पाकिस्तान में जबरिया धर्म परिवर्तन

पाकिस्तान में जबरिया धर्म परिवर्तन

पाकिस्तान में जबरिया धर्म परिवर्तन 
रोहिंग्या के लिए दर्द और अपने सहोदरो की खबर तक नहीं ?

संजय तिवारी 
जिनसे भारत का दूर दूर तक कोई नाता नहीं उन रोहिंग्या मुसलमानो को भारत में शरण देने की वकालत करने वालो को अपने भारतीय शरणार्थी सहोदरो के लिए पीड़ा क्यों नहीं हो रही।  वे तो सभी मूलतः भारतीय ही हैं। अधिकाँश हिन्दू हैं। महिलायें हैं। बच्चे हैं। जवान हैं। वृद्ध हैं। भारत विभाजन का संत्रास झेल रहे हैं।  सब केवल भारतीय होकर रहना चाहते हैं। उनके पक्ष में कोई आवाज न तो सड़क पर उठ रही है न संसद में।  कथित आभासी दुनिया भी मौन है। हिन्दू संवत्सर , राम नवमी और हिंदुत्व की गाथा प्रसारित करने वाले हाथ शांत हैं। बहुत ही दुखद है। प्रगतिशील युग में हमारे पड़ोस के देश में पांच सौ हिदुओ को जबरन इस्लाम कबूल करा कर मुसलमान बना दिया जाता है और भारत में एक आवाज नहीं उठती है। यही इसका उलटा हुआ होता , मुसलमानो की घरवापसी का आयोजन होता तो हमारे चैनलों पर सेक्युलर जमात छाती पीट रही होती। 

500 हिदुओ को बनाया गया मुसलमान 
खबर सच्ची है और प्रामाणिक भी। पाकिस्तान के सिंध प्रांत के मातली जिले में 25 मार्च को 50 परिवारों के 500 लोगों का सामूहिक रूप से जबरन धर्म परिवर्तन करवा दिया। इनमें से अधिकांश वे थे, जो भारत में शरण लेने आए तो थे। परंतु लांग टर्म वीजा नहीं मिलने के कारण उन्हें पाक लौटना पड़ा था।  इस्लाम कबूल करने वाले इस आयोजन का वीडियो पाक के हिंदू एक्टिविस्ट और मानवाधिकार संगठन से जुड़े लोगों ने  जुटाया है। इसमें साफ नजर आ रहा है  कि जो लोग कलमा पढ़ रहे थे, उनके चेहरों पर खुशी नहीं थी। वे बच्चों और पर्दों में बैठी महिलाओं के साथ मजबूरी में इस्लाम कबूल कर रहे थे।

संयुक्त राष्ट्र संघ में बहस होती  रही 
दरअसल अपनी राजस्थान की सीमा के उस पार धर्म परिवर्तन का यह पूरा सिलसिला उस दौर में चला जब पांच दिन पहले जिनेवा में यूएन मानवाधिकार परिषद के 37 वें सत्र में सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों और जबरन धर्म परिवर्तन पर चिंता जताई जा रही थी। सत्र का मकसद अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सिंध के अल्पसंख्यकों के हालात बताने का था। इसका संचालन मुस्लिम कनेडियन कांग्रेस के फाउंडर व लेखक तारिक फतेह कर रहे थे। मुख्य वक्ता के रूप में वर्ल्ड सिंधी कांग्रेस की चेयरपर्सन रूबिना शेख ने कहा कि कट्‌टरपंथी लोग हिंदुओं की नाबालिग लड़कियों को लगातार प्रताड़ित कर रहे हैं।
खबर के मुताबिक़ मातली की माशाअल्लाह शादी हाल नज्द मदरसा में 25 मार्च को 500 हिंदुओं को इस्लाम कबूल कराया गया। बड़े से शामियाने में सभी परिवारों को एकत्र किया गया। इनमें महिलाएं और छोटे बच्चे भी शामिल थे। मंच पर पीर मुख्तयार जान सरहदी, पीर सज्जाद जान सरहदी और पीर साकिब जान सरहदी ने कलमा पढ़ा जिसे सभी हिंदुओं को दोहराने को कहा गया। इन लोगों ने पर्दे में बैठी महिलाओं व बच्चों के भी नाम लेकर उन्हें इस्लाम कबूल करने काे कहा। सभी हिंदू कलमा दोहराते रहे। फिर वहां मौजूद लोगों ने उन्हें नए मुस्लिम बनने की मुबारकबाद दी।

मुशर्रफ की पार्टी का अभियान
धर्म परिवर्तन का आयोजन पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ की पार्टी ऑल पाकिस्तान मुस्लिम लीग के पदाधिकारियों ने किया था। पार्टी के हैदराबाद डिविजन के उपाध्यक्ष जाहिद खान देसवाली, डिप्टी इंफार्मेशन सेक्रेटरी इकबाल आबिदी, नोमान मरी, आना हुसैन जाफरी व शहजाद अहमद अब्बासी ने तंडो गुलामअली, तंडो अलायार कस्बों से हिंदुओं पर दबाव बना कर इस्लाम कबूल कराया है।

भारत सरकार का ढीलापन 
अंतर्कथा यह है कि यह सब तब हो रहा है देश में भी और राजस्थान में भी हिंदुत्व की वकालत करने वाली सरकार है। इस धर्मपरिवर्तन और हिन्दुओ पर अत्याचार की कहानी कोई नयी नहीं है लेकिन ताज्जुब इस बात पर हो रहा है कि हिदुत्व की रक्षा का ढिंढोरा पीटने वाली हमारी सरकारें क्या कर रही हैं। यह हकीकत है कि राजस्थान में पिछले तीन सालों में 1379 हिंदू विस्थापितों को पाकिस्तान लौटना पड़ा। इनमें से 964 को तो इंटेलिजेंस एजेंसी ने ही डिपोर्ट कर दिया था। ऐसे लोगों का पाकिस्तान में जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा था। स्थानीय मीडिया ने 23 मार्च को 'राजस्थान से डिपोर्ट हिंदू विस्थापित इस्लाम कबूल करने को मजबूर, सिंध में 500 लोगों का होगा जबरन धर्म परिवर्तन’ शीर्षक से में खबर प्रकाशित की थी। इसके बाद कई मीडिया ग्रुप ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 24 मार्च को जोधपुर दौरे पर आईं तब उन्होंने विस्थापितों के लिए काम करने वाले सीमांत लोक संगठन के अध्यक्ष हिंदूसिंह सोढ़ा से बात की। मुख्यमंत्री ने उसी वक्त गृह सचिव दीपक उप्रेती को फोन लगाकर सोमवार की मीटिंग तय की। मंत्री राजेंद्र राठौड़ और सीएम के मुख्य सचिव तन्मय कुमार को मॉनिटरिंग करने के निर्देश दिए थे। सोमवार को जयपुर में मंत्री की मौजूदगी में यह बैठक हुई जिसमें अप्रैल में अभियान चला कर विस्थापितों की समस्याएं हल करने की रूपरेखा बनाई गई।

25,000 विस्थापित
 राजस्थान में लॉन्ग टर्म वीजा के लिए 15000 विस्थापित दिल्ली और संबंधित जिलों के एसपी ऑफिस के चक्कर लगा रहे हैं।  राजस्थान में 5000 विस्थापित ऐसे हैं जिनका धार्मिक वीजा हरिद्वार, द्वारका जैसी जगहों का होता है। उन्हें जोधपुर संभाग में रहने की इजाजत दिए जाने का इंतजार है। राजस्थान में बड़े स्तर पर 2005 में नागरिकता दी गई थी, उसके बाद से 5000 विस्थापित नागरिकता के इंतजार में है।
भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह

भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह

स्मृति
भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह 

संजय तिवारी 
बलिया , बनारस , पडरौना , गोरखपुर से होते हुए दिल्ली में ठहर गए। इस ठहराव में माटी और माटी की बोली उनकी थाती रही। उसी की सोंधी सुगन्धि पूरी  दुनिया में पसराते लोगो को भरोसा दिलाते रहे कि जड़ो में जमे रह कर ही जीवन को धन्य बनाया जा सकता है , कट कर नहीं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली आदि अनेक देशों की यात्राएं कीं। लेकिन अपने गांव-घर से जो संवेदना उन्हें मिली थी, उसे महानगर तक पहुंचने के बाद भी उन्होंने कभी नहीं बिसराया, बल्कि और मजबूती से अपनी कविताओं में उतारा। उनकी कविता में एक ओर ग्रामीण जनजीवन की सहज लय रची-बसी, तो दूसरी ओर महानगरीय संस्कृति के बढ़ते असर के कारण ग्रामीण जनजीवन की पारंपरिक संवेदना में आ रहे बदलाव भी रेखांकित हुए। 


वास्तव में केदारनाथ सिंह  ने अपनी कविताओं में गांव और शहर के बीच खड़े आदमी के जीवन में इस स्थिति के कारण उपजे विरोधाभास को अपूर्व तरीके से व्यक्त किया। एक बार उन्होंने काफी विस्तार से खुद की यात्रा पर कहा था - काफी उतार चढ़ाव आया मेरे जीवन में , बलिया के अति पिछड़े गाँव के एक किसान परिवार में जन्म से लेकर जे0 एन0 यू0 तक की यात्रा और आज ज्ञानपीठ सम्मान तक सहज नहीं रहा सबकुछ मेरे लिए ! बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी मैंने जीवन में। मैंने 1969 में अपनी पहली नौकरी पडरौना के एक कॉलेज में शुरू किया था,यह मेरे जीवन में आर्थिक संकट का भी दौर था 1969 से 1975 तक मैंने तमाम संकटो और दुखो का सामना किया पडरौना में नौकरी के दौरान ही मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड़ी, मैंने अपनी क्षमता के अनुसार उनका इलाज करवाया किन्तु वह काफी न था उनके लिए और उनकी बीमारी बढ़ती चली गई इसी बीच मै कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया और उधर पत्नी की तबियत ज्यादे बिगड़ गई मै चाह कर भी उन्हें बचा न पाया ! यह मेरे जीवन की अपूर्णीय क्षति रही जिसकी भरपाई मै नहीं कर पाया।  पत्नी के निधन के 36 साल बाद भी मै उन्हें विस्मृत नहीं कर पाया उनकी मौजूदगी हर पल हर स्थिति में महसूस  करता हूँ मै , पत्नी के निधन के बाद पत्नी की रिक्तता खली वैवाहिक जीवन शुरू करू ऐसी कोई इच्छा  नहीं हुई मेरी , तबसे अकेला रहा।  मैंने यह प्रण लिया की जीवन में दुबारा मै विवाह नहीं करूँगा, मैंने अपने इस प्रण को पूरा भी किया मै अविवाहित रहा ! मेरी 5 बेटियां और एक बेटा है ! बेटियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर, शादी के बाद शिक्षण कार्य में है और बेटा दिल्ली में ही भारत सरकार की उच्च सेवा में है ! शुरुआती दिनों में मैंने रीडर के रूप में दो वर्ष तक गोरखपुर के सेंटएंड्रयूज कॉलेज में भी अपनी सेवा दिया था ! वर्ष 1976 के अंत में मेरी नियुक्ति जे0 एन0 यू0 में हुई ! यहाँ पर मैंने 1976 से लेकर वर्ष 2000 यानी अपने रिटायरमेंट तक अपनी सेवा दिया। अब तो दिल्ली का मुझसे और मेरा दिल्ली से कुछ ऐसा रिश्ता बन गया है कि  मै दिल्ली का ही होकर रह गया। 
साहित्य  में जब उन्हें लोग जनकवि की संज्ञा देने लगते थे तब वह बहुत दुखी हो जाते। कहते - जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया हूँ यह नहीं जानता. जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए। लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं। मेरी जड़ें ही मेरी ताक़त है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा उन्हीं के बिना पर कर पाऊँगा।
केदारनाथ सिंह हिंदी के ऐसे र्चुंनदा कवियों में रहे जिनकी रचनाओं का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ। असाधारण ख्याति के बावजूद शख्सियत ऐसी थी कि आखिरी क्षणों तक जड़ों को नहीं भूले। वह दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए भी गांव चकिया (बलिया) को जीते रहे। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जब उनके संस्मरणों पर केंद्रित एक पुस्तक प्रकाशित की गई तो उसका नाम भी उनके जन्मस्थान से जोड़कर चकिया से दिल्ली रखा गया। वह जितने गांव के कवि थे उतने ही शहर के भी थे। वह हिंदी में लिखते थे, दुनियाभर में पढ़े जाते थे। लेकिन अपनी मातृभाषा भोजपुरी को उन्होंने हमेशा अपनाए रखा। विश्व भोजपुरी  अध्यक्ष अजित दुबे की भोजपुरी पर केंद्रित पुस्तक की उन्होंने न केवल भूमिका लिखी , उसका विमोचन भी केदार जी ने सवयं किया। 
वह कहा करते थे - मैं मानता हूं कि देश की सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं. हमारे संविधान के निर्माताओं ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था. उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं कहा, उन्होंने इसे राज भाषा कहा और यह कहते हुए उन्होंने कहीं न कहीं इस बात की संभावना छोड़ दी कि भारत की हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, गुजराती समेत सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं। ये सभी राष्ट्र की भाषा हैं इसलिए ये राष्ट्र भाषा हैं. मैं इसे इसी रूप में मानता हूँ। हिंदी या अन्य किसी भाषा को दूसरों पर लादने का सवाल नहीं पैदा होता. यह उचित नहीं है और सारी भाषाओं का साहित्य मेरा साहित्य है। मैं विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भारतीय साहित्य पढ़ाता रहा हूं. मैं मानता हूं कि पूरा भारतीय साहित्य एक है। राधाकृष्णन ने भारतीय साहित्य की एक परिभाषा दी थी, साहित्य अकादमी का आदर्श वाक्य है और उसे मैं अपने आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार करता हूं. उन्होंने कहा था, ''भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है। मैं भाषाओं की अनेकता को स्वीकार करता हूं. बड़ी भाषा और छोटी भाषा का सवाल नहीं है. हिंदी सारी भारतीय भाषाओं की बहन है इसलिए छोटी बहन, बड़ी बहन का सवाल पैदा नहीं होता। 
केंद्र में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब उनसे लोगो ने उनकी भावना जानने का प्रयास किया। चर्चित जवाहर लाल विश्वविद्यालय के इस अध्येयता विद्वान की दृष्टि बहुत स्पष्ट थी। वह कहते थे की वर्तमान भारत सरकार के विकास मार्ग को दूरदर्शी सोच मानना होगा देश में समस्याएं जड़ जमा चुकी है उनसे निजात पाने के लिए अगर जनता ने आपको चुना है आप पर विस्वास किया है तो आप को भी जनता के विस्वास पर खरा उतारना होगा वर्ना देश विनाश की तरफ बढ़ जायेगा।  साथ ही जनता साहित्यकार और प्रबुद्ध जान को भी अपने हक़ के प्रति सजग होना होगा मुखर होना होगा जहा गलत लगे विरोध का स्वर उठाना होगा।  विकास का मार्ग धीमी गति से हो तो सफलता मिलती है, किन्तु इतनी भी धीमी गति न हो की विकास की तस्वीर धुँधली ही रह जाए ! यह भी याद रखना होगा द्रुत गति से विकास होने के चक्कर में गति इतनी द्रुत न हो जाए की देश विनास के रास्ते पर चल पड़े। वह मानते थे कि  मोदी सरकार के सामने चुनौती ज्यादे है और जनता की अपेक्षाएं भी बहुत है उनसे , अतः मोदी सरकार को दोनों के लिए दूरदर्शिता और पारदर्शिता का परिचय देना होगा ! नई मोदी सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करने के बजाय थोड़ा धैर्य रखना होगा हमे साथ ही जो गलत लगे उसपर अपनी अभिब्यक्ति भी देनी होगी। 
साहित्य को लेकर वह हमेशा सतर्क थे। कहते थे -साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध  है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। हां वर्तमान में साहित्यकार के सामने चुनौतियां ज्यादे है उसे अपने दाइत्वा के प्रति सतर्क होना होगा तभी समाज के साथ और साहित्य के साथ न्याय कर पायेगा वह।  समाज के बिना साहित्य की कल्पना नहीं हो सकती और समाज है तो साहित्य की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।  प्रायः कहा जा रहा है साहित्यकार ख्याति पाने के लिए साहित्य रच रहा है वर्तमान में , किन्तू यह काल्पनिक सत्य जैसा है वर्तमान में भी अच्छी रचनाये हो रही है। 
केदार जी से एक बार पूछा गया कि हिंदी को लेकर एक और सवाल उठता रहा है कि यह न तो बाज़ार की भाषा बन पाई और न जनसंवाद की भाषा बन पाई तो इस दौर में हिंदी को जनसंवाद या रोज़गार मूलक भाषा बनाने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है? इस पर उन्होंने कहा था - हिंदी बाज़ार की भाषा है. मैं इसे ज़ोर देकर इसलिए कहना चाहता हूं कि कुछ दिन पहले मेरे पास देश की एक बहुत बड़ी विज्ञापन संस्था में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी आईं। यह संस्था अपने सारे विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनाती रही है. उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ एक समस्या पैदा हो गई है. हम बाज़ार के लिए विज्ञापन तैयार करते हैं और ज़्यादातर अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं। मुश्किल यह है कि वृहत्तर भारत में सिर्फ अंग्रेज़ी से काम नहीं चलेगा. बड़े शहरों में तो काम चल जाएगा, लेकिन देश अन्य छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचने के लिए हिंदी की ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ी और हिंदी में तैयार होने वाले सारे विज्ञापनों का पूरा अनुपात बदल गया है. पहले 80 प्रतिशत विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनते थे अब वे घट कर 50 प्रतिशत पर आ गए हैं. जबकि हिंदी के विज्ञापन 20 प्रतिशत तक ही होते थे, लेकिन वे बढ़कर अब 50 प्रतिशत हो गए हैं। बाज़ार में तो हिंदी पहुँच चुकी है और छोटे शहरों व कस्बों में वो अपनी जगह बना चुकी है. जहां तक महानगरों का सवाल है, वह एक बड़ा बाज़ार है- जिसे वैश्विक बाज़ार भी कह सकते हैं। यह तथ्य है कि हिंदी वहां अपनी जगह नहीं बना पाई है. वहां उसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है. यहाँ अंग्रेज़ी से काम चल जाता है क्योंकि यहां हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है जैसे चीन या जापान की भाषा. वहां की भाषाएं बाज़ार की अनिवार्यता हैं। इसे मैं एक भाषिक असंतुलन कहूंगा. मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी स्थिति है कि यह लंबे समय तक चलती रहेगी. इसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन इतना ज़रूर है कि एक बड़े पैमाने पर हिंदी अपनी जगह बना चुकी है। 
एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था कि आपके नए काव्य संग्रह सृष्टि की रचना में एक कविता है- विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है. क्या विज्ञान के प्रति हिंदी में जो नैराश्य भाव है वह बरकरार रहेगा या हिंदी विज्ञान को आत्मसात कर पाएगी या वह वैज्ञानिक लेखन की भाषा बन पाएगी? इस पर केदार जी ने कहा -'विज्ञान के अंधेरे…' का आशय विज्ञान के विरुद्ध नहीं है. यह एक सामान्य अनुभव है. जैसे सोते समय आप बत्ती बुझा देते हैं और अंधेरे में अच्छी नींद आती है. इसका सामान्यीकरण मत कीजिए। यह विज्ञान की स्वीकृति के पक्ष में है. इस कविता में ट्रेन और वायुयान के महत्व को स्वीकार करते हुए अंत में यह पंक्ति आती है। विज्ञान की भाषा बनने का जहाँ तक सवाल है, वह एक बड़ा सवाल है. हिंदी अभी तक विज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है. इसका एक बड़ा कारण है कि शिक्षा के बड़े संस्थान- विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में विज्ञान की पढ़ाई आज भी अंग्रेज़ी में होती है। अभी भाषिक विकल्प की तलाश नहीं की गई है. इसे मैं बहुत सुखद स्थिति नहीं मानता हूं. अगर भारतीय भाषाओं का इस्लेमाल हो सके और उन्हें इसके सक्षम बनाया जा सके तो यह संभव हो सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. हमारे शिक्षा जगत का ढर्रा अंग्रेज़ी के अनुकूल बैठता है. इसके लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को प्रयास करना होगा। 

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह

अभी बिल्कुल अभी
जमीन पक रही है
यहाँ से देखो
बाघ
अकाल में सारस
उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
तालस्ताय और साइकिल
सृष्टि पर पहरा

आलोचना

कल्पना और छायावाद
आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
मेरे समय के शब्द
मेरे साक्षात्कार

संपादन

ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ
कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

पुरस्कार

केदारनाथ सिंह को मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि पुरस्कारों मिल चुके हैं। 

आज ही वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे ने अपनी वाल पर अद्भुत लिखा। केदार जी को श्रद्धांजलि के रूप में दुबे जी के शब्द हूबहू ---
कवि केदार नाथ सिंह को श्रद्धांजलि
*************
जाऊंगा कहां
रहूंगा यहीं 
*******
और तब अक्सर होती रहेगी , हां रहेगी ही कोई
न कोई कविता ।
उनकी कविता की एक पंक्ति बेतरह कचोट रही है --
मेरी छाती में बंद , मेरी छोटी - सी पूंजी
जिसे रोज मैं थोड़ा - थोड़ा खर्च कर देता हूं ....।
अपनी छोटी -सी पूंजी जिसे वह थोड़ा
- थोड़ा रोज खर्च कर देते थे , आखिर
कल शाम तकरीबन 9 बजे पूरी तरह खत्म हो गयी ।
वह चले गये । जाना हिंदी की सबसे त्रासद और
घातक क्रिया है ।
अपने पत्रकारीय यात्रा के क्रम में कोलकाता
प्रवास के दौरान मैंने सीखा था --
आमी आसच्चि ।
जाता हूं या चलता हूं , कहना वहां अच्छा 
नहीं माना जाता ।
केदार जी कह दीजिये ना --
आता हूं ।
हम तो हमेशा आपका आना सुनते रहने के
अभ्यस्त थे । कविता का आना सुनने के ,
जो फलियों में धीरे - धीरे रस की तरह आता
और लहरा कर पकता था ।
2013 में उन्हें ज्ञानपीठ मिला था ।
यह सम्मान पाने वाले वह हिंदी के 10वें कवि थे 
अबतक के ।
16 फरवरी 2018 को सुविज्ञ दुबे जनेवि
भारतीय जन संचार संस्थान के पूर्ववर्ती छात्रों
के सम्मेलन में दिल्ली आया था ।
तब मैं भी दिल्ली ही था ।
केदार जी लाजपत नगर के 
किसी हस्पताल शायद मूलचंद में भर्ती थे ।
उन्हें स्ट्रेचर पर जांच के लिए ले जाया जा
रहा था । मास्क लगा था चेहरे पर ।
सुविज्ञ को देखते ही उन्होंने अपने
बांये हाथ से मास्क हटा दिया ।
कांपती आवाज में पूछा था --
कब आये ?
फिर सुविज्ञ का दायां हाथ , अपने हाथ में
कस कर पकड़ लिया था ।
आंख की कोर से दो बूंद टपक गयी थी ।
सुविज्ञ ने इशारा किया -
मत बोलिये ।
पल्स लगातार नीचे जा रही थी ।
वह खुद को खर्च करना तेज कर चुके थे ।
डॉक्टरों ने फिर मास्क लगा दिया था ।
जब कभी पटना गये सुविज्ञ के लोहिया
हाउसिंग कालोनी 123 , आवास पर
जरूर रुके ।
बेटी गौरी को खूब प्यार किया ।
सुविज्ञ को जेएनयू वाले दिनों 1990
के आसपास के 52 के केदार आज भी
खूब याद हैं । तब भी वह सशरीर कविता
ही थे ।
मुझे भी खूब याद है । 6 अप्रैल 2017 को
बी 32 , ग्रेटर कैलाश -1 में यह जीवन की
प्राणवत्ता से भरी , लौ की नीली रंग , बहुत स्पंदित शाम थी । जन बुद्धिधर्मी देवी प्रसाद त्रिपाठी 
( अपने डीपीटी ) की राजनेता शरद पवार पर 
केन्द्रित पुस्तक , ' स्वयंसिद्ध ' के विमोचन के 
मौके पर मौजूद मैं तो खुद को
ही गौरवान्वित महसूस रहा था । किताब का 
विमोचन भारतीय कविता के शिखर व्यक्तित्व इन्हीं
केदारनाथ सिंह ने किया ।
मुझे यहां आने का आदेश फोन पर खुद
डीपीटी का था । गुड़गांव या गुरुग्राम 
सेक्टर 23 से यहां के लिए चलने के खासे
पहले से सुविज्ञ और जिन्हें मैं 
पत्रकारिता का फैज कहता हूं , मिथिलेश कुमार सिंह , बहुत याद आये थे ।
अपने - अपने क्षेत्र के शलाका व्यक्तित्व ( उद्योगपति , वकील , अकादमिक- स्कॉलर , 
पहली कतार के कई सांसद , रंग कर्मीं , पत्रकार 
और ब्यूरोक्रेट भी ) जो इस अवसर पर मौजूद थे , किस - किस के नाम लिखूं ?
केदार जी को सुनना ही बहुत सुखद अनुभव होता था । बहुत दिनों बाद , उन्हें सुन रहा था ।
समारोह खत्म होने के बाद मैं ही उन्हें
अपने कंधे का सहारा देकर वॉश रूम तक
ले गया । लौटकर स्कॉच की एक पैग भी बनाई ।
केदार जी ने बहुत स्नेह दिया । 
सुविज्ञ और मिथिलेश को याद किया । 
मौजू भी लगा था और मिथिलेश ने ही याद
दिलाया था । मैंने केदार जी को उन्हीं की
एक कविता की कुछ पंक्तियां सुना दीं ।
तुमने जहां लिखा है प्यार / वहीं लिख दो सड़क ...
(वह मुस्कराये )..... 
बहुत पुरानी कविता है मेरी । 
केदार जी मेरे सामने नीली लौ की तरह थे । कैलाश - केदार और नीली लौ रंग शाम ।
कल ही 11 बजे रात गुरुदेव अरुणेश नीरन से
बात हो रही थी ।
पंडित विद्यानिवास मिश्र के देहावसान के
बाद दूसरी बार कल वह खुद को उलीच - उलीच
कर रोये थे ।
कहा ---
50 साल का सम्बन्ध था हमारा , उनका ।
वह उदित नारायन स्नातकोत्तर महाविद्यालय
पडरौना में हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष थे ।
मैं बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय कुशीनगर में
हिंदी विभाग का अध्यक्ष था । हम दोनों हर
रविवार मिलते थे । उनकी थीसिस ' हिंदी कविता
में बिंब विधान ' के परीक्षक थे डॉ. नगेन्द्र ।
उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को फोन करके
कहा - जिस लड़के की यह थीसिस है , उसे दिल्ली
भेजिए , में उसकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय
करना चाहता हूं ।
केदार जी ने दिल्ली जाना माना कर दिया ।
1973 में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनकी
नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कर दी ।
जब मैं आचार्य जी से मिलने गया तो उन्होंने
मुझसे कहा -- केदार से कहो आकर ज्वाइन
करें । लेकिन केदार जी ने कहा - देखा , हम
अब एहिजा से कहीं जाइब ना ।
बाद में उनकी पत्नी बीमार पड़ गयीं ।
उन्हें लीवर कैंसर हो गया ।
वह नहीं रहीं ।
तभी नामवर जी ने उन्हें जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय बुला लिया ।
गांव में उनकी आत्मा बसती थी ।
जेएनयू के दिनों में भी वह जब तब भाग कर
गांव चले आते थे ।
भारतीय कविता का सूर्यास्त हो गया ( यह कहते 
नीरन जी की हिचकी सुनाई देने लगी , आवाज भर्रा गयी )
बोल दीजिये ना केदार जी --
आता हूं ।
भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह

भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह

स्मृति 
भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा हैं : केदारनाथ सिंह 
संजय तिवारी 
बलिया , बनारस , पडरौना , गोरखपुर से होते हुए दिल्ली में ठहर गए। इस ठहराव में माटी और माटी की बोली उनकी थाती रही। उसी की सोंधी सुगन्धि पूरी  दुनिया में पसराते लोगो को भरोसा दिलाते रहे कि जड़ो में जमे रह कर ही जीवन को धन्य बनाया जा सकता है , कट कर नहीं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली आदि अनेक देशों की यात्राएं कीं। लेकिन अपने गांव-घर से जो संवेदना उन्हें मिली थी, उसे महानगर तक पहुंचने के बाद भी उन्होंने कभी नहीं बिसराया, बल्कि और मजबूती से अपनी कविताओं में उतारा। उनकी कविता में एक ओर ग्रामीण जनजीवन की सहज लय रची-बसी, तो दूसरी ओर महानगरीय संस्कृति के बढ़ते असर के कारण ग्रामीण जनजीवन की पारंपरिक संवेदना में आ रहे बदलाव भी रेखांकित हुए।

वास्तव में केदारनाथ सिंह  ने अपनी कविताओं में गांव और शहर के बीच खड़े आदमी के जीवन में इस स्थिति के कारण उपजे विरोधाभास को अपूर्व तरीके से व्यक्त किया। एक बार उन्होंने काफी विस्तार से खुद की यात्रा पर कहा था - काफी उतार चढ़ाव आया मेरे जीवन में , बलिया के अति पिछड़े गाँव के एक किसान परिवार में जन्म से लेकर जे0 एन0 यू0 तक की यात्रा और आज ज्ञानपीठ सम्मान तक सहज नहीं रहा सबकुछ मेरे लिए ! बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी मैंने जीवन में। मैंने 1969 में अपनी पहली नौकरी पडरौना के एक कॉलेज में शुरू किया था,यह मेरे जीवन में आर्थिक संकट का भी दौर था 1969 से 1975 तक मैंने तमाम संकटो और दुखो का सामना किया पडरौना में नौकरी के दौरान ही मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड़ी, मैंने अपनी क्षमता के अनुसार उनका इलाज करवाया किन्तु वह काफी न था उनके लिए और उनकी बीमारी बढ़ती चली गई इसी बीच मै कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया और उधर पत्नी की तबियत ज्यादे बिगड़ गई मै चाह कर भी उन्हें बचा न पाया ! यह मेरे जीवन की अपूर्णीय क्षति रही जिसकी भरपाई मै नहीं कर पाया।  पत्नी के निधन के 36 साल बाद भी मै उन्हें विस्मृत नहीं कर पाया उनकी मौजूदगी हर पल हर स्थिति में महसूस  करता हूँ मै , पत्नी के निधन के बाद पत्नी की रिक्तता खली वैवाहिक जीवन शुरू करू ऐसी कोई इच्छा  नहीं हुई मेरी , तबसे अकेला रहा।  मैंने यह प्रण लिया की जीवन में दुबारा मै विवाह नहीं करूँगा, मैंने अपने इस प्रण को पूरा भी किया मै अविवाहित रहा ! मेरी 5 बेटियां और एक बेटा है ! बेटियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर, शादी के बाद शिक्षण कार्य में है और बेटा दिल्ली में ही भारत सरकार की उच्च सेवा में है ! शुरुआती दिनों में मैंने रीडर के रूप में दो वर्ष तक गोरखपुर के सेंटएंड्रयूज कॉलेज में भी अपनी सेवा दिया था ! वर्ष 1976 के अंत में मेरी नियुक्ति जे0 एन0 यू0 में हुई ! यहाँ पर मैंने 1976 से लेकर वर्ष 2000 यानी अपने रिटायरमेंट तक अपनी सेवा दिया। अब तो दिल्ली का मुझसे और मेरा दिल्ली से कुछ ऐसा रिश्ता बन गया है कि  मै दिल्ली का ही होकर रह गया। 
साहित्य  में जब उन्हें लोग जनकवि की संज्ञा देने लगते थे तब वह बहुत दुखी हो जाते। कहते - जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया हूँ यह नहीं जानता. जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए। लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं। मेरी जड़ें ही मेरी ताक़त है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा उन्हीं के बिना पर कर पाऊँगा।

केदारनाथ सिंह हिंदी के ऐसे र्चुंनदा कवियों में रहे जिनकी रचनाओं का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ। असाधारण ख्याति के बावजूद शख्सियत ऐसी थी कि आखिरी क्षणों तक जड़ों को नहीं भूले। वह दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए भी गांव चकिया (बलिया) को जीते रहे। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जब उनके संस्मरणों पर केंद्रित एक पुस्तक प्रकाशित की गई तो उसका नाम भी उनके जन्मस्थान से जोड़कर चकिया से दिल्ली रखा गया। वह जितने गांव के कवि थे उतने ही शहर के भी थे। वह हिंदी में लिखते थे, दुनियाभर में पढ़े जाते थे। लेकिन अपनी मातृभाषा भोजपुरी को उन्होंने हमेशा अपनाए रखा। विश्व भोजपुरी  अध्यक्ष अजित दुबे की भोजपुरी पर केंद्रित पुस्तक की उन्होंने न केवल भूमिका लिखी , उसका विमोचन भी केदार जी ने सवयं किया। 
वह कहा करते थे - मैं मानता हूं कि देश की सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं. हमारे संविधान के निर्माताओं ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था. उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं कहा, उन्होंने इसे राज भाषा कहा और यह कहते हुए उन्होंने कहीं न कहीं इस बात की संभावना छोड़ दी कि भारत की हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, गुजराती समेत सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं। ये सभी राष्ट्र की भाषा हैं इसलिए ये राष्ट्र भाषा हैं. मैं इसे इसी रूप में मानता हूँ। हिंदी या अन्य किसी भाषा को दूसरों पर लादने का सवाल नहीं पैदा होता. यह उचित नहीं है और सारी भाषाओं का साहित्य मेरा साहित्य है। मैं विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भारतीय साहित्य पढ़ाता रहा हूं. मैं मानता हूं कि पूरा भारतीय साहित्य एक है। राधाकृष्णन ने भारतीय साहित्य की एक परिभाषा दी थी, साहित्य अकादमी का आदर्श वाक्य है और उसे मैं अपने आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार करता हूं. उन्होंने कहा था, ''भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है। मैं भाषाओं की अनेकता को स्वीकार करता हूं. बड़ी भाषा और छोटी भाषा का सवाल नहीं है. हिंदी सारी भारतीय भाषाओं की बहन है इसलिए छोटी बहन, बड़ी बहन का सवाल पैदा नहीं होता। 
केंद्र में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब उनसे लोगो ने उनकी भावना जानने का प्रयास किया। चर्चित जवाहर लाल विश्वविद्यालय के इस अध्येयता विद्वान की दृष्टि बहुत स्पष्ट थी। वह कहते थे की वर्तमान भारत सरकार के विकास मार्ग को दूरदर्शी सोच मानना होगा देश में समस्याएं जड़ जमा चुकी है उनसे निजात पाने के लिए अगर जनता ने आपको चुना है आप पर विस्वास किया है तो आप को भी जनता के विस्वास पर खरा उतारना होगा वर्ना देश विनाश की तरफ बढ़ जायेगा।  साथ ही जनता साहित्यकार और प्रबुद्ध जान को भी अपने हक़ के प्रति सजग होना होगा मुखर होना होगा जहा गलत लगे विरोध का स्वर उठाना होगा।  विकास का मार्ग धीमी गति से हो तो सफलता मिलती है, किन्तु इतनी भी धीमी गति न हो की विकास की तस्वीर धुँधली ही रह जाए ! यह भी याद रखना होगा द्रुत गति से विकास होने के चक्कर में गति इतनी द्रुत न हो जाए की देश विनास के रास्ते पर चल पड़े। वह मानते थे कि  मोदी सरकार के सामने चुनौती ज्यादे है और जनता की अपेक्षाएं भी बहुत है उनसे , अतः मोदी सरकार को दोनों के लिए दूरदर्शिता और पारदर्शिता का परिचय देना होगा ! नई मोदी सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करने के बजाय थोड़ा धैर्य रखना होगा हमे साथ ही जो गलत लगे उसपर अपनी अभिब्यक्ति भी देनी होगी। 
साहित्य को लेकर वह हमेशा सतर्क थे। कहते थे -साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध  है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। हां वर्तमान में साहित्यकार के सामने चुनौतियां ज्यादे है उसे अपने दाइत्वा के प्रति सतर्क होना होगा तभी समाज के साथ और साहित्य के साथ न्याय कर पायेगा वह।  समाज के बिना साहित्य की कल्पना नहीं हो सकती और समाज है तो साहित्य की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।  प्रायः कहा जा रहा है साहित्यकार ख्याति पाने के लिए साहित्य रच रहा है वर्तमान में , किन्तू यह काल्पनिक सत्य जैसा है वर्तमान में भी अच्छी रचनाये हो रही है। 
केदार जी से एक बार पूछा गया कि हिंदी को लेकर एक और सवाल उठता रहा है कि यह न तो बाज़ार की भाषा बन पाई और न जनसंवाद की भाषा बन पाई तो इस दौर में हिंदी को जनसंवाद या रोज़गार मूलक भाषा बनाने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है? इस पर उन्होंने कहा था - हिंदी बाज़ार की भाषा है. मैं इसे ज़ोर देकर इसलिए कहना चाहता हूं कि कुछ दिन पहले मेरे पास देश की एक बहुत बड़ी विज्ञापन संस्था में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी आईं। यह संस्था अपने सारे विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनाती रही है. उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ एक समस्या पैदा हो गई है. हम बाज़ार के लिए विज्ञापन तैयार करते हैं और ज़्यादातर अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं। मुश्किल यह है कि वृहत्तर भारत में सिर्फ अंग्रेज़ी से काम नहीं चलेगा. बड़े शहरों में तो काम चल जाएगा, लेकिन देश अन्य छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचने के लिए हिंदी की ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ी और हिंदी में तैयार होने वाले सारे विज्ञापनों का पूरा अनुपात बदल गया है. पहले 80 प्रतिशत विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनते थे अब वे घट कर 50 प्रतिशत पर आ गए हैं. जबकि हिंदी के विज्ञापन 20 प्रतिशत तक ही होते थे, लेकिन वे बढ़कर अब 50 प्रतिशत हो गए हैं। बाज़ार में तो हिंदी पहुँच चुकी है और छोटे शहरों व कस्बों में वो अपनी जगह बना चुकी है. जहां तक महानगरों का सवाल है, वह एक बड़ा बाज़ार है- जिसे वैश्विक बाज़ार भी कह सकते हैं। यह तथ्य है कि हिंदी वहां अपनी जगह नहीं बना पाई है. वहां उसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है. यहाँ अंग्रेज़ी से काम चल जाता है क्योंकि यहां हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है जैसे चीन या जापान की भाषा. वहां की भाषाएं बाज़ार की अनिवार्यता हैं। इसे मैं एक भाषिक असंतुलन कहूंगा. मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी स्थिति है कि यह लंबे समय तक चलती रहेगी. इसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन इतना ज़रूर है कि एक बड़े पैमाने पर हिंदी अपनी जगह बना चुकी है। 
एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था कि आपके नए काव्य संग्रह सृष्टि की रचना में एक कविता है- विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है. क्या विज्ञान के प्रति हिंदी में जो नैराश्य भाव है वह बरकरार रहेगा या हिंदी विज्ञान को आत्मसात कर पाएगी या वह वैज्ञानिक लेखन की भाषा बन पाएगी? इस पर केदार जी ने कहा -'विज्ञान के अंधेरे…' का आशय विज्ञान के विरुद्ध नहीं है. यह एक सामान्य अनुभव है. जैसे सोते समय आप बत्ती बुझा देते हैं और अंधेरे में अच्छी नींद आती है. इसका सामान्यीकरण मत कीजिए। यह विज्ञान की स्वीकृति के पक्ष में है. इस कविता में ट्रेन और वायुयान के महत्व को स्वीकार करते हुए अंत में यह पंक्ति आती है। विज्ञान की भाषा बनने का जहाँ तक सवाल है, वह एक बड़ा सवाल है. हिंदी अभी तक विज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है. इसका एक बड़ा कारण है कि शिक्षा के बड़े संस्थान- विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में विज्ञान की पढ़ाई आज भी अंग्रेज़ी में होती है। अभी भाषिक विकल्प की तलाश नहीं की गई है. इसे मैं बहुत सुखद स्थिति नहीं मानता हूं. अगर भारतीय भाषाओं का इस्लेमाल हो सके और उन्हें इसके सक्षम बनाया जा सके तो यह संभव हो सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. हमारे शिक्षा जगत का ढर्रा अंग्रेज़ी के अनुकूल बैठता है. इसके लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को प्रयास करना होगा। 

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह

अभी बिल्कुल अभी
जमीन पक रही है
यहाँ से देखो
बाघ
अकाल में सारस
उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
तालस्ताय और साइकिल
सृष्टि पर पहरा

आलोचना

कल्पना और छायावाद
आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
मेरे समय के शब्द
मेरे साक्षात्कार

संपादन

ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ
कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

पुरस्कार

केदारनाथ सिंह को मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि पुरस्कारों मिल चुके हैं।
 

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और तब अक्सर होती रहेगी , हां रहेगी ही कोई न कोई कविता । उनकी कविता की एक पंक्ति बेतरह कचोट रही है -- मेरी छाती में बंद , मेरी छोटी - सी पूंजी जिसे रोज मैं थोड़ा - थोड़ा खर्च कर देता हूं ....। अपनी छोटी -सी पूंजी जिसे वह थोड़ा - थोड़ा रोज खर्च कर देते थे , आखिर कल शाम तकरीबन 9 बजे पूरी तरह खत्म हो गयी । वह चले गये । जाना हिंदी की सबसे त्रासद और घातक क्रिया है । अपने पत्रकारीय यात्रा के क्रम में कोलकाता प्रवास के दौरान मैंने सीखा था -- आमी आसच्चि । जाता हूं या चलता हूं , कहना वहां अच्छा  नहीं माना जाता । केदार जी कह दीजिये ना -- आता हूं । हम तो हमेशा आपका आना सुनते रहने के अभ्यस्त थे । कविता का आना सुनने के , जो फलियों में धीरे - धीरे रस की तरह आती और लहरा कर पकती थी ।
राघवेंद्र दुबे , वरिष्ठ पत्रकार 

पंडित विद्यानिवास मिश्र के देहावसान के बाद दूसरी बार कल वह खुद को उलीच - उलीच कर रोये थे । 50 साल का सम्बन्ध था हमारा , उनका । वह उदित नारायन स्नातकोत्तर महाविद्यालय पडरौना में हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष थे । मैं बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय कुशीनगर में हिंदी विभाग का अध्यक्ष था । हम दोनों हर रविवार मिलते थे । उनकी थीसिस ' हिंदी कविता में बिंब विधान ' के परीक्षक थे डॉ. नगेन्द्र । उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को फोन करके कहा - जिस लड़के की यह थीसिस है , उसे दिल्ली भेजिए , में उसकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय करना चाहता हूं । केदार जी ने दिल्ली जाना माना कर दिया । 1973 में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनकी नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कर दी । जब मैं आचार्य जी से मिलने गया तो उन्होंने मुझसे कहा -- केदार से कहो आकर ज्वाइन करें । लेकिन केदार जी ने कहा - देखा , हम अब एहिजा से कहीं जाइब ना । बाद में उनकी पत्नी बीमार पड़ गयीं । उन्हें लीवर कैंसर हो गया । वह नहीं रहीं । तभी नामवर जी ने उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बुला लिया । गांव में उनकी आत्मा बसती थी । जेएनयू के दिनों में भी वह जब तब भाग कर गांव चले आते थे । भारतीय कविता का सूर्यास्त हो गया।  बोल दीजिये ना केदार जी -- आता हूं ।
डॉ. अरुणेश नीरन, मित्र 
अभिशप्त ब्रह्माण्डनायक

अभिशप्त ब्रह्माण्डनायक


अभिशप्त ब्रह्माण्डनायक


संजय तिवारी 
वह अखिल ब्रह्माण्डनायक हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। अवतार हैं। साक्षात नारायण हैं। सर्वशक्तिमान हैं। त्रिपादविभूति के  अधीश्वर हैं। प्राचेतस के नायक हैं। तुलसी के आदर्श हैं। लोक के उत्तम पुरुष हैं। स़ृष्टि के अधिष्ठाता हैं। इतना सब के बाद भी लगता है, अभिशप्त हैं। लोक जीवन और लोक दृष्टि में कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। रामकथा सभी जानते हैं। राम के जीवन की हर घटना से लगभग यह जगत भी उतना ही वाकिफ है जितना उनके समय में रहा होगा। किसी न किसी रूप में वह विश्व के मर्यादा पुरूष हैं।
यह सब लिखने का और इसे स्मरण करने का कोई ऐसा कारण नहीं है। बरबस बहुत सी बातें याद आने लगती हैं इन बातों को कारण की तलाश होती है। इन कारणों को जानना जरूरी भी है और गैरजरूरी भी। वह जितने जगत के नायक हैं उतने ही जगत की किसी भी एक ईकाई के लिए भी। इसलिए भी उनकी उपस्थिति और स्थापना मानस में रहेगी ही। एक पुत्र के रूप में, एक पति के रूप में, एक राजा के रूप में, एक शिष्य के रूप में, एक शासक के रूप में, एक योद्धा के रूप में  और लोक में स्थापित और भी कई रूपों में उनकी उपस्थिति का मूल्यांकन होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। तब तक जब तक यह सृष्टि चलेगी।
जब से यह नवरात्र शुरू हुआ है तभी से एक बेचैनी सी है। इस बार फिर 25 मार्च को यह जगत उसी राम का जन्मदिवस मनाएगा। वहां भी मनाया जाएगा जहा उन्होंने जन्म लिया था। सनातन समाज फिर रामनवमी की पूजा करेगा।  व्रत होगा। आरती होगी। प्रसाद बाटेंगे। कीर्तन जाएंगे। सबकुछ जश्न की तरह ही होगा लेकिन बिचारे राम उसी अपनी अयोध्या के खंडहरों में ,तिरपाल के तम्बू में रहते हुए सबकुछ चुपचाप देखेंगे। अपनी सन्तानो के झूठे संकल्पों की परिणति भी देखेंगे। उनके भव्य प्रासाद भी , सिंहासनो की शौकत भी , सत्ताएं भी , निर्लज्ज अहंकार भी , छलिया भाव  भी , प्रपंची प्रभाव भी। 
यह राम की विवशता है। जब राज्य मिलना था उसी दिन से उनके विरूद्ध साजिशे शुरू हो गयीं थीं।  उससे पूर्व सब ठीक था। अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। सभी में ज्येष्ठ भ्राता थे। आनंद पूर्वक जीवन चल रहा था। विवाह हुआ। घर , परिवार और राज्य चल रहा था। लेकिन जब राज्य पाने की बारी आयी तभी से लीला शुरू हो गयी। बनवास मिला।  पिता ने प्राण त्याग दिए। पत्नी का अपहरण हो गया। सैकड़ो युद्ध करने पड़े। बड़ी मुश्किल से बनवास से लौटे तो राज्य की जिम्मेदारी आ गयी। राज्य मिलते ही लोक के प्रश्नो ने इतना आहत किया कि गर्भवती पत्नी को वन में छोड़ना पड़ा। जिस पत्नी के लिए सारा समुद्र लांघ कर लंका को भी विध्वंस किया था उसी पत्नी को इस विकत अवस्था में वन में छोड़ना पड़ा। राज्य और लोक के प्रश्नो का इसी में हल दिखा। 
उस अभिशप्त नायक की व्यथा यहीं नहीं रुकी। दो नन्हे पुत्रो से युद्ध की भी स्थिति आ गयी। वह तो भला हो सीता का , जिसने पुत्रो का पिता से परिचय करा दिया। उस दिन राम को रघुकुल की उस रीति पर शायद दुःख भी हुआ होगा और आक्रोश भी उपजा होगा - प्राण जाय पर वचन ना जाय। उन्हें भीतर से कैसा लगा होगा ? जब वह वन में गए थे तो पिता ने प्राण त्याग दिए थे।  लेकिन सीता के गर्भ में लव और कुश थे , उस सीता को उन्होंने लोक के प्रश्न पर वन में छोड़ दिया। जिस लोक के लिए उन्होंने यह सब किया , क्या वह लोक राम की पीड़ा समझ सका ?
 सीता के भी उलाहने रहे होंगे जब वह धरती में समां रही होंगी। क्या मिला इस नारी को ? विवाह के तत्काल बाद वन ? अपहरण ? यातना ? फिर लौटी भी तो पति ने वन में ही छोड़ दिया। ब्रह्मर्षि बाल्मीकि की कुटिया में पाली बच्चो को। 
आज भी वही अयोध्या है।  वही सरयू।  वही मिटटी।  वही हवा।  वही आकाश।  वही जल।  वही लोक।  वही भारत।  वही आर्यावर्त।  वही जम्बूदीप। वही कौशलपुरी। युग बीत चुके।  सदियाँ  बीत चुकीं। एगो के साथ सत्ताओ ने जन्म लिया।  मरी भी। सनातन का वही लोक अपने उसी मर्यादा पुरुषोत्तम की जीवन गाथा गाता  चला आ रहा है। बहुत ऐसे भी हुए जिन्होंने उसी जीवन गाथा को गाकर बहुत कुछ अर्जित किया। आज भी कर रहे हैं। बहुत से संत महात्मा भी आये। चले भी गए। श्रीरामजन्मभूमि के लिए चितसंकल्प लिए गए। लोग चक्रवर्ती बने। लेकिन अभिशप्त इस महानायक को किसी ने उसकी जन्मभूमि नहीं लौटाई।  जो जगत का अधीश्वर है उसके जन्म स्थल का निर्धारण भी अब लोक करना चाहता है। 
आखिर छले जाने का भी कोई अंत तो होगा ? पहले विचारधारा कमजोर थी। सरकार नहीं थी।  अब विचारधारा भी है और सरकार भी है।  पहले बहुमत नहीं था।  अब बहुमत भी है। केवल बहुमत ही नहीं बल्कि देश के बीस राज्यों में भी वही प्रचंड पथ है। पहले नायक सरीखे सम्राट नहीं थे।  अब सम्राट भी हैं और राष्ट्र नायक भी। जिस लोक के प्रश्न हल करते राम ने सीता तक को त्याग दिया था ,  लोक के उन्ही प्रश्नो पर आज के सत्ता पुरुष सिंहासन त्याग सकेंगे क्या ? आखिर किस मुँह से फिर लोक बोल सकेगा - जय श्रीराम।