ग्रहण, भूकंप और उर्जाप्रवाह

ग्रहण, भूकंप और उर्जाप्रवाह

गीता जीवन संस्कृति -6 
ग्रहण, भूकंप और उर्जाप्रवाह 
संजय तिवारी 

चंद्र ग्रहण शुरू हो चुका  है। दुनिया में लगातार अध्ययन हो रहे हैं।  डाटा जुटाए जा रहे हैं। दुनिया, इस सदी की विस्मयकारी खगोलीय घटना की गवाह बन रही है। भारत और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में चंद्रग्रहण का नजारा देखने को मिलेगा। ग्रहण को लेकर आमतौर पर मान्यता है कि इससे बड़े पैमाने पर उथल-पुथल होता है। बुधवार को दोपहर में चंद्रग्रहण से पहले जलजले ने दस्तक दी। अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर हिंदुकुश पर्वत भूकंप का केंद्र था। यूएसजीएस के मुताबिक भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6.0 थी और केंद्र जमीन की सतह से 200 किमी नीचे था। तीन लाख चौरासी हजार किलोमीटर ऊपर चन्द्रमा के साथ थोड़ी सी ऊर्जा में विचलन और धरती के 200  किलो मीटर नीचे उथल पुथल।




वस्तुतः  ऊर्जा प्रवाह का ही एक क्रम है। इस क्रम को पूरा ज्योतिर्विदों ने ठीक से जान लिया था।  विज्ञान  अभी इसे समझने में लगा है। ग्रहण कोई अकस्मात् होने वाली घटना नहीं है। यह सृष्टि की गति के क्रम में होना ही है। आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक साहित्य और शोध के पास इसके बारे में कुछ ख़ास नहीं है। इसको समझने के लिए भारतीय सांख्यिकी और गणित को जानना जरुरी है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीय दर्शन की इस आद्य विद्या पर भारत में ही पिछले हजार वर्षो में कोई काम नहीं हुआ। यह लिखने में मुझे कोई संकोच भी नहीं है कि स्वाधीन भारत में विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों पर काबिज विद्वानों ने भी केवल पश्चिम का ही मुख देखा और उन्ही के कृपा पात्र बनने को अपनी उपलब्धि मान ली।यदि ये कथित विद्वान् लोग ७० वर्षो में ७० बार भी भारतीय चिंतन और मनीषा के द्वार पर दस्तक दिए होते तो आज इन्हे ग्रहण , भूकंप, आपदा , प्राकृतिक कोप , अतिवृष्टि , अनावृष्टि जैसी घटनाओ के बारे में किसी यन्त्र का सहारा नहीं लेना पड़ता। भारत के किसी संस्थान में यदि ज्योतिर्विज्ञान के लिए विकसित  विभाग तक होता तो आज पश्चिमी पुड़िया का ज्ञान न पसरता। मैं जब ज्योतिर्विज्ञान विभाग की बात कह रहा हूँ तो इसे किसी भी रूप में उन कुकुरमुत्ता जैसे ज्योतिषीय संस्थानों से जोड़ कर न देखें जो भाग्य बांचते हैं।   

सृष्टि ही नहीं वरन ब्रह्माण्ड में जीतनी भी सृष्टियाँ हैं उन सभी को एक निश्चित ऊर्जा बंधन में रचनकार ने निबद्ध कर रखा है। सभी सृष्टियाँ अपनी उसी ऊर्जा वलय में निर्धारित हैं। कुछ समयांतर पर इन ऊर्जा कक्षों में कुछ विभवान्तर पैदा होता है। अपने सौर मंडल के जिस पिंड से इनके उर्जाप्रवाह में किसी प्रकार का अंतर या विचलन आता है , उसी पिंड से इनको कुछ प्रतीक्षित क्रियाये मिलती हैं।  ये क्रियाये सृष्टि को प्रभावित करती हैं। 
अभी इस सृष्टि में कितने ग्रहण होंगे , कब कब होंगे , उनका क्या क्या असर होगा , यह सब निर्धारित है। ग्रहण के कारन कोई घटना विशेष होना सामान्य प्रक्रिया है।  आप आग जला लेते हैं तो गर्मी पाते हैं।  ऐरकण्डीशनर चलते हैं तो ठण्ड पाते हैं।  पंखे चला लेते हैं तो हवा पाते हैं। आप खुद सोचिये , बहुत मामूली ऊर्जा को इधर -उधर कर के आप अपने लायक वातावरण बना लेते हैं। जब सृष्टि में ब्रह्माण्ड की ऊर्जा जरा भी बदलेगी तो कितना परिवर्तन करा सकती है ? अनुमान लगा पाएंगे आप ? यह ऊर्जा ही है जो गतिमान भी है और प्रगतिमान भी। ऊर्जा को समझना है तो भारत को समझिये।

क्रमशः  
वर्ष का पहला और अनोखा पूर्ण चंद्र ग्रहण कल

वर्ष का पहला और अनोखा पूर्ण चंद्र ग्रहण कल

विशेष
वर्ष का पहला और अनोखा पूर्ण चंद्र ग्रहण कल
 

संजय तिवारी  
इस महीने की आखिरी तारीख बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति 35  साल बाद देखने को मिल रही है।माघ की पूर्णिमा यानी  31 जनवरी 2018 को वर्ष का पहला ग्रहण है। यह चंद्रग्रहण पुख्य नक्षत्र में होकर अश्लेषा के प्रथम चरण मे समाप्त होगा। इस बार ग्रहण की कुल अवधि 3 घंटा 7 मिनट है। यह चंद्रग्रहण भारत के सभी स्थानों पर दिखाई पड़ेगा। खगोल विज्ञान की भाषा में कल चंद्रमा का एक अनूठा रूप देखने को मिलेगा, जिसे खगोल वैज्ञानिक अंग्रेजी में ‘सुपर ब्लू मून’ कहते हैं। एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया की पब्लिक आउटरीच कमेटी के अध्यक्ष नीरूज मोहन के अनुसार “ग्रेगोरियन कैलेंडर के एक ही महीने में जब दो बार पूर्णिमा पड़े तो सुपर ब्लू मून होने की संभावना रहती है। पूर्ण चंद्रग्रहण, सुपर मून और ब्लू मून समेत तीन खगोलीय घटनाओं को समन्वित रूप से ‘सुपर ब्लू मून’ कहा जाता है। अमेरिका में इसे 152 साल के बाद होने वाली खगोलीय घटना बताया जा रहा है। 

 ग्रहण की अवधि
यह गुवाहाटी में 5:58 शाम स्पर्श करेगा वही बेंगलुरु 6:00 15 पर तथा तिरुवंतपुरम 6:24 पर स्पर्श कर रहा है। बनारस में 5:35 शाम को स्पर्श और वहीं लखनऊ में 5: 41 मिनट शाम को स्पर्श कर रहा है। लखनऊ में खग्रास आरंभ 6: 26 मिनट मध्यकाल से आरम्भ होकर 7: 7 पर समाप्ति 7: 44 ग्रहण का मोक्ष काल 8:48 पर होगा। 

 नौ घंटे पूर्व सूतक काल प्रारंभ
ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता बता रहे हैं कि माघ मास की पूर्णिमा उत्तरायण होने के कारण पृथ्वी के चंद्र निकट होगा। चंद्रमा हृदय का कारक होने से जहां पर चंद्रग्रहण दिखाई पड़ेगा, वहां के प्रत्येक जीव पर इसका शुभ और अशुभ प्रभाव पड़ेगा। भारतीय प्राचीन शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के स्पर्श समय से 9 घंटे पूर्व सूतक काल प्रारंभ हो जाता है। इस काल में मूर्तियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए और न भोजन करना चाहिए। लेकिन बच्चों, वृद्धजनों के और रोगियों के लिए इस काल में प्रतिबंध नहीं है। शास्त्रों में स्पर्श काल में स्नान, ग्रहण काल में होम, मंत्र जप और खग्रास समाप्ति पर दान, मोक्ष काल पर स्नान करना चाहिए। इस अवधि में जपे गए मंत्र सिद्धि को प्राप्त करते हैं और दान  अक्षय को प्राप्त होता है। वहीं गंगा में स्नान करने से पिछले किए गए पाप कर्म नष्ट हो जाते है।

इसे कहते हैं ‘सुपर ब्लू मून'
इस बारे में इंडिया साइंस वायर के लिए प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. टी.वी. वेंकटेश्वरन लिखते हैं कि अपनी कक्षा में चक्कर लगाते हुए एक समय ऐसा आता है जब पूर्णिमा के दिन चंद्रमा धरती के सबसे करीब होता है। ऐसे में चांद का आकार बड़ा और रंग काफी चमकदार दिखाई पड़ता है। उस दौरान चंद्रमा के बड़े आकार के कारण उसे ‘सुपर मून’ की संज्ञा दी जाती है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के एक ही महीने में दूसरी बार ‘सुपर मून’ पड़े तो उसे ‘ब्लू मून’ कहा जाता है। हालांकि इसका संबंध चंद्रमा के रंग से बिल्कुल नहीं है। वास्तव में पाश्चात्य देशों में ‘ब्लू’ को विशिष्टता का पर्याय माना गया है। चांद के विशिष्ट रूप के कारण ही उसे यहां ‘ब्लू’ संज्ञा दी गई है। ब्लू मून के दिन चंद्र ग्रहण भी हो तो इसे ‘सुपर ब्लू मून ग्रहण’ कहते हैं।

वैज्ञानिको के लिए खास
डॉ. टी.वी. वेंकटेश्वरन के मुताबिक 31 जनवरी को भारतीय समय के अनुसार छह बजकर 22 मिनट से सात बजकर 38 मिनट के बीच धरती इस खगोलीय घटना का गवाह बनेगी। यह 2018 का पहला ग्रहण होगा। इसका संयोग दुर्लभ होता है और कई वर्षों के अंतराल पर यह घटनाक्रम देखने को मिलता है। विज्ञान-प्रेमियों के लिए यह दिन बेहद खास होता है क्योंकि उन्हें चांद के खास स्वरूप को देखने की उत्सुकता रहती है। पुणे के इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी ऐंड एस्ट्रोफिजिक्स से जुड़े खगोल वैज्ञानिक समीर धुर्डे के अनुसार “सुपर मून के दिन चंद्रमा सामान्य से 14 प्रतिशत बड़ा और 30 प्रतिशत अधिक चमकदार दिखाई पड़ेगा। हालांकि, नंगी आंखों से इस अंतर का अंदाजा लगा पाना आसान नहीं है।

ताम्बे के रंग का दिखेगा चाँद
 खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार यह एक सामान्य खगोलीय घटना है। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चंद्रमा अपना एक चक्कर 27.3 दिन में पूरा करता है। लेकिन दो क्रमागत पूर्णिमाओं के बीच 29.5 दिनों का अंतर होता है। दो पूर्णिमाओं के बीच यह अंतर होने का कारण चंद्रमा की कक्षा का अंडाकार या दीर्घ-वृत्ताकार होना है। एक महीने में आमतौर पर 28, 30 या फिर 31 दिन होते हैं। ऐसे में एक ही महीने में दो बार पूर्णिमा होने की संभावना भी कम ही होती है। इसलिए सुपर मून भी कई वर्षों के बाद होता है। इस घटनाक्रम की एक विशेषता यह भी है कि चंद्रग्रहण के बावजूद चांद पूरी तरह काला दिखाई देने के बजाय तांबे के रंग जैसा दिखाई पड़ेगा। डॉ. समीर के मुताबिक “इसमें धरती के उस पारदर्शी वातावरण की भूमिका होती है। चंद्रग्रहण के दौरान सूर्य और चांद के बीच में धरती के होने से चांद पर प्रकाश नहीं पहुंच पाता। इस दौरान सूर्य के प्रकाश में मौजूद विभिन्न रंग इस पारदर्शी वातावरण में बिखर जाते हैं, जबकि लाल रंग पूरी तरह बिखर नहीं पाता और चांद तक पहुंच जाता है। ब्लू मून के दौरान इसी लाल रंग के कारण चांद का रंग तांबे जैसा दिखाई पड़ता है।

 सांस्कृतिक मान्यता
पारंपरिक भारतीय कैलेंडर आमतौर पर चांद की स्थिति पर आधारित हैं। हिंदू, इस्लामिक और तिब्बती कैलेंडरों में भी महीने में एक से अधिक पूर्णिमा नहीं हो सकती क्योंकि इन कैलेंडरों के मुताबिक महीने का आरंभ और अंत अमावस्या या फिर पूर्णिमा से होता है। इसलिए ब्लू मून का संबंध किसी खगोलीय घटना के बजाय सांस्कृतिक मान्यता से अधिक माना जाता है।

अगला  ब्लू मून 31 दिसंबर, 2028 को
इसमें भी भ्रम है कि पिछली बार ‘ब्लू मून’ 30 दिसंबर 1982 को दिखाई पड़ा था या फिर 31 मार्च 1866 को। वैज्ञानिकों के अनुसार इन दोनों ही तारीखों पर ब्लू मून दिखाई पड़ा था। लेकिन भारत समेत विश्व के कई अन्य देशों में ब्लू मून पिछली बार 30 दिसंबर 1982 को दिखाई दिया था। वहीं, 31 मार्च 1866 को अमेरिका समेत विश्व के अन्य हिस्सों में ब्लू मून दिखा था। इस भ्रम के पैदा होने का कारण दोनों देशों के मानक समय में अंतर होना है।पिछली बार एक ब्लू मून ग्रहण 30 दिसंबर, 1982 को पड़ा था, जो भारत के पूर्वी भाग में दिखाई दे रहा था। 1 दिसंबर और 30 दिसंबर, 1982 दोनों ही पूर्णिमा के दिन थे, जिसमें से दूसरी पूर्णिमा को ब्लू मून कहा गया। हालांकि, अमेरिकी टाइम जोन के अनुसार पूर्णिमा 1 दिसंबर के बजाय 30 नवंबर, 1982 को थी। इसलिए उसे अमेरिका में ब्लू मून नहीं माना गया था। यही कारण है कि अमेरिकी मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है कि इस बार 152 साल बाद ब्लू मून दिखेगा। अगली बार ब्लू मून 31 दिसंबर, 2028 को पड़ने वाला है।

शुभ और अशुभ प्रभाव
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह राशियों पर शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का असर डालता है। जिस राशि में ग्रहण होता है उस राशि के लिए घात कहा गया है, उसकी दूसरी राशि को हानि होती है। जैसे इस बार कर्क राशि में होने से कर्क राशि के लिए घात, सिंह राशि को हानि, वृश्चिक राशि को मान हानि, धनु राशि को कष्ट, मकर राशि को स्त्री कष्ट, वहीं पर कुंभ राशि को सुख, वृष राशि को लक्ष्मी की प्राप्ति और कन्या राशि को लाभ। तुला राशि को अनेक सुखों की प्राप्ति, मिथुन नुकसान तथा मेष राशि वालों को मानसिक पीड़ा प्राप्त हो रही है।
कैसे कम करें ग्रहण का दुष्प्रभाव
दुष्प्रभाव कम करने के लिए मेष राशि वाले हनुमान जी का पूजन करें। वहीं पर मिथुन राशि वालों को भगवान नारायण का पूजन करना चाहिए। सिंह राशि वालों को लक्ष्मी जी का पूजन लाभकारी होगा। वहीं कर्क राशि वालों को श्री मृत्युंजय देवता का पूजन करना चाहिए। वृश्चिक राशि वालों को दुर्गा जी का पूजन और चंद्रमा का दान करना चाहिए। धनु राशि वालों को रुद्र पूजन करना चाहिए। मकर राशि वालों को पार्वती सहित भगवान शिव का पूजन करना चाहिए।

राशियों के लिए ग्रहण है शुभ
अपनी मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए कारक देवता और कारक मंत्रों का पूजन करें। जैसे लक्ष्मी प्राप्ति के लिए श्री सूक्त का जाप, सभी लोगों को लक्ष्मी नारायण का पूजन करना चाहिए। दुष्प्रभाव से बचने के लिए  शयन न करें और न यात्रा करें। भोजन न करें तथा कठोर शब्द का प्रयोग न करें। किसी चीज में छेद न करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें। जल में दूर्वा डालकर स्नान करें और राम नाम का जप करते रहें। चांदी का सर्प बनाकर बहते हुए पानी में छोड़ने से शीघ्र लाभ की प्राप्ति होती है। 
दान करते समय पढें यह मंत्र-

तमोमय  महाभीम  सोमसूर्य विमर्दन 
हेम नाग प्रदानेन मम शांन्तिप्रदो भव|

दानकरते समय कहे 
ग्रहणे क्लेश नशाय दैवज्ञाय निवेदयेत।
 मधुमास

मधुमास

विद्रोही का मधुमास

पियरायी धरती , दहकते पलाश
नवजीवन पा जाए हर टूटी सांस
मधुमय मन , मौलिक हों अकुलाये शब्द
अबके कुछ ऐसे ही आना मधुमास।

पल्लव की पाँख लिए झूमें कचनार
मदमाती लहरों सी बह उठे बयार
छुई मुई सकुचाई कली खिल सके
अबके हर निमिष उठे महकी सी सांस।

कुसुमाकर आना तुम दुलहिन के द्वार
घूँघट पट खोलेगी झूमकर बयार
प्रणय गीत गाएंगे पंछी चहुँ ओर
प्रीत राग छेड़ेगी फागुन की आस।

पर्वत की पिघल उठे चोटी इस बार
सीमाएं सज्जित हों पहन विजय हार
प्रहरी का साहस , शहादत की आग
टूट चुकी साँसों को मिले नयी सांस।

सिंहासन कर पाएं जन मन से न्याय
पीड़ा परकाया बन निकले ना आह
संवेगी आंसू की रोक सको धार
अबकी तुम आ जाना बिरहिन के पास।

गंगा की अविरलता , यमुना का रंग
मिलना हो त्रेता सी सरयू के संग
मिलने का सुर बन कर सरिता की धार
मधुमय हो रसवंती बोली मधुमास।

केसर की क्यारी में बारूदी गंध
रिपुवन की काया की माया हो मंद
सांझ ढले प्यास लिए लौटे वह द्वार
विद्रोही यौवन को लगे ऐसी प्यास।

जाति - जाति , पंथ - पंथ बंटे नहीं देश
सुन्दर हो सुखमय हो , ऐसा परिवेश
राजनीति जनमुख हो , सत्ता जनधाम
ऐसा कुछ अद्भुत हो अबकी मधुमास।

संजय तिवारी
वासयति कर्मणा नियोजयति इति वासना

वासयति कर्मणा नियोजयति इति वासना

वासयति कर्मणा नियोजयति इति वासना

संजय तिवारी 
यह भी ज्ञान की अवस्था है । जब मनुष्य अपने अस्तित्व से ब्रह्म को जोड़ पाता है। वस्तुतः तीन शरीर के माध्यम से जीव की यात्रा पूर्ण होती है। 
प्रथम स्थूल शरीर
दूसरा सूक्ष्म शरीर
तीसरा कारण शरीर
स्थूल शरीर वह है जिसमे जीव जगत में एक समय सीमा तक रहता है। इसी शरीर को लेकर वह जन्म लेता है और फिर मृत्यु को प्राप्त होता है।
सुखम शरीर वह है जिसमे कामनाये और वासनाएं जन्म लेती हैं। इन्ही  कामनाओ और वासनाओ को प्राप्त करने के लिए जीव बार बार स्थूल शरीर मे प्रवेश करता है, यानी जन्म लेता है। जो कार्य कामना एक शरीर की आयु भर में पूरी नही हो पाती उसकी पूर्ति के लिए उसे पुनः दूसरे स्थूल शरीर मे आना पड़ता है।
जीव की इस यात्रा को थोड़ा समझ लेना आवश्यक है। इसके लिए वासना को समझना होगा। वासना का अर्थ है कि जो स्थूल शरीर के भीतर कुछ बसा सके।
हमारे शास्त्र कहते हैं- वासयति कर्मणा नियोजयति इति वासना। 
तातपर्य यह कि शरीर को किन कर्मो में लगाना है उसका नियोजन यह वासना ही करती है। एक प्रकार से यह स्थूल शरीर का इस्तेमाल करती है। इसको अपने लिए एक स्थूल शरीर चाहिए। एक शरीर समाप्त होने पर यह अपने कार्य पूरे करने के लिए उस जीव को दूसरे शरीर मे लेकर आती है। इसी में मोह, माया आदि प्रवृत्तियों को प्रश्रय मिलता है । जीव को यह मुक्त नही होने देती।
तीसरा है कारण शरीर। कारण शरीर को किसी भूत या भविष्य से कोई संबंध नही होता। यह शाश्वत भाव मे खुद के अस्तित्व से परिचित होता है। इसे जीव की उस आत्मिक प्रतिष्ठा का भान होता है जहां से यह आया है फिर वही जाना है।कारण शरीर मे आत्मदर्शन होता है। आत्मा त्रिकालदर्शी हो जाती है। यहाँ न कुछ भूत है और न ही भविष्य। सब वर्तमान है। यह आत्म तत्व ही कारण शरीर है। यही देहि है। हर जन्म में देह बदल जाती लेकिन देहि वही रहती है। इस देहि की आयु वही है जो परमतत्व यानी परमात्मा की है। यह कारण शरीर परमात्मा ही है। इसीलिए आत्मा को परमात्मा से मिलने की बात होती है। यही ईश तत्व है।
इसीलिए जब अर्जुन को यह भ्रम होता है कि कृष्ण तो मेरी ही उम्र के हैं, फिर यह बात कैसे कह रहे हैं कि इस ज्ञान को अबसे पहले मैंने विवस्वान को दिया। विवस्वान ने इसे मनु को दिया। मनु ने इक्ष्वाकु को दिया। अर्जुन के इसी भ्रम को दूर करने के लिए भगवान को शरीर की वास्तविकता बतानी पड़ी- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर।
ज्ञान शाश्वत है

ज्ञान शाश्वत है

ज्ञान शाश्वत है

संजय तिवारी  
ज्ञान बहुत ही  व्यापक है।  शब्द बहुत सीमित और छोटे हैं।  इसलिए केवल शब्दों के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। ज्ञान के लिए तो बहुत व्यापक दृष्टि  चाहिए। मन और बुद्धि की सतह से ऊपर उठना होगा। बुद्धि से ज्ञान नहीं जुड़ सकता।  इसके लिए बुद्धि से ऊपर चेतना , मेधा ,प्रज्ञा और ऋतम्भरा तक की यात्रा चाहिए।  यह कार्य सामान्य मनुष्य के लिए कठिन है। ज्ञान शाश्वत है। सभ्यता की परतें इसे धूमिल कर देती हैं। वस्तुतः सृष्टि रचने वाले ने  सृष्टि की रचना के साथ ही ज्ञान का अक्षुण भण्डार भी दिया लेकिन जब तक इसे राजर्षि संरक्षण प्राप्त हुआ तब तक तो इसे लोक में प्रसारित होने का अवसर मिला। लेकिन राजर्षि से जब राज्य मुक्त होकर राजाओ के  तब ज्ञान के ऊपर दूसरी परतें चढ़ती गयीं।  यह हर युग में होता आया है। इसे एक सामान्य उदाहरण से समझा जा सकता है। 
एक व्यक्ति खूब धन सम्पदा इकठ्ठा कर एक तिजोरी में रखता है। अपनी अंतिम यात्रा से पूर्व वह अपनी अगली पीढ़ी को बुलाकर तिजोरी की कुंजी देता है और फिर उसका निधन हो जाता है। उसके जाने के बाद जो वह कुंजी पाता है वह उस तिजोरी की खूब पूजा करना शुरू कर देता है क्योकि वह तिजोरी उसके पूर्वज की अनमोल धरोहर है। हर पीढ़ी अपनी अगली संतति को वह तिजोरी हस्तांतरित करते जाती है।  अब तक 10 पीढ़ियां गुजर चुकीं हैं।  यह  11वि  पीढ़ी भी परम्परानुसार उस तिजोरी की खूब पूजा करती है। फूलमाला सब चढाती है। लेकिन इसने कभी यह जहमत नहीं उठायी कि  तिजोरी के भीतर की स्थिति को देखा जाय। पहली ने इसलिए नहीं खोला क्योकि उसे तत्काल धन की जरुरत नहीं थी। दूसरी , तीसरी, चौथी , पांचवी , छठवीं , सातवीं , आठवीं , नौवीं , दसवीं तक आते आते इस परिवार की आर्थिक स्थिति क्रमशः बिगड़ती गयी।  11 वी पीढ़ी की हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि वह रोज अपने पुरखो की उस तिजोरी की पूजा अर्चना करने  भिक्षाटन के लिए निकला जाया करते। परिवार की दशा बहुत ही खराब हो चली थी। 
यह वही परिवार था जिसके घर में मौजूद तिजोरी में अकूत दौलत भरी पड़ी थी लेकिन उसके लिए वह तिजोरी मात्रा पूजा की वस्तु थी। जिस व्यक्ति ने उस तिजोरी को भरा कर अगली पीढ़ी को सौपा था उसके बाद की किसी पीढ़ी ने उस तिजोरी को खोलकर देखने तक की जहमत नहीं उठायी। सब उसकी पूजा करने में लगे रहे। 
आज यही हालत हमारे ज्ञान की है। भारतीय सनातन परंपरा के सभी ज्ञान शास्त्र हमारे लिए पूजा की वास्तु बन कर रह गए हैं।  कभी इन ज्ञान शास्त्रों को खोल कर उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं की।  पूजा अपने इन ग्रंथो की करते हैं और ज्ञान के लिए पश्चिम की दिशा में देखते हैं। वही से प्राप्त भिक्षाटन के आधार पर खुद को विकसित करने और ग्यानी साबित करने में लगे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रंथो की पूजा तो बहुत करते हैं लेकिन कभी पैन पलट कर उसके भीतर जाने की कोशिश नहीं करते। ज्ञान का सागर प्रभु ने हमें दे रखा है लेकिन हम हैं की गड्ढो , तालाबों , पोखरों और सप्प्लाई के नल से ज्ञान पाना चाहते हैं। 
एक देश-एक चुनाव-एक मतदान

एक देश-एक चुनाव-एक मतदान

एक देश-एक चुनाव-एक मतदान

संजय तिवारी
भारत में क्या लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए। इस सवाल को अब फिर से हवा मिली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में इस बात को और भी साफ़ कर दिया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि  चुनावों को त्योहार खासकर होली की तरह होना चाहिए। यानी आप उस दिन किसी पर रंग या कीचड़ फेंके और अगली बार तक के लिए भूल जाएं। देश हमेशा इलेक्शन मोड में रहता है। एक चुनाव खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है। मेरा विचार है कि देश में एकसाथ यानी 5 साल में एक बार संसदीय, विधानसभा, सिविक और पंचायत चुनाव होने चाहिए। एक महीने में ही सारे चुनाव निपटा लिए जाएं। इससे पैसा, संसाधन, मैनपावर तो बचेगा ही, साथ ही सिक्युरिटी फोर्स, ब्यूरोक्रेसी और पॉलिटिकल मशीनरी को हर साल चुनाव के लिए 100-200 दिन के लिए इधर से उधर नहीं भेजना पड़ेगा। एकसाथ चुनाव करा लिए जाते हैं तो देश एक बड़े बोझ से मुक्त हो जाएगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते तो ज्यादा से ज्यादा संसाधन और पैसा खर्च होता रहेगा। 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद देश में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए। 2018 में 8 राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं जबकि 2019 में लोकसभा इलेक्शन होने हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या आप एक साथ चुनाव कराने का लक्ष्य हासिल कर लेंगे, प्रधानमंत्री ने कहा की ये किसी एक पार्टी या एक व्यक्ति का एजेंडा नहीं है। देश के फायदे के लिए सबको मिलकर काम करना होगा। इसके लिए चर्चा होनी चाहिए।
इससे पहले  नीति आयोग में इस विषय को बढ़ा चुके है। देश के मुख्य चुनाव आयुक्त  पहले ही साफ़ कर चुके हैं कि चुनाव आयोग इसके लिए तैयार है बशर्ते राजनीतिक दलों में एकराय बन जाए। सवाल उठता है कि आखिर ये कॉन्सेप्ट कितना व्यावहारिक है। कहीं ये कोशिश संसदीय लोकतन्त्र के खिलाफ तो नहीं होगी। और क्या वाकई भारत की बहुदलीय प्रणाली में इस पर एक राय बन पाएगी। तर्क दिए जाते हैं कि ऐसा करने से चुनावों का खर्च आधा हो जाएगा। जो पहली नजर में ठीक लगता है मगर सवाल ये भी है कि अगर ऐसा किया गया तो इसके लिए संसाधन कहां से आएंगे। हालांकि देश में 1952 से 1967 तक एक साथ चुनाव हुए हैं लेकिन इसे इंदिरा गांधी सरकार ने भंग कर दिया। अब मोदी सरकार ने पहल की है कि फिर से राज्य और केंद्र के चुनाव 5 साल में एक बार, एक साथ कराएं जाए। तर्क है कि इससे देश का समय और पैसा बचेगा और सत्ता में राजनीतिक पार्टियां चुनावी मशीन की तरह काम नही करेंगी।

प्रधानमंत्री शुरू से ही कहते रहे  है कि अलग-अलग चुनाव से विकास थम जाता है। साथ ही आचार संहिता लागू होने से विकास पर असर होने की उम्मीद है। अलग-अलग चुनाव से ब्यूरोक्रेसी पर असर पड़ेगा और बार-बार चुनाव से लोकलुभावन नीतियों का दबाव होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक देश,एक चुनाव के विचार पर उसी समय से विपक्ष में दलीलें शुरु हुई है।विपक्ष का कहना है कि सभी चुनाव एक साथ कराना व्यावहारिक नहीं होगा। साथ ही एक साथ चुनाव के लिए सरकार के पास पर्याप्त मशीनरी नहीं है। विपक्ष ने यहां तक दलीलें दे दी है कि एक साथ चुनाव कराने में संवैधानिक दिक्कतों का भी सामना करना पड़ सकता है। संविधान में बड़े बदलाव करने होंगे। उत्तराखंड, अरुणाचल जैसे हालात होंगे तो क्या करेंगे। हालांकि स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों। लोकसभा, विधानसभा की 5 साल की तय अवधि हो। बीच में सदन भंग होने से सदस्य विकास कार्य नहीं कर पाते है। कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि एक साथ चुनाव से खर्च बचेगा और सामान्य जीवन में बाधाएं कम आएंगी। एक साथ चुनाव के लिए संविधान संशोधन करना पड़ेगा। जिसके चलते अनुच्छेद 83, 172, 85 और 174 में बदलाव करने होंगे। दूसरी तरफ एक देश,एक चुनाव पर कांग्रेस और सीपीआई ने प्रस्ताव की व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इससे भारतीय लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है। टीएमसी ने प्रस्ताव पूरी तरह खारिज कर दिया है।

 पिछले दिनों बीजेपी कार्यकारणी बैठक में एक देश,एक चुनाव पर सुझाव पेश किया गया था। पिछली बार भी बजट से पहले सर्वदलीय बैठक में भी पीएम ने इस पर सुझाव दिया था। 1967 तक लोकसभा, विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते थे। कानून और कार्मिक मंत्रालय की स्टैंडिंग कमिटी ने सुझाव दिया था। जिसपर दिसंबर 2015 में रिपोर्ट संसद में पेश हुई थी। बीजेपी ने 2014 में अपने घोषणापत्र में एक साथ चुनाव का वादा किया। इससे पहले 2012 में लाल कृष्ण आडवाणी ने एक साथ चुनाव का सुझाव दिया था। चुनाव आयोग के अनुमान के मुताबिक लोकसभा, विधानसभा चुनावों पर करीब 4,500 करोड़ रुपये खर्च किए जाते है। 2014 लोकसभा चुनाव में करीब 30,000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया गया है।

प्रारम्भ से ही प्रधानमंत्री की पहल
16वीं लोकसभा के चुनाव में जीत दर्ज़ करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी प्रक्रिया के समेकन की बहस प्रारंभ की थी। इसी राह पर कदम बढ़ाते हुए अब सरकार ने लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने की संभावनाओं को तलाशने का काम नीति आयोग को सौंपा है।चुनावी प्रक्रिया का समेकन एक गंभीर विषय है, जिसका संबंध समकालीन राजनीति से तो है ही, साथ ही देश की जीवंत संवैधानिक प्रक्रिया से भी है। क्या भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में एक साथ इतने बड़े पैमाने पर इन चुनावों को करवाया जा सकता है? इस राह में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है? विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं वाले देश में क्या यह योजना परवान चढ़ सकेगी?
देश में पहले भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए  हैं। पहली चार लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव 1952, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ हुए थे। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के अनुसार 1967 के बाद स्थिति ऐसी आई। चौथे आम चुनाव (1967) के बाद राज्यों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में बनी संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें जल्दी-जल्दी गिरने लगीं और 1971 तक आते-आते राज्यों में मध्यावधि चुनाव होने लगे। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ और इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी, जबकि आम चुनाव एक वर्ष दूर था। इस प्रकार पहली बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने का सिलसिला पूर्णत: भंग हो गया।

जनवरी 2017 में ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का समर्थन करते हुए चुनाव आयोग से कहा था कि सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश करे, ताकि आम सहमति बनाई जा सके। बार-बार चुनाव कराने से सरकार का सामान्य कामकाज ठहर जाता है, क्योंकि चुनाव से पहले चुनावी आचार संहिता लागू हो जाती है। आज पूरे साल देश में कहीं-न-कहीं चुनाव होते रहते हैं और इसकी वज़ह से नियमित रूप से होने वाले काम ठप पड़ जाते हैं, क्योंकि वहाँ चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाती है। इससे न केवल राज्य में काम रुकता है, बल्कि केंद्र सरकार का काम भी प्रभावित होता है।

दो चरणों में एक साथ कराए जाएँ चुनाव

नीति आयोग की मसौदा रिपोर्ट में राष्ट्रहित के मद्देनज़र 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के लिये एक साथ दो चरणों में चुनाव करवाने की बात कही गई है। पहला चरण 2019 में 17वें आम चुनाव के साथ तथा दूसरा 2021 में, 17वीं लोकसभा के मध्य में कुछ विधानसभाओं की अवधि को घटा कर तथा कुछ की अवधि को बढ़ा कर किया जा सकता है। चूँकि फिलहाल कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही, इसलिये नीति आयोग ने इसे 2024 से लागू करने का संकेत दिया है। नीति आयोग ने इन सिफारिशों का अध्ययन करने और इस संबंध में मार्च 2018 की समय सीमा तय करने के लिये चुनाव आयोग को नोडल एजेंसी बनाया है।
राष्ट्रहित में इसे लागू करने के लिये संविधान और इस मामले पर विशेषज्ञों, थिंक टैंक, सरकारी अधिकारियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों सहित पक्षकारों का एक विशेष समूह गठित किया जाना चाहिये, जो इसे लागू करने संबंधी सिफारिशें करेगा।
इसमें संवैधानिक और वैधानिक संशोधनों के लिये मसौदा तैयार करना, एक साथ चुनाव कराने के लिये संभव कार्ययोजना तैयार करना, पक्षकारों के साथ बातचीत के लिये योजना बनाना और अन्य जानकारियां जुटाना शामिल होगा।
भारत में विधायिकाओं का चुनाव पाँच साल के लिये होता है, लेकिन उनकी यह अवधि निश्चित नहीं है।
जर्मनी और जापान में इस तरह की व्यवस्था लागू है, वहाँ निश्चित समयावधि से पहले चुनाव नहीं होते, उनका नेतृत्व ज़रूर बदल जाता है।

विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट

विधि आयोग ने वर्ष 1999 में दी गई अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की इस रिपोर्ट को देश में राजनीतिक प्रणाली के कामकाज पर अब तक के सबसे व्यापक दस्तावेज़ों में से एक माना जाता है। इस रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय इसी पर केंद्रित है। राजनीतिक व चुनावी सुधारों से सम्बंधित इस रिपोर्ट में दलीय सुधारों पर भी काफी बल दिया गया है। राजनीतिक दलों के कोष, चंदा एकत्रित करने के तरीके और उसमें अनियमितताएं तथा इन सबका राजनीतिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव आदि का भी इस रिपोर्ट में विश्लेषण किया गया है। आज ईवीएम में नोटा (NOTA) का जो विकल्प है, इसकी सिफारिश भी विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में ‘नकारात्मक मतदान की व्यवस्था लागू करने’ की बात कहकर की थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर यह विकल्प मतदाताओं को दिया गया।

एक साथ चुनाव के पक्ष में तर्क

एक साथ चुनाव कराने से न केवल मतदाताओं का उत्साह बना रहेगा, बल्कि इससे धन की बचत होगी और प्रशासनिक प्रयासों की पुनरावृति से भी बचा जा सकेगा। राजनीतिक दलों के खर्च पर भी नियंत्रण लगेगा, जिससे चुनावों में काला धन खपाने जैसी समस्या से भी बचाव होगा। बार-बार चुनावी आदर्श आचार संहिता भी लागू नहीं करनी पड़ेगी, जिससे जनहित के कार्य प्रभावित होते हैं। सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों व कर्मचारियों की चुनावी ड्यूटी लगती है, जिससे बच्चों की पढ़ाई व प्रशासनिक कार्य प्रभावित होते हैं उस पर अंकुश लगेगा।एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव होने पर सरकारी मशीनरी की कार्य क्षमता बढ़ेगी तथा आम लोगों को इससे फायदा होगा।

एक साथ चुनाव कराने के समर्थक इसके पक्ष में जो सबसे मज़बूत दलील देते हैं वह यह कि इससे सरकारी धन की भारी बचत होगी। 1952 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर 10 करोड़ रुपए खर्च हुए थे, जबकि  2014 के लोक सभा चुनावों में सरकार ने 4500 करोड़ रुपए खर्च किये । एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक स्थिरता का दौर शुरू होगा, जिससे विकास-कार्यों में तेज़ी आएगी। एक मतदाता सूची होने के कारण सभी चुनावों में उसका इस्तेमाल किया जा सकेगा और सूची में नाम न होने की समस्या समाप्त हो जाएगी।

राह में आने वाली चुनौतियाँ

एक साथ चुनाव कराना अवधारणा की दृष्टि से ठीक हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र की मूल भावना के मद्देनज़र  यह अव्यावहारिक है।संसद या राज्य विधानसभा के लिये पाँच वर्ष की अवधि सुनिश्चित कर पाना वैधानिक रूप से असंभव है।
केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराने के विरोध में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि भारतीय मतदाता इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि इनमें अंतर कर सके।
इसके समर्थन में दिये गए आँकड़ों से पता चलता है कि 1999 से 2014 तक 16 बार ऐसा हुआ जब लोकसभा चुनावों के छह महीने के भीतर कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए और 77% मामलों में विजय एक ही पार्टी को मिली।  लेकिन कुछ मामले ऐसे भी सामने आए जहाँ ऐसा नहीं हुआ।
भारत के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो केंद्र और राज्यों की वरीयताओं में अंतर करने में सक्षम नहीं है। वह नेताओं के प्रभामंडल से प्रभावित होकर मतदान करता है।
अलग-अलग चुनाव कराने में मतदाताओं को आसानी रहती है और वे यह अंतर करने में सक्षम होते हैं कि कौन सी पार्टी केंद्र में सरकार बनाने के लिये ठीक है और कौन सी पार्टी राज्य में बेहतर शासन दे पाएगी।
एक साथ चुनाव कराने का विचार इसलिये भी उचित नहीं है क्योंकि यदि कोई सरकार अविश्वास प्रस्ताव में गिर जाती है या किसी राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है तो वहाँ मध्यावधि चुनाव किस प्रकार हो पाएंगे।
वैसे संविधान में यह कहीं नहीं कहा गया है कि केंद्र और राज्यों में चुनाव एक साथ नहीं कराए जा सकते, लेकिन कानून का सहारा लेकर राज्यों को इसके लिये बाध्य करना संघवाद की भावना से भी ठीक नहीं होगा।
इसके लिये कानून बनाकर यह व्यवस्था की जा सकती है कि किसी भी राज्य में पाँच वर्षों में केवल दो बार चुनाव होंगे—एक बार लोकसभा के लिये और दूसरी बार राज्य विधानसभा के लिये।
लोकसभा और राज्य विधानसभा का चुनाव एक साथ कराने से राष्ट्रीय पार्टियों को लाभ होगा। छोटे क्षेत्रीय दलों की भूमिका कम हो जाएगी क्योंकि बड़े राजनीतिक नेताओं और पार्टियों से जुड़ा प्रभामंडल राज्य चुनावों के परिणाम को प्रभावित करता है।

विशेषज्ञों की राय

देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों (पंचायत और जिला परिषद् चुनावों सहित) को भी उपरोक्त चुनावों के साथ मिलाकर देखें तो भारत में चुनाव वर्षभर चलने वाला उत्सव जैसा बन गए हैं। यही वज़ह है कि कई समितियों तथा आयोगों ने एक ऐसी सर्वसम्मत पद्धति की तलाश करने की बात की है, जिसमें चुनावों को एक साथ कराया जा सके। विधि आयोग ने भी बहुग्राही तथा व्यापक राजनीतिक, संस्थागत व चुनावी सुधारों की तथा ऐसी युक्तियों की अनुशंसा की है, जिससे लोकसभा तथा सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।

प्रथम दृष्टया एक साथ चुनाव कराने का विचार अच्छा प्रतीत होता है पर यह व्यावहारिक है या नहीं, इस पर विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। बार-बार होने वाले चुनावों के कारण एक व्यवस्था और स्थायित्व की ज़रूरत महसूस होती है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने पर बहस करने का यह उपयुक्त समय है, लेकिन इसके लिये सबसे ज़रूरी काम है सभी राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति का होना, जिसे बनाना बेहद मुश्किल है। इसके बाद दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन की भी ज़रूरत पड़ेगी, जिसे आम सहमति के बिना नहीं किया जा सकता।

संविधान के कार्य की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (वेंकटचलैया आयोग) की मसौदा समिति के पूर्व अध्यक्ष सुभाष कश्यप एक साथ चुनाव कराए जाने का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि इससे चुनाव पर होने वाला खर्च आधे से भी कम हो जाएगा, लेकिन इसके लिये संविधान के अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85 (संसदीय सत्र को स्थगित करना और खत्म करना), अनुच्छेद 172 (विधानसभा का कार्यकाल) और अनुच्छेद 174 (विधानसभा सत्र का स्थगित करना और खत्म करना) में संशोधन करना होगा; और इससे भी बड़ी चुनौती राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति बनाने की है।

 विसंगतियाँ एवं विषमताएँ भी
लगभग 81.6 करोड़ मतदाताओं (2014 के आम चुनाव में संख्या) वाला भारतीय लोकतंत्र विश्व का विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ यह परिपक्व भी हुआ है, लेकिन इसमें  कई विसंगतियाँ एवं विषमताएँ भी देखने को मिलती हैं। वर्तमान चुनावी प्रक्रिया में जनप्रतिनिधियों को चुनने का काम देशभर  में कहीं-न-कहीं चलता ही रहता है। इससे न केवल विकास प्रभावित होता है, बल्कि राजकोष पर अनावश्यक आर्थिक भार भी पड़ता है। इसलिये समयकी के अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति ने दिसंबर 2015 में अपनी एक रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया था, जिसके बाद सरकार ने चुनाव आयोग से राय मांगी थी।

 संविधान संशोधन जरुरी
बेशक, एक साथ चुनाव कराने का विचार प्रथम दृष्टया बेहतर प्रतीत होता है, लेकिन इसकी अपनी चुनौतियाँ भी हैं। राजनीतिक दलों में आम सहमति बनाने के बाद ऐसा करने के लिये सर्वप्रथम संविधान संशोधन करना होगा। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में काफी अधिक संख्या में ईवीएम तथा वीवीपैट, मानव संसाधन और बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की ज़रूरत पड़ेगी, अतिरिक्त आर्थिक भार भी पड़ेगा। इसके अलावा और भी कई तरह की स्थानीय तथा तात्कालिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

 धन की भारी बचत
चुनाव सुधार के संदर्भ में देखें तो एक साथ चुनाव कराने से धन की भारी बचत होगी, विकास योजनाओं की रफ्तार पर ब्रेक नहीं लगेगा, उम्मीदवारों द्वारा किये जाने वाले खर्च में भी कमी आएगी।  एक साथ चुनाव कराने का समर्थन करते हुए नीति आयोग की मसौदा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सभी चुनाव स्वतंत्र, निष्पक्ष और समकालिक तरीके से होने चाहिये। ऐसा होने से शासन व्यवस्था में व्यवधान न्यूनतम होगा। 2024 के आम चुनावों से इस दिशा में शुरुआत हो सकती है।

सभी चुनाव एक साथ हों
सन् 1947 में अंग्रेजों से भारत को आजादी मिलने के बाद संसदीय लोकतंत्र को चुनना और अपना संविधान बनाना एक बड़ी घटना थी, जिसका देश साक्षी बना। आजादी के बाद तीन साल के अंदर संविधान बनाकर एक बड़ा काम किया गया था। उन्होंने कहा कि विविधता भारत की ताकत है और इसे पूरी तरह बनाए रखने में संविधान ने मदद की है। आजादी के बाद सांप्रदायिक सौहार्द्र एक बड़ी चुनौती थी। राष्ट्रपति ने आगे कहा कि विभाजन के कारण लोग परेशान थे, इसलिए सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हुए थे। यद्यपि हमारे राजनेता लोगों के बीच सौहार्द्र बनाए रखने में सफल रहे और भारत में धर्मनिरपेक्षवाद जीवन का एक हिस्सा है। हां, देश में आतंकी हमले हुए हैं, लेकिन शुक्र है कि यह (आतंक) देसी नहीं है। हम पर बाहर से हमले हुए हैं। हम सीमा पार आतंकवाद से पीडि़त हैं। आर्थिक पक्ष पर चर्चा करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए सामाजिक क्षेत्र में प्रदर्शन जरूरी है।सामाजिक क्षेत्र का समग्र विकास होना चाहिए, जिसमें अन्य चीजों के साथ स्वास्थ्य और सामाजिक बुनियादी ढांचा शामिल हैं। सामाजिक वितरण और समता के साथ विकास भी जरूरी है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने चाहिए। चुनाव आयोग भी एक साथ चुनाव कराने पर अपना विचार रख सकता है और चुनाव कराने का प्रयास कर सकता है।
प्रणव मुखर्जी , पूर्व राष्ट्रपति 
गीता का ज्ञान पाने वाले पांचवे व्यक्ति थे अर्जुन

गीता का ज्ञान पाने वाले पांचवे व्यक्ति थे अर्जुन

गीता का ज्ञान पाने वाले पांचवे व्यक्ति थे अर्जुन

संजय तिवारी
श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान पाने वाले प्रथम व्यक्ति अर्जुन नही हैं। वह पांचवे व्यक्ति है। भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात स्वयं गीता के चौथे अध्याय के प्रथम श्लोक में कही है। कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि परमात्मा के रूप में उन्होंने यह ज्ञान सर्वप्रथम विवस्वान को दिया है। विवस्वान से यह ज्ञान धर्मसंस्कृति प्रवर्तक भगवान मनु को प्राप्त हुआ। भगवान मनु से यही ज्ञान राजर्षि इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ। द्वापर आते आते कोई ऐसा राजर्षि न बचजो इस ज्ञान को संरक्षित कर सके। इसलिए , अब जबकि यह भौतिकवादी पूरी सभ्यता महाभारत के इस युद्ध मे नष्ट होने जा रही है , उस ज्ञान को मैं तुम्हे, अपने सखा को सौप रहा हूँ। 
श्री भगवान् उवाच -
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विव्स्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1।।
श्री भगवान बोलेः मैंने इन अविनाशी योग को सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप।।2।।
हे परंतप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।3।।
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए यह पुरातन योग आज मैंने तुझे कहा है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।

दरअसल जब कृष्ण गीता का उपदेश दे रहे है तब वह कभी अर्जुन के मित्र, कभी भाई, कभी सहयोगी और कभी सारथी, इन सबसे इतर अपने परमात्मस्वरूप में भी जाते है, यह तथ्य इन श्लोकों में व्यक्त भाषा के अनुशीलन से पता चलता है। यह एक बात ध्यान देने योग्य है कि चंद्रवंशी श्रीकृष्ण इस ज्ञान को कुरुवंशीय यानी चंद्र वंशी अर्जुन को उस स्वरूप में दे रहे है जिस स्वरूप में परमात्मा ने विवस्वान को सौपा था।
अब यह विवस्वान का विवेचन आवश्यक है ।विवस्वान उस सूर्य का नाम है जिनके सौर मंडल में यह सृष्टि है। स्पष्ट करना जरूरी है कि इस तरह के अनेक सौर मंडल है। इस सृष्टि में इसके संचालन के लिए यह ज्ञान परमात्मा ने विवस्वान यानी इसके अधिष्ठाता सूर्य को दिया। उनसे यह ज्ञान आगे बढ़ता रहा।
गीता से एक और भी बहुत बड़ा तथ्य सामने आता है। वह यह कि जिस प्रकार से ऊर्जा कभी न तो अलग से जन्म लेती है और न ही समाप्त होती है उसीप्रकार ज्ञान भी है।ज्ञान सदा से विद्यमान है। वह किसी के द्वारा पैदा नही किया जाता। ज्ञानी जन इसे जान लेते है। इसीलिए इस ज्ञान की सुरक्षा जरूरी है। विवस्वान से मनु को यह ज्ञान इसलिए प्राप्त हुआ क्योकि मनु से ही यह सृष्टि प्रारम्भ हो रही थी। मनु से इसे राजर्षि इक्ष्वाकु को दिए जाने के पीछे कारण यह था कि राजा ही संरक्षक होता है। सृष्टि के साथ जितने भी राजा हुए वे सभी क्षत्रिय  थे जिनमे  एक समढ़त संरक्षक का सामर्थ्य था। बाद के क्रम में जब राजा केवल विलासी होते गए तब ज्ञान के संरक्षण के दायित्व से दूर होते गए और द्वापर का अंत आते आते ज्ञान विलुप्त होने के कगार पर आ गया। राजा केवल अपने ऐश्वर्य एवं भोग विलास में लिप्त हो गए थे। 
यह जानने योग्य है कि ज्ञान न तो कही पैदा होता है और नहीं कभी ख़त्म होता है। यह केवल परंपरा से आगे बढ़ता है। अब इस परंपरा शब्द को भी जान लेना  जरुरी है। परंपरा कोई रूढ़ि नहीं है। इसका आशय प्रवाह है। निरंतरता।  अविरल प्रवाह।
क्रमशः
मैकाले की आग में जलता बचपन

मैकाले की आग में जलता बचपन

मैकाले की आग में जलता बचपन 
संजय तिवारी 
यह लार्ड मैकाले की लगायी आग है।  भारत का बचपन जिस तरह जल रहा है ,वह चिंतनीय है। याद कीजिये 
मैकाले ने सन 1835 और 1836 में ब्रिटिश संसद में अपनी रिपोर्ट दी थी। मैकाले का पूरा नाम था ‘थोमस बैबिंगटन मैकाले। अगर ब्रिटेन के नजरियें से देखें तो अंग्रेजों का ये एक अमूल्य रत्न था। एक उम्दा इतिहासकार, लेखक प्रबंधक, विचारक और देशभक्त। इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा। अब इसके महिमामंडन को छोड़ मैं इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था।  दो फ़रवरी 1835  को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में:
"मैं भारत में काफी घूमा  हूँ। पूरब से पश्चिम और उत्तर  से दक्षिण , इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो और अज्ञानी हो । इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि  मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है। इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्योकि अगर भारतीय सोचने लग गए कि  जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत।"
एक और उद्धरण देने का मन हो रहा है। हमारे आचार्य चाणक्य ने कहा था - कोई भी राष्ट्र तब तक परतंत्र नहीं बनता जब तक वह अपनी सांस्कृतिक विरासत और मूल्यों की रक्षा कर पाता है। किन्तु वह राष्ट्र स्वाधीन दिखते हुए भी परतंत्र है जिसने अपने सांस्कृतिक मूल्य खो दिए हैं। 
अब हमको यह सोचना है कि भारत सच में स्वाधीन हुआ या और गहरे तक परतंत्रा हो गया ?
हम भारत के लोग , भारत के लिए , भारत के साथ क्या कर रहे हैं। लार्ड मैकाले तो महज डेढ़ - दो सौ वर्षो में ही वह सब कर चुका जिससे भारत की अपनी भारतीयता का कोई निशाँ न बचे। यदि वह सफल नहीं होता तो गुरुग्राम के रेयॉन परिसर में किसी मासूम प्रद्युम्न को कोई भइया हलाल नहीं करता। लखनऊ के ब्राइट लैंड के परिसर में किसी मासूम के साथ कोई दीदी भला ऐसा करने की सोच भी कैसे पाती ? यकीनन हम हार गए लार्ड।  तुम जीत गए। कागजी स्वाधीनता पकड़ा कर तुम लोगो ने भारत को भिखारी से भी बदतर हालत में छोड़ दिया। न हम अपने मूल्य बचा पाए और नहीं संस्कृति। हमारा चरित्र भी बाज़ारू हो गया।  

यह है घटना
लखनऊ के अलीगंज थाना क्षेत्र स्थित ब्राइटलैंड स्कूल में पहली क्लास के बच्चे पर चाकू से हमले के मामले में पुलिस ने प्रिंसिपल को गिरफ्तार कर लिया है। गुरुवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अस्पताल जाकर घायल बच्चे से मुलाकात की। मंगलवार को कक्षा-सात की छात्र ने कक्षा-एक के छात्र को चाकू से हमला कर लहूलुहान कर दिया। घटना मंगलवार सुबह तब हुई जब छात्र असेम्बली के बाद अपनी क्लास में जा रहा था। छात्रा उसे बहला कर दूसरी मंजिल पर स्थित बाथरूम में ले गई। वहां दुपट्टे से उसके हाथ बांधकर चाकू से ताबड़तोड़ वार कर डाले। छात्र को मरा समझ कर छात्रा बाहर से दरवाजा बंद करके चली गई। स्कूल का राउंड ले रहे सिक्योरिटी इंचार्ज अमित सिंह चौहान ने खटपट की आवाज सुनकर बाथरूम का दरवाजा खोला तो छात्र लहूलुहान पड़ा था। आननफानन में उसे ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराया गया।
बुधवार सुबह स्कूल के डायरेक्टर रचित मानस ने एएसपी ट्रांसगोमती हरेन्द्र कुमार को फोन करके घटना की जानकारी दी। स्कूल में छात्र पर हमले की सूचना पर पुलिस अधिकारी मौके पर पहुंचे। पुलिस ने स्कूल प्रबंधक की तहरीर पर केस दर्ज करके जांच शुरू कर दी है। स्कूल में लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज खंगाली जा रही है। अलीगंज के त्रिवेणीनगर में ब्राइटलैंड स्कूल है, जहां नर्सरी से लेकर इंटरमीडिएट तक की कक्षाएं चलती हैं। त्रिवेणीनगर निवासी रमेश कुमार का छह वर्षीय बेटा स्कूल में कक्षा-एक का छात्र है। उन्होंने मंगलवार सुबह पौने दस बजे बच्चे को स्कूल छोड़ा था। प्रिंसिपल रीना मानस ने बताया कि, असेम्बली (प्रार्थना सभा) खत्म होने के बाद सभी बच्चे अपने-अपने क्लास रूम में चले गए। इसके कुछ देर बाद सिक्योरिटी इंचार्ज ने बच्चे को बाथरूम में लहूलुहान पाया।

छात्र ने बताई आपबीती

ट्रॉमा सेंटर में होश आने पर छात्र ने जब आपबीती बताई तो सभी सन्न रह गए। उसने बताया कि वह अपनी क्लास में जा रहा था। तभी दीदी (आरोपी छात्र) ने उसे रोक कर उसका नाम पूछा। इसके बाद वह उसे बॉथरूम में ले गई। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, दीदी ने उसे पीटना शुरू कर दिया। फिर दुपट्टे से उसके हाथ बांधे और दुपट्टे का एक सिरा उसके मुंह में ठूंस दिया। इसके बाद वह उसे बॉथरूम में बंद करके चली गई। छात्र ने बताया कि, एक मिनट बाद वह हाथ में चाकू लेकर वापस लौटी। यह देख वह बुरी तरह सहम गया और अपनी जान की भीख मांगने लगा। इस पर भी छात्रा का दिल नहीं पसीजा। छात्र ने बताया कि, उसे गिड़गिड़ाते देख छात्रा मुस्कुराते हुए बोली कि, तुम्हें मारा नहीं तो स्कूल में छुट्टी कैसे होगी। इतना कहते हुए वह मासूम पर टूट पड़ी। पहले उसका गला दबाकर मारने की कोशिश की। लेकिन, छात्र के संघर्ष करने पर छात्रा ने उस पर चाकू से ताबड़तोड़ वार कर दिए।

मरा समझ कर छोड़ दिया:
छात्र ने बताया कि चेहरे, सीने व पेट में गहरे घाव होने से वह खून से लथपथ हो गया। कुछ ही देर बाद वह बेहोश होकर गिर गया। छात्र के मुताबिक छात्रा उसे मरा हुआ समझकर वहां से चली गई। होश आने पर उसने बॉथरूम के दरवाजे पर लात मारनी शुरू की। खुश किस्मती से उस वक्त सिक्योरिटी इंचार्ज अमित वहां से गुजर रहे थे। आवाज सुनकर उन्होंने दरवाजा खोला और उसे अस्पताल पहुंचा दिया। वरना उसकी मौत निश्चित थी।

'बॉय कट' बालों से हुई छात्रा की पहचान:
स्कूल प्रबंधक रोहन मानस के पूछने पर छात्र ने बताया कि, वह हमला करने वाली छात्रा का नाम नहीं जानता है। हालांकि छात्र ने आरोपी छात्रा का जो हुलिया बताया उसकी मदद से स्कूल प्रबंधन ने उसे चिन्हित कर लिया। छात्र ने अपने बयान में बताया कि आरोपी छात्रा स्कर्ट पहनी हुई थी और उसके 'बॉय कट' बाल थे। डायरेक्टर रचित मानस ने बताया कि, स्कूल में कक्षा-8 तक की छात्राएं स्कर्ट पहनती हैं, जबकि सीनियर छात्रओं के लिए ड्रेस कोड सलवार सूट है। इससे यह साफ हो गया कि, हमला करने वाली छात्र कक्षा-8 या उसके नीचे की कक्षा की है। इस पर स्कूल प्रबंधन ने बॉय कट बालों वाली छात्राओं का ब्यौरा जुटाया। इसमें तीन छात्राएं शक के घेरे में आईं। इसके बाद छात्र को मोबाइल में इन छात्राओं की फोटो दिखाई गई, जिसमें से एक छात्रा को उसने हमलावर के रूप में पहचान लिया।

आरोपी छात्रा ने खुद को निर्दोष बताया:
डायरेक्टर रचित मानस ने बताया कि, आरोपी छात्रा से डेढ़ घंटे तक पूछताछ की गई लेकिन उसने खुद को निर्दोष बताया है। स्कूल प्रशासन ने छात्रा के अभिभावकों को भी बुलाया और उन्हें मामले की जानकारी दी। लेकिन, पूछताछ किए जाने पर छात्रा के अभिभावक विरोध करने लगे। बुधवार को भी आरोपी छात्रा रोजाना की तरह स्कूल आई। एएसपी हरेन्द्र कुमार ने बताया कि अब महिला पुलिस अधिकारी द्वारा छात्रा से पूछताछ की जाएगी।

घटना के पीछे क्या है मकसद:
इस घटना से तमाम सवाल खड़े हो गए हैं। कक्षा एक में पढ़ने वाले छात्र ने ऐसा क्या किया था कि उस पर जानलेवा हमला किया गया। यह बात न तो पुलिस के समझ में आ रही है और न ही स्कूल प्रशासन के। आरोपी छात्रा और छात्र के बीच किसी तरह का विवाद होने की बात भी सामने नहीं आई है। छात्र का कहना है कि छात्रा ने उस पर हमला इसलिए किया ताकि स्कूल में छुट्टी हो सके। इसमें पश्चिम से ही चली ब्लू ह्वेल नाम की आंधी का भी शक किया जा रहा है।

स्कूल में लगे हैं 70 कैमरे
प्रसिपल रीना मानस ने बताया कि स्कूल में 70 सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। लेकिन, गैलरी से मुड़कर बॉथरूम की तरफ जाने वाले रास्ते में सीसीटीवी कैमरा नहीं लगा है। इस घटना के खिलाफ आक्रोश प्रदर्शित करने के लिए गुरुवार को ब्राइटलैंड स्कूल के बाहर कई छात्र-छात्राओं के अभिभावकों ने मिलकर प्रदर्शन किया। नाराज अभिभावकों ने स्कूल प्रबंधन के साथ साथ पुलिस के खिलाफ भी जमकर नारेबाजी की। आरोप था कि घटना के 48 घंटे बीतने के बावजूद पुलिस कोई कार्रवाई नही कर रही है। अभिभावकों का कहना था कि, जो बयान पुलिस और स्कूल प्रबंधन दे रहे हैं, वो हजम होने लायक नही है है। त्रिवेणी नगर निवासी कमलेश राजपुत ने बताया की उनके दो बच्चे इसी स्कूल में पढ़ते है। ऐसी घटना से वो अपने बच्चों को महफूज नही समझ पा रहे है। फैजुल्लागंज निवासी अनिल कुमार के बच्चे भी इसी स्कूल में पढ़ते है। उनका कहना था कि, 15 दिन की छुट्टियों के बाद कैसे कोई 7वीं की लड़की महज छुट्टी के लिए चाकू से हमला कर सकती है। ये बात हजम नही हो रही है। उन्होंने बताया कि, कुछ न कुछ बात जरूर है जिस पर पुलिस व स्कूल प्रबंधन मिलकर पर्दा डाल रहा है। ल्र्किन कोई अभिभावक यह नहीं समझ पा रहा कि यह एक दिन की बात नहीं है।  कोई अभिभावक यह चिंता नहीं कर रहा कि अब पश्चिमी आँधियो से लड़ने का समय आ गया है। 
ऋतूनां कुसुमाकरः

ऋतूनां कुसुमाकरः

ऋतूनां कुसुमाकरः

संजय तिवारी

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥

श्रीमद्भगवद्गीता के दसवे अध्याय का पैंतीसवां श्लोक। भगवान् श्रीकृष्ण
अर्जुन से कहते है ,जो ऋतुओ में कुसुमाकर अर्थात वसंत है , वह मैं  ही तो
हूँ। यही कुसुमाकर तो प्रिय विषय है सृजन का। यही कुसुमाकर मौसम है कुसुम
के एक एक दल को पल्लवित होने का। अमराइयों में मंजरियो के रससिक्त होकर
महकने और मधुमय पराग लिए उड़ाते भौरों के गुनगुना उठाने की ऋतु  है वसंत।
प्रकृति के श्रृंगार की ऋतु। वसंत तो सृजन का आधार बताया गया है। सृष्टि
के दर्शन का सिद्धान्त बन कर कुसुमाकर ही स्थापित होता है। यही कारण है
कि सीजन और काव्य के मूल में तत्व के रूप में इसकी स्थापना दी गयी है।
सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान
साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की
ही शरण ली है। शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल
के मधुर गुंजन से झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती
सूर्य की रशिमयां, कामदेव की ऋतुराज 'बसंत' का सजीव रूप कवियों की उदात्त
कल्पना से मुखरित हो उठता है। उपनिषद, पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत)
के अतिरिक्त हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य धारा में भी बसंत का रस
भलीभांति व्याप्त रहा है। अर्थवेद के पृथ्वीसूत्र में भी बसंत का व्यापक
वर्णन मिलता है। महर्षि वाल्मीकि ने भी बसंत का व्यापक वर्णन किया है।
किष्किंधा कांड में पम्पा सरोवर तट इसका उल्लेख मिलता है- अयं वसन्त: सौ
मित्रे नाना विहग नन्दिता।
बुध्दचरित में भी बसंत ऋतु का जीवंत वर्णन मिलता है। भारवि के
किरातार्जुनीयम, शिशुपाल वध, नैषध चरित, रत्नाकर कृत हरिविजय, श्रीकंठ
चरित, विक्रमांक देव चरित, श्रृंगार शतकम, गीतगोविन्दम्, कादम्बरी,
रत्नावली, मालतीमाधव और प्रसाद की कामायनी में बसंत को महत्त्वपूर्ण
मानकर इसका सजीव वर्णन किया गया है। कालिदास ने बसंत के वर्णन के बिना
अपनी किसी भी रचना को नहीं छोड़ा है। मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों के
आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा
कवि बसंत का स्मरण करता है। कवि को बसंत में सब कुछ सुन्दर लगता है।
कालिदास ने 'ऋतु संहार' में बसंत के आगमन का सजीव वर्णन किया है:-

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रीय: पवन: सुगंधि:।
सुखा प्रदोषा: दिवासश्च रम्या:सर्वप्रियं चारुतरे वतन्ते॥

यानी बसंत में जिनकी बन आती है उनमें भ्रमर और मधुमक्खियाँ भी हैं।
'कुमारसंभवम्' में कवि ने भगवान शिव और पार्वती को भी नहीं छोड़ा है।

 कालिदास बसंत को शृंगार दीक्षा गुरु की संज्ञा भी देते हैं:-
प्रफूल्ला चूतांकुर तीक्ष्ण शयको,द्विरेक माला विलसद धर्नुगुण:
मनंति भेत्तु सूरत प्रसिंगानां,वसंत योध्दा समुपागत: प्रिये।
वृक्षों में फूल आ गये हैं, जलाशयों में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियाँ सकाम
हो उठी हैं, पवन सुगंधित हो उठी है, रातें सुखद हो गयी हैं और दिन मनोरम,
ओ प्रिये! बसंत में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठा है।


 हरिवंश, विष्णु तथा भागवत पुराणों में बसंतोत्सव का वर्णन है। माघ ने
'शिशुपाल वध'  में नये पत्तों वाले पलाश वृक्षों तथा पराग रस से परिपूर्ण
कमलों वाली तथा पुष्प समूहों से सुगंधित बसंत ऋतु का अत्यंत मनोहारी
शब्दों वर्णन किया है।

नव पलाश पलाशवनं पुर: स्फुट पराग परागत पंवानम्
मृदुलावांत लतांत मलोकयत् स सुरभि-सुरभि सुमनोमरै:

प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय
में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब
की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।



महाकवि विद्यापति कहते है -
मलय पवन बह, बसंत विजय कह,भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।
ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।
तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।

विद्यापति की वाणी मिथिला की अमराइयों में गूंजी थी। बसंत के आगमन पर
प्रकृति की पूर्ण नवयौवना का सुंदर व सजीव चित्र उनकी लेखनी से रेखांकित
हुआ है:-

आएल रितुपति राज बसंत,छाओल अलिकुल माछवि पंथ।
दिनकर किरन भेल पौगड़,केसर कुसुम घएल हेमदंड।

हिन्दी साहित्य का आदिकालीन रास-परम्परा का 'वीसलदेव रास' कवि
नरपतिनाल्हदेव का अनूठा गौरव ग्रंथ है। इसमें स्वस्थ प्रणय की एक सुंदर
प्रेमगाथा गाई गई है। प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव से विरह-वेदना में
उतार-चढ़ाव होता है। बसंत की छमार शुरू हो गई है, सारी प्रकृति खिल उठी
है। रंग-बिरंगा वेष धारण कर सखियाँ आकर राजमती से कहती हैं:-

चालऊ सखि!आणो पेयणा जाई,आज दी सई सु काल्हे नहीं।
पिउ सो कहेउ संदेसड़ा,हे भौंरा, हे काग।
ते धनि विरहै जरि मुई,तेहिक धुंआ हम्ह लाग।
विरहिणी विलाप करती हुई कहती है कि हे प्रिय, तुम इतने दिन कहाँ रहे,
कहाँ भटक गए? बसंत यूं ही बीत गया, अब वर्षा आ गई है।

आचार्य गोविन्द दास के अनुसार:-

विहरत वन सरस बसंत स्याम। जुवती जूथ लीला अभिराम
मुकलित सघन नूतन तमाल। जाई जूही चंपक गुलाल पारजात मंदार माल। लपटात मत्त
मधुकरन जाल।


जायसी ने बसंत के प्रसंग में मानवीय उल्लास और विलास का वर्णन किया है-

फल फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बंधि कै पंचम गाई।
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादक तूर झांझ चहुं फेरी।
नवल बसंत नवल सब वारी। सेंदुर बुम्का होर धमारी।


भक्त कवि कुंभनदान ने बसंत का भावोद्दीपक रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है:-

मधुप गुंजारत मिलित सप्त सुर भयो हे हुलास, तन मन सब जंतहि।
मुदित रसिक जन उमगि भरे है न पावत, मनमथ सुख अंतहि।


कवि चतुर्भुजदास ने बसंत की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है-

फूली द्रुम बेली भांति भांति,नव वसंत सोभा कही न जात।
अंग-अंग सुख विलसत सघन कुंज,छिनि-छिनि उपजत आनंद पुंज।

कवि कृष्णदास ने बसंत के माहौल का वर्णन यूं किया है:-

प्यारी नवल नव-नव केलि
नवल विटप तमाल अरुझी मालती नव वेलि,
नवल वसंत विहग कूजत मच्यो ठेला ठेलि।

सूरदास ने पत्र के रूप में बसंत की कल्पना की है:-

ऐसो पत्र पटायो ऋतु वसंत,  तजहु मान मानिन तुरंत,
कागज नवदल अंबुज पात,  देति कमल मसि भंवर सुगात।

तुलसी दास के काव्य में बसंत की अमृतसुधा की मनोरम झांकी है:-

सब ऋतु ऋतुपति प्रभाऊ,  सतत बहै त्रिविध बाऊं
जनु बिहार वाटिका, नृप पंच बान की।

जनक की वाटिका की शोभा अपार है, वहां राम और लक्ष्मण आते हैं:-

भूप बागु वट देखिऊ जाई, जहं बसंत रितु रही लुभाई।

घनांद का प्रेम काव्य-परम्परा के कवियों से सर्वोच्च स्थान पर है। ये
स्वच्छंद, उन्मुक्त व विशुध्द प्रेम तथा गहन अनुभूति के कवि हैं। प्रकृति
का माधुर्य प्रेम को उद्दीप्त करने में अपनी विशेष विशिष्टता रखता है।
कामदेव ने वन की सेना को ही बसंत के समीप लाकर खड़ा कर दिया:-

राज रचि अनुराग जचि, सुनिकै घनानंद बांसुरी बाजी।
फैले महीप बसंत समीप,  मनो करि कानन सैन है साजी।

रीतिकालीन कवियों ने जगह-जगह बसंत का सुंदर वर्णन किया है। आचार्य केशव
ने बसंत को दम्पत्ति के यौवन के समान बताया है। जिसमें प्रकृति की
सुंदरता का वर्णन है। भंवरा डोलने लगा है, कलियाँ खिलने लगी हैं यानी
प्रकृति अपने भरपूर यौवन पर है। आचार्य केशव ने इस कविता में प्रकृति का
आलम्बन रूप में वर्णन किया है:-

दंपति जोबन रूप जाति लक्षणयुत सखिजन,
कोकिल कलित बसंत फूलित फलदलि अलि उपवन।

बिहारी प्रेम के संयोग-पक्ष के चतुर चितेरे हैं। 'बिहारी सतसई' उनकी
विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है। कोयल की कुहू-कुहू तथा आम्र-मंजरियों का
मनोरम वर्णन देखिए:-

वन वाटनु हपिक वटपदा,  ताकि विरहिनु मत नैन।
कुहो-कुहो, कहि-कहिं उबे,  करि-करि रीते नैन।
हिये और सी ले गई,  डरी अब छिके नाम।
दूजे करि डारी खदी,  बौरी-बौरी आम।

'पद्माकर' ने गोपियों के माध्यम से श्रीकृष्ण को वसंत का संदेश भेजा है:-

पात बिन कीन्हे ऐसी भांति गन बेलिन के,
परत न चीन्हे जे थे लरजत लुंज है।
कहै पदमाकर बिसासीया बसंत कैसे,
ऐसे उत्पात गात गोपिन के भुंज हैं।
ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भले,
हरि सों हमारे हयां न फूले बन कुंज है।

 ऋतू वर्णन जब करते है तब पद्माकर फिर गाते है -

कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
          क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है.
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
          पानन में पीक में पलासन पगंत है
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में
          देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
          बनन में बागन में बगरयो बसंत है

कवि 'देव' की नायिका बसंत के भय से विहार करने नहीं जाती, क्योंकि बसंत
पिया की याद दिलायेगा:-

देव कहै बिन कंस बसंत न जाऊं,  कहूं घर बैठी रहौ री
हूक दिये पिक कूक सुने विष पुंज, निकुंजनी गुंजन भौंरी।

सेनापति ने बसंत ऋतु का अलंकार प्रधान करते हुए बसंत के राजा के साथ रूपक
संजोया है-

बरन-बरन तरू फूल उपवन-वन  सोई चतुरंग संग दलि लहियुत है,
बंदो जिमि बोलत बिरद वीर कोकिल,  गुंजत मधुप गान गुन गहियुत है,
ओबे आस-पास पहुपन की सुबास सोई  सोंधे के सुगंध मांस सने राहियुत है।

आधुनिक कवियों की लेखनी से भी बसंत अछूता नहीं रहा। रीति काल में तो वसंत
कविता के सबसे आवश्यक टेव के रूप में उभर कर स्थापित हुआ है। महादेवी
वर्मा की अपनी वेदनायें उदात्त और गरिमामयी हैं-

 मैं बनी मधुमास आली!

आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,
बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी
उमड़ आई री, दृगों में
सजनि, कालिन्दी निराली!

रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,
जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;
बह चली निश्वास की मृदु
वात मलय-निकुंज-वाली!

सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,
आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;
क्या न अब प्रिय की बजेगी
मुरलिका मधुराग वाली?

मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के असाधारण रूप का चित्रण किया है। उर्मिला
स्वयं रोदन का पर्याय है। अपने अश्रुओें की वर्षा से वह प्रकृति को
हरा-भरा करना चाहती है:-

हंसो-हंसो हे शशि फलो-फूलो,  हंसो हिंडोरे पर बैठ झूलो।
यथेष्ट मैं रोदन के लिए हूं,  झड़ी लगा दूं इतना पिये हूं।

जयशंकर प्रसाद तो वसंत से सवाल ही पूछ लेते है - पतझड़ ने जिन वृक्षों के
पत्ते भी गिरा दिये थे, उनमें तूने फूल लगा दिये हैं। यह कौन से मंत्र
पढ़कर जादू किया है:-

रे बसंत रस भने कौन मंत्र पढ़ि दीने तूने

कामायानी में जयशंकर प्रसाद ने श्रध्दा को बसंत-दूत के रूप में प्रस्तुत किया है-

कौन हो तुम बसंत के दूत?
विरस पतझड़ में अति सुकुमार
घन तिमिर में चपला की रेख
तमन में शीतल मंद बयार।


सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति जड़ वस्तु नहीं, सुंदरता की सजीव देवी बन
उनकी सहचरी रही:-

दो वसुधा का यौवनसार,गूंज उठता है जब मधुमास।
विधुर उर कैसे मृदु उद्गार,कुसुम जब खिल पड़ते सोच्छवास।
न जाने सौरस के मिस कौन,संदेशा मुझे भेजता मौन।

अज्ञेय ने अपने घुमक्कड़ जीवन में बसंत को भी बहुत करीब से देखा है, अपनी
'बसंत आया' कविता शीर्षक में कहा है:-
बसंत आया तो है,पर बहुत दबे पांव,
यहां शहर में,हमने बसंत की पहचान खो दी है,
उसने बसंत की पहचान खो दी है,
उसने हमें चौंकाया नहीं।
अब कहाँ गया बसंत?


मध्य युग में भी बसंत का दृश्य जगत अपने रूप में अधिक मादक हैं। इस समय
जो भी रचनाये हुई उनमे वसंत को खूब जगह दी गयी।  इसी भावना से ओतप्रोत
होकर शाहआलम विरही प्रेमियों के दुख को इन शब्दों में रेखांकित करते
हैं:-

प्यारे बिना सखि कहा करूंजबसे रितु नीकी बसंत की आई

महाकवि सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं -

आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।



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प्रकृति बसन्त ऋतु  में श्रृंगार करती है। दिशाएं प्राकृतिक सुषमा से
शोभित हो जाती हैं। शीतल, मंद, सुगंधित बयार जन-जन के प्राणों में हर्ष
का नव-संचार करती है। पुष्प, लताएं तथा फल शीतकाल के कोहरे से मुक्ति
पाकर नये सिरे से पल्लवित तथा पुष्पित हो उठते हैं। बसंत हमारी चेतना को
खोलता है, पकाता है, रंग भरता है। नवागंतुक कोपलें हर्ष और उल्लास का
वातावरण बिखेर कर चहुंदिशा में एक सुहावना समा बांध देती हैं। प्रकृति
सरसों के पुष्परूपी पीतांबर धारण करके बसंत के स्वागत के लिए आतुर हो
उठती है। टेसू के फूल चटककर और अधिक लाल हो उठते हैं। आम के पेड़ मंजरियों
से लद जाते हैं। भौरों की गुंजन सबको अपनी ओर आकर्षित करने लगती है। बसंत
ऋतु का प्रभाव जनमानस को उल्लासित करता हुआ होली के साथ विविध रंगों की
बौछारों से समाहित होता रहता है। बसंत ऋतु का आगमन प्रकृति का भारत भूमि
को सुंदर उपहार है। बसंत का आगमन होते ही शीत ऋतु की मार से ठिठुरी धरा
उल्लसित हो उठती है। प्राणी-मात्र के जीवन में सौंदर्य हिलोरें ठाठें
मारने लग जाती हैं। वनों-बागों तथा घर-आंगन की फुलवारी भी इस नवागंतुक
मेहमान के स्वागतार्थ उल्लसित हो उठती है। इन सभी दृश्यों को देखकर भला
एक कवि के मन को कविता लिखने की प्रेरणा क्यों न मिले। कवि तो अधिक
संदेनशील होता है यही कारण है कि उसकी लेखनी बसंत के सौन्दर्य-वर्णन से
अछूती नहीं रह पाती। कवियों ने बसंत का दिल खोलकर वर्णन किया है। उसका
स्वागत किया है।

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बसंत पर अन्य कवियों की रचनाये-



नज़ीर अकबराबादी

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत।
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥

मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बने खेत सा।
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥

सह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इजार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥

वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल॥
निकाला इसे और छिपाई बसंत॥4॥

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत॥5॥

वह जोड़ा बसंती जो था खुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि यां हमको लेकर है आई बसंत॥6॥

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या क्या जिगर में समाई बसंत॥7॥

वह पोशाक ज़र्द और मुंह चांद सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खीची सदा।
समां छा गया हर तरफ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत॥8॥

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उस दम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोदर एक बार॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥

यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां।
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥

यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥

बहारे बसंती पै रखकर निगाह।
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥12॥

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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

आया लेकर नव साज री !

मह-मह-मह डाली महक रही
कुहु-कुहु-कुहु कोयल कुहुक रही
संदेश मधुर जगती को वह
देती वसंत का आज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

गुन-गुन-गुन भौंरे गूंज रहे
सुमनों-सुमनों पर घूम रहे
अपने मधु गुंजन से कहते
छाया वसंत का राज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

मृदु मंद समीरण सर-सर-सर
बहता रहता सुरभित होकर
करता शीतल जगती का तल
अपने स्पर्शों से आज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!

फूली सरसों पीली-पीली
रवि रश्मि स्वर्ण सी चमकीली
गिर कर उन पर खेतों में भी
भरती सुवर्ण का साज री!
मा! यह वसंत ऋतुराज री!

माँ! प्रकृति वस्त्र पीले पहिने
आई इसका स्वागत करने
मैं पहिन वसंती वस्त्र फिरूं
कहती आई ऋतुराज री!
माँ! यह वसंत ऋतुराज री!


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कुँवर बेचैन

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

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गोपाल दस नीरज

आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

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मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल-आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।

तुम मध्य भाग के, महाभाग !-
तरु के उर के गौरव प्रशस्त !
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।

देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँधकर रँगा धागा,
फल के भी उर का कटु त्यागा;
मेरा आलोचक एक बीज।

- निराला
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हवा मिस- झुक-लुक -लुक-छुप,
डार-डार से करे अंखियां चार।

कस्तूरी हुई गुलाब की साँसें,
केवड़ा,पलाश करे श्रृंगार।

छूते ही गिर जाये पात लजीले,
इठलाती-मदमाती सी बयार।

सुन केकि-पिक की कुहूक-हूक,
बौरे रसाल घिर आये कचनार।

अम्बर पट से छाये पयोधर,
सुमनों पर मधुकर गुंजार।

कुंजर,कुरंग,मराल मस्ती में,
मनोहर,मनभावन संसार।

यमुना- तीरे माधव बंशी,
फिर राधे-राधे करे पुकार।

नख-शिख सज चली राधे-रमणी,
भर मन-अनुराग अपरम्पार।

आशा पाण्डेय ओझा
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 गेंदा झूले आँगने, खेतों बीच पलाश।
मारग पी का देखती, आँखे हुई हताश।

फूल-फूल पुलकित हुआ, कली-कली पर नूर।
बहकी बहकी फिर रही, हवा नशे में चूर।

झुक-झुक कर मिलने लगे,बेला और गुलाब।
सेमल,चंपा पे चढ़ा ,पूरा आज शबाब।

यौवन भँवरों पर चढ़ा, बहकी इनकी चाल।
छुप-छुप कर ये बैठते,जा कलियों की डाल।

बौराया सा आ गया,फिर फागन का मास।
प्रीत पगी फिर से जगी,नयन मिलन की आस।

फूल, कली, मिल झूमते, रचते दोनों रास।
बासंती परिधान में, आया फागुन मास।

ठकुराइन सी आ गई, हवा बजाती द्वार।
जो-जो पड़ता सामने, सबको पड़ती मार।

हवा लरजती आ गई, जब पेड़ों के पास।
बतियाये फिर देर तक, दोनों कर-कर हास।

सज-धज कर गौरी खड़ी,खोले मन के द्वार।
प्रीत रंग में डूबकर, सुंदर लगती नार।

साँसों-साँसों घुल रही, रेशम रेशम धार।
बाट पिया की जोहती, रंग भरी पिचकार।

आशा पाण्डेय ओझा
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महाप्राण निराला और ऋतुराज 

सखि, वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन, 
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।

वसंत ऋतु में जिस तरह प्रकृति अपने अनुपम सौंदर्य से सबको सम्मोहित करती है, उसी प्रकार वसंत पंचमी के दिन जन्मे निराला ने अपनी अनुपम काव्य कृतियों से हिंदी साहित्य में वसंत का अहसास कराया था। उन्होंने अपनी अतुलनीय कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और छंदों से साहित्य को समृद्ध बनाया। 
उनका जन्म 1896 की वसंत पंचमी के दिन बंगाल के मेदनीपुर जिले में हुआ था। हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। नामानुरूप उनका व्यक्तित्व भी निराला था। हिंदी जगत को अपने आलोक से प्रकाशवान करने वाले हिंदी साहित्य के 'सूर्य' पर मां सरस्वती का विशेष आशीर्वाद था। उनके साहित्य से प्रेम करने वाले पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा कि आज छायावाद की उत्कृष्ट कविताओं में गिनी जाने वाली उनकी पहली कविता 'जूही की कली' को तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशन योग्य न मानकर संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दिया था। इस कविता में निराला ने छंदों की के बंधन को तोड़कर अपनी अभिव्यक्ति को छंदविहीन कविता के रूप में पेश किया, जो आज भी लोगों के जेहन में बसी है। वह खड़ी बोली के कवि थे, लेकिन ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी उन्होंने अपने मनोभावों को बखूाबी प्रकट किया। 'अनामिका,' 'परिमल', 'गीतिका', 'द्वितीय अनामिका', 'तुलसीदास', 'अणिमा', 'बेला', 'नए पत्ते', 'गीत कुंज, 'आराधना', 'सांध्य काकली', 'अपरा' जैसे काव्य-संग्रहों में निराला ने साहित्य के नए सोपान रचे हैं।'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती', 'निरूपमा', 'कुल्ली भाट' और 'बिल्लेसुर' 'बकरिहा' शीर्षक से उपन्यासों, 'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीवी', 'सखी' और 'देवी' नामक कहानी संग्रह भी उनकी साहित्यिक यात्रा की बानगी पेश करते हैं।निराला ने कलकत्ता (अब कोलकाता) से 'मतवाला' व 'समन्वय' पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
 निराला का साहित्य व हिंदी कविता में क्रांतिकारी बदलाव लाने में उनका महत्व आज भारतीय साहित्य के औसत पाठक-छात्र के लिए अजाना ही बना हुआ है परंतु अबे सुन वे गुलाब...जैसी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जिस व्यवस्था को ललकारा था, दुर्भाग्य से आज भी हम उसी व्यवस्था के अंग बने हुए हैं और उस व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा और गिरावट आ गई है। कुकुरमुत्ता, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा जैसी रचनाओं के माध्यम से राजनीति व समाज पर समसामयिक प्रभाव की व्याख्या उन्होंने की, तो वह बड़ा जोखिम ही था। 
वह समाजवादी नहीं थे, परंतु हमारी ऊंच-नीच की खाई वाली व्यवस्था से असंतुष्ट तो थे। तभी तो उन्होंने गुलाब के फूल को भी नहीं छोड़ा। रंग और सुगंध पर अकडऩे को उन्होंने खूब ललकारा है।
हिंदी कविता में छायावाद के चार महत्वपूर्ण स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ अपनी सशक्त गिनती कराने वाले निराला की रचनाओं में एकरसता का पुट नहीं है।स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित निराला की रचनाओं में कहीं आध्यात्म की खोज है तो कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं असहायों के प्रति संवेदना हिलोर लेती उनके कोमल मन को दर्शाती है, तो कहीं देश-प्रेम का जज्बा दिखाई देता है, कहीं वह सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने को आतुर दिखाई देते हैं तो कहीं प्रकृति के प्रति उनका असीम प्रेम प्रस्फुटित होती है। 
निराला को छायावादी कविता का सुकुमार कहा जाता है, परंतु सही अर्थों में वह लालित्यमय, संस्कृतनिष्ठ वासंती वातावरण के बीच उपजे एक दुर्लभ ऑर्किड थे। यह वह युग था, जब हिंदी भाषा भारतीयता का पावन पथ मान ली गई थी। साहित्य में भौतिक सचाई कम, अभौतिक मिलन-विरह, इच्छापूर्ति-अपूर्ति का द्वैतभरा एक भव्य रुदन या उल्लासमय जादू ही कवि सम्मेलनों, संस्थानों व पत्र-पत्रिकाओं में छाया हुआ था। और इसी वातावरण में निराला ऐसी आंधी बनकर आए कि उन्होंने देखते-देखते तुकांत कोमल और हवा-हवाई अमूर्तन को चीरते हुए कवि तथा कविता की छुईमुई छवि को तिनका सिद्ध कर दिया। 40 के दशक में निराला का कुकुरमुत्ता जैसा अक्खड़ किंतु अद्भुत रूप से पठनीय काव्य संकलन छपा। यह संकलन हिंदी साहित्य का एक बिलकुल नया द्वार युवा लेखकों तथा पाठक वर्ग के लिए खोलता था, जो राज-समाज के स्तर पर अनेक प्रकार की भौतिक परेशानियों और मोहभंग के दु:ख से जूझ रहा था।  उन युवाओं की तरह निराला स्वयं अकाल, दुष्काल, बमबारी वाले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में गरीबी, सामाजिक जड़ता, प्रियजनों की अकाल मौत देख-जी चुके थे। अपनी रचनाओं तथा पत्राचार के पन्नों में वे हमको चौंकाने वाली बेबाकी से बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के अर्धसामंती, अर्धखेतिहर राज-समाज में बैसवाड़े के सामान्य ब्राह्मण परिवार की परंपराओं और गांधी की आंधी व सुधारवादी नएपन की चुनौतियों के बीच किशोरवय से ही उनका संवेदनशील मन किस तरह मथा जाता रहा था। उनकी कविताओं में नियमानुशासन का बोध तो है, पर मृत हो चुके नियमों से ईमानदार चिढ़ व खीझ भी है। गांधी का जादू अंत तक निराला को भी बांधे रहा। कविता में अपने समय में सामाजिक वर्जनाओं और आमो-खास की भावनाओं का द्वैत ही नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठान की जड़ता और दास्यभरी मानसिकता को भी खूब लपेटा है।
सन् 1920 के आस-पास अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू करने वाले निराला ने 1961 तक अबाध गति से लिखते हुए अनेक कालजयी रचनाएं कीं और उनकी लोकप्रियता के साथ फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक न सका।'मतवाला' पत्रिका में 'वाणी' शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों के साथ ही उन्होंने लंबी कविताएं लिखना भी आरंभ किया।सौ पदों में लिखी गई तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जिसे 1934 में उन्होंने कलमबद्ध किया और 1935 में सुधा के पांच अंकों में किस्तवार इसका प्रकाशन हुआ।साहित्य को अपना महत्वूपर्ण योगदान देने वाले निराला की लेखनी अंत तक नित नई रचनाएं रचती रहीं। 22 वर्ष की अल्पायु में पत्नी से बिछोह के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पतझड़ बन गया और उसके बाद अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन से शोक संतप्त निराला अपने जीवन के अंतिम वर्षो में मनोविक्षिप्त-से हो गए थे। लौकिक जगत को अपनी अविस्मरणीय रचनाओं के रूप में अपनी यादें सौंपकर 15 अक्टूबर, 1961 को महाप्राण अपने प्राण त्यागकर इस लोक को अलविदा कह गए, लेकिन अपनी रचनात्मकता को साहित्य प्रेमियों के जेहन में अंकित कर निराला काव्यरूप में आज भी हमारे बीच हैं। महाप्राण निराला को विश्लेषित करते हुए तभी तो रामविलास शर्मा जैसे समालोचक को भी कहना पड़ा - 

यह कवि अपराजेय निराला,

जिसको मिला गरल का प्याला;

ढहा और तन टूट चुका है,

पर जिसका माथा न झुका है;

शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती,

लेकिन अभी संभाले थाती,

और उठाए विजय पताका-

यह कवि है अपनी जनता का!



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