ऋतूनां कुसुमाकरः

ऋतूनां कुसुमाकरः

संजय तिवारी

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता के दसवे अध्याय का पैंतीसवां श्लोक। भगवान् श्रीकृष्ण
अर्जुन से कहते है ,जो ऋतुओ में कुसुमाकर अर्थात वसंत है , वह मैं  ही तो
हूँ। यही कुसुमाकर तो प्रिय विषय है सृजन का। यही कुसुमाकर मौसम है कुसुम
के एक एक दल को पल्लवित होने का। अमराइयों में मंजरियो के रससिक्त होकर
महकने और मधुमय पराग लिए उड़ाते भौरों के गुनगुना उठाने की ऋतु  है वसंत।
प्रकृति के श्रृंगार की ऋतु। वसंत तो सृजन का आधार बताया गया है। सृष्टि
के दर्शन का सिद्धान्त बन कर कुसुमाकर ही स्थापित होता है। यही कारण है
कि सीजन और काव्य के मूल में तत्व के रूप में इसकी स्थापना दी गयी है।
सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान
साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की
ही शरण ली है। शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल
के मधुर गुंजन से झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती
सूर्य की रशिमयां, कामदेव की ऋतुराज 'बसंत' का सजीव रूप कवियों की उदात्त
कल्पना से मुखरित हो उठता है। उपनिषद, पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत)
के अतिरिक्त हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य धारा में भी बसंत का रस
भलीभांति व्याप्त रहा है। अर्थवेद के पृथ्वीसूत्र में भी बसंत का व्यापक
वर्णन मिलता है। महर्षि वाल्मीकि ने भी बसंत का व्यापक वर्णन किया है।
किष्किंधा कांड में पम्पा सरोवर तट इसका उल्लेख मिलता है- अयं वसन्त: सौ
मित्रे नाना विहग नन्दिता।
बुध्दचरित में भी बसंत ऋतु का जीवंत वर्णन मिलता है। भारवि के
किरातार्जुनीयम, शिशुपाल वध, नैषध चरित, रत्नाकर कृत हरिविजय, श्रीकंठ
चरित, विक्रमांक देव चरित, श्रृंगार शतकम, गीतगोविन्दम्, कादम्बरी,
रत्नावली, मालतीमाधव और प्रसाद की कामायनी में बसंत को महत्त्वपूर्ण
मानकर इसका सजीव वर्णन किया गया है। कालिदास ने बसंत के वर्णन के बिना
अपनी किसी भी रचना को नहीं छोड़ा है। मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों के
आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा
कवि बसंत का स्मरण करता है। कवि को बसंत में सब कुछ सुन्दर लगता है।
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कालिदास ने 'ऋतु संहार' में बसंत के आगमन का सजीव वर्णन किया है:-

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रीय: पवन: सुगंधि:।
सुखा प्रदोषा: दिवासश्च रम्या:सर्वप्रियं चारुतरे वतन्ते॥

यानी बसंत में जिनकी बन आती है उनमें भ्रमर और मधुमक्खियाँ भी हैं।
'कुमारसंभवम्' में कवि ने भगवान शिव और पार्वती को भी नहीं छोड़ा है।

 कालिदास बसंत को शृंगार दीक्षा गुरु की संज्ञा भी देते हैं:-
प्रफूल्ला चूतांकुर तीक्ष्ण शयको,द्विरेक माला विलसद धर्नुगुण:
मनंति भेत्तु सूरत प्रसिंगानां,वसंत योध्दा समुपागत: प्रिये।
वृक्षों में फूल आ गये हैं, जलाशयों में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियाँ सकाम
हो उठी हैं, पवन सुगंधित हो उठी है, रातें सुखद हो गयी हैं और दिन मनोरम,
ओ प्रिये! बसंत में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठा है।


 हरिवंश, विष्णु तथा भागवत पुराणों में बसंतोत्सव का वर्णन है। माघ ने
'शिशुपाल वध'  में नये पत्तों वाले पलाश वृक्षों तथा पराग रस से परिपूर्ण
कमलों वाली तथा पुष्प समूहों से सुगंधित बसंत ऋतु का अत्यंत मनोहारी
शब्दों वर्णन किया है।

नव पलाश पलाशवनं पुर: स्फुट पराग परागत पंवानम्
मृदुलावांत लतांत मलोकयत् स सुरभि-सुरभि सुमनोमरै:

प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय
में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब
की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।

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महाकवि विद्यापति कहते है -
मलय पवन बह, बसंत विजय कह,भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।
ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।
तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।

विद्यापति की वाणी मिथिला की अमराइयों में गूंजी थी। बसंत के आगमन पर
प्रकृति की पूर्ण नवयौवना का सुंदर व सजीव चित्र उनकी लेखनी से रेखांकित
हुआ है:-

आएल रितुपति राज बसंत,छाओल अलिकुल माछवि पंथ।
दिनकर किरन भेल पौगड़,केसर कुसुम घएल हेमदंड।

हिन्दी साहित्य का आदिकालीन रास-परम्परा का 'वीसलदेव रास' कवि
नरपतिनाल्हदेव का अनूठा गौरव ग्रंथ है। इसमें स्वस्थ प्रणय की एक सुंदर
प्रेमगाथा गाई गई है। प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव से विरह-वेदना में
उतार-चढ़ाव होता है। बसंत की छमार शुरू हो गई है, सारी प्रकृति खिल उठी
है। रंग-बिरंगा वेष धारण कर सखियाँ आकर राजमती से कहती हैं:-

चालऊ सखि!आणो पेयणा जाई,आज दी सई सु काल्हे नहीं।
पिउ सो कहेउ संदेसड़ा,हे भौंरा, हे काग।
ते धनि विरहै जरि मुई,तेहिक धुंआ हम्ह लाग।
विरहिणी विलाप करती हुई कहती है कि हे प्रिय, तुम इतने दिन कहाँ रहे,
कहाँ भटक गए? बसंत यूं ही बीत गया, अब वर्षा आ गई है।

आचार्य गोविन्द दास के अनुसार:-

विहरत वन सरस बसंत स्याम। जुवती जूथ लीला अभिराम
मुकलित सघन नूतन तमाल। जाई जूही चंपक गुलाल पारजात मंदार माल। लपटात मत्त
मधुकरन जाल।
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जायसी ने बसंत के प्रसंग में मानवीय उल्लास और विलास का वर्णन किया है-

फल फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बंधि कै पंचम गाई।
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादक तूर झांझ चहुं फेरी।
नवल बसंत नवल सब वारी। सेंदुर बुम्का होर धमारी।


भक्त कवि कुंभनदान ने बसंत का भावोद्दीपक रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है:-

मधुप गुंजारत मिलित सप्त सुर भयो हे हुलास, तन मन सब जंतहि।
मुदित रसिक जन उमगि भरे है न पावत, मनमथ सुख अंतहि।


कवि चतुर्भुजदास ने बसंत की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है-

फूली द्रुम बेली भांति भांति,नव वसंत सोभा कही न जात।
अंग-अंग सुख विलसत सघन कुंज,छिनि-छिनि उपजत आनंद पुंज।

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कवि कृष्णदास ने बसंत के माहौल का वर्णन यूं किया है:-

प्यारी नवल नव-नव केलि
नवल विटप तमाल अरुझी मालती नव वेलि,
नवल वसंत विहग कूजत मच्यो ठेला ठेलि।

सूरदास ने पत्र के रूप में बसंत की कल्पना की है:-

ऐसो पत्र पटायो ऋतु वसंत,  तजहु मान मानिन तुरंत,
कागज नवदल अंबुज पात,  देति कमल मसि भंवर सुगात।

तुलसी दास के काव्य में बसंत की अमृतसुधा की मनोरम झांकी है:-

सब ऋतु ऋतुपति प्रभाऊ,  सतत बहै त्रिविध बाऊं
जनु बिहार वाटिका, नृप पंच बान की।

जनक की वाटिका की शोभा अपार है, वहां राम और लक्ष्मण आते हैं:-

भूप बागु वट देखिऊ जाई, जहं बसंत रितु रही लुभाई।

घनांद का प्रेम काव्य-परम्परा के कवियों से सर्वोच्च स्थान पर है। ये
स्वच्छंद, उन्मुक्त व विशुध्द प्रेम तथा गहन अनुभूति के कवि हैं। प्रकृति
का माधुर्य प्रेम को उद्दीप्त करने में अपनी विशेष विशिष्टता रखता है।
कामदेव ने वन की सेना को ही बसंत के समीप लाकर खड़ा कर दिया:-

राज रचि अनुराग जचि, सुनिकै घनानंद बांसुरी बाजी।
फैले महीप बसंत समीप,  मनो करि कानन सैन है साजी।

रीतिकालीन कवियों ने जगह-जगह बसंत का सुंदर वर्णन किया है। आचार्य केशव
ने बसंत को दम्पत्ति के यौवन के समान बताया है। जिसमें प्रकृति की
सुंदरता का वर्णन है। भंवरा डोलने लगा है, कलियाँ खिलने लगी हैं यानी
प्रकृति अपने भरपूर यौवन पर है। आचार्य केशव ने इस कविता में प्रकृति का
आलम्बन रूप में वर्णन किया है:-

दंपति जोबन रूप जाति लक्षणयुत सखिजन,
कोकिल कलित बसंत फूलित फलदलि अलि उपवन।
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बिहारी प्रेम के संयोग-पक्ष के चतुर चितेरे हैं। 'बिहारी सतसई' उनकी
विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है। कोयल की कुहू-कुहू तथा आम्र-मंजरियों का
मनोरम वर्णन देखिए:-

वन वाटनु हपिक वटपदा,  ताकि विरहिनु मत नैन।
कुहो-कुहो, कहि-कहिं उबे,  करि-करि रीते नैन।
हिये और सी ले गई,  डरी अब छिके नाम।
दूजे करि डारी खदी,  बौरी-बौरी आम।

'पद्माकर' ने गोपियों के माध्यम से श्रीकृष्ण को वसंत का संदेश भेजा है:-

पात बिन कीन्हे ऐसी भांति गन बेलिन के,
परत न चीन्हे जे थे लरजत लुंज है।
कहै पदमाकर बिसासीया बसंत कैसे,
ऐसे उत्पात गात गोपिन के भुंज हैं।
ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भले,
हरि सों हमारे हयां न फूले बन कुंज है।

 ऋतू वर्णन जब करते है तब पद्माकर फिर गाते है -

कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
          क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है.
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
          पानन में पीक में पलासन पगंत है
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में
          देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
          बनन में बागन में बगरयो बसंत है

कवि 'देव' की नायिका बसंत के भय से विहार करने नहीं जाती, क्योंकि बसंत
पिया की याद दिलायेगा:-

देव कहै बिन कंस बसंत न जाऊं,  कहूं घर बैठी रहौ री
हूक दिये पिक कूक सुने विष पुंज, निकुंजनी गुंजन भौंरी।

सेनापति ने बसंत ऋतु का अलंकार प्रधान करते हुए बसंत के राजा के साथ रूपक
संजोया है-

बरन-बरन तरू फूल उपवन-वन  सोई चतुरंग संग दलि लहियुत है,
बंदो जिमि बोलत बिरद वीर कोकिल,  गुंजत मधुप गान गुन गहियुत है,
ओबे आस-पास पहुपन की सुबास सोई  सोंधे के सुगंध मांस सने राहियुत है।

आधुनिक कवियों की लेखनी से भी बसंत अछूता नहीं रहा। रीति काल में तो वसंत
कविता के सबसे आवश्यक टेव के रूप में उभर कर स्थापित हुआ है। महादेवी
वर्मा की अपनी वेदनायें उदात्त और गरिमामयी हैं-

 मैं बनी मधुमास आली!

आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,
बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी
उमड़ आई री, दृगों में
सजनि, कालिन्दी निराली!

रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,
जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;
बह चली निश्वास की मृदु
वात मलय-निकुंज-वाली!

सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,
आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;
क्या न अब प्रिय की बजेगी
मुरलिका मधुराग वाली?

मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के असाधारण रूप का चित्रण किया है। उर्मिला
स्वयं रोदन का पर्याय है। अपने अश्रुओें की वर्षा से वह प्रकृति को
हरा-भरा करना चाहती है:-

हंसो-हंसो हे शशि फलो-फूलो,  हंसो हिंडोरे पर बैठ झूलो।
यथेष्ट मैं रोदन के लिए हूं,  झड़ी लगा दूं इतना पिये हूं।

जयशंकर प्रसाद तो वसंत से सवाल ही पूछ लेते है - पतझड़ ने जिन वृक्षों के
पत्ते भी गिरा दिये थे, उनमें तूने फूल लगा दिये हैं। यह कौन से मंत्र
पढ़कर जादू किया है:-

रे बसंत रस भने कौन मंत्र पढ़ि दीने तूने

कामायानी में जयशंकर प्रसाद ने श्रध्दा को बसंत-दूत के रूप में प्रस्तुत किया है-

कौन हो तुम बसंत के दूत?
विरस पतझड़ में अति सुकुमार
घन तिमिर में चपला की रेख
तमन में शीतल मंद बयार।


सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति जड़ वस्तु नहीं, सुंदरता की सजीव देवी बन
उनकी सहचरी रही:-

दो वसुधा का यौवनसार,गूंज उठता है जब मधुमास।
विधुर उर कैसे मृदु उद्गार,कुसुम जब खिल पड़ते सोच्छवास।
न जाने सौरस के मिस कौन,संदेशा मुझे भेजता मौन।

अज्ञेय ने अपने घुमक्कड़ जीवन में बसंत को भी बहुत करीब से देखा है, अपनी
'बसंत आया' कविता शीर्षक में कहा है:-
बसंत आया तो है,पर बहुत दबे पांव,
यहां शहर में,हमने बसंत की पहचान खो दी है,
उसने बसंत की पहचान खो दी है,
उसने हमें चौंकाया नहीं।
अब कहाँ गया बसंत?

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मध्य युग में भी बसंत का दृश्य जगत अपने रूप में अधिक मादक हैं। इस समय
जो भी रचनाये हुई उनमे वसंत को खूब जगह दी गयी।  इसी भावना से ओतप्रोत
होकर शाहआलम विरही प्रेमियों के दुख को इन शब्दों में रेखांकित करते
हैं:-

प्यारे बिना सखि कहा करूंजबसे रितु नीकी बसंत की आई

महाकवि सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं -

आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।



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प्रकृति बसन्त ऋतु  में श्रृंगार करती है। दिशाएं प्राकृतिक सुषमा से
शोभित हो जाती हैं। शीतल, मंद, सुगंधित बयार जन-जन के प्राणों में हर्ष
का नव-संचार करती है। पुष्प, लताएं तथा फल शीतकाल के कोहरे से मुक्ति
पाकर नये सिरे से पल्लवित तथा पुष्पित हो उठते हैं। बसंत हमारी चेतना को
खोलता है, पकाता है, रंग भरता है। नवागंतुक कोपलें हर्ष और उल्लास का
वातावरण बिखेर कर चहुंदिशा में एक सुहावना समा बांध देती हैं। प्रकृति
सरसों के पुष्परूपी पीतांबर धारण करके बसंत के स्वागत के लिए आतुर हो
उठती है। टेसू के फूल चटककर और अधिक लाल हो उठते हैं। आम के पेड़ मंजरियों
से लद जाते हैं। भौरों की गुंजन सबको अपनी ओर आकर्षित करने लगती है। बसंत
ऋतु का प्रभाव जनमानस को उल्लासित करता हुआ होली के साथ विविध रंगों की
बौछारों से समाहित होता रहता है। बसंत ऋतु का आगमन प्रकृति का भारत भूमि
को सुंदर उपहार है। बसंत का आगमन होते ही शीत ऋतु की मार से ठिठुरी धरा
उल्लसित हो उठती है। प्राणी-मात्र के जीवन में सौंदर्य हिलोरें ठाठें
मारने लग जाती हैं। वनों-बागों तथा घर-आंगन की फुलवारी भी इस नवागंतुक
मेहमान के स्वागतार्थ उल्लसित हो उठती है। इन सभी दृश्यों को देखकर भला
एक कवि के मन को कविता लिखने की प्रेरणा क्यों न मिले। कवि तो अधिक
संदेनशील होता है यही कारण है कि उसकी लेखनी बसंत के सौन्दर्य-वर्णन से
अछूती नहीं रह पाती। कवियों ने बसंत का दिल खोलकर वर्णन किया है। उसका
स्वागत किया है।

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बसंत पर अन्य कवियों की रचनाये-



नज़ीर अकबराबादी

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत।
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥

मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बने खेत सा।
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥

सह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इजार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥

वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल॥
निकाला इसे और छिपाई बसंत॥4॥

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत॥5॥

वह जोड़ा बसंती जो था खुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि यां हमको लेकर है आई बसंत॥6॥

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या क्या जिगर में समाई बसंत॥7॥

वह पोशाक ज़र्द और मुंह चांद सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खीची सदा।
समां छा गया हर तरफ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत॥8॥

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उस दम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोदर एक बार॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥

यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां।
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥

यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥

बहारे बसंती पै रखकर निगाह।
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥12॥

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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

आया लेकर नव साज री !

मह-मह-मह डाली महक रही
कुहु-कुहु-कुहु कोयल कुहुक रही
संदेश मधुर जगती को वह
देती वसंत का आज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

गुन-गुन-गुन भौंरे गूंज रहे
सुमनों-सुमनों पर घूम रहे
अपने मधु गुंजन से कहते
छाया वसंत का राज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

मृदु मंद समीरण सर-सर-सर
बहता रहता सुरभित होकर
करता शीतल जगती का तल
अपने स्पर्शों से आज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

फूली सरसों पीली-पीली
रवि रश्मि स्वर्ण सी चमकीली
गिर कर उन पर खेतों में भी
भरती सुवर्ण का साज री!
मा! यह वसंत ऋतुराज री!

माँ! प्रकृति वस्त्र पीले पहिने
आई इसका स्वागत करने
मैं पहिन वसंती वस्त्र फिरूं
कहती आई ऋतुराज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!


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कुँवर बेचैन

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

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गोपाल दस नीरज

आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

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मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल-आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।

तुम मध्य भाग के, महाभाग !-
तरु के उर के गौरव प्रशस्त !
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।

देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँधकर रँगा धागा,
फल के भी उर का कटु त्यागा;
मेरा आलोचक एक बीज।

- निराला
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हवा मिस- झुक-लुक -लुक-छुप,
डार-डार से करे अंखियां चार।

कस्तूरी हुई गुलाब की साँसें,
केवड़ा,पलाश करे श्रृंगार।

छूते ही गिर जाये पात लजीले,
इठलाती-मदमाती सी बयार।

सुन केकि-पिक की कुहूक-हूक,
बौरे रसाल घिर आये कचनार।

अम्बर पट से छाये पयोधर,
सुमनों पर मधुकर गुंजार।

कुंजर,कुरंग,मराल मस्ती में,
मनोहर,मनभावन संसार।

यमुना- तीरे माधव बंशी,
फिर राधे-राधे करे पुकार।

नख-शिख सज चली राधे-रमणी,
भर मन-अनुराग अपरम्पार।

आशा पाण्डेय ओझा
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 गेंदा झूले आँगने, खेतों बीच पलाश।
मारग पी का देखती, आँखे हुई हताश।

फूल-फूल पुलकित हुआ, कली-कली पर नूर।
बहकी बहकी फिर रही, हवा नशे में चूर।

झुक-झुक कर मिलने लगे,बेला और गुलाब।
सेमल,चंपा पे चढ़ा ,पूरा आज शबाब।

यौवन भँवरों पर चढ़ा, बहकी इनकी चाल।
छुप-छुप कर ये बैठते,जा कलियों की डाल।

बौराया सा आ गया,फिर फागन का मास।
प्रीत पगी फिर से जगी,नयन मिलन की आस।

फूल, कली, मिल झूमते, रचते दोनों रास।
बासंती परिधान में, आया फागुन मास।

ठकुराइन सी आ गई, हवा बजाती द्वार।
जो-जो पड़ता सामने, सबको पड़ती मार।

हवा लरजती आ गई, जब पेड़ों के पास।
बतियाये फिर देर तक, दोनों कर-कर हास।

सज-धज कर गौरी खड़ी,खोले मन के द्वार।
प्रीत रंग में डूबकर, सुंदर लगती नार।

साँसों-साँसों घुल रही, रेशम रेशम धार।
बाट पिया की जोहती, रंग भरी पिचकार।

आशा पाण्डेय ओझा
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महाप्राण निराला और ऋतुराज 

सखि, वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन, 
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।

वसंत ऋतु में जिस तरह प्रकृति अपने अनुपम सौंदर्य से सबको सम्मोहित करती है, उसी प्रकार वसंत पंचमी के दिन जन्मे निराला ने अपनी अनुपम काव्य कृतियों से हिंदी साहित्य में वसंत का अहसास कराया था। उन्होंने अपनी अतुलनीय कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और छंदों से साहित्य को समृद्ध बनाया। 
उनका जन्म 1896 की वसंत पंचमी के दिन बंगाल के मेदनीपुर जिले में हुआ था। हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। नामानुरूप उनका व्यक्तित्व भी निराला था। हिंदी जगत को अपने आलोक से प्रकाशवान करने वाले हिंदी साहित्य के 'सूर्य' पर मां सरस्वती का विशेष आशीर्वाद था। उनके साहित्य से प्रेम करने वाले पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा कि आज छायावाद की उत्कृष्ट कविताओं में गिनी जाने वाली उनकी पहली कविता 'जूही की कली' को तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशन योग्य न मानकर संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दिया था। इस कविता में निराला ने छंदों की के बंधन को तोड़कर अपनी अभिव्यक्ति को छंदविहीन कविता के रूप में पेश किया, जो आज भी लोगों के जेहन में बसी है। वह खड़ी बोली के कवि थे, लेकिन ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी उन्होंने अपने मनोभावों को बखूाबी प्रकट किया। 'अनामिका,' 'परिमल', 'गीतिका', 'द्वितीय अनामिका', 'तुलसीदास', 'अणिमा', 'बेला', 'नए पत्ते', 'गीत कुंज, 'आराधना', 'सांध्य काकली', 'अपरा' जैसे काव्य-संग्रहों में निराला ने साहित्य के नए सोपान रचे हैं।'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती', 'निरूपमा', 'कुल्ली भाट' और 'बिल्लेसुर' 'बकरिहा' शीर्षक से उपन्यासों, 'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीवी', 'सखी' और 'देवी' नामक कहानी संग्रह भी उनकी साहित्यिक यात्रा की बानगी पेश करते हैं।निराला ने कलकत्ता (अब कोलकाता) से 'मतवाला' व 'समन्वय' पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
 निराला का साहित्य व हिंदी कविता में क्रांतिकारी बदलाव लाने में उनका महत्व आज भारतीय साहित्य के औसत पाठक-छात्र के लिए अजाना ही बना हुआ है परंतु अबे सुन वे गुलाब...जैसी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जिस व्यवस्था को ललकारा था, दुर्भाग्य से आज भी हम उसी व्यवस्था के अंग बने हुए हैं और उस व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा और गिरावट आ गई है। कुकुरमुत्ता, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा जैसी रचनाओं के माध्यम से राजनीति व समाज पर समसामयिक प्रभाव की व्याख्या उन्होंने की, तो वह बड़ा जोखिम ही था। 
वह समाजवादी नहीं थे, परंतु हमारी ऊंच-नीच की खाई वाली व्यवस्था से असंतुष्ट तो थे। तभी तो उन्होंने गुलाब के फूल को भी नहीं छोड़ा। रंग और सुगंध पर अकडऩे को उन्होंने खूब ललकारा है।
हिंदी कविता में छायावाद के चार महत्वपूर्ण स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ अपनी सशक्त गिनती कराने वाले निराला की रचनाओं में एकरसता का पुट नहीं है।स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित निराला की रचनाओं में कहीं आध्यात्म की खोज है तो कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं असहायों के प्रति संवेदना हिलोर लेती उनके कोमल मन को दर्शाती है, तो कहीं देश-प्रेम का जज्बा दिखाई देता है, कहीं वह सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने को आतुर दिखाई देते हैं तो कहीं प्रकृति के प्रति उनका असीम प्रेम प्रस्फुटित होती है। 
निराला को छायावादी कविता का सुकुमार कहा जाता है, परंतु सही अर्थों में वह लालित्यमय, संस्कृतनिष्ठ वासंती वातावरण के बीच उपजे एक दुर्लभ ऑर्किड थे। यह वह युग था, जब हिंदी भाषा भारतीयता का पावन पथ मान ली गई थी। साहित्य में भौतिक सचाई कम, अभौतिक मिलन-विरह, इच्छापूर्ति-अपूर्ति का द्वैतभरा एक भव्य रुदन या उल्लासमय जादू ही कवि सम्मेलनों, संस्थानों व पत्र-पत्रिकाओं में छाया हुआ था। और इसी वातावरण में निराला ऐसी आंधी बनकर आए कि उन्होंने देखते-देखते तुकांत कोमल और हवा-हवाई अमूर्तन को चीरते हुए कवि तथा कविता की छुईमुई छवि को तिनका सिद्ध कर दिया। 40 के दशक में निराला का कुकुरमुत्ता जैसा अक्खड़ किंतु अद्भुत रूप से पठनीय काव्य संकलन छपा। यह संकलन हिंदी साहित्य का एक बिलकुल नया द्वार युवा लेखकों तथा पाठक वर्ग के लिए खोलता था, जो राज-समाज के स्तर पर अनेक प्रकार की भौतिक परेशानियों और मोहभंग के दु:ख से जूझ रहा था।  उन युवाओं की तरह निराला स्वयं अकाल, दुष्काल, बमबारी वाले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में गरीबी, सामाजिक जड़ता, प्रियजनों की अकाल मौत देख-जी चुके थे। अपनी रचनाओं तथा पत्राचार के पन्नों में वे हमको चौंकाने वाली बेबाकी से बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के अर्धसामंती, अर्धखेतिहर राज-समाज में बैसवाड़े के सामान्य ब्राह्मण परिवार की परंपराओं और गांधी की आंधी व सुधारवादी नएपन की चुनौतियों के बीच किशोरवय से ही उनका संवेदनशील मन किस तरह मथा जाता रहा था। उनकी कविताओं में नियमानुशासन का बोध तो है, पर मृत हो चुके नियमों से ईमानदार चिढ़ व खीझ भी है। गांधी का जादू अंत तक निराला को भी बांधे रहा। कविता में अपने समय में सामाजिक वर्जनाओं और आमो-खास की भावनाओं का द्वैत ही नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठान की जड़ता और दास्यभरी मानसिकता को भी खूब लपेटा है।
सन् 1920 के आस-पास अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू करने वाले निराला ने 1961 तक अबाध गति से लिखते हुए अनेक कालजयी रचनाएं कीं और उनकी लोकप्रियता के साथ फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक न सका।'मतवाला' पत्रिका में 'वाणी' शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों के साथ ही उन्होंने लंबी कविताएं लिखना भी आरंभ किया।सौ पदों में लिखी गई तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जिसे 1934 में उन्होंने कलमबद्ध किया और 1935 में सुधा के पांच अंकों में किस्तवार इसका प्रकाशन हुआ।साहित्य को अपना महत्वूपर्ण योगदान देने वाले निराला की लेखनी अंत तक नित नई रचनाएं रचती रहीं। 22 वर्ष की अल्पायु में पत्नी से बिछोह के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पतझड़ बन गया और उसके बाद अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन से शोक संतप्त निराला अपने जीवन के अंतिम वर्षो में मनोविक्षिप्त-से हो गए थे। लौकिक जगत को अपनी अविस्मरणीय रचनाओं के रूप में अपनी यादें सौंपकर 15 अक्टूबर, 1961 को महाप्राण अपने प्राण त्यागकर इस लोक को अलविदा कह गए, लेकिन अपनी रचनात्मकता को साहित्य प्रेमियों के जेहन में अंकित कर निराला काव्यरूप में आज भी हमारे बीच हैं। महाप्राण निराला को विश्लेषित करते हुए तभी तो रामविलास शर्मा जैसे समालोचक को भी कहना पड़ा - 

यह कवि अपराजेय निराला,

जिसको मिला गरल का प्याला;

ढहा और तन टूट चुका है,

पर जिसका माथा न झुका है;

शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती,

लेकिन अभी संभाले थाती,

और उठाए विजय पताका-

यह कवि है अपनी जनता का!



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