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डी लुक और गर्माहट भरे शॉल और स्टोल


इन दिनों सर्दी का मौसम है! जल्दी ही जोरदार सर्दी अपना रंग दिखाना शुरू कर देगी। ऐसे में आप चाहती हैं कि सर्दी भी ना लगे और आपका स्टाइल भी हैपनिंग बना रहे तो यह ज्यादा मुश्किल नहीं है। जब बात हो सर्दियों में गर्माहट की तो स्टोल/शॉल सर्दी में गर्म अहसास देने के साथ ही ट्रेंडी लुक भी देते हैं।  
इनके बिना सर्दियों में पहनावा अधूरा सा लगता है। आप घरेलू हों, कॉलेज गोइंग या हों कामकाजी, रंग-बिरंगे शॉल या स्टोल के बिना बात नहीं बनती। पर उलझन में हैं कि किस पहनावे के साथ क्या जचेगा तो हम आपकी मुश्किल दूर किये देते हैं। 
यूं तो बाजार में बहुत प्रकार के शॉल उपलब्ध होते हैं पर अपने पहनावे के हिसाब लिया गया शॉल जहां आपकी सुन्दरता में चार चांद लगता है, वहीं गलत चुनाव से आपका पूरा पहनावा अस्त-व्यस्त लग सकता है। पारम्परिक या स्थानीय शॉल/ स्टोल न केवल आपके भारतीय पहनावे को पूरा करते हैं, चयन में थोड़ी सावधानी बरत कर आप इन्हें पाश्चात्य परिधानों के साथ पहन कर भी खुद को दे सकती हैं एक अलग अंदाज!



पश्मीना शॉल 
बात शॉल की हो और कश्मीर के सुप्रसिद्ध पश्मीना शॉल का जिक्र न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। असल पश्मीना धागे से बुने गए ये शॉल न केवल बेहद गर्म, साथ ही बेहद खूबसूरत भी होते हैं। हर उम्र, हर अवसर के लिए एक रंग से लेकर विभिन्न मनमोहक रंगों में बुनावट के साथ-साथ ये शॉल हर वार्डरोब में शामिल होने के लायक हैं। गहरे चटख रंगों में बरसों से सबकी पसंद बने पश्मीना शॉल अब आपको हलके रंगों में भी मिल जायेंगे।
सिल्क शॉल हर रोज ऑफिस में पहनना हो या शादियों के इस मौसम में किसी शादी में जाना हो, सिल्क शॉल आपके पहनावे को पूरा कर एक अलग ही लुक देंगे। जहां सलवार सूट और साड़ी जैसे भारतीय परिधान पर थोड़ा कढ़ाईदार सिल्क शॉल उपयुक्त है, वहीं जीन्स आदि पश्चिमी परिधानों पर आप प्लेन, धारीदार, चेक, ब्लॉक प्रिंट के सिल्क स्टोल से अपने लुक को निखार सकती हैं।
वूलेन शॉल वूलेन शॉल / स्टोल में हर शहर के बाजार में विस्तृत रेंज उपलब्ध है। जहां धागे से मशीन द्वारा बुने गए शॉल हर भारतीय स्त्री की वार्डरोब में पाए जाते हैं। वहीं हाथ से बुने हुए ऊन के शाल भी अब दोबारा फैशन में हैं। रोजाना पहनने से लेकर शादी-पार्टी के अवसर तक परिधान से मैच करते वूलेन शॉल के बिना सर्दियों का मजा अधूरा है। क्रोशिया द्वारा बुने गए शॉल आप सूट, साड़ी के साथ लें या जीन्स के साथ कैरी करें, आपको लुक को कम्पलीट करने के साथ-साथ ये आपको गर्माहट भी देते हैं! 
फर स्टोल 
फर स्टोल का जादू किसके सर चढ़ कर नहीं बोलता। कड़ाकेदार सर्दी में भी यदि आप जीन्स के साथ किसी भी तरह के स्टोल कैरी करने को लेकर संशय में हैं तो बेझिझक एक फर स्टोल को गले लगा लिजिए कोई भी आपके अंदाज को नजरअंदाज नहीं कर पाएगा। डिजाईन के चयन को लेकर आपको थोड़ी सावधानी बरतनी होगी। यदि आप प्रिंटेड स्वेटर, ब्लेजर या कोट पहन रही हैं तो उसके साथ प्लेन फर स्टोल का चयन आपको एलीगेंट लुक देगा और यदि आप चाहती हैं ग्लैमरस लुक तो प्लेन जीन्स कोट के साथ बोल्ड प्रिंट का फर स्टोल चुनें।

सर्दियों में इन बूट्स से खुद 
को दें स्टाइलिश लुक
सर्दी के मौसम में जहां कपड़ों के मामले में पहनने-ओढऩे का अंदाज बदल जाता है, वहीं फुटवियर को लेकर भी काफी कुछ बदल जाता है। सर्दियों में लॉग बूट्स का चलन आमतौर पर बढ़ जाता है। पहले जहां लॉग बूट्स में काले, भूरे और सफेद जैसे गिने-चुने रंग ही पहने जाते थे, वहीं अब सर्दियों में बूट्स में कई चटख रंग देखने को मिल रहे हैं। शायद यही वजह है कि इस बार सर्दियों में लड़कियों का रूझान लांग बूट्स की तरफ ज्यादा है। सर्दियों के बदलते फैशन में लांग बूट्स की मांग बढ़ जाती है, क्योंकि यह सर्द मौसम में पैरों को सुरक्षा देने के साथ-साथ पर्सनालिटी को एक स्टाइल स्टेटमेंट भी देते हैं। बूट्स की खासियत यह भी है कि स्कर्ट हो या जींस, यह सभी के साथ अच्छे लगते हैं।

 फैशन स्टेटस है

हेयर कलर 
खूबसूरत बाल अपके लुक को आकर्षक बना देते हैं। बालों का रंग कैसा हो जो आपके व्यक्तित्व पर फिट बैठे अलग-अलग तरह के कलर प्रयोग करने के पहले कुछ जरूरी बातें जान लेना जरूरी है


बालों को केवल जवां दिखने के लिए ही नहीं रंगा जाता। आजकल हेयर कलर एक फैशन स्टेट्स बन चुका है। अब वह पुराने समय की बात हो गई है, जब बालों को काले रंग से रंगा जाता था। लोग अपने लुक्स को लेकर किसी भी तरह के एक्सपेरीमेंट से नहीं डरते। सबसे बड़ा कनफ्यूजन इस बात को लेकर होता है कि बालों के लिए कौन सा कलर परफेक्ट होगा। बाजार में हर तरह के हेयर कलर मौजूद है बस जरूरत है सही पहचान की। हेयर कलर चुनने से पहले आपको कई बातों का खयाल रखना पड़ता है। सिर्फ बालों को कलर करना ही फैशन नहीं है उससे भी ज्यादा जरूरी है उस हेयर कलर का आपके चेहरे से मेल। इसी समस्या के समाधान के लिए हम आपको बता रहे हैं कुछ ऐसे टिप्स जो आपको सही हेयर कलर चुनने में मदद करेंगे।
क्या आपको सूट करेगा ब्राउन हेयर कलर
आपको अपनी स्किन टोन के हिसाब से बालों में कलर कराना चाहिए।
बालों को नेचुरल लुक देना चाहते हैं तो ब्राउन कलर अच्छा रहेगा।
आप बालों में जो कलर कराएं वह अच्छी क्वालिटी का होना चाहिए।
हेयर कलर के बाद परेशानी होने पर तुरंत त्वचा रोग विशेषज्ञ से मिलें।
बाल आपकी खूबसुरती को निखार भी सकते हैं और उसे बिगाड़ भी सकते हैं। बाल लोगों की पर्सनैल्टी के लिए काफी मायने रखते हैं। एक हेयर कट आपको टफ लुक भी दे सकता है और कोमल लुक भी। ऐसे में अगर बालों को कलर कर सकते हैं तो ध्यान रखें, क्योंकि बालों की कलरिंग पर्सनैल्टी को काफी स्ट्रॉन्ग बना देती है। बालों को कलर करने का चलन पिछले कुछ सालों से बढ़ा भी है। लेकिन चलन के अनुसार आप तभी चलते हुए दिखाई देंगे जब वो आप पर फबेगा। ऐसे में बालों को अच्छा लुक देने के लिए अच्छे कलर का चुनाव करें।

ब्राउन हेयर कलर का फैशन
बालों को कलरफुल कराने के लिए आमतौर पर ब्राउन कलर को सबसे ज्यादा यूज किया जाता है। बाजार में इसके कई शेड्स आते हैं। आप भी अपनी स्किन टोन के हिसाब से कलर का शेड पसंद कर सकते हैं। चॉकलेट ब्राउन, ब्राउन विद हनी गोल्ड, गोल्ड, रेड विद  हनी गोल्ड, रेड विद ऑरेंज कलर जैसे शेड्स में से आप अपनी पसंद का कलर चुन सकते हैं। ब्लॉन्ड हेयर का क्रेज भी बढ़ा है। बालों में ग्लोबल कलर करवाना भी युवाओं को पसंद आता है। इसमें बालों को कलर करके स्ट्रीकिंग की जाती हैं। इनमें ब्राउन कलर से ग्लोबल और हनी गोल्ड से स्ट्रीकिंग करना अच्छा लगता है। इसी तरह रेड के साथ हनी गोल्ड का तालमेल भी खूबसूरत लगता है। कुछ लोग सिर्फ स्ट्रीकिंग कराना पसंद करते हैं। इसमें बालों की कुछ लटें निकालकर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर उन्हें कलर किया जाता है। स्ट्रीकिंग से मिलता-जुलता हेयर लाइटनिंग भी है जिसमें सिर के आगे के कुछ बालों को बाकी हेयर्स की अपेक्षा थोड़ा लाइट कलर किया जाता है, जिससे नया लुक मिलता है।
हेयर कलर चुनते समय इन बातों का रखें ध्यान
अगर आप बालों को बहुत ज्यादा हाइलाइट नहीं करना चाहती तो ब्राउन शेड की मदद ले सकती हैं। ब्राउन शेड के हेयर कलर बालों को प्राकृतिक रुप देते हैं, क्योंकि हर किसी के बाल बिल्कुल काले नहीं होते। ऐसे में अगर आप ब्लैक हेयर कलर का प्रयोग करेंगी तो आपके बाल नेचुरल नहीं लगेंगे।
जिन लोगों का रंग गोरा होता है उन्हें ब्लैक हेयर कलर के प्रयोग से बचना चाहिए। ऐसे लोग अगर ब्राउन हेयर कलर के शेड्स का प्रयोग करेंगे तो वे ज्यादा खूबसूरत दिखेंगे। आप बढ़ती उम्र के हिसाब से हेयर कलर का चुनाव करें तो ब्राउन कलर बेहतर होगा। अगर आप युवा हैं तो कोई भी ब्राइट रंग आप पर अच्छा लगेगा। यदि आप उम्र दराज हैं तो आप पर डार्क शेड ही अच्छा लगेगा।
लंबे बालों में वैसे तो हर तरह का हेयर कलर सूट करता है लेकिन ब्राउन शेड खासकर इस स्टाइल पर जंचता है। इस हेयर कलर में आपके बालों में सॉफ्ट वेव्स दिखेंगी। साथ ही आपके बाल रूट्स से ही बाउंसी दिखेंगे।


आत्‍मविश्‍वासी लड़कियों में होती हैं ये 5 बातें


सामान्‍य लड़कियों की तुलना में आत्‍मविश्‍वास से भरपूर लड़की की छवि थोड़ा अलग होती है। उसकी बातें और उसकी आदतें भी ये दर्शाती हैं कि उसके अंदर आत्‍मविश्‍वास कूट-कूटकर भरा है। इस स्‍लाइडशो में हम आपको बता रहे हैं कि आत्‍मविश्‍वासी लड़कियों में क्‍या-क्‍या बातें होती हैं।


 आत्‍मविश्‍वासी होने के संके
आत्मविश्‍वास यानी कांफिडेंस किसी की उम्र या फिर स्‍त्री पुरुष देखकर नहीं आता, यह अपने अंदर खुद से पैदा किया जाता है। वर्तमान में लड़कियां लड़कों से आगे बढ़ रहीं हैं और नित नये कीर्तिमान भी स्‍थापित कर रही हैं। सामान्‍य लड़कियों की तुलना में आत्‍मविश्‍वास से भरपूर लड़की की छवि थोड़ा अलग होती है। उसकी बातें और उसकी आदतें भी ये दर्शाती हैं कि उसके अंदर आत्‍मविश्‍वास कूट-कूटकर भरा है। इस स्‍लाइडशो में हम आपको बता रहे हैं कि आत्‍मविश्‍वासी लड़कियों में क्‍या-क्‍या बातें होती है
असफलता से न घबराना
असफलता मिलने के बाद लोग प्रयास करना बंद कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ जिनके अंदर एक अलग जज्‍बा होता है वे असफलता से घबराते नहीं बल्कि एक सीख लेकर दोबारा प्रयास करते हैं। कांफिडेंट और दृढ़निश्‍चयी लड़कियों का भी यही फलसफा है। वे असफलता से सीखतीं हैं और दोबारा प्रयास कर सफलता अर्जित करने पर विश्‍वास करती हैं। 
दूसरी लड़कियों से थोड़ा हटकर
ऐसी लड़कियों के हर काम में उनका आत्‍मविश्‍वास दिखता है, यानी वे सामान्‍य लड़कियों की तुलना में बेहतर तरीके से काम करती हैं। उनकी पंसद की किताबें और उनके बात करने का अंदाज भी अलग होता है। ऐसी लड़कियों में कई बार उनसे अधिक उनका आत्‍मविश्‍वास बोलता है। 
सभी के लिए दरवाजे खुले नहीं हैं
ऐसी लड़कियों की जिंदगी में हर कोई आसानी से शामिल नहीं हो सकता है। यानी ऐसी लड़कियां हर मामले में थोड़ा चूजी होती हैं। वे दोस्तों की लिस्ट भी बस यूं ही नहीं बढ़ा लेतीं। दोस्त काफी सोच-समझकर बनाती हैं। इसके अलावा उनकी जिंदगी के कुछ उसूल होते हैं जो दूसरों से हटकर होते हैं। 
अपनी वैल्‍यू समझती हैं
इस दुनिया में सबसे अधिक कीमती चीज है इंसान की वैल्‍यू, जो अपनी वैल्‍यू समझ गया समझो उससे धनी दूसरा कोई नहीं। आत्‍मविश्‍वासी लड़कियों को भी उनकी वैल्‍यू पता होती है। वे अच्‍छे से जानती हैं कि उनके लिए कौन सा काम आसान है और कौन सा काम कठिन है। उनको अपना मजबूत पक्ष और अपना कमजोर पक्ष दोनों पता है।
खुद पर निर्भर रहती हैं
हमारा समाज पुरुष प्रधान रहा है और लड़कियां हमेशा पुरुषों पर निर्भर रहती आ रही हैं। लेकिन जमाना बदल रहा है और लड़कियां अब खुद पर निर्भर रहना सीख गई हैं। आत्‍मविश्‍वासी लड़कियां इस मामले में अव्‍वल हैं, वे दूसरों पर नहीं बल्कि खुद पर निर्भर रहती हैं। वे किसी काम को करने के लिए भी किसी का इंतजार नहीं करती। वे अपना खयाल खुद रखती हैं और अपने बारे में अच्‍छे और बुरे का फर्क भी करना जानती हैं। 

जीवनसाथी को लेकर बदल रही हैं पसंद
कैसा जीवनसाथी चाहते हैं आज के युवा
सातवें भाव में छुपा है जीवनसाथी का राज
आपको कैसा लाइफ पार्टनर चाहिए? अब वे दिन लद गए जब माता-पिता अपने..
मैच मैकिंग सर्विस के एक सदस्य ने बताया कि आज कल शादी के मामले में लोगों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। अब लड़के-लड़कियों की प्राथमिकताएं अपने भावी जीवनसाथी को लेकर काफी बदल गई हैं। वे सोचते हैं कि जो..
मैच मैकिंग सर्विस के खन्ना ने कहा, 'मैं कई साल से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूं लेकिन हर लड़की के माता-पिता ने मुझसे यह जरूर कहा है कि लड़के के पास अपना मकान जरूर होना चाहिए। तनख्वाह कितनी भी हो,

शास्त्री ने बताया कि अब एक अच्छी बात यह देखने में आई है कि आधुनिक युग के युवा शादी में फिजूलखर्ची और ज्यादा दिखावा पसंद नहीं करते।
उन्होंने बताया कि नौकरीपेशा लड़कियां लड़कों की पहली पसंद होती हैं।.


लोग क्यों पहनते हैं पीले कपड़े?


जो महिलाएं पीले रंग के वस्त्र ज्यादा पहनती हैं उन महिलाओं में आत्मविश्वास तो अधिक होता ही ....
जीवन में रंगों का बहुत महत्व है। रंग खुशी और उल्लास का प्रतीक भी हैं। रंगों को लेकर हर इंसान की पसंद अलग-अलग होती है। किसी को नीला रंग पसंद हैं तो किसी को नारंगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ रंग ऐसे होते हैं जिन्हें अगर वस्त्र के रूप में धारण किया जाये तो हमारी तरक्की निश्चित है। रंग हमेंं ऊर्जा देते हैं और हमारे आत्मविश्वास को भी बढ़ाते हैं।
रंगों की इस श्रेणी में पीले रंग को सबसे अधिक ऊर्जावान रंग माना जाता है।
पीले रंग में ऊर्जा बढ़ाने के साथ-साथ मस्तिष्क को अधिक सक्रिय करने के गुण भी होते हैं। एक शोध के अनुसार जो महिलाएं पीले रंग के वस्त्र ज्यादा पहनती हैं उन महिलाओं में आत्मविश्वास तो अधिक होता ही है साथ ही उनकी विभिन्न कार्याे को करने की कार्यक्षमता भी अधिक होती है।
भारत में बहुत से लोग बृहस्पतिवार के दिन इस रंग के कपड़े पहनते हैं। पीले वस्त्र पहनने से सोचने समझने की शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही अगर आप पीले रंग के खाद्य पदार्थो को भी खाएंगे तो आपका शरीर भी स्वस्थ रहेगा। पीले रंग के फल-सब्जियों से हमारा इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और पेट संबंधी बीमारियां दूर होती हैं। इसलिये आम, पपीता, संतरा जैसे पीले फलों को अपनी डाइट में जरूर शामिल करें।
पीले वस्त्र धारण करने वाले लोग अधिक आकर्षक लगते हैं। पीले रंग से निकलने वाली तरंगे हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाती है जिससे हम अधिक आकर्षक नजर आते हैं।

कुमकुम और सिंदूर सिर्फ सुहाग की निशानी नही, इनके भी हैं कुछ वैज्ञानिक कारण

धार्मिक तर्कों के अनुसार पति की लंबी उम्र और सुखमय वैवाहिकजीवन के लिये महिलाओं का श्रृंगार करना जरूरी बताया गया है।
हिन्दू धर्म में सोलह श्रृंगार का बहुत महत्व है। सुहागन महिलाओं के लिये ये श्रृंगार जरूरी माने गये हैं। लड़कियों के जीवन में विवाह के बाद बहुत कुछ बदल जाता है उनका घर, परिवार, रहने का तरीका, काम करने का तरीका और भी बहुत कुछ। शादी के बाद उनके जीवन शामिल हो जाते हैं ये सोलह श्रृंगार धार्मिक तर्काे के अनुसार पति की लंबी उम्र और सुखमय वैवाहिकजीवन के लिये महिलाओं का श्रृंगार करना जरूरी बताया गया है। आज हम आपको बताते हैं किइन धार्मिक परंपराओं के पीछे कौन से वैज्ञानिककारण हैं।
कुमकुम
कुमकुम भौहों के बीच में लगाया जाता है। यह बिंदु अज्ना चक्र कहलाता है। सोचिए जब भी आपको गुस्सा आता है तो तनाव की लकीरें भौहों के बीच सिमटी हुई नजर आती हैं। इस बिंदु पर कुमकुम लगाने से शांति मिलती है और दिमाग ठंडा रहता है। यह बिंदु भगवान शिव से जुड़ा होता है।
सिंदूर लगाना
सिर के बीचोंबीच मांग में सिंदूर इसलिये लगाया जाता है क्योंकि इस बिंदु को महत्वपूर्ण और संवेदनशील माना जाता है। सिंदूर लगाने से दिमाग हमेशा सतर्क और सक्रिय रहता है। दरअसल, सिंदूर में मरकरी होता है जो अकेली ऐसी धातु है जो लिक्विड रूप में पाई जाती है। इससे शीतलता मिलती है और दिमाग तनावमुक्त रहता है। सिंदूर शादी के बाद लगाया जाता है क्योंकि ये रक्त संचार के साथ ही यौन क्षमताओं को भी बढ़ाने का भी काम करता है।


कांच की चूडिय़ां



सुहागनों के लिये कांच की चूडियां पहनना शुभ माना जाता है। कांच की चूडिय़ों की खनक से घर में बहू की मौजूदगी का अहसास होता है। इसके पीछे वैज्ञानिकों का कहना है कि कांच में सात्विक और चैतन्य अंश प्रधान होते हैं। इस वजह से चूडिय़ों के आपस में टकराने से जो आवाज होती है। वह नेगेटिव एनर्जी को दूर भगाती है।

मंगलसूत्र


प्रत्येक विवाहित महिला को मंगलसूत्र अवश्य पहनना चाहिये। बड़े-बुजुर्र्गों का कहना है कि इसे छुपाकर ररखना चाहिये। इसके पीछे वैज्ञानिकतर्क यह है कि भारतीय हिंदू महिलाएं काफी शारीरिक श्रम करती हैं, इसलिए उनका ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहना जरूरी है। मंगलसूत्र छिपाकर रखने से ये हमारे शरीर से स्पर्श करेगा और इसका अधिक से अधिक लाभ हमें मिल पाएगा।
बिछुआ
शादीशुदा हिंदू महिलाएं पैरों में बिछुए जरूर पहनती हैं। इसे पहनने के पीछे भी विज्ञान छिपा है। पैर की जिन उंगलियों में बिछुआ पहना जाता है, उनका कनेक्शन गर्भाशय और दिल से है। इन्हें पहनने से महिला को गर्भधारण करने में आसानी होती है और मासिक धर्म भी सही रहता है। चांदी का होने की वजह से जमीन से यह ऊर्जा ग्रहण करती है और पूरे शरीर तक पहुंचाती है।


नाक की लौंग

नाक में लौंग पहनने से सांस नियंत्रित होती है और श्वांस संबंधी रोगों से बचाव होता है।


पायल



चांदी की पायल पहनने से पीठ, एड़ी, घुटनों के दर्द और हिस्टीरिया रोगों से राहत मिलती है। साथ ही चांदी की पायल हमेशा पैरों से रगड़ती रहती है, जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद होती है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है, साथ ही ये शरीर की बनावट को नियंत्रित भी करती है।

इयररिंग्स

कानों में इयररिंग्स पहनना फैशन तो होता ही है साथ ही इससे शरीर पर एक्युपंचर इफेक्ट भी पड़ता है। कान में छेद कराकर उसमें कोई धातु धारण करना मासिक धर्म को नियमित करने में सहायक होता है। शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए सोने के ईयर रिंग्स और ज्यादा ऊर्जा को कम करने के लिए चांदी के ईयररिंग्स पहनने की सलाह दी जाती है। अलग-अलग तरह की स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग-अलग धातु के ईयर रिंग्स पहनने की सलाह दी जाती रही है। पहले पुरुष भी इसे पहना करते थे।

स्त्री के लिए साष्टांग प्रणाम वर्जित


संजय तिवारी 

जननी स्वयं को कैसे प्रणाम कर सकती है। भारतीय दर्शन और संस्कृति में स्त्री केवल एक शरीर भर नहीं है। वह वही है जो धरती है। एक ही अस्तित्व है।  धरती की तरह ही स्त्री भी क्षेत्र है और कोई भी क्षेत्र दूसरे  क्षेत्र को कैसे साष्टांग प्रणाम कर सकता है।  खेत के ऊपर भला खेत आएगा तो प्रलय ही आ जायेगा। इसीलिए नारी के लिए साष्टांग दंडवत का विधान ही नहीं है। 



 प्रणाम करते समय वैसे आजकल पैरों को हल्का सा स्पर्श कर लोग चरण स्पर्श की औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। कभी-कभी पैरों को स्पर्श किए बिना ही चरण स्पर्श पूरा कर लिया जाता है। मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति के सामने माथा टेकने में भी आजकल लोग कोताही बरतते हैं। खैर ये तो सब मॉडर्न तकनीक हैं, लेकिन कभी आपने उन लोगों को देखा है जो जमीन पर पूरा लेटकर माथा टेकते हैं, इसे साष्टांग दंडवत प्रणाम कहा जाता है।


यह एक आसन है जिसमें शरीर का हर भाग जमीन के साथ स्पर्श करता है, बहुत से लोगों को यह आसन आउटडेटेड लग सकता है लेकिन यह आसन इस बात का प्रतीक है व्यक्ति अपना अहंकार छोड़ चुका है। इस आसन के जरिए आप ईश्वर को यह बताते हैं कि आप उसे मदद के लिए पुकार रहे हैं। यह आसन आपको ईश्वर की शरण में ले जाता है। इस तरह का आसन सामान्य तौर पर पुरुषों द्वारा ही किया जाता है। क्या आप जानते हैं शास्त्रों के अनुसार स्त्रियों को यह आसन करने की मनाही है, जानना चाहते हैं क्यों?
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार स्त्री का गर्भ और उसके वक्ष कभी जमीन से स्पर्श नहीं होने चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि उसका गर्भ एक जीवन को सहेजकर रखता है और वक्ष उस जीवन को पोषण देते हैं। इसलिए यह आसन स्त्रियों को नहीं करना चाहिए। धार्मिक दृष्टिकोण के अलावा साष्टांग प्रणाम करने के स्वास्थ्य लाभ भी बहुत ज्यादा हैं। ऐसा करने से आपकी मांसपेशियां पूरी तरह खुल जाती हैं और उन्हें मजबूती भी मिलती है।

आपातकाल
रुखसाना सुल्ताना 



 एक सुंदरी जिसे देखते ही मर्दों की रूह कांप जाती थीरुखसाना 
को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए 
राजी करने का काम सौंपा था. इसके बाद उन्होंने कहर ढा दिया.[image: रुखसाना 
सुल्ताना : एक सुंदरी जिसे देखते ही मर्दों की रूह कांप जाती थी]

नसबंदी को परिवार नियोजन के दूसरे विकल्पों से कहीं ज्यादा प्रभावी और 
सुरक्षित माना जाता है. लेकिन आपातकाल के दौरान जामा मस्जिद के आसपास चलने 
वाले नसबंदी कैंपों का प्रभाव यह था कि स्थानीय लोग खुद को असुरक्षित महसूस 
करने लगे थे. बताते हैं कि इन कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी जिस महिला को 
सौंपी गई थी उसे देखते ही डर के मारे लोगों के हलक सूख जाते थे. उस समय के 
सत्ता प्रतिष्ठान से गहरी नजदीकी रखने वाली इस महिला का नाम था रुखसाना 
सुल्ताना. सरकारी अधिकारी उन्हें रुखसाना साहिबा कहा करते थे .ऐसा नहीं था कि 
रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. इससे पहले वे 
दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं.


1975 में एक तरफ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल का ऐलान किया 
था तो दूसरी तरफ उनके बेटे संजय गांधी के राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी. इस 
सफर ने इस तेजी से रफ्तार पकड़ी कि जल्द ही संजय गांधी को समानांतर सत्ता 
केंद्र कहा जाने लगा. उन्होंने आपातकाल के दिनों में एक पांच सूत्री कार्यक्रम 
लागू किया. साक्षरता, सौंदर्यीकरण, वृक्षारोपण, दहेज प्रथा व जाति उन्मूलन और 
परिवार नियोजन इसका हिस्सा थे. लेकिन इनमें भी संजय गांधी के लिए सबसे अहम था 
परिवार नियोजन. उनका मानना था कि जिस आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ 
बताया जा रहा है उस पर अगर वे लगाम लगा सकें तो तुरंत ही देश और दुनिया में वे 
एक प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. माना जाता है कि इसके चलते 
उन्होंने सारी सरकारी मशीनरी को इस काम में झोंक दिया.

संजय गांधी इस काम की शुरुआत राजधानी और उसमें भी पुरानी दिल्ली से करना चाहते 
थे. तब भी नसबंदी के बारे में कई भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय में यह अफवाह 
उड़ती थी कि यह उसकी आबादी कम करने की साजिश है. संजय गांधी को लगता था कि अगर 
उन्होंने शुरुआत में ही इस अभियान को सफल बना दिया और वह भी मुस्लिम समुदाय के 
बीच तो पूरे देश में एक असरदार संदेश जाएगा.

दिल्ली में नसबंदी कार्यक्रम कैसे चलेगा, इसकी जिम्मेदारी जिन चार लोगों को दी 
गई थी वे थे लेफ्टिनेंट गवर्नर किशन चंद, नवीन चावला, विद्याबेन शाह और 
रुखसाना सुल्ताना. रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को 
ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था.

बताया जाता है कि संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं 
और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों 
को नसबंदी के लिए राजी करें.

ऐसा नहीं था कि रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. 
इससे पहले वे दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं. उनकी मां जरीना बीकानेर 
रियासत के मुख्य न्यायाधीश मियां अहसान उल हक की बेटी और चर्चित अभिनेत्री 
बेगम पारा की बहन थीं. रुखसाना ने एक सैन्य अधिकारी शिविंदर सिंह से शादी की 
थी जो दिग्गज पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह के भतीजे थे. उनकी बेटी का नाम 
अमृता सिंह है जो हिंदी फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री हैं.

बताया जाता है कि संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं 
और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों 
को नसबंदी के लिए राजी करने की जिम्मेदारी संभालें. इस तरह रुखसाना संजय गांधी 
की टीम में शामिल हो गईं. जल्द ही उन्होंने अपना काम भी शुरू कर दिया. वे 
पुरानी दिल्ली में घर-घर जाकर लोगों को परिवार नियोजन के फायदों के बारे में 
समझाने लगीं. उन्होंने इस इलाके में छह नसबंदी कैंप भी शुरू कर दिए.

लेकिन जल्द ही पुरानी दिल्ली में नसबंदी के बारे में जागरूकता से कहीं ज्यादा 
उसका आतंक फैल गया. खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों 
को जबरन पकड़कर उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 
साल के नौजवानों को भी बख्शा नहीं जा रहा. कहते हैं कि ये खबरें संजय गांधी तक 
भी पहुंचती थीं, लेकिन वे इन्हें अतिश्योक्ति कहकर खारिज कर देते थे.

खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को जबरन पकड़कर 
उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 साल के नौजवानों 
को भी बख्शा नहीं जा रहा.

अपनी किताब ‘द संजय स्टोरी’ में विनोद मेहता याद करते हैं कि कैसे उस दौर में 
एक खबर पर काम करते हुए वे जामा मस्जिद के आसपास वाले इलाकों में लोगों से 
मिले थे जिनमें नसबंदी कार्यक्रम को लेकर बहुत गुस्सा था. आलम यह था कि 
रुखसाना की कार देखकर लोगों की रूह सूख जाती थी.

बाद में रुखसाना के साथ हुई मुलाकात का जिक्र करते हुए मेहता लिखते हैं कि 
उन्होंने इन बातों को खारिज करते हुए कहा कि नसबंदी का काम बहुत मानवीय और 
स्वैच्छिक तरीके से हो रहा है. रुखसाना का मानना था कि राई का पहाड़ बनाया जा 
रहा है और यह इलाके के पुराने कांग्रेसियों की साजिश है जिनसे यह हजम नहीं हो 
रहा कि कोई दूसरा उनके इलाके में आकर वास्तव में कुछ कर रहा है. इसी मुलाकात 
में रुखसाना ने मेहता से कहा कि वे उन्हीं लोगों से मिलने जा रही हैं जिन पर 
कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी हैं. उनका कहना था कि मेहता चाहें तो खुद उनसे 
पूछ करके यह पुष्टि कर सकते हैं कि कोई जोर जबरदस्ती नहीं हो रही. मेहता के 
मुताबिक जब वे रुखसाना की कार में बैठकर पुरानी दिल्ली के एक मकान में पहुंचे 
तो उन लोगों की शक्लें देखकर चौंक गए. दरअसल वे बहुत डरावनी शक्ल वाले लोग थे.

अपनी किताब में मेहता लिखते हैं कि जब उन्होंने पूछा कि ये लोग कौन हैं तो 
रुखसाना का जवाब था, ‘ये राजस्थानी नायक हैं. आप इसे देख रहे हैं. ये इनका 
मुखिया है. आपको पता है इसने आठ मर्डर किए हैं और एक भी लाश नहीं मिली.’ इसके 
बाद वे मुखिया की तरफ मुड़ीं और हंसते हुए पूछा, ‘तो कितने आदमी मारे हैं 
तुमने? आठ या इससे भी ज्यादा?’ मेहता आगे लिखते हैं, ‘तो ये थे वे लोग जो 
रुखसाना के मानवीय और स्वैच्छिक तीरके वाले नसबंदी कैंप चला रहे थे.’

‘ये राजस्थानी नायक हैं. आप इसे देख रहे हैं. ये इनका मुखिया है. आपको पता है 
इसने आठ मर्डर किए हैं और एक भी लाश नहीं मिली.’

इन्हीं रुखसाना ने संजय गांधी के लिए एक मास्टरस्ट्रोक भी खेला. जब नसबंदी के 
चलते मुजफ्फरनगर, मेरठ, गोरखपुर और सुल्तानपुर जैसे कई शहरों में दंगे होने 
लगे तो उन्होंने उसी दौरान दो इमामों को नसबंदी कराने के लिए तैयार कर लिया. 
जब मुसलमान नसबंदी को इस्लाम के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहे हों तो 
मुस्लिम धर्मगुरुओं का नसबंदी करवाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. रुखसाना 
ने यह ऐलान करके इस कामयाबी को और भी वजन दे दिया कि शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद 
नाम के ये दो इमाम उसी मुजफ्फरनगर के हैं जहां नसबंदी के मुद्दे पर बड़ा दंगा 
हुआ है.

उस समय ये भी खबरें आईं कि बाकी लोगों की तरह इमाम भी पहले नसबंदी के खिलाफ 
थे. लेकिन अपनी वाकपटुता और कुरान की कुछ आयतों का उदाहरण देते हुए रुखसाना ने 
उन्हें मनाने में कामयाबी हासिल कर ली. संजय गांधी इससे बहुत खुश हुए. 
उन्होंने खुद इन दोनों इमामों को नसबंदी का सर्टिफिकेट दिया और साथ ही दोनों 
को 101 रु का नकद ईनाम भी. शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद ने उन्हें आश्वासन दिया 
कि वे दूसरे धार्मिक नेताओं को मनाने की भी हरमुमकिन कोशिश करेंगे. अगले दिन 
अखबारों में संजय गांधी के अगल-बगल खड़े इन दोनों इमामों की तस्वीरे छपीं 
.आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार आई तो रुखसाना नेपथ्य में चली गईं. 
इसके बाद उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं सुना गया. दुबारा उनका नाम 1983 में 
तब चर्चा में आया जब उनकी बेटी अमृता सिंह की पहली फिल्म बेताब रिलीज हुई थी. 
इसके बाद से उनके बारे में फिर कुछ और सुनने में नहीं आया.


भारतीय परिपेक्ष्य में वैवाहिक विच्छेद -प्राच्य से वर्त्तमान तक


डॉ अर्चना तिवारी 
9450887187 

भारतीय जीवन संस्कृति में सिर्फ योग, अर्थात जोड़ने को जगह दी गयी है।  यहाँ किसी भी रूप में टूट या विभाजन सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य नहीं है।  भारतीय सभ्यता के समग्र विकास इसी जोड़ने की शैली से शुरू होकर आगे बढ़ता है। यह पूरी यात्रा एक नदी के प्रवाह की तरह चलती है जिसमे अंत तक निर्वहन की अद्भुत शक्ति विराजमान , विद्यमान रहती  है।  हर महँ नदी वह होती है जो अपने उद्गम से निकल कर समुद्र या उस स्वरुप के अपने अंत तक चल कर ही स्वयं  समाधिस्थ कराती है। इसीलिए यहाँ कही भी विच्छेद या टूट नहीं है।  भारत की संस्कृति और सभ्यता में केवल जोड़ना ही सिखाया जाता है। इसकी प्रथम इकाई ही युगल स्वरुप है। शिव- पार्वती,, राम-सीता, कृष्ण-राधा, विष्णु-लक्ष्मी  रूप ही एक इकाई मानी जाती है। मनुष्य के उद्भव में भी अकेला कोई पुरुष या स्त्री भर नहीं है।  इसकी अवधारणा ही मनु-शतरूपा से होती है। तात्पर्य यह की हमारी संस्कृति में युगल स्वरुप ही मूल इकाई है और इसी से सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ने का समूचा विधान रचा  गया है। भारत के इतिहास में सृष्टि के उद्भव से अब तक यही परम्परा चल भी रही है। जिस मूल इकाई से सृष्टि के सञ्चालन के क्रम को बढाते हुए चलने की दृष्टि दी गयी है उसकी अवधारणा में ही एक पुरुष और एक स्त्री तत्व के रूप में निर्धारित किये गए है। 
हमारी जीवन संस्कृति केवल संस्कारो के वशीभूत है क्योकि संस्कार ही वे दर्शन है जिनसे सृष्टि को चलना है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन को सोलह आधारभूत संस्कारो में संयोजित किया गया है। इन सोलह संस्कारो में सबसे महत्वपूर्ण है विवाह संस्कार। विवाह वह संस्कार है जो एक पुरुष को उसके योग्य स्त्री प्रदान कर समाज की प्रथम इकाई के रूप में एक युगल  का निर्माण करता है।  यह ठीक वैसे ही है जैसे ऑक्सीजन के एक अनु में दो परमाणु होते है। या हम कह सकते है की अणु  बनाने के लिए काम से काम दो परमाणुओ का संयोजन जरुरी होता है। फिर ये अणु  ही किसी भी तत्व को स्वरुप , आकार , प्रकार देते है और तब एक तत्व अस्तित्व में आता है।  ठीक उसी प्रकार जब एक पुरुष और एक स्त्री अपने गुण -धर्म के आधार पर विवाह जैसे संयोजन की संस्कारशाला से निकलते है तब एक युग्म बनाता है और तब ही सृजन की संभावना बन पाती है। यही प्रक्रिया पेड़ , पौधों , वनस्पतियो में भी होती है।  अर्थात विवाह एक ऐसी वैज्ञानिक सत्यता है जिसके बिना सृष्टि चल ही नहीं सकती। इसी विवाह की युग्म निर्माता शैली से परिवार बनता है। परिवार से घर बनाता है।  कई घर मिलते है तो कुल बनाता है।  कई कुल मिलते है तो कुटुंब बनाता है।  कई कुटुंब मिलते है तो ग्राम बनाता है।  ग्राम से ब्लॉक , तहसील , जनपद , मंडल , प्रांत , राष्ट्र और फिर इस विश्व का निर्माण होता है। इस निर्माण की प्रक्रिया को आधार देता है विवाह संस्कार। वही से सूंदर , स्वस्थ , प्रगतिशील , शिक्षित समाज के निर्माण का आधार तय हो जाता है।  इसलिए भारतीय विवाह परंपरा को बहुत ही सावधानी पूर्वक स्थापित किया गया है जिसे काम से काम सात जन्मो तक निभाने की अवधारणा दी गयी है। हमारे संस्कारो में और दर्शन में सात जन्म की बात इस लिए है क्योकि हमारे यहाँ पुनर्जन्म प्रमाणित है।



विवाह शब्द वि+वाह से बना है।  वि विशेष या महत्वपूर्ण विशिष्ट के लिए प्रयुक्त हुआ है तो वाह का अर्थ हैं वहन करना ,ढोना ,बोझ उठाना यथा माल वाहक=माल ले जाने वाला, निवाँह=गुजारा करना प्रवाह= बहाव आदि। 
कुछ  लोग अज्ञानता वश विवाद तथा विवाह का अन्तर भूल  जाते है।  वे शायद यह नही जानते ‘द’का अर्थ है दाता तथा ‘ह’ का अर्थ है हरणं करने वाला मिटाने वाला।  जहां विवाद में दूसरे  के दोषों व दुर्बलता  को उजागर कर उसे शत्रु मानते हुए नीचे दिखाने का प्रयास किया जाता है, इसके विपरीत विवाह में  स्नेह व आत्मीयता के साथ उसे सम्मान दिया जाता है।  विवाह में तो सभी विषमता दुर्बलता  व दोष का हरण है, स्नेहपूर्ण निरकरण है या फिर उन्हें स्वीकार कर धैर्यपूर्वक सहना है।  विवाह केवल कामेक्षा की पूर्ती का साधन भर नहीं है। रति या मैथुन को विद्धानो ने पाशविक कर्म माना है।  उनका कहना है पशु पक्षी तो मात्रा विशेष ॠतु में ही कामोन्मुख होते हैं किन्तु मनुष्य तो शायद पशुओं से भी हीन है।  प्राचीन मनीषियो ने गहन चिन्तन मनन के बाद काम को नियंत्रित कर विवाह प्रणाली को विकासित किया समाज में सुख शान्ति बनाए रखने के लिए अगम्यागमन का निषेध किया। परस्त्री आसक्ति की निन्दा की।  इतनी ही नही विवाह को धार्मिक सामाजिक समारोहों के रूप में मान्यता दी उसे गरिमा  मंडित किया पत्नी को धर्मपत्नी की संज्ञा दी। यज्ञ व सभी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को बराबर का स्थान दिया उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी गई विवाह में वर को विष्णु तथा वधु को लक्ष्मी का रूप मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा आज भी प्रचलित है।  राम विवाह, शिव विवाह राधा विवाह का शास्त्रो में विस्तार पूवर्क किया गया है| वास्तव में विवाह गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्धार है।  घर परिवार समाज की ईकाई है घर के योगदान से समाज मजबुत होता है तो समाज के सहयोग व सहायता से परिवार में सुख शान्ति बढ़ती है बालक के जन्म से परिवार बढ़ता है तो समाज का भविष्य भी सुरक्षित होता है। बच्चों के पालन -पोषण के लिए धर परिवार में स्नेह सौहार्दपूर्ण वातावरण आवश्यक है।  किसी विवाह का टूटना मात्र दो व्यक्तियों  का अलग हो जाना नहीं बल्कि परिवार व समाज का बिखराव है।  बचपन की बगिया में कंटीली झाड़ियों का उगना जिससे न केवल वर्तमान आहत होता है बल्की भविष्य भी मुरझा जाता है।  जब कभी विवाह का प्रशन हो तो ज्योतिषी का फर्ज हैं कि वह विवाह का महत्त्व स्वयं समझें व दुसरे को भी समझाएं। मानव मन की कामेच्छा को नियमित व नियंत्रित करने के लिए ही विवाह संस्था बनायी गईं।  योग एक प्रकार से कामेच्छा को नियमित एवं नियंत्रण करने की प्रकिया ही है।  लेकिन अगर सभी योगी बन जाएंगे तो सृष्टि के विस्तार जीवन मत्यु की प्रकि्या में व्यवधान आ जाएगा।  इसलिये समाज में विधिपूर्वक शुक्र को नियंत्रण करने के लिए मनीषियों ने विवाह प्रकि्या का सृष्टि में प्रावधान किया। 

 प्रत्येक व्यक्ति के लिए कामेच्छा की नियमित व निमन्त्रण में रखना उसके अपने वश में नहीं है इसकों ज्यादा नियन्त्रित करने में यह अनियंत्रित हो जाती है और दुरचार को बढावा मिलता है।  उस स्थिति  में व्यक्ति और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता।  समाज में यौन दुराचार पर अंकुश लगाना एक स्वस्थ व सुखी समाज  निमार्ण करना ही इसका उद्देश्य था।   भावी संतती देह व मन से स्वास्थय व सबल हो इसके लिए विवाह पूर्व शौर्य प्रदर्शन तथा बुद्धि बल परीक्षा या स्पर्धा  का आयोजन एक सामान्य बात थी।  कन्या को भी विविध कलाओं तथा विधाओ में निपुण बनाने का प्रयास होता था उसका यह करणा होता की उस कन्या का विवाहित जीवन सुखी व खुशहाल हो। वास्तव में यह  किसी मज़हब या पंथ की बात नहीं है।  ये संस्कार तब से भारत में है जब से यह सृष्टि है।  तब धरती पर हिन्दू , मुसलमान, आदि की पांथिक अवधारणाएं नहीं होती थी।  धरती पर ईसाइयत कुल दो हज़ार साल से है।  इस्लाम केवल डेढ़ हजार साल से है लेकिन हमारे यहाँ विवाह की परंपरा तो आदिकाल से ही है। शिव और पारवती के विवाह की कथा ही आज भी हमारे वैवाहिक आयोजनों में लोकमंगल गान बन कर स्थापित है।  राम और सीता की वैवाहिक गृहस्थी रही हो अथवा कृष्ण और राधाकी युगल जोड़ी , हर जगह शिव पार्वती संवाद की महत्ता स्थापित है। दरसल इस पूरी व्यवस्था में एक मूल विंदु यह है की सृजन के लिए एक पुरुष तत्व और एक नारी तत्व आवश्यक है।  लेकिन ऐसा नहीं की कोई भी पुरुष और कोई नारी कुछ भी कर सकते है।  इसके लिए सम्बंधित स्त्री और पुरुष तत्व की युगलबन्दी के लिए भी गुण -धर्म  निर्धारित किये गए है जिनके आधार पर यह युग्म बनाता है और फिर विवाह के संस्कार से उन्हें एक किया जाता है।  यह युग्म ऐसा होता है जिसमे विघटन की कोई अवधारणा ही नहीं हो सकती।  यह ठीक वैसे ही है जैसे एक तत्व को  एक दूसरे तत्व से संयोजित करा कर  एक यौगिक बना दिया गया  तो दोनों के समन्वित रूप का वह यौगिक ही उनका निवास रहेगा।  इनमे से किसी को भी अलग करने की कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है।  हमें यदि नमक बनाना है तो सोडियम  और क्लोरीन को ही संयोजित करना होगा।  तभी नमक बन सकेगा।  इनमे से किसी भी एक तत्व को बदल दिया जय तो नमक नहीं पाया जा सकता। बने हुए नमक में यदि कुछ भी और मिलाया जाएगा तो नमक का अस्तित्व तो नहीं रह जाएगा। हमें पाना नमक है और सोडियम की जगह हाइड्रोजन का इस्तेमाल करेंगे तो नमक की बजाय तेजाब बन जायेगा।  जाहिर है की जो पाना चाहते थे वह तो नहीं ही मिला , और नहीं तो इतनी घातक चीज़ सामने आ गयी जो विध्वंस ही करेगी। विवाह ठीक ऐसी ही विधि परंपरा है जिसे भारतीय जीवन दर्शन में स्वीकार किया गया। इसीलिए भारतीय जीवन संस्कृति की किसी भी अवधारणा में विवाह विच्छेद जैसे किसी व्यवस्था का उल्लेख हमारे किसी भी ऐतिहासिक अध्ययन में नहीं है। 
  विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ है। श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है। विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूषन देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।" फिर अग्नि से प्रार्थना है- "हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।" फिर इन्द्र से प्रार्थना है- "हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें। 
 ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- हे वधु ! तुम सास, ससुर, ननद, देवर समस्त परिवार की साम्राज्ञी बनो -


"सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वसुरामं भव। 
सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "

 हमारे शास्त्रों ने चयन का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं| प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है| विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है| वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है

सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतुछटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
सात वचनों के महत्व को यदि समझ लिया जाये तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा...


तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!...१...


कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना| कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम 
भाग में अवश्य स्थान दें| यदि आप स्वीकार करते हैं तो मुझे वामांग में आना स्वीकार है।  धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य है।  जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है।  पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है। 


पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!...२...


कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। इस वचन के द्वारा समाज व कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है।  आजकल गृ्हस्थी में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद होने पर पति/पत्नी अपने पत्नि/पति के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देते हैं। 

 
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!...३..


तीसरे बचन में कन्या कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। 


कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!...४...


कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपका है।  यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ। इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं।  विवाह पश्चात कुटुम्ब पोषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके।  यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे। 


स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!....५...


इस वचन में कन्या जो कहती है वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है।  बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते।  यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है। 


न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!...६...


कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें| यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं| विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं| ऎसे 
व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा| यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले। 


परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!...७..


अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें।  यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, ये सभी भली भान्ति जानते हैं, इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।  विवाह के इस सर्वश्रेष्ठ रूप में, ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है, वशर्ते कि आज के निष्ठाहीनता के युग में स्त्री-पुरुष दोनों ही इनका निर्वाह करें तो।  इसी लिए भारत में कभी वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद के लिए किसी क़ानून की आवश्यकता पड़ी ही नहीं क्योकि एक बार युग्म बन जाने के बाद उसे तोड़ सकने के लिए कोई सपने में भी सोच नहीं सकता था।  यही कारन रहा की यह परंपरा हज़ारो साल तक चलती रही और अभी भी चल रही है। यह अलग बात है कि समाज में अन्य सभ्यताओ के विकास और संस्कारो में आयी विकृतियों ने आज ऐसे कानून की आवश्यकता पर बहस करने को मज़बूर कर दिया है। 



भारत में विवाह विच्छेद के प्रमाण नहीं 
ऐसा नहीं की गृहस्ती में खटपट न होती हो।  भारत में भी पति पत्नी के बीच नोक झोक, झगड़े और वादविवाद की स्थितियां आती रही है लेकिन यहाँ सम्बन्ध विच्छेद की कोई गुंजाइश नहीं देखि गयी।  नहीं पति तो किसी किसी ने गृहत्याग तक कर दिया पर पति पत्नी की अवधारणा और उसके बंधन पर कोई आंच नहीं आयी। यहाँ तक की गौतम ऋषि और अहिल्या के बीच चन्द्रमा द्वारा किये गए घात के बाद बड़ी कटु स्थिति आयी पर उसे भी ऋषि गौतम ने शापानुग्रह के द्वारा सलीके से ठीक कर दिया। राम से लेकर कृष्ण के काल तक भी किसी पति पत्नी के युग्म में विघटन की कोई घटना उल्लिखित नहीं है। कृष्ण के बाद केवल तब एक विघटन मिलता है जब गौतम बुद्ध गृह त्याग कर निकल जाते है। लेकिन यहाँ भी केवल गृह त्याग है , विघटन तो बिलकुल नहीं है। यहाँ गृहस्त जीवन को सृष्टि का पालनहार बताया गया है। सृष्टि के पारम्भ से लेकर भारत में अंग्रेजो के शासन काल तक हमारी सांस्कृतिक अवधारणा के अनुसार ही विवाह संपन्न होते रहे तथा निभाए जाते रहे।  अंग्रेजी शासन के बाद जब भारत का नया संविधान लिखा गया उसके बाद से विवाह विच्छेद की चर्चा शुरू हुई और 1955 में पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम जैसा एक क़ानून सामने आया।  यह वह समय था जब मूल भारतीयता को हिन्दू संज्ञा दी जा चुकी थी। इससे लगभग एक हज़ार साल पहले से ही भारत में भारतीय शासन व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी।  यवनो के आलावा और भी जो आक्रमणकारी यहाँ आये उनकी अपनी परम्पराए भी आयी पर हमारी भारतीयता ने खुद को बहुत सलीके से अपने को बचा कर रखा। सबसे ज्यादा दिक्कत होनी शुरू हुई मुग़ल शासको के समय। उनके लिए स्त्री केवल एक भोग्य बस्तु थी और उसी रूप में वे भारतीय स्त्रियों का भी उपयोग करना चाहते थे। उन्होंने किया भी।  हमें उस दिशा में नहीं जाना लेकिन यह सच है की मुग़ल शासन की आंच से ही बाद में कानूनों का निर्माण होने लगा और 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम बना दिया गया।  
हिन्दू विधि में सहमति से विवाह विच्छेद
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 विवाह विच्छेद की व्यवस्था भी करता है लेकिन इस में विवाह के पक्षकारों की सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था 1976 तक नहीं थी। मई 1976 में एक संशोधन के माध्यम से इस अधिनियम में धारा 13-ए व धारा 13-बी जोड़ी गईं, तथा धारा 13-बी में सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई। धारा 13-बी में प्रावधान किया गया है कि यदि पति-पत्नी एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे हैं तो वे यह कहते हुए जिला न्यायालय अथवा परिवार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं कि वे एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे है, उन का एक साथ निवास करना असंभव है और उन में सहमति हो गई है कि विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर विवाह को समाप्त कर दिया जाए। इस तरह का आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय आवेदन प्रस्तुत करने की तिथि से छह माह उपरांत और अठारह माह पूरे होने के पूर्व यदि ऐसा आवेदन पक्षकारों द्वारा वापस नहीं ले लिया जाता है तो उस आवेदन की सुनवाई और जाँच के उपरान्त इस बात से संतुष्ट हो जाने पर कि आवेदकों के मध्य विवाह संपन्न हुआ था और पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत आवेदन के कथन सही हैं, डिक्री पारित करते हुए दोनों पक्षकारों के मध्य विवाह को डिक्री की तिथि से समाप्त किए जाने की घोषणा कर देता है।
 
हिन्दू विधि में अलगाव  के आधार


 प्रारंभिक हिन्दू विधि में तलाक या विवाह विच्छेद की कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं थी। हिन्दू विधि में विवाह एक बार हो जाने के बाद उसे खंडित नहीं किया जा सकता था। विवाह विच्छेद की अवधारणा पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 से हिन्दू विधि में सम्मिलित हुई। वर्तमान में हिन्दू विवाह को केवल उन्हीं आधारों पर विखंडित किया जा सकता है जो कि इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त किए गए हैं। बिना किसी आधार के तो अलगाव  केवल आपसी सहमति से संभव है। जब विवाह विच्छेद के लिए आपसी सहमति न हो तो कानून में वर्णित आधार उपलब्ध होने पर ही अलगाव संभव हो सकता है। चूंकि प्रारंभिक हिन्दू विधि में विवाह विच्छेद की अवधारणा अनुपस्थित थी, इस कारण से न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना कोई भी रीति तलाक या विवाह विच्छेद हेतु उपलब्ध नहीं है और हिन्दू विवाह केवल न्यायालय के माध्यम से ही विखंडित किया जा सकता है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 में वे आधार वर्णित हैं जिन पर एक हिन्दू विवाह विच्छेद संभव हो सकता है। हिन्दू विवाह का एक पक्षकार निम्न में से किसी भी आधार पर विवाह विच्छेद के लिए न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत कर सकता है, यदि विवाह का दूसरा पक्षकार ..
1. जारता- 
विवाह के उपरांत अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा पूर्वक यौन संबंध स्थापित कर जारकर्म का दोषी हो।
2. क्रूरतापूर्ण व्यवहार 
अपने जीवनसाथी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार का दोषी हो। (क्रूरता को परिभाषित करना आसान काम नहीं है। यह विवाह के पक्षकारों के सामाजिक स्तर और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किस तरह का आचरण वैसी क्रूरता है जिस पर तलाक की डिक्री प्रदान की जा सकती है।)

3. परित्याग 
विवाह विच्छेद का आवेदन प्रस्तुत करने की तिथि के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष से आवेदनकर्ता का परित्याग का दोषी हो।

4. धर्म का परित्याग
हिंदू धर्म त्याग कर दूसरा धर्म ग्रहण कर चुका हो।

5. विकृतचित्तता
लाइलाज विकृतचित्त हो, अथवा लगातार या बीच-बीच में ऐसे मनोविकार से पीड़ित रहता हो जिस के कारण यथोचित रूप से आवेदनकर्ता के उस के साथ निवास करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती हो।

6. असाध्य कुष्ठ रोग
उग्र और असाध्य रूप से कुष्ठ रोगी हो।

7. यौन रुग्णता
संक्रामक रूप से यौन रोगी हो चुका हो।
8. संन्यास 
धार्मिक संहिता के अंतर्गत संन्यास ग्रहण करहो हो, और उस ने संसार का त्याग कर दिया हो।

9. लापता 
यदि कोई पुरुष अथवा स्त्री लापता हो जाय। 


अब हिन्दू विधि में वर्णित पति पत्नी के अलगाव के लिए जो भी क़ानून बना है वह देश के हर परिभाषित हिन्दू व्यक्ति पर लागू है।  इसी विधि के आधार पर आज हज़ारो अलगाव संबंधी मुकदमे देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे है।  यह भी सच है की सभ्यताओ के विकास के साथ पारिवारिक विघटन की घटनाये काफी प्रकाश में आ रही है।  यह सांस्कृतिक क्षरण पर चिंता का विदुः हो सकता है।  इस पर समाज के जिम्मेदार लोग अवश्य सोच रहे होंगे।  लेकिन यह सोचने की बात है की जिस संस्कृत को हज़ारो वर्षो तक अलगाव संबंधी की नियम की जरूरत ही नहीं पड़ी , अगर आज उसी देश में वैवाहिक संबंधों को लेकर उनमे विच्छेद के बारे में बहस करनी पद रही है तो यह चिंता की बात है।  यह सोचने का विषय है कि आखिर आज हम सभ्य हो रहे है या तब थे जब ऐसे किसी विध्वंसक कानून की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी।