विधान सभा चुनाव: 2017
कहाँ है आधी आबादी और उसके मुद्दे
डॉ. अर्चना तिवारी
लेखिका शिक्षाविद है
9450887187
देश के पांच प्रदेशो में विधानसभा चुनाव के लिए रणभेरी बज चुकी है। इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है कि देश के सबसे बड़े सूबे यानी उत्तर प्रदेश के लिए भी सरकार चुनी जानी है। हर बार की तरह इस बार भी मुद्दों के बाज़ार में आधी आबादी खुद की तलाश कर रही है। जातीय जड़ता में जकड़ती जा रही भारतीय राजनीति के रंग से समाज का रंग भी बदलने लगा है। उतर प्रदेश में आसन्न चुनावो की गर्मी के साथ ही जातीय आंकड़ो के जादूगरों ने अपने अपने ढंग से राजनीतिक डालो के लिए आंकड़े भी जुटाने शुरू कर दिए है। सभी राजनीतिक डालो की ओर से जातीय आधार पर ताकतवर नेताओ को अपने खेमे की ओर लाने की कवायद भी चल रही है। हर दल को जातीय वोट की चिंता है लेकिन जाति की इस चुनावी वैतरणी में कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि हर जाती में महिलाये भी होती है। कोई राजनीतिक दाल यह भी समझने का प्रयास नहीं कर रहा कि उसके जाति की चौसर पर सम्बंधित समाज की , जाती की स्त्री की दशा क्या हो चुकी है या क्या होने वाली है। भारत में यह सामान्य प्रचलन मान लिया गया है कि पुरुष की जाति के आधार पर उस जाति की समस्त महिलाये भी वोट करती है। ख़ास तौर पर आरक्षण के बाद , यानी मंडल लागू होने के बाद से जिस तरह से लोक कलयाणकारी सरकार बनाने के लिए होने वाले चुनाव में जाति की लहार चलाई जा रही है उसके घातक असर को अभी तक हमारे जान नायक समझ ही नहीं पा रहे है। उनकी इस जातीय समझ वाली भूमिका के चलते समाज की क्या दशा हो गयी है , इस तरफ वह नज़र ही नहीं डालना चाहते। वोट बैंक सुरक्षित करने के चक्कर में उन्होंने समूची स्त्री जाति को ही असुरक्षित कर दिया है। हालात यह हो चुकी है की जो समाज पहले हर महिला को सुरक्षित रखने की कोशिश करता था , आज वह अब अपनी जाती के हिसाब से ही महिलाओ के साथ बर्ताव करता है। दर असल जाती की राजनीति ने कई स्तर पर असर डाला है। इसने समाज की एका को तो प्रभावित ही किया है , साथ ही हर जाती को दूसरी जाती के विपक्ष के रूप में भी अस्थापित कर दिया है। वास्तव में यह त्रासद और संकटपूर्ण दशा है।

यही हाल सभी का है। इसमे कोई भी कम नहीं है। कोई पार्टी यह सोचने को ही तैयार नहीं है की का कितना घातक असर समाज पर।, ख़ास तौर से महिलाओ पर रहा है। एक और उदाहरण यहाँ देना उचित लगता है। अभी हाल ही में बुलंद शहर की ह्रदय विदारक बलात्कार की घटना हुई। मुझे याद नहीं है की ऐसी लोमहर्षक कोई घटाना इससे पहले हुई हो। यह घटना इतनी भयावह थी जिसके सामने दिल्ली का बहुचर्चित निर्भया काण्ड भी हल्का ही था। सरे राह सड़क से एक लड़की और एक महिला को गुंडे बन्दूक की नोक पर गाडी से खींच लिए। लड़की के पिता और महिला के पति के सामने ही वहशीपने का नंगा नाच खेला गया। बेटी और पत्नी उनकी आँखों के सामने ही चिल्लाती रही। क्रूरता , वहशीपन और मानवीयता की साड़ी सीमाओ से भी ज्यादा उन गुंडों ने समाज और मर्यादा की हर सीमा को तोड़ा यकीन इतनी वीभत्स और घिनौनी घटना पर भी सामाजिक चेतना के अलामबरदारो के खुद के भीतर कोई चेतना जागते हमने नहीं देखा। बुलंदशहर इ वहशीपन का शिकार यह परिवार ऐसी जाती का नहीं था को अपना वोटबैंक मिलता। दो दिन की सुर्खियों के बाद यह रा प्रकरण शांत हो गया। एक दलित रोहित बेमुला पर नसद थाप करने वाली उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला मायावती जी के लिए बुलंदशहर की यह घटना इसलिए आयने नहीं रखती क्योकि पीड़ित महिलाये सवर्ण जाति की थी लेकिन दरिंदे दलित थे।
वास्तव में भारत की राजनीति आज ऐसे मुकाम पर कड़ी दिख रही है जहां वाल सत्ता ही सर्वोपरि है। किन हमारे नायक यह भूल जाते है की समाज का नाम जाती नहीं आई। थोड़े समय के लिए जातीय चेतना उभार कर आप सत्ता पा कटे है लेकिन सत्ता तो आपको समाज में ही चलानी है। नेता यह भूल जाते है की जिस भी जाती की राजनीति वे करना चाहते है उन सभी जातियो में आधी भागीदारी महिलाओ की भी है। जातियो को आरक्षण के नाम पर बाँट चुके नेताओ को यह भी सोचना होगा की दशको से लंबित महिला आरक्षण बिल को उन्होंने संसद में पास ई होने दिया है। महिलाओ के लिए तो जाती से अधिक उस महिला आरक्षण की जरूरत है। राजनीति के ये खिलाड़ी यह भूल जाते है की अब भारत की बेतिया भी समझदार हो चुकी है और उन्हें अपने ओ की चिंता होने लगी है। कल्पना कीजिये
की जातीय राजनीति के विरुद्ध यदि कोई एक महिला केवल महिला अधिकारों के लिए राजनीति शुरू करे और पुरुषो के विरुद्ध महिलाओ को संगठित कर आगे चले तब जो भयावह दृश्य बनेगा उससे कैसे पर पा सकेंगे। क्या अब हमारी राजनीति हमें महिला पुरुष संघर्ष के लिए प्रेरित करेगी।महिलाओ की समस्याओ को लेकर यद्यपि राजनीतिक डींगे बहुत हाँकि गयी। कुछ काम भी किये गए। लेकिन महिलाओ की बुनियादी जिन समस्याओ को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गंभीर दिख रहे है , उससे उम्मीद की चमकती किरण नज़र आ रही है। गरीब महिलाओ को चूल्हा फूक कर अपनी छाती न जलानी पड़े , प्रधान मंत्री ने इस दिशा भी सोचा। उज्ज्वला ,बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ, हर घर में शौचालय ,जननी सुरक्षा आदि योजनाओ को लेकर उनकी सक्रियता दिखती है लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़े में उस तरह की तीक्ष्णता नहीं नज़र आती जबकि यहाँ सत्ता की हकदार के रूप में प्रस्तुत करने वाली बसपा की मुखिया खुद भी महिला है। ताजुब तो यह होता है कि एक तरफ तो देश की सर्वोच्च अदालत यह फरमान देती है कि जाती या धर्म या मज़हब का जिक्र चुनाव में नहीं हो तथा इन सब के आधार पर वोट न मांगे जाय लेकिन दूसरी तरफ जब बसपा की मुखिया प्रत्याशियों का ऐलान करती है तो
कहाँ है आधी आबादी और उसके मुद्दे
डॉ. अर्चना तिवारी
लेखिका शिक्षाविद है
9450887187
देश के पांच प्रदेशो में विधानसभा चुनाव के लिए रणभेरी बज चुकी है। इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है कि देश के सबसे बड़े सूबे यानी उत्तर प्रदेश के लिए भी सरकार चुनी जानी है। हर बार की तरह इस बार भी मुद्दों के बाज़ार में आधी आबादी खुद की तलाश कर रही है। जातीय जड़ता में जकड़ती जा रही भारतीय राजनीति के रंग से समाज का रंग भी बदलने लगा है। उतर प्रदेश में आसन्न चुनावो की गर्मी के साथ ही जातीय आंकड़ो के जादूगरों ने अपने अपने ढंग से राजनीतिक डालो के लिए आंकड़े भी जुटाने शुरू कर दिए है। सभी राजनीतिक डालो की ओर से जातीय आधार पर ताकतवर नेताओ को अपने खेमे की ओर लाने की कवायद भी चल रही है। हर दल को जातीय वोट की चिंता है लेकिन जाति की इस चुनावी वैतरणी में कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि हर जाती में महिलाये भी होती है। कोई राजनीतिक दाल यह भी समझने का प्रयास नहीं कर रहा कि उसके जाति की चौसर पर सम्बंधित समाज की , जाती की स्त्री की दशा क्या हो चुकी है या क्या होने वाली है। भारत में यह सामान्य प्रचलन मान लिया गया है कि पुरुष की जाति के आधार पर उस जाति की समस्त महिलाये भी वोट करती है। ख़ास तौर पर आरक्षण के बाद , यानी मंडल लागू होने के बाद से जिस तरह से लोक कलयाणकारी सरकार बनाने के लिए होने वाले चुनाव में जाति की लहार चलाई जा रही है उसके घातक असर को अभी तक हमारे जान नायक समझ ही नहीं पा रहे है। उनकी इस जातीय समझ वाली भूमिका के चलते समाज की क्या दशा हो गयी है , इस तरफ वह नज़र ही नहीं डालना चाहते। वोट बैंक सुरक्षित करने के चक्कर में उन्होंने समूची स्त्री जाति को ही असुरक्षित कर दिया है। हालात यह हो चुकी है की जो समाज पहले हर महिला को सुरक्षित रखने की कोशिश करता था , आज वह अब अपनी जाती के हिसाब से ही महिलाओ के साथ बर्ताव करता है। दर असल जाती की राजनीति ने कई स्तर पर असर डाला है। इसने समाज की एका को तो प्रभावित ही किया है , साथ ही हर जाती को दूसरी जाती के विपक्ष के रूप में भी अस्थापित कर दिया है। वास्तव में यह त्रासद और संकटपूर्ण दशा है।
सामाजिक संस्थानों के अध्ययन भी इसी तरफ इशारा करते है। दरअसल भारतीय राजनीति की विडम्बना है है की केवल कुछ जातियो को वोट बैंक बना कर सत्ता के सिंहासन पर काबिज होने वाले राजनीतिक दल सत्ता के साथ उसी अंदाज़ में खेलते भी है। वोट के आधार पर कुछ जातियो की महिलाये उनके लिए विशेष बन जाती है और कुछ जाती की महिलाओ का कोई पूछनहार तक नहीं होता। स्कूल , कॉलेज , हाट , बाज़ार , दूकान , ,खेत खलिहान से लगायत विधान सभाओ और संसद के गलियारों तक में महिलाओ के साथ होने वाला बर्ताव बहुत सुखद नहीं दीखता। पता नहीं क्यों आजकल सभी राजनीतिक लोगो में सामाजिक चेतना की जगह जातीय चेतना ज्यादा प्रबल दिखने लगी है। अब नेताओ को उनके सामाजिक योगदान के आधार पर नहीं बल्कि उनकी जाती के आधार पर पार्टियों में महत्त्व दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दम्भ भरने वाली भाजपा को ही लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष बनाये गए केशव प्रसाद मौर्या खुद स्वीकार करते है की पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने से पहले उन्होंने कभी भी अपने नाम के आगे जाती सूचक टाइटल नहीं लगाया था। वह अपना नाम केवल केशव प्रसाद लिखा करते थे अब उनको केशव प्रसाद मौर्या लिखना पद रहा है। ऐसा सिर्फ इसलिए की समाज के सभी पिछड़े वर्ग उर ख़ास तौर पर मौर्या जाति तक यह सन्देश दिया जा सके की उनके जाति के आदमी को पार्टी ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया है।

यही हाल सभी का है। इसमे कोई भी कम नहीं है। कोई पार्टी यह सोचने को ही तैयार नहीं है की का कितना घातक असर समाज पर।, ख़ास तौर से महिलाओ पर रहा है। एक और उदाहरण यहाँ देना उचित लगता है। अभी हाल ही में बुलंद शहर की ह्रदय विदारक बलात्कार की घटना हुई। मुझे याद नहीं है की ऐसी लोमहर्षक कोई घटाना इससे पहले हुई हो। यह घटना इतनी भयावह थी जिसके सामने दिल्ली का बहुचर्चित निर्भया काण्ड भी हल्का ही था। सरे राह सड़क से एक लड़की और एक महिला को गुंडे बन्दूक की नोक पर गाडी से खींच लिए। लड़की के पिता और महिला के पति के सामने ही वहशीपने का नंगा नाच खेला गया। बेटी और पत्नी उनकी आँखों के सामने ही चिल्लाती रही। क्रूरता , वहशीपन और मानवीयता की साड़ी सीमाओ से भी ज्यादा उन गुंडों ने समाज और मर्यादा की हर सीमा को तोड़ा यकीन इतनी वीभत्स और घिनौनी घटना पर भी सामाजिक चेतना के अलामबरदारो के खुद के भीतर कोई चेतना जागते हमने नहीं देखा। बुलंदशहर इ वहशीपन का शिकार यह परिवार ऐसी जाती का नहीं था को अपना वोटबैंक मिलता। दो दिन की सुर्खियों के बाद यह रा प्रकरण शांत हो गया। एक दलित रोहित बेमुला पर नसद थाप करने वाली उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला मायावती जी के लिए बुलंदशहर की यह घटना इसलिए आयने नहीं रखती क्योकि पीड़ित महिलाये सवर्ण जाति की थी लेकिन दरिंदे दलित थे।
वास्तव में भारत की राजनीति आज ऐसे मुकाम पर कड़ी दिख रही है जहां वाल सत्ता ही सर्वोपरि है। किन हमारे नायक यह भूल जाते है की समाज का नाम जाती नहीं आई। थोड़े समय के लिए जातीय चेतना उभार कर आप सत्ता पा कटे है लेकिन सत्ता तो आपको समाज में ही चलानी है। नेता यह भूल जाते है की जिस भी जाती की राजनीति वे करना चाहते है उन सभी जातियो में आधी भागीदारी महिलाओ की भी है। जातियो को आरक्षण के नाम पर बाँट चुके नेताओ को यह भी सोचना होगा की दशको से लंबित महिला आरक्षण बिल को उन्होंने संसद में पास ई होने दिया है। महिलाओ के लिए तो जाती से अधिक उस महिला आरक्षण की जरूरत है। राजनीति के ये खिलाड़ी यह भूल जाते है की अब भारत की बेतिया भी समझदार हो चुकी है और उन्हें अपने ओ की चिंता होने लगी है। कल्पना कीजिये
की जातीय राजनीति के विरुद्ध यदि कोई एक महिला केवल महिला अधिकारों के लिए राजनीति शुरू करे और पुरुषो के विरुद्ध महिलाओ को संगठित कर आगे चले तब जो भयावह दृश्य बनेगा उससे कैसे पर पा सकेंगे। क्या अब हमारी राजनीति हमें महिला पुरुष संघर्ष के लिए प्रेरित करेगी।महिलाओ की समस्याओ को लेकर यद्यपि राजनीतिक डींगे बहुत हाँकि गयी। कुछ काम भी किये गए। लेकिन महिलाओ की बुनियादी जिन समस्याओ को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गंभीर दिख रहे है , उससे उम्मीद की चमकती किरण नज़र आ रही है। गरीब महिलाओ को चूल्हा फूक कर अपनी छाती न जलानी पड़े , प्रधान मंत्री ने इस दिशा भी सोचा। उज्ज्वला ,बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ, हर घर में शौचालय ,जननी सुरक्षा आदि योजनाओ को लेकर उनकी सक्रियता दिखती है लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़े में उस तरह की तीक्ष्णता नहीं नज़र आती जबकि यहाँ सत्ता की हकदार के रूप में प्रस्तुत करने वाली बसपा की मुखिया खुद भी महिला है। ताजुब तो यह होता है कि एक तरफ तो देश की सर्वोच्च अदालत यह फरमान देती है कि जाती या धर्म या मज़हब का जिक्र चुनाव में नहीं हो तथा इन सब के आधार पर वोट न मांगे जाय लेकिन दूसरी तरफ जब बसपा की मुखिया प्रत्याशियों का ऐलान करती है तो
वह प्रत्याशिता का आधार ही जाति या मज़हब को ही बता कर डंके की चोट पर मीडिया को भी संबोधित करती हैं।
यद्यपि यह चुनावी माहौल है लेकिन कोई भी ईमानदारी से आधी दुनिया के सवाल पर गंभीर नहीं दीखता और नहीं आधी आबादी की सहभागिता को ही स्वीकार किया जा रहा है। यह भी सच है कि आजादी के बाद महिलाओं को आगे बढ़ाने के सरकारी प्रयास हुए. जेंडर समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है. संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति प्रदान करता है. इन सब के साथ महिला सशक्तीकरण की राह में गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी नहीं नकारा जा सकता. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं के फैसले लेनेवाली भूमिका का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है. आधी आबादी होने के बावजूद राजनीति, न्यायपालिका, सिविल सेवा में उनकी स्थिति निराशाजनक है. देश की लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला बहुचर्चित विधेयक लोकसभा में 17 सालों से लटका हुआ है. हालांकि पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित संख्या 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गयी है. 16 वीं लोकसभा में 12 प्रतिशत महिला जनप्रतिनिधि चुनकर आई हैं, राज्य विधानसभाओं में नौ प्रतिशत महिलाएँ हैं जबकि विधान परिषदों में छह प्रतिशत महिलाएँ हैं. यह वैश्विक अनुपात की तुलना में काफी कम है. महिलाओं को संसद एवं विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व देने के संबंध में दुनिया के 190 देशों में भारत का 109 वां स्थान है.
सृष्टि के आरंभ से कुछ आधारभूत भिन्नताओं के बावजूद महिला और पुरुष दोनों का योगदान किसी भी मामले में एक-दूसरे से कम नहीं था. जीवन के हर पहलुओं में दोनों की भागीदार समान थी. सभ्यता के क्रमिक विकास और सामाजिक परिर्वत्तन के क्रम में पुरुषों ने श्रेष्ठता हासिल कर ली और महिलाएँ दोयम दर्जे की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हो गयीं. किसी भी राष्ट्र या प्रदेश की परम्परा और संस्कृति वहाँ की महिलाओं से परिलक्षित होती है. महिलाओं की स्थिति समाज में जितनी महत्वपूर्ण, सुदृढ़ व सम्मानजनक होती है, उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मजबूत होता है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं का स्थान और सम्मान अन्य देशों की संस्कृतियों की तुलना में कही अधिक है. भारतीय महिलाओं की स्थिति में जो उतार-चढाव आए वे उस युग के बदलते राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश के परिणाम हैं. वैदिक युग में महिलाओं की स्थिति बहुत सम्माननीय थी. स्त्री का स्थान ऊँचा और पवित्र था. जीवन के सभी क्षेत्रों में उसे महत्ता प्राप्त थी. सभी जगह वह पुरुषों की सहभागिनी थी. मध्यकाल में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी. समय का चक्र बढ़ता रहा और महिलाओं की स्थिति में ह्रास आता गया. स्त्री-पुरुष में निश्चित रूप से जैविक अंतर है लेकिन सच है की महिलाओं ने अपनी अकूत श्रम शक्ति से असाध्य को साध्य लिया है. वह कहीं भी किसी मामले में पुरुषों से कम नहीं है. समाज का सम्पूर्ण विकास तभी संभव है जब समाज के विकास रथ को महिला और पुरूष दोनों का समान बल प्राप्त होता है.
वर्त्तमान सामाजिक संदर्भ में महिलाओं की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है. भारतीय महिलाओें की तस्वीर कुछ बदली हुई नजर आती है. यह तस्वीर दबी-कुचली, सहमी हुई उस स्त्री से अलग है जो कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र की आश्रित थी. शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है. आज की महिलाओं ने सामाजिक बेड़ियों को उतार कर फेंक दिया है. इन्हें घर से बाहर निकल कर काम करने और परिवार के मामलों में बोलने की आजादी मिल गयी है. आज महिलाएं फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बातें शेयर कर रही हैं और घर- दफ्तर में बखूबी तालमेल स्थापित कर रहीं हैं. शिक्षा, राजनीति, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, खेल, उद्योग, कला, संगीत, मीडिया, समाज सेवा आदि क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर रही है. आधुनिक भारत की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है।
इस सुनहरी तस्वीर के पीछे कुछ स्याह हकीकत भी हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं की जमीनी हकीकत पर नजर डालना जरूरी है. आंकड़ें गवाह हैं कि महिला सशक्तीकरण की बयानबाजियों के बीच समाज, राजनीति और प्रशासन में महिलाएं कहाँ तक बढ़ पाई हैं. देश की आधी आबादी वास्तव में किन हालातों में रह रही हैं. महिलाओं की यह जागरुकता महानगर केंद्रित हैं या अति संपन्न, सुसंपन्न और सुशिक्षित परिवारों में परिलक्षित होता है. छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों की महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. जनजातीय इलाके की महिलाओं की स्थिति सामान्य महिलाओं की तुलना में काफी बदतर दिखाई देती है. महिलाएँ बुनियादी जरूरतों के सवाल से लेकर तमाम अन्य सुविधाओं तक खुद को उपेक्षित ही पाती हैं. कई गाँवों में महिलाओं के लिए न कोई जच्चा अस्पताल है और न ही कोई महिला विद्यालय. आठवीं-दसवीं पहुंचते-पहुंचते लड़कियां स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं. ऐसी सुविधाएँ हैं भी तो गाँव से खासी दूरी पर हैं पर वहाँ तक पहुँचने के लिए गाँव से कोई सड़क या साधन अभी तक नहीं बना है. मध्यमवर्गीय महिलाओं की स्थिति त्रिशंकु के समान है. वे आधुनिक सुसंपन्न महिलाओं का अनुकरण करना चाहती हैं मगर कर नहीं पातीं और पुरातन भारतीय नारी की तरह जीना नहीं चाहतीं. दफ्तर का काम, बच्चों और घर की देखभाल की वजह से बने दबाव के चलते इन महिलाओं की दिनचर्या बदल रही है और कई लंबी और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एसोचैम द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 32 से 58 वर्ष की 72 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ अवसाद, पीठ में दर्द, मधुमेह, हायपरटेंशन, उच्च कोलोस्ट्रोल, हृदय एवं किडनी की बीमारियों से ग्रस्त हैं.
महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध कम नहीं हो रहे. न बलात्कार की घटनाएं रुक रही हैं, न छेड़खानी की, न महिलाओं के साथ दूसरे तरीकों से होने वाली हिंसा की और न महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता की. घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भर में महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं. महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए तमाम तरह के कानून मौजूद हैं. फिर भी, उन पर हिंसा का सिलसिला नहीं थमा है. जहाँ एक ओर कानूनों में कई तरह की खामियां हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें सही तरीके और सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा है. नतीजतन, अपराधी न केवल साफ बच निकलते हैं, बल्कि उनके हौसले भी बढ़ जाते हैं. महिलाओ पर हुई हिंसा उनके स्वास्थ्य पर मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक प्रभाव डालती है. ये प्रभाव कई बार तात्कालीक होते हैं और कई बार दीर्घकालिक भी. बलात्कार महिला हिंसा का सबसे भयावह रूप है. बलात्कार पीड़ित महिला की मानसिक, आत्मिक और शारीरिक क्षति का अनुमान लगाना भी दुष्कर है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने विश्व रिपोर्ट 2013 का विमोचन करते हुए कहा कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा और लंबे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह बनाने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति गंभीर रूप लेते हुए बदतर हो गई है। दुःख तो तब होता है जब इतने के बाद भी हमारी राजनीतिक बिरादरी बहुत गंभीर नहीं दिखती।
पिछले एक दशक में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में भले ही सुधार हुआ हो मगर छह साल तक की बच्चियों और बच्चों की आबादी का बढ़ता फासला सरकार और समाज दोनों के लिए ही चिंता की बात है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरुष आबादी 933 से बढ़कर 940 हो गई है. लेकिन छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात 927 से घट कर 914 हो गया है, जो आजादी के बाद सबसे कम है. बच्चों के मामले में लिंगानुपात की दर घटना बालिका भ्रूण हत्या बढ़ने की तरफ इशारा करता है। कामगार महिलाएँ आज चौराहे पर खड़ी हैं. ज्यादतर महिलाएँ गैर संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं. असंगठित होने के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कई बार तो शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ रहा है. महिला कामगार सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, अवकाश, मातृत्व लाभ जैसी सुविधाओं से वंचित हैं. आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढने के बजाय घट रही है. नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अन्दर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में 90 लाख की कमी आयी है. वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग 20 वर्ष पहले सन् 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान 32 फीसदी था. उदारीकरण की राह पकडने के 20 वर्ष बाद सन् 2010-11 में यह संख्या घटकर 18 प्रतिशत रह गई. विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है.
राजनीति में महिला सशक्तीकरण महत्वपूर्ण विषय है। महिलाओं के अधिकार, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मान, समानता, समाज में स्थान की जब भी बात होती है, कुछ आंकड़ों को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाती है कि उसमें इतना सुधार आया है. महिलाओं के लिए समानता के बारे में बड़े बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है. जेंडर विषमता और महिला सशक्तीकरण के जो कानून बने उनसे सीमित महिलाओं को ही लाभ हो रहा है. अधिकांश महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता. अशिक्षा और गरीबी के कारण महिलाओं को उन कानूनों की जानकारी नहीं पा रही है जो उनके हित के लिए हैं। भूमंडलीकरण ने महिलाओं को तथाकथित रूप से पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है. महिलाओं को बाहर सिर्फ इसलिए नहीं निकलने दिया जा रहा है कि पुरुष वर्ग पहले से ज्यादा उदार हो गया है बल्कि इसलिए कि आर्थिक-सामाजिक विवशताओं ने इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं रहने दिया है. आर्थिक रूप से स्वाधीन महिलाएं सामाजिक रूप से अभी स्वाधीन नहीं हो पायी हैं. निश्चिय ही मंजिल अभी दूर है मगर सामाजिक रूप से स्वाधीन होने की तीव्रता को ऐसे मौकों पर महसूस किया जा सकता है. महिलाओं के पास कामयाबी के उच्चतम शिखरको छूने की अपार क्षमता है. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए और उनकी कठिन परिस्थितियों से उभरने के लिए प्रेरित करता है। चिंता तो तब और भी बढ़ जाती है जब इस लेख को लिखने के दौरान ही उत्तर प्रदेश में महिलाओ पर जुल्म और बलात्कार की घटनाओ के साथ ही जयपुर में दिल्ली के निर्भया काण्ड से भी ज्यादा गंभीर घटनाओ की खबरे सामने पड़ती है। चिंता तब भी होती है की उत्तर प्रदेश पर शासन कर रही खानदानी पार्टी में पिता- पुत्र में वर्चस्व की जंग हो रही होती है और शेष सारे मुद्दे मीडिया से गायब कर दिए जाते हैं। चिंता तब और होती जब उत्तर प्रदेश पर काबिज होने की जुगत में लगी एक मुखिया हिन्दू , मुसलमान , दलित , अगड़ा , पिछड़ा - सब गिनाती हैं लेकिन उनके मुह से आधी आबादी के समर्थन के एक शब्द नहीं निकलते। वह मज़हबी और जातीय आंकड़े तो गिना देती है पर कितनी महिलाओ को आगे ला रही है , यह बताने की हिम्मत तक नहीं होती।
यद्यपि यह चुनावी माहौल है लेकिन कोई भी ईमानदारी से आधी दुनिया के सवाल पर गंभीर नहीं दीखता और नहीं आधी आबादी की सहभागिता को ही स्वीकार किया जा रहा है। यह भी सच है कि आजादी के बाद महिलाओं को आगे बढ़ाने के सरकारी प्रयास हुए. जेंडर समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है. संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति प्रदान करता है. इन सब के साथ महिला सशक्तीकरण की राह में गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी नहीं नकारा जा सकता. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं के फैसले लेनेवाली भूमिका का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है. आधी आबादी होने के बावजूद राजनीति, न्यायपालिका, सिविल सेवा में उनकी स्थिति निराशाजनक है. देश की लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला बहुचर्चित विधेयक लोकसभा में 17 सालों से लटका हुआ है. हालांकि पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित संख्या 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गयी है. 16 वीं लोकसभा में 12 प्रतिशत महिला जनप्रतिनिधि चुनकर आई हैं, राज्य विधानसभाओं में नौ प्रतिशत महिलाएँ हैं जबकि विधान परिषदों में छह प्रतिशत महिलाएँ हैं. यह वैश्विक अनुपात की तुलना में काफी कम है. महिलाओं को संसद एवं विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व देने के संबंध में दुनिया के 190 देशों में भारत का 109 वां स्थान है.
सृष्टि के आरंभ से कुछ आधारभूत भिन्नताओं के बावजूद महिला और पुरुष दोनों का योगदान किसी भी मामले में एक-दूसरे से कम नहीं था. जीवन के हर पहलुओं में दोनों की भागीदार समान थी. सभ्यता के क्रमिक विकास और सामाजिक परिर्वत्तन के क्रम में पुरुषों ने श्रेष्ठता हासिल कर ली और महिलाएँ दोयम दर्जे की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हो गयीं. किसी भी राष्ट्र या प्रदेश की परम्परा और संस्कृति वहाँ की महिलाओं से परिलक्षित होती है. महिलाओं की स्थिति समाज में जितनी महत्वपूर्ण, सुदृढ़ व सम्मानजनक होती है, उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मजबूत होता है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं का स्थान और सम्मान अन्य देशों की संस्कृतियों की तुलना में कही अधिक है. भारतीय महिलाओं की स्थिति में जो उतार-चढाव आए वे उस युग के बदलते राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश के परिणाम हैं. वैदिक युग में महिलाओं की स्थिति बहुत सम्माननीय थी. स्त्री का स्थान ऊँचा और पवित्र था. जीवन के सभी क्षेत्रों में उसे महत्ता प्राप्त थी. सभी जगह वह पुरुषों की सहभागिनी थी. मध्यकाल में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी. समय का चक्र बढ़ता रहा और महिलाओं की स्थिति में ह्रास आता गया. स्त्री-पुरुष में निश्चित रूप से जैविक अंतर है लेकिन सच है की महिलाओं ने अपनी अकूत श्रम शक्ति से असाध्य को साध्य लिया है. वह कहीं भी किसी मामले में पुरुषों से कम नहीं है. समाज का सम्पूर्ण विकास तभी संभव है जब समाज के विकास रथ को महिला और पुरूष दोनों का समान बल प्राप्त होता है.
वर्त्तमान सामाजिक संदर्भ में महिलाओं की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है. भारतीय महिलाओें की तस्वीर कुछ बदली हुई नजर आती है. यह तस्वीर दबी-कुचली, सहमी हुई उस स्त्री से अलग है जो कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र की आश्रित थी. शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है. आज की महिलाओं ने सामाजिक बेड़ियों को उतार कर फेंक दिया है. इन्हें घर से बाहर निकल कर काम करने और परिवार के मामलों में बोलने की आजादी मिल गयी है. आज महिलाएं फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बातें शेयर कर रही हैं और घर- दफ्तर में बखूबी तालमेल स्थापित कर रहीं हैं. शिक्षा, राजनीति, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, खेल, उद्योग, कला, संगीत, मीडिया, समाज सेवा आदि क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर रही है. आधुनिक भारत की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है।
इस सुनहरी तस्वीर के पीछे कुछ स्याह हकीकत भी हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं की जमीनी हकीकत पर नजर डालना जरूरी है. आंकड़ें गवाह हैं कि महिला सशक्तीकरण की बयानबाजियों के बीच समाज, राजनीति और प्रशासन में महिलाएं कहाँ तक बढ़ पाई हैं. देश की आधी आबादी वास्तव में किन हालातों में रह रही हैं. महिलाओं की यह जागरुकता महानगर केंद्रित हैं या अति संपन्न, सुसंपन्न और सुशिक्षित परिवारों में परिलक्षित होता है. छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों की महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. जनजातीय इलाके की महिलाओं की स्थिति सामान्य महिलाओं की तुलना में काफी बदतर दिखाई देती है. महिलाएँ बुनियादी जरूरतों के सवाल से लेकर तमाम अन्य सुविधाओं तक खुद को उपेक्षित ही पाती हैं. कई गाँवों में महिलाओं के लिए न कोई जच्चा अस्पताल है और न ही कोई महिला विद्यालय. आठवीं-दसवीं पहुंचते-पहुंचते लड़कियां स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं. ऐसी सुविधाएँ हैं भी तो गाँव से खासी दूरी पर हैं पर वहाँ तक पहुँचने के लिए गाँव से कोई सड़क या साधन अभी तक नहीं बना है. मध्यमवर्गीय महिलाओं की स्थिति त्रिशंकु के समान है. वे आधुनिक सुसंपन्न महिलाओं का अनुकरण करना चाहती हैं मगर कर नहीं पातीं और पुरातन भारतीय नारी की तरह जीना नहीं चाहतीं. दफ्तर का काम, बच्चों और घर की देखभाल की वजह से बने दबाव के चलते इन महिलाओं की दिनचर्या बदल रही है और कई लंबी और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एसोचैम द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 32 से 58 वर्ष की 72 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ अवसाद, पीठ में दर्द, मधुमेह, हायपरटेंशन, उच्च कोलोस्ट्रोल, हृदय एवं किडनी की बीमारियों से ग्रस्त हैं.
महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध कम नहीं हो रहे. न बलात्कार की घटनाएं रुक रही हैं, न छेड़खानी की, न महिलाओं के साथ दूसरे तरीकों से होने वाली हिंसा की और न महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता की. घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भर में महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं. महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए तमाम तरह के कानून मौजूद हैं. फिर भी, उन पर हिंसा का सिलसिला नहीं थमा है. जहाँ एक ओर कानूनों में कई तरह की खामियां हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें सही तरीके और सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा है. नतीजतन, अपराधी न केवल साफ बच निकलते हैं, बल्कि उनके हौसले भी बढ़ जाते हैं. महिलाओ पर हुई हिंसा उनके स्वास्थ्य पर मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक प्रभाव डालती है. ये प्रभाव कई बार तात्कालीक होते हैं और कई बार दीर्घकालिक भी. बलात्कार महिला हिंसा का सबसे भयावह रूप है. बलात्कार पीड़ित महिला की मानसिक, आत्मिक और शारीरिक क्षति का अनुमान लगाना भी दुष्कर है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने विश्व रिपोर्ट 2013 का विमोचन करते हुए कहा कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा और लंबे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह बनाने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति गंभीर रूप लेते हुए बदतर हो गई है। दुःख तो तब होता है जब इतने के बाद भी हमारी राजनीतिक बिरादरी बहुत गंभीर नहीं दिखती।
पिछले एक दशक में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में भले ही सुधार हुआ हो मगर छह साल तक की बच्चियों और बच्चों की आबादी का बढ़ता फासला सरकार और समाज दोनों के लिए ही चिंता की बात है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरुष आबादी 933 से बढ़कर 940 हो गई है. लेकिन छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात 927 से घट कर 914 हो गया है, जो आजादी के बाद सबसे कम है. बच्चों के मामले में लिंगानुपात की दर घटना बालिका भ्रूण हत्या बढ़ने की तरफ इशारा करता है। कामगार महिलाएँ आज चौराहे पर खड़ी हैं. ज्यादतर महिलाएँ गैर संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं. असंगठित होने के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कई बार तो शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ रहा है. महिला कामगार सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, अवकाश, मातृत्व लाभ जैसी सुविधाओं से वंचित हैं. आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढने के बजाय घट रही है. नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अन्दर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में 90 लाख की कमी आयी है. वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग 20 वर्ष पहले सन् 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान 32 फीसदी था. उदारीकरण की राह पकडने के 20 वर्ष बाद सन् 2010-11 में यह संख्या घटकर 18 प्रतिशत रह गई. विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है.
राजनीति में महिला सशक्तीकरण महत्वपूर्ण विषय है। महिलाओं के अधिकार, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मान, समानता, समाज में स्थान की जब भी बात होती है, कुछ आंकड़ों को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाती है कि उसमें इतना सुधार आया है. महिलाओं के लिए समानता के बारे में बड़े बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है. जेंडर विषमता और महिला सशक्तीकरण के जो कानून बने उनसे सीमित महिलाओं को ही लाभ हो रहा है. अधिकांश महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता. अशिक्षा और गरीबी के कारण महिलाओं को उन कानूनों की जानकारी नहीं पा रही है जो उनके हित के लिए हैं। भूमंडलीकरण ने महिलाओं को तथाकथित रूप से पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है. महिलाओं को बाहर सिर्फ इसलिए नहीं निकलने दिया जा रहा है कि पुरुष वर्ग पहले से ज्यादा उदार हो गया है बल्कि इसलिए कि आर्थिक-सामाजिक विवशताओं ने इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं रहने दिया है. आर्थिक रूप से स्वाधीन महिलाएं सामाजिक रूप से अभी स्वाधीन नहीं हो पायी हैं. निश्चिय ही मंजिल अभी दूर है मगर सामाजिक रूप से स्वाधीन होने की तीव्रता को ऐसे मौकों पर महसूस किया जा सकता है. महिलाओं के पास कामयाबी के उच्चतम शिखरको छूने की अपार क्षमता है. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए और उनकी कठिन परिस्थितियों से उभरने के लिए प्रेरित करता है। चिंता तो तब और भी बढ़ जाती है जब इस लेख को लिखने के दौरान ही उत्तर प्रदेश में महिलाओ पर जुल्म और बलात्कार की घटनाओ के साथ ही जयपुर में दिल्ली के निर्भया काण्ड से भी ज्यादा गंभीर घटनाओ की खबरे सामने पड़ती है। चिंता तब भी होती है की उत्तर प्रदेश पर शासन कर रही खानदानी पार्टी में पिता- पुत्र में वर्चस्व की जंग हो रही होती है और शेष सारे मुद्दे मीडिया से गायब कर दिए जाते हैं। चिंता तब और होती जब उत्तर प्रदेश पर काबिज होने की जुगत में लगी एक मुखिया हिन्दू , मुसलमान , दलित , अगड़ा , पिछड़ा - सब गिनाती हैं लेकिन उनके मुह से आधी आबादी के समर्थन के एक शब्द नहीं निकलते। वह मज़हबी और जातीय आंकड़े तो गिना देती है पर कितनी महिलाओ को आगे ला रही है , यह बताने की हिम्मत तक नहीं होती।

केंद्र की सरकार के एजेंडे से उम्मीद
"अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सभी महिलाओं की योग्यता को सलाम करता हूं और उनके द्वारा हमारे समाज में अपरिहार्य योगदान के लिए आभार जताता हूं। 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' से लेकर बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधा तक, हमारी सरकार के महिलाओं के नेतृत्व में विकास के प्रयास अटल हैं।" प्रधानमंत्री ने कहा, "भारत के विकास में नारी शक्ति को योगदान देने में हमारे वित्तीय समावेशन के प्रयास, कौशल विकास के लिए की गई पहल और मुद्रा बैंक योगदान करेंगे। "
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रधानमंत्री का ट्वीट
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रधानमंत्री का ट्वीट
‘‘हम गर्भवती महिलाओं की वित्तीय सहायता के लिए राष्ट्रव्यापी योजना शुरू कर रहे हैं. उन गर्भवती महिलाओं के बैंक खाते में सीधे 6000 रुपये अंतरित हो जाएंगे जो संस्थागत प्रसव अपनाती हैं और अपने बच्चे का टीकाकरण कराती हैं. यह योजना प्रसव से पूर्व एवं पश्चात माता के लिए बेहतर पोषण सुनिश्चित करने के अलावा जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य में सुधार के अलावा काफी हद तक मातृत्व मृत्युदर घटाने में मदद करेगी. अबतक 53 जिलों में गर्भवती महिलाओं को प्रायोगिक परियोजना के तहत 4000 रुपये की सहायता मिल रही है.
नये साल की पूर्व संध्या पर टेलीविजन पर प्रसारित राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री