Showing posts with label सेहत. Show all posts
Showing posts with label सेहत. Show all posts

चिकित्सा विज्ञान का जनक भारत



विश्व में चिकित्सा विज्ञान का जनक भारत ही है। यही भूमि है जहा लोगो के आरोग्य की व्यवस्था होती थी। भारतीय जीवन दर्शन में आरोग्य सबसे महत्वपूर्ण तत्व रहा है। व्यक्ति को नीरोग रखने के लिए बहुत से प्रबंध इस संस्कृति में किये गये है।  योग, प्राणायाम, व्यायाम आदि के आलावा बहुत से औषधीय एवं शाल्य व्यवस्थाएं भी हमारी प्राचीनतम संस्कृति और इसके क्रमिक विक्सित होती रही सभी सभ्यताओ में रहा है। भारत में मनुष्य को सूंदर, सडौल काय वाला तथा नीरोग रहने वाला ग्यानी प्राणी माना जाता रहा है। इसी आरोग्य को पाने के लिए आयुर्वेद की रचना की गयी और उसके अनुरूप ही जीवन जीने की व्यवस्था बनायी गयी।  




आयुर्वेद चिकित्सा दो प्रकार से की जाती थी-


 (अ) शोधन-पंचकर्म द्वारा

 ये निम्न हैं-
 (१) वमन- मुंह से उल्टी करके दोष दूर करना,
 (२) विरेचन-मुख्यत: गुदा मार्ग से दोष निकालना, 
(३) बस्ति (एनीमा) 
(४) रक्तमोक्षण-जहरीली चीज काटने पर या शरीर में खराब रक्त कहीं हो, तो उसे निकालना।
 (५) नस्य- नाक द्वारा स्निग्ध चीज देना 

(ब) शमन-

 औषधि द्वारा चिकित्सा
 इसकी परिधि बहुत व्याप्त थी। आठ प्रकार की चिकित्साएं बताई गई हैं। 
(१) काय चिकित्सा-सामान्य चिकित्सा 
(२) कौमार भृत्यम्‌-बालरोग चिकित्सा 
(३) भूत विद्या- मनोरोग चिकित्सा 
(४) शालाक्य तंत्र- उर्ध्वांग अर्थात्‌ नाक, कान, गला आदि की चिकित्सा 
(५) शल्य तंत्र-शल्य चिकित्सा 
(६) अगद तंत्र-विष चिकित्सा 
(७) रसायन-रसायन चिकित्सा 
(८) बाजीकरण

पुरुषत्व वर्धन औषधियां:

- चरक ने कहा, जो जहां रहता है, उसी के आसपास प्रकृति ने रोगों की औषधियां दे रखी हैं। अत: वे अपने आसपास के पौधों, वनस्पतियों का निरीक्षण व प्रयोग करने का आग्रह करते थे। एक समय विश्व के अनेक आचार्य एकत्रित हुए, विचार-विमर्श हुआ और उसकी फलश्रुति आगे चलकर ‘चरक संहिता‘ के रूप में सामने आई। इस संहिता में औषधि की दृष्टि से ३४१ वनस्पतिजन्य, १७७ प्राणिजन्य, ६४ खनिज द्रव्यों का उल्लेख है। 

इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में ३८५ वनस्पतिजन्य, ५७ प्राणिजन्य तथा ६४ खनिज द्रव्यों से औषधीय प्रयोग व विधियों का वर्णन है। इनसे चूर्ण, आसव, काढ़ा, अवलेह आदि अनेक में रूपों औषधियां तैयार होती थीं। इससे पूर्वकाल में भी ग्रंथों में कुछ अद्भुत औषधियों का वर्णन मिलता है।

 जैसे बाल्मीकी रामायण में राम-रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण पर प्राणांतक आघात हुआ और वे मूर्छित हो गए, उस समय इलाज हेतु जामवन्त ने हनुमान जी के पास हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया।

 मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि। सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्‌॥ युद्धकाण्ड ७४-३३

 (१) विशल्यकरणी-शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली 
(२) सन्धानी- घाव भरने वाली 
(३) सुवर्णकरणी-त्वचा का रंग ठीक रखने वाली 
(४) मृतसंजीवनी-पुनर्जीवन देने वाली 

चरक के बाद बौद्धकाल में नागार्जुन, वाग्भट्ट आदि अनेक लोगों के प्रयत्न से रस शास्त्र विकसित हुआ। इसमें पारे को शुद्ध कर उसका औषधीय उपयोग अत्यंत परिणामकारक रहा। इसके अतिरिक्त धातुओं, यथा-लौह, ताम्र, स्वर्ण, रजत, जस्त को विविध रसों में डालना और गरम करना-इस प्रक्रिया से उन्हें भस्म में परिवर्तित करने की विद्या विकसित हुई। यह भस्म और पादपजन्य औषधियां भी रोग निदान में काम आती हैं। 

शल्य चिकित्सा- भारत ही है सर्जरी का जन्मदाता  

कुछ वर्षों पूर्व इंग्लैण्ड के शल्य चिकित्सकों के विश्व प्रसिद्ध संगठन ने एक कैलेण्डर निकाला, उसमें विश्व के अब तक के श्रेष्ठ शल्य चिकित्सकों (सर्जन) के चित्र दिए गए थे। उसमें पहला चित्र आचार्य सुश्रुत का था तथा उन्हें विश्व का पहला शल्य चिकित्सक बताया गया था। वैसे भारतीय परम्परा में शल्य चिकित्सा का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय चिकित्सा के देवता धन्वंतरि को शल्य क्रिया का भी जनक माना जाता है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में हमारे देश के चिकित्सकों ने अच्छी प्रगति की थी। अनेक ग्रंथ रचे गए। ऐसे ग्रंथों के रचनाकारों में सुश्रुत, पुष्कलावत, गोपरक्षित, भोज, विदेह, निमि, कंकायन, गार्ग्य, गालव, जीवक, पर्वतक, हिरण्याक्ष, कश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन रचनाकारों के अलावा अनेक प्राचीन ग्रंथों से इस क्षेत्र में भारतीयों की प्रगति का ज्ञान होता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में दिल, पेट तथा वृक्कों के विकारों का विवरण है। इसी तरह शरीर में नवद्वारों तथा दस छिद्रों का विवरण दिया गया है। वैदिक काल के शल्य चिकित्सक मस्तिष्क की शल्य क्रिया में निपुण थे।

 ऋग्वेद (८-८६-२) के अनुसार जब विमना और विश्वक ऋषि उद्भ्रान्त हो गए थे, तब शल्य क्रिया द्वारा उनका रोग दूर किया गया। इसी ग्रंथ में नार्षद ऋषि का भी विवरण है। जब वे पूर्ण रूप से बधिर हो गए तब अश्विनी कुमारों ने उपचार करके उनकी श्रवण शक्ति वापस लौटा दी थी। नेत्र जैसे कोमल अंग की चिकित्सा तत्कालीन चिकित्सक कुशलता से कर लेते थे। ऋग्वेद (१-११६-११) में शल्य क्रिया द्वारा वन्दन ऋषि की ज्योति वापस लाने का उल्लेख मिलता है। शल्य क्रिया के क्षेत्र में बौद्ध काल में भी तीव्र गति से प्रगति हुई। ‘विनय पिटक‘ के अनुसार राजगृह के एक श्रेष्ठी के सर में कीड़े पड़ गए थे। तब वैद्यराज जीवक ने शल्य क्रिया से न केवल वे कीड़े निकाले बल्कि इससे बने घावों को ठीक करने के लिए उन पर औषधि का लेप किया था। हमारे पुराणों में भी शल्य क्रिया के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई। ‘शिव पुराण‘ के अनुसार जब शिव जी ने दक्ष का सर काट दिया था तब अश्विनी कुमारों ने उनको नया सर लगाया था। इसी तरह गणेश जी का मस्तक कट जाने पर उनके धड़ पर हाथी का सर जोड़ा गया था। ‘रामायण‘ तथा ‘महाभारत‘ में भी ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं। ‘रामायण‘ में एक स्थान पर कहा है कि ‘याजमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ।‘ अर्थात्‌ आवश्यकता पड़ने पर एक मनुष्य की आंख निकालकर दूसरे को लगा दी जाती थी। (बा.रा.-२-१६-५) ‘महाभारत‘ के सभा पर्व में युधिष्ठिर व नारद के संवाद से शल्य चिकित्सा के ८ अंगों का परिचय मिलता है। वैद्य सबल सिंह भाटी कहते हैं कि सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का प्रशिक्षण गुरुशिष्य परम्परा के माध्यम से दिया जाता था। मुर्दों तथा पुतलों का विच्छेदन करके व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता था। प्रशिक्षित शल्यज्ञ विभिन्न उपकरणों तथा अग्नि के माध्यम से तमाम क्रियाएं सम्पन्न करते थे। जरूरत पड़ने पर रोगी को खून भी चढ़ाया जाता था। इसके लिए तेज धार वाले उपकरण शिरावेध का उपयोग होता था।

 आठ प्रकार की शल्य क्रियाएं- 

सुश्रुत द्वारा वर्णित शल्य क्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं 

(१) छेद्य (छेदन हेतु) 
(२) भेद्य (भेदन हेतु) 
(३) लेख्य (अलग करने हेतु) 
(४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए) 
(५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए) 
(६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए) 
(७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए) 
(८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)

 सुश्रुत संहिता में शस्त्र क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। आजकल की शल्य क्रिया में ‘फौरसेप्स‘ तथा ‘संदस‘ यंत्र फौरसेप्स तथा टोंग से मिलते-जुलते हैं। सुश्रुत के महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों, २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। पूर्व में जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। 

उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं- अर्द्धआधार, अतिमुख, अरा, बदिशा, दंत शंकु, एषणी, कर-पत्र, कृतारिका, कुथारिका, कुश-पात्र, मण्डलाग्र, मुद्रिका, नख शस्त्र, शरारिमुख, सूचि, त्रिकुर्चकर, उत्पल पत्र, वृध-पत्र, वृहिमुख तथा वेतस-पत्र। 

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने इतना जोर दिया है तथा इसके लिए ऐसे साधनों का वर्णन किया है कि आज के शल्य चिकित्सक भी दंग रह जाएं। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है। ‘भोज प्रबंध‘ (९२७ ईस्वी) में बताया गया है कि राजा भोज को कपाल की शल्य-क्रिया के पूर्व ‘सम्मोहिनी‘ नामक चूर्ण सुंघाकर अचेत किया गया था। 

चौदह प्रकार की पट्टियां- इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थि-भंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, उनके ग्रंथ में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं। 

 कैंसर जैसा रोग नया नहीं है। सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है।

 शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है। आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

संजय तिवारी 
अध्यक्ष ,भारत संस्कृति न्यास 
9450887186 


बलवर्धक रसायन अश्वगंधा क्षय रोग में भी है लाभकारी



अश्वगंधा एक बलवर्धक जड़ी है जिसके गुणों को आधुनिक चिकित्सकों ने भी माना है। इसका पौधा झाड़ीदार होता है। जिसकी ऊंचाई आमतौर पर 3−4 फुट होती है। औषधि के रूप में मुख्यतः इसकी जड़ों का प्रयोग किया जाता है। कहीं−कहीं इसकी पत्तियों का प्रयोग भी किया जाता है। इसके बीज जहरीले होते हैं। असगंध बहमनेवर्री तथा बाराहरकर्णी इसी के नाम हैं।

अश्वगंधा या वाजिगंधा का अर्थ है अश्व या घोड़े की गंध। इसकी जड़ 4−5 इंच लंबी, मटमैली तथा अंदर से शंकु के आकार की होती है, इसका स्वाद तीखा होता है। चूंकि अश्वगंधा की गीली ताजी जड़ से घोड़े के मूत्र के समान तीव्र गंध आती है इसलिए इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा कहते हैं। इस जड़ी को अश्वगंधा कहने का दूसरा कारण यह है कि इसका सेवन करते रहने से शरीर में अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है।


 
अश्वगंधा की जड़ में कई एल्केलाइड पाए जाते हैं, जैसे ट्रोपीन, कुस्कोहाइग्रीन, एनाफैरीन, आईसोपेलीन, स्यूडोट्रोपीन आदि। इनकी कुल मात्र 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक हो सकती है। इसके अतिरिक्त जड़ों में स्टार्च, शर्करा, ग्लाइकोसाइडस−होण्टि्रया कान्टेन तथा उलसिटॉल विदनॉल पाए जाते हैं। इसमें बहुत से अमीनो अम्ल मुक्त अवस्था में पाए जाते हैं इसकी पत्तियों में एल्केलाइड्स, ग्लाइकोसाइड्स एवं मुक्त अमीनो अम्ल पाए जाते हैं। इसके तने में प्रोटीन कैल्शियम, फास्फोरस आदि पाए जाते हैं।
 
अश्वगंधा मुख्यतः एक बलवर्धक रसायन है सभी प्रकार के जीर्ण रोगों और क्षय रोग आदि के लिए इसे उपयुक्त माना गया है। इसके लिए अश्वगंधा पाक का प्रयोग किया जा सकता है। इसे बनाने के लिए एक किलो जौ कूट कर अश्वगंधा को बीस किलो जल में उबाल लें। जब यह मिश्रण 02 किलो शेष रह जाए तो इसे छान लें। इसमें 02 किलो शक्कर मिलाकर पकाने पर पाक तैयार हो जाता है। इस पाक की एक चम्मच मात्रा बच्चों को दिन में दो बार (सुबह तथा शाम) दी जानी चाहिए। बड़ों को यही पाक दुगनी मात्रा में दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घी अथवा तेल या पानी के साथ यदि बच्चों को दिया जाता है तो उनकी शरीर तेजी से पुष्ट होता है।
 
अश्वगंधा शरीर की बिगड़ी हुए व्यवस्था को ठीक करने का कार्य भी करती है। एक अच्छा वातशामक होने का कार्य भी करती है। एक अच्छा वातशामक होने के कारण यह थकान का निवारण भी करती है। यह हमारे जीव कोषों की, अंग−अवयवों की आयु वृद्धि भी करती है और असमय बुढ़ापा आने से रोकती है। सूखे रोग के उपचार के लिए इसके तने की सब्जी खिलाई जाती है। प्रसव के बाद महिलाओं को बल देने के लिए भी अश्वगंधा का प्रयोग किया जाता है।
 
अश्वगंधा के चूर्ण की एक−एक ग्राम मात्रा दिन में तीन बार लेने पर शरीर में हीमोग्लोबिन लाल रक्त कणों की संख्या तथा बालों का काला पन बढ़ता है। रक्त में घुलनशील वसा का स्तर कम होता है तथा रक्त कणों के बैठने की गति भी कम होती है। अश्वगंधा के प्रत्येक 100 ग्राम में 789.4 मिलीग्राम लोहा पाया जाता है। लोहे के साथ ही इसमें पाए जाने वाले मुक्त अमीनो अम्ल इसे एक अच्छा हिमोटिनिक (रक्त में लोहा बढ़ाने वाला) टॉनिक बनाते हैं।
 
कफ तथा वात संबंधी प्रकोपों को दूर करने की शक्ति भी इसमें होती है। इसकी जड़ से सिद्ध तेल जोड़ों के दर्द को दूर करता है। थायराइड या अन्य ग्रंथियों की वृद्धि में इसके पत्तों का लेप करने से फायदा होता है। यह नींद लाने में भी सहायक होता है। श्वास संबंधी रोगों के निदान के लिए अश्वगंधा क्षार अथवा चूर्ण को शहद तथा घी के साथ दिया जाता है। कैंसर, जीर्ण व्याधि, क्षय रोग आदि में दुर्बलता तथा दर्द दूर करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।
 
बाजार में अश्वगंधा की जड़ 10 से 20 सेमी के टुकड़े के रूप में मिलती है। यह खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है जिसमें स्टार्च जंगल में अपने आप उगे पौधे की तुलना में अधिक होती है। आंतरिक प्रयोग के लिए खेती किए पौधे की जड़ ठीक होती है जबकि बाहरी प्रयोग जैसे लेप आदि के लिए जंगली पौधे की जड़ का प्रयोग किया जाना चाहिए। बाजारों में असगंध जाति के एक भेद काक नजकी जड़ें भी इसमें मिला दी जाती हैं यह ठीक नहीं है, यह विषैली होती है और इसका आंतरिक औषधि के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अश्वगंधा के भंडारण के लिए अच्छी जड़ों को चुनकर, सुखाकर, एयरटाइट सूखे−शीतल स्थान पर रखा जाना चाहिए। इन्हें एक वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है। अश्वगंधा के गुणों को देखते हुए कहा जा सकता है इसका नाम बहुत ही सार्थक है क्योंकि यह प्रधानतः एक बल बढ़ाने वाली औषधि है।

अनुलोम-विलोम काव्य


राघवयादवीयम


संजय तिवारी

सृजन भारत की मौलिक पहचान है। सृजन ही यहाँ की संस्कृति है और इस सृजनात्मकता के कारण ही भारतीय आद्य साहित्य की अलौकिकता प्रमाणित होती है। भाषा , शब्द , वाक्य विन्यास , रस , छंद , अलंकार , समास , कारक , संधि , विभक्ति आदि व्याकरण के अंग है।  भाषिक संरचना और सम्प्रेषणीयता के लिए भाषा के व्याकरण का बहुत महत्त्व है। आज दुनिया में हर भाषा अपनी वैयाकरणीय व्यवस्था के कारण ही स्थापित अथवा विमुक्त होती है। भारत का महाभाग्य है कि यहाँ संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा विद्यमान  रही है।  यद्यपि आज यह प्रचलन में बहुत कम हो गयी है लेकिन इसकी विरासत इतनी समृद्ध है जो इसे कभी विलुप्त नहीं होने देगी। इस संस्कृत की क्षमता ही है जिसमे ऐसे काव्य की रचना भी संभव है जिसे एक शैर से पढने पर एक अलग अर्थ हो और दूसरे शैर से पढने पर दूसरा अर्थ निकलता हो। यह भी केवल अर्थ तक ही सीमित नहीं है बल्कि एक सिरा रामकथा के आख्यान बताये और दूसरा सिरा कृष्ण कथा सुनाये , जब की काव्य केवल एक है। 
दुनिया की किसी भाषा में यह क्षमता नहीं है। भाषा की इस क्षमता को अनुलोम - विलोम काव्य कहा जाता है। संस्कृत भाषा में इसके उदाहरण मौजूद है। कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"



उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्:

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः 
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

 यह अद्भुत रचना केवल भारत और भारतीय साहित्य में ही संभव है। दुनिया की कोई भाषा इस तरह की काय रचाना की क्षमता नहीं रखती। भारतीय भाषा विज्ञान के इस तत्व को समझने और वितरित करने की आवश्यकता इस लिए भी है क्योकि अब तो पश्चिम के आधुनिक  विज्ञान ने भी संस्कृत की शक्ति का लोहा मान लिया है। उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें कि दुनिया में कहीं भी ऐसा नही पाया गया ग्रंथ है ।



लोग क्यों पहनते हैं पीले कपड़े?


जो महिलाएं पीले रंग के वस्त्र ज्यादा पहनती हैं उन महिलाओं में आत्मविश्वास तो अधिक होता ही ....
जीवन में रंगों का बहुत महत्व है। रंग खुशी और उल्लास का प्रतीक भी हैं। रंगों को लेकर हर इंसान की पसंद अलग-अलग होती है। किसी को नीला रंग पसंद हैं तो किसी को नारंगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ रंग ऐसे होते हैं जिन्हें अगर वस्त्र के रूप में धारण किया जाये तो हमारी तरक्की निश्चित है। रंग हमेंं ऊर्जा देते हैं और हमारे आत्मविश्वास को भी बढ़ाते हैं।
रंगों की इस श्रेणी में पीले रंग को सबसे अधिक ऊर्जावान रंग माना जाता है।
पीले रंग में ऊर्जा बढ़ाने के साथ-साथ मस्तिष्क को अधिक सक्रिय करने के गुण भी होते हैं। एक शोध के अनुसार जो महिलाएं पीले रंग के वस्त्र ज्यादा पहनती हैं उन महिलाओं में आत्मविश्वास तो अधिक होता ही है साथ ही उनकी विभिन्न कार्याे को करने की कार्यक्षमता भी अधिक होती है।
भारत में बहुत से लोग बृहस्पतिवार के दिन इस रंग के कपड़े पहनते हैं। पीले वस्त्र पहनने से सोचने समझने की शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही अगर आप पीले रंग के खाद्य पदार्थो को भी खाएंगे तो आपका शरीर भी स्वस्थ रहेगा। पीले रंग के फल-सब्जियों से हमारा इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और पेट संबंधी बीमारियां दूर होती हैं। इसलिये आम, पपीता, संतरा जैसे पीले फलों को अपनी डाइट में जरूर शामिल करें।
पीले वस्त्र धारण करने वाले लोग अधिक आकर्षक लगते हैं। पीले रंग से निकलने वाली तरंगे हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाती है जिससे हम अधिक आकर्षक नजर आते हैं।

कुमकुम और सिंदूर सिर्फ सुहाग की निशानी नही, इनके भी हैं कुछ वैज्ञानिक कारण

धार्मिक तर्कों के अनुसार पति की लंबी उम्र और सुखमय वैवाहिकजीवन के लिये महिलाओं का श्रृंगार करना जरूरी बताया गया है।
हिन्दू धर्म में सोलह श्रृंगार का बहुत महत्व है। सुहागन महिलाओं के लिये ये श्रृंगार जरूरी माने गये हैं। लड़कियों के जीवन में विवाह के बाद बहुत कुछ बदल जाता है उनका घर, परिवार, रहने का तरीका, काम करने का तरीका और भी बहुत कुछ। शादी के बाद उनके जीवन शामिल हो जाते हैं ये सोलह श्रृंगार धार्मिक तर्काे के अनुसार पति की लंबी उम्र और सुखमय वैवाहिकजीवन के लिये महिलाओं का श्रृंगार करना जरूरी बताया गया है। आज हम आपको बताते हैं किइन धार्मिक परंपराओं के पीछे कौन से वैज्ञानिककारण हैं।
कुमकुम
कुमकुम भौहों के बीच में लगाया जाता है। यह बिंदु अज्ना चक्र कहलाता है। सोचिए जब भी आपको गुस्सा आता है तो तनाव की लकीरें भौहों के बीच सिमटी हुई नजर आती हैं। इस बिंदु पर कुमकुम लगाने से शांति मिलती है और दिमाग ठंडा रहता है। यह बिंदु भगवान शिव से जुड़ा होता है।
सिंदूर लगाना
सिर के बीचोंबीच मांग में सिंदूर इसलिये लगाया जाता है क्योंकि इस बिंदु को महत्वपूर्ण और संवेदनशील माना जाता है। सिंदूर लगाने से दिमाग हमेशा सतर्क और सक्रिय रहता है। दरअसल, सिंदूर में मरकरी होता है जो अकेली ऐसी धातु है जो लिक्विड रूप में पाई जाती है। इससे शीतलता मिलती है और दिमाग तनावमुक्त रहता है। सिंदूर शादी के बाद लगाया जाता है क्योंकि ये रक्त संचार के साथ ही यौन क्षमताओं को भी बढ़ाने का भी काम करता है।


कांच की चूडिय़ां



सुहागनों के लिये कांच की चूडियां पहनना शुभ माना जाता है। कांच की चूडिय़ों की खनक से घर में बहू की मौजूदगी का अहसास होता है। इसके पीछे वैज्ञानिकों का कहना है कि कांच में सात्विक और चैतन्य अंश प्रधान होते हैं। इस वजह से चूडिय़ों के आपस में टकराने से जो आवाज होती है। वह नेगेटिव एनर्जी को दूर भगाती है।

मंगलसूत्र


प्रत्येक विवाहित महिला को मंगलसूत्र अवश्य पहनना चाहिये। बड़े-बुजुर्र्गों का कहना है कि इसे छुपाकर ररखना चाहिये। इसके पीछे वैज्ञानिकतर्क यह है कि भारतीय हिंदू महिलाएं काफी शारीरिक श्रम करती हैं, इसलिए उनका ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहना जरूरी है। मंगलसूत्र छिपाकर रखने से ये हमारे शरीर से स्पर्श करेगा और इसका अधिक से अधिक लाभ हमें मिल पाएगा।
बिछुआ
शादीशुदा हिंदू महिलाएं पैरों में बिछुए जरूर पहनती हैं। इसे पहनने के पीछे भी विज्ञान छिपा है। पैर की जिन उंगलियों में बिछुआ पहना जाता है, उनका कनेक्शन गर्भाशय और दिल से है। इन्हें पहनने से महिला को गर्भधारण करने में आसानी होती है और मासिक धर्म भी सही रहता है। चांदी का होने की वजह से जमीन से यह ऊर्जा ग्रहण करती है और पूरे शरीर तक पहुंचाती है।


नाक की लौंग

नाक में लौंग पहनने से सांस नियंत्रित होती है और श्वांस संबंधी रोगों से बचाव होता है।


पायल



चांदी की पायल पहनने से पीठ, एड़ी, घुटनों के दर्द और हिस्टीरिया रोगों से राहत मिलती है। साथ ही चांदी की पायल हमेशा पैरों से रगड़ती रहती है, जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद होती है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है, साथ ही ये शरीर की बनावट को नियंत्रित भी करती है।

इयररिंग्स

कानों में इयररिंग्स पहनना फैशन तो होता ही है साथ ही इससे शरीर पर एक्युपंचर इफेक्ट भी पड़ता है। कान में छेद कराकर उसमें कोई धातु धारण करना मासिक धर्म को नियमित करने में सहायक होता है। शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए सोने के ईयर रिंग्स और ज्यादा ऊर्जा को कम करने के लिए चांदी के ईयररिंग्स पहनने की सलाह दी जाती है। अलग-अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग-अलग धातु के ईयर रिंग्स पहनने की सलाह दी जाती रही है। पहले पुरुष भी इसे पहना करते थे।
 


सिर्फ नेलपेंट ही नही हटाता, और भी बहुत कुछ रिमूव करता है नेलपेंट रिमूवर


नेलपॉलिश रिमूव करने के लिये तो नेलपेंट रिमूवर का प्रयोग किया जाता है लेकिन क्या आपको पता है और भी बहुत काम आता है नेलपेंट रिमूवर
नेल पॉलिश रिमूवर का प्रयोग तो हर महिला करती है लेकिन सिर्फ नेल पेंट रिमूव करने के लिये लेकिन क्या आपको पता है कि आप इसे और किस प्रकार से इस्तेमाल कर सकते हैं, तो आइये आपको बताते हैं इसके अन्य उपयोग-
- मैटल पर लगे स्टीकर्स आसानी से नही उतरते और अगर उतर भी जाते हैं तो उन पर चिपकने का निशान बना रहता है जो देखने में भी खराब लगता है। इसके लिये रुई में लगे रिमूवर को उस स्थान पर रगडऩे से वो निशान हट जाएगा।
- सीलन और धूल मिट्टïी के कारण हमारे लेदर के जूतों पर दाग धब्बे पड़ जाते हैं और वो देखने में भी बहुत खराब लगते हैं। उसको साफ करने के लिये एक रुई के टुकड़े पर नेलपॉलिश रिमूवर लगाकर जूते पर रगडऩे से उसके दाग-धब्बे हट जाएंगे और लेदर चमकने लगेगा।



- बाथरूम में पड़े-पड़े आपका रेजर सीलन और कीटाणुओं के कारण अपनी चमक खो देता है और साबुन और पानी से धोने पर भी साफ नही हो पाता। ऐसे में एक रुई में थोड़ा सा नेलपेंट रिमूवर लगाकर रेजर पर रगड़े तो वह चमक उठेगा।

- घड़ी के डायल पर पड़े खरोंच के निशानों को हटाने के लिये भी आप नेल पॉलिश रिमूवर का इस्तेमाल कर सकती हैं इससे घड़ी का शीश पहले की तरह ही चमकने लगेगा।


- कपड़ों पर अगर इंक के दाग लग गये हैं तो नेल पेंट रिमूवर लगाकर उस स्थान को हाथों से मले और फिर वॉशिंग पाउडर से धो दें। इंक का दाग साफ हो जाएगा।

- जोंक अगर आपके किसी अंग पर चिपक जाये तो वो आपके शरीर का खून चूस लेती है और स्किन से नही हटती। ऐसे में रिमूवर की कुछ बूंदे उस पर डाल दें वो आपकी स्किन को छोड़ देगी। लेकिन उसके बाद उस जगह को किसी एंटीसेप्टिक से साफ करना न भूलें।


- अगर आपकी महंगी क्राकरी पर दाग लगे हुए हैं तो उसके दाग भी आप नेलपेंट रिमूवर से साफ कर सकते हैं।
- फेवीक्विक से समान चिपकाते समय अक्सर उसका कुछ अंश हमारी उंगलियों पर लग जाता है और लाख कोशिश के बावजूद भी वो नही हटता। ऐसे में रुई पर लगे नेलपेंट रिमूवर को उस स्थान पर लगाये। थोड़ी देर में ग्लू सॉफ्ट होकर हट जाएगा।

- फर्श पर अगर गहरे दाग लगे हुए हैं तो स्पंज पर रिमूवर छिड़क कर उन दागों पर रगड़ें और फिर साफ पानी से पोछा लगा दें। दाग साफ हो जाएंगे।

- चाय गिरने से अगर दीवार पर छींटे आ गये हैं तो उन्हें हटाने के लिये भी रिमूवर को स्पंज में लगाकर दीवार पर रगड़ें, निशान आसानी से हट जाएगा।


जानिये , कैसा है आप का दिमाग 


मन की पूरी अवधारणा इसके चार कार्यों पर आधारित होती है और वह है मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ये चारों कार्य मन को समझ और चेतना प्रदान करते हैं। इसके अलावा मन हमेशा से कल्पना करने वाला, तर्कसंगत, भावुक और मनोवैज्ञानिक रहा है।



मस्तिष्क या मन के चार प्रकार

1. सक्रिय दिमाग: योग कहता है कि पहले प्रकार का मन ‘क्रियाशील’ है जबकि मनोवैज्ञानिक इसे सक्रिय मन कहते हैं। क्रियाशील मन सक्रिय और बहिर्मुखी होता है। एक गतिशील मन बड़ी मुश्किल से खुद को शांत या स्थिर रख पाता है। बच्चों का मन गतिशील होता है। उनका मन बंटा हुआ या अलग-अलग दिशाओं में सोचने वाला नहीं होता है। लेकिन भटका हुआ मन या हर समय बदलने वाला मन गतिशील या सक्रिय मन से अलग होता है। सक्रिय मन अगर एक विषय पर अपना ध्यान केंद्रित कर ले तो वो चेतनात्मक या अचेतनीय रूप से उसी का अनुसरण करता रहता है। वयस्कों में जब सक्रिय मन प्रबल होता है तो वह व्यक्ति बहिर्मुखी स्वभाव का होता है और परिवार, समाज और पेशेवर लोगों के साथ अधिक मिलनसार हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हर उस काम में रूचि दिखाते हैं जो समाज और दूसरे लोगों को उसके करीब लाएगी। सक्रिय मस्तिष्क वाला व्यक्ति बहुत ही सामाजिक और व्यवहारिक होता है।

2. सचेत या तार्किक दिमाग: दूसरे प्रकार का दिमाग बुद्धिजीवी मन है जिसे मनोवैज्ञानिक बौद्धिक, तार्किक, सचेत, गणितज्ञ और वैज्ञानिक दिमाग भी कहते हैं। इस तरह का दिमाग ऐसे लोगों में प्रबल होता है जो खोज या जांच करते हैं, सिद्धांतो को जन्म देते हैं या सूत्रों को विकसित करते हैं। ऐसा दिमाग वैज्ञानिकों का होता है। दार्शनिकों और ज्ञानी लोगों का दिमाग भी बौद्धिक होता है। जब बुद्धिजीवियों के लिए बाहर के वातावरण से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है। ऐसे लोग एकांत में रहना पसंद करते हैं। वो सोचना, विश्लेषण करना और समस्याओं का हल ढ़ूंढ़ना पसंद करते हैं।


3. भावुक मन: तीसरे प्रकार का मन भाविक मन होता है जिसमें भाव, भावनाएं, संवेदनाएं और मानसिक व्यवहार प्रबल होते हैं। ऐसे लोग काफी संवेदनशील होते हैं। वो दर्द और चोट का अनुभव आसानी से कर पाते हैं, लेकिन इस कारण वो दुख या निराशाजनक अवस्था में भी आसानी से चले जाते हैं। वो इतने भावुक होते हैं कि आसानी से जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं कर पाते। इस तरह के व्यक्तित्व वाले लोग कभी-कभी दिव्यता या किसी शक्ति से जोड़ने के लिए खुद को प्रेरित करते हैं। ऐसे लोग किसी संन्यासी, पादरी या नन का अनुसरण करते हैं और उनके भक्त कहलाते हैं। यह दुनिया ऐसे लोगों के लिए अतार्किक होती है और वो केवल खुद को किसी दिव्यता से ही तार्किक रूप से जोड़ पाते हैं। यह एक ऐसा जोड़ होता है जिसमें वो खुशी तलाश पाते हैं। अगर ऐसे लोग दुनिया से जुड़ते हैं तो उनका अनुभव काफी दर्दभरा होता है। वो दुनिया को एक विनाशकारी अनुभव के तौर पर देखते हैं जिसमें सिर्फ पीड़ा का वास है।

4. मनोवैज्ञानिक दिमाग: चौथे प्रकार का यह दिमाग अंर्तजागृतिमन या मनोवैज्ञानिक है। इस प्रकार के दिमाग में बाह्य वातावरण के बजाय आंतरिक प्रक्रिया में मन, मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार अधिक जागृत रहती हैं। वो लोग जो ऐसे दिमाग के साथ जन्में होते हैं, वो सामान्यत: योगी बन जाते हैं और खुद को उच्च रहस्यवादी और आध्यात्मिक अभ्यास में व्यस्त रखते हैं। आध्यात्मिकता उनके जीवन का आधार बन जाता है।

इन्सेफेलाइटिस



पूर्वांचल के हिस्से में हमेशा की तरह आपदा, उपेक्षा, अराजकता, असमानता और इंसेफेलाइटिस की मार से अपाहिज होना ही नसीब हुआ है. सुधि और संवेदना का बड़बोलापन ऐसा कि 1976 से शुरू हुई इस बीमारी के लिए टीकाकरण की आवश्यकता 2006 में जरूरी समझी गई जबकि जापान में उससे पूर्व ही टीकाकरण शुरू हो गया था. यानी कि 30 वर्ष तो लोगों को उनके हाल पर छोड़, मौत का जश्न मनाया गया. 1978 से बच्चों के मरने का सिलसिला आज भी जारी है. बच्चे हर साल मर रहे हैं. पहले तो डॉक्टरों को बीमारी का पता ही नहीं चला और जब पता चला तो ऐसी स्वास्थ्य सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं थीं जो इन बच्चों को बचा सकें.

एक बार फिर इन्सेफेलाइटिस का ताडंव पूर्वांचल में शुरू हो गया है। जनवरी से लेकर अब तक 50 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। रोकथाम के तमाम प्रयासों के बावजूद भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफेलाइटिस पर नियंत्रण नहीं हो पाया है। कुछ सालों से लखनऊ में भी इन्सेफेलाइटिस के मामले आने लगे हैं। 


इन्सेफेलाइटिस यानी दिमागी बुखार एक खतरनाक बीमारी है। इससे सबसे अधिक शिकार तीन से 15 साल के बच्चे होते हैं। जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) या दिमागी बुखार पिछले 36 साल में 60000  से ज्यादा मासूमों की जान ले चुका है। गोरखपुर का बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज हर साल गोरखपुर के नज़दीक ही नहीं बल्कि बिहार और नेपाल से आने वाले मरीजों से बुरी तरह भर जाता है। अक्सर 208 बिस्तरों वाले इन्सेफेलाइटिस वॉर्ड में एक बेड पर तीन से चार बच्चों को लिटाना पड़ता है। इस साल मौसम में जिस तरह के उतार-चढ़ाव दिख रहा है उससे विशेषज्ञों को बीमारी के और अधिक खतरनाक हो जाने की आशंका है। 
दो साल पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री और प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने जिस उम्मीद से इंसेफेलाइटिस के संताप से पूर्वांचल को मुक्ति दिलाने की बात कही थी, वह समाचारों की सुर्खिंया बनीं और बन कर बुलबुले की तरह समाप्त हो गईं। पूर्वांचल के हिस्से में हमेशा की तरह आपदा, उपेक्षा, अराजकता, असमानता और इंसेफेलाइटिस की मार से अपाहिज होना ही नसीब हुआ है। सुधि और संवेदना का बड़बोलापन ऐसा कि 1976 से शुरू हुई इस बीमारी के लिए टीकाकरण की आवश्यकता 2006 में जरूरी समझी गई जबकि जापान में उससे पूर्व ही टीकाकरण शुरू हो गया था। यानी कि 30 वर्ष तो लोगों को उनके हाल पर छोड़, मौत का जश्न मनाया गया। पूर्वांचल के गरीबों को उपेक्षित रखने, उन्हें मरने देने का यह खेल वर्ष दर वर्ष जारी रहा। आज भी कुछ होने के नाम पर अखबारी बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा ।  चूंकि यह गरीबों और लाचारों की बीमारी है, इसलिये कुछ हजार की मौतों से कोई पहाड़ नहीं टूटता। तभी तो इलाज की समुचित व्यवस्था करने के बजाय, कोशिश यह की जा रही है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों को दूसरी बीमारी में तब्दील कर, आंकड़ों को घटा दिया जाए।

बाबा राघवदास मेडिकल कालेज गोरखपुर में 2005 से 2013 तक भर्ती मरीजों की संख्या और मृत्यु का विवरण
वर्ष  भर्ती मरीज  मृत्यु    प्रतिशत मृत्यु
2005   3532      937  26.52
2006   1940      431  22.21
2007   2423      516  21.29
2008   2194     458  20.87
2009   2663     525  19.71
2010   3303     514  15.56
2011   3308     627  18.95
2012   2517     527  20.86
2013   1071(25 सितम्बर तक)       292  27.26

ये आंकड़े केवल गोरखपुर मेडिकल कालेज, बाल-रोग विभाग और मेडिसिन विभाग के हैं जो वहां भर्ती मरीजों के आधार पर तैयार किये गये हैं। गरीबी से दबे पूर्वांचल के हर मरीज के नसीब में मेडिकल कॉलेज पहुंचना संभव नहीं। इसलिये संभव है कि इस महामारी के प्रकोप से 20 से 25 प्रतिशत मरीज, गांव के ओझाओं-सोखाओं के यहां दम तोड़ दिये हों और कुछ निजी अस्पतालों में।
भूख, गरीबी और अशिक्षा की जकड़़बंदी में फंसे पूर्वांचल के लिये, रोग के बुनियादी कारकों को छुए बिना, कुछ अभियान और अनुदान के जरिये खात्मा करने की हसरत, दिवास्वप्न से कम नहीं लगती। विगत सैंतीस वर्षों से मस्तिष्क ज्वर, दिमागी बुखार या इंसेफेलाइटिस से अभिशप्त पूर्वांचल के दुख-दर्द को मीडिया या नियंत्रणकारी संस्थाओं ने महामारी के रूप में नहीं स्वीकारा है । बिहार के तमाम क्षेत्रों में फैले इस रोग को ‘इंसेफेलाइटिस’ कहने से परहेज किया जाता है । गोया नाम न लेने से रोग की भयावहता और सरकार की सदाशयता, दोनों को बचाया जा सकता है । इस बीमारी ने लम्बे सफर में अपने स्वरूप को बदला है । मसलन पहले यह बीमारी केवल 3 से 15 वर्ष के बच्चों में, बरसात के दिनों में दिखाई देती थी । अब हर आयु वर्ग का व्यक्ति, किसी भी माह में इसकी चपेट में आ जाता है। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इस रोग से बचने का प्रतिशत कहीं ज्यादा है।  वहां 1978 से 2013 तक इंसेफेलाइटिस के कुल 33,369 मरीज मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में भर्ती हुए जिनमें से 3 से 10 वर्ष तक के बच्चों की संख्या साठ प्रतिशत के आसपास थी । लचर चिकित्सा सुविधाओं के कारण इनमें से तीस प्रतिशत ने दम तोड़ दिया और लगभग इतने ही स्थाई रूप से विकलांग जीवन जीने को अभिशप्त हुए । वर्ष 2005 में मेडिकल कॉलेज में सर्वाधिक 3532 मामले आये और सर्वाधिक 937 मौतें हुईं।
जे0ई0 और इन्टरो वायरस का फैलाव सुअरों के माध्यम से मच्छरों में और मच्छरों से मनुष्य में होता है । यह वायरस मुख्यतः सुअरों में विकसित होता है, उन्हें बीमार करता है और फिर खतरनाक रूप में इंसान के शरीर में पहंुचता है । मच्छरों से बचने के कारगर तरीके इस वायरस को फैलने से रोक सकते हैं पर खुले में सोने वाले गरीबों की किस्मत में न तो मच्छरदानी है और न मच्छरों से बचाव के दूसरे उपाय । इन्टरो वायरस, दूषित पानी पीने से भी प्रवेश करता है । गंदगी, जल जमाव और बाढ़ से घिरे पूर्वांचल में पेप्सी और कोक की तुलना में शुद्ध पानी का मिलना संभव नहीं। अभी भी बहुसंख्यक आबादी सामान्य नलों का पानी पी रही है । इंडिया मार्का-2 नलों से शुद्ध पेय जल उपलब्ध कराया जा सकता है। देखा जाये तो मच्छरों से बचाव और शुद्ध पानी की उपलब्धता सीधे तौर पर बुनियादी विकास से जुड़ा मामला है । आर्थिक रूप से विपन्न समाज के जेहन में सिर्फ भूख होती है । वह शुद्ध पानी और मच्छरों से बचाव के लिये कुछ करने की स्थिति में नहीं होता । यही कारण है कि इस बीमारी का सीधा रिश्ता, गरीबी से देखा जा सकता है।

इस बीमारी की भयावहता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रति वर्ष जुलाई से लेकर अक्टूबर तक मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एक-एक बिस्तर पर  तीन-तीन बच्चे लिटाये जाते हैं । कुछ मरीजों को जमीन पर भी लिटाना पड़ता है । पूरे क्षेत्र में केवल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज ऐसी जगह है जहां इस बीमारी की समझ और इलाज की प्रक्रियाओं का ज्ञान है । लम्बे समय से अपने द्वारा इजाद किए गए संशाधनों से इस रोग से लड़ने वाले एक मात्र वरिष्ठ डाॅक्टर के.पी. कुशवाहा, जो बालरोग विभागाध्यक्ष और प्राचार्य भी रह चुके  है अब रिटायर हो चुके है  . 
 डाक्टरों , वार्ड, पैरामेडिकल स्टाफ की कमी और जांच की समुचित सुविधाओं का अभाव इलाज के लिये ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। यह हमारे तंत्र की असंवेदनशीलता का ज्वलंत उदाहरण है कि विगत सैंतीस वर्षों में इस बीमारी के विरूद्ध व्यापक अभियान छेड़ना तो दूर, एक मात्र मेडिकल कॉलेज में मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था तक नहीं की जा सकी। हमारे शीर्ष कर्णधार मेडिकल कॉलेज गोरखपुर की आड़ में, कुछ टीकाकरण, कुछ वेन्टीलेटर और कुछ दवाओं की आपूर्ति कर, ठोस कार्यनीति बनाने के बजाय, अपने पापों का प्रायश्चित करते नजर आते हैं।
प्रतिदिन मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस के अब भी 20 से पच्च्ीस मरीज भर्ती होते हैं जिनमें से पांच से छः की प्रतिदिन मृत्यु हो जाती है । हर सुबह कॉलेज का प्रांगण लाश थामें विलाप करते परिजनों के आर्तनाद से थरथराता रहता है । हजारों की संख्या में आने वाले मरीजों को कुछ अंशकालिक कर्मचारियों और बीस-पच्चीस रेजिडेंट डाक्टरों  और एकाध वरिष्ठ डाक्टरों  के सहारे निबटा देने की लापरवाही, तंत्र की जवाबदेही को कटघरे में खड़ी करती है । बीमारी की भयावहता से निपटने के लिये डॅाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की, वर्तमान संख्या से चार गुने की आवश्यकता है, वह भी अनुभवी और पूर्णकालिक डाक्टरों  और पैरामेडिकल स्टाफ की । जबकि यह अमानवीय तंत्र, इस बीमारी को कुछ डाक्टरों  और प्रेस मीडिया की उपज बता कर अपनी नालायकी छुपाने का प्रयास करता है । वह चाहता है कि इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतें और अपंग होते समाज की पीड़ा चर्चा में नहीं आनी चाहिये । दरअसल इंसेफेलाइटिस जैसी मच्छर और अशुद्ध पानी जनित बीमारियां, गरीबों के हिस्से में आती हैं और ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ के दर्शन की वाहक व्यवस्था की मंशा ही होती है कि ज्यादा से ज्यादा गरीब  मरे । अगर ऐसा नहीं होता तो गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस का अलग वार्ड बनाने का काम पूरा कर लिया गया हेाता।
इसे दिखावा या पाखंड कहा जा सकता है कि इस वर्ष पी.एम.एस. सेवा के सेवा निवृत्त डाक्टरों  को मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए उपलब्ध कराया गया है । जाहिर है कि पी.एम.एस. के डाॅक्टर मात्र एम.बी.बी.एस. डिग्री धारक होते हैं और उन्हें ऐसी गम्भीर बीमारी के इलाज का अनुभव नहीं होता ।  अगर ऐसा होता तो गांव-गिरांव के मरीजों का इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर हो जाता, न कि मेडिकल कॉलेज भेजने की जरूरत पड़ती । दूसरे मेडिकल कॉलेजों से 12 रेजिडेंट डॉक्टर उपलब्ध कराये गये हैं जो अनुभवी नहीं हैं। इस कामचलाऊं व्यवस्था के बजाय, स्थाई व्यवस्था, ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है । पी.जी. कोर्स के डॉक्टर, वरिष्ठ डाक्टरों  के निर्देशन में बेहतर काम करते थे लेकिन इस वर्ष से 269 एकड़ में फैले इस मेडिकल कॉलेज से पी.जी. की डिग्री ही समाप्त कर दी गई है । ऐसे में बिना योग्य डाक्टरों  के इन्सेफेलाइटिस का इलाज कैसे हो रहा है, हो रही मौतों से स्वतः समझा जा सकता है । मेडिकल कॉलेज के बाल विभाग में इन्सेफेलाइटिस मरीजों के लिए केवल 33 वेन्टीलेटर उपलब्ध हैं । एम.आई.आर. मशीन की सुविधा नहीं है ।
उत्तर प्रदेश में बात सिर्फ पूर्वांचल की नहीं की जा सकती। इंसेफेलाइटिस का प्रकोप बढ़ते-बढ़ते पूरे तराई क्षेत्र-गोंडा, बहराइच, श्रावस्ती, लखीमपुर, पीलीभीत तक तथा पश्चिम में सहारनपुर और मुजफ्फरनगर तक जा फैला है। प्रदेश की राजधानी में भी इसका प्रकोप दिखाई देने लगा है । इंसेफेलाइटिस जैसी भयावह बीमारी, देश के रहनुमाओं के चिंता का विषय नहीं बन पाई है। जनता को अशिक्षित और अज्ञानी बनाये रखा गया है । उसे सिर्फ वोट देने का पाठ पढ़ाया गया है । तभी तो जनता इन मौतों को आत्मसात करने के बावजूद लफ्फाजियों, नरेगा या मिड-डे-मील जैसे  चोंचलों में उलझ कर, वादों या  घडि़याली आंसुओं से संतृप्त हो जाती है । वह ऐसी त्रासदी को हथियार बना इसको समूल नष्ट करने हेतु संघर्ष नहीं करती । वह इंसेफेलाइटिस को चुनावी मुद्दा भी नहीं बनाती । अपने आकाओं से दम तोड़ते मासूमों का हिसाब नहीं मांगती । वह अनुदानों और खैरातबांटू योजनाओं में फंस कर मौन साधे मरने को अभिशप्त है । ऐसे में भूख, बेरोजगारी का दंश और अपराधियों के गिरफ्त में कराहते पूर्वांचल पर इंसेफेलाइटिस की मार, संताप बन उभरी है।
स्वच्छ पानी, व्यापक स्तर पर टीकाकरण का अभाव, तराई क्षेत्र में मच्छरों का प्रकोप, सुअरों के स्वतंत्र विचरण की छूट और उनके पालने की वैज्ञानिक तकनीकि का अभाव, जुलाई से अक्टूबर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और इससे सटे बिहार के जिलों में इंसेफेलाइटिस का खौफ, मांओं को सहमाये रहता है । वे अपने लाडलों की सलामती की दुआ मांगती हैं । ये चार माह गरीबों के लिये भयावह होते हैं । वैसे तो पूरे वर्ष कुछ न कुछ मरीज अस्पतालों में आते रहते हैं पर महामारी की स्थिति बरसाती मौसम में होती है । पूर्वांचल में भगवान भरोसे सिर्फ इंसेफेलाइटिस के मरीज ही नहीं जीते, स्वास्थ्य सेवायें  भी भगवान भरोसे चलती है।
इस क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस के दो मुख्य कारक हैं। वेक्टर जनित जे0ई0(जापानी इंसेफेलाइटिस) वायरस और जल जनित इन्टरो वायरस  इस क्षेत्र के लिये काल बने हुये हैं । पहले जे0ई0 वायरस ज्यादा खतरनाक समझा जाता था। जे0ई0 वायरस पीडि़त 30 प्रतिशत मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 30 प्रतिशत मरीज शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे। 19 प्रतिशत इन्टरो वायरस पीडि़त मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 15 प्रतिशत मरीज शारिरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे। अब जल जनित इन्टरो वायरस का प्रकोप बढ़ा है और वेक्टर जनित जे0ई0 से कहीं ज्यादा खतरनाक ढ़ंग से यह पूर्वांचल की गरीब जनता को मारने  में लगा है ।  इस बीमारी से बच जाने वाले सामान्य जिंदगी जीने की स्थिति में नहीं होते । वे मानसिक और शारीरिक, दोनों रूप से प्रभावित होते हैं । असम के बाद पूर्वांचल ही ऐसा क्षेत्र है जो इंसेफेलाइटिस से त्रस्त है । इस बीमारी में  मरीजों को सिरदर्द, बुखार, आलसपन, जुकाम, उल्टी या अचेतावस्था जैसे लक्षण दिखाई देते हैं । यह बीमारी शरीर के नाड़ी तंत्र को नुकसान पहुंचाती है और बचे मरीजों को हमेशा के लिये अपंग बना देती है । इंसेफेलाइटिस की चपेट में आ जाने के बाद मरीज के जीवित बचने के बावजूद पूरी तरह सामान्य जिंदगी जीने की संभावना न के बराबर रहती है। ऐसे में यह बीमारी पूर्वांचल के जनमानस को स्थाई तौर पर लकवाग्रस्त कर रही है।
देखा जाये तो पल्स पोलियों की तरह इस बीमारी से जूझने का न तो व्यवस्था के पास माद्दा दिखता है और न प्रचार-प्रसार की कोई योजना । मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के ख्याति प्राप्त अनुभवी डॉक्टर  डॉ0 के0पी0 कुशवाहा के अनुसार यदि सुअरों के स्वतंत्र विचरण के बजाय, उन्हें बाड़े में पालने के प्रयास किए जाये, मच्छरों की रोकथाम और आम आदमी को इंडिया मार्का-2 नलों का पानी पीने की समुचित व्यवस्था कर दी जाये तो बहुत हद तक इस वायरस को फैलने से रोका जा सकता है । उनके अनुसार इंसेफेलाइटिस से जूझने के लिये व्यापक अभियान की जरूरत है।
जिस मेडिकल कॉलेज पर इलाज का सारा दारोमदार है वह अभावों की बलिवेदी पर लेटा, रोगग्रस्त नजर आ रहा है । बिस्तरों की कमी के अलावा, ऐय्याशियों के नाम करोड़ों खर्च करने वाले स्वास्थ्य विभाग के पास गिनती के अंशकालिक कर्मचारियों के वेतन का बजट नहीं है । आलम यह है कि स्टाफ नर्सों की कटौती की जा रही है । संविदा पर तैनात सफाई कर्मियों को साल भर से वेतन न मिलने के कारण, उनकी सेवायें बंद हैं । गंदगी से मेडिकल कॉलेज बजबजाने लगा है । परिसर में जानवरों के विचरण को रोकने के लिए तैनात सुरक्षा गार्डों की सेवायें भी समाप्त कर दी गई हैं । अब हर कहीं गाय-सुअर गंदगी करती दिख जायेंगी । आखिर हम इंसेफेलाइटिस को अब भी महामारी के रूप में स्वीकार करने को तैयार होंगे या नहीं ? क्या ठोस कार्य योजना के अभाव में मर रहे गरीब बच्चों के प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी और मृतप्राय हो चली है कि मात्र कुछ खानापूरी कर दायित्वों से मुक्त हो लेंगे?
मौत को स्वीकार करते, अपाहिज होते पूर्वांचल की यह त्रासदी, तंत्र की संवेदनशीलता और जनप्रतिरोध का मुद्दा कब बनेगी, देखना अभी बाकी है।
पहेली बना वायरस
साल 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ और 2009 में पुणे स्थित नेशनल वायरोलॉजी लैब की एक इकाई गोरखपुर में स्थापित हुई, ताकि रोग की वजहों की सही पहचान की जा सके।
टेस्ट किट उपलब्ध होने के चलते दिमागी बुखार की पहचान अब मुश्किल नहीं रही, लेकिन इन एंटेरो वायरस की प्रकृति और प्रभाव की पहचान करने की टेस्ट किट अभी विकसित नहीं हो सकी है। अमरीका के अटलांटा स्थित नए बैक्टीरिया और वायरस की खोज करने वाले संगठन सीडीसी (सेंट्रल डिजीज कंट्रोल) के वैज्ञानिक भी इन वायरसों का पता लगाने के लिए 2007, 2009 और 2012 में मेडिकल कॉलेज का दौरा कर चुके हैं। पूर्वांचल में इन्सेफेलाइटिस के खिलाफ मुहिम चला रहे वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर आरएन सिंह ने बताया कि सरकार मच्छरजनित जापानी इन्सेफेलाइटिस के खात्मे पर ध्यान दे रही है जबकि 98 प्रतिशत मरीज जलजनित इंटेरो वायरल इन्सेफेलाइटिस से ग्रस्त होते हैं। उसे खत्म करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वहीं मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर केपी कुशवाहा जो दो दशक से ज्यादा समय से बतौर बाल रोग विशेषज्ञ इस महामारी पर नजर रखते रहे हैं। वो इस बात पर संतोष जताते हैं कि बीते दिनों साफ- सफाई, शौचालय और शुद्ध पेयजल को लेकर जागरूकता और सरकारी सक्रियता बढऩे से खतरा कम हुआ है। लेकिन वो कहते हैं कि गांवों में अब भी मरीजों को सही वक्त पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती, जिससे मौतों का आंकड़ा बढ़ जाता है।

पूर्वांचल में तीन दशक से अधिक समय से जापानी इन्सेफेलाइटिस की महामारी फैली हुई है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में मासूम इसकी चपेट में आते है। जो बच्चे बच जाते है उनके हिस्से विकलांगता आ जाती है, जिससे बच्चों के साथ अभिभावकों को भी खासी परेशानी होती है। उन बच्चों को नार्मल होने में बहुत वक्त लग जाता है। 
-डॉ. एके ठक्कर, विभागाध्यक्ष न्यूरो,
लोहिया इंस्टीट्यूट

अब तो लखनऊ में भी इंसेफेलाइटिस के मामले आने लगे है। लखनऊ के मेडिकल कॉलेज और सरकारी अस्पतालों की बात छोड़ दीजिए, प्राइवेट अस्पतालों में भी इन्सेफेलाइटिस के मरीजों की संख्या बढऩे लगी है। पूर्वांचल के ही मामले यहां ज्यादा आते हैं। 
-डॉ. शैलेष अग्रवाल
बाल रोग विशेषज्ञ


पूर्वाचल में लिए नासूर बन चुके इंसेफेलाइटिस (जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) से पीड़ित मासूमों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है। केंद्र से लेकर प्रदेश की सरकार तक इंसेफेलाइटिस के बेहतर से बेहतर इलाज के दावे करती रहती हैं, लेकिन हकीकत में इंसेफेलाइटिस से मौतें साल दर साल बढ़ रही हैं। एक जनवरी से 20 जुलाई 2015 तक पूर्वांचल में इससे 80 मासूमों की मौत हो चुकी है।