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अद्भुत अनुभव शब्द अध्ययन 


मनीषा 
maneeshashukla76@rediffmail.com 

मानव सभ्यता  के लिए भाषा अद्भुत उपलब्धि है। यह भाषा ही मनुष्य को सृष्टि और समाज से जोड़ती है। भाषा का उद्भव भी उतना ही अद्भुत है क्योकि दुनिया भर में अलग अलग मानव समूह अलग अलग भाषाओ का प्रयोग करते हैं। भाषा के उद्भव और इसके विकास को मनुष्य ने भाषा विज्ञान के रूप में पढ़ने की व्यवस्था बनायीं है लेकिन आज तक वह इसका आदि और अंत तलाश नहीं सका है। आज प्रचलन में जितने भी शब्द हैं ,उनका अध्ययन अपने आप में अद्भुत अनुभव है। 


वास्तव में दुनियाभर की भाषाओं में शब्द निर्माण व अर्थस्थापना की प्रक्रिया एक-सी है। विवाहिता स्त्री के जोड़ीदार के लिए अनेक भाषाओं के शब्दों में अधीश, पालक, गृहपति जैसे एक से रूढ़ भाव हैं। हिन्दी में ‘पति’ सर्वाधिक बरता जाने वाला शब्द है। अंग्रेजी में वह हसबैंड है। फ़ारसी में खाविन्द है। संस्कृत में शालीन। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओं में राजा, नरेश, नरश्रेष्ठ, वीर, नायक जैसे शब्दों में “पालक-पोषक” जैसे भावों का भी विस्तार हुआ। यह शब्द पहले आश्रित, विजित या प्रजा के साथ सम्बद्ध हुआ, फिर किसी न किसी तौर पर स्त्री के जीवनसाथी की अभिव्यक्ति इन सभी रूपों में होने लगी।
दम्पति का अर्थ भी गृहपति ही है। यह दिलचस्प है कि पालक, भरतार यानी भरण-पोषण करने वाला जैसी अभिव्यक्ति के अलावा ‘पति’ जैसी व्यवस्था में रहने अथवा निवासी होने का भाव भी आश्चर्यजनक रूप में समान है। अंग्रेजी के हसबैंड शब्द को लीजिए जिसमें शौहर, पति, खाविंद, नाथ या स्वामी का भाव है। पाश्चात्य भाषा विज्ञानियों के मुताबिक पुरानी इंग्लिश में इसका रूप हसबौंडी था। विलियम वाघ स्मिथ इसे बोंडा बताते हैं, जिसका अर्थ है स्वामी, मालिक।
खाविंद अर्थात स्वामी-फ़ारसी में पति को ख़ाविंद कहते हैं जो मूल फ़ारसी खावंद का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है शौहर, पति-परमेश्वर, भरतार, सरताज और गृहपति आदि। घरबारी जिसका घरु-दुआर हो-गृहस्थ के लिए घरबारी शब्द बना है घर और द्वार से। घरद्वार एक सामासिक पद है, जिसमें द्वार भी घर जैसा ही अर्थ दे रहा है। द्वार से ‘द’ का लोप होकर ‘व’ बचता है जो अगली कड़ी में ‘ब’ में तबदील होता है। इस तरह घरद्वार से घरबार प्राप्त होता है, जिससे बनता है घरबारी।
गृहपति भी है दम्पति। दम्पति का एक अन्य अर्थ है गृहपति। पुराणों में अग्नि, इन्द्र और अश्विन को यह उपमा मिली हुई है। दम्पति का एक अन्य अर्थ है जोड़ा, पति-पत्नी, एक मकान के दो स्वामी अर्थात स्त्री और पुरुष। आजकल सिर्फ़ पति-पत्नी के अर्थ में दम्पति शब्द का प्रयोग होने लगा है जबकि इसमें घरबारी युगल का भाव है। दम में है आश्रय। यह जो दम शब्द है, यह भारोपीय मूल का है और इसमें आश्रय का भाव है। दम यानी डोम यानी गुम्बद। गुम्बद के लिए अंग्रेजी का डोम शब्द हिन्दी के लिए जाना-पहचाना है। सभ्यता के विकास क्रम में डोम मूलतः आश्रय था। सर्वप्रथम जो छप्पर मनुष्य ने बनाया वही डोम था। बाद में स्थापत्य कला का विकास होते-होते डोम किसी भी भवन के मुख्य गुम्बद की अर्थवत्ता पा गया मगर इसमें मुख्य कक्ष का आशय जुड़ा है जहां सब एकत्र होते हैं। लैटिन में डोमस का अर्थ घर होता है, जिससे घरेलू के अर्थ वाला डोमेस्टिक जैसा शब्द भी बनता है।

वास्तु 


  • वास्तु एक प्राचीन विज्ञान है, जो हमें बताता है कि घर, ऑफिस, व्यवसाय इत्यादि में कौन सी चीज होनी चाहिए और कौन सी नहीं. साथ हीं हमें यह भी बतलाता है कि किस चीज के लिए कौन सी दिशा सही होगी. यह हमें बताता है कि वास्तु दोषों का निवारण कैसे किया जा सकता है. यह मिथक या अन्धविश्वास पर आधारित बातें नहीं बताता है. कौन-सा कमरा किस दिशा में ज्यादा अच्छा रहेगा, कौन से पौधे आपको घर में लगाने चाहिए और कौन से नहीं इत्यादि. तो आइए जानते हैं कि वास्तुशास्त्र के अनुसार घर के लिए क्या-क्या सही है और क्या-क्या गलत।
 

  • घर के लिए कुछ महत्वपूर्ण वास्तु टिप्स :
  • पूजा घर उत्तर-पूर्व दिशा अर्थात ईशान कोण में बनाना सबसे अच्छा रहता है. अगर इस दिशा में पूजा घर बनाना सम्भव नहीं हो रहा हो, तो उत्तर दिशा में पूजा घर बनाया जा सकता है. लेकिन ध्यान रखें कि ईशान कोण सर्वश्रेष्ठ दिशा है.

  • पूजा घर से सटा हुआ या पूजा घर के ऊपर या नीचे शौचालय नहीं होना चाहिए.
  • पूजा घर में प्रतिमा स्थापित नहीं करनी चाहिए क्योंकि घर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति का ध्यान उस तरह से नहीं रखा जा सकता है जैसा कि रखा जाना चाहिए. अतः छोटी मूर्तियाँ और चित्र हीं पूजा घर में लगाने चाहिए.
  • रसोई के लिए दक्षिण-पूर्व दिशा सबसे अच्छी होती है.सीढ़ी के नीचे पूजा घर नहीं बनाना चाहिए.

  • फटे हुए चित्र, या खंडित मूर्ति पूजा घर में बिल्कुल नहीं होनी चाहिए.

  • पूजा घर और रसोई या बेडरूम एक हीं कमरे में नहीं होना चाहिए.
  • घर के मालिक का कमरा दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना चाहिए. अगर इस दिशा में सम्भव न हो, तो उत्तर-पश्चिम दिशा दूसरा सर्वश्रेष्ठ विकल्प है.
  • गेस्ट रूम उत्तर-पूर्व की ओर होना चाहिए. अगर उत्तर-पूर्व में कमरा बनाना सम्भव न हो, तो उत्तर पश्चिम दिशा दूसरा सर्वश्रेष्ठ विकल्प है.
  • उत्तर-पूर्व में किसी का भी बेडरूम नहीं होना चाहिए.
  • शौचालय और स्नानघर दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना सर्वश्रेष्ठ है.
  • घर की सीढ़ी सामने की ओर से नहीं होनी चाहिए, और सीढ़ी ऐसी जगह पर होनी चाहिए कि घर में घूसने वाले व्यक्ति को यह सामने नजर नहीं आनी चाहिए.
  • सीढ़ी के पायदानों की संख्या विषम 21, 23, 25 इत्यादि होनी चाहिए.
  • सीढ़ी के नीचे शौचालय, रसोई, स्नानघर, पूजा घर इत्यादि नहीं होने चाहिए. सीढ़ी के नीचे कबाड़ भी नहीं रखना चाहिए.
  • सीढ़ी के नीचे कुछ उपयोगी सामान रख सकते हैं और सीढ़ी के नीचे रखे हुए सामान सुसज्जित होने चाहिए.
  • घर का कोई भी रैक खुला नहीं होना चाहिए. उसमें पल्ले जरुर लगाने चाहिए.
  • घर में कबाड़ नहीं रखना चाहिए.
  • कमरे की लाइट्स पूर्व या उत्तर दिशा में लगी होनी चाहिए.
  • घर के ज्यादातर कमरों की खिड़कियाँ और दरवाजे उत्तर या पूर्व दिशा में खुलने चाहिए.
  • सीढ़ी पश्चिम दिशा में होनी चाहिए.
  • घर का मुख्य दरवाजा दक्षिणमुखी नहीं होना चाहिए. अगर मजबूरी में दक्षिणमुखी दरवाजा बनाना पड़ गया हो, तो दरवाजे के सामने एक बड़ा सा आईना लगा दें.
  • घर के प्रवेश द्वार में ऊं या स्वस्तिक बनाएँ या उसकी थोड़ी बड़ी आकृति लगाएँ.
  • पूजा घर या उत्तर-पूर्व दिशा में जल से भरकर कलश रखें.
  • शयनकक्ष में भगवान की या धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी तस्वीर नहीं लगानी चाहिए.
  • ताजमहल एक मकबरा है, इसलिए न तो इसकी तस्वीर घर में लगानी चाहिए. और न हीं इसका कोई शो पीस घर में रखना चाहिए.
  • जंगली जानवरों के फोटो घर में नहीं रखने चाहिए.
  • पानी के फुहारे को घर में नहीं लगाना चाहिए. क्योंकि इससे धन नहीं ठहरता है.
  • नटराज की तस्वीर या मूर्ति घर में नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इसमें शिवजी ने विकराल रूप लिया हुआ है.

बच्चो को अवश्य पढाये श्रीमद्भगवद्गीता 


श्रीमद्भगवद्गीता एक विशुध्द वैज्ञानिक ग्रन्थ है जो मानव विज्ञान और मनोविज्ञान की सलीके से व्याख्या करता है। इस ग्रन्थ को केवल आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सामाजिक ज्ञान के लिए सभी को अवश्य पढना चाहिए। बच्चो और युवाओ के लिए तो यह एक औषधि एवं मार्गदर्शक जैसी है। कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ। स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है। गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--


अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं 
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं 
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।
इन मंत्रो के जप के साथ ही गीताध्ययन आरम्भ किया जाना चाहिए। इससे अतिशय एकाग्रता आती है और मस्तिष्क व्याख्या के अनुकूल कतियाशील होता है। 

भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति


संजय तिवारी 

सहिष्णुता हमारी संस्कृति की विशेषता है। कह सकते हैं कि सहिष्णुता ही भारतीय संस्कृति की मूल प्रकृति है। भारतीय तत्व कभी असहिष्णु हो ही नहीं सकता। यही सहिष्णुता इसे विश्व बन्धुत्व से व्यापकता देती है और भारत को जगद्गुरु की संज्ञा से विश्व परिभाषित करता है। यह सहिष्णु तत्व जगत के कई मज़हबों में शून्य है। इसी शून्यता के कारण मजहबी विवाद पैदा होते हैं।  
भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि हजारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपलजैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी- देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। 



वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।



भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय हिन्दू किसी देवी- देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और मुगलों के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। 
यद्यपि ये संस्कृतियां अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांश मुसलमान और ईसाई मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।

नोटबंदी :


दिक्कते तात्कालिक 


 जनसामान्य के लिए अच्छे दिन शुरू 





नोट बंदी को लेकर देश में कई तरह की बाते की जा रही है। सरकार इसे ऐतिहासिक कदम बता रही है तो विपक्ष के लोग कई तरह के आरोप लगा रहे है। पुराने नोट बंद होने के बाद से ही नए नोट मिलने शुरू हो चुके हैं लेकिन लोगों को कुछ परेशानियां भी हो रही हैं। वहीं, लोगों के मन में अब ये सवाल उठ रहे हैं कि इस फैसले से आखिर देश, इकोनॉमी, सरकार और आम आदमी को क्या हासिल होने वाला है?  बड़े नोट बंद होने से इकोनॉमी में कोई गिरावट नहीं आएगी। एक क्वार्टर में कुछ सुस्ती देखने को मिल सकती है। महंगाई थोड़ी कम हो सकती है। लेकिन इस कवायद का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि सरकार की आर्थिक हालत मजबूत होती दिख रही है। वास्तव में नोट बंदी के बाद देश किस दिशा में जाने वाला है , इसी विषय से जुड़े सवालो के जवाब दे रहे है अर्थ विस्तार संस्थान, नयी दिल्ली के  वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक डॉ रवि पांडेय -

Q: सरकार के बड़े फैसले से देश को क्या मिला?
 ब्लैकमनी का सफाया:लोगों के पास पहले से जमा ब्लैकमनी बेकार हो गई। इससे बेईमानी से कमाई या छुपाई गई रकम की काफी हद तक सफाई हो गई। सरकार मजबूत हुई। यूटिलिटी बिल्स के पेमेंट के लिए 72 घंटे की और छूट दी गई थी जिसे बाद में २४ तक कर दिया गया । इस अफरातफरी में कई लोग कैश खपाने के लिए बकाया सरकारी बिल जमा कर रहे हैं। सरकार के ऐसे कई डिपार्टमेंट्स को रेवेन्यू मिल रहा है जाे पहले घाटे में चल रहे थे। कई विभाग घाटे से बाहर आएंगे। कुल मिलाकर, सरकार के पास पैसा आ रहा है। इस प्रक्रिया से  करप्शन पर लगाम लगी। पिछले गुरुवार को ही महाराष्ट्र का एक अफसर इसलिए अरेस्ट हो गया, क्योंकि उसने रिश्वत में 100 रुपए के नोट लेने की डिमांड कर दी। भ्रष्ट अफसर और कर्मचारी अब रिश्वत में कैश लेने से डर रहे हैं। 

Q: देश की अर्थव्यवस्था को इससे क्या हासिल हो रहा है ? 
 बहुत फ़ायदा हुआ है। देश कैशलेस इकोनॉमी की ओर आगे बढ़ गया। अगले कुछ महीने नए नोट सर्कुलेशन में आने तक लोग कैशलेस ट्रांजैक्शन करेंगे। छह महीने में नए नोट सर्कुलेशन में आने और करंसी फ्लो आने तक खरीद-फरोख्त में थोड़ी कमी आएगी। इससे एक क्वार्टर में इकोनॉमी में मंदी नजर आ सकती है। डिमांड घटने से महंगाई थोड़ी कम हो सकती है। लेकिन इकोनॉमी में कोई गिरावट नहीं आएगी। अभी तक जगह जगह रोक कर रखे गए 500-1000 के नोट बैंक के पास जा रहे हैं, यानी बैंकों की लिक्विडिटी बढ़ रही है। बैंकों का ये पैसा सीधे बॉन्ड मार्केट में जाएगा। इससे म्यूचुअल फंड में अच्छा रिटर्न मिल सकता है।
Q:इससे सिस्टम में क्या बदलाव आएगा?
A: सबसे बड़ा बदलाव कैश ट्रांजैक्शन में होगा। बड़ी खरीददारी (मकान, महंगा फर्नीचर) में कई बार लोग ब्लैकमनी खपाने की सोचते हैं। इसकी एक वजह यह होती है कि कैश में खरीदने पर कई बार प्राइस कम हो जाती है। पुराने नोट बंद होने से कुछ दिन तक कैश डीलिंग खत्म हो जाएगी। ना तो लोग कैश देंगे और ना ही बिजनेसमैन लेंगे। ब्लैकमनी पर पूरी तरह लगाम लगा दी गई है।

Q: आम आदमी पर किस तरह का असर पड़ेगा?
A: आम आदमी के लिए बहुत तकलीफ वाली स्थिति नहीं है। सरकार के फैसले से जो परेशानियां सामने आ रही हैं, वे कुछ वक्त के बाद स्टेबलाइज हो जाएंगी। मार्केट में ब्लैकमनी कम, व्हाइट ज्यादा हो जाएगी। इकोनॉमी सुधरेगी तो आम आदमी पर इसका असर बेहतर ही होगा।

Q: सरकार से फैसले से क्या फेक करंसी कम होगी? ये हमेशा के लिए खत्म हो गई या दोबारा से आ सकती है?
A: अभी तो फेक करंसी खत्म हो चुकी है। सरकार का कहना है कि 500-2000 के नए नोट को फेक करना मुश्किल होगा। अगर ऐसा है तो वाकई अच्छी बात है। जो भी है वो भविष्य में सामने आएगा।

Q: खबर है कि आरबीआई 50 और 100 रुपए के नए नोट लाने जा रही है। इसे भी 500 और 1000 रुपए के नोट की तरह मार्केट से हटाया जाएगा या धीरे-धीरे सिस्टम से निकाला जाएगा?
A: कोई भी सरकार 50 और 100 के नए नोट को बदलने का अचानक कदम नहीं उठा सकती। अगर ऐसा होता है तो इकोनॉमी ठप हो जाएगी।
Q: जिसका  बड़ा बिजनेस है, 5-10 लाख रुपए का कैश बैलेंस रोज मेंटेन करता पड़ता है , बड़े नोट बदलवाने जाएगा तो तो फंस तो नहीं जाएगा ?
A: कतई नहीं। जब आप रोज इतना कैश मेंटेन करते हैं तो आप रेग्युलर बिजनेस ट्रांजैक्शन दिखा सकते हैं। आप इसे रूटीन बिजनेस दिखा सकते हैं। अगर बैंक या इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आपसे सवाल करता भी है, तब भी आप बैंक स्टेटमेंट और अपने बिजनेस से जुड़े अकाउंट्स की डिटेल्स दिखा सकते हैं। ईमानदारी से कारोबार करने वालों को डरने की जरूरत नहीं है।

Q: 200% पेनल्टी की बात से कितना डरना चाहिए?
 बैंक में पुराने नोटों के साथ 10 लाख जमा कराने पर 3.75 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए की इनकम पर 84.75 लाख रुपए टैक्स पेनल्टी तभी लगेगी, जब आपके पास कालाधन है।
अगर आपने अपनी इनकम कम बताई है या गलत जानकारी दी है, तो इनकम टैक्स एक्ट 1961 की धारा 270ए के तहत आप पर बेहिसाब आमदनी पर टैक्स के बाद भी जुर्माना लगेगा।
 इस धारा के तहत आपको टैक्स के बाद 30% सरचार्ज तक देना पड़ सकता है।
 इनकम टैक्स रिटर्न के दौरान आपने जिस आमदनी का खुलासा किया है और असेसिंग ऑफिसर ने आपकी जो इनकम असेस की है, उसके डिफरेंस अमाउंट पर आपको पेनल्टी देनी होगी।
Q: अगर कोई  ढाई लाख की लिमिट से ज्यादा पैसा जमा करता है और फिर 200% पेनल्टी भी देता है , तब भी  कोई कानूनी कार्रवाई होगी?
A: तत्काल कोई कार्रवाई नहीं होगी। बैंक किसी से भी डायरेक्ट पेनल्टी वसूल नहीं करेगा। आप कितना भी कैश बैंक में अपने खाते में जमा कर सकते हैं। बैंक बाद में आपकी डिपॉजिट कैश के बारे में आईटी डिपार्टमेंट को जानकारी देगा। आईटी डिपार्टमेंट आपकी इनकम और जमा किए गए कैश को लेकर जरूरत पड़ने पर पूछताछ कर सकता है। अघोषित आय पर आपसे 200% पेनल्टी ली जा सकती है। आईटी डिपार्टमेंट ने एक बार पेनल्टी ले ली, तो आगे आपके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी।

Q: जिसके पास बड़ा अमाउंट है। उसे लेकर बैंक जाना पड़े तो क्या एहतियात रखें?
A: बिजनेसमैन हैं तो बुक्स ऑफ अकाउंट्स मेंटेन रखें। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की आगे होने वाली किसी भी इन्क्वायरी में वह आपके काम आएगी। सैलरीड प्रोफेशनल हैं तो आपके पास मौजूद कैश के सोर्स की सारी रसीदें रखें।

Q: किसी व्यक्ति के यदि कई  बैंक खाते हैं और उनमें से हर एक में कुछ पैसा जमा है, जिसे बार-बार निकालना होता है। क्या वह भी निशाने पर होगा ?
A: नहीं। अगर आपके ये सेविंग्स अकाउंट्स हैं, तो कोई दिक्कत नहीं होगी। हां, अघोषित आय पर आपसे आईटी डिपार्टमेंट सवाल-जवाब कर सकता है।

Q : यदि किसी ने कुछ दोस्तों को करीब 10 लाख रुपर उधार दे रखे हैं। अब वह  उनसे पैसा कैसे वापस ले ?
A : दिक्कत हो सकती है, क्योंकि यह पैसा कैश में लिया नहीं जा सकता।  दोस्त को आईटी रूल्स के मुताबिक, लोन की 20,000 हजार की लिमिट के बाद टैक्स देना होगा।

Q: कोई जानना चाहता है कि  उधार लिए हों तो क्या करे ? घर में शादी है? 10 लाख रुपए रिश्तेदारों, दोस्तों और अपनी सेविंग्स के थे। अब 2.50 लाख के ऊपर क्या बैंक को दे दे ?
A: अच्छा होगा कि वह रिश्तेदारों और दोस्तों को पैसा वापस दे दें, ताकि वह पैसे अपने-अपने बैंक अकाउंट में जमा कर सकें। आप अपने कैश के साथ भी ऐसा ही कर सकते हैं।

Q: लोगों को पता है कि 30 दिसंबर तक पुराने नोट को जमा कर सकते हैं। इसके बाद आरबीआई में जमा करने की कैपिसिटी और प्रॉसेस क्या होगी?
A: ऐसा लोगों की फैसिलिटीज के लिए किया गया है। आप जायज वजह बताकर आरबीआई में पुराने नोटों को जमा कर सकते हैं। पुराने नोट जमा करने में कोई दिक्कत नहीं आने वाली। 

Q: 500 और 1000 के पुराने नोट 11 नवंबर के बाद कोई लेता है तो क्या होगा? क्या अब इन नोटों से कोई लेन-देन नहीं कर सकते हैं?
A: यह लेने वाले शख्स पर निर्भर करेगा। कोई भी इन 500 और 1000 के नोट को फिलहाल 31 मार्च, 2017 तक बदल सकता है।

Q : अगर कोई शख्स 5 लाख, 10 लाख, 20 लाख, 30 लाख, 40 लाख या फिर 1 करोड़ जमा करता है तो कितनी पेनल्टी देनी होगी?
A : देखिये अघोषित आय पर ही सब कुछ निर्भर है। इस अघोषित आय पर 45% टैक्स देना होगा। पेनल्टी का स्लैब तय नहीं है। ये इनकम टैक्स डिपार्टमेंट तय करेगा। अगर इसमें जेल जाने का कोई प्रावधान है तो इसे बाद में देखा जाएगा।

Q: अगर कोई शख्स पैसे जमा कर रहा है तो उसे क्या सावधानियां रखनी होंगी?
A: इसमें अलग-अलग बातें हैं। ब्लैकमनी वाले सोच रहे हैं कि अलग-अलग हिस्सों में या फिर दूसरे शख्स के नाम से जमा करूंगा तो ठीक रहेगा। लेकिन किस शख्स ने कितना जमा किया, पैन कार्ड से पता चल जाएगा। वहीं, जो लोग व्हाइट मनी जमा कर रहे हैं, उनके लिए घबराने वाली बात नहीं है। बस उनका अमाउंट टैक्स से मिसमैच नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो उनसे जवाब-तलब हो सकता है।

Q: बैंक काउंटर से सीधे कितने पैसे निकाले जा सकते हैं?
A: बैंक काउंटर से (चेक या विड्रॉवल से) एक दिन में 10 हजार और हफ्ते में 20 हजार रुपए निकाल सकते हैं।

Q : किसी ने यदि मकान लेने के लिए बिल्डर को ब्लैक में काफी पैसा दिया । बाद में मकान बेचना चाहें तो क्या होगा?
A : सबसे ज्यादा असर रियल एस्टेट पर पड़ा है, क्योंकि वहां कैश एक तरह से बंद ही हो गया था। अब आप जो भी बिल्डर को दे रहे हैं, वो व्हाइट में ही देना होगा। जिन्होंने ब्लैक में ज्यादा कैश देकर कम पैसे की रजिस्ट्री कराई थी और ये सोचा था कि बेचकर कमा लेंगे, ऐसा करने वालों को घाटा होगा। वो सारा कैपिटल गेन में आ जाएगा। ब्लैक में दिए गए पैसे नहीं मिलेंगे।

Q : अगर 10 लाख जमा किया जाता है तो क्या टैक्स और पेनल्टी मिलाकर 3.75 लाख रुपए काट लिए जाएंगे?
A : जरूरी नहीं है। हो सकता है कि आपकी सालाना इनकम 15 लाख रुपए हो। इसमें से अगर आपके पास कहीं की बचत के 6 लाख रुपए हैं और बाकी 4 लाख रुपए आपको किसी से बकाए या इनकम के तौर पर मिले हैं तो आप वैलिड डॉक्युमेंट्स अपने पास रखें। सोर्स के हिसाब से टैक्स लगेगा। लेकिन ये जरूरी नहीं है कि पूरे 10 लाख रुपए पर टैक्स और पेनल्टी मिलाकर आपसे 3.75 लाख रुपए वसूल लिए जाएं।

Q : आप सामान्य तौर पर लोगो को क्या सलाह देना चाहेंगे ?
A : देखिये , इस पूरी प्रक्रिया में जनसामान्य को घबराने की कोई जरुरत नहीं है। आम आदमी को इसमें कोई दिक्कत अब नहीं आने वाली। दिक्कत उन्हें जरूर आएगी जिन्होंने इतने के बाद भी बड़ी संख्या में नोट दबा कर रखा है। जनसामान्य तो रोज कमाता है और खर्च करता है।  नौकरीपेशा वाला हर काम सैलरी से ही करता है। किसान के पास कॅश होता ही नहीं। उसे हर सेशन में उधार लेना पड़ता है।  अभी जो दिक्कत दिख रही है वह तात्कालिक है। सामान्य व्यक्ति के लिए रास्ते और भी सुगम होंगे। दिक्कत नॉट दबाने वालो को अवश्य झेलनी पड़ेगी। अभी जो यह सोच कर बैठे है की कोई रास्ता निकाल सकेंगे , वे भ्रम में है , उन्हें भी चाहिए की बैंक में पैसे जमा कर के उचित कर दाखिल कर दे।  बाद में उनके पास पश्चाताप के कुछ हाथ नहीं आने वाला। 

अब तो आंदोलन बन चुके है मोदी 



संजय तिवारी 

सड़क से संसद तक ये कौन लोग है जो नोटबंदी के विरोध में लामबंद हो रहे है ? ये कौन लोग है जिनको काले धन की जमाखोरी बहुत पसंद है ? ये कौन लोग है जिनको देश की सफाई ठीक नहीं लग रही ? ये कौन लोग है जो कोयला घोटाले से लेकर टू जी  तक की करोडो की लूट के आरोप के चलते सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के साथ खड़े हो गए है ? ये कौन है जिन्हें लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में टिकट की नीलामी नज़र नहीं आती ? ये किसका विरोध कर रहे है उर क्यों कर रहे है ? केवल कानाफूसी में करोडो करोड़ो की दलाली और जमाखोरी की चुगली करने वाले ये सभी लोग किसके खिलाफ लामबंद हुए है? ममता बनर्जी तो गरीबो की मसीह कही जाती रही है।  वह सबसे पहले आवाज़ मुखर कराती है तो ताजुब भी होता है और गुनाह भी , की किस तरह वेश बना कर ये लोग सत्ता शीर्ष तक पहुचते है।  मायावती जी के बारे में लिखना जरूरी नहीं लगता क्योकि उत्तर प्रदेश के हर आदमी की जबान पर इनके धन की चर्चा सामान्य तौर पर होती रहती है। इनके दल के टिकेट कैसे मिलते है और कितने में मिलते है इस बारे में इन्ही के लोग सब कुछ मीडिया के सामने कई बार कह चुके है।  मुलायम सिंह जी की पार्टी के बारे में भी कुछ छिपा नहीं है। कांग्रेस का तो बंटाधार ही भ्रष्टाचार के कारण हुआ है। जाहिर है इनकी इस बार की यह एकता बहुत कुछ उगल  देगी , इसको ये अभी समझ नहीं रहे है। 


दर असल इन्हें अभी भी आभास नहीं है कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी केवल भारत के प्रधानमन्त्री ही नहीं है बल्कि वह अब सचमुच एक आंदोलन बन चुके है।  इस आंदोलन में देश उनके साथ है।  नौजवान उनके साथ है।  व्यवसायी उनके साथ है।  गरीब उनके साथ है। जो लोग संसद से अब सड़क पर आकर नोटबंदी के विरोध की जुगत में लगे है वे वास्तव में क्या करना चाह रहे है , यह बात देश भली प्रकार से समझ रहा है। देश को मालूम हो चूका है की प्रधानमन्त्री के इस फैसले ने उन लोगो की कमर तोड़ दी है जो रातोरात करोड़पति बन जाते थे।  देश को मालूम है की इस कदम ने आतंकवाद और अलगाव वाद की सियासत करने वालो के सारे रास्ते बंद कर दिए है।  ये वही लोग है जो इस मुद्दे पर जनता को बरगला कर , उकसा कर देश का माहौल अस्थिर करना चाहते है।  इनमे कई ऐसी शक्तियां है जो इनको मोती फंडिंग करने को तैयार है ताकि उनकी लूट खसोट और आपराधिक गतिनविधियो को रोक न लगाने पाए। 



सच तो यह है की यह पूरी सियासत एक ख़ास किस्म के तुष्टिकरण के लिए रची जा रही साज़िश है जो देश को झुलसा कर छोड़ेगी। अभी तक भ्रष्टाचार और काले धन पर सरकार को बार बार घेरने और विफल रहने की दलीले देकर विरोध करने वाले सभी आज यदि एक साथ खड़े होकर काले धन पर रोक का विरोध कर रहे है तो जाहिर है इसके पीछे भी बड़ी शक्तियां काम कर रही होंगी। 
मायावती, ममता बनर्जी , मुलायम सिंह , राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल सरीखे लोगो को जनता ठीक से समझती है। पश्चिम बंगाल का शारदा घोटाला अभी भी सभी को याद है। उत्तर प्रदेश में मायावती जी और मुलायम सिंह जी के बारे में भी जनता कुछ भूल नहीं पायी है। इस समय भी उत्तर प्रदेश में जो हालात है वह सभी के सामने है। नियुक्तियो से लेकर निर्माण कार्यो तक में रिश्वतखोरी और गड़बड़ियों की बरमार है। उत्तर प्रदेश की हालात इन लोगो के कारण हो बदतर हो चुकी है। आर्थिक कदाचार और जातिवाद से इतने बड़े प्रदेश को इन दोनों पार्टियों ने बर्बाद कर रखा है। यहाँ एक बड़ी मज़ेदार बात देखने को मिल रही है कि जिस जनता दल यू के नेता नितीश कुमार ने मोदी के इस कदम का समर्थन किया है उसी के बाकी लोग भी इन तेरह पार्टियों में शामिल है जो नोटबंदी का विरोध कर रही है। इन लोगो को अभी भी समझ में यह बात क्यों नहीं आ रही कि इस नोटबंदी के बाद हुए उपचुनाव में जनता ने बीजेपी को ही बहुमत दिया है।  फिर भी ममता बनर्जी का यह कहना कि  देखे मोदी को कौन वोट देता है , समझ से पर है। इस पूरे विरोध के पीछे कोई न कोई ताकत तो जरूर है। 

लेखक भारत संस्कृति न्यास नयी दिल्ली के अध्यक्ष है। 


भारतीय संस्कृति की विशेषता 


भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपलजैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी - देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।




सहिष्णु प्रकृति 

भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय हिन्दू किसी देवी - देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। 


भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। 

भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और मुग़लों के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। यद्यपि ये संस्कृतियाँ अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांश मुसलमान और ईसाई मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।

आश्रम व्यवस्था 

भारतीय संस्कृति में आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी चिन्ता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करतीं। साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।

बदलेगा पैसा रखने-खर्च करने का नजरिया

वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि नोट बंदी देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चलाने वालों पर जबर्दस्त चोट है। अब देश में चलने वाले नोट को बैंकिंग प्रणाली में लाना होगा। इस एक कदम से लोगों का पैसा खर्च करने व उसे रखने का तरीका बदल जाएगा। जेटली की इस बात से सरकार की सोच का बड़ा मकसद समझा जा सकता है। सरकार देश में दौड़ रही पूंजी को बैंकिंग छतरी के नीचे लाना चाहती है और इससे उन लोगों की मुसीबत जरूर बढऩे वाली है जिन्होंने भारी मात्रा में नकदी दबा कर रखी है। इससे देश कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ेगा और लोग घरों व अन्य जगहों पर कैश छिपा कर रखने से परहेज करेंगे। कैशलेस सिस्टम पूरी तरह लागू करने से पहले अभी लंबी कवायद करनी बाकी है। वैसे बैंकों में खाते की समस्या का समाधान काफी हद तक किया जा चुका है। प्रधानमंत्री की जन-धन योजना के तहत पूरे देश में करीब 24.45 करोड़ खाते खोले जा चुके है। बीस करोड़ से अधिक रूपे कार्ड बांटे जा चुके हैं। मात्र १८ फीसदी तक कैश लेस भुगतान :भारत में कैशलेस भुगतान ग्राहकों के कुल खर्च का 14 से 18 फीसदी ही है। ऑनलाइन शापिंग बढऩे के बावजूद लोग कैश आन डिलीवरी को ज्यादा आसान मानते हैं और इसे पसंद करते हैं। बीते वर्ष देश में कुल ऑन लाइन खरीदारी का 78 फीसदी भुगतान नकद में किया गया। 
बढ़ चले कैशलेस की ओर कदम:भारत ने अब जाकर कैशलेस प्रणाली की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाना शुरू किया है मगर दुनिया के कई देश बहुत आगे बढ़ चुके हैं। स्वीडन में तो सिर्फ दो फीसदी लोग ही नोटों का इस्तेमाल कर रहे हैं। वहां की बसों, ट्रेनों, मेट्रो सहित किसी अन्य सार्वजनिक परिवहन में सफर के दौरान लोगों को कैश रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मॉल या शापिंग सेंटर की बात तो दूर सडक़ किनारे दुकान लगाने वाले भी कार्ड से ही पेमेंट लेते हैं। वहां ज्यादातर इलाकों से एटीएम मशनें तक हटा ली गयी हैं और कई बैंकों ने चेकों के बदले नकद देना तक बंद कर दिया है। खुदरा व्यापारियों को नकद भुगतान ठुकराने की कानूनी छूट दी गयी है। स्वीडन के अगले पांच साल के दौरान पूरी तरह कैशलेस सोसायटी में तब्दील होने की संभावना है। वहां दुकानों से 20 फीसदी से कम खरीदारी में नकद का इस्तेमाल किया जा रहा है। सिंगापुर में तो चेक भुनाने और एटीएम से पैसे निकालने पर ग्राहकों से पैसा वसूलने तक पर विचार किया जा रहा है। बेल्जियम, फ्रांस और स्पेन जैसे देशों ने नकद खर्च की सीमा तय कर रखी है। फ्रांस व स्पेन में तय सीमा से अधिक भुगतान करने पर अपना बैंकिंग ब्योरा व आय का स्रोत बताना पड़ता है। इन जानकारियों में कोई भी गड़बड़ी पाए जाने पर संबंधित व्यक्ति पर भारी जुर्माना लगाने का प्राविधान भी किया गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बेल्जियम में 93,फ्रांस में 92, कनाडा में 90, ब्रिटेन में 89, आस्ट्रेलिया में 86 व नीदरलैंड में 85 फीसदी भुगतान कैशलेस है। इसका मतलब साफ है कि दुनिया कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से कदम बढ़ा रही है।


अब इन पर होगी नजर
जन धन खाते : देश में करीब बीस करोड़ जन धन खाते खुले हैं। जीरो बैलेंस वाले इन खातों में पचास हजार रुपए तक जमा किए जा सकते हैं। इन खातों में आठ नवंबर के बाद अचानक पैसा जमा होने की खबरों पर वित्त मंत्रालय और आरबीआई सतर्क हप गया है और ऐसे खातों की बाद में जांच की जाएगी। 
दिहाड़ी पर एक्सचेंज: इस खेल को रोकने के लिए अब बैंक काउंटर पर ही ग्राहक की उंगली पर मतदान जैसी काली स्याही लगा दी जाएगी। इससे एक व्यक्ति बार बार नोट नहीं बदलवा पाएगा। 
बैक डेट में खरीदारी: आयकर विभाग शोरूम, आदि में बिक्री और स्टॉक की जांच कर रही है जिससे बैक डेट का लेन देन पकड़ में आ जाएगा। इसी डर से सराफा दुकानें बंद चल रही हैं। 
बड़े नोट की कीमत १४ लाख करोड़ रुपए
३१ मार्च 2016 के आंकड़ों के मुताबिक बाजार में जितने नोट चलन में हैं उनका 86.4 फीसदी हिस्सा पांच सौ व एक हजार के नोट के रूप में है। यानी यह करीब 14 लाख करोड़ रुपए के बराबर है। पिछले पांच साल के दौरान इन नोटों के बढऩे की दर क्रमश: 76 व 109 फीसदी रही है। 

काली कमाई के दो रंग
काली कमाई वाले बेईमानों में भी दो वर्ग हैं। इनकी काली कमाई भी दो तरह की है। एक बेईमान वह हैं जो सरकार को टैक्स नहीं देते, टैक्स की चोरी करते हैं। मसलन कोई चाट का ठेलेवाला साल में दस लाख की कमाई कर लेता है। यह कोई डॉक्टर दिन में सौ मरीज से फीस लेता है और आयकर देते वक्त अपनी कमाई बहुत घटा कर दिखाता है तो वह टैक्स चोरी वाला बेईमान है और इसने जिस रकम को छिपा कर रखा है और टैक्स नहीं दिया है वह काली कमाई है। दूसरे बेईमान वह तत्व हैं जो घूस लेते हैं या अवैध काम करते हैं। इनमें घूस और कमीशन खोर नेता, सरकारी अफसर-कर्मचारी, वसूली करने वाली पुलिस, गुंडे, माफिया, अवैध खनन वाले वगैरह हैं जिनकी सूची काफी लंबी है। ऐसे तत्व महज टैक्स चोर से कहीं ज्यादा बड़े बेईमान और गुनहगार हैं क्योंकि इनकी कमाई सीधे-सीधे जनता की जेब से चुराई गई रकम से है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यही दोनों वर्ग परेशान हैं और गरीबों के, जनधन वाले खातों में पैसा जमा करवा कर, दिहाड़ी मजदूरों से लाइन लगवा कर पैसा बदलवाने, सोना-डॉलर खरीद कर इस चोरी के पैसे को बचाने के जुगाड़ में लगा है। 
जगह जगह से खबरें हैं कि मॉल में सन्नाटा है, ज्वेलर्स खाली बैठे हैं, महंगी गाडिय़ों के शोरूम में खरीदार नदारद हैं, महंगे टिकट वाले मॉल सिनेमाघर में दर्शक नहीं हैं। क्या इन जगहों पर सिर्फ वह लोग जाते थे जो आज बैंक के बाहर लाइन लगाए खड़े हैं? मॉल, ज्वेलर्स, ऑटो डीलर्स के यहां जाने वाले खरीदार अमूमन सभी ऐसे होते हैं जिनका कम से कम एक बैंक खाता तो जरूर होता है और सबके पास डेबिट-क्रेडिट कार्ड भी जरूर होता है। तो फिर शोरूम में सन्नाटा क्यों है? असली खरीदार तो कार्ड से भी मॉल में खरीदारी करेगा। ज्वेलरी खरीदेगा और कारें खरीदेगा। अब वह खरीदार कहां गया? इसका मतलब यह हुआ कि ज्यादातर लेन-देन कैश में होता आया है। बैंक की चेकबुक और कार्ड होने के बावजृद कैश में ही लाखों का माल खरीदने के पीछे कोई तर्क तो होगा ही। विश्लेषकों के अनुसार बाजार की वर्तमान स्थिति ही असली आर्थिक स्थिति है। 

काला धन बचाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे 
 काला धन बचाने के लिए लोग तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। काली कमाई वालों ने अपनी महरी, चपरासी, ड्राइवर, दूधिए और पेपर देने वाले तक के खाते में ढाई लाख रुपए तक जमा कराना शुरू कर दिया है। यह काम परिचितों और रिश्तेदारों के खातों में किया जा रहा है। लोगों को कुछ कमीशन देने का भी लालच दिया जा रहा है। आजमगढ़ जिले में ऐसे लोगों की लम्बी फेहरिस्त है जो तीस से चालीस फीसदी कमीशन लेकर कालेधन को सफेद बनाने के खेल में जुटे हुए हैं। किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से भी अच्छा खासा कमीशन लेकर यह खेल चल रहा है। रसूखदार लोग तमाम लोगों के आईडी की फोटो कापी के साथ प्रति आईडी चार हजार की दर से बैंक के बैकडोर से पुराने नोट बदल रहे हैं। जिन खातों में हजार-पांच सौ रुपए आज तक नहीं डाले गए थे उनमें अचानक लाख, दो लाख रुपए जमा किए गए हैं। कानपुर और नोएडा में बड़े बिजनेसमैन अपना माल ठिकाने लगाने के लिए फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के खाते में रुपए जमा करा रहे हैं। इसके अलावा दिहाड़ी पर आदमी लगा कर नोट बदलवाए जा रहे हैं। गोंडा, बलरामपुर, लखनऊ वगैरह तमाम इलाकों में लाइन में लगकर नोट बदलने के लिए चार सौ रुपए तक दिए जा रहे हैं। फतेहपुर जिले के बैंकों में अप्रत्याशित ढंग से कैश जमा हो रहा है। केवल फतेहपुर जिला सहकारी बैंक में चार दिन के अंदर 27 करोड़ रुपए जमा हुए हैं। जिन खातों में बीस हजार से अधिक का लेन-देन नहीं होता था उनमें अचानक लाखों की रकम जमा हो रही है। लोन चुकाने में भी पुराने नोटों का इस्तेमाल किया जा रहा है। एआरटीओ, रजिस्ट्री व आबकारी जैसे विभागों में कमीशन लेकर नोट बदलने का खेल चल रहा है। इलाहाबाद और फिरोजाबाद जिले में कुछ लोग कमीशन लेकर कालेधन वालों का ढाई लाख रुपए तक अपने खातों में जमा कर रहे हैं। आगरा में चार दिनों में 170 करोड़ और कानपुर में 70 करोड़ की रकम जनधन खातों में जमा की गयी। 

सोशल मीडिया पर सिर्फ ‘नोट’
- देख लो सभी प्रमुख पंचांगों में लिखा हुआ है : ‘‘काॢतक कृष्ण पक्ष को रविवार होने से सन्ताप, अर्थनाश,क्लेश होगा।’’काॢतक शुक्ल पक्ष में पूॢणमा के दिन तीन पहर तक भरणी नक्षत्र होने से तीन महीने तक धन का अभाव रहेगा। बैंकों की वर्तमान स्थिति में गड़बड़ी होगी और भारत की आंतरिक आॢथक स्थिति मजबूत होगी, किसी बड़े नेता पर प्राणघातक हमला हो सकता है या आक्षेप लगेगा।’’ 

- अपने खाते में दूसरे का पैसा जमा करने वाले,कमीशन लेकर दूसरों के नोट बदलने वाले और बैंकों से छोटे नोट लेकर उसे बेचने वाले भविष्य में कभी भ्रष्टाचार, महंगाई,कालाधन, घूसखोरी व बेईमानी की बात न करें क्योंकि ऐसे लोग ही इसे बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे लोग खुद बेईमान व चोर हैं। ऐसे लोगों का पर्दाफाश करें और उनसे सावधान रहें। इन्हें हमेशा के लिए पहचान लें। जो देश का ना हुआ वह किसी और का क्या होगा। 

- अपने खाते में बेईमानों का खूब माल जमा करो। लेकिन जब वापस मांगें तब बेईमानी में उनके भी बाप निकलो। बोल देना-कैसा पैसा? इसी को कहते हैं जैसे को तैसा। 

- बदलवा दे मेरे नोट ए गालिब - या वो जगह बता जहां पर कतार न हो
उमरे दराज मांगकर लाए थे चार दिन - दो कमाने में लग गए,दो बदलवाने में। 

बेनामी पर चोट
बेनामी लेनदेन (प्रतिबंध) संशोधन एक्ट २०१६ पहली नवंबर से प्रभावी हो चुका है। बेनामी संपत्ति यानी ऐसी संपत्ति जो बिना नाम की होती है। लेनदेन उस शख्स के नाम पर नहीं होता है जिसने इस संपत्ति के लिए कीमत चुकाई है, बल्कि यह किसी दूसरे शख्स के नाम पर होता है। यह संपत्ति पत्नी, बच्चों या किसी रिश्तेदार के नाम पर खरीदी गई होती है। जिस शख्स के नाम पर ऐसी संपत्ति खरीदी गई होती है, उसे बेनामदार कहा जाता है। नए कानून के तहत सजा की मियाद बढ़ाकर सात साल कर दी गई है। जो लोग जानबूझकर गलत सूचना देते हैं उन पर प्रॉपर्टी के बाजार मूल्य का 10 फीसदी तक जुर्माना भी देना पड़ सकता है। नया कानून घरेलू ब्लैक मनी खासकर रियल एस्टेट सेक्टर में लगे काले धन की जांच के लिए लाया गया है। कानून के तहत  बेनामी जांच अधिकारी, अपीली प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव है।

- कोई संपत्ति यदि पति या पत्नी अथवा बच्चे के नाम है और संपत्ति में लगाया गया धन आय के ज्ञात स्रोत से है तो वह बेनामी नहीं मानी जाएगी।
- भाई, बहन या किसी अन्य रिश्तेदार के नाम संयुक्त संपत्ति जिसमें लगाया गया धन आय के ज्ञात स्रोत से है तो वह बेनामी नहीं मानी जाएगी।
- लेकिन यदि संपत्ति माता-पिता के नाम खरीदी गयी है तो वह बेनामी करार दी जा सकती है। 

भारत में लोगों के पास है २० हजार टन सोना
भारत में लोगों के पास ज्वेलरी, सिक्के और सोने के बिस्किट के रूप में करीब २० हजार टन सोना है। यह तो वल्र्ड गोल्ड काउंसिल का सन् २०१२ का एक अनुमान मात्र है और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा भी है कि देश में लोगों के पास कितना सोना है इसका कोई आंकड़ा भारत सरकार के पास नहीं है। भारत में २०१४ में सोने के आयात पर लगी रोक हटा ली थी और ८०:२० का नियम भी वापस ले लिया था। इस नियम के तहत सोने के व्यापारी जितना सोना आयात करते थे उसका २० फीसदी निर्यात करना जरूरी था। २०१४-१५ में सोने का आयात ९०० टन रहा जो पिछले साल की तुलना में ३६ फीसदी ज्यादा था। 
विश्व में सोने का सबसे बड़ा उपभोक्ता : जिन देशों के केंद्रीय बैंकों में सबसे ज्यादा सोना है उनमें भारत दसवें नंबर पर है। भारतीय रिजर्व बैंक के पास ५५७.७ टन सोना रखा है। नीदरलैंड्स के पास ६१२.५ टन, जापान के पास ७६५.२ टन, अमेरिका के पास ८,१३३.५ टन, जर्मनी के पास ३,३८४.२ टन और इटली के पास २,४५१.८ टन सोना है। 
मंदिरों में है भरमार : एक अनुमान के मुताबिक भारत के मंदिरों में चार हजार टन से ज्यादा सोना रखा हुआ है। सबसे ज्यादा सोना संभवत: केरल के पद्मनाभस्वामी मंदिर में है। २०११ में अदालती लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत टीम ने यहां १३०० टन पांच तहखानों में दर्ज किया था। आंध्र प्रदेश के श्री वेंकटेश्वर या तिरुपति मंदिर में हर साल करीब सवा टन सोना चढ़ता है। माना जाता है कि इस मंदिर के पास ३०० टन सोना होगा। इसी तरह वैष्णो देवी मंदिर, सिद्धिविनायक मंदिर, शिरडी साईं बाबा मंदिर अािद में टनों सोना है।

प्रसंगवश 


कवि परंपरा : तुलसी से त्रिलोचन 
प्रभाकर श्रोत्रिय 
भक्ति काल से नयी कविता के समय तक का व्यापक वितार 
प्रख्यात समालोचक प्रभाकार श्रोत्रिय की ‘कवि परम्परा’ विभिन्न युगों की कविता को ताजगी और मार्मिकता से आधुनिक पटल पर रखी है। इस पुस्तक में शामिल 21 कवि भक्ति युग से नयी कविता तक का लम्बा काल-विस्तार समेटे हैं। जहाँ एक ओर भक्तिकाल के तुलसी, कबीर मीरा हैं, वहाँ मैथिली शरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय धारा के कवि और प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी सरीखे छायावादी कवि हैं। इधर प्रगति वादी धारा के नागार्जुन त्रिलोचन हैं नयी कविता में अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, नरेश भारती, वीरेन्द्रकुमार जैन, राम विलास शर्मा जैसे दिग्गज कवि। अलग-अलग युगों के अलग-अलग धारा के व्यक्तित्ववान कवियों के शब्दार्थ की पहचान करते हुए आलोचक ने एक जीवन्त रंगारंग संसार रचा है, जिससे न तो पुराना कवि कल का लगता है। न आज का कवि अगले और पिछले कल से कटा हुआ, अकेला मानों। कविता अविरल जीवन धारा है। इसमें न कहीं अकादमिक जड़ पाण्डित्य है, न संवेदन हीन निष्प्राण बर्ताव। भाषा-शैली के टटकेपन से हर रचनाकार पुष्प की तरह खिल उठा है; गोया नये पाठकों को जिज्ञासा और रूचि का वैविध्यपूर्ण संसार मिल गया हो; एक सलाहाकार दोस्त जो उसकी संवेदना, चेतना और विवेक पर चढ़े मुलम्मे आहिस्ता-आहिस्ता उतारता है-



झुका हुआ बैठा हूँ
मोमबत्ती के सामने
और पूरी कर रहा हूँ वह कविता
जिसे लिखना शुरू किया था किसी पुराने कवि ने
शायद सदियों पहले 
और देखता हूँ कि नीम अँधेरे में
मैंने यही तो किया है
कि हटा दिया है कोई हलन्त
हटा दी है कहीं बिन्दी
उलट दिया है कोई विशेषण
उड़ा दी है कोई तिथि
और तुर्रा यह—
कि मैंने कविता की है

हिन्दी साहित्य का दरवाजा पहले तो सन्त और भक्त कवियों ने ही खटखटाया, इसीलिए मैंने सोचा कि एक लम्बी सरणि की काव्य-यात्रा का प्रारम्भ क्यों न इन्हीं कवियों से किया जाए। मंगलाचरण के लिए तुलसी से बड़ा कवि कौन ? न केवल हिन्दी में बल्कि विश्व साहित्य में भी ऐसा कौन है जो प्रबुद्ध जन से लगाकर लोक मन में यक्साँ बसता हो ? आगे बढ़ा तो कबीर, सूर, मीरा से एकदम अनूठी मुलाकातें हुईं। फिर नवजागरण के ऱाष्ट्रीय, छायावादी और प्रगतिवादी कवि नयी ठनगन में मिले, फिर तो नयी कविता के भी कई अग्रणी कवि बहस में उतर आये;--ऐसे भी जिन्हें हिन्दी साहित्य के ‘मुग़लिया’ में आम तौर पर ‘आउट साइडर’ माना गया। वैसे अपनी रुचि अक्सर ऐसे ‘आउट साइडरों’ में ज्यादा रही, जिन्हें वृत्त के कवियों से अधिक मान मिलना था और जिन्होंने अपनी स्वाधीन, स्वाभिमानी और व्यापक संवेदना से हिन्दी साहित्य के मन और रूप दोनों का मान बढ़ाया। यह सूची लम्बी है पर थामने वाले ये हाथ छोटे हैं।

हिन्दी का चरित्र दरबारी नहीं है, यह उस आदमी की जमीन है जिसे कविता की सबसे ज्यादा जरूरत है; जो चौपालों, उत्सवों, बात-बात में कविता से बड़ा सहारा पाता है। अगर उसे कविता सहजता से नहीं मिलती तो वह उधर से मुँह फेर लेता है। अपनी भाषा और जन का रंगारंग स्वभाव न समझने वाले लोगों ने आज कविता की जो ‘हदें’ खींच दी हैं, उन्हें उस ‘बेहद’ आदमी की चिन्ता भी करनी चाहिए। कविता को आपस का मामला बनाकर कब तक ज़िंदा रखेंगे आप ‍?
कोई पूछ सकता है कि आज वक्त जब इतना बदल गया है कि दस-पाँच साल पहले तक का समय पुराना मालूम होता है, तब 600 वर्ष या उससे पहले के कवियों से बात शुरू कर के तीन-चार दशक पहले तक के कवियों पर आलोचना को ठहरा देना क्या पाठक की वजह से हुआ है ? तो मैं कहूँगा हाँ—किसी हद तक; क्योंकि लोक नया तो है पर ऐसा नया नहीं कि लगाव न हो उसका किसी पुराने के साथ। बस करना है उसे पुराने में से नये ‘सौंदर्य और चमक’ की शिद्दत से तलाश—बशर्ते उसमें गुंजायश हो। लोक-मर्मी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ज़बानी सुनें :

पुराना और कठोर जैसे स्फटिक
हर चोट पर
फेंकता है नयी से नयी चिनगारी
ऐसी जलाने और सुलगाने के गुण और चमक में 
और सौंदर्य में पुरानी आदिम चिनगारी की तरह
फिंकना चाहिए अर्थ
पुराने से पुराने शब्दों में से
नये सन्दर्भों में।
मेरा आज का मन
नया संदर्भ है
मगर ऐसा भी नया नहीं कि लगाव न हो उसका
किसी पुराने के साथ
लगाव के बिना कुछ भी नहीं रह सकता।

ज्यादा नहीं कहना, इस समय मेरे सामने मुद्दा यह है कि अगर नया पाठक इस पुस्तक को पढ़े तो उसे ऐसा लगे कि किसी बहुत पुराने बुरांस के पेड़ में से कोई नया सुर्ख फूल उग आया है।
इस सरणि में बहुत से कवि छूट गये हैं और कुछ समूचे युग ही। परन्तु यह इतिहास नहीं है, एक चयन है, और वह भी अधूरा, क्योंकि जो यहाँ नहीं हैं, वे मन में हैं, आगे कभी आएँगे वे।
वैसे इस तृष्णा का कोई अन्त नहीं। फिर भवानी भाई याद आते हैं : 
‘...लिखना भी ऐसा है जैसे।
बादल बरसे मन सूखा रह जाए।’

ध्यान से सुनना, सदियाँ बोल रही हैं


बीसवीं सदी के बेजोड़ उर्दू शायर, माहिरेनक्क़ीद और अंग्रेजी के प्रोफेसर जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी की जन्मशती पर ‘वागर्थ’ में कुछ विशेष सामग्री देनी थी। हमने अपने अज़ीज़ और अज़ीमुश्शान दोस्त रेवतीलाल शाह से इसमें मदद की गुज़ारिश की। (काश, वे हमारे बीच होते !) मर्हूम शाह साहब उर्दू, अरबी, फारसी शायरी के आलिम और हक़ीकतआश्ना थे। हज़ारों शेर उनकी ज़बान पर मचलते रहते थे और उनकी तफ़्सीर भी माशाअल्ला दिलोजान में उतर जाती थी। ‘वागर्थ’ के इस अंक में कुछ बेहतरीन रचनाओं के साथ शाह साहब का भी एक संज़ीदा मगर दिलकश लेख था। उनका उन्वान था—‘हाँ, ध्यान से सुनना, सदी बोल रही है।’ यह फ़िराक़ साहब का ही मिस्रा था। फ़िराक़ साहब के बारे में मशहूर था कि वे मुँहफट और तनाक़िएताम थे, इस पर वे हिन्दी कवियों को कुछ समझते न थे। लेकिन शाह साहब ने अपने लेख में हिन्दी के ललित निबन्धकार उमाकान्त मालवीय द्वारा फ़िराक़ साहब से लिए एक मुसाहिबे (साक्षात्कार) का हवाला दिया है। यह फ़िराक़ साहब जैसे नक़्क़ाद और तर्शुज़बान इन्सान को देखते हुए चौंकाता है :

‘स्व. उमाकान्त मालवीय के साक्षात्कार में इस प्रश्न पर 
कि ‘‘आप इतनी भाषाओं के काव्य से परिचित हैं, किसी
एक कवि का नाम आपकी ज़बान पर आएगा तो किसका
आएगा।’ उत्तर था—‘‘तुलसीदास का और किसका ?’’
आगे पूछा गया—‘‘आपको लगता है कि आप उनके 
सहयात्री हैं ?’’ किंचित उत्तेजित होकर फ़िराक़ साहब ने 
उत्तर दिया—‘‘क्या मूर्खतापूर्ण बात करते हो मैं सूर,
तुलसी, कबीर और मीरा के करोड़ मील दूर तक ग़ालिब, 
इकबाल और टैगोर को नहीं मानता, तो मेरी बिसात ही क्या
है ?’’
खुद शाह साहब ने एक बार फ़िराक से तुलसी के बारे में उनकी राय जानना चाही थी, तो कहने लगे :
‘‘मियाँ, एक लाख फ़िराक़ मिलकर भी तुलसी का
मुकाबला नहीं कर सकते। तुलसी की कविता जब कान में
पड़ती है तो ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द के साथ कान
में अमृत टपक रहा हो।’’

(वागर्थ, जुलाई, 1997)

फ़िराक़ साहब को तुलसी में ऐसा क्या मिल गया था जो अंग्रेजी, उर्दू या दूसरी ज़बानों के साहित्य में न था ? यह अमृत न सिर्फ भक्ति का हो सकता है, न दर्शन का, न भावना का, न ज्ञान का, न कथा का, न शिल्प, न चरित्र; न सिर्फ आदर्शों का। यह महाकवि द्वारा जीवन को समग्रता से आत्मसात करने पर उसके मन्थन से निकला है, तभी तो एक-एक शब्द से टपकता है। मन्थन से निकला विष शायद स्वयं पी लिया गया है तभी न दुनिया में अपने बारे में ज़हर फैलाने वालो को ऐसी बेखौफ चुनौती दी गयी है :

‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचे सो कहै कछु कोऊ।
माँगि के खैबो, मसीत सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ।।’

ताहम कुछ तंग दिल-दिमाग के लोग आज भी तुलसी को ब्राह्मणवादी करार देते हैं और यह नजर अन्दाज कर देते हैं कि स्वयं तुलसी को ब्राह्मणों से कितना विरोध सहना पड़ा। इसका पता गोसाईं जी के शिष्य रघुवर दास जी द्वारा लिखित ‘तुलसी चरित’ और बाबा वेणीमाधवदास कृत ‘गोसाईं चरित’ से चलता है। इसका अर्थ है कि वर्णाश्रम धर्म और ब्राह्मण का महत्त्व बखानते हुए भी तुलसी में ऐसा जरूर था जो कहीं न कहीं उनके मूल हितों पर प्रहर करता था और सामाजिक विसंगतियों में हस्तक्षेप करता था। घमण्डी परशुराम पर लक्ष्मण क्या तीर साधते हैं—‘द्विज देवता घरहिं के बाढ़े’ स्वयं राम के व्यक्तित्व और आचरण में ही ऐसा कुछ था, जो तत्कालीन उच्चवर्ण के अनुकूल नहीं बैठता था। गरीबों, दलितों के प्रति नीच बर्ताव, घृणा, विलासिता जैसे उच्चवर्गीय गुण उनमें कहाँ थे ? बहरहाल तुलसी साफ कहते हैं—‘‘मेरे जाति-पाँति न चहूँ काहू की जाति-पाँति’’ फिर भी यह तो दुनिया है—‘साधु कहैं महासाधु, खल कहैं महाखल।’ खैर, अपना ब्राह्मण, ठाकुर, महार, शिया, सुन्नी अपने खीसे में लिये घूमनेवाले, परंपरा तथा इतिहास के दौरों को न समझने वाले और सार्जनात्मक अंतर्सत्य से अनजान लोग तुलसी को क्या समझेंगे—एक फ़कीर को, जो संसार भर को मंगल बाँटने चला था, शब्द, छंद वगैरह की भभूत लेकर :

‘वर्णानां अर्थसंघानाम् रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ।।’

उसे क्या मतलब था ऐसे दमघोटू मतवाद और जातिवाद से ? उसे तो उस कविता तक का अभिमान नहीं था, जिसे फ़िराक़ साहब जैसे अजीब के दुनिया सरगमाथे पर रखते थे : ‘कवित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे।।’
उसका ‘भूमंडलीकरण’ कोई घृणा, स्वार्थ और शस्त्र का व्यापार नहीं था। उसकी कविता को गंगा मैया की तरह ‘कब कँह हित’ में लगी थी। वह आद्यंत मनुष्य के साथ खड़ा था, उसके सुख-दुःख, हारी-बीमारी, उछाह-उमंग, उत्थान-पतन, घर-वन में—हर जगह, हर वक्त छाया की तरह। किसी निपट ग्रामीण से भी आप ‘का बरखा जब कृषि सुखाने’ सुन सकते हैं या किसी दुष्ट से सताए आदमी से ‘खल सन कलह न भल नहिं प्रीती’ जैसे उद्गार, कोई अस्तिक सहज ही कह देता है—‘हानि-लाभ जीवन मरण जस-अपजस विधि हाथ’। ऐसे जन-व्यापी, जन-रक्षक, जन-रंजक जनता को प्रेरणा और सहारा देने वाले कवि कितने हैं ? शायद फ़िराक़ ही बताएँ--‘जोई बांध्यो सोई छोरैं’ (तुलसी)।

तुलसी को लोग समाज-सुधारक, परंपरा-पोषक, भक्त, कवि, ज्ञानी जैसे कई टुकड़ों में अलग-अलग देखते हैं। क्या वे बता सकते हैं कि जिस शहद का आस्वाद वे लेते हैं, उसके किस कण में कौन से पुष्प, फल, वृंत, पत्र का रस है ? मधुमक्खी ने स्वरस में मिलाकर उसकी तासीर और रसायन बदल दिया है और विभिन्न संग्रहण को एक समग्र रस-सत्ता दी है; और इसमें ‘कटु’ भी शामिल है। हिस्सों में देखेंगे तो तुलसी नजर ही नहीं आएँगे। उनके व्यक्तित्व और सृजन में समग्र एकात्मता है, न कि विखंडित पाखंड।

कोई कवि कितना ही बड़ा हो, वह दोष रहित नहीं होता। विधाता तक का ‘प्रपंच’ गुण-दोषों से मिलकर बना है। तुलसी के राम स्वयं कहते हैं--‘सगुन खीरु अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंचु विधाता।।’ तुसली में दोष होंगे और यह भी सच है कि उनकी कुछ बातें हमारे समय और मानसिकता से नहीं मिलती हैं। परंतु एक प्राचीन कवि को समकालीनता में पहचानने के लिए हमें एक ओर से उसे समग्रता में देखना होता है और दूसरी ओर इतिहास तथा परंपरा के तत्कालीन हस्तक्षेप की दृष्टि से उसकी क्रांतदर्शिता आँकनी होती है। क्योंकि मानव-सभ्यता के विकास में सामयिक सीमाओं के ऐसे ही अतिक्रमणों और हस्तक्षेपों की बड़ी भूमिका है।

तुलसी का युग सामंती-युग था। मुगलों का शासन था, जिसके बारे में ‘निराला’ ने ‘तुलसीदास’ में लिखा है कि भारत का सांस्कृतिक सूर्य अस्त हो चुका था, चारों ओर अँधेरा छाया था। आगे एक रूपक में वे कहते हैं :

‘मोगल-दाल बल के जलद-यान
दर्पित-पद उन्मद-नद पठान
हैं बहा रहे दिग्देश ज्ञान शर खर तर;
छाया ऊपर घन अंधकार
टूटता वज्र दह दुर्निवार
नीचे प्लावन की प्रलय धार, ध्वनि हर हर।’

संध्याकाल है, मुगल-सेनारूपी बादल भयंकर वर्षा कर रहे हैं। उन्मत्त पठान दुर्निवार नद हैं। देशकाल का ज्ञान तिरोहित हो चुका है। चारों ओर केवल प्राणों को हरनेवाली हर-हर ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह तुलसी का देश-काल है ! इसे निराला ने जातीय या साम्प्रदायिक अर्थ में नहीं, सत्ता उन्माद और आक्रामकता में परिभाषित किया है। इस घनांधकार में प्रकाश के उदय-सा एक कवि का उद्भव सहसा उस कविता की याद दिला देता है जो पाब्लो नेरुदा ने पॉल रॉब्सन पर लिखी थी :

हमें जकड़ने के लिए जब बढ़ रहा था अँधेरा
धरती के भीतर बढ़ रही थीं जड़ें
अन्धे पेड़ लड़ रहे थे
रोशनी के लिए
सूरज थर्रा उठा था
जल गूँगा हो गया था
और जानवर
धीरे-धीरे बदल रहे थे अपना आकार
धीरे-धीरे बना रहे थे स्वयं को वे
जल और वायु के अनुकूल
तभी से
तुम हमेशा आवाज रहे मनुष्य की
आकार लेती धरती का गीत रहे
प्रकृति की गति रहे और लहर का संगीत रहे।’

तुलसी ने जो कथाधार चुना था वह साहित्य, परंपरा और लोक में सुपरिचित था, फिर भी इतने हाथों, मुखों और अवधारणाओं से चलकर आया था कि उसे अपने लिए सुनियोजित और सुपरिभाषित करना तुलसी को जरूरी लगा, क्योंकि उन्हें मात्र भक्ति, प्रेम, सौंदर्य और लीला के लिए नहीं, देश-समाज-काल के भले के लिए लिखना था। तुलसी ने इस कथा-सरिता के अनेक घाट बाँधे, सोपान बनाए, संगम रचे, वीचियों में खेलते जलचरों, नभचरों के कोलाहल का समा बाँधा। क्योंकि इसे संसार के कल्याण के लिए भाँति-भाँति के मत-मतांतरों और मानवीय स्थितियों के बीचोबीच रहना था। उन्होंने अपने काव्य में निगमागम और लोक-संपदा का भरपूर समावेश किया।...अब वे अकेले नहीं रहे। उनके साथ लोक और वेद की परंपरा, संचित ज्ञान और समय-बोध था। उन्हें सबको साथ लेकर चलना था। यह एक महान लक्ष्य था। उन्हें अँधेरे का नद पार करना था। लोक के भीतर आस्था-विश्वास-उछाह जगाना था। बाहर से भीतर तक फैले अँधेरों को उजाले में बदलना था। इसमें भक्ति बड़ा सहारा थी और कवि के लिए सर्जना का प्रतीक भी :

‘राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ जो चाहसि उजियार।।’

सबको उजियार चाहिए क्योंकि अँधेरे किसी एक देश-काल में नहीं होते, हर देश-काल के अपने-अपने अँधेरे होते हैं; जिन्हें पार करने के लिए मनुष्य को साहस, आस्था और संकल्प की जरूरत होती है। इसी आस्था के सहारे 19वीं शदी में भारत के गरीब-गुर्बे जब परदेसों में गिरमिटिया या मजूर बनकर गए तो उनके पोटलीबंद असबाब में एक बहुमूल्य ‘मणि-दीप’ था—रामचरित मानस का गुटका। घोर कष्ट का जीवन बिताने में यह पुस्तक उनका सम्बल बनी। इसी के सहारे उन्होंने अपने अँधेरे समुद्र को पार किया, विपरीत स्थितियों में भी विश्व में अपनी जगह बनायी और जहाँ गये, उस देश को लहलहाने में अपनी मेहनत और हिम्मत से जुट गये। तुलसी की भक्ति; दूर तक देखने की क्षमता, आस्था, संघर्ष और नैतिक बल ने उनकी मदद की है। इसी के सहारे उन्होंने दलन, ध्वंस और आतंक के विरुद्ध सौजन्य, संघर्ष और विजय की अपनी काल-कथा रची, जो वहीं तक नहीं रह जाती, प्रवृत्ति के रूप में ढलकर युग-युग के प्रतिवाद का बल बनती है। संभवतः महात्मा गाँधी ने भी मानस से प्रेरणा लेकर इतनी बड़ी साम्राज्यवाहिनी के विरुद्ध भारत की निहत्थी जनता का युद्ध नियोजित किया था। उल्लेखनीय है की गाँधी के आराध्य तुलसी के राम थे। ये राम मरते दम तक उनसे छूटे न थे। गोली लगने पर उन्होंने जो अन्तिम शब्द उच्चारा था, वह था—हा राम ! यही उनका ‘डाइंग स्टेटमेंट’ था।

तुलसी का सृजन-युग भक्ति का था। यह भक्ति उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भाँति-भाँति के नाम-रूपों में फैली थी, जैसे वह युग की सामूहिक आवश्यकता हो। तुलसी जैसे समाज-चेता कवि के लिए तो वह किसी हद तक समाज-सुधार का माध्यम और कविता की राजनीति भी थी। जैसे जायसी ने ‘पद्मावत’ के अन्त में दार्शनिक प्रतीकीकरण और प्रयोजन का संकेत दिया वैसा ही संकेत ‘मानस’ के उत्तराखंड में तुलसी ने दिया कि उनका प्रयोजन केवल धार्मिक नहीं है, वह सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय है। जब वे कहते हैं : ‘जासु राज प्रिय, प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी’ तो इसका सम्बन्ध रामराज्य से नहीं है, क्योंकि वहाँ तो सब सुखी, रोग-शोक मुक्त थे। यह कथन तत्कालीन राजशाही के लिए है। (और आज भी प्रजातंत्र को इसकी ज़रूरत है।) जब तुलसी को विभिन्न क्षेत्रों में समकालीन मुखिया ‘पेट’ की तरह दिखे होंगे, तभी न उन्हें कथा के बीच में भरत को उपदेश देते हुए राम के द्वारा कहलाना पड़ा होगा कि मुखिया मुख जैसा होना चाहिए :

‘मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान
कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित
बिबेक।।’

भरत के लिए यह कथन औपचारिक था और शायद अनावश्यक भी। परन्तु कवि को समकालीन प्रधानों, राजाओं, बादशाहों को एक शिक्षा देनी थी। इसलिए त्याग की पराकाष्ठा भरत को राम द्वारा ऐसा उपदेश देते हुए तुलसी को औचित्य की सीमा लाँघनी पड़ी। वैभव और विलास में डूबे तत्कालीन बादशाहों, राजाओं के लिए नहीं आज के स्वार्थी और जननिरपेक्ष नेताओं के निर्देश के लिए भी तुलसी के पास राम का यह संवेदन एक प्रमाण है :

मनि मानिक महँगे किये, सहँजे
तृन, जल, नाज। 
तुलसी ऐसे मानिए राम गरीब
नेवाज।।

आज जब जानवरों के लिए चरागाह खत्म हो रहे हैं, पानी मोल में बिक रहा है, अनाज महँगाई की रोज नयी सीमा छू रहा है, यहाँ तक कि गाँधी का ‘नमक’ तक शक्कर के भाव है, तब तुलसी के राम की सरकार में हमें अपनी सरकार और सत्ता का कौन-सा चेहरा दिखता है जो ‘अन्तिम आदमी’ की चिन्ता में मुटा रही है ? यही चीज है जो तुलसी को आज का और आगामी कल का भी कवि बनाती है। अब इस, रचना विधान पर ग़ौर करें। हम अन्तिम ‘आदमी’ की बात करते हैं, तुलसी सबसे पहले अन्तिम ‘जीव’ की बात करते हैं; जो अपनी भूखप्यास भी नहीं बोल सकता। इसलिए क्रम में सबसे पहले हैं—‘तृण’-जानवरों के लिए, फिर ‘जल’ सबके लिए, अन्त में ‘अनाज’ जो प्रायः मनुष्यों के लिए होता है। जब हम पूरी सृष्टि को अपने संवेद-वितान में रखते हैं तब हमारे भीतर वह भाव उदित होता है जो अपने परे जाता है। भारत की संस्कृति, इसके खेत-गाँव, प्रकृति इसी तरह तुलसी में उतरे हैं, जो यहाँ से वहाँ तक हमारी चेतना को एक मानवीय दीक्षा देते हैं, कर्तव्य बताते हैं। क्या इनकी जरूरत सिर्फ कल थी, या सिर्फ आज है ? तुलसी सामाजिक-धार्मिक बिखरावों, कुकुरमुत्ते की तरह उगे पंथों, सम्प्रदायों और पाखंडों से खिन्न थे क्योंकि उनके द्वारा कई तरह के विघटन, भ्रम, संकीर्णताएँ, अंधविश्वास आदि फैल रहे थे :

‘कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्ग्रंथ।
दंभिन्ह नज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ।।’

साभार ज्ञानपीठ 



स्मृति शेष : प्रभाकर श्रोत्रिय 
वैचारिक संकीर्णताओ से मुक्त रचनाकार 

हिंदी जगत ने आज अपना एक हीरा खोया है।  एक ऐसा तटस्थ कलमकार जिसने जीवन के किसी भी मोड़ पर न तो साहित्यिक गुटबंदी का सहारा लिया और नहीं किसी संकीर्ण विचारधारा में खुद को समाहित करने की चेष्टा की। वैचारिक सङ्कीर्णताओ से मुक्त हो कर वह जीवन भर उन्मुक्त भाव से रचते रहे।  सिर्फ लिखना ही उनका शगल  था।  नितांत यथार्थ और मौलिक चिंतन लेकर प्रभाकर जी शब्द गढ़ते थे।
आज जबकि प्रभाकर श्रोत्रिय इस दुनिया में नहीं रहे , हम यह एहसास कर सकते है कि  शब्दो की उनकी महायात्रा अभी रुकी नहीं है।  उन्होंने साहित्य की जो अजस्र धरा प्रवाहित की है उसकी निरन्तरता की अनुभूति तो सदिया करती  ही रहेंगी।प्रभाकर जी व्यक्तिगत रूप से मेरे बहुत अभिन्न थे। उनका निधन मेरे लिए एक निजी क्षति भी है। साहित्यिक जीवन के कई दशको के सफर में हम साथी रहे है। अनेक अवसरो पर अत्यंत निजी विचारो के आदान प्रदान के भी अवसर आते रहे है। घर परिवार से लेकर समाज और साहित्य तक की उनकी चिंताओं को मैंने गहरे तक अनुभव किया है। 
यहाँ यह बताना मुझे समीचीन लगता है कि जिस परिवेश से वह निकल कर साहित्य सेवा में आये थे वह विलक्षण ही कहा जायेगा।  डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय का जन्म १९ दिसम्बर १९३८ को जावरा, म. प्र. में हुआ। पिता की मृत्यु बचपन में ही हो जाने के कारण इन्हें काफी कष्टों से गुज़रना पड़ा। इनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत हिन्दी पाठशाला से आरंभ हुई। कक्षा छह में इनका दाखिला सरकारी विद्यालय में कराया गया। इन्होंने अपनी उच्च शिक्षा विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की और बाद में एम.ए. करने के बाद वहीं पर प्राध्यापक हो गए। इसके पश्चात इन्होंने पी.एच.डी. और डी.लिट्. की उपाधि भी वहीं से अर्जित की। 
प्रकाशित कृतियाँ 
आलोचना- 'सुमनः मनुष्य और स्रष्टा', 'प्रसाद को साहित्यः प्रेमतात्विक दृष्टि', 'कविता की तीसरी आँख', 'संवाद', 'कालयात्री है कविता', 'रचना एक यातना है', 'अतीत के हंसः मैथिलीशरण गुप्त', जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता'. 'मेघदूतः एक अंतयात्रा, 'शमशेर बहादूर सिंह', 'मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे-आगे', 'हिन्दी - कल आज और कल' निबंध- 'हिंदीः दशा और दिशा', 'सौंदर्य का तात्पर्य', 'समय का विवेक', 'समय समाज साहित्य' नाटक- 'इला', 'साँच कहूँ तो. . .', 'फिर से जहाँपनाह'।
 प्रमुख संपादित पुस्तकें:
  'हिंदी कविता की प्रगतिशील भूमिका' 'सूरदासः भक्ति कविता का एक उत्सव प्रेमचंदः आज' 'रामविलास शर्मा- व्यक्ति और कवि' 'धर्मवीर भारतीः व्यक्ति और कवि' 'समय मैं कविता', 'भारतीय श्रेष्ठ एकाकी (दो खंड) कबीर दासः विविध आयाम इक्कीसवीं शती का भविष्य नाटक 'इला' के मराठी एवं बांग्ला अनुवाद  'कविता की तीसरी आँख' का अंग्रेज़ी अनुवाद
 पुरस्कार और सम्मान
 अखिल भारतीय आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान),
 आचार्य नंददुलारे वाचपेयी पुरस्कार (मध्य प्रदेश साहित्य परिषद), 
अखिल भारतीय केडिया पुरस्कार,
 समय शिखर सम्मान (कान्हा लोकोत्सव, 1991), 
श्रेष्ठ कला आचार्य (मनुवन, भोपाल, 1989), 
अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार (बिहार सरकार), 
अखिल भारतीय श्री शारदा सम्मान (म.प्र. के हि.सा. एवं संस्कृतिन्यास देवरिया)
 एवं माधव राव सप्रे पत्र संग्रहालय का रामेश्वर गुरु साहित्यिक पत्रकारिता पुरस्कार।
 मित्र मंदिर कोलकाता सम्मान 1998, 
सारस्वत सम्मान 2002 

साक्षात्कार', 'अक्षरा', 'वागर्थ', पूर्वग्रह' और 'नया ज्ञानोदय' के संपादक रहे डॉ॰ प्रभाकर श्रोत्रिय ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में सफलतापूर्वक लेखन कार्य किया।प्रभाकर जी की सबसे बड़ी विशेषता उनके साहित्यकार होने के साथ ही एक सक्षम शैली के पत्रकार होने की रही है। लिखने के साथ ही जिस प्रकार से उन्होंने हिंदी की पहचान वाली पत्रिकाओ का सम्पादन किया वह विलक्षण है। एक सक्षम संपादक के रूप में भी प्रभाकर जी सदैव याद किये जाएंगे। उन्होंने जिस साहित्यिक पत्रकारिता का मानक गढ़ा  है वह अद्वितीय है। साहित्य अकादमी की ओर से भी तथा व्यक्तिगत तौर पर मई प्रभाकर जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि वह उनके परिवार को यह दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।  हिंदी भाषा , साहित्य और पत्रकारिता के लिए प्रभाकर श्रोत्रिय एक नक्षत्र की तरह सदैव देदीप्यमान रहेंगे। 
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , अध्यक्ष , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली 

प्रभाकर श्रोत्रिय जितने बड़े साहित्यकार थे उससे भी बड़े मनुष्य थे। उनकी रचनाशीलता  अद्भुत रही है। हिंदी भाषा , साहित्य और पत्रकारिता के लिए उनकी उअपस्थिति एक बड़ी संस्था की तरह रही है। साहित्य के विविध पक्षो के लिए उन्होंने जितना किया है उसके लिए हिंदी भाषा और नयी पीढ़ी को सदैव कृतज्ञ रहना होगा। प्रभाकर श्रोत्रिय का जाना हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी क्षति है। 
प्रो नित्यानंद तिवारी , समालोचक एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग ,दिल्ली विश्वविद्यालय 

अभी तो विशवास भी नहीं हो पा रहा कि प्रभाकर जी चले गए।  उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान से भारत भारती मिलाने पर मुझे बधाई दे रहे थे तब भी वह बहुत अस्वस्थ थे।  प्रभाकर जी ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के लिए बहुत काम किया है।  उनके जैसा संवेदनशील और समर्पित भाषा शिल्पी मिलाना बहुत मुश्किल है। 
विश्वनाथ त्रिपाठी , आलोचक 

डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय साहित्य अकादमी से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे।  उन्होंने अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य का वर्षो तक सम्पादन भी किया। उनका निधन हिंदी साहित्य संसार के लिए एक अपूरणीय क्षति है 
के श्रीनिवासराव , सचिव, साहित्य अकादमी 
वरिष्ठ हिंदी आलोचक और अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक रहे डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे। महभारत पर उनका बड़ा काम है। वे 76 वर्ष के थे और कुछ समय से ज़्यादा ही अस्वस्थ चले आ रहे थे। उनसे पहले-पहल 1984 में बरगी नगर (मध्यप्रदेश) में मिलना हुआ था, जब अज्ञेय जी ने वहां पांचवा वत्सल निधि शिविर आयोजित किया। बरसों बाद जनसत्ता आवास में उनके पड़ोस में रहने का सुख हासिल था। पीटर ब्रुक की तीन घंटे लम्बी नाट्य-फ़िल्म 'महाभारत' (मूल प्रस्तुति नौ घंटे) उन्होंने हमारे यहा एकाधिक बार देखी। मैंने बाद में उसकी प्रति तैयार कर उन्हें भेंट की थी। जब उनकी 'महाभारत' छप कर आई तो उसे देने स्वयं आए। जब स्वस्थ थे जनसत्ता आवास में शाम को सैर की फेरी लगाते थे। बाइपास के बाद तो नियमित रूप से। उस रास्ते पर उनकी पदचाप हमें लम्बे समय तक सुनाई देती रहेगी।