्कत आयेगी। आमतौर पर चुनाव के लिए लोग पैसा रखते हैं। इनमें बड़े लोग ही ज्यादातर होते हैं, लेकिन यह भी सही है कि इसमें ज्यादातर पैसे चन्दे के ही होते हैं। चन्दा देने वाले का कभी कभी नाम पता भी नहीं लिखा होता। ऐसे में अब नये सिरे से चुनाव तैयारियों के लिए चन्दा एकत्र करना होगा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मीडिया विभाग के अध्यक्ष सत्य देव त्रिपाठी ने कहा कि निर्णय तो सही है, लेकिन हड़बड़ी में लिया गया है। हड़बड़ी में लिये गये निर्णय आमतौर पर सही नहीं होते। त्रिपाठी ने कहा कि 1000 के नोट बन्द कर 2000 के नोट चलन में लाने का क्या औचित्य है। एक हजार के नोट से कालाबाजारी हो सकती है तो दो हजार के नोट से कालाबाजारियों को और मदद मिलेगी। 
 भाजपा ने मोदी के निर्णय को देश की अर्थव्यवस्था के लिए ऐतिहासिक कदम बताया और कहा कि इससे आने वाले दिनों में भारत एक मजबूत आर्थिक ताकत बनकर सामने आयेगा। भाजपा विधानमण्डल दल के नेता सुरेश कुमार खन्ना ने कहा कि काले धन की वजह से गरीबों का जीवन दूभर हो गया था। रोजमर्रा की जरुरतों के सामान की कीमत आकाश छू रही थी। सामान्य आदमी मकान नहीं ले सकता था। घर और जमीन की कीमत दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही थी। खन्ना ने कहा कि मोदी के निर्णय से आम आदमी बहुत खुश है। काला धन रखने वाले निराश हैं। केन्द्र की भाजपा की सरकार गरीबों के लिए समर्पित है। मोदी ने शपथ लेने के तत्काल बाद ही कह दिया था कि उनकी सरकार गरीबों के लिए समर्पित रहेगी। यह निर्णय लेकर मोदी ने साबित कर दिया कि वह और उनकी सरकार वास्तव में गरीबों के लिए समर्पित है।




 आई पी सिंह का ट्वीट चर्चा में 



भाजपा प्रवक्ता आइपी सिंह ने तो ट्वीट कर बसपा प्रमुख मायावती, सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति, विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष नसीमुद्दीन सिद्दीकी समेत कई चर्चित नौकरशाहों पर हमला बोला है। आइपी सिंह ने लिखा है कि लुटेरों की दुकान 12 बजे रात के बाद से बंद हो गयी है। बुधवार को बातचीत में आइपी सिंह ने कहा कि यह नई आर्थिक क्रांति है और इससे गरीबों के हक में माहौल बनेगा। उधर, भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि प्रधानमंत्री ने इस फैसले से साबित कर दिया कि अब कालाधन रखने वालों की खैर नहीं है। इससे आम आदमी के समानता के अधिकार की बुनियाद पड़ेगी और देश खुशहाली की ओर बढ़ेगा।

पीएम मोदी को दिया था प्रस्ताव

दरअसल, अनिल बोकिल ने पीएम मोदी को प्रस्ताव दिया था कि वह कालेधन पर रोक लगाने के लिए बाजार से 1000 रुपए और 500 रुपए के सभी नोट वापस ले लें। यही कारण है कि इस समय अनिल चर्चा में आ गए हैं और लोग कह रहे हैं कि इन्ही के प्रस्ताव पर अमल करते हुए पीएम मोदी ने ये अहम कदम उठाया है। हालांकि, मोदी सरकार की तरफ से अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है कि उन्होंने किसके प्रस्ताव पर ये कदम उठाया।

कौन हैं अनिल बोकिल

अनिल बोकिल अर्थक्रान्ति संस्थान के एक प्रमुख सदस्य हैं। आपको बता दें कि अर्थक्रांति संस्थान महाराष्ट्र के पुणे का एक संस्थान हैं, जो एक इकोनॉमिक एडवाइजरी बॉडी की तरह काम करता है। इस संस्थान में चार्टर्ट अकाउंटेट और इंजीनियर सदस्य हैं।


9 मिनट टाइम देकर 2 घंटे सुना था पीएम मोदी ने

अर्थक्रान्ति की वेबसाइट पर किए गए दावे के अनुसार जब अनिल बोकिल अर्थक्रान्ति की तरफ से तैयार किए गए 'अर्थक्रान्ति प्रपोजल' को मोदी के सामने बता रहे थे, जो शुरुआत में उन्हें सिर्फ 9 मिनट का वक्त दिया गया था। लेकिन पीएम मोदी को उनके प्रस्ताव और बातें इतनी पसंद आईं कि वह अनिल बोकिल को 2 घंटे तक सुनते रहे।


अर्थक्रान्ति प्रपोजल में थे 5 प्वाइंट

अर्थक्रान्ति प्रपोजल में 5 प्वाइंट थे, जिन्हें पीएम मोदी के सामने प्रस्तुत किया गया था। आइए जानते हैं क्या थे वो 5 प्वाइंट-

1- सभी 56 टैक्सों को खत्म कर दिया जाए, जिसमें इनकम टैक्स और इंपोर्ट ड्यूटी को भी खत्म करने का प्रस्ताव था।
2- बाजार से 100, 500 और 1000 रुपए के सभी नोट वापस ले लिए जाएं।
3- सभी अधिक कीमत के ट्रांजैक्शन सिर्फ बैंकिंग सिस्टम के जरिए ही किए जाएं, जैसे चेक, डीडी, ऑनलाइन आदि।
4- कैश ट्रांजैक्शन की लिमिट को निर्धारित किया जाए और कैश ट्रांजैक्शन पर कोई टैक्स न लगे।
5- सरकार की आय के लिए सिंगल टैक्स सिस्टम होना चाहिए जो सीधे बैंकिंग सिस्टम पर लगे, जिसे बैंकिंग ट्रांजैक्शन टैक्स भी कहा जा सकता है। इसकी सीमा 2 फीसदी से 0.7 फीसदी तक हो सकती है। यह टैक्स सिर्फ क्रेडिट अमाउंट पर लगाए जाने का प्रस्ताव दिया गया था।