कूटनीति की नयी ऊँचाई 

भारत की विदेश नीति - (2016 की सफलता-असफलता और 2017 की चुनौतियां )
संजय तिवारी 
अध्यक्ष भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली 
9450887186 

भारत में नयी सरकार के गठन के बाद से ही विदेश नीति को लेकर जो सजगता दिखी है उसके कई तरह के परिणाम अब दिखने लगे है। प्रधानमंत्री बनाने के बाद से अब तक नरेंद्र मोदी 6 महाद्वीपों में अब तक कुल 56 बार विदेश यात्रा कर चुके हैं जिनमें 45 देशों के दौरे सहित संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिस्सेदारी भी शामिल है। प्रधानमंत्री ने इस क्रम में 
36 देशों का एक-एक बार दौरा किया है। आठ देशों अफगानिस्तान, चीन, फ्रांस, जापान, नेपाल, रूस, सिंगापुर, उज़्बेकिस्तान की दो-दो बार यात्राएं की हैं। केवल अमेरिका की चार बार यात्रा कर चुके है  कर चुके हैं मोदी। प्रधानमंत्री की इन यात्राओ और देश की विदेश नीति में गहरा सम्बन्ध है। विपक्ष के लोग यद्यपि मोदी की यात्राओ पर तरह तरह की टिप्पणियां करते है लेकिन इन यात्राओ की अनगिनत उपलब्धियों के कारण ही आज दुनिया जिस तरह से भारत की तरफ देख रही है वह ऐतिहासिक है। कुछ पंडित भारत के इस स्वरुप में इस विदेश नीति को आक्रामक होने की बात कहते है लेकिन यह समय के साथ होने वाली स्पर्धा है जिसमे हमारे प्रधानमंत्री को यह सब करना पड़ा है , इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
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अब जबकि मोदी के सत्ता में आये दो वर्ष और सात महीने पूरे होने जा रहे है तथा अंग्रेजी कैलेंडर में वर्ष बदलने जा रहा है , भारत की विदेश नीति को लेकर चर्चाये होना स्वाभाविक है। क्योकि इसी दौर में दुनिया एक नए तरह के वातावरण में प्रवेश कर रही है। अमेरिका सहित दुनिया के कई देशो में दक्षिणपंथ का उदय हो रहा है। वैश्वीकरण पर संकट के बादल हैं और दुनिया नयी परिभाषाओ के साथ सामने आकार ले रही है। ऐसे में विवेचना दोनों की ही होनी चाहिए - इतिहास की भी और वर्त्तमान से जुड़े भविष्य की भी।  
एक तरह से देखने पर नरेंद्र मोदी की विदेश नीति भारत को अधिक प्रतिस्पर्धी, विशस्त और सुरक्षित देश के रूप में नए सिरे से तैयार करने में सक्षम प्रतीत होती है । यद्यपि मजबूत विदेश नीति की बुनियाद मजबूत घरेलू नीति ही होती है | वह भारत ,जहाँ सम्पूर्ण विश्व का छठवा भाग निवास करता है, हमेशा  अपनी शक्ति से बहुत कम प्रहांर करता है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह नियम-निर्माता नहीं नियम मानने वाला देश रहा है। 2013 में 'भारत की कमजोर विदेश नीति” शीर्षक से “जर्नल फॉरेन अफेयर्स” पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित हुआ था, जिसमें इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया गया था कि किस प्रकार भारत स्वयं अपनी प्रगति में बाधक है, किस प्रकार राजनैतिक बहाव ने उसे खुद के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में बदल दिया है । 25 साल पहले बर्लिन की दीवार गिरने के बाद दुनिया ने बहुत थोड़े समय में बहुत गहरे तकनीकी, आर्थिक और भू राजनीतिक परिवर्तन देखे । दुर्भाग्य से भारत के समग्र प्रभावशाली आर्थिक विकास के बावजूद, पिछले 25 साल का राजनीतिक प्रवाह अधिकांशतः कमजोरी का रहां । उदाहरण के लिए, 1989 और 1998 के बीच, भारत में लगातार कमजोर सरकारें रहीं । यदि यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विगत दो बार का प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कार्यकाल रणनैतिक द्रष्टि से "विलुप्त दशक" रहा ।
 एक पांच हजार साल पुराने इतिहास और संस्कृति वाला एक देश दूसरों की राय आँख बंद करके उनका अनुसरण नहीं कर सकता है। अपना प्रत्युत्तर ऐसे हर भारतीय को प्रिय हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के रूप में उन विचारों को प्रतिबिंबित करेगा। अंतर्राष्ट्रीयता ,विदेशी संबंधों के संचालन में न्याय की स्वतंत्रता, विश्व व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण के लिए समर्थन के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के रखरखाव के लिए योगदान हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की स्‍थायी विरासत हैं । ये आदर्श भारत में राजनीतिक स्पेक्ट्रम भर में मजबूत समर्थन, गुट निरपेक्ष आंदोलन में और पार महाद्वीपीय क्षेत्रीय समूहों के निर्माण में भारत की भागीदारी को दर्शाते हैं । इन समूहों में ब्रिक्‍स शामिल है जिसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका आता है। इसी तरह, इब्सा वार्ता मंच भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को एक साथ लाता है। दुनिया के साथ अपने संबंधों को शांति और हमारे राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए स्थिरता का माहौल बनाने के स्थायी उद्देश्यों से संचालित हो रहा है; राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित करना; ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा सहित, और भारत विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नयी अगली लहर को पकड़ने की मदद; और जैसे जलवायु परिवर्तन, व्यापार, आतंकवाद का मुकाबला, और साइबर सुरक्षा और परमाणु प्रसार के खिलाफ मजबूत बनाने के प्रयासों के रूप में वैश्विक मुद्दों पर विचार विमर्श में भाग लेने के द्वारा अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों और घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करना है। हम समकालीन वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए और नई चुनौतियों से निपटने और एक सहायक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिवेश, बढ़े निवेश प्रवाह, प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण प्रदान करने की क्षमता में सुधार करने के लिए इस तरह के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के रूप में बहुपक्षीय संस्थाओं के आगे सुधार और एक खुले बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। भारतीय प्रवासियों के रूप में, निवेश और व्यापार के लिए उनके हितों को बढ़ावा देने और रक्षा, संख्या और महत्व में विश्व स्तर पर आगे बढ़ाना और कल्याण भारतीय कूटनीति का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है।

क्षेत्रीय प्रभाव की अधोगति
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लंबे समय तक रहे नेतृत्व संकट के परिणाम स्वरुप भारत की क्षेत्रीय और अतिरिक्त क्षेत्रीय शक्ति में तेजी से कमी आई । चीन और भारत के मध्य शक्ति और प्रभाव का अंतर काफी बढ़ गया । और देखते ही देखते 25 वर्षों में चीन काफी आगे निकल गया । भारत के लिए अधिक परेशानी की बात यह रही कि वह अपने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण  नजदीकी क्षेत्रों में कमजोर हो गया । यहां तक कि छोटा सा मालदीव भारत को तमाचा लगाकर उससे दूर हो गया । उसने ठोकर मारकर राजधानी माले में कार्यरत भारतीय एयरपोर्ट ऑपरेटर बाहर निकाल दिये तथा बिना किसी परिणाम की चिंता किये सार्वजनिक रूप से भारतीय राजदूत के कपड़े उतरवा दिए । नेपाल में भी भारत ने स्वयं को चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में पाया, और श्रीलंका में तो भारत की स्थिति चीन की तुलना में दोयम दर्जे की हो गई ।
अजीब विरोधाभास था कि एक ओर तो भारत की अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी किन्तु भारत का क्षेत्रीय प्रभाव कम हो रहा था । इससे यही प्रगट होता है कि ठोस, सामरिक लक्ष्यों के अभाव में जीडीपी विकास दर मजबूत विदेश नीति में रूपांतरित नहीं होती, उसके लिए एक गतिशील और दूरंदेशी नेतृत्व आवश्यक है । इंदिरा गांधी के समय भारत आर्थिक रूप से कमजोर था किन्तु विदेश नीति बहुत मजबूत थी, जिसके कारण कोई पड़ोसी उसके साथ गड़बड़ करने का साहस नहीं जुटा पाता था ।
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, नरेंद्र मोदी का राजनीतिक उदय पांसा पलट सकता है, क्योंकि सुनिश्चितता  उनकी विशेषता है । देश के आर्थिक विकास और सैन्य सुरक्षा को पुनर्जीवित करने पर उन्होंने जो ध्यान दिया है उसमें पांच बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं । पहली तो यह कि श्री मोदी ने बहुत जल्दी उच्चस्तरीय कूटनीति में काफी राजनीतिक महारत हासिल कर ली है । असामान्य रूप से व्यस्त विदेश नीति कार्यक्रमों तथा लगातार प्रांतीय चुनावों में जारी उनके प्रचार अभियानों के कारण विरोधी उनकी आलोचना भी कर रहे हैं | उन्हें उनकी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए छोड़ना होगा | घरेलू मुद्दों को सीमित समय में सुलझाने से ही उनकी क्षमता व योग्यता प्रदर्शित होगी । किसी भी पिछले भारतीय प्रधानमंत्री ने श्री मोदी के समान कार्यभार संभालने के पहले ही महीने में इतनी बहुपक्षीय उच्च स्तरीय और द्विपक्षीय शिखर बैठकों में भाग नहीं लिया। 
दरअसल  मोदी की विदेश नीति विचारों से संचालित है किसी विचारधारा से नहीं । दरअसल, श्री मोदी ने बहुत खूबी से अपने उच्चस्तरीय विचारों को सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत कर जनमत को अपने पक्ष में किया । घरेलू मोर्चे पर भी वे विचारों की शक्ति का उपयोग कर रहे है जैसे कि “स्वच्छ भारत” । सामरिक क्षेत्र में वे अपने “मेक इन इंडिया” मिशन को बहुतायत से आयात पर निर्भर रक्षा क्षेत्र में ले जा रहे हैं । अंततः श्री मोदी की क्षमता की असली परीक्षा उनके विचारों को परिवर्तनकारी उपलब्धियों में रूपांतरित होता देखने पर ही होगी । वास्तव में उन्होंने फुर्तीली विदेश नीति प्रदर्शित की है जिसकी बानगी उनकी व्यवहारिकता है। यह उनकी प्राथमिकताओं में स्पष्ट झलकता है | विगत नौ वर्षों से अमरीका उन्हें बीजा न देकर अपमानित करता रहा, किन्तु अमेरिका के साथ संबंधों को बहाल करने में व्यक्तिगत रोष ज़रा भी आड़े नहीं आया । गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में श्री ओबामा की निर्धारित यात्रा भारत और अमेरिका के सम्बन्ध नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने का समन्वित प्रयास था  | इससे श्री मोदी की बाजार समर्थक आर्थिक नीति तथा रक्षा आधुनिकीकरण के प्रति प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है ।
अमेरिका पहले से ही किसी अन्य देश की तुलना में भारत के साथ अधिक सैन्य अभ्यास आयोजित करता रहा है । और हाल के वर्षों में, यह चुपचाप भारत को सबसे अधिक हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में रूस से आगे निकल गया है । श्री मोदी ने जवाहरलाल नेहरू के अलावा अन्य किसी भी पूर्ववर्ती की तुलना में तेजी से विदेश नीति पर अपनी छाप छोडी है । इसके बाद भी उनकी विदेश नीति में “मोदी सिद्धांत” उच्चारित करने की कोई मंशा प्रकट नहीं होती । दिखावटी "गुजराल सिद्धांत" जैसे शब्दों की तुलना में श्री मोदी अपने कार्यों को "नीति ट्रेडमार्क" के रूप में परिभाषित करना चाहते हैं । वास्तव में, उनके कार्यों ने खुद बोलना शुरू कर दिया है - जापान और इजरायल के साथ मजबूत भागीदारी निर्माण की दिशा में बढाए अपने कदम से उन्होंने पाकिस्तानी गोलाबारी और संघर्ष विराम का करारा जबाब दिया है | भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए केंद्रीय खाद्य-एकत्रीकरण मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में उनका दृढ निश्चय स्पष्ट दिखाई देता है ।
खाद्य-एकत्रीकरण मुद्दे पर जिनेवा में विश्व व्यापार संगठन के व्यापार सुविधा समझौता अमरीका द्वारा वीटो करने से आये गतिरोध को समाप्त करने में श्री मोदी के प्रयत्नों की श्री ओबामा ने भी प्रशंसा की । ऎसी स्थिति में जबकि संयुक्त राष्ट्र के “इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट” के प्रमुख भी वीटो का समर्थन करते हुए कह रहे थे कि जिनेवा में भारत के सम्मुख वास्तविक विकल्प "अपने नागरिकों को भोजन" और धनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए "नौकरियों का सृजन" के बीच है । आखिरकार कृषि सब्सिडी के मुख्य प्रदाता अमीर देश व चीन ही हैं।
मानसून पर निर्भर व सूखा प्रभावित भारत के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से खाद्यान्न एकत्रीकरण अत्यंत आवश्यक है | 1960 की अपमानजनक स्थिति को याद करें जब भारत अमेरिका के सम्मुख पी एल-480 कार्यक्रम के तहत विदेशी खाद्य सहायता हेतु कटोरा लेकर खडा था । एक ओर जहां डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने बाली में नर्मी दिखाते हुए खाद्यान्न एकत्रीकरण मुद्दे पर 2017 के बाद सहमति देकर तय समयसीमा के बाद भारत की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया वहीं दूसरी ओर श्री मोदी डॉ. सिंह द्वारा किये गए इस पक्के सौदे को समाप्त करने में सफल हुए | नवीन स्थिति यह है कि जब तक कोई स्थाई समाधान न निकले तब तक विकासशील देशों के ' खाद्यान्न -एकत्रीकरण कार्यक्रम’ को विश्व व्यापार संगठन की किसी चुनौती का सामना नहीं करना होगा, इस प्रकार उन्हें दबाब से अनिश्चित काल के लिए मुक्ति मिल गई ।

पूर्व की ओर दृष्टि

हम कह सकते है कि नरेंद्र  मोदी अपने पूर्ववर्ती नेताओं से भिन्न हैं, वे राजनयिक प्रतीकों को प्रमुख महत्व देते है । उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) शिखर सम्मेलन का उदघाटन संयोग से मुंबई आतंकी हमलों के दुखद सालगिरह के दिन हुआ, वहां उन्होंने उस घटना के मास्टरमाईंड पर मुकदमा चलाने से मना करने वाले पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ को पूरी तरह अनदेखा किया । केवल अगले दिन धुलीखेल रिट्रीट के अवसर पर ही श्री मोदी ने श्री शरीफ के साथ हाथ मिलाया। वास्तव में व्यापक क्षेत्रीय और वैश्विक एजेंडे पर ध्यान केंद्रित कर श्री मोदी ने पाकिस्तान को एक प्रकार से किनारे कर दिया, एक हानिप्रद मुद्दा जो श्री अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति के नीचे दब गया था | मोदी ने हर अवसर पर पाकिस्तान को भारी दुविधा में डाला कि वह किसके साथ जुड़े ? राजनीतिक रूप से सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा कद कम करने के बाद श्री शरीफ जनरलों के कंधों पर बैठे एक तोते की तरह है जो भारत को हकलाते हुए उनकी प्रतिध्वनी सुनाने का प्रयत्न कर रहे थे । इस बीच उडी की घटना के बाद जिस तरह से भारत ने पाकिस्तान में होने वाले सार्क में नजाने की घोषणा की और उसका अनुकरण कई देशो ने किया वह बड़ी बात है। क्षेत्रीय स्तर पर भारत को बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता मिली , इसमे कोई दो राय नहीं।
यह भी सच है कि श्री मोदी के सम्मुख प्रमुख क्षेत्रीय चुनौतियों हैं, भारत के आसपास के प्रतिशोधी वा क़ानून का मजाक बनाने वाले राज्य जिन्हें असफलता का घेरा भी कहा जा सकता है । भूगोल के इस अत्याचार के कारण भारत को अपनी कूटनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और अधिक गतिशील और नवीन दृष्टिकोण विकसित करना होगा । भारत को प्रभाव बढाने के लिए सक्रिय रूप से क्षेत्रीय स्तर पर खुद को शामिल करना होगा, जोकि मोदी  करने के प्रयत्न में हैं । दरअसल, उनकी प्राथमिकता तब ही स्पष्ट हो गई थी जब उन्होंने अपने शपथग्रहण में क्षेत्रीय नेताओं को आमंत्रित किया था – भारत अपने पिछवाड़े खोई जमीन को पुन: प्राप्त करना चाहता है ।
अंतर क्षेत्रीय सहयोग बढाने के मुद्दे पर काठमांडू में जिस प्रकार पाकिस्तान द्वारा लगातार वाधायें डालने की कोशिशें सामने आईं, उनसे सार्क के छोटे क़द का संगठन रहने की ही संभावना है। भारत को अपने पड़ोसियों के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंधों का निर्माण करते समय “पूर्व की ओर दृष्टि” वाली नीति और मजबूत करनी होगी । उसके पास पूर्व की ओर देखने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं है, क्योंकि जब भारत पश्चिम की ओर देखता है तो केवल मुसीबत ही दिखाई देती है । सीरिया से पाकिस्तान तक भारत का सम्पूर्ण पश्चिमी क्षेत्र अस्थिरता और अतिवाद का घेरा है। इसके विपरीत आर्थिक गतिशीलता पूर्व क्षेत्र की विशेषता है जिसमें भारत शामिल हो सकता है ।
वस्तुतः श्री मोदी ने जब अपना पदभार गृहण किया, उन्हें विदेश नीति का कोई अनुभव नहीं था, किन्तु उन्होंने विश्व के नेताओं के साथ वार्ता में नई दिशा अपनाने, भारत की खोई हुई सामरिक शक्ति को पुनः प्राप्त करने तथा क्षेत्रीय विरोधियों की भड़काऊ गतिविधियों का जबाब देने में प्रभावी राजनयिक कौशल का प्रदर्शन किया है । अपने सक्रिय दृष्टिकोण और तत्परता से श्री मोदी ने पारंपरिक तरीकों और प्रतीकों को तोड़कर भारत की विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है। मोदी की विदेश नीति में दुनिया में अपनी सही जगह का दावा करने का अधिक आत्मविश्वास है, साथ ही सुरक्षित देश के रूप में भारत को नए सिरे से तैयार करने की उनकी प्रतिबद्धता प्रकट होती है। 

भारत की विदेश नीति संरचना
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किसी भी विदेश नीति के उद्देश्य या एक सरकार की बाहरी गतिविधि – के लिए अपने अवसरों को अधिकतम और अपनी सीमाओं के बाहर से होने वाले जोखिम को कम करके लोगों के कल्याण और प्रगति को बढ़ावा देने के सरकार के घरेलू एजेंडे की सहायता करना है। प्रकट रूप से, लोगों के कल्याण का अनुसरण करने के लिए उन्हें जो जीवन शैली प्रिय है वे उसी पर आधारित है। हमारे मूल्य और जीवन शैली हमारी प्राचीन सभ्यता में निहित हैं जो हमारे अद्वितीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान जमा की गई है ; इस विरासत को व्यापक रूप से भारत की सफलता के लिए आज एक कारण के रूप में स्वीकार किया है। लोकतंत्र के हमारे मूल्य, अभिव्यक्ति का स्‍वतंत्रता और विश्वास, सांस्कृतिक सारसंग्रहवाद, सामाजिक समावेश और अवसर की समानता हमारी राजनीति में एक मजबूत जीवंतता और संस्थागत लचीलेपन की ओर अग्रसर करती है। भारत के विकास मॉडल ने, अपने घरेलू वैधता के लिए बाहरी समर्थन की मांग नेतृत्व के बिना, सफलतापूर्वक काम किया है, दूसरी ओर एक सौम्य विदेशी छवि प्रस्‍तुत करने में सक्षम हुआ है जिसके साथ सभी प्रमुख देश संबंधों को विकसित करने के लिए सहज महसूस करते हैं।
हमारे राष्ट्रीय जीवन की इन विशेषताओं ने आजादी के बाद, 1947 से ही हमारी विदेश नीति को मजबूत किया है। विदेशी मामलों में कार्य की स्वतंत्रता ने, इसके व्यापक औद्योगिक आधार और बुनियादी ढांचे के निर्माण के द्वारा औपनिवेशिक युग की तकनीकी और औद्योगिक पिछड़ेपन से उबरने में भारत की मदद की है, हरित क्रांति के माध्यम से खाद्यान्न के अतिरिक्त उत्पादन हासिल करने में मदद की है,हमारे सामाजिक संकेतकों में, तकनीकी और ज्ञान के आधार और देशव्यापी आर्थिक एकीकरण के उच्च स्तर में काफी सुधार किया है ; सबसे महत्वपूर्ण बात – हमारे सार्वजनिक बहस में एक बिंदु जिसे आज पर्याप्त रूप से मान्यता प्राप्त नहीं है – सफल विकास मॉडल के जमीनी स्तर पर ‘सशक्तिकरण पर जोर देने के साथ, भारत को विश्व बैंक की गिनी सूचकांक से मापे अनुसार कम से कम सामाजिक-आर्थिक रूप से असमान समाजों के बीच और दोनों विकासशील देश जैसेकि अमेरिका और चीन के साथ अनुकूल तुलना में रखा है।

शीत युद्ध के बाद चुनौतियां

सबसे गंभीर बात, 1991 में सोवियत संघ के विघटन और दुनिया में एकमात्र महाशक्ति के रूप में अमेरिका के उद्भव की वजह से इस विदेश नीति का निर्माण, बड़ी शक्तियों द्वारा इसके घरेलू मामलों में अत्यधिक हस्तक्षेप न कर भारत को दूर रख हमारे लचीले राज्य संस्थाओं और अर्थव्यवस्था में योगदान दिया है और आईटी क्रांति के अनुरूप भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक भूकंप का सामना करने में देश की मदद की है। इसने अमेरिका द्वारा निर्धारित स्‍वर और विषयवस्‍त के अनुसार वैश्वीकरण के प्रारंभ में सृजित अवसरों का लाभ लेने में सहायता की है। इसने हमारे इतिहास में उस मोड़ बिंदु पर जब केंद्र में अल्पकालिक सरकारों की अनिश्चितताओं के कारण, एक खाली खजाना और एक दोस्त और सोवियत संघ में हथियारों का एक स्रोत के गायब होने, सोवियत संघ के अफगानिस्तान से वापसी और जम्मू-कश्मीर में उग्रवादी नेतृत्व वाली गड़बड़ी की कील के बाद पाकिस्तान के विजयवाद के बादर भारत को अपनी कठिनाइयों और चिंताओं पर काबू पाने में मदद भी की है ।

देश आज कहां खड़ा है? दुनिया, वैश्वीकरण के युग में, प्रौद्योगिकी के कारण , आर्थिक संबंधों, देशों से बड़ी संख्या में और देशों द्वारा बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही , उनके किनारे पर संसाधनों और आर्थिक अवसरों का दोहन करने के लिए निर्धारित प्रयासों के साथ एक दूसरे के साथ गहराई से जुड़े हैं । उसके बड़े और काफी परिष्कृत अर्थव्यवस्था, बड़े और युवा कर्मचारियों की संख्या, तकनीकी शिक्षा के उच्च स्तर, चौड़े भौगोलिक पहुंच के साथ मजबूत रक्षा बलों, और, कम महत्वपूर्ण नहीं, सांस्कृतिक सारसंग्रहवाद की अपनी स्थायी परंपरा – ज़ाहिर है, बिना अंग्रेजी भाषा पर कमांड की भूल जैसी परिस्थितियों की वजह से भारत को सामाजिक-आर्थिक प्रगति के अपने राष्ट्रीय उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए अवसर प्रदान करते हैं। ये सभी कारक उन विविध देशों के लिए जो विरोधाभासी हितों का अनुसरण कर रहें हैं, भारत को एक आकर्षक आर्थिक और राजनीतिक पार्टनर बनाते हैं। भारत की सैन्य पहुंच, उसके भविष्य क्षमता के साथ, मदद करता है – और अपने हित के क्षेत्रों में शक्ति संतुलन प्रभावित करने के लिए आगे भी मदद कर सकता है। उपरोक्त कारणों के लिए, एक शक्ति या अन्य के साथ संबंध निर्माण के विकल्पों में भारत के लचीलेपन के कारण वैश्विक मामलों में उसकी साख आज महत्वपूर्ण विदेश नीति और कूटनीतिक लाभ उठाने की है। यही कारण है कि अपने पहले संबोधन में हाल ही प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय राजदूत को सलाह दी है कि भविष्य में भारत की भूमिका, एक एक संतुलन शक्ति के बजाय एक प्रमुख शक्ति के रूप में हो।

भूमंडलीकरण की चुनौतियां

जैसेकि वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं और बलों का लाभ लेने के लिए भारत के पास संस्थागत चपलता है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मौजूदा परिस्थितियां पूर्ववर्ती अवधि की तुलना में और अधिक जटिल हैं। और यह अहसास संस्थागत क्षमता निर्माण में व्यापक दिशा प्रयासों, राजनयिक सहित, की ओर ले जाना चाहिए चूंकि कई देशों को उनकी अक्षमता के कारण भयंकर नुकसान उठाना पड़ा है। इस भूमंडलीकरण अवधि को प्रक्रियाओं के मामले में और अंतरराष्ट्रीय संस्थागत क्षमता की अपर्याप्तता के मामले, दोनों में काफी अनिश्चितता और अनुनमेय के रूप में वर्गीकृत किया गया है । प्रौद्योगिकी ने व्यक्तियों सशक्त बनाया है – दोनों तरह से अच्छी तरह से निपटारे और रूग्‍न निपटारे – की तुलना में राज्‍य जिसने सूचना के आधार पर और विनाशकारी शक्ति पर अपने एकाधिकार को खो दिया है। राष्ट्रीय सीमाओं के पार वैश्विक व्यापार और उत्पादन-लिंकेज में भारी उछाल ने, अपर्याप्त बहुपक्षीय संस्थागत क्षमता के कारण विनियमन के कठिन होने ने वैश्विक आर्थिक संकट को लगातार और अप्रत्याशित बना दिया है जिसमें कोई भी देश अछूता नहीं रहा- क्षमता की इस कमी ने गहराई से सभी देशों को ही प्रभावित नहीं किया है बल्कि अमेरिका के प्रभाव और चीन की त्वरित वृद्धि में कमी के रूप में वैश्विक शक्ति संतुलन को भी कम किया है।
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विफल रही / असफल रहने वाले राज्यों की घटना, वर्तमान वैश्वीकरण के युग में हालांकि अनोखी नहीं है और अधिक व्यापक रूप से विश्‍व के अलग-अलग हिस्सों में इन दिनों आज हमारे अपने सहित दुनिया देखी है। आंशिक रूप से 1991 में महाशक्तियों में घरेलू भागीदारी के अंत की वजह से, राज्य की विफलता की प्रक्रिया प्रौद्योगिकी, अतिवादी विचारधाराओं और आतंकवाद में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के समूह के उद्भव के कारण और गंभीर हो गयी है ; इस सामाजिक विघटन के वातावरण ने प्रदेशों के नाममात्र नियंत्रण में राज्‍यों के खिलाफ “अनियमित” या “शहरी” युद्ध के चरण के लिए प्रेरित किया। विफल राज्यों ने, बहुपक्षीय वैश्विक संस्थानों की अपर्याप्त क्षमता के साथ संयोजन में, विद्यमान और नये बहुसंख्यक सुरक्षा खतरों को गंभीर बना दिया है। इन अपर्याप्त राज्य क्षमताओं ने भोजन, पानी और ऊर्जा की उपलब्धता पर और उनके अंतर-रिश्तों की जटिलता पर नकारात्मक रूप से प्रभाव डाला है। वैश्विक कनेक्टिविटी और प्रौद्योगिकी के कारण, अतीत में क्‍या अप्रासंगिक होगा, वैश्विक चिंता का विषय बन गया है – जैसे सार्स या ईबोला के रूप में वैश्विक महामारी की तरह तेजी से प्रसार। इससे भी अधिक गंभीर भयावह जलवायु परिवर्तन, जिससे एक अस्तित्व खतरे की संभावना है, लेकिन यहां तक कि वर्तमान में, इस तरह के चक्रवात और सूखे के रूप में गंभीर मौसम की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति, राज्यों की राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर निहितार्थ हैं।

भारत की मौजूदा चुनौतियां

जैसेकि वैश्विक रुझान की भविष्यवाणी करना मुश्किल है,शक्ति का वैश्विक संतुलन बदल रहा है। उभरते देश जैसेकि चीन और भारत महसूस करते हैं कि वैश्विक शासन संरचना पर्याप्त रूप से उनके हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते – और इन शासन संरचनाओं के मौजूदा प्रबंधक, संरचना के अंतर्गत इन बढ़ती शक्तियों के “सह विकल्प” के मुद्दे का सामना कर रहे हैं। शीत युद्ध के बाद की अवधि में, इसके विभिन्न चरणों के दौरान, कार्रवाई की अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे को लागू करने के लिए भारत का लक्ष्‍य महा शक्ति के दबाव का विरोध करना, राजनीतिक, सैन्य और अर्ध सैनिक विध्वंसक गतिविधियों की पूरी रेंज का मुकाबला, रक्षा तैयारियों को बनाए रखना और हमारी तकनीकी आत्मनिर्भरता की संभावनाओं की सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक विकास है।

1991 में अपनी आशंका के विपरीत भारत के अमेरिका संबंधों में काफी सुधार हुआ है क्‍योंकि एक स्थिर शक्ति के रूप में भारत को देखता है और उत्तरार्द्ध में चीन के खिलाफ जिसके साथ अपने संबंध काफी देर से खराब हैं लाभ उठाना चाहता है। पूर्व दिशा में शक्ति के संतुलन के स्थानांतरण से चीन को लाता है जिसके साथ भारत का एक जटिल रिश्ता है, चीजों के केंद्र में और वैश्विक भू-राजनीतिक भंवर के पास भारत को लाता है।
भारत का सुरक्षा वातावरण जटिल बना हुआ है उन कारकों के लिए नहीं जो अलग-अलग देशों के नियंत्रण में नहीं हैं। चीन और पाकिस्तान के साथ अस्थिर सीमा मुद्दे दैनिक आधार पर तनाव में रहते हैं। अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय सैनिकों की वापसी के बाद अनिश्चितता का सामना है। नेपाल भी राजनीतिक रूप से अस्थिर बना हुआ है और मालदीव में अशांति बढ़ रही है। श्रीलंका ने एक निर्णायक राष्ट्रपति पद के चुनाव में और एक दोस्ताना राष्ट्रपति के साथ जीत हासिल की है लेकिन तमिल मुद्दा अभी भी अस्थिर है। बांग्लादेश लगभग एक सतत आधार पर एक आंतरिक राजनीतिक टकराव में बंद है। 


बहुपक्षीय स्तर पर, भारत ने वैश्विक संस्थानों के सुधार के लिए अभियान चलाया है जैसेकि संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के रूप में और सक्रिय रूप से इस तरह के जैसेकि सार्क, इब्सा, ब्रिक्स, जी 20 के रूप में बहुपक्षीय और क्षेत्रीय संगठनों में लगा हुआ है। इसकी मौजूदा बहुपक्षीय चुनौतियों में, जैसे कि डब्‍लयुएमडी प्रसार, अंतरिक्ष, साइबर, समुद्री, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक व्यापार व्यवस्था, आईपीआर वगैरह मुद्दे शामिल हैं। भारत के समक्ष विदेश नीति की चुनौतियों की जटिलता जैसेकि दुनिया भर में है चुनौतियों के समग्र प्रतिबिंब के फैलाव के रूप में है। जबकि भारत एक पूर्ण युद्ध की संभावना का सामना नहीं कर रहा है, अपने दो पड़ोसियों जिनके साथ एक जटिल रिश्ता है, जिनमें से एक परमाणु हथियारों से लैस अर्थात् पाकिस्तान जो राजकीय नीति के साधन के रूप में सीमा पार से आतंकवाद का अनुसरण कर रहे हैं ; ‘’मूविंग पार्टस’’ की एक बहुत की सरासर जटिलता जो वैश्विक स्थिति को चला रही है, जल्दी से नियंत्रण से बाहर होने वाली चीजें भारत के लिए काली छाया का सृजन कर सकती है।

विदेश नीति के लिए अनिवायर्ता

क्षमता निर्माण के हिस्से के रूप में, भारत को दोनों ‘पारंपरिक’ और ‘गैर-पारंपरिक’ सुरक्षा चुनौतियों को पूरा करने की जरूरत है। ‘पारंपरिक’ सुरक्षा चुनौतियों को कठिन शक्ति, विशेष रूप से सैन्य आधार पर भारत के विदेशी संबंधों के प्रबंधन और बाहर से देश के भीतर आतंकवाद के आयोजन प्रबंध की आवश्यकता है।
‘गैर-पारंपरिक’ सुरक्षा चुनौतियां, राजनीतिक अस्थिरता और पड़ोस के देशों में विखंडन, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आर्थिक झटके, पार राष्ट्रीय अपराध, राज्य प्राधिकरण की प्रौद्योगिकी उन्नत सहित सामाजिक मीडिया के माध्यम से द्रोही व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों द्वारा उत्‍पन्‍न होती हैं । इन ‘गैर पारंपरिक’ द्वारा उत्पन्न विदेश नीति चुनौतियों को – एक अलग तरह के कूटनीतिक प्रयास और क्षमता के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकता होती है जो एक गैर विरोधात्मक दृष्टिकोण से भी अमित्र सरकारों पर आधारित है; एक उदाहरण तीव्र पानी तनाव स्थिति में आपदा राहत और पुनर्वास या सीमा पार नदी बेसिन प्रबंधन की दिशा में आम दृष्टिकोण है। इन विभिन्न तरह की चुनौतियों को पूरा करने के लिए संस्थागत क्षमता अलग और विरोधाभासी भी हैं और दोनों को समायोजित करने के लिए अनायास चपलता की आवश्यकता होती है। क्षमता निर्माण में लागत में कटौती मुद्दों पर कमांड की आवश्यकता है क्‍योंकि ये परिदृश्य के निर्माण के निरंतर अभ्यास से उत्‍पन्‍न होते हैं। इन क्षेत्रों में, यह विशेषज्ञता जैसेकि आज के श्रोताओं में है अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है।

नई सरकार की विदेश नीति दृष्टिकोण
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प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में नई सरकार ने आर्थिक कूटनीति पर जोर दे कर अपनी प्राथमिकता को लागू करने के लिए ‘ मेक इन इंडिया ‘ के द्वारा इसे अच्छी तरह से किया है। यह अपनी पहली कूटनीतिक पहलों में से एक के रूप में, ध्वनि और व्यावहारिक सोच पर आधारित है, पड़ोसियों तक पहुंच गया है। यह प्रोजेक्‍ट पॉवर से विमुखता नही दर्शाता क्‍योंकि प्रधानमंत्री की हाल ही में ‘सागर यात्रा’ ने भारत के गहरे समुद्री हितों को रेखांकित किया है। प्रमुख वैश्विक शक्तियों के साथ, नए नेतृत्व द्वारा अपनाई व्यस्त राजनयिक व्‍यवस्‍था, इस सोच की पुष्टि करता है कि वैश्वीकरण के इस युग में, भारत का राष्ट्रीय हित केवल अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और प्रभाव को बढ़ाने से हो सकता है। इन पहलों को बनाए रखना आसान नहीं हैं फिर भी, भारत की तुलना में देशों को अपने स्वयं के एजेंडा को आगे बढ़ाना एक दूसरे के साथ कड़ी प्रतिद्वंद्विता हैं। भारत के नेतृत्व को इस प्रकार, अपने वार्ताकारों की आँखों में एक ही समय में अपनी साख को बनाए रखने के लिए संस्थागत दक्षता और कूटनीतिक समझ रखने वालों से गठबंधन करना होगा। 
 हमारे देश के हर शस्‍त्र, जो भारत के पास हैं के कुल योग की तुलना में, उन देशों के पास, जिनसे हम बातचीत करते है विशेष रूप से नजदीकी पड़ोस के देश, भारत की विदेश नीति है। इंटरनेट के माध्यम से संचार में क्रांति हो या सामाजिक मीडिया से ,बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए और भारत की विदेश नीति तैयार करने और कार्यान्वयन में गंभीर परिणाम है। परिणामों को प्रभावित करने के लिए कई निर्धारक हैं। व्यापक अर्थों में विदेश नीति प्रतिष्ठान और सिविल सोसायटी के बीच घनिष्ठ साझेदारी, व्यापार और उद्योग के साथ, मीडिया और दूसरों के बीच प्रवासी भारतीय समुदायों की वृदि उतना ही महत्वपूर्ण है। विश्‍व को डील करना जो आज दिन से बदल रहा है, जो विभिन्न क्षेत्रों में विदेशों में भारत के हितों को बढ़ावा देने के कई हितधारक रहे हैं एक दुनिया से निपटने के लिए महत्वपूर्ण है। 

दक्षिण एशिया

दुनिया भर में जब देखो हम एक पैटर्न देख सकते हैं कि सफल देशों के आर्थिक संबंध आम तौर पर अपने पड़ोसियों के साथ महत्वपूर्ण है। यह उनके द्विपक्षीय संबंधों के कारण भी है। यह यूरोप में सबसे अधिक देशों का सच है। उत्तरी अमेरिका में कनाडा और मैक्सिको दोनों अमेरिका के सबसे बड़े आर्थिक सहयोगी है और इसके विपरीत भी हैं । अमेरिका को छोड़कर चीन का सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार ठीक इसके विपरीत अपने पड़ोस में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और हांगकांग हैं। चीन और अमेरिका के बीच आर्थिक संबंध प्रदर्शित करता है कि देशों के मतभेदों के बावजूद ये कारोबार करना जारी रख सकते हैं ।

दक्षिण एशिया के हमारे नजदीकी पड़ोस में, इस क्षेत्र में रहने वाले एक आधा अरब से अधिक रह रहे लोगों के लिए शांति और समृद्धि लाने के बारे में क्षेत्रीय एकीकरण को प्रोत्साहित करने के इस विजन से संचालित है। इस दूरदृष्टि के भाग के रूप में, हमारे पड़ोसियों के लिए अधिक से अधिक बाजार पहुंच प्रदान करने में, जो एकीकरण सक्षम बनाता है,भारत द्वारा एक पारस्परिक रूप से लाभप्रद ढंग से,असममीति व्‍यवस्‍था की नीति को लागू किया गया है ।इस विषमताको बस जारी रखना होगा क्‍योंकि भारत की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण की भारत की दूरदर्शिता माल और सेवाओं, निवेश प्रवाह और बढ़ा क्षेत्रीय परिवहन और संचार संपर्क में बढ़े अंतर-क्षेत्रीय- व्यापार पर आधारित है। क्षमता निर्माण के लिए और एक दक्षिण एशियाई पहचान की भावना बढ़ाने के लिए सहयोग किया जा रहा है। सार्क इस प्रक्रिया में एक वाहन है। दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया के लिए चुनौतियों के महत्व को समझा जाना है । ये चुनौतियां इतिहास में निहित हैं, लेकिन हमें दृढ़ रहना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार के शपथ ग्रहण में दक्षिण एशियाई नेताओं की उपस्थिति द्वारा चिह्नित एक नई शुरुआत का साक्ष्‍य हमारे लिए खुशी की बात थी।

हमने इस उद्देश्य के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच ‘विश्वास की कमी’ को कम करने और शांति से सभी बकाया मुद्दों को हल करने के साथ ही लोगों से लोगों के बीच संपर्क और सांस्कृतिक आदान प्रदान को बढ़ावा देने की दिशा में और व्‍यवस्‍था को रचनात्मक ढंग से आगे ले जाने के लिए परिणामोन्‍मुखी प्रयास किए है। हमने नकारात्मक सूची में सकारात्मक से आगे बढ़ कर भारत के साथ व्यापार संबंधों को सामान्य, और एनडीएमए (गैर भेदभावपूर्ण बाजार पहुंच) शुरू करने के माध्यम से अपने अंतिम उन्मूलन के लिए पाकिस्तान के प्रयासों का स्वागत किया है। हालांकि, हमें ये भी ध्यान में रखना चाहिए कि तीन से अधिक दशकों के लिए उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी भागों ने ज्यादा अशांति को देखा है और इस विरोध ने भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। हमें जरूरत है वहाँ जड़ेों में हिंसक अतिवाद की इस बीमारी को हराने की । हालांकि, इस दिशा में प्रगति के लिए, पाकिस्तान का क्षेत्र और उसके नियंत्रण के अधीन आने वाले क्षेत्रों को अपने पड़ोसियों के खिलाफ निर्देशित आतंकवाद को सहायता देने और उकसाने के लिए उपयोग नहीं करना जरूरी है । यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है पाकिस्तान से अपनी जीविका चलाने वाले आतंकवादी तंत्र को बंद किया जाये ।

जैसे कि अफगानिस्तान, एक ऐतिहासिक, राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक परिवर्तन के लिए तैयार है, भारत उनके युद्ध से तबाह अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए अफगानिस्तान के लोगों के प्रयासों का समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध है और एक स्थिर, एकजुट और समृद्ध अफगानिस्तान के निर्माण के दक्षिण एशियाई क्षेत्र के साथ एकीकृत है। हमारे विदेश मंत्री की हाल की बंगलादेश की यात्रा में बिजली क्षेत्र, जल संसाधन प्रबंधन, भैतिक कनेक्‍टीविटी, पर्यावरण और सतत विकास के साथ ही सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर द्विपक्षीय और उप क्षेत्रीय सहयोग में सतत सुधार को रेखांकित किया है ।

प्रधानमंत्री की पहली विदेश यात्रा भूटान में , हमारे दोनो देशों के विशेष संबंधों और हमारे सामरिक हितों की धारणा में समानता के बीच अनोखी गर्मजोशी के संबंधों को रेखांकित करती है । भारत भूटान का सबसे बड़ा व्यापार और विकास का साथी है और भूटान द्वारा अपेक्षित आवश्यक वस्तुओं के अधिकांश की आपूर्ति का स्रोत है । भूटान में जल विद्युत का विकास हमारे द्विपक्षीय सहयोग और जीत साझेदारी का केंद्र बिंदु है। इस तरह का जल विद्युत सहयोग हमारे अन्य हिमालयी पड़ोसी को भी बढ़ाया जा सकता है बशर्ते नेपाल इसके लिए तैयार हो। भारत नेपाल के एक प्रमुख व्यापारिक भागीदार है। नेपाल के विदेश व्यापार का लगभग 60% भारत के साथ है और इसके प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 50% भारत से आता है। नेपाल में पर्यटकों में लगभग 40% भारत से आते हैं और भारत में 5 लाख से अधिक नेपाली लोगों का भारत में रोजगार है । हमारा विकास में सहयोग एक व्यापक कैनवास को कवर करता है ।
पिछले दशक में तेजी से बढ़ते हुये एक मजबूत व्यापार और निवेश संबंध का आज भारत और श्रीलंका द्विपक्षीय व्यापार के साथ लगभग 5 बिलियन अमरीकी डालर के वर्तमान स्तर के साथ आनंदित है । भारत श्रीलंका के सबसे बड़े प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भागीदार और पर्यटन के सबसे बड़े स्रोत के रूप में उभरा है। मई 2009 में सशस्त्र संघर्ष के समापन के बाद, भारत ने जितना ज्यादा हो सका उन्‍हें सामान्य जीवन में लौटने की मदद करने के उद्देश्य से, पुनर्निर्माण और आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए कार्यक्रम में श्रीलंका के साथ भागीदारी की है।
म्यांमार ही केवल एक आसियान (दक्षिण उत्‍तर पूर्व एशियाई देशों के संगठन) देश है जिसके साथ हमने एक भूमि सीमा साझा की है । हम जब “पूर्व की ओर देखो नीति ‘की बात करते हैं हम पहले म्‍यांमार को देखते है जो हमारी उत्‍तर पूर्वी सीमाओं पर शांति और स्थिरता, दक्षिण पूर्व एशिया के साथ सीधे सड़क संपर्क दोनों के लिए महत्‍वपूर्ण है ।म्‍यांमार और चीन जिसका पंचशील के प्रक्षेपण में भारत भागीदारी के साथ हाल ही में आयोजित बीजिंग में 60 वीं वर्षगांठ में हमारे उप राष्ट्रपति और चीन और म्यांमार के राष्ट्रपतियों की उपस्थिति में एक समारोह में से चिह्नित की गयी ।

चीन, एक नजदीकी और हमारा सबसे बड़े पड़ोसी के रूप में, जिसके साथ भारत की विदेश नीति में हम एक सामरिक और सहकारी साझेदारी स्थापित करना चाहते हैं। 2.5 अरब भारतीय और चीनी लोगों की समृद्धि और प्रगति एशियाई पुनरुत्थान और वैश्विक समृद्धि और स्थिरता का एक प्रमुख चालक होगा। . चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार के रूप में उभरा है, और चीन के साथ हमारे संबंधों अब बहुआयामी है। स्वाभाविक रूप से, जैसा किसी भी दो बड़े देशों के बीच होता है, अभिसरण के क्षेत्र में अच्छी तरह से और सीमा के प्रश्‍न पर हमारे देशों के बीच विचलन के क्षेत्र हैं । हम इस तरह के मतभेदों को कम करने और उन्हें पूरा करने और हमारी सीमाओं पर शांति और सौहार्द बनाए रखने के उद्देश्य के साथ चीन के साथ संवाद बनाए रखते हैं ।

पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया

हमारे महाद्वीप में पिछले दो दशकों में, तीव्र आर्थिक वृद्वि के कारण, एशियन पुन: एकीकरण की प्रक्रिया और गुरुत्वाकर्षण के वैश्विक केंद्र को एशिया को शिफ्ट करना, बडा विकास हुआ है । जापान में वृद्धि और कोरिया, ताइवान, सिंगापुर, मलेशिया, और अब चीन के उदय की टाईगर अर्थव्यवस्थाओं में, भारत और इंडोनेशिया ने इस प्रक्रिया को मजबूत किया है।

‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ बाहर तक पहुँचने और पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ अपनी सभ्यता संपर्कों को पुनर्जीवित करने के साथ ही आर्थिक गतिशीलता में भाग लेने की भारत की प्रक्रिया को सूचित करती है। 1990 के दशक के प्रारंभ यह आर्थिक सुधार एजेंडे के लिए प्राकृतिक परिणाम था जिसका शुभारंभ वैश्वीकरण की दिशा में हमारे प्रयासों के साथ 1991 में हुआ । आसियान के देशों के साथ घनिष्ठ संबंध “पूर्व की ओर देखो नीति ‘के मूल में थे जिन्‍होंने क्षेत्र की उभरती आर्थिक और राजनीतिक वास्तुकला तैयार करने में केन्द्रीयता दी । आसियान भारत भागीदारी ने अपने आसपास 1.9 अरब लोगों के एक में लगभग खरब 3.7 अमेरिकी डॉलर से अधिक के सकल घरेलू उत्पाद किया । भारत आसियान के साथ दो तरह से व्यापार करते हुये अमेरिका $ 80000000000 से अधिक, माल में एक मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) है । व्यापक रूप से एशिया प्रशांत क्षेत्र में, भारत ने जापान, कोरिया, चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ घनिष्ठ आर्थिक साझेदारी विकसित की है। ये वे देश हैं जिनके साथ हम भी आसियान केंद्रित क्षेत्रीय राजनीतिक संरचनाओं के तत्वावधान में सहयोग देते हैं । हम एक क्षेत्र में व्यापक मुक्त आर्थिक अंतरिक्ष बातचीत में इस क्षेत्र के देशों में शामिल हो गए जिसे एशियाई क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) रूप में जाना जाएगा। जबकि हमारी पूर्व की ओर देखो नीति एक मजबूत आर्थिक बल और सहमति के साथ शुरू हुई है, इस क्षेत्र में सामरिक और सुरक्षा व्‍यवस्‍था विस्तार किया गया है। एक ‘एशियाई फेडरेशन’ के विचार ने गहराई से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जीवित किया है ।. एक नव मुक्त एशिया में राजनीतिक एकजुटता और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए स्वतंत्र भारत ने, संभवतः कुछ हद तक अपने समय से आगे, पहली कूटनीतिक पहल की थी। छह दशकों से अधिक समय के बाद, इनमें से विचार एक वास्तविकता बन गए हैं। हम एक क्षेत्रीय संरचना का निर्माण करने के लिए काम कर रहे हैं जो सहयोग को बढ़ावा देता है, अभिसरण द्ढीकरण, संघर्ष के जोखिम और और टकराव को कम करता है, उसी प्रकार जैसे दक्षिण और पूर्वी चीन के समुद्र से संबद्व है । एक स्थिर और सुरक्षित एशिया, हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र भारत की अपनी सुरक्षा के लिए और 21 वीं सदी में समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं।

पश्चिम एशिया
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उत्तर पश्चिमी इराक के माध्यम से आईएसआईएस के तूफानी हमलों और इराक के इस भाग में भारतीयों की स्थिति पर प्रतिदिन हमारे मीडिया द्वारा प्रकाश डाला जा रहा है। इसने पश्चिम एशिया, ईरान और अरब दुनिया की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है। आज हमारा सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार, यूरोप, अमेरिका या चीन से भी बड़ा है, ने इस क्षेत्र में हमारे आर्थिक व्‍यवस्‍था को 200 अरब डॉलर प्रति वर्ष से अधिक के साथ साथ विशेष प्रमुखता हासिल कर ली है। 7 लाख प्रवासी भारतीयों द्वारा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में योगदान करने और लगभग 40 अरब डॉलर प्रति वर्ष का न मूल्यवान प्रेषण वापस भेजने, वहाँ रहते हैं।यह क्षेत्र हमारे तेल और गैस की भी आवश्यकताओं का 70% का स्रोत है। अपनी प्रभुसत्‍ता बढ़ती बढ़ती धन निधि के साथ यह भी एक बड़ा निवेश भागीदार बन सकता है। यह हमेशा हमारी अर्थव्यवस्था और हमारी सुरक्षा के लिए बहुत महत्व के साथ, हमारे पड़ोस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना रहेगा।
पश्चिम एशिया के भविष्य के लिए चिंता का एक कारण है। सीरिया में तेजी से बढते घातक संघर्ष और अब इराक के अपने लोगों के लिए एक त्रासदी ही नहीं है, बल्कि इस क्षेत्र में और परे स्थिरता और सुरक्षा के लिए खतरा है। यह अपने लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा करता है जो व्यापक पश्चिम एशिया क्षेत्र को प्रभावित करता अस्वस्थता का प्रतीक है। विकसित दुनिया के साथ हमारे संबंधों में अनिवार्य है कि कैसे, पूंजी और बाजार, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र को अभिग्रहण करना है ।
वहाँ संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हितों के अभिसरण में वृद्वि हुई है और पिछले एक दशक में हमारे दो महान लोकतंत्रों के बीच एक वैश्विक रणनीतिक साझेदारी में तब्दील हो गयी है। अमेरिका में बड़ी संख्या में भारतीय समुदाय के इन लोगों ने बांडों को मजबूती दी है । अमेरिका प्रौद्योगिकी, निवेश, नवाचार और संसाधनों का एक महत्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है और हमारे माल और सेवाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्‍यों में से एक है। हमारे संबंधों में एक मजबूत और रक्षा संबंध और रक्षा व्यापार और सहयोग के विस्तार और बढ़ती खुफिया और आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ रहे हैं ।
भारत और यूरोपीय संघ के बीच सामरिक भागीदारी से भारत के विकास के एजेंडे में यूरोपीय संघ की भागीदारी से मजबूत हुआ है। जर्मनी, फ्रांस, यू के और यूरोप के अन्य देश महत्वपूर्ण व्यापार एवं निवेश साझेदार हैं और प्रौद्योगिकी और जाने-कैसे के स्रोत रहे हैं। व्यापक आधार वाले व्यापार को अंतिम रूप देने और निवेश समझौते के साथ हमारी भागीदारी आने वाले वर्षों में भी अधिक से अधिक वैश्विक महत्व ग्रहण करेगी।
रूस के साथ हमारी विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त सामरिक भागीदारी ने, रक्षा, ऊर्जा, उच्च प्रौद्योगिकी व्यापार, निवेश, अंतरिक्ष, विज्ञान और शिक्षा के रूप में बहुमुखी क्षेत्रों को कवर किया है। जैसे हम संयुक्त डिजाइन, विकास, और प्रमुख रक्षा प्लेटफार्मों के उत्पादन के एक चरण में कदम रख चुके हैं रूस भारत के लिए एक प्रमुख रक्षा भागीदार बना रहता है । विक्रमादित्य, हाल ही में भारतीय नौसेना में शामिल विमान वाहक और कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना हमारी सामरिक साझेदारी के उदाहरण हैं। महान संभव्‍यता के साथ हमारे आपसी निवेश और सहयोग जैसे तेल और गैस, ऊर्जा, औषधि, रसायन, उर्वरक, और खनन के क्षेत्रों में सहयोग दिया है।
विकासशील देशों में भारत ने ऐतिहासिक रूप से अफ्रीका के देशों के साथ घनिष्ठ संबंध बने है। दक्षिण-दक्षिण सहयोग की भावना में हमने अफ्रीकी देशों में क्षमता निर्माण के लिए काफी योगदान दिया है। भारत ने सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए रियायती वित्त प्रदान की है । भारत अफ्रीका व्यापार में एक दशक में वृद्धि हुई है और 2002 में 5 अरब डॉलर से बढ कर 2012 में एक अरब 70 अमेरिकी डॉलर और महाद्वीप कच्चे माल और ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है। महाद्वीप में शांति और सुरक्षा के लिए हमारी प्रतिबद्धता के लिए 6500 से अधिक भारतीय सैनिकों अफ्रीका के विभिन्न भागों में संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में भाग लिया है । लैटिन अमेरिकी देशों के साथ हमारे संबंध बहुआयामी हो गये हैं। पिछले एक दशक में हमारे व्यापार और इस क्षेत्र के साथ निवेश सहयोग कई गुना बढ़ गया है और आज $ 30 बिलियन से अधिक पर खड़ा है।
 भारत आज एक वैश्विक उपस्थिति के साथ का एक देश है। भारत प्रभावित करता है और दुनिया भर के देशों की एक विशाल संख्या के साथ अपने संबंधों से प्रभावित है। संचार और प्रौद्योगिकी विकास दुनिया को छोटा करने के लिए जारी है, वैश्विक समुदाय के अन्योन्याश्रय ही इसमें तेजी लांयेगे । एक यूनानी दार्शनिक ने एक बार कहा था ” परिवर्तन ही जीवन में केवल स्थिर है” और यह तेजी से हमारे भूमंडलीकृत दुनिया में सच है। बाहरी दुनिया के साथ हमारे संबंधों ने तेजी से विस्तार किया है। यह  उपलब्ध अवसरों का विस्तार होने के साथ नई चुनौतियों को भी सामने लाता है। विकल्पों और चुनावों में बहुत अधिक विविधता और जटिलता हो सकती है और व्‍यापक दुनिया लगातार आपकी चेतना और शुक्ति पर टकराहट देगी ।
यहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस उक्ति का उल्लेख आवश्यक लगता है जब एक इंटरव्यू में उनसे उनके विदेशी यात्राओ पर सवाल किया गया था। प्रधान मंत्री ने साफ़ साफ़ कहा था - मई किसी स्थापित राजनीतिक परिवार या खानदान से नहीं आता हूँ। मेरे बारे में अब तक दुनिया के लोग सिर्फ उतना ही जानते है जितना उनको मीडिया ने बताया है। अब जबकि भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उन सभी से मुझे परिचय करना है तो म्हणत तो करनी ही पड़ेगी। उन सभी को हमारे बारे में सत्य की जानकारी तब हो सकेगी जब मैं  निजी तौर पर उनके साथ बाथ कर विमर्श करूंगा और समझ सकूंगा। इसलिए हर राष्ट्राध्यक्ष से निजी मुलाकात करना मज़बूरी भी है। दरअसल भारत ने इस दौर में जिस तेज़ी के साथ दुनिया के बड़े देशो के साथ ही छोटे छोटे देशो से प्रगाढ़ता विक्सित की है वह इससे पहले इतिहास में तो कभी भी नहीं हुआ था। 

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