आतंकी बुरहान वानी का इनकाउंटर और कश्मीर में अशांति
नए साल की बड़ी चुनौती 
डॉ अर्चना तिवारी 
लेखिका शिक्षाविद है 
9450887187 

धरती का स्वर्ग कश्मीर कब शांत होगा ?कश्मीर की धरती से आतंकवाद का क्या कभी खात्मा हो सकेगा ? क्या नए साल में कश्मीर को कोई नयी दिशा मिल सकेगी ?क्या ऐसा संभव है कि कश्मीर को तबाह करने वालो को मारे जाने के बाद उनके पक्ष में हिंसा न हो सके ? क्या आतंकवादियो को शहीद बताने के जुमले से नए वर्ष में मुक्ति मिल सकती है ?हमारे जिद्दी, जालिम और घटिया पडोसी के मंसूबो पर पूरी तरह क्या इस साल हम विराम लगा सकेंगे ?
ये प्रश्न केवल मेरे नहीं , सवा करोड़ भारतीयों के है जिन्होंने देश की वर्त्तमान सरकार से बहुत ज्यादा उम्मीदे पाल रखी है। देश धरती के स्वर्ग में शांति चाहता है। भारत माँ का मुकुट सुरक्षित चाहता है। लेकिन कैसे संभव होगा यह , कोई नहीं बता पा रहा।  
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कुख्यात आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का पोस्टर ब्वॉय और टॉप कमांडर बुरहान वानी जिसको उसके दो साथियों सहित मार गिराया गया था, कौन जानता था इस बुरहान वानी जिसके मरने के बाद पूरा कश्मीर दंगे – फसाद की ज़द में आ गया. बुरहान के सिर पर 10 लाख का इनाम था. उसके मौत के बाद से घाटी में तनाव की स्थिति बनी हुई और अब तक 47 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। जिस बुरहान वानी के लिए कश्मीर की जनता इस तरह से दंगे – फसाद कर रही है क्या वो कश्मीर का एक ऐसा सच जगजाहिर कर रहा है जो हम में से कोई भी देखना पसंद ना करें? क्या कश्मीर के वाशिंदे वाकई में भारत से अलग होकर पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं? क्या कश्मीर की जनता एक ऐसे माँ – बाप की तरह से पेश नहीं आ रही है जिसने पहले तो अपने बच्चे को गलत रास्ते पर जाने से नहीं रोक और फिर जब उसका बुरा हुआ तो भी उसकी ही तरफदारी करके दूसरों पर आरोप मढ़ना शुरू कर दिया? जिन कश्मीरी लोगों को जान पर खेल कर इंडियन आर्मी ने बाढ़ में बचाया था वो आखिर क्यों उनके ही खिलाफ सिर्फ एक आतंकवादी की मौत पर खड़े हो गए. हद तो तब हो गयी जब पाकिस्तान जिसने अभी कुछ समय पहले ही एक आतंकी वारदात देखी है, ने अपने देश में इस घटना के विरोध में काला दिवस घोषित कर दिया, जबकि उनके खुद के देश में अटैक के बाद ऐसा कोई भी दिन नहीं रखा जिसमें वो इस आतंकी हमले का विरोध करते दिखे।

 कौन था ये बुरहान वानी और क्या था इसका अतीत?


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बुरहान का पूरा नाम बुरहान मुज्जफ़र वानी था जिसका जन्म पुलवामा, जम्मू – कश्मीर के कस्बे तरल के ददसारा गाँव में हुआ था. बुरहान एक पढ़े – लिखे परिवार से संबंध रखता था और उसके पिता मुज्जफ़र अहमद वानी हायर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल थे और इसकी माँ मैमूना मुज्जफ़र सांइंस की पोस्ट ग्रेजुएट थीं और गाँव में कुरान पढ़ाती थीं। 5 बच्चो में बुरहान तीसरे नंबर का था उसके एक बड़े भाई खालिद मुज्जफ़र वानी, एक बड़ी बहन इरम मुज्जफ़र और दो छोटे भाई थे. बुरहान 15 साल की छोटी सी उम्र में घर से भाग कर एक मिलिटेंट ग्रुप ज्वाइन कर लिया 2011 में सोशल मीडिया पर मिली वाहवाही की वजह से बुरहान को हिजबुल मुजाहिद्दीन मिलिटेंट ग्रुप में ले लिया गया। जल्द ही बुरहान हिजबुल मुजाहिद्दीन के पोस्टर बॉय के नाम से प्रसिद्ध हो गया और सोशल मीडिया पर अपने वीडियो और फोटो द्वारा वो कश्मीर के नौजवान युवकों को हिजबुल मुजाहिद्दीन ज्वाइन करने के लिए प्रोत्साहित करने लगा। 13 अप्रैल 2015 में बुरहान के बड़े भाई खालिद की मौत भी आर्मी से एक मुठभेड़ में हो गयी थी जब वो अपने पांच साथियों के साथ अपने भाई से मिलने और उन पांचो की भर्ती हिजबुल मुजाहिद्दीन में कराने जा रहा था। 8 जुलाई 2016 में आखिरकार 10 लाख ईनाम का आतंकवादी सेना द्वारा मौत के हवाले कर दिया गया उसके साथ उसके दो साथी भी मुठभेड़ में मारे गए सरताज़ अहमद शेख और परवेज़ अहमद लश्कारी। सेना को पता चला कि ये तीनों हथियारों के सौदे के लिए कोकेरनाग आ रहे हैं और सेना ने 7 जून से ही इन तीनों को पकड़ने का प्लान बना लिया था लेकिन उनको सफलता 8 जुलाई को मिली।

यहाँ तक तो सब बहुत ही सामान्य सा लग रहा था लेकिन असली और बेहद खौफनाक सच सामने आया जब बुरहान वानी की शव यात्रा में 12000 से 15000 लोग शामिल हुए और उसको एक शहीद का दर्ज़ा देने लगे. कहा जाता है कि अब तक किसी भी आतंकी की शव यात्रा में इतने समर्थकों की भीड़ कभी नहीं जुड़ी। उसके अंतिम संस्कार में सार्वजनिक रूप से आतंकवादी भी शामिल हुए और उसको 21 बंदूकों की सलामी दी गयी. बुरहान का मृत शरीर पकिस्तान के झण्डे से लपेटा गया था और ये पूरी घटना भारत की सरजमीं पर घाटी थी। बुरहान वानी की मौत की खबर जैसे ही फ़ैली कश्मीर के ज्यादातर इलाकों में दंगे – फसाद शुरू हो गए और भीड़ ने पुलिस स्टेशन और आर्मी की छावनी पर हमले करना शुरू कर दिया। मोबाइल फ़ोन, टीवी और मीडिया पर बैन लग गया और 24 जुलाई तक 47 लोगों की मौत हो गयी और 5000 से ज्यादा गायक हो गए। ये सब सिर्फ एक आतंवादी की मौत जिसको शहादत का नाम दे दिया गया के लिए हुआ लेकिन ये पूरा वाक़या एक बड़ा सवाल छोड़ गया क़ि क्या पूरा कश्मीर अब भारत से अलग होना चाहता है? बुरहान वानी की मौत के अगले ही दिन पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्लाह ने कहा कि  बुरहान की मौत ने उसे एक मसीह बना दिया है।  कश्मीर के उन इलाकों में जहां अब तक आतंकवाद की जड़ नहीं पहुंची थी अब और भी कश्मीरी नौजवान मिलिटेंट ग्रुप को ज्वाइन करेंगे और ये कश्मीर की शांति के लिए बेहद बड़ा खतरा होगा।
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अब यहाँ से ही सवाल खड़ा होता है कि आने वाले समय में क्या होगा कश्मीर का भविष्य और कैसा होगा वहां का आने वाला हर एक कल? देश का स्वर्ग कब तक झेलता रहेगा नर्क का दंश? क्या कश्मीर यूँ ही सुलगता और जलाता रहेगा और हम मूक दर्शक बने रहेंगे?आतंकवादियो की मौत को शहादत कहा जाता रहेगा और हम तमाशा देखते रहेंगे ? पकिस्तान का प्रधानमंत्री जैसे ओहदे वाला राजनेता संयुक्त राज्य सभा के मंच से किसी आतंकवादी को लोकनायक बना कर शहीद बताएगा और हम चुप्पी साधे रहेंगे? 
यह अलग बात है कि पकिस्तान के प्रधानमन्त्री को उसी मंच से भारत की विदेश मंत्री सुषमास्वराज ने खूब ठीक से जवाब दिया लेकिन उससे कोई हल तो नहीं निकल सका।  घाटी तो अभी भी सुलग रही है और अब कई बुरहान सामने आने लगे है। अब तो बुरहान के पिता ने ही इस पूरी लड़ाई को दूसरा ही रंग दे दिया है। बुरहान वानी के पिता ने कहा है कि अपने दो बेटों की मौत के बाद अब वह अपनी बेटी को भी आजादी के लिए कुर्बान करने को तैयार हैं। पंपोर में बुरहान वानी के पिता द्वारा बुलाई गई एक रैली में भारी जनसैलाब उमड़ा। कश्मीर की आजादी का समर्थन करते हुए बुरहान के पिता ने कहा कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ अन्याय होता है इसलिए वह भारत से कश्मीर को आजाद कराना चाहते हैं। आइए जानें कश्मीर की आजादी के बारे को लेकर मुजफ्फर वानी की उस सोच के बारे में जोकि उनके धार्मिक अलगाववाद का चेहरा उजागर करती है।

 लड़ाई राजनीतिक नहीं धार्मिक है:
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बुरहान की मौत ने उनके पिता को कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन का चेहरा बना दिया है. ये बात तब भी दिखी जब कश्मीर के अलगाववादी धड़े हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के श्रीनगर के हजरतबल मस्जिद में लोगों से जुटने की अपील के बावजूद लोगों ने मुजफ्फर वानी की रैली को ज्यादा तवज्जो दी।  सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूख और जेकेएलफ के यासीन मलिक द्वारा हाल ही में गठित एक अलगाववादी धड़े ने लोगों से शुक्रवार को 'दरगाह चलो' के नारे के साथ हजरतबल चलने की अपील की थी।  लेकिन उनकी इस अपील का लोगों का मामूली असर हुआ। इसके उलट पूरी घाटी में कर्फ्यू होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोग मुजफ्फर वानी के पंपोर स्थित खरेऊ की रैली में पहुंचे थे। मुजफ्फर वानी और उसके परिवार के इतिहास को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि मुजफ्फर के भारत के खिलाफ आग उगलते बोल अचानक से पनपे होंगे।  जुलाई में सेना के हाथों मारे जाने वाले मुजफ्फर के छोटे बेटे बुरहान वानी से पहले 2010 में उसका बड़ा बेटा भी आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से सेना के साथ मुठभेड़ में मारा जा चुका है. दो बेटों की मौत के बाद भी मुजफ्फर वानी के रवैये में जरा भी फर्क नहीं आया है और वह कश्मीर की आजादी के लिए अब अपनी बेटी को भी समर्पित करने की बात कर रहा है।
मुजफ्फर के भारत विरोध का आधार राजनीतिक न होकर काफी हद तक धार्मिक लगता है।  बुरवान वानी के मारे जाने के कुछ दिनों बाद ही हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में मुजफ्फर ने अपनी इस सोच पर मुहर भी लगाई थी।  उस इंटरव्यू में उसने कहा था, ' हिंदुस्तान से आजादी ही हर कश्मीरी का मकसद है. भारत में मुस्लिमों और कश्मीरियों के साथ अन्याय होता है, बीफ पर पाबंदी लगाई जाती है. इसलिए भारत की फौज की ताकत के बावजूद एक मुसलमान होने के नाते वे भारत के खिलाफ लड़ेंगे. ये पूछे जाने पर बुरहान की मौत का उन्हें अफसोस तो होगा ही. मुजफ्फर ने कहा, हां थोड़ा है, लेकिन मेरा बेटे से पहले खुदा, कुरान और मोहम्मद साहब हैं.'
कश्मीर में जुलाई में सेना के साथ मुठभेड़ में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से ही वहां भारत के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और अब तक इन प्रदर्शनों में कई सुरक्षाबलों समेतसैकड़ो लोगों की मौत हो चुकी है। 
बुरहान के मारे जाने के बाद ऐसा लगता है कि आजादी की मांग करने वाले अलगाववादियों को मुजफ्फर वानी के रूप में अपने आंदोलन के लिए एक नया चेहरा मिल गया है. लेकिन मुजफ्फर वानी की बातों से इतना तो तय है कि कश्मीर की समस्या को अब तक राजनीतिक अलगाववाद के नजरिए से देखने वालों के लिए उसके धार्मिक अलगाववाद को भी समझने की जरूरत है! 
इस मामले पर वरिष्ठ पत्रकार मयंक चतुर्वेदी की एक टिपण्णी गौर करने लायक लगाती है। वह लिखते है - राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक में कश्मीर मुद्दे को लेकर शि‍वसेना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक उम्दा सुझाव दिया है । सुझाव यह था कि नवाज शरीफ के साथ तो चाय पर चर्चा हो गई, कभी कश्मीर के लोगों के साथ भी आप चाय पर चर्चा कीजिए। इस सलाह का महत्व ऐसे समय में और अधि‍क बढ़ जाता है, जब कश्मीर एक बार फिर किसी आतंकी के मारे जाने के बाद सुलग रहा है। यहां बात नवाज शरीफ के साथ मोदी के चाय पीने की तुलना नहीं हो रही, बल्कि बात इससे भी बहुत ज्यादा गंभीर है। वस्तुत: बात यह है कि हम उनके साथ तो चाय पी रहे हैं जो रात-दिन हमारे सीने में छुरा घोपनें का कार्य कर रहा हैं, लेकिन हम उनसे सीधा संवाद बनाने में सफल नहीं हो पा रहे जोकि हमारे देश का ही एक हिस्सा हैं। कश्मीर में कश्मीरियत के नाम पर हुर्रियत नेता यहां के युवाओं को बरगला सकते हैं तो क्यों नहीं सही और यथास्थ‍िति बयान कर इन युवाओं को देश के विकास में योगदान देने के लिए मुख्यधारा में जोड़ा जा सकता ? वास्तव में इस दिशा में एक नई पहल करने की जरूरत है। 
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आज यह सर्वविदित है कि कश्मीर में बिगड़े हालातों के लिए हमारा पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान पूरी तरह जिम्मेदार है। पाकिस्तान की इसी दखलंदाजी के कारण ही विगत दिनों हमारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह को यहां तक कहना पड़ा था कि कश्मीर में आज जो कुछ हो रहा है वह सब पाकिस्तान प्रायोजित है और उसका नाम भले ही पाकिस्तान हो, लेकिन उसकी सारी हरकतें नापाक हैं। ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं, जब कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद को हवा देने के लिए पाकिस्तान ने यहां के युवाओं को गुमराह किया हो, यह काम रह-रह कर वह करता ही रहता है । हिजबुल मुजाहिदीन का आतंकी बुरहान वानी हो या उस जैसे तमाम युवा जो उसके बहकावे में आकर अपने देश से ही गद्दारी करने में लग जाते हैं। लेकिन इसके वाबजूद भी हमें अपने विश्वास को बनाए रखना होगा। आज नहीं तो कल घाटी के उन सभी युवाओं को यह बात ठीक ढंग से समझ में आ जाएगी कि कौन उनका सच्चा हितैषी है। वैसे तो यह बात उन्हें तभी समझ जाना चाहिए था जब कश्मीर में बाढ़ आई थी और भारतीय सेना ने बिना भेदभाव किये उनके जानमाल की हिफाजत की थी। लेकिन शायद यहां के अलगाववादी तथा इनके बहकावे में आ जाने वाली आवाम इस अनुभव से कुछ सीखना नहीं चाहती, निश्चित ही प्रकृति उन्हें और अवसर अपने वतन भारत के प्यार को समझने के लिए अवश्य ही देगी।
 दूसरी ओर यह भी एक तथ्य है कि कश्मीर का सच दुनिया आज जान चुकी है, भले ही कुछ स्वार्थ से पूर्ण होकर सच्चाई स्वीकार्य न करें किंतु कहना होगा कि इसके वाबजूद भी विश्व के कई देशों ने कश्मीर में आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान की घेरेबंदी शुरू कर दी है, जिसके कि संकेत समय-समय पर पिछले दिनों देखने को मिले हैं। आने वाले दिनों में यह घेराबंदी ओर बढ़ेगी इतना तय है। लेकिन आज भी मूल बात यह है कि कश्मीर का अलगाववाद बंद कैसे हो और तत्काल में भारत विरोधी नारे तथा गतिविधि‍यों को कैसे समाप्त किया जा सकता है ? निश्चित ही वर्तमान परिस्थ‍ितियों में हमें कश्मीर को एक नए सिरे से देखना होगा। समस्या है तो उसका समाधान भी होगा । यह तो सुनिश्चित है‍ कि पाकिस्तान को कोसते रहने से काम नहीं चलने वाला, लेकिन उसकी अनदेखी भी संभव नहीं। इसलिए भारत सरकार को जो उपाए कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर करने हों वह करे किंतु इससे भी ज्यादा जरूरी है कि सबसे पहले वह कश्मीरियों से सीधे संवाद बनाने की व्यवस्था बनाए। 
मोदी सरकार को कश्मीर के हालात सुधारने के लिए दोहरी रणनीति पर चलना होगा। एक तरफ उसे आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बेनकाब करते रहना होगा और दूसरी तरफ घाटी में अलगाववाद को हवा दे रहे तथा सुरक्षाकर्मियों को निशाना बना रहे तत्वों से सख्ती से पेश आना होगा। अब भारत तय करे कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जाए। हालात सामान्य बनाने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से कई तरह के उपाय किए जा चुके हैं, लेकिन स्थिति तकरीबन जस की तस है। दिल्ली में सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति के आधार पर सभी दलों के सांसदों का एक दल स्थिति का जायजा लेने और शांति की राह तलाशने दो दिन के कश्मीर दौरे पर गया, किंतु बात बनी नहीं। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों ने निजी हैसियत से अलगाववादी नेताओं से मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें एक तरह से बैरंग लौटा दिया गया। अब केंद्र सरकार ने अलगाववादियों के खिलाफ सख्ती बढ़ाते हुए उन्हें मिल रही सरकारी सुविधाओं पर फिर से विचार करने की बात कही है। इसी क्रम में अलगाववादी नेताओं को सुविधाओं से वंचित करने की मांग वाली एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट भी सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया है। कश्मीर में ऐसी ही अशांति 2010 में हुई थी। तब राज्य में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की साझा सरकार थी। अशांति का वह दौर करीब पांच माह चला था। कई कारणों से आज हालात भिन्न् हैं। 2010 में कट्टरपंथी इतने खुले रूप से सक्रिय नहीं थे। हालांकि उस अशांति में भी करीब तीन दर्जन लोगों की जान गई थी, लेकिन न तो सुरक्षा बलों पर दिन-प्रतिदिन हमले किए जा रहे थे और न ही आईएस और लश्कर के साथ पाकिस्तान के झंडे लहराए जा रहे थे। आजादी के नाम पर सार्वजनिक स्थलों पर पाकिस्तान के झंडे लहराया जाना कश्मीर में आया एक बड़ा बदलाव है। यह बदलाव यही बताता है कि बीते समय में अलगाववादी तत्वों ने युवाओं को भड़काने का काम जमकर किया है।
2015 में राज्य में सत्ता परिवर्तन के तहत जब अप्रत्याशित रूप से पीडीपी-भाजपा की गठबंधन की सरकार ने सत्ता संभाली तो यह उम्मीद थी कि हालात बदलेंगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि बुरहान वानी के सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाने की घटना कश्मीर को हिंसा की आग में झोंकने का एक बहाना भर थी। इस घटना के बाद विरोध प्रदर्शनों के बहाने हिंसा का जैसा सिलसिला आरंभ हुआ उससे साफ पता चलता है कि उसके पीछे कट्टरपंथी ताकतें हैं। इन ताकतों को मस्जिदों में बैठे कथित धर्मगुरुओं द्वारा संचालित किया जा रहा है। माना जा रहा है कि मस्जिदों में पाकिस्तानपरस्त तत्व भी डेरा जमाए हुए हैं और उन्हीं के इशारे पर हिंसा हो रही हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कश्मीरी पंडितों के खिलाफ माहौल बनाने और फिर उन्हें घाटी से बाहर निकालने में भी पाकिस्तान का हाथ रहा। कश्मीरी पंडितों के पलायन ने घाटी की संस्कृति को पूरी तरह बदल कर रख दिया। जो कश्मीरी संस्कृति मुस्लिम बहुलता के बावजूद इस्लामिक कट्टरता से दूर थी, वह आतंकियों व अलगाववादियों के प्रभाव में इस्लामी कट्टरता के दलदल में फंस गई। इस समय घाटी में ऐसा माहौल बन गया है कि जो कट्टरपंथी नहीं हैं या फिर जिनका भारत से कोई स्पष्ट विरोध नहीं, वे भी यह महसूस करने लगे हैं कि हिंसा के जरिए भारत सरकार को झुकाया जा सकता है और कश्मीर को आजादी मिल सकती है।
इधर, मोदी सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ सख्त रुख अपनाया है। आमतौर पर लोग यही चाह रहे हैं कि पाकिस्तान के प्रति अपनाई गई सख्त नीति से पीछे न हटा जाए। मोदी सरकार को कश्मीर के हालात सुधारने के लिए दोहरी रणनीति पर चलना होगा। एक तरफ उसे आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बेनकाब करते रहना होगा, दूसरी तरफ घाटी में अलगाववाद को हवा दे रहे और सुरक्षाकर्मियों को निशाना बना रहे तत्वों से सख्ती से पेश आना होगा। पाकिस्तान दशकों से कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन भारत ने बेहतर संबंधों की आस में हमेशा उसकी नापाक नीयत की अनदेखी की। मगर अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जाए। शायद इसी के तहत प्रधानमंत्री मोदी ने पीओके और बलूचिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन का मामला उठाया। इससे पाक तिलमिला गया है। पाकिस्तान कश्मीर को अपनी विदेश नीति का मुख्य हथकंडा बनाकर भारत को दशकों से परेशान किए है। अभी तक भारत उसे माकूल जवाब नहीं दे पा रहा था, लेकिन मोदी सरकार के बदले रुख, खासकर पीओके और बलूचिस्तान का मामला उठाने और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाक की तगड़ी घेरेबंदी करने के बाद उसे कुछ सूझ नहीं रहा है।

पाक की मुश्किल इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि आतंकवाद के मामले में अमेरिका भी उसे खरी-खरी सुना रहा है। भारत को अपनी आक्रामक नीति पर कायम रहते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह भरोसा दिलाना होगा कि कश्मीर का मसला मूलत: इस्लामी चरमपंथ का है और उसके लिए पाक जिम्मेदार है। जिस दिन विश्व समुदाय यह समझ गया कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है, मोदी सरकार का काम और आसान हो जाएगा। कुछ समय पहले तक मोदी सरकार की सोच यह थी कि देर-सबेर कश्मीर के लोगों को अपनी गलती का एहसास होगा और इसीलिए वह पुराने तौर-तरीकों पर चल रही थी। अगर केंद्र सरकार ने कश्मीर की अशांति से निपटने के लिए जैसा आक्रामक रुख अब अपनाया, वैसा ही शुरू से अपनाती तो अब तक अलगाववादी व पाकिस्तानपरस्त तत्वों की कमर टूट चुकी होती।

इन तत्वों के प्रति जो नरमी दिखाई जाती रही और यहां तक कि उनका तुष्टीकरण भी किया गया, उसी के चलते वे कश्मीरी युवाओं को भड़काने में सफल रहे। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि अलगाववादी आंदोलन मीरवाइज उमर फारुक जैसे लोगों के नियंत्रण से बाहर हो चुका है और सीधे-सीधे मस्जिदों से संचालित किया जा रहा है। इस पर सख्ती से नियंत्रण पाना होगा, क्योंकि जो उपद्रव कभी घाटी के शहरी क्षेत्रों तक सीमित रहता था वह ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल चुका है। कश्मीर पहुंचे सेनाध्यक्ष ने जिस तीन सूत्रीय रणनीति की चर्चा की उस पर अमल में देर नहीं होनी चाहिए। जब हिंसा फैलाने वाले तत्व काबू में आएंगे तभी शायद कश्मीर के नेता अलगाववादी और पाकिस्तानपरस्त तत्वों के खिलाफ कुछ कहने का साहस जुटा पाएंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सत्ता में आने के बाद भी पीडीपी नेता ऐसा कुछ कहने को तैयार नहीं कि आजादी की मांग बेतुकी है। भाजपा को पीडीपी के सियासी हितों की एक सीमा से अधिक परवाह नहीं करनी चाहिए। कश्मीर को शांति की राह लाने के लिए यह आवश्यक है कि किसी दल या संगठन को संकीर्ण सियासी स्वार्थों की पूर्ति का मौका न दिया जाए। इन सबको यह संदेश देने की जरूरत है कि भारत सरकार कश्मीर के मामले में किसी भी दबाव के आगे झुकने वाली नहीं है।

शिवसेना नेता संजय राउत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सही सलाह दी है‍ कि कश्मीर के लोगों के साथ ‘चाय पर चर्चा’ करें। साथ में यह भी जरूरी है कि यह चर्चा एक बार की होकर न रह जाए, इस प्रकार के प्रयोजन सतत करने होंगे, क्योंकि कश्मीर में अलगाववादी और पाकिस्तान परस्त तत्व कश्मीरी युवाओं को बहकाने एवं बरगलाने में समर्थ हैं।
उनकी यह समर्थता हो सकती है, धर्म के आधार पर हो, यह भी संभव है, कि कश्मीरियत यानि विशेष संस्कृति की दुहाई देकर इन्हें भारत से अलग रखने का षड्यंत्र चलाया जाता हो, यह भी हो सकता है कि बगैर काम किए ही इस क्षेत्र के अधि‍कांश नौजवानों को धन का लालच दिया जाता हो या अन्य कोई और कारण भी इसके पीछे संभव है। ऐसे तत्वों के समक्ष कश्मीर के राजनीतिक दल भी असहाय-अक्षम नजर आते हैं। कई बार तो यहां के राजनीतिक दलों के आए बयानों और भाषणों को सुनकर समझ नहीं आता कि राजनीतिक दल कौन सी भाषा बोल रहे हैं ? ये राजनीतिक दलों की भाषा है या भारत विरोधियों की। वास्तव में ये उन तमाम राजनीतिक दलों की अपनी साख बनाए रखने की मजबूरी भी हो सकती है। इसलिए सार्थक संवाद, बार-बार की बातचीत कश्मीर की जनता और यहां के छोटे-बड़े राजनीतिक दलों से साथ होती रहे यह बेहद जरूरी है। कश्मीर के हालात बिगड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि जाने-अनजाने इस भाव को मजबूत किया गया कि यह भारतीय भू-भाग देश के अन्य हिस्सों से कुछ विशेष है। वस्तुत: अनुच्छेद 370 जिसके कारण से कश्मीर को कुछ खास रियायतें और सुविधाएं मिलती रही हैं, जिसके कारण कुछ हद तक यहां के लोगों में सुविधाभोगी होने का प्रचलन तेजी से पनपता रहा, जिसके परिणामस्वरूप हम कह सकते हैं कि आगे चलकर यही अनुच्छेद 370 इसके अलगाववाद का मुख्य आधार बन गया ।


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