यूपी विधानसभा चुनाव
11 फरवरी को होगा प्रथम चरण का मतदान।
यूपी की 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमाएंगे।
शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, एटा और कासगंज में होगा चुनाव।
इस चरण में पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी, भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री श्रीकांत शर्मा, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, संगीत सोम सहित कई नामचीन नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।
इस चरण में कैराना, बुढ़ाना, चरथावल, नोएडा, दादरी सहित कई सीटों पर प्रत्याशियों का मुकाबला दिलचस्प होगा।
इस चरण में मुजफ्फरनगर की सीट पर समाजवादी पार्टी का वर्तमान विधायक है, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद सपा केे लिए इस सीट को बचाना एक बड़ी चुनाैैती होगी।
इस चरण की शामली विधानसभा का गठन वर्ष 2008 में हुआ था।
शामली से 2012 में कांग्रेस के विधायक पंकज मलिक ने सपा केे वीरेंद्र सिंह को हराकर सपा की लहर में कांग्रेस की झोली में एक सीट डाल दी थी।
इस चरण में मुजफ्फरनगर की बुढ़ाना सीट पर पहली बार चुनाव वर्ष 1957 में हुआ था, 1967 के परिसीमन में यह सीट खत्म हो गई थी, लेकिन 2008 में यह फिर अस्तित्व में आई थी।
इस चरण में दादरी विधानसभा में भी मतदान होना है, इस सीट पर आजतक समाजवादी पार्टी का खाता नहीं खुला है, यहां से कांग्रेस चार बार जबकि बीजेपी और बीएसपी दो-दो बार जीत दर्ज करा चुकी है।
इस चरण में हापुड़ विधानसभा में भी चुनाव होना है,यहां से 2012 सहित आठ बार कांग्रेस ने जीत का स्वाद चखा है।
तृतीय चरण की खास बातें
इस चरण में 12 जिलों की 69 सीटों पर चुनाव होना है।
इसमें फर्रुखाबाद, हरदोई, कन्नौज, मैनपुरी, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी और सीतापुर में चुनाव होना है। यहां 19 फरवरी को मतदान होगा।
मायावती के लिए करो या मरो जैसी स्थिति
मिशन- 2017 में सभी राजनीतिक दल जीजान से जुटे हुए हैं लेकिन इस तैयारी में सबसे ज्यादा तैयार बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ही नज़र आयी हैं. बसपा ने सबसे पहले अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये और चुनावी तैयारियों में जुट गईं. मायावती ने वक्त की नब्ज़ को भी अच्छी तरह से पकड़ा है. इसी वजह से उन्होंने इस बार पहली बार सोशल मीडिया को भी अपना हथियार बनाया है.
समाजवादी पार्टी जिन दिनों परिवार के विवाद में उलझी थी उन दिनों मायावती यूपी विधानसभा के 403 टिकट फाइनल करने में लगी हुई थीं. बीजेपी चुनाव की तैयारी तो कर रही थी लेकिन उसने बिना दूल्हे की बारात सजा ली थी. बहुत तलाश के बावजूद भाजपा मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाई और मजबूरन वह अपने प्रत्याशियों की सूची घोषित करने में जुट गई. कांग्रेस की हालत यह रही कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बगैर वह ऐसे प्रत्याशी कहाँ से लाये जो सम्मानजनक तरीके से चुनाव लड़ सकें. बाक़ी दलों की हालत तो ज़िक्र के भी लायक नहीं दिख रही है.
बसपा सुप्रीमो ने 2017 के चुनाव के लिये ऐसे विशेषज्ञों को तलाशा है जो उनकी ब्रांडिंग कर सकें. आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले विशेषज्ञ मायावती के मीडिया का काम संभाल रहे हैं. वह सूबे के विभिन्न इलाकों से बसपा के बारे में फीडबैक ले रहे हैं. फीडबैक लेने के बाद वह इलाकों के मुद्दे तय कर रहे हैं. यह विशेषज्ञ दूसरे दलों के प्रचार के तरीके पर भी पर नज़र रख रहे हैं. मायावती ने इस चुनाव में फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप का भी खूब इस्तेमाल किया है. हर विधानसभा क्षेत्र से लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिये जोड़ा गया है.
इस अभियान में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आधिकारिक तौर पर तो न तो मायावती न ही बीएसपी ट्विटर पर है, मिलते जुलते नामों से कई अकाउंट बनाये गये हैं. बीएसपी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ट्विटर पर हैं. यही वजह है कि अब ट्विटर पर मायावती भी ट्रेंड करने लगी हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के लिये मायावती ने वक्त के साथ खुद को बदलने का फैसला किया है और इसका असर अब दिखने भी लगा है. मायावती को अपनी ब्रांडिंग करानी पड़ी क्योंकि यूपी में अखिलेश यादव एक बड़ा ब्रांड बन चुके हैं. अखिलेश ने काम बोलता है का नारा पेश किया तो मायावती की तरफ से भी नारा आया कि बहन जी को आने दो. 'बहनजी को आने दो' के नाम से दस पोस्टरों की एक सीरीज बनाई गई है. यह पोस्टर बदली हुई मायावती की तस्वीर स्पष्ट करेंगी.
मायावती की टीम ने 30 सेकेण्ड से लेकर पांच मिनट तक के 15 वीडियो तैयार किये हैं. इन वीडियो के ज़रिये समाजवादी घमासान और नरेन्द्र मोदी के जुमलों का जवाब देने की कोशिश की गई है. डेढ़ मिनट के एक वीडियो में मायावती को आयरन लेडी बताया गया है. बसपा के चुनाव प्रचार में इस बार मायावती बहुत मज़बूत तस्वीर में नज़र आयेंगी. इस बार के प्रचार में वोटर तक यह सन्देश जाएगा कि मायावती को किसी सहारे की ज़रुरत नहीं है.
मायावती के प्रचार में अखिलेश राज में हुए दंगों पर भी फोकस किया गया है. समाजवादी पार्टी में कितने बाहुबली हैं उन पर भी रौशनी डाली गई है. कुछ पोस्टर भी दिखेंगे जिनमें अखिलेश यादव के साथ यह बाहुबली अभय सिंह, पवन पाण्डेय, गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद को दिखाया गया है. इस प्रचार सामग्री को चुनाव आयोग से हरी झंडी मिलने का इंतज़ार किया जा रहा है. यह सब मायावती 2014 का लोकसभा चुनाव देखने के बाद कर रही हैं. उनके लिये करो या मरो वाली स्थिति है. उन्हें पता है कि अभी नहीं तो कभी नहीं.
मायावती इससे पहले के किसी भी चुनाव में मीडिया को अपना मानकर नहीं चलती थीं. उन्होंने कई बार कहा है कि मेरे कार्यकर्त्ता अखबार नहीं पढ़ते. वह मीडिया को मनुवादी बताती थीं. लेकिन इस बार मायावती का अंदाज़ बिलकुल बदला हुआ है. इस बार वह वह जल्दी-जल्दी प्रेस कांफ्रेंस करने लगी हैं. जल्दी-जल्दी उनके प्रेस नोट आने लगे हैं. प्रधानमंत्री की हर रैली के बाद मायावती ने प्रेस नोट के ज़रिये जवाब दिया है. मायावती बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि हाथी को किसी भी सूरत में बैठने नहीं देना है क्योंकि एक बार वह बैठ गया तो जल्दी उठने वाला नहीं है.
मायावती में इन दिनों गज़ब का कांफीडेंस नज़र आने लगा है. वह पत्रकारों के सवालों के जवाब देने लगी हैं. कैमरे के सामने मुस्कुराने लगी हैं. उनके कांफीडेंस का अंदाजा इसी बात से लगता है कि उन्होंने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी. उन्होंने किसी के साथ भी गठबंधन नहीं किया. मायावती का सीधा मुकाबला यूपी के विकास के लिए लगातार चार साल तक काम करने वाले अखिलेश यादव से है. मायावती कभी अखिलेश पर निशाना भी नहीं साधती हैं. अखिलेश भी कभी उनके खिलाफ कुछ नहीं बोलते हैं बावजूद इसके उन्हें चुनाव में अखिलेश की परवाह नहीं है क्योंकि वह जानती हैं कि चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे लड़ा जाता है. चुनाव जाति के भरोसे लड़ा जाता है. अपने प्रत्याशियों की घोषणा करने के बाद मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ में जुट गई हैं. दलित-मुस्लिम गठजोड़ के साथ-साथ मायावती सतीश चन्द्र मिश्र के ज़रिये ब्राह्मण वोटों में भी सेंध लगा ही रही हैं. मुस्लिम वोटों को बड़ी संख्या में हासिल करने के लिये मायावती ने 97 मुसलमानों को टिकट दिया है. 87 दलितों और 66 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने सभी जातियों को चुनाव में साधने की कोशिश की है. टिकट बांटने में मायावती ने अगड़ी-पिछड़ी, कायस्थ और पंजाबी सभी जातियों में सामंजस्य बिठाने की कोशिश की है. मायावती की निगाह 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी टिकी हुई है. मायावती विधानसभा चुनाव में आने वाले परिणाम से ज्यादा बसपा को मिलने वाले वोटों के प्रतिशत पर टिकी हैं. लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली केन्द्र सरकार में खुद को बारगेनिंग पावर में लाने की कोशिश में भी लगी हैं मायावती।
जिस सीट से विधानसभा का चुनाव लड़कर बसपा सुप्रीमो मायावती दो बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी है, वह सीट आरक्षित से अब सामान्य हो चुकी है, लेकिन आरक्षित विधायकों का ही इस सीट पर कब्जा चला आ रहा है। बदलते परिवेश में इस सीट पर समीकरण कुछ भी बने, लेकिन कब्जा बसपा का ही चला आ रहा है। खास बात यह रही कि इस सीट से चुनाव जीतने और मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा ही नहीं कर पाई।
सहारनपुर देहात के जिस विधानसभा सीट को जाना जाता है, वर्ष 1996 में उस सीट को हरोड़ा सीट से जाना जाता था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा कराए गए परिसीमन के बाद हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था और इस सीट को अनुसूचित जाति के आरक्षित सीट से सामान्य कर दिया गया था। इस परिसीमन के बाद अब जनपद में केवल रामपुर मनिहारान सीट ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। हरोडा (अब सहारनपुर देहात) सीट को बसपा का अभेद किला माना जाता है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस सीट से सबसे पहले 1996 में चुनाव लड़ा था। उस वक्त मायावती को 84647 वोट मिले थे, जबकि मायावती के सामने चुनाव लड़ी सपा प्रत्याशी बिमला राकेश को 57229 वोट मिले थे। 1996 में चुनाव जीतने के बाद मायावती, सपा बसपा गठबंधन के तहत मुख्यमंत्री बनी थी। लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। उस वक्त सपा बसपा के बीच तय हुआ था कि दोनों दल छह छह माह मुख्यमंत्री पद पर रहेंगे, लेकिन पहली छमाही पूरी होने के बाद बसपा का सपा से गठबंधन समाप्त हो गया। जिसके बाद इस सीट पर 1998 में उप चुनाव हुए और जगपाल सिंह विजयी हुए। जगपाल ने बीजेपी के मोहर सिंह को पराजित किया था।
वर्ष 2002 में हुए विधानस•ाा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती ने फिर से हरोड़ा सीट से चुनाव लड़ा। मायावती ने 70 हजार 800 वोट प्राप्त कर सपा की बिमला राकेश को पराजित किया। बिमला राकेश को 41 हजार 899 वोट मिले थे। 2002 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद बसपा और भाजपा में गठबंधन हुआ और मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बनी। भाजपा और बसपा का गठबंधन भी ज्यादा समय तक नहीं चल सका और मायावती ने करीब एक साल शासन करने के बाद भाजपा का साथ छोड़ दिया। जनपद की सहारनपुर देहात सीट ऐसी रही है कि इस सीट पर चुनाव लड़ने के बाद मायावती को दो दो बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस सीट को मायावती के लिए लकी भी माना जाता है।
2012 में विधानसभा चुनाव कराए जाने से पहले प्रदेश में विधानसभा सीटों का परिसीमन कराया गया तो हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था। इस सीट पर अनुसूचित जाति के लिए जो आरक्षण था वह भी समाप्त कर दिया गया था और इस सीट को सामान्य कर दिया गया था। सामान्य सीट होने के बावजूद यहां से बसपा के जगपाल सिंह लगातार जीत दर्ज करते आ रहे हैं।
सहारनपुर देहात सीट एक नजर में
पुरुष मतदाता- 171464
महिला मतदाता- 144982
थर्ड जेंडर मतदाता-10
कुल मतदाता- 316456
मतदान केंद्रों की संख्या 176
मतदेय स्थलों की संख्या-300
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शहर सीट पर कभी खाता नहीं खोल पाई बसपा
सहारनपुर शहर सीट की बात करें तो यह सीट ऐसी है, जहां पर 1996 से आज तक बहुजन समाज पार्टी अपना खाता ही नहीं खोल पाई है। इस सीट पर बसपा प्रत्याशी तीसरे और चौथे नंबर पर ही रहे हैं। सहारनपुर शहर सीट सामान्य सीट रही है। इस सीट पर भाजपा, सपा और जनता पार्टी के प्रत्याशी अपनी जीत दर्ज करते आए हैं। जनपद की राजनीति में सहारनपुर शहर सीट का अहम रोल है। इस सीट पर सभी बिरादरियों के मतदाता निवास करते हैं। सहारनपुर जनपद को बसपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन इस गढ़ के बावजूद शहर सीट से बसपा प्रत्याशी विजयश्री हासिल नहीं कर सके हैं। विधानसभा चुनाव के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि वर्ष 1996 से अब तक शहर सीट पर जनता पार्टी, सपा और भा जपा का ही कब्जा रहा है। वर्ष 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी संजय गर्ग ने 77690 मत प्राप्त कर भाजपा के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया था। उस वक्त लाजकृष्ण गांधी ने 69281 मत प्राप्त किए थे। वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में पूर्व विधायक संजय गर्ग ने जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और 64706 मत प्राप्त कर रालोद के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया। पूर्व विधायक लाजकृष्ण गांधी को 36702 वोट मिले थे। इस चुनाव में बसपा प्रत्याशी लियाकत अली को 11115 मतों पर ही संतोष करना पड़ा था। 2007 के विधानसभा चुनाव में भा जपा ने राघव लखनपाल शर्मा को अपना प्रत्याशी बनाकर चुनाव मैदान में उतारा था तो राघव ने यह सीट संजय गर्ग से कब्जा ली। राघव लखन पाल शर्मा ने 76049 वोट प्राप्त कर संजय गर्ग को दूसरे नंबर पर पहुंचा दिया था। संजय गर्ग को 57875 वोट मिले थे। 2012 के विधानसभा चुनाव में भा जपा के राघव लखनपाल शर्मा ने 85187 वोट प्राप्त कर पुन: इस सीट पर कब्जा किया और कांग्रेस प्रत्याशी स्व. सलीम इंजीनियर को परास्त किया। सलीम इंजीनियर कुल 72544 वोट प्राप्त कर दूसरे नंबर पर रहे थे। पिछले चार चुनावों के नतीजों पर नजर डालने के बाद यह ही पता चलता है कि सहारनपुर शहर सीट पर जीत दर्ज करना सपा और भाजपा के अलावा अन्य दलों के प्रत्याशियों के लिए टेडी खीर ही साबित होगी।
सहारनपुर शहर सीट एक नजर में
पुरुष मतदाता - 210096
महिला मतदाता- 182625
थर्ड जेंडर मतदाता-37
कुल मतदाता- 392760
मतदान केंद्र- 96
मतदेय स्थल-384
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महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं राजनीतिक दल
आज राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, लेकिन यहां पर राजनीतिक दल महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं। पिछले चुनावी परिदृश्य पर नजर डाले तो दस साल से सहारनपुर जनपद की किसी भी सीट पर कोई महिला विधायक नहीं बनी है। इस बाद अब तक प्रमुख राजनीतिक दलों के जो संभावित प्रत्याशी नजर आ रहे हैं, उनमें सपा को छोड़कर शेष अन्य किसी भी भी दल ने महिला प्रत्याशी पर भरोसा नहीं जताया है। राजनीतिक दलों पर महिला प्रत्याशियों पर कितना भरोसा है, इसका जीता जागता प्रमाण वर्तमान में देखने को मिल रहा है। हाल ही में सपा द्वारा जारी प्रत्याशियों की सूची रामपुर मनिहारान सीट से बिमला राकेश पर भरोसा जताया है। इसके अलावा बसपा सुप्रीमो ने जो सूची जारी की है, उस सूची में किसी भी महिला प्रत्याशी का नाम नहीं है। कांग्रेस और भजपा की सूची में भी किसी महिला प्रत्याशी का इनाम नही है।
अब बात करते हैं महिला विधायक की बाबत। वर्ष 2002 में हुए विधानसभ चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती यहां पर हरोड़ा विधानसभा सीट से जीती थी और विधायक बनी थी। बाद में मायावती ने इस सीट से त्यागपत्र दे दिया था और 2003 में इस सीट पर उप चुनाव संपन्न कराया गया। 2003 के उप चुनााव में सपा की बिमला राकेश ने इस सीट से जीत दर्ज की थी। इसके बाद नागल विधानसभ सीट पर 2005 में हुए उप चुनाव में पूर्व विधायक इलम सिंह की पत्नी सत्तो देवी ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में देवबंद सेीट से भा जपा प्रत्याशी शशिबाला पुंडीर और हरोड़ा सीट से सपा प्रत्याशी के रुप में बिमला राकेश ने चुनाव लड़ा था, लेकिन यह दोनों ही महिलाएं जीत नहीं सकी थी। 2007 और वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद कोई भी महिला प्रत्याशी जीत कर नहीं आ सकी है। ६ माह पूर्व देवबंद विधानसभ सीट पर हुए उप चुनाव में सपा ने महिला प्रत्याशी मीना राणा को मैदान में उतारा था, लेकिन वह भी जीत दर्ज करने में कामयाब नहीं हो सकी। मीना राणा फिर से देवबंद सीट से ही चुनाव मैदान में डटने को तैयार हैं।
सहारनपुर जनपद में विधायक बनी महिलाएं
-- 1996 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2002 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2003 में बिमला राकेश सपा से, हरोड़ा सीट
-- 2005 में सत्तो देवी बसपा से, नागल सीट
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समाप्त होगा भाजपा का वनवास?
भाजपा के वरिष्ठ नेता जनता से 14 सालों से सत्ता से दूर रही भा जपा का वनवास समाप्त करने का आग्रह कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सहारनपुर की जनता भी भाजपा का वनवास समाप्त करेगी। क्योंकि दस सालों से यहां पर केवल भाजपा एक ही सीट पर कब्जा करती आई है। अन्य सीटों पर भाजपा दूसरे और तीसरे नंबर पर सीमटती रही। यहां पर 1996 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दो सीट कब्जाई थी। उनमें एक सरसावा से स्व. निर्यभपाल शर्मा तथा देवबंद से पूर्व विधायक सुखबीर सिंह पुंडीर ने विजय दर्ज की थी। इसके बाद वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में सरसावा की सीट पर डा. धर्म सिंह सैनी ने तथा देवबंद सीट पर राजेंद्र राणा ने बतौर बसपा प्रत्याशी के रुप में कब्जा कर लिया था। 2002 के विधानसभा चुनाव में जनपद से भाजपा क ा पत्ता पूरी तरह से साफ हो गया था। 2002 से 2007 तक जनपद की सभी सीटों पर भाजपा पांच साल तक वनवास भोगती रही।
वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव भा जपा प्रत्याशियों को विजयी बनाने के पूरे प्रयास पार्टी पदाधिकारियों और नेताओं द्वारा किए गए, लेकिन तमाम तरह की कोशिशों के बावजूद शहर सीट से राघवलखन पाल शर्मा ने सपा के संजय गर्ग को हरा कर जीत दर्ज की। कुछ इसी तरह के समीकरण वर्ष 2012 के चुनाव में भी बने और केवल शहर सीट पर ही राघव लखनपाल शर्मा ने पुन: विधायक चुने गए। वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में राघव लखनपाल शर्मा सांसद बने तो इसके बाद हुए उप चुनाव में सहारनपुर सीट पर भाजपा के ही राजीव गुंबर ने जीत दर्ज की। लोकसभा चुनाव के दौरान बही मोदी लहर से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। इस दरम्यान नोटबंदी के कारण जनता बैंकों की लाइन में लगकर परेशान हो चुकी हैं, महंगाई की मार भी जनता झेल रही है। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि जनपद की जनता क्या सहारनपुर जनपद में भाजपा की सीटों में इजाफा कराएगी या फिर भाजपा एक ही सीट पर अपना दबदबा कायम रहेगी, यह तो मतदान के दौरान जनपद की जनता ही बताएगी?
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दलबदल का गज़ब है दलदल
इस बार दलबदल का दलदल गज़ब का है। पार्टियों की सूचियां चुगली कर रही हैं कि किसी को भी अपने काडर और कार्यकर्ताओ पर जैसे भरोसा ही नहीं रह गया है। सभी बाहरी दिग्गजो को सलीके से खड़ा कर कुछ पाना चाहते हैं। यह अलग बात है कि बसपा को छोड़ कर बाकी हर जगह अन्तर्कलह और बागी तेवर नज़र आने लगे हैं। खुद को उत्तर प्रदेश की सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के रूप में प्रस्तुत कर रही भाजपा को ही देखिये। कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने राजनीतिक वजूद के विस्तार का अभियान जो भाजपा चला रही है उसे अपने ही शक्ति केंद्र कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में जिताऊ उम्मीदवारों के लिए दलबदलुओं का सहारा लेना पड़ रहा है। पार्टी विद अ डिफरेंस की उत्तर प्रदेश में टिकटों के बंटवारे को लेकर जो गति हुई है वह जगहंसाई का सबब है। कोई छोटा बड़ा राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसके नेता या जिसकी बैसाखी की जरुरत उसे न पड़ी हो। हद तो यह है कि एक फीसदी से कम वोट पाने वाले अपना दल और एक जाति विशेष तक सीमित रहने वाली ओमप्रकश राजभर की भारतीय समाज पार्टी को भी हमसफर बनाना पड़ रहा है। अजीब सी स्थिति है। यह राजनीति भी समझ से पर है कि अपना दल ने पिछली बार 76 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिसमें 69 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई थी। अकेले अनुप्रिया पटेल सदन पहुंचने में कामयाब हुई थीं। सिर्फ बनारस, बलिया, गाजीपुर और मऊ इलाकों तक सिमटी रहने वाली भासपा केवल वोटकटवा बनकर रह गयी थी। बावजूद इसके भाजपा नेतृत्व को यह लग रहा है कि बिना इन दोनों दलों के चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल है। शायद इसी आशंका के चलते ही इन दलों को 8-10 सीटें देने पर सहमति बन गयी हैं जबकि इन सीटों पर इन दलों के पास भी कोई जिताउ उम्मीदवार नहीं है। अपना दल दो फाड़ हो चुका है। मां बेटी अलग-अलग हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भी अपना दल को दो सीटें दी गयीं थी। प्रतापगढ़ की सीट पर इस दल के पास अपना कोई उम्मीदवार ही नहीं था। हरवंश सिंह ने यह टिकट ‘जुगत’लगाकर लिया था। बाद में वह कमल के निशान पर लड़ने को तैयार हो गये।
भाजपा की चुनावी तैयारियों को इससे भी समझा जा सकता है कि उसने अपने सांसद केशव मौर्य को प्रदेश की कमान दी और फिर बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे उन स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में शामिल कराया जिनके ऊपर हिंदू देवी देवताओं पर फितरे कसने का आरोप है। लखनऊ की सारी की सारी सीटें सिर्फ पिछले चुनाव को छोड़ दी जाएँ तो पारंपरिक तौर पर भाजपा की कही जाती हैं। बावजूद इसके लखनऊ कैंट की विधायक और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी को पार्टी में शामिल कराया गया। बसपा के ब्राह्मण चेहरों में से एक पूर्व सांसद बृजेश पाठक को लखनऊ मध्य से आजमाया है। भाजपा की तीसरी सूची बीते मंगलवार को जारी हुई। 67 उम्मीदवार की सूची में 25 दलबदलू उम्मीदवार हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो 265 सीटें पाने का लक्ष्य रखने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने में कितनी और किस तरह कामयाब होगी यह लाख टके का सवाल है। भाजपा की सूची ही दलबदलुओँ से शुरु होती है। विधानसभा संख्या 1 और 2 पर पार्टी ने बसपा छोड़कर आए महावीर राणा और धर्म सिंहसैनी को पहली ही सूची में ही टिकट दे दिया।
सबसे अधिक बसपाइयों पर ही भाजपा की कृपा बरसी है। जुगल किशोर के बेटे सौरभ सिंह और उनके करीबी रूमी साहनी और बाला प्रसाद अवस्थी को पार्टी ने उम्मीदवार बना दिया है। दलबहादर कोरी, आर के चौधरी, दीनानाथ भास्कर, दारा चौहान, फागू चौहान, जयवीर सिंह, ममतेश शाक्य, राजेश त्रिपाठी, रजनी तिवारी अंशुल वर्मा, उत्कृष्ण मौर्य, रमानाथ कश्यप सरीखे तकरीबन तीन दर्जन ऐसे लोगों को हाथी से उतार कर कमल का फूल थमा दिया गया है। भाजपा की ओर से प्रसाद पाने वालो में दूसरे स्थान पर सपाई रहे हैं। शेरबहादुर सिंह के बेटे, मयंकेश्वर शरण सिंह, पक्षालिका सिंह, कुलदीप सेंगर सरीखे एक दर्जन से अधिक नाम ऐसे हैं जिनके बिना सरकार बनाने का बीजेपी का सपना पूरा होता नहीं दिखा इसीलिय पार्टी में इन्हें जगह दी गयी। समाजवादी पार्टी की वर्तमान महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष के बेटे हर्ष वाजपेयी तक को भाजपा ने टिकट दे दिया है।
कांग्रेस से आए संजय जायसवाल, माधुरी वर्मा और शिवगणेश लोधी के परिवार को भी टिकट दिया गया है। राष्ट्रीय लोकदल के दलबीर सिंह को भी पार्टी ने टिकट देकर नवाजा। हद तो यह है कि पार्टी ने दूसरे दलों से बाहुबली भी लिए हैं। लल्ला भैया और खब्बू तिवारी का नाम शामिल है। इसी तरह पार्टी ने एनसीपी से आए विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के बेटे फतेहबहादुर को भी भाजपा ने इस तरह भाजपा की पूरी सूची देखी जाय तो कोई छोटा और बड़ा दल ऐसा नहीं है जिसमें सेंधमारी का दावा करके अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़े नेता न नज़र आएँ। लेकिन जमीनी हकीकत ठीक उलट है भाजपा को विद्रोह शांत कराने में आधे से अधिक ताकत लगानी पड़ेगी। और अगर वह असफल होती है तो इसका एकमात्र कारण दलबदलुओं पर दांव लगाना ही होगा।
कमोबेश बसपा की भी यही स्थिति है। बसपा में सबसे चौकाने वाला दलबदल तो अंबिका चौधरी की शक्ल में हुआ। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक अंबिका चौधरी बसपा में शामिल हुए हालांकि उनका सपा मे टिकट घरेलू कलह के चलते अखिलेश यादव ने काट दिया। इसी तरह बसपा ने भाजपा कांग्रेस से आए नवाजिश आलम खान, अवधेश वर्मा, नवाब काजिम अली, दिलनवाज खान, जमील सिद्दीकी सरीखे नामों को पार्टी में न सिर्फ शामिल किया बल्कि माननीय बनने की दौड़ में उतार दिया है। और तो और सत्ता की तरफ देख रही मायावती जिन्होंने अपने पूरे शासन काल में उमाकांत और रमाकांत परिवार को मुख्यमंत्री आवास से गिरफ्तार करा कर वाहवाही लूटी और जिनका चुनाव का एजेंडा ही सपा की गुंडागर्दी से निपटना है वह भी सत्ता पाने के लिए मुख्तार अंसारी भाइयों को दो सीट देने को तैयार है। इसके लिए बाकायदा उन्होंने अपने घोषित प्रत्याशी भी वापस ले लिए।
वहीं विकास के नाम और अखिलेश के काम पर चुनाव लड़ रही समाजवादी पार्टी भी पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद दलबदलुओं के मोह से मुक्त नहीं हो सकता। अपने गढ़ समझे जाने वाले संडीला विधानसभा में उसने बसपा से आए अब्दुल मन्नान को टिकट दिया है तो वहीं भाजपा के रहे एक विधायक विजय बहादुर यादव और कांग्रेसी विधायक रहे मुकेश श्रीवास्तव को भी साइकिल की सवारी करा दी है। वहीं अखिलेश यादव के निजाम में समाजवादी पार्टी ने जे पी जायसवाल, अयोध्या पाल, अमर सिंह परमार और अंशू देवी निषाद को टिकट देकर दल बदल पर अपना भरोसा जताया है। पूरे पांच साल तक सरकार के हमकदम बनकर रहे एमआईएम के बरेली से विधायक शहजिल इस्लाम को अखिलेश ने अपनी पार्टी से ही चुनाव मैदान में उतार दिया। वहीं कांग्रेस का दामन भी दलबदलुओं के दाग से इतर नहीं है। अब तक जारी सूची में भी मुकेश चौधरी, शेरबाज खान और अमरपाल शर्मा को हाथ का साथ पकड़ा दिया। वहीं रालोद समेत कई ऐसे छोटे दल हैं जिनकी मजबूरी हो दलबदल कर आए मजबूत प्रत्याशी बन जाते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव साबित करते हैं कि हर दल को अपनों से ज्यादा दूसरों पर भरोसा है और दलबदल के दलदल से कोई भी पार्टी अछूती नहीं है।
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इस गठबंधन का तो कहना ही क्या
यह सच है कि इतिहास अकसर खुद को दोहराता है। हालांकि उसके किरदार बदलते रहते है। उस बार नरसिम्हाराव कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। दिग्गज की हैसियत वाली अपनी कांग्रेस पार्टी का गठबंधन उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से किया था। विज्ञान का एक नियम है कि ऊष्मा बडे पिंड से छोटे पिंड की ओर संचारित होती है। राजनीति में यह विज्ञान चल गया। दिग्गज दोयम दर्जे की हैसियत मे आ गये और दोयम दर्ज सबल हो गया। आज फिर दिग्गज और दोयम की हैसियत वाले दो दल गठबंधन कर रहे हैं। मगर हैसियत बदली हुई है। इसे अतिश्योक्ति न माना जाय तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यहां से कांग्रेस के पुनर्उत्थान का दरवाजा खुल सकता है। दरअसल इस गठजोड़ की सबसे बड़ी लाभार्थी भी वही है। इसलिए भी क्योंकि वह अपने कदाचित सबसे बुरे दौर में है। सपा से एक बड़ा समझौता उस पी के की सबसे बड़ी राजनीतिक चतुराई है जिसे खुद कांग्रेसी बेकार का बोझ बताते फिर रहे थे। अकेले लड़ने पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा होता और ठीकरा फिर राहुल गांधी के कुर्ते फाड़ता मगर अब वह नफे में है। जीत का श्रेय और सीट उसकी होगी और नुकसान का दोष सपा की कलह या अखिलेश की असफलता को जाएगा। सपा भी भला क्या करती गठबंधन उसकी मजबूरी थी। उसे ढंग से पता था कि अखबारी पन्नों पर पसरी विकास की जमीनी हकीकत क्या है। विकास के लंबे चौड़े दावों के बीच भी सत्ता विरोधी रुझान से मुक्त हो पाना उसके बूते का नहीं था। मायावती के अचानक हमलावर होने और बड़ी तादाद में मुस्लिमों को टिकट देने से उन्हें मिली बढ़त में यही एक रास्ता था। वरना मुस्लिम वोट बैंक के खिसकने का यह चुनाव एक बड़ा अवसर होता। मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की जो विकास यात्रा 25 में पूरी की उसमें इस मुस्लिम मतदाताओँ का किरदार बेहद अहम रहा। उन्होने जो माई (मुस्लिम+यादव) समीकरण तैयार किया उसमें मुस्लिम मतदाताओं की तादाद माई के यादव मतदाताओं से दोगुनी से थोड़ी अधिक थी। इन मतदाताओं को बांधे रखने के लिए मुलायम सिहं यादव ने ‘परिंदा पर नहीं मार सकता’ और ‘मुल्ला मुलायम’ करतब किए। उत्तर प्रदेश मे करीब 70 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां 20-30 फीसदी मुस्लिम है। इनमें कुछ सीटों मे अल्पसंख्यक मतदाताओं की तादाद 41 से 45 फीसदी तक भी बैठती है।
सूबे मे 19.3 फीसदी मुस्लिम आबादी है जो 143 सीटों पर अपनी उपस्थिति का एहसास करा सकती है। समाजवादी पार्टी के आपसी अंतर्कलह के तकरीबन एक दूसरे से गुथे और बुने हुए तार जब घटनाक्रम के मार्फत लोगो के सामने आए उसी समय बहुजन समाज पार्टी का उभार तेज हो गया। अल्पसंख्यक मतदाता बसपा की ओर उम्मीदभरी निगाह से देखने लगे। उन्हें भाजपा के विकल्प के तौर पर आपस में लड़ती हुई सपा के मुकाबले बसपा बेहतर नज़र आई। मायावती ने भी 97 उम्मीदवार उतार कर यह जताने की कोशिश की कि वह असली खैरख्वाह है, भाजपा से वही मुकाबिल है। यह भी सही है कि सूबे मे दलित और मुस्लिम गठबंधन प्रभावकारी भूमिका अदा कर सकता है। 21.1 फीसदी दलित उत्तर प्रदेश में है। 66 उपजातियां हैं इनमें 13 फीसदी सिर्फ जाटव हैं जो मायावती की बिरादरी के कहे जाते है। 8 फीसदी अन्य दलित जातियां हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव मे समाजवादी पार्टी 29.13 फीसदी वोट पाकर 224 सीटे जीतने मे कामयाब हो गयी थी। हलाकि 53 जगहो पर समाजवादी उम्मीदवारों को जमानते भी जब्त हुई थी। उसे 2 करोड़ 20 लाख 90 हजार के आसपास वोट मिले यह 29.13 फीसदी बैठता है। बसपा को 1 करोड़ 96 लाख 43 हजार के आसपास वोट मिले जो 25.91 फीसदी बैठता है। दोनों पार्टोयों के बीच तकरीबन सिर्फ 25 लाख वोटों का अंतर था। ऐसे में सपा और कांग्रेस गठबंधन से पहले बसपा की उम्मीदों का हिलोरे मारना गैरवाजिब नही था क्योंकि इससे काफी ज्यादा वोट सत्ता विरोधी रुझान में इधर उधर होते रहते है। यही नही 2007 के चुनाव में बसपा ने जब 30.43 फीसदी वोट हासिल कर सरकार बनाई थी तब उसे सूबे के 1 करोड़ 58 लाख 72 आसपास मतदाताओं ने पसंद किया था। जबकि दूसरे पायदान पर रहने वाली समाजवादी पार्टी को 25.43 फीसदी वोट मिले थे उसे 1 करोड़ 32 लाख 67 हजार मतदाताओ ने वोट दिया था।
संजय तिवारी
उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव की बाज़ चुकी रणभेरी ने अब राजनीतिक पंडितो की नींद हराम कर दी है। बिना किसी लहर और मुद्दे के यह चुनाव बिलकुल परंपरा से हट कर होता दिख रहा है। अभी तक प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही समाजवादी पार्टी के छह महीने तक चले अंतरकलह और पार्टी पर अखिलेश यादव के कब्जे के बाद कांग्रेस से हुए उनके गठबंधन के कारण यह मामला अब और भी दिलचस्प हो चुका है। कांग्रेस ही वह एक मात्रा पार्टी रही है जिसकी खिलाफत कर के मुलायम सिंह यादव ने समाजवाद का अपना कुनबा बढ़ाया और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सिरमौर बन कर शासन करते रहे। आज उनके बेटे ने जब पार्टी हथिया लिया तो उसने सबसे पहले उसी कांग्रेस से हाथ मिला कर अपनी नयी पारी की शुरुआत कर दी। हालांकि अब से कुछ माह पहले तक जब कोई कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबंधन की चर्चा करता था तो लोग है कर ताल दिया करते थे। आज वह गठबंधन हो चुका है।
प्रदेश में राजनीती की दूसरी धुरंधर खिलाड़ी बसपा सुप्रीमो मायावती भी इस बार सत्ता में आने की अपनी दावेदारी कर रही हैं और जी जान से उन्होंने कोशिश भी शुरू कर दी है। खुद की पार्टी को मज़बूती देने के लिए उन्होंने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर के सभी को काम पर भी लगा दिया है। भाजपा की सूची आते आते बहुत देर हुई है। यहाँ यह दिलचस्प है की पहले दूसरे और तीसरे चरण के चुनाव इन्ही तीन के बीच लड़ा भी जाना है। पहले चरण की 73 , दूसरे चरण की 67 और तीसरे चरण की 69 सीट पर अब सभी की सेनाये जैम चुकी हैं। यह कुल संख्या 209 होती है जो यह तय करेगी कि अबकी उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर कौन काबिज होने वाला है।
दरअसल , ये सभी सीटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हैं जहां माहौल को ध्रुवीकरण के रूप में देखने की कोशिश की जा रही है।
प्रथम चरण की खास बातें
11 फरवरी को होगा प्रथम चरण का मतदान।
यूपी की 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमाएंगे।
शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, एटा और कासगंज में होगा चुनाव।
इस चरण में पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी, भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री श्रीकांत शर्मा, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, संगीत सोम सहित कई नामचीन नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।
इस चरण में कैराना, बुढ़ाना, चरथावल, नोएडा, दादरी सहित कई सीटों पर प्रत्याशियों का मुकाबला दिलचस्प होगा।
इस चरण में मुजफ्फरनगर की सीट पर समाजवादी पार्टी का वर्तमान विधायक है, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद सपा केे लिए इस सीट को बचाना एक बड़ी चुनाैैती होगी।
इस चरण की शामली विधानसभा का गठन वर्ष 2008 में हुआ था।
शामली से 2012 में कांग्रेस के विधायक पंकज मलिक ने सपा केे वीरेंद्र सिंह को हराकर सपा की लहर में कांग्रेस की झोली में एक सीट डाल दी थी।
इस चरण में मुजफ्फरनगर की बुढ़ाना सीट पर पहली बार चुनाव वर्ष 1957 में हुआ था, 1967 के परिसीमन में यह सीट खत्म हो गई थी, लेकिन 2008 में यह फिर अस्तित्व में आई थी।
इस चरण में दादरी विधानसभा में भी मतदान होना है, इस सीट पर आजतक समाजवादी पार्टी का खाता नहीं खुला है, यहां से कांग्रेस चार बार जबकि बीजेपी और बीएसपी दो-दो बार जीत दर्ज करा चुकी है।
इस चरण में हापुड़ विधानसभा में भी चुनाव होना है,यहां से 2012 सहित आठ बार कांग्रेस ने जीत का स्वाद चखा है।
द्वितीय चरण की खास बातें
इस चरण में 11 जिलों की 67 सीटों पर चुनाव होना है।
यहां नामांकन भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी है।
यहां 15 फरवरी को मतदान और 11 मार्च को मतगणना होनी है।
इस चरण में सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर और बदांयू में चुनाव होना है।
इस चरण में सहारनपुर की नकुड़ विधानसभा सीट पर पहली बार 1952 में चुनाव हुआ था।
सहारनपुर देहात की सीट का नाम 2007 के विधानसभा चुनावों तक हरोड़ा सीट था और यह बहुजन समाज पार्टी की प्रिय सीटों में से एक है।
मायावती खुद हरोड़ा सीट से 2002 में चुनाव लड़कर जीत हासिल कर चुकी हैं।
संभल जिले की असमौली विधानसभा 2012 में अस्तित्व में आई थी।
यूपी कांग्रेस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष इमरान मसूद सहारनपुर से अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं। इन्होंने लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की बोटी-बोटी करने का विवादित बयान दिया था।
रामपुर की स्वार सीट से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां के पुत्र छोटे आजम यानि अब्दुल्ला आजम खां की सियासी पारी शुरू होने जा रही है।
बदांयू को समाजवादी पार्टी के कदृदावर नेता सांसद धर्मेंद यादव का गढ़ माना जाता है।
बदायूू ही वह सीट है जहां से अपने नेता धर्मेंद यादव के खिलाफ सपा विधायक आबिद रजा ने बगावत की थी।
इस चरण में 11 जिलों की 67 सीटों पर चुनाव होना है।
यहां नामांकन भरने की अंतिम तिथि 27 जनवरी है।
यहां 15 फरवरी को मतदान और 11 मार्च को मतगणना होनी है।
इस चरण में सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर और बदांयू में चुनाव होना है।
इस चरण में सहारनपुर की नकुड़ विधानसभा सीट पर पहली बार 1952 में चुनाव हुआ था।
सहारनपुर देहात की सीट का नाम 2007 के विधानसभा चुनावों तक हरोड़ा सीट था और यह बहुजन समाज पार्टी की प्रिय सीटों में से एक है।
मायावती खुद हरोड़ा सीट से 2002 में चुनाव लड़कर जीत हासिल कर चुकी हैं।
संभल जिले की असमौली विधानसभा 2012 में अस्तित्व में आई थी।
यूपी कांग्रेस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष इमरान मसूद सहारनपुर से अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं। इन्होंने लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की बोटी-बोटी करने का विवादित बयान दिया था।
रामपुर की स्वार सीट से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां के पुत्र छोटे आजम यानि अब्दुल्ला आजम खां की सियासी पारी शुरू होने जा रही है।
बदांयू को समाजवादी पार्टी के कदृदावर नेता सांसद धर्मेंद यादव का गढ़ माना जाता है।
बदायूू ही वह सीट है जहां से अपने नेता धर्मेंद यादव के खिलाफ सपा विधायक आबिद रजा ने बगावत की थी।
तृतीय चरण की खास बातें
इस चरण में 12 जिलों की 69 सीटों पर चुनाव होना है।
इसमें फर्रुखाबाद, हरदोई, कन्नौज, मैनपुरी, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी और सीतापुर में चुनाव होना है। यहां 19 फरवरी को मतदान होगा।
इटावा को मुलायम सिंह यादव का गढ़ माना जाता है, ऐसे में सपा के लिए यह सीट जीतना प्रतिष्ठा की बात है।
बाराबंकी में समाजवादी पार्टी छोड़कर गए कद्दावर नेता बेनी प्रसाद वर्मा के बेटे राकेश वर्मा अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतरकर सपा से बगावती तेवर दिखाएंगे।
कन्नौज सांसद और सीएम अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव की प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी।
बाराबंकी में समाजवादी पार्टी छोड़कर गए कद्दावर नेता बेनी प्रसाद वर्मा के बेटे राकेश वर्मा अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतरकर सपा से बगावती तेवर दिखाएंगे।
कन्नौज सांसद और सीएम अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव की प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी।
लखनऊ कैंट विधानसभा से मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव और कांग्रेस का हाथ छोड़ बीजेपी का दामन थामने वाली रीता बहुगुणा जोशी के बीच होने वाली सियासी लड़ाई को देखना दिलचस्प होगा।
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बसपा के सामने गढ बचाने की चुनौती
प्रथम चरण की सीट वाले क्षेत्र को बसपा का गढ माना जाता है।यहां पिछले तीन चुनावों से लगातार नीला झंडा लहराया है। वर्ष 2012 में साइकिल के पक्ष में बही हवा भी समीकरण नहीं बदल सकी थी। पर वर्तमान में हालात अलग हैं। मुजफ्फरनगर जिले की सीटों पर अब भी दंगों की छाया दिख रही है तो सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद नये समीकरण सतह पर आ गए हैं। भाजपा भी मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ऐसे में बसपा के सामने इन सीटों को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है। चरथावल विधानसभा सीट पर लगातार तीन चुनावों से बसपा का ही दबदबा रहा है। वर्ष 2007 और 2012 में यहां बसपा की भाजपा से कड़ी टक्कर हुई थी। पिछले चुनाव में बसपा के नूर सलीम राणा ने भाजपा के विजय कुमार से 12706 वोट से धूल चटाई थी। वर्तमान चुनाव में बसपा ने एक बार फिर राणा को ही उम्मीदवार बनाया है और भाजपा ने इस बार फिर विजय कश्यप को मौका दिया है। इस बार यह लड़ाई और तीखी होने की संभावना है क्योंकि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद इस सीट के हालात बदले—बदले से हैं। बसपा प्रत्याशी पर दंगो में साम्प्रदायिकता फैलाने का आरोप लगे थे, जिससे उनकी छवि कट्टर मुस्लिम नेता की बन गयी है। इसके चलते बसपा का परम्परागत वोट भी उनसे छिटक सकता है। बहरहाल इस सीट पर सपा ने 2012 में प्रत्याशी रहे मुकेश चौधरी को फिर मैदान में उतारा है।
तीसरी विधानसभा से लेकर 15वीं विधानसभा तक जेवर विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी, अब यह अनारक्षित सीट है। वर्ष 1991, 1993 और 1996 के चुनाव में यहां कमल खिल चुका है। कांग्रेस भी यहां से तीन बार जीत दर्ज कर चुकी है। पिछले तीन चुनाव में इस सीट पर लगातार बसपा और कांग्रेस में कड़ी टक्कर हुई है। पर हर बार यह सीट बसपा के ही खाते में गई। सपा का अब तक यहां से खाता नहीं खुला है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से भाजपा के महेश कुमार शर्मा ने सपा के नरेंद्र भाटी को 280212 वोटों से हराया था। बसपा ने मौजूदा विधायक वेदराम भाटी को यहां से फिर प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में भाटी को 38 फीसदी मत मिले थे। कांग्रेस के धीरेन्द्र सिंह 32 और सपा के विजेन्द्र को 20 प्रतिशत मतों से ही संतोष करना पड़ा था। इस बार भाजपा ने धीरेन्द्र सिंह को मौका दिया है। जबकि सपा ने नरेन्द्र नागर को मैदान में उतारा है। सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद अब क्षेत्र में नये सियासी समीकरण तैर रहे हैं।
वर्ष 1996 के चुनावों से हाथरस (सु.) सीट बसपा के कब्जे में है। रामवीर उपाध्याय लगातार तीन बार इस क्षेत्र से विधानसभा पहुंच चुके हैं। वर्ष 2012 में गेंदा लाल चौधरी ने 37 फीसदी मतों के साथ नीला झंडा फहराया था। भाजपा के राजेश कुमार ने 32 फीसदी वोट झटक कर उन्हें कड़ी टक्कर दी थी। सपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी राजेश राज जीवन को 19 प्रतिशत वोट मिले थे। अब सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद जिले के राजनीतिक समीकरणों ने एक बार फिर करवट बदली है। इस बार चुनाव में भाजपा ने कई दलों का स्वाद चख चुके पूर्व विधायक हरी शंकर माहौर को प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस ने फिर राजेश राज जीवन पर विश्वास जताया है। बसपा से जिला पंचायत सदस्य बृज मोहन राही भी मुकाबले मे हैं। यहां त्रिकोणीय मुकाबला होने के आसार हैं।।
आगरा बसपा का गढ माना जाता है। यहां विधानसभा की नौ सीटे हैं। साल 2007 के चुनाव में पार्टी ने सात विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था। वर्ष 2012 में उसे छह सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा को दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और एक सीट सपा के खाते में आयी थी। बात करें एत्मादपुर विधानसभा सीट की तो वर्ष 2007 तक यह अनारक्षित सीट थी। तब भी वर्ष 1996 और 2007 के चुनावों में बसपा को जीत मिली। नये परिसीमन के तहत वर्ष 2012 में जब यह सीट सामान्य घोषित की गई, तब भी बसपा के धर्मपाल सिंह 34 फीसदी मतों के साथ विजयी हुए थे। सपा के प्रेम सिंह ने इनको कड़ी टक्कर दी थी, उन्हें 30 प्रतिशत और भाजपा के राम प्रकाश सिंह को 21 फीसदी वोट मिले थे।
आगरा छावनी में वर्ष 2002, 2007 और 2012 में हाथी जनता की पसंद रहा है। वर्तमान में विधायक गुटियारी लाल दुबेश को बसपा ने प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में उन्हें 32 फीसदी वोट मिले थे। उन्होंने भाजपा के जीएस धर्मेश को सात हजार वोटों से हराया था। सपा को 22 और कांग्रेस को 11 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा ने इस बार फिर दुबेश को ही प्रत्याशी बनाया है। इस दलित—मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में पिछले तीनों चुनाव में बसपा की भाजपा से कड़ी टक्कर हुई है। इसके पहले वर्ष 1989 से लेकर 1996 तक लगातार चार बार यह सीट भाजपा के कब्जे में रही है। इसलिए यहां भाजपा को कमतर नहीं आंका जा सकता है।
इन सीटों पर अब तक नहीं खुला बसपा का खाता
ऐसा नहीं कि बसपा प्रथम चरण की 73 सीटों पर मतदाताओं को समान रूप से प्रभावित करती है। इनमें कुछ सीटे ऐसी हैं, जिन पर अभी तक पार्टी का खाता नहीं खुला है। इनमें कैराना, थानाभवन, बुढाना, मुजफ्फरनगर, किठौर और गढमुक्तेश्वर विधानसभा सीट शामिल हैं।
तीसरी विधानसभा से लेकर 15वीं विधानसभा तक जेवर विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी, अब यह अनारक्षित सीट है। वर्ष 1991, 1993 और 1996 के चुनाव में यहां कमल खिल चुका है। कांग्रेस भी यहां से तीन बार जीत दर्ज कर चुकी है। पिछले तीन चुनाव में इस सीट पर लगातार बसपा और कांग्रेस में कड़ी टक्कर हुई है। पर हर बार यह सीट बसपा के ही खाते में गई। सपा का अब तक यहां से खाता नहीं खुला है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से भाजपा के महेश कुमार शर्मा ने सपा के नरेंद्र भाटी को 280212 वोटों से हराया था। बसपा ने मौजूदा विधायक वेदराम भाटी को यहां से फिर प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में भाटी को 38 फीसदी मत मिले थे। कांग्रेस के धीरेन्द्र सिंह 32 और सपा के विजेन्द्र को 20 प्रतिशत मतों से ही संतोष करना पड़ा था। इस बार भाजपा ने धीरेन्द्र सिंह को मौका दिया है। जबकि सपा ने नरेन्द्र नागर को मैदान में उतारा है। सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद अब क्षेत्र में नये सियासी समीकरण तैर रहे हैं।
वर्ष 1996 के चुनावों से हाथरस (सु.) सीट बसपा के कब्जे में है। रामवीर उपाध्याय लगातार तीन बार इस क्षेत्र से विधानसभा पहुंच चुके हैं। वर्ष 2012 में गेंदा लाल चौधरी ने 37 फीसदी मतों के साथ नीला झंडा फहराया था। भाजपा के राजेश कुमार ने 32 फीसदी वोट झटक कर उन्हें कड़ी टक्कर दी थी। सपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी राजेश राज जीवन को 19 प्रतिशत वोट मिले थे। अब सपा—कांग्रेस गठबंधन के बाद जिले के राजनीतिक समीकरणों ने एक बार फिर करवट बदली है। इस बार चुनाव में भाजपा ने कई दलों का स्वाद चख चुके पूर्व विधायक हरी शंकर माहौर को प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस ने फिर राजेश राज जीवन पर विश्वास जताया है। बसपा से जिला पंचायत सदस्य बृज मोहन राही भी मुकाबले मे हैं। यहां त्रिकोणीय मुकाबला होने के आसार हैं।।
आगरा बसपा का गढ माना जाता है। यहां विधानसभा की नौ सीटे हैं। साल 2007 के चुनाव में पार्टी ने सात विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था। वर्ष 2012 में उसे छह सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा को दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और एक सीट सपा के खाते में आयी थी। बात करें एत्मादपुर विधानसभा सीट की तो वर्ष 2007 तक यह अनारक्षित सीट थी। तब भी वर्ष 1996 और 2007 के चुनावों में बसपा को जीत मिली। नये परिसीमन के तहत वर्ष 2012 में जब यह सीट सामान्य घोषित की गई, तब भी बसपा के धर्मपाल सिंह 34 फीसदी मतों के साथ विजयी हुए थे। सपा के प्रेम सिंह ने इनको कड़ी टक्कर दी थी, उन्हें 30 प्रतिशत और भाजपा के राम प्रकाश सिंह को 21 फीसदी वोट मिले थे।
आगरा छावनी में वर्ष 2002, 2007 और 2012 में हाथी जनता की पसंद रहा है। वर्तमान में विधायक गुटियारी लाल दुबेश को बसपा ने प्रत्याशी बनाया है। पिछले चुनाव में उन्हें 32 फीसदी वोट मिले थे। उन्होंने भाजपा के जीएस धर्मेश को सात हजार वोटों से हराया था। सपा को 22 और कांग्रेस को 11 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा ने इस बार फिर दुबेश को ही प्रत्याशी बनाया है। इस दलित—मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में पिछले तीनों चुनाव में बसपा की भाजपा से कड़ी टक्कर हुई है। इसके पहले वर्ष 1989 से लेकर 1996 तक लगातार चार बार यह सीट भाजपा के कब्जे में रही है। इसलिए यहां भाजपा को कमतर नहीं आंका जा सकता है।
इन सीटों पर अब तक नहीं खुला बसपा का खाता
ऐसा नहीं कि बसपा प्रथम चरण की 73 सीटों पर मतदाताओं को समान रूप से प्रभावित करती है। इनमें कुछ सीटे ऐसी हैं, जिन पर अभी तक पार्टी का खाता नहीं खुला है। इनमें कैराना, थानाभवन, बुढाना, मुजफ्फरनगर, किठौर और गढमुक्तेश्वर विधानसभा सीट शामिल हैं।
मायावती के लिए करो या मरो जैसी स्थिति
मिशन- 2017 में सभी राजनीतिक दल जीजान से जुटे हुए हैं लेकिन इस तैयारी में सबसे ज्यादा तैयार बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ही नज़र आयी हैं. बसपा ने सबसे पहले अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये और चुनावी तैयारियों में जुट गईं. मायावती ने वक्त की नब्ज़ को भी अच्छी तरह से पकड़ा है. इसी वजह से उन्होंने इस बार पहली बार सोशल मीडिया को भी अपना हथियार बनाया है.
समाजवादी पार्टी जिन दिनों परिवार के विवाद में उलझी थी उन दिनों मायावती यूपी विधानसभा के 403 टिकट फाइनल करने में लगी हुई थीं. बीजेपी चुनाव की तैयारी तो कर रही थी लेकिन उसने बिना दूल्हे की बारात सजा ली थी. बहुत तलाश के बावजूद भाजपा मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाई और मजबूरन वह अपने प्रत्याशियों की सूची घोषित करने में जुट गई. कांग्रेस की हालत यह रही कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बगैर वह ऐसे प्रत्याशी कहाँ से लाये जो सम्मानजनक तरीके से चुनाव लड़ सकें. बाक़ी दलों की हालत तो ज़िक्र के भी लायक नहीं दिख रही है.
बसपा सुप्रीमो ने 2017 के चुनाव के लिये ऐसे विशेषज्ञों को तलाशा है जो उनकी ब्रांडिंग कर सकें. आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले विशेषज्ञ मायावती के मीडिया का काम संभाल रहे हैं. वह सूबे के विभिन्न इलाकों से बसपा के बारे में फीडबैक ले रहे हैं. फीडबैक लेने के बाद वह इलाकों के मुद्दे तय कर रहे हैं. यह विशेषज्ञ दूसरे दलों के प्रचार के तरीके पर भी पर नज़र रख रहे हैं. मायावती ने इस चुनाव में फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप का भी खूब इस्तेमाल किया है. हर विधानसभा क्षेत्र से लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिये जोड़ा गया है.
इस अभियान में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आधिकारिक तौर पर तो न तो मायावती न ही बीएसपी ट्विटर पर है, मिलते जुलते नामों से कई अकाउंट बनाये गये हैं. बीएसपी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ट्विटर पर हैं. यही वजह है कि अब ट्विटर पर मायावती भी ट्रेंड करने लगी हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के लिये मायावती ने वक्त के साथ खुद को बदलने का फैसला किया है और इसका असर अब दिखने भी लगा है. मायावती को अपनी ब्रांडिंग करानी पड़ी क्योंकि यूपी में अखिलेश यादव एक बड़ा ब्रांड बन चुके हैं. अखिलेश ने काम बोलता है का नारा पेश किया तो मायावती की तरफ से भी नारा आया कि बहन जी को आने दो. 'बहनजी को आने दो' के नाम से दस पोस्टरों की एक सीरीज बनाई गई है. यह पोस्टर बदली हुई मायावती की तस्वीर स्पष्ट करेंगी.
मायावती की टीम ने 30 सेकेण्ड से लेकर पांच मिनट तक के 15 वीडियो तैयार किये हैं. इन वीडियो के ज़रिये समाजवादी घमासान और नरेन्द्र मोदी के जुमलों का जवाब देने की कोशिश की गई है. डेढ़ मिनट के एक वीडियो में मायावती को आयरन लेडी बताया गया है. बसपा के चुनाव प्रचार में इस बार मायावती बहुत मज़बूत तस्वीर में नज़र आयेंगी. इस बार के प्रचार में वोटर तक यह सन्देश जाएगा कि मायावती को किसी सहारे की ज़रुरत नहीं है.
मायावती के प्रचार में अखिलेश राज में हुए दंगों पर भी फोकस किया गया है. समाजवादी पार्टी में कितने बाहुबली हैं उन पर भी रौशनी डाली गई है. कुछ पोस्टर भी दिखेंगे जिनमें अखिलेश यादव के साथ यह बाहुबली अभय सिंह, पवन पाण्डेय, गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद को दिखाया गया है. इस प्रचार सामग्री को चुनाव आयोग से हरी झंडी मिलने का इंतज़ार किया जा रहा है. यह सब मायावती 2014 का लोकसभा चुनाव देखने के बाद कर रही हैं. उनके लिये करो या मरो वाली स्थिति है. उन्हें पता है कि अभी नहीं तो कभी नहीं.
मायावती इससे पहले के किसी भी चुनाव में मीडिया को अपना मानकर नहीं चलती थीं. उन्होंने कई बार कहा है कि मेरे कार्यकर्त्ता अखबार नहीं पढ़ते. वह मीडिया को मनुवादी बताती थीं. लेकिन इस बार मायावती का अंदाज़ बिलकुल बदला हुआ है. इस बार वह वह जल्दी-जल्दी प्रेस कांफ्रेंस करने लगी हैं. जल्दी-जल्दी उनके प्रेस नोट आने लगे हैं. प्रधानमंत्री की हर रैली के बाद मायावती ने प्रेस नोट के ज़रिये जवाब दिया है. मायावती बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि हाथी को किसी भी सूरत में बैठने नहीं देना है क्योंकि एक बार वह बैठ गया तो जल्दी उठने वाला नहीं है.
मायावती में इन दिनों गज़ब का कांफीडेंस नज़र आने लगा है. वह पत्रकारों के सवालों के जवाब देने लगी हैं. कैमरे के सामने मुस्कुराने लगी हैं. उनके कांफीडेंस का अंदाजा इसी बात से लगता है कि उन्होंने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी. उन्होंने किसी के साथ भी गठबंधन नहीं किया. मायावती का सीधा मुकाबला यूपी के विकास के लिए लगातार चार साल तक काम करने वाले अखिलेश यादव से है. मायावती कभी अखिलेश पर निशाना भी नहीं साधती हैं. अखिलेश भी कभी उनके खिलाफ कुछ नहीं बोलते हैं बावजूद इसके उन्हें चुनाव में अखिलेश की परवाह नहीं है क्योंकि वह जानती हैं कि चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे लड़ा जाता है. चुनाव जाति के भरोसे लड़ा जाता है. अपने प्रत्याशियों की घोषणा करने के बाद मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ में जुट गई हैं. दलित-मुस्लिम गठजोड़ के साथ-साथ मायावती सतीश चन्द्र मिश्र के ज़रिये ब्राह्मण वोटों में भी सेंध लगा ही रही हैं. मुस्लिम वोटों को बड़ी संख्या में हासिल करने के लिये मायावती ने 97 मुसलमानों को टिकट दिया है. 87 दलितों और 66 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने सभी जातियों को चुनाव में साधने की कोशिश की है. टिकट बांटने में मायावती ने अगड़ी-पिछड़ी, कायस्थ और पंजाबी सभी जातियों में सामंजस्य बिठाने की कोशिश की है. मायावती की निगाह 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी टिकी हुई है. मायावती विधानसभा चुनाव में आने वाले परिणाम से ज्यादा बसपा को मिलने वाले वोटों के प्रतिशत पर टिकी हैं. लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली केन्द्र सरकार में खुद को बारगेनिंग पावर में लाने की कोशिश में भी लगी हैं मायावती।
पिछले विधानसभा चुनाव में हालांकि बसपा की सरकार नहीं बन पाई थी और अधिकतम जगह हाथी के बजाय साइकिल ने स्पीड पकड़ी थी, मगर गाजियाबाद में हाथी सरपट दौड़ा था। जिले की पांचों सीटों पर प्रमुख दलों के उम्मीदवार तय हो जाने और उनके नामांकन भर जाने के बाद सबकी नजर इस बात पर लगी है कि आखिर इस बार हाथी की चाल क्या रहेगी? पांच में से चार सीट बहुजन समाज पार्टी के पास हैं। बसपा जहां उन्हें बचाने की कोशिश करेगी, वहीं तमाम दल की कोशिश रहेगी कि इस बार हाथी की चाल में रुकावट बन जाएं। 2012 के विधानसभा चुनाव में हालांकि बसपा की सरकार नहीं बन पाई थी और अधिकतम जगह हाथी के बजाय साइकिल ने स्पीड पकड़ी थी, मगर गाजियाबाद में हाथी सरपट दौड़ा था। भाजपा का गढ़ माने जाने वाले गाजियाबाद में बसपा के चार विधायक जीते थे। दलित व मुस्लिम समीकरण ने लोनी में जाकिर अली और मुरादनगर में वहाब चौधरी को हाथी पर चढ़ाकर विधानसभा तक पहुंचा दिया तो गाजियाबाद में वैश्य दलित गठजोड़ ने सुरेश बंसल को विधायक बना दिया। साहिबाबाद में दलित व ब्राहमणों ने अमरपाल शर्मा का खुलकर साथ दिया और वह जीत गए। इस बार बसपा की पहली चुनौती इन चार सीटों को अपने पास रखने की रहेगी। पांचों सीटों पर उसके प्रत्याशियों की घोषणा सबसे पहले हुई थी। सभी चार सीटिंग एमएलए प्रत्याशी बनाए गए हैं। मुरादनगर के विधायक वहाब चौधरी को मुरादनगर के बजाय मोदीनगर का प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा करीब छह माह पहले कर दी गई थी। उनके स्थान पर मुरादनगर से सुधन रावत को प्रत्याशी बनाया गया। बसपा में पूरे साल कई उतार-चढ़ाव भी देखे गए। पूर्व सांसद व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव का निष्कासन हुआ और चुनाव से ठीक पहले वह भाजपा में शामिल हो गए। सीटिंग ऑपरेशन में बसपा के जिलाध्यक्ष वीरेंद्र जाटव नप गए और उनके स्थान पर पुराने अध्यक्ष प्रेमचंद भारती को फिर से बागडोर दे दी गई। हालांकि बसपा के परंपरागत मतदाताओं के लिए ये चीजें बहुत ज्यादा मायने नहीं रखतीं। उनकी नजर तो बस मायावती पर रहती है।
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भाजपा ने खरमास समाप्त होने के बाद प्रत्याशियों को घोषित करने के लिए जिस शुभ मुहुर्रत का इंतजार किया, आखिरकार उस महुर्रत में प्रत्याशियों की घोषणा किए जाने के बाद भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ रहा है। दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल होने विधायकों को टिकट दिए जाने के बाद जिस तरह से पूरे यूपी में बगावती तेवर मुखर हो रहे हैं, उसकी आग से सहारनपुर जनपद भी अछूता नहीं रहा है। सहारनपुर जनपद की सात सीटों में चार सीटों पर ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया गया है, जो बसपा और कांग्रेस से भाजपा में आए हैं। जबकि दो सीटों पर उन लोगों को प्रत्याशी बना दिया गया है, जिन्हें स्थानीय कार्यकर्ता पसंद ही नहीं कर रहे हैं।
प्रदेश की नंबर वन विधानसभ सीट बेहट । यहां से भाजपा ने विधायक महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाया है। महावीर सिंह राणा को करीब डेढ़ साल पहले बसपा से निलंबित कर दिया गया था। महावीर सिंह के बडे भाई और पूर्व सांसद जगदीश सिंह राणा को भी बसपा से निकाल दिया गया था। इन दोनों भाईयों ने ही छह माह पूर्व भाजपा का दामन थामा था। महावीर सिंह राणा के खिलाफ कोई अपराधिक मुकदमा तो दर्ज नहीं है, लेकिन दो दर्जन से अधिक पेट्रोल पंपों के मालिक हैं। हरियाणा के गुड़गांव में एक ट्रेक्टर एजेंसी का संचालन भी करते हैं। 2012 के विस चुनाव में महावीर सिंह राणा बसपा के टिकट पर चुनाव लडे थे और जीत दर्ज की थी। इनके भाई जगदीश राणा के सैफई महोत्सव में जाने और सपा नेता शिवपाल सिंह यादव से मुलाकात करने पर दोनों को बसपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया था।
प्रदेश के दूसरे नंबर की सीट है नकुड़। इस सीट से भाजपा ने लोक लेखा समिति उत्तर प्रदेश के चेयरमैन रहे और वर्तमान विधायक डा. धर्म सिंह सैनी को अपना प्रत्याशी बनाया है। करीब छह माह पूर्व डा. धर्म सिंह सैनी के छोटे भाई चरण सिंह सैनी की पत्नी का निधन हो गया था तो उस वक्त बसपा से निकाले गए स्वामी प्रसाद मौर्य ने डा. सैनी के गांव सोना सैयद माजरा पहुंचकर शोक संवेदना व्यक्त की थी। तभी से डा. धर्म सिंह सैनी मायावती, नसीमुद्दीन सिद्दकी की आंखों में खटक रहे थे। सितंबर माह में सहारनपुर में हुई मायावती की रैली के दो दिन बाद डा. धर्म सिंह सैनी पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए उनका टिकट काट दिया था। टिकट कटने के बाद डा. धर्म सिंह सैनी एक सप्ताह तक शांत रहे और अंतत भाजपा में शामिल हो गए। डा. सैनी के खिलाफ कोई अपराधिक मामला दर्ज नहीं है। डा. सैनी को बसपा का सबसे ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता रहे हैं, यही वजह है कि बसपा सुप्रीमो ने उन्हें विपक्ष के लिए निर्धारित लोक लेखा समिति के चेयरमैन का पद दिलाया।
तीसरे नंबर की सीट सहारनपुर शहर से वर्तमान विधायक राजीव गुंबर को प्रत्याशी बनाया गया है। राजीव गुंबर भाजपा के पुराने सिपाही हैं और 2014 में सहारनपुर शहर सीट पर हुए उप चुनाव में विधानसभा का चुनाव लडे थे। इनसे पहले इस सीट पर भाजपा के राघव लखनपाल शर्मा द्वारा लोकसभ चुनाव जीतने के बाद यह सीट रिक्त हो गई थी। राजीव गुंबर प्लाइवुड कारोबारी के साथ साथ कई स्कूलों में उनकी बसों का संचालन भी होता है। भाजपा के पुराने कार्यकर्ता होने के नाते उन्हें 2014 में उप चुनाव प्रत्याशी बनाया गया था।
चौथे नंबर की सीट सहारनपुर देहात पर भाजपा ने दो साल पहले बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले पूर्व विधायक मनोज चौधरी पर दांव खेला है। मनोज चौधरी देवबंद विस क्षेत्र से बसपा के टिकट पर 2007 में चुनाव जीते थे। 2012 में सपा के राजेंद्र राणा ने मनोज चौधरी को पराजित किया था। मनोज चौधरी गुर्जर समाज से ताल्लुक रखते हैँ। समाज में उनकी छवि अव्यवहारिक रुप से जानी जाती है। बसपा में रहते हुए वे बसपा के बहुत कार्यक्रमों में ही शिरकत करते थे, यही शैली उनकी भाजपा के प्रति भी रही। मनोज चौधरी की पत्नी गायत्री चौधरी सहारनपुर में जिला पंचायत की अध्यक्ष भी रह चुकी है। इनके पिता रामपुर मनिहारान नगर पंचायत के चेयरमैन रह चुके हैं।
पांचवीं विधानसभा देवबंद की बात करें तो यहां पर भाजपा ने एक अनजान व्यक्ति कुंवर ब्रिजेश पर दांव लगाया है। यह मूल रुप से उत्तराखंड के रहने वाले बताए जाते हैं, लेकिन काफी समय पहले परिवार समेत सहारनपुर में आकर बस गए थे। परिवार समेत भाजपा से जुडे हुए हैं और निष्ठावान कार्यकर्ता की छवि से जाने जाते हैं। गैस एजेंसी के मालिक होने के साथ साथ अन्य कई कारोबार भी हैं। लेकिन इनके प्रत्याशी बनाए जाने का देवबंद विधानसभा क्षेत्र में काफी विरोध हो रहा है, कारण यह चुनाव के वक्त ही अपनी सक्रियता दिखाते हैं।
छठें नंबर की सीट रामपुर मनिहारान सुरक्षित सीट पर भाजपा ने पूर्व विधायक स्व. रामस्वरुप निम के पुत्र देवेंद्र निम को अपना प्रत्याशी बनाया है। देवेंद्र गैस एजेंसी का संचालन करने के साथ ही सरकारी अस्पताल के ठेकेदार भी हैं। इनकी छवि पार्टी कार्यकर्ताओं में कोई खास नहीं है। जाटव समाज से ताल्लुक रखने वाले देवेंद्र निम का इस सीट पर इसलिए विरोध हो रहा है, क्योंकि इस सीट पर एक भी परिवार जाटव समाज का निवास नहीं करता है। इस सीट पर सर्वाधिक चमार मतदाता है। पार्टी में इनकी कोई खास सक्रियता भी नहीं रही है।
प्रदेश की सातवीं और सहारनपुर जनपद की अंतिम विधानसभा सीट पर भाजपा ने विधायक प्रदीप चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया है। प्रदीप चौधरी भी चार माह पूर्व कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। कांग्रेस में यहां पर पूर्व विधायक इमरान मसूद का दबदबा होने के कारण प्रदीप ने कांग्रेस को अलविदा कहा था। इनके पिता स्व. मास्टर कंवरपाल सिंह पूर्व विधायक रह चुके हैं। कंवरपाल और प्रदीप चौधरी की छवि ईमानदार नेताओं में शामिल है। कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं है।
जनपद में घोषित किए गए सभी भाजपा प्रत्याशियों में चार ऐसे प्रत्याशी है, जो बसपा और कांग्रेस से आए हैं। महावीर सिंह, धर्म सिंह सैनी, मनोज चौधरी और प्रदीप चौधरी का खुलकर विरोध हो रहा है। ऐसे में बगावती तेवर भी उठ रहे हैं। बगावती तेवर का उदाहरण इसी से लगाया जा सकता है कि बेहट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे आदित्य प्रताप राणा का टिकट काटकर महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाए जाने पर आदित्य प्रताप ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का खुला ऐलान भी कर दिया है।
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इस सीट पर चुनाव लड़कर दो बार मुख्यमंत्री बन चुकी है मायावती
प्रदेश की नंबर वन विधानसभ सीट बेहट । यहां से भाजपा ने विधायक महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाया है। महावीर सिंह राणा को करीब डेढ़ साल पहले बसपा से निलंबित कर दिया गया था। महावीर सिंह के बडे भाई और पूर्व सांसद जगदीश सिंह राणा को भी बसपा से निकाल दिया गया था। इन दोनों भाईयों ने ही छह माह पूर्व भाजपा का दामन थामा था। महावीर सिंह राणा के खिलाफ कोई अपराधिक मुकदमा तो दर्ज नहीं है, लेकिन दो दर्जन से अधिक पेट्रोल पंपों के मालिक हैं। हरियाणा के गुड़गांव में एक ट्रेक्टर एजेंसी का संचालन भी करते हैं। 2012 के विस चुनाव में महावीर सिंह राणा बसपा के टिकट पर चुनाव लडे थे और जीत दर्ज की थी। इनके भाई जगदीश राणा के सैफई महोत्सव में जाने और सपा नेता शिवपाल सिंह यादव से मुलाकात करने पर दोनों को बसपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया था।
प्रदेश के दूसरे नंबर की सीट है नकुड़। इस सीट से भाजपा ने लोक लेखा समिति उत्तर प्रदेश के चेयरमैन रहे और वर्तमान विधायक डा. धर्म सिंह सैनी को अपना प्रत्याशी बनाया है। करीब छह माह पूर्व डा. धर्म सिंह सैनी के छोटे भाई चरण सिंह सैनी की पत्नी का निधन हो गया था तो उस वक्त बसपा से निकाले गए स्वामी प्रसाद मौर्य ने डा. सैनी के गांव सोना सैयद माजरा पहुंचकर शोक संवेदना व्यक्त की थी। तभी से डा. धर्म सिंह सैनी मायावती, नसीमुद्दीन सिद्दकी की आंखों में खटक रहे थे। सितंबर माह में सहारनपुर में हुई मायावती की रैली के दो दिन बाद डा. धर्म सिंह सैनी पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए उनका टिकट काट दिया था। टिकट कटने के बाद डा. धर्म सिंह सैनी एक सप्ताह तक शांत रहे और अंतत भाजपा में शामिल हो गए। डा. सैनी के खिलाफ कोई अपराधिक मामला दर्ज नहीं है। डा. सैनी को बसपा का सबसे ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता रहे हैं, यही वजह है कि बसपा सुप्रीमो ने उन्हें विपक्ष के लिए निर्धारित लोक लेखा समिति के चेयरमैन का पद दिलाया।
तीसरे नंबर की सीट सहारनपुर शहर से वर्तमान विधायक राजीव गुंबर को प्रत्याशी बनाया गया है। राजीव गुंबर भाजपा के पुराने सिपाही हैं और 2014 में सहारनपुर शहर सीट पर हुए उप चुनाव में विधानसभा का चुनाव लडे थे। इनसे पहले इस सीट पर भाजपा के राघव लखनपाल शर्मा द्वारा लोकसभ चुनाव जीतने के बाद यह सीट रिक्त हो गई थी। राजीव गुंबर प्लाइवुड कारोबारी के साथ साथ कई स्कूलों में उनकी बसों का संचालन भी होता है। भाजपा के पुराने कार्यकर्ता होने के नाते उन्हें 2014 में उप चुनाव प्रत्याशी बनाया गया था।
चौथे नंबर की सीट सहारनपुर देहात पर भाजपा ने दो साल पहले बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले पूर्व विधायक मनोज चौधरी पर दांव खेला है। मनोज चौधरी देवबंद विस क्षेत्र से बसपा के टिकट पर 2007 में चुनाव जीते थे। 2012 में सपा के राजेंद्र राणा ने मनोज चौधरी को पराजित किया था। मनोज चौधरी गुर्जर समाज से ताल्लुक रखते हैँ। समाज में उनकी छवि अव्यवहारिक रुप से जानी जाती है। बसपा में रहते हुए वे बसपा के बहुत कार्यक्रमों में ही शिरकत करते थे, यही शैली उनकी भाजपा के प्रति भी रही। मनोज चौधरी की पत्नी गायत्री चौधरी सहारनपुर में जिला पंचायत की अध्यक्ष भी रह चुकी है। इनके पिता रामपुर मनिहारान नगर पंचायत के चेयरमैन रह चुके हैं।
पांचवीं विधानसभा देवबंद की बात करें तो यहां पर भाजपा ने एक अनजान व्यक्ति कुंवर ब्रिजेश पर दांव लगाया है। यह मूल रुप से उत्तराखंड के रहने वाले बताए जाते हैं, लेकिन काफी समय पहले परिवार समेत सहारनपुर में आकर बस गए थे। परिवार समेत भाजपा से जुडे हुए हैं और निष्ठावान कार्यकर्ता की छवि से जाने जाते हैं। गैस एजेंसी के मालिक होने के साथ साथ अन्य कई कारोबार भी हैं। लेकिन इनके प्रत्याशी बनाए जाने का देवबंद विधानसभा क्षेत्र में काफी विरोध हो रहा है, कारण यह चुनाव के वक्त ही अपनी सक्रियता दिखाते हैं।
छठें नंबर की सीट रामपुर मनिहारान सुरक्षित सीट पर भाजपा ने पूर्व विधायक स्व. रामस्वरुप निम के पुत्र देवेंद्र निम को अपना प्रत्याशी बनाया है। देवेंद्र गैस एजेंसी का संचालन करने के साथ ही सरकारी अस्पताल के ठेकेदार भी हैं। इनकी छवि पार्टी कार्यकर्ताओं में कोई खास नहीं है। जाटव समाज से ताल्लुक रखने वाले देवेंद्र निम का इस सीट पर इसलिए विरोध हो रहा है, क्योंकि इस सीट पर एक भी परिवार जाटव समाज का निवास नहीं करता है। इस सीट पर सर्वाधिक चमार मतदाता है। पार्टी में इनकी कोई खास सक्रियता भी नहीं रही है।
प्रदेश की सातवीं और सहारनपुर जनपद की अंतिम विधानसभा सीट पर भाजपा ने विधायक प्रदीप चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया है। प्रदीप चौधरी भी चार माह पूर्व कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। कांग्रेस में यहां पर पूर्व विधायक इमरान मसूद का दबदबा होने के कारण प्रदीप ने कांग्रेस को अलविदा कहा था। इनके पिता स्व. मास्टर कंवरपाल सिंह पूर्व विधायक रह चुके हैं। कंवरपाल और प्रदीप चौधरी की छवि ईमानदार नेताओं में शामिल है। कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं है।
जनपद में घोषित किए गए सभी भाजपा प्रत्याशियों में चार ऐसे प्रत्याशी है, जो बसपा और कांग्रेस से आए हैं। महावीर सिंह, धर्म सिंह सैनी, मनोज चौधरी और प्रदीप चौधरी का खुलकर विरोध हो रहा है। ऐसे में बगावती तेवर भी उठ रहे हैं। बगावती तेवर का उदाहरण इसी से लगाया जा सकता है कि बेहट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे आदित्य प्रताप राणा का टिकट काटकर महावीर सिंह राणा को प्रत्याशी बनाए जाने पर आदित्य प्रताप ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का खुला ऐलान भी कर दिया है।
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इस सीट पर चुनाव लड़कर दो बार मुख्यमंत्री बन चुकी है मायावती
जिस सीट से विधानसभा का चुनाव लड़कर बसपा सुप्रीमो मायावती दो बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी है, वह सीट आरक्षित से अब सामान्य हो चुकी है, लेकिन आरक्षित विधायकों का ही इस सीट पर कब्जा चला आ रहा है। बदलते परिवेश में इस सीट पर समीकरण कुछ भी बने, लेकिन कब्जा बसपा का ही चला आ रहा है। खास बात यह रही कि इस सीट से चुनाव जीतने और मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा ही नहीं कर पाई।
सहारनपुर देहात के जिस विधानसभा सीट को जाना जाता है, वर्ष 1996 में उस सीट को हरोड़ा सीट से जाना जाता था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा कराए गए परिसीमन के बाद हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था और इस सीट को अनुसूचित जाति के आरक्षित सीट से सामान्य कर दिया गया था। इस परिसीमन के बाद अब जनपद में केवल रामपुर मनिहारान सीट ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। हरोडा (अब सहारनपुर देहात) सीट को बसपा का अभेद किला माना जाता है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस सीट से सबसे पहले 1996 में चुनाव लड़ा था। उस वक्त मायावती को 84647 वोट मिले थे, जबकि मायावती के सामने चुनाव लड़ी सपा प्रत्याशी बिमला राकेश को 57229 वोट मिले थे। 1996 में चुनाव जीतने के बाद मायावती, सपा बसपा गठबंधन के तहत मुख्यमंत्री बनी थी। लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। उस वक्त सपा बसपा के बीच तय हुआ था कि दोनों दल छह छह माह मुख्यमंत्री पद पर रहेंगे, लेकिन पहली छमाही पूरी होने के बाद बसपा का सपा से गठबंधन समाप्त हो गया। जिसके बाद इस सीट पर 1998 में उप चुनाव हुए और जगपाल सिंह विजयी हुए। जगपाल ने बीजेपी के मोहर सिंह को पराजित किया था।
वर्ष 2002 में हुए विधानस•ाा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती ने फिर से हरोड़ा सीट से चुनाव लड़ा। मायावती ने 70 हजार 800 वोट प्राप्त कर सपा की बिमला राकेश को पराजित किया। बिमला राकेश को 41 हजार 899 वोट मिले थे। 2002 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद बसपा और भाजपा में गठबंधन हुआ और मायावती यूपी की मुख्यमंत्री बनी। भाजपा और बसपा का गठबंधन भी ज्यादा समय तक नहीं चल सका और मायावती ने करीब एक साल शासन करने के बाद भाजपा का साथ छोड़ दिया। जनपद की सहारनपुर देहात सीट ऐसी रही है कि इस सीट पर चुनाव लड़ने के बाद मायावती को दो दो बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस सीट को मायावती के लिए लकी भी माना जाता है।
2012 में विधानसभा चुनाव कराए जाने से पहले प्रदेश में विधानसभा सीटों का परिसीमन कराया गया तो हरोड़ा सीट का नाम बदल कर सहारनपुर देहात कर दिया गया था। इस सीट पर अनुसूचित जाति के लिए जो आरक्षण था वह भी समाप्त कर दिया गया था और इस सीट को सामान्य कर दिया गया था। सामान्य सीट होने के बावजूद यहां से बसपा के जगपाल सिंह लगातार जीत दर्ज करते आ रहे हैं।
सहारनपुर देहात सीट एक नजर में
पुरुष मतदाता- 171464
महिला मतदाता- 144982
थर्ड जेंडर मतदाता-10
कुल मतदाता- 316456
मतदान केंद्रों की संख्या 176
मतदेय स्थलों की संख्या-300
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शहर सीट पर कभी खाता नहीं खोल पाई बसपा
सहारनपुर शहर सीट की बात करें तो यह सीट ऐसी है, जहां पर 1996 से आज तक बहुजन समाज पार्टी अपना खाता ही नहीं खोल पाई है। इस सीट पर बसपा प्रत्याशी तीसरे और चौथे नंबर पर ही रहे हैं। सहारनपुर शहर सीट सामान्य सीट रही है। इस सीट पर भाजपा, सपा और जनता पार्टी के प्रत्याशी अपनी जीत दर्ज करते आए हैं। जनपद की राजनीति में सहारनपुर शहर सीट का अहम रोल है। इस सीट पर सभी बिरादरियों के मतदाता निवास करते हैं। सहारनपुर जनपद को बसपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन इस गढ़ के बावजूद शहर सीट से बसपा प्रत्याशी विजयश्री हासिल नहीं कर सके हैं। विधानसभा चुनाव के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि वर्ष 1996 से अब तक शहर सीट पर जनता पार्टी, सपा और भा जपा का ही कब्जा रहा है। वर्ष 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी संजय गर्ग ने 77690 मत प्राप्त कर भाजपा के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया था। उस वक्त लाजकृष्ण गांधी ने 69281 मत प्राप्त किए थे। वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में पूर्व विधायक संजय गर्ग ने जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और 64706 मत प्राप्त कर रालोद के लाजकृष्ण गांधी को परास्त किया। पूर्व विधायक लाजकृष्ण गांधी को 36702 वोट मिले थे। इस चुनाव में बसपा प्रत्याशी लियाकत अली को 11115 मतों पर ही संतोष करना पड़ा था। 2007 के विधानसभा चुनाव में भा जपा ने राघव लखनपाल शर्मा को अपना प्रत्याशी बनाकर चुनाव मैदान में उतारा था तो राघव ने यह सीट संजय गर्ग से कब्जा ली। राघव लखन पाल शर्मा ने 76049 वोट प्राप्त कर संजय गर्ग को दूसरे नंबर पर पहुंचा दिया था। संजय गर्ग को 57875 वोट मिले थे। 2012 के विधानसभा चुनाव में भा जपा के राघव लखनपाल शर्मा ने 85187 वोट प्राप्त कर पुन: इस सीट पर कब्जा किया और कांग्रेस प्रत्याशी स्व. सलीम इंजीनियर को परास्त किया। सलीम इंजीनियर कुल 72544 वोट प्राप्त कर दूसरे नंबर पर रहे थे। पिछले चार चुनावों के नतीजों पर नजर डालने के बाद यह ही पता चलता है कि सहारनपुर शहर सीट पर जीत दर्ज करना सपा और भाजपा के अलावा अन्य दलों के प्रत्याशियों के लिए टेडी खीर ही साबित होगी।
सहारनपुर शहर सीट एक नजर में
पुरुष मतदाता - 210096
महिला मतदाता- 182625
थर्ड जेंडर मतदाता-37
कुल मतदाता- 392760
मतदान केंद्र- 96
मतदेय स्थल-384
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महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं राजनीतिक दल
आज राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, लेकिन यहां पर राजनीतिक दल महिलाओं पर कम ही भरोसा जता रहे हैं। पिछले चुनावी परिदृश्य पर नजर डाले तो दस साल से सहारनपुर जनपद की किसी भी सीट पर कोई महिला विधायक नहीं बनी है। इस बाद अब तक प्रमुख राजनीतिक दलों के जो संभावित प्रत्याशी नजर आ रहे हैं, उनमें सपा को छोड़कर शेष अन्य किसी भी भी दल ने महिला प्रत्याशी पर भरोसा नहीं जताया है। राजनीतिक दलों पर महिला प्रत्याशियों पर कितना भरोसा है, इसका जीता जागता प्रमाण वर्तमान में देखने को मिल रहा है। हाल ही में सपा द्वारा जारी प्रत्याशियों की सूची रामपुर मनिहारान सीट से बिमला राकेश पर भरोसा जताया है। इसके अलावा बसपा सुप्रीमो ने जो सूची जारी की है, उस सूची में किसी भी महिला प्रत्याशी का नाम नहीं है। कांग्रेस और भजपा की सूची में भी किसी महिला प्रत्याशी का इनाम नही है।
अब बात करते हैं महिला विधायक की बाबत। वर्ष 2002 में हुए विधानसभ चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती यहां पर हरोड़ा विधानसभा सीट से जीती थी और विधायक बनी थी। बाद में मायावती ने इस सीट से त्यागपत्र दे दिया था और 2003 में इस सीट पर उप चुनाव संपन्न कराया गया। 2003 के उप चुनााव में सपा की बिमला राकेश ने इस सीट से जीत दर्ज की थी। इसके बाद नागल विधानसभ सीट पर 2005 में हुए उप चुनाव में पूर्व विधायक इलम सिंह की पत्नी सत्तो देवी ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में देवबंद सेीट से भा जपा प्रत्याशी शशिबाला पुंडीर और हरोड़ा सीट से सपा प्रत्याशी के रुप में बिमला राकेश ने चुनाव लड़ा था, लेकिन यह दोनों ही महिलाएं जीत नहीं सकी थी। 2007 और वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद कोई भी महिला प्रत्याशी जीत कर नहीं आ सकी है। ६ माह पूर्व देवबंद विधानसभ सीट पर हुए उप चुनाव में सपा ने महिला प्रत्याशी मीना राणा को मैदान में उतारा था, लेकिन वह भी जीत दर्ज करने में कामयाब नहीं हो सकी। मीना राणा फिर से देवबंद सीट से ही चुनाव मैदान में डटने को तैयार हैं।
सहारनपुर जनपद में विधायक बनी महिलाएं
-- 1996 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2002 में मायावती बसपा से, हरोड़ा सीट
-- 2003 में बिमला राकेश सपा से, हरोड़ा सीट
-- 2005 में सत्तो देवी बसपा से, नागल सीट
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समाप्त होगा भाजपा का वनवास?
भाजपा के वरिष्ठ नेता जनता से 14 सालों से सत्ता से दूर रही भा जपा का वनवास समाप्त करने का आग्रह कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सहारनपुर की जनता भी भाजपा का वनवास समाप्त करेगी। क्योंकि दस सालों से यहां पर केवल भाजपा एक ही सीट पर कब्जा करती आई है। अन्य सीटों पर भाजपा दूसरे और तीसरे नंबर पर सीमटती रही। यहां पर 1996 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दो सीट कब्जाई थी। उनमें एक सरसावा से स्व. निर्यभपाल शर्मा तथा देवबंद से पूर्व विधायक सुखबीर सिंह पुंडीर ने विजय दर्ज की थी। इसके बाद वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में सरसावा की सीट पर डा. धर्म सिंह सैनी ने तथा देवबंद सीट पर राजेंद्र राणा ने बतौर बसपा प्रत्याशी के रुप में कब्जा कर लिया था। 2002 के विधानसभा चुनाव में जनपद से भाजपा क ा पत्ता पूरी तरह से साफ हो गया था। 2002 से 2007 तक जनपद की सभी सीटों पर भाजपा पांच साल तक वनवास भोगती रही।
वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव भा जपा प्रत्याशियों को विजयी बनाने के पूरे प्रयास पार्टी पदाधिकारियों और नेताओं द्वारा किए गए, लेकिन तमाम तरह की कोशिशों के बावजूद शहर सीट से राघवलखन पाल शर्मा ने सपा के संजय गर्ग को हरा कर जीत दर्ज की। कुछ इसी तरह के समीकरण वर्ष 2012 के चुनाव में भी बने और केवल शहर सीट पर ही राघव लखनपाल शर्मा ने पुन: विधायक चुने गए। वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में राघव लखनपाल शर्मा सांसद बने तो इसके बाद हुए उप चुनाव में सहारनपुर सीट पर भाजपा के ही राजीव गुंबर ने जीत दर्ज की। लोकसभा चुनाव के दौरान बही मोदी लहर से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। इस दरम्यान नोटबंदी के कारण जनता बैंकों की लाइन में लगकर परेशान हो चुकी हैं, महंगाई की मार भी जनता झेल रही है। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि जनपद की जनता क्या सहारनपुर जनपद में भाजपा की सीटों में इजाफा कराएगी या फिर भाजपा एक ही सीट पर अपना दबदबा कायम रहेगी, यह तो मतदान के दौरान जनपद की जनता ही बताएगी?
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दलबदल का गज़ब है दलदल
इस बार दलबदल का दलदल गज़ब का है। पार्टियों की सूचियां चुगली कर रही हैं कि किसी को भी अपने काडर और कार्यकर्ताओ पर जैसे भरोसा ही नहीं रह गया है। सभी बाहरी दिग्गजो को सलीके से खड़ा कर कुछ पाना चाहते हैं। यह अलग बात है कि बसपा को छोड़ कर बाकी हर जगह अन्तर्कलह और बागी तेवर नज़र आने लगे हैं। खुद को उत्तर प्रदेश की सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के रूप में प्रस्तुत कर रही भाजपा को ही देखिये। कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने राजनीतिक वजूद के विस्तार का अभियान जो भाजपा चला रही है उसे अपने ही शक्ति केंद्र कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में जिताऊ उम्मीदवारों के लिए दलबदलुओं का सहारा लेना पड़ रहा है। पार्टी विद अ डिफरेंस की उत्तर प्रदेश में टिकटों के बंटवारे को लेकर जो गति हुई है वह जगहंसाई का सबब है। कोई छोटा बड़ा राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसके नेता या जिसकी बैसाखी की जरुरत उसे न पड़ी हो। हद तो यह है कि एक फीसदी से कम वोट पाने वाले अपना दल और एक जाति विशेष तक सीमित रहने वाली ओमप्रकश राजभर की भारतीय समाज पार्टी को भी हमसफर बनाना पड़ रहा है। अजीब सी स्थिति है। यह राजनीति भी समझ से पर है कि अपना दल ने पिछली बार 76 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिसमें 69 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई थी। अकेले अनुप्रिया पटेल सदन पहुंचने में कामयाब हुई थीं। सिर्फ बनारस, बलिया, गाजीपुर और मऊ इलाकों तक सिमटी रहने वाली भासपा केवल वोटकटवा बनकर रह गयी थी। बावजूद इसके भाजपा नेतृत्व को यह लग रहा है कि बिना इन दोनों दलों के चुनावी वैतरणी पार करना मुश्किल है। शायद इसी आशंका के चलते ही इन दलों को 8-10 सीटें देने पर सहमति बन गयी हैं जबकि इन सीटों पर इन दलों के पास भी कोई जिताउ उम्मीदवार नहीं है। अपना दल दो फाड़ हो चुका है। मां बेटी अलग-अलग हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भी अपना दल को दो सीटें दी गयीं थी। प्रतापगढ़ की सीट पर इस दल के पास अपना कोई उम्मीदवार ही नहीं था। हरवंश सिंह ने यह टिकट ‘जुगत’लगाकर लिया था। बाद में वह कमल के निशान पर लड़ने को तैयार हो गये।
भाजपा की चुनावी तैयारियों को इससे भी समझा जा सकता है कि उसने अपने सांसद केशव मौर्य को प्रदेश की कमान दी और फिर बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे उन स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में शामिल कराया जिनके ऊपर हिंदू देवी देवताओं पर फितरे कसने का आरोप है। लखनऊ की सारी की सारी सीटें सिर्फ पिछले चुनाव को छोड़ दी जाएँ तो पारंपरिक तौर पर भाजपा की कही जाती हैं। बावजूद इसके लखनऊ कैंट की विधायक और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी को पार्टी में शामिल कराया गया। बसपा के ब्राह्मण चेहरों में से एक पूर्व सांसद बृजेश पाठक को लखनऊ मध्य से आजमाया है। भाजपा की तीसरी सूची बीते मंगलवार को जारी हुई। 67 उम्मीदवार की सूची में 25 दलबदलू उम्मीदवार हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो 265 सीटें पाने का लक्ष्य रखने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने में कितनी और किस तरह कामयाब होगी यह लाख टके का सवाल है। भाजपा की सूची ही दलबदलुओँ से शुरु होती है। विधानसभा संख्या 1 और 2 पर पार्टी ने बसपा छोड़कर आए महावीर राणा और धर्म सिंहसैनी को पहली ही सूची में ही टिकट दे दिया।
सबसे अधिक बसपाइयों पर ही भाजपा की कृपा बरसी है। जुगल किशोर के बेटे सौरभ सिंह और उनके करीबी रूमी साहनी और बाला प्रसाद अवस्थी को पार्टी ने उम्मीदवार बना दिया है। दलबहादर कोरी, आर के चौधरी, दीनानाथ भास्कर, दारा चौहान, फागू चौहान, जयवीर सिंह, ममतेश शाक्य, राजेश त्रिपाठी, रजनी तिवारी अंशुल वर्मा, उत्कृष्ण मौर्य, रमानाथ कश्यप सरीखे तकरीबन तीन दर्जन ऐसे लोगों को हाथी से उतार कर कमल का फूल थमा दिया गया है। भाजपा की ओर से प्रसाद पाने वालो में दूसरे स्थान पर सपाई रहे हैं। शेरबहादुर सिंह के बेटे, मयंकेश्वर शरण सिंह, पक्षालिका सिंह, कुलदीप सेंगर सरीखे एक दर्जन से अधिक नाम ऐसे हैं जिनके बिना सरकार बनाने का बीजेपी का सपना पूरा होता नहीं दिखा इसीलिय पार्टी में इन्हें जगह दी गयी। समाजवादी पार्टी की वर्तमान महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष के बेटे हर्ष वाजपेयी तक को भाजपा ने टिकट दे दिया है।
कांग्रेस से आए संजय जायसवाल, माधुरी वर्मा और शिवगणेश लोधी के परिवार को भी टिकट दिया गया है। राष्ट्रीय लोकदल के दलबीर सिंह को भी पार्टी ने टिकट देकर नवाजा। हद तो यह है कि पार्टी ने दूसरे दलों से बाहुबली भी लिए हैं। लल्ला भैया और खब्बू तिवारी का नाम शामिल है। इसी तरह पार्टी ने एनसीपी से आए विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के बेटे फतेहबहादुर को भी भाजपा ने इस तरह भाजपा की पूरी सूची देखी जाय तो कोई छोटा और बड़ा दल ऐसा नहीं है जिसमें सेंधमारी का दावा करके अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़े नेता न नज़र आएँ। लेकिन जमीनी हकीकत ठीक उलट है भाजपा को विद्रोह शांत कराने में आधे से अधिक ताकत लगानी पड़ेगी। और अगर वह असफल होती है तो इसका एकमात्र कारण दलबदलुओं पर दांव लगाना ही होगा।
कमोबेश बसपा की भी यही स्थिति है। बसपा में सबसे चौकाने वाला दलबदल तो अंबिका चौधरी की शक्ल में हुआ। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक अंबिका चौधरी बसपा में शामिल हुए हालांकि उनका सपा मे टिकट घरेलू कलह के चलते अखिलेश यादव ने काट दिया। इसी तरह बसपा ने भाजपा कांग्रेस से आए नवाजिश आलम खान, अवधेश वर्मा, नवाब काजिम अली, दिलनवाज खान, जमील सिद्दीकी सरीखे नामों को पार्टी में न सिर्फ शामिल किया बल्कि माननीय बनने की दौड़ में उतार दिया है। और तो और सत्ता की तरफ देख रही मायावती जिन्होंने अपने पूरे शासन काल में उमाकांत और रमाकांत परिवार को मुख्यमंत्री आवास से गिरफ्तार करा कर वाहवाही लूटी और जिनका चुनाव का एजेंडा ही सपा की गुंडागर्दी से निपटना है वह भी सत्ता पाने के लिए मुख्तार अंसारी भाइयों को दो सीट देने को तैयार है। इसके लिए बाकायदा उन्होंने अपने घोषित प्रत्याशी भी वापस ले लिए।
वहीं विकास के नाम और अखिलेश के काम पर चुनाव लड़ रही समाजवादी पार्टी भी पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद दलबदलुओं के मोह से मुक्त नहीं हो सकता। अपने गढ़ समझे जाने वाले संडीला विधानसभा में उसने बसपा से आए अब्दुल मन्नान को टिकट दिया है तो वहीं भाजपा के रहे एक विधायक विजय बहादुर यादव और कांग्रेसी विधायक रहे मुकेश श्रीवास्तव को भी साइकिल की सवारी करा दी है। वहीं अखिलेश यादव के निजाम में समाजवादी पार्टी ने जे पी जायसवाल, अयोध्या पाल, अमर सिंह परमार और अंशू देवी निषाद को टिकट देकर दल बदल पर अपना भरोसा जताया है। पूरे पांच साल तक सरकार के हमकदम बनकर रहे एमआईएम के बरेली से विधायक शहजिल इस्लाम को अखिलेश ने अपनी पार्टी से ही चुनाव मैदान में उतार दिया। वहीं कांग्रेस का दामन भी दलबदलुओं के दाग से इतर नहीं है। अब तक जारी सूची में भी मुकेश चौधरी, शेरबाज खान और अमरपाल शर्मा को हाथ का साथ पकड़ा दिया। वहीं रालोद समेत कई ऐसे छोटे दल हैं जिनकी मजबूरी हो दलबदल कर आए मजबूत प्रत्याशी बन जाते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव साबित करते हैं कि हर दल को अपनों से ज्यादा दूसरों पर भरोसा है और दलबदल के दलदल से कोई भी पार्टी अछूती नहीं है।
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इस गठबंधन का तो कहना ही क्या
यह सच है कि इतिहास अकसर खुद को दोहराता है। हालांकि उसके किरदार बदलते रहते है। उस बार नरसिम्हाराव कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। दिग्गज की हैसियत वाली अपनी कांग्रेस पार्टी का गठबंधन उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से किया था। विज्ञान का एक नियम है कि ऊष्मा बडे पिंड से छोटे पिंड की ओर संचारित होती है। राजनीति में यह विज्ञान चल गया। दिग्गज दोयम दर्जे की हैसियत मे आ गये और दोयम दर्ज सबल हो गया। आज फिर दिग्गज और दोयम की हैसियत वाले दो दल गठबंधन कर रहे हैं। मगर हैसियत बदली हुई है। इसे अतिश्योक्ति न माना जाय तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यहां से कांग्रेस के पुनर्उत्थान का दरवाजा खुल सकता है। दरअसल इस गठजोड़ की सबसे बड़ी लाभार्थी भी वही है। इसलिए भी क्योंकि वह अपने कदाचित सबसे बुरे दौर में है। सपा से एक बड़ा समझौता उस पी के की सबसे बड़ी राजनीतिक चतुराई है जिसे खुद कांग्रेसी बेकार का बोझ बताते फिर रहे थे। अकेले लड़ने पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा होता और ठीकरा फिर राहुल गांधी के कुर्ते फाड़ता मगर अब वह नफे में है। जीत का श्रेय और सीट उसकी होगी और नुकसान का दोष सपा की कलह या अखिलेश की असफलता को जाएगा। सपा भी भला क्या करती गठबंधन उसकी मजबूरी थी। उसे ढंग से पता था कि अखबारी पन्नों पर पसरी विकास की जमीनी हकीकत क्या है। विकास के लंबे चौड़े दावों के बीच भी सत्ता विरोधी रुझान से मुक्त हो पाना उसके बूते का नहीं था। मायावती के अचानक हमलावर होने और बड़ी तादाद में मुस्लिमों को टिकट देने से उन्हें मिली बढ़त में यही एक रास्ता था। वरना मुस्लिम वोट बैंक के खिसकने का यह चुनाव एक बड़ा अवसर होता। मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की जो विकास यात्रा 25 में पूरी की उसमें इस मुस्लिम मतदाताओँ का किरदार बेहद अहम रहा। उन्होने जो माई (मुस्लिम+यादव) समीकरण तैयार किया उसमें मुस्लिम मतदाताओं की तादाद माई के यादव मतदाताओं से दोगुनी से थोड़ी अधिक थी। इन मतदाताओं को बांधे रखने के लिए मुलायम सिहं यादव ने ‘परिंदा पर नहीं मार सकता’ और ‘मुल्ला मुलायम’ करतब किए। उत्तर प्रदेश मे करीब 70 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां 20-30 फीसदी मुस्लिम है। इनमें कुछ सीटों मे अल्पसंख्यक मतदाताओं की तादाद 41 से 45 फीसदी तक भी बैठती है।
सूबे मे 19.3 फीसदी मुस्लिम आबादी है जो 143 सीटों पर अपनी उपस्थिति का एहसास करा सकती है। समाजवादी पार्टी के आपसी अंतर्कलह के तकरीबन एक दूसरे से गुथे और बुने हुए तार जब घटनाक्रम के मार्फत लोगो के सामने आए उसी समय बहुजन समाज पार्टी का उभार तेज हो गया। अल्पसंख्यक मतदाता बसपा की ओर उम्मीदभरी निगाह से देखने लगे। उन्हें भाजपा के विकल्प के तौर पर आपस में लड़ती हुई सपा के मुकाबले बसपा बेहतर नज़र आई। मायावती ने भी 97 उम्मीदवार उतार कर यह जताने की कोशिश की कि वह असली खैरख्वाह है, भाजपा से वही मुकाबिल है। यह भी सही है कि सूबे मे दलित और मुस्लिम गठबंधन प्रभावकारी भूमिका अदा कर सकता है। 21.1 फीसदी दलित उत्तर प्रदेश में है। 66 उपजातियां हैं इनमें 13 फीसदी सिर्फ जाटव हैं जो मायावती की बिरादरी के कहे जाते है। 8 फीसदी अन्य दलित जातियां हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव मे समाजवादी पार्टी 29.13 फीसदी वोट पाकर 224 सीटे जीतने मे कामयाब हो गयी थी। हलाकि 53 जगहो पर समाजवादी उम्मीदवारों को जमानते भी जब्त हुई थी। उसे 2 करोड़ 20 लाख 90 हजार के आसपास वोट मिले यह 29.13 फीसदी बैठता है। बसपा को 1 करोड़ 96 लाख 43 हजार के आसपास वोट मिले जो 25.91 फीसदी बैठता है। दोनों पार्टोयों के बीच तकरीबन सिर्फ 25 लाख वोटों का अंतर था। ऐसे में सपा और कांग्रेस गठबंधन से पहले बसपा की उम्मीदों का हिलोरे मारना गैरवाजिब नही था क्योंकि इससे काफी ज्यादा वोट सत्ता विरोधी रुझान में इधर उधर होते रहते है। यही नही 2007 के चुनाव में बसपा ने जब 30.43 फीसदी वोट हासिल कर सरकार बनाई थी तब उसे सूबे के 1 करोड़ 58 लाख 72 आसपास मतदाताओं ने पसंद किया था। जबकि दूसरे पायदान पर रहने वाली समाजवादी पार्टी को 25.43 फीसदी वोट मिले थे उसे 1 करोड़ 32 लाख 67 हजार मतदाताओ ने वोट दिया था।
उत्तर प्रदेश मे ही नही कहीं भी आमने सामने की लडाई मे बसपा के लिए मैदान मारना मुश्किल होता है। ऐसे मे काग्रेस-सपा और भाजपा के मजबूती से लड़ते हुए दौर मे अपने लिए उम्मीदो का पहाड़ खडा करना मायावती के लिए बेवजह नहीं था। लेकिन वह जिस तरह मुस्लिम ध्रुवीकरण को आमंत्रण दे रही थीं वह भाजपा की बांछे खिलाने के लिए कम नहीं था। पश्चिम उत्तर प्रदेश मे मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से हालात भले सामान्य हो गये हों पर मुस्लिम जाटव और जाट के साथ जाने को तैयार नहीं दिख रहा है। यही हाल राजनैतिक रुप से जाट और जाटव का मुस्लिम के साथ खडे होने को लेकर है। इस इलाके में तकरीबन 73 सीटें तो आती ही हैं।
अखिलेश यादव को यह लगना लाज़मी था कि जो कांग्रेस 2007 में 44 लाख 89 हजार के आसपास वोट पाई थी वह 2012 के चुनाव मे 88 हजार 72 हजार के आंकडे तक पहुंच गये यह कम दिलचस्प नहीं है। इन दोनों चुनावों में उसका वोट प्रतिशत क्रमशः 8.61 और 11.65 था। यानी दोनों चुनावों के बीच कांग्रेस ने अपना वोट दोगुना और वोट प्रतिशत करीब करीब डेढ गुना बढा लिया। हालांकि सीटों के लिहाज से उसे बहुत फायदा नहीं हुआ पर कांग्रेस की निरंतर बढ़ती हैसियत पर अखिलेश यादव की नज़र पड़ना स्वाभाविक था। अपने लिए जगह तलाश रही कांग्रेस के लिए भी कोई न कोई कंधा दरकार था क्योकि बिहार मे उसका टेकआफ गठबंधन से ही हुआ। यह कांग्रेस की मजबूरी है कि विज्ञान के पुराने सिद्धांत को नए किरदारों से पुनः प्रमाणित करे। यह समझौता कांग्रेस के वजूद का पर्याय है। कांग्रेस के संगठन को भी दुरुस्त करने के लिए जरुरी है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि उसने नारे 27 साल यूपी बेहाल मे अखिलेश यादव के भी पांच साल है। मुलायम के तकरीबन 6 साल हैं। जनता को उसे इसका जवाब देना होगा।
अखिलेश यादव के लिए यह गठबंधन जरुरी है। काग्रेस के लिए मजबूरी है। अगर इस गठबंधन की ठीक से पड़ताल की जाय तो यह कांग्रेस के लिए जरुरी और अखिलेश के लिए मजबूरी भी हो सकता है। पर रालोद के बिना मजबूरी और जरूरी की कसौटी पर यह गठबंधन खरा उतर पाएगा इसे लेकर संदेह का उठना लाज़मी है। अखिलेश यादव को खुश होना चाहिये कि वह मुस्लिम मतदाताओ को रोकने का बड़ा दांव खेल रहे है जबकि कांग्रेस को खुश होना चाहिए कि अब बहुत साल बाद उनका पुराना अल्पसंख्यक उनका दरवाजा देख लेगा। 1996 में बसपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब उत्तराखड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। देश में दिग्गज की हैसियत वाली उस समय की कांग्रेस ने उभरती हुई बसपा को ज्यादा सीट दी थी खुद 125 सीट पर चुनाव लड़ा था। काग्रेस को उस चुनाव में 33 सीटे और 8.35 फीसदी वोट मिले थे। जबकि हैसियत बना रही बसपा को 67 सीटें हासिल हुई थीं तब जबकि अपने वोट का ट्रांसफर कराने की शक्ति वाली नेता मायावती बसपा की यूपी का चेहरा बन चुकी थी। उसके बाद भी मुलायम की समाजवादी पार्टी को 110 और भाजपा को 174 सीटें हाथ लग गयी थी। उस गठबंधन के बारे मे राहुल गांधी में 2007 कहा था कि इस गठबंधन में कांग्रेस ने खुद को बेच दिया था। अखिलेश यादव वोट ट्रांसफर कराने की कसौटी पर अभी कसे ही नहीं गये है। जहा तक राहुल गाधी का सवाल है तो वह भी तीन चार चुनाव से प्रचार करने के बाद यूपी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। ऐसे मे भाजपा को 1996 की पुनरावृत्ति का उम्मीद का जगना बेवजह नहीं कहा जा सकता है। इस बार के गठबंधन में इतिहास नए किरदारों के बीच दोहराएगा। अबकि बड़ा पिंड छोटे पिंड की ओर ऊष्मा का संचरण करेगा यह विज्ञान की कसौटी पर कसा गया सिद्धांत है। राजनीति में प्रयोग हुआ सत्य है।
अखिलेश यादव को यह लगना लाज़मी था कि जो कांग्रेस 2007 में 44 लाख 89 हजार के आसपास वोट पाई थी वह 2012 के चुनाव मे 88 हजार 72 हजार के आंकडे तक पहुंच गये यह कम दिलचस्प नहीं है। इन दोनों चुनावों में उसका वोट प्रतिशत क्रमशः 8.61 और 11.65 था। यानी दोनों चुनावों के बीच कांग्रेस ने अपना वोट दोगुना और वोट प्रतिशत करीब करीब डेढ गुना बढा लिया। हालांकि सीटों के लिहाज से उसे बहुत फायदा नहीं हुआ पर कांग्रेस की निरंतर बढ़ती हैसियत पर अखिलेश यादव की नज़र पड़ना स्वाभाविक था। अपने लिए जगह तलाश रही कांग्रेस के लिए भी कोई न कोई कंधा दरकार था क्योकि बिहार मे उसका टेकआफ गठबंधन से ही हुआ। यह कांग्रेस की मजबूरी है कि विज्ञान के पुराने सिद्धांत को नए किरदारों से पुनः प्रमाणित करे। यह समझौता कांग्रेस के वजूद का पर्याय है। कांग्रेस के संगठन को भी दुरुस्त करने के लिए जरुरी है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि उसने नारे 27 साल यूपी बेहाल मे अखिलेश यादव के भी पांच साल है। मुलायम के तकरीबन 6 साल हैं। जनता को उसे इसका जवाब देना होगा।
अखिलेश यादव के लिए यह गठबंधन जरुरी है। काग्रेस के लिए मजबूरी है। अगर इस गठबंधन की ठीक से पड़ताल की जाय तो यह कांग्रेस के लिए जरुरी और अखिलेश के लिए मजबूरी भी हो सकता है। पर रालोद के बिना मजबूरी और जरूरी की कसौटी पर यह गठबंधन खरा उतर पाएगा इसे लेकर संदेह का उठना लाज़मी है। अखिलेश यादव को खुश होना चाहिये कि वह मुस्लिम मतदाताओ को रोकने का बड़ा दांव खेल रहे है जबकि कांग्रेस को खुश होना चाहिए कि अब बहुत साल बाद उनका पुराना अल्पसंख्यक उनका दरवाजा देख लेगा। 1996 में बसपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब उत्तराखड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। देश में दिग्गज की हैसियत वाली उस समय की कांग्रेस ने उभरती हुई बसपा को ज्यादा सीट दी थी खुद 125 सीट पर चुनाव लड़ा था। काग्रेस को उस चुनाव में 33 सीटे और 8.35 फीसदी वोट मिले थे। जबकि हैसियत बना रही बसपा को 67 सीटें हासिल हुई थीं तब जबकि अपने वोट का ट्रांसफर कराने की शक्ति वाली नेता मायावती बसपा की यूपी का चेहरा बन चुकी थी। उसके बाद भी मुलायम की समाजवादी पार्टी को 110 और भाजपा को 174 सीटें हाथ लग गयी थी। उस गठबंधन के बारे मे राहुल गांधी में 2007 कहा था कि इस गठबंधन में कांग्रेस ने खुद को बेच दिया था। अखिलेश यादव वोट ट्रांसफर कराने की कसौटी पर अभी कसे ही नहीं गये है। जहा तक राहुल गाधी का सवाल है तो वह भी तीन चार चुनाव से प्रचार करने के बाद यूपी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। ऐसे मे भाजपा को 1996 की पुनरावृत्ति का उम्मीद का जगना बेवजह नहीं कहा जा सकता है। इस बार के गठबंधन में इतिहास नए किरदारों के बीच दोहराएगा। अबकि बड़ा पिंड छोटे पिंड की ओर ऊष्मा का संचरण करेगा यह विज्ञान की कसौटी पर कसा गया सिद्धांत है। राजनीति में प्रयोग हुआ सत्य है।
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