इन्सेफेलाइटिस
पूर्वांचल के हिस्से में हमेशा की तरह आपदा, उपेक्षा, अराजकता, असमा नता और इंसेफेलाइटिस की मार से अपाहिज होना ही नसीब हुआ है. सुधि और संवेदना का बड़बोलापन ऐसा कि 1976 से शुरू हुई इस बीमारी के लिए टीकाकरण की आवश्यकता 2006 में जरूरी समझी गई जबकि जापान में उससे पूर्व ही टीकाकरण शुरू हो गया था. यानी कि 30 वर्ष तो लोगों को उनके हाल पर छोड़, मौत का जश्न मनाया गया. 1978 से बच्चों के मरने का सिलसिला आज भी जारी है. बच्चे हर साल मर रहे हैं. पहले तो डॉक्टरों को बीमारी का पता ही नहीं चला और जब पता चला तो ऐसी स्वास्थ्य सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं थीं जो इन बच्चों को बचा सकें.
एक बार फिर इन्सेफेलाइटिस का ताडंव पूर्वांचल में शुरू हो गया है। जनवरी से लेकर अब तक 50 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। रोकथाम के तमाम प्रयासों के बावजूद भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफेलाइटिस पर नियंत्रण नहीं हो पाया है। कुछ सालों से लखनऊ में भी इन्सेफेलाइटिस के मामले आने लगे हैं।
इन्सेफेलाइटिस यानी दिमागी बुखार एक खतरनाक बीमारी है। इससे सबसे अधिक शिकार तीन से 15 साल के बच्चे होते हैं। जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) या दिमागी बुखार पिछले 36 साल में 60000 से ज्यादा मासूमों की जान ले चुका है। गोरखपुर का बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज हर साल गोरखपुर के नज़दीक ही नहीं बल्कि बिहार और नेपाल से आने वाले मरीजों से बुरी तरह भर जाता है। अक्सर 208 बिस्तरों वाले इन्सेफेलाइटिस वॉर्ड में एक बेड पर तीन से चार बच्चों को लिटाना पड़ता है। इस साल मौसम में जिस तरह के उतार-चढ़ाव दिख रहा है उससे विशेषज्ञों को बीमारी के और अधिक खतरनाक हो जाने की आशंका है।
दो साल पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री और प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने जिस उम्मीद से इंसेफेलाइटिस के संताप से पूर्वांचल को मुक्ति दिलाने की बात कही थी, वह समाचारों की सुर्खिंया बनीं और बन कर बुलबुले की तरह समाप्त हो गईं। पूर्वांचल के हिस्से में हमेशा की तरह आपदा, उपेक्षा, अराजकता, असमानता और इंसेफेलाइटिस की मार से अपाहिज होना ही नसीब हुआ है। सुधि और संवेदना का बड़बोलापन ऐसा कि 1976 से शुरू हुई इस बीमारी के लिए टीकाकरण की आवश्यकता 2006 में जरूरी समझी गई जबकि जापान में उससे पूर्व ही टीकाकरण शुरू हो गया था। यानी कि 30 वर्ष तो लोगों को उनके हाल पर छोड़, मौत का जश्न मनाया गया। पूर्वांचल के गरीबों को उपेक्षित रखने, उन्हें मरने देने का यह खेल वर्ष दर वर्ष जारी रहा। आज भी कुछ होने के नाम पर अखबारी बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा । चूंकि यह गरीबों और लाचारों की बीमारी है, इसलिये कुछ हजार की मौतों से कोई पहाड़ नहीं टूटता। तभी तो इलाज की समुचित व्यवस्था करने के बजाय, कोशिश यह की जा रही है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों को दूसरी बीमारी में तब्दील कर, आंकड़ों को घटा दिया जाए।
बाबा राघवदास मेडिकल कालेज गोरखपुर में 2005 से 2013 तक भर्ती मरीजों की संख्या और मृत्यु का विवरण
वर्ष भर्ती मरीज मृत्यु प्रतिशत मृत्यु
2005 3532 937 26.52
2006 1940 431 22.21
2007 2423 516 21.29
2008 2194 458 20.87
2009 2663 525 19.71
2010 3303 514 15.56
2011 3308 627 18.95
2012 2517 527 20.86
2013 1071(25 सितम्बर तक) 292 27.26
ये आंकड़े केवल गोरखपुर मेडिकल कालेज, बाल-रोग विभाग और मेडिसिन विभाग के हैं जो वहां भर्ती मरीजों के आधार पर तैयार किये गये हैं। गरीबी से दबे पूर्वांचल के हर मरीज के नसीब में मेडिकल कॉलेज पहुंचना संभव नहीं। इसलिये संभव है कि इस महामारी के प्रकोप से 20 से 25 प्रतिशत मरीज, गांव के ओझाओं-सोखाओं के यहां दम तोड़ दिये हों और कुछ निजी अस्पतालों में।
भूख, गरीबी और अशिक्षा की जकड़़बंदी में फंसे पूर्वांचल के लिये, रोग के बुनियादी कारकों को छुए बिना, कुछ अभियान और अनुदान के जरिये खात्मा करने की हसरत, दिवास्वप्न से कम नहीं लगती। विगत सैंतीस वर्षों से मस्तिष्क ज्वर, दिमागी बुखार या इंसेफेलाइटिस से अभिशप्त पूर्वांचल के दुख-दर्द को मीडिया या नियंत्रणकारी संस्थाओं ने महामारी के रूप में नहीं स्वीकारा है । बिहार के तमाम क्षेत्रों में फैले इस रोग को ‘इंसेफेलाइटिस’ कहने से परहेज किया जाता है । गोया नाम न लेने से रोग की भयावहता और सरकार की सदाशयता, दोनों को बचाया जा सकता है । इस बीमारी ने लम्बे सफर में अपने स्वरूप को बदला है । मसलन पहले यह बीमारी केवल 3 से 15 वर्ष के बच्चों में, बरसात के दिनों में दिखाई देती थी । अब हर आयु वर्ग का व्यक्ति, किसी भी माह में इसकी चपेट में आ जाता है। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इस रोग से बचने का प्रतिशत कहीं ज्यादा है। वहां 1978 से 2013 तक इंसेफेलाइटिस के कुल 33,369 मरीज मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में भर्ती हुए जिनमें से 3 से 10 वर्ष तक के बच्चों की संख्या साठ प्रतिशत के आसपास थी । लचर चिकित्सा सुविधाओं के कारण इनमें से तीस प्रतिशत ने दम तोड़ दिया और लगभग इतने ही स्थाई रूप से विकलांग जीवन जीने को अभिशप्त हुए । वर्ष 2005 में मेडिकल कॉलेज में सर्वाधिक 3532 मामले आये और सर्वाधिक 937 मौतें हुईं।
जे0ई0 और इन्टरो वायरस का फैलाव सुअरों के माध्यम से मच्छरों में और मच्छरों से मनुष्य में होता है । यह वायरस मुख्यतः सुअरों में विकसित होता है, उन्हें बीमार करता है और फिर खतरनाक रूप में इंसान के शरीर में पहंुचता है । मच्छरों से बचने के कारगर तरीके इस वायरस को फैलने से रोक सकते हैं पर खुले में सोने वाले गरीबों की किस्मत में न तो मच्छरदानी है और न मच्छरों से बचाव के दूसरे उपाय । इन्टरो वायरस, दूषित पानी पीने से भी प्रवेश करता है । गंदगी, जल जमाव और बाढ़ से घिरे पूर्वांचल में पेप्सी और कोक की तुलना में शुद्ध पानी का मिलना संभव नहीं। अभी भी बहुसंख्यक आबादी सामान्य नलों का पानी पी रही है । इंडिया मार्का-2 नलों से शुद्ध पेय जल उपलब्ध कराया जा सकता है। देखा जाये तो मच्छरों से बचाव और शुद्ध पानी की उपलब्धता सीधे तौर पर बुनियादी विकास से जुड़ा मामला है । आर्थिक रूप से विपन्न समाज के जेहन में सिर्फ भूख होती है । वह शुद्ध पानी और मच्छरों से बचाव के लिये कुछ करने की स्थिति में नहीं होता । यही कारण है कि इस बीमारी का सीधा रिश्ता, गरीबी से देखा जा सकता है।
इस बीमारी की भयावहता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रति वर्ष जुलाई से लेकर अक्टूबर तक मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन बच्चे लिटाये जाते हैं । कुछ मरीजों को जमीन पर भी लिटाना पड़ता है । पूरे क्षेत्र में केवल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज ऐसी जगह है जहां इस बीमारी की समझ और इलाज की प्रक्रियाओं का ज्ञान है । लम्बे समय से अपने द्वारा इजाद किए गए संशाधनों से इस रोग से लड़ने वाले एक मात्र वरिष्ठ डाॅक्टर के.पी. कुशवाहा, जो बालरोग विभागाध्यक्ष और प्राचार्य भी रह चुके है अब रिटायर हो चुके है .
डाक्टरों , वार्ड, पैरामेडिकल स्टाफ की कमी और जांच की समुचित सुविधाओं का अभाव इलाज के लिये ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। यह हमारे तंत्र की असंवेदनशीलता का ज्वलंत उदाहरण है कि विगत सैंतीस वर्षों में इस बीमारी के विरूद्ध व्यापक अभियान छेड़ना तो दूर, एक मात्र मेडिकल कॉलेज में मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था तक नहीं की जा सकी। हमारे शीर्ष कर्णधार मेडिकल कॉलेज गोरखपुर की आड़ में, कुछ टीकाकरण, कुछ वेन्टीलेटर और कुछ दवाओं की आपूर्ति कर, ठोस कार्यनीति बनाने के बजाय, अपने पापों का प्रायश्चित करते नजर आते हैं।
प्रतिदिन मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस के अब भी 20 से पच्च्ीस मरीज भर्ती होते हैं जिनमें से पांच से छः की प्रतिदिन मृत्यु हो जाती है । हर सुबह कॉलेज का प्रांगण लाश थामें विलाप करते परिजनों के आर्तनाद से थरथराता रहता है । हजारों की संख्या में आने वाले मरीजों को कुछ अंशकालिक कर्मचारियों और बीस-पच्चीस रेजिडेंट डाक्टरों और एकाध वरिष्ठ डाक्टरों के सहारे निबटा देने की लापरवाही, तंत्र की जवाबदेही को कटघरे में खड़ी करती है । बीमारी की भयावहता से निपटने के लिये डॅाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की, वर्तमान संख्या से चार गुने की आवश्यकता है, वह भी अनुभवी और पूर्णकालिक डाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की । जबकि यह अमानवीय तंत्र, इस बीमारी को कुछ डाक्टरों और प्रेस मीडिया की उपज बता कर अपनी नालायकी छुपाने का प्रयास करता है । वह चाहता है कि इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतें और अपंग होते समाज की पीड़ा चर्चा में नहीं आनी चाहिये । दरअसल इंसेफेलाइटिस जैसी मच्छर और अशुद्ध पानी जनित बीमारियां, गरीबों के हिस्से में आती हैं और ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ के दर्शन की वाहक व्यवस्था की मंशा ही होती है कि ज्यादा से ज्यादा गरीब मरे । अगर ऐसा नहीं होता तो गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस का अलग वार्ड बनाने का काम पूरा कर लिया गया हेाता।
इसे दिखावा या पाखंड कहा जा सकता है कि इस वर्ष पी.एम.एस. सेवा के सेवा निवृत्त डाक्टरों को मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए उपलब्ध कराया गया है । जाहिर है कि पी.एम.एस. के डाॅक्टर मात्र एम.बी.बी.एस. डिग्री धारक होते हैं और उन्हें ऐसी गम्भीर बीमारी के इलाज का अनुभव नहीं होता । अगर ऐसा होता तो गांव-गिरांव के मरीजों का इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर हो जाता, न कि मेडिकल कॉलेज भेजने की जरूरत पड़ती । दूसरे मेडिकल कॉलेजों से 12 रेजिडेंट डॉक्टर उपलब्ध कराये गये हैं जो अनुभवी नहीं हैं। इस कामचलाऊं व्यवस्था के बजाय, स्थाई व्यवस्था, ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है । पी.जी. कोर्स के डॉक्टर, वरिष्ठ डाक्टरों के निर्देशन में बेहतर काम करते थे लेकिन इस वर्ष से 269 एकड़ में फैले इस मेडिकल कॉलेज से पी.जी. की डिग्री ही समाप्त कर दी गई है । ऐसे में बिना योग्य डाक्टरों के इन्सेफेलाइटिस का इलाज कैसे हो रहा है, हो रही मौतों से स्वतः समझा जा सकता है । मेडिकल कॉलेज के बाल विभाग में इन्सेफेलाइटिस मरीजों के लिए केवल 33 वेन्टीलेटर उपलब्ध हैं । एम.आई.आर. मशीन की सुविधा नहीं है ।
उत्तर प्रदेश में बात सिर्फ पूर्वांचल की नहीं की जा सकती। इंसेफेलाइटिस का प्रकोप बढ़ते-बढ़ते पूरे तराई क्षेत्र-गोंडा, बहराइच, श्रावस्ती, लखीमपुर, पीलीभीत तक तथा पश्चिम में सहारनपुर और मुजफ्फरनगर तक जा फैला है। प्रदेश की राजधानी में भी इसका प्रकोप दिखाई देने लगा है । इंसेफेलाइटिस जैसी भयावह बीमारी, देश के रहनुमाओं के चिंता का विषय नहीं बन पाई है। जनता को अशिक्षित और अज्ञानी बनाये रखा गया है । उसे सिर्फ वोट देने का पाठ पढ़ाया गया है । तभी तो जनता इन मौतों को आत्मसात करने के बावजूद लफ्फाजियों, नरेगा या मिड-डे-मील जैसे चोंचलों में उलझ कर, वादों या घडि़याली आंसुओं से संतृप्त हो जाती है । वह ऐसी त्रासदी को हथियार बना इसको समूल नष्ट करने हेतु संघर्ष नहीं करती । वह इंसेफेलाइटिस को चुनावी मुद्दा भी नहीं बनाती । अपने आकाओं से दम तोड़ते मासूमों का हिसाब नहीं मांगती । वह अनुदानों और खैरातबांटू योजनाओं में फंस कर मौन साधे मरने को अभिशप्त है । ऐसे में भूख, बेरोजगारी का दंश और अपराधियों के गिरफ्त में कराहते पूर्वांचल पर इंसेफेलाइटिस की मार, संताप बन उभरी है।
स्वच्छ पानी, व्यापक स्तर पर टीकाकरण का अभाव, तराई क्षेत्र में मच्छरों का प्रकोप, सुअरों के स्वतंत्र विचरण की छूट और उनके पालने की वैज्ञानिक तकनीकि का अभाव, जुलाई से अक्टूबर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और इससे सटे बिहार के जिलों में इंसेफेलाइटिस का खौफ, मांओं को सहमाये रहता है । वे अपने लाडलों की सलामती की दुआ मांगती हैं । ये चार माह गरीबों के लिये भयावह होते हैं । वैसे तो पूरे वर्ष कुछ न कुछ मरीज अस्पतालों में आते रहते हैं पर महामारी की स्थिति बरसाती मौसम में होती है । पूर्वांचल में भगवान भरोसे सिर्फ इंसेफेलाइटिस के मरीज ही नहीं जीते, स्वास्थ्य सेवायें भी भगवान भरोसे चलती है।
इस क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस के दो मुख्य कारक हैं। वेक्टर जनित जे0ई0(जापानी इंसेफेलाइटिस) वायरस और जल जनित इन्टरो वायरस इस क्षेत्र के लिये काल बने हुये हैं । पहले जे0ई0 वायरस ज्यादा खतरनाक समझा जाता था। जे0ई0 वायरस पीडि़त 30 प्रतिशत मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 30 प्रतिशत मरीज शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे। 19 प्रतिशत इन्टरो वायरस पीडि़त मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 15 प्रतिशत मरीज शारिरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे। अब जल जनित इन्टरो वायरस का प्रकोप बढ़ा है और वेक्टर जनित जे0ई0 से कहीं ज्यादा खतरनाक ढ़ंग से यह पूर्वांचल की गरीब जनता को मारने में लगा है । इस बीमारी से बच जाने वाले सामान्य जिंदगी जीने की स्थिति में नहीं होते । वे मानसिक और शारीरिक, दोनों रूप से प्रभावित होते हैं । असम के बाद पूर्वांचल ही ऐसा क्षेत्र है जो इंसेफेलाइटिस से त्रस्त है । इस बीमारी में मरीजों को सिरदर्द, बुखार, आलसपन, जुकाम, उल्टी या अचेतावस्था जैसे लक्षण दिखाई देते हैं । यह बीमारी शरीर के नाड़ी तंत्र को नुकसान पहुंचाती है और बचे मरीजों को हमेशा के लिये अपंग बना देती है । इंसेफेलाइटिस की चपेट में आ जाने के बाद मरीज के जीवित बचने के बावजूद पूरी तरह सामान्य जिंदगी जीने की संभावना न के बराबर रहती है। ऐसे में यह बीमारी पूर्वांचल के जनमानस को स्थाई तौर पर लकवाग्रस्त कर रही है।
देखा जाये तो पल्स पोलियों की तरह इस बीमारी से जूझने का न तो व्यवस्था के पास माद्दा दिखता है और न प्रचार-प्रसार की कोई योजना । मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के ख्याति प्राप्त अनुभवी डॉक्टर डॉ0 के0पी0 कुशवाहा के अनुसार यदि सुअरों के स्वतंत्र विचरण के बजाय, उन्हें बाड़े में पालने के प्रयास किए जाये, मच्छरों की रोकथाम और आम आदमी को इंडिया मार्का-2 नलों का पानी पीने की समुचित व्यवस्था कर दी जाये तो बहुत हद तक इस वायरस को फैलने से रोका जा सकता है । उनके अनुसार इंसेफेलाइटिस से जूझने के लिये व्यापक अभियान की जरूरत है।
जिस मेडिकल कॉलेज पर इलाज का सारा दारोमदार है वह अभावों की बलिवेदी पर लेटा, रोगग्रस्त नजर आ रहा है । बिस्तरों की कमी के अलावा, ऐय्याशियों के नाम करोड़ों खर्च करने वाले स्वास्थ्य विभाग के पास गिनती के अंशकालिक कर्मचारियों के वेतन का बजट नहीं है । आलम यह है कि स्टाफ नर्सों की कटौती की जा रही है । संविदा पर तैनात सफाई कर्मियों को साल भर से वेतन न मिलने के कारण, उनकी सेवायें बंद हैं । गंदगी से मेडिकल कॉलेज बजबजाने लगा है । परिसर में जानवरों के विचरण को रोकने के लिए तैनात सुरक्षा गार्डों की सेवायें भी समाप्त कर दी गई हैं । अब हर कहीं गाय-सुअर गंदगी करती दिख जायेंगी । आखिर हम इंसेफेलाइटिस को अब भी महामारी के रूप में स्वीकार करने को तैयार होंगे या नहीं ? क्या ठोस कार्य योजना के अभाव में मर रहे गरीब बच्चों के प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी और मृतप्राय हो चली है कि मात्र कुछ खानापूरी कर दायित्वों से मुक्त हो लेंगे?
मौत को स्वीकार करते, अपाहिज होते पूर्वांचल की यह त्रासदी, तंत्र की संवेदनशीलता और जनप्रतिरोध का मुद्दा कब बनेगी, देखना अभी बाकी है।
पहेली बना वायरस
साल 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ और 2009 में पुणे स्थित नेशनल वायरोलॉजी लैब की एक इकाई गोरखपुर में स्थापित हुई, ताकि रोग की वजहों की सही पहचान की जा सके।
टेस्ट किट उपलब्ध होने के चलते दिमागी बुखार की पहचान अब मुश्किल नहीं रही, लेकिन इन एंटेरो वायरस की प्रकृति और प्रभाव की पहचान करने की टेस्ट किट अभी विकसित नहीं हो सकी है। अमरीका के अटलांटा स्थित नए बैक्टीरिया और वायरस की खोज करने वाले संगठन सीडीसी (सेंट्रल डिजीज कंट्रोल) के वैज्ञानिक भी इन वायरसों का पता लगाने के लिए 2007, 2009 और 2012 में मेडिकल कॉलेज का दौरा कर चुके हैं। पूर्वांचल में इन्सेफेलाइटिस के खिलाफ मुहिम चला रहे वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर आरएन सिंह ने बताया कि सरकार मच्छरजनित जापानी इन्सेफेलाइटिस के खात्मे पर ध्यान दे रही है जबकि 98 प्रतिशत मरीज जलजनित इंटेरो वायरल इन्सेफेलाइटिस से ग्रस्त होते हैं। उसे खत्म करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वहीं मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर केपी कुशवाहा जो दो दशक से ज्यादा समय से बतौर बाल रोग विशेषज्ञ इस महामारी पर नजर रखते रहे हैं। वो इस बात पर संतोष जताते हैं कि बीते दिनों साफ- सफाई, शौचालय और शुद्ध पेयजल को लेकर जागरूकता और सरकारी सक्रियता बढऩे से खतरा कम हुआ है। लेकिन वो कहते हैं कि गांवों में अब भी मरीजों को सही वक्त पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती, जिससे मौतों का आंकड़ा बढ़ जाता है।
पूर्वांचल में तीन दशक से अधिक समय से जापानी इन्सेफेलाइटिस की महामारी फैली हुई है। प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में मासूम इसकी चपेट में आते है। जो बच्चे बच जाते है उनके हिस्से विकलांगता आ जाती है, जिससे बच्चों के साथ अभिभावकों को भी खासी परेशानी होती है। उन बच्चों को नार्मल होने में बहुत वक्त लग जाता है।
-डॉ. एके ठक्कर, विभागाध्यक्ष न्यूरो,
लोहिया इंस्टीट्यूट
अब तो लखनऊ में भी इंसेफेलाइटिस के मामले आने लगे है। लखनऊ के मेडिकल कॉलेज और सरकारी अस्पतालों की बात छोड़ दीजिए, प्राइवेट अस्पतालों में भी इन्सेफेलाइटिस के मरीजों की संख्या बढऩे लगी है। पूर्वांचल के ही मामले यहां ज्यादा आते हैं।
-डॉ. शैलेष अग्रवाल
बाल रोग विशेषज्ञ
पूर्वाचल में लिए नासूर बन चुके इंसेफेलाइटिस (जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) से पीड़ित मासूमों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है। केंद्र से लेकर प्रदेश की सरकार तक इंसेफेलाइटिस के बेहतर से बेहतर इलाज के दावे करती रहती हैं, लेकिन हकीकत में इंसेफेलाइटिस से मौतें साल दर साल बढ़ रही हैं। एक जनवरी से 20 जुलाई 2015 तक पूर्वांचल में इससे 80 मासूमों की मौत हो चुकी है।