असीम ऊर्जा के संश्लेषित रूप हैं मंत्र


प्रत्येक मंत्र असीम ऊर्जा का संश्लेषित रूप होता है , ठीक वैसे ही जैसी कि परमाणु की ऊर्जा का विज्ञान बताया जाता है। मंत्र केवल शब्दो में रची गयी कविता नहीं होते। काव्यत्व उनकी प्रस्तिति की शैली होती है पर उनकी आतंरिक शाब्दिक संरचना में अथाह ऊर्जा आरक्षित कर गयी है जिसके सिद्धि प्रज्ज्वलन के बाद मंत्र की शक्ति का आभास जनमानस को भी होने लगता है। इसी शक्ति की कुछ आंशिक प्रदर्शनकारी किरणों को आधार बना कर आज तांत्रिको ने बहुत बड़ा बाज़ार खड़ा कर लिया है। इस बाजार का प्रभाव कितना बड़ा हो चूका है इस बारे में लिखने और बताने की आवश्यकता नहीं है। हम यहाँ बात कर रहे है मंत्र ऊर्जा यानि मंत्र विज्ञान की। इसे यही संज्ञा देना ज्यादा उचित लगता है। मंत्र जिस रूप में आज हमें उपलब्ध हैं , केवल उसी रूप की शाब्दिक संरचना को ही हम देख पाते है। इन मंत्रो के रचयिता अथवा इनके इतिहास के बारे में हम बहुत कुछ नहीं जानते। यही वजह है कि मंत्र विज्ञान की इस अति विशिष्ट वैज्ञानिक शिक्षा को लेकर तरह की चर्चाये समाज में होती है और लोग इनका अपने अपने हिट साधने के लिए उपयोग या दुरुपयोग नही करते है।






दरअसल मंत्र वे शब्द युग्म हैं जिनके एक एक अक्षर को साधना के बाद ऊर्जस्वित कर वर्षो की कठिन मेहनत के बाद किसी वैज्ञानिक ऋषि अथवा मुनि ने तैयार किया। इनके निर्माण की पूरी प्रक्रिया है जैसी किसी परमाणु बेम के निर्माण की होती है। जिस प्रकार किसी खास तत्त्व के संश्लेषण के बाद उन्हें एक आकार देकर परमाणु बेम का निर्माण वैज्ञानिक करते है उसी प्रकार से मंत्रो का भी निर्माण हुआ है। हां, यह भी सच है कि आज के समाज में इन मंत्रो को ठीक से समझने वालो की संख्या नगण्य है। अधिकाँश लोग , जो मंत्र के पर तरह तरह के काम कर रहे है उनमे से बहुतो को इनकी वैज्ञानिकता के बारे में ठोस जानकारी नहीं होती। वास्तव में मन्त्र विज्ञानं में शब्द शक्ति —मानसिक एकाग्रता—चारित्रिक श्रेष्ठता एवं अभीष्ट लक्ष्य में अटूट श्रद्धा के चार तथ्य का समावेश होता है। मन्त्र शक्ति से कितने ही प्रकार के चमत्कार एवं वरदान उपलब्ध हो सकते हैं यह सत्य है, पर उसके साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि वह मन्त्र चार परीक्षाओं की अग्नि में उत्तीर्ण हुआ होना चाहिए। प्रयोग करने से पूर्व उसे सिद्ध करना पड़ता है। सिद्धि के लिए साधना आवश्यक है। इस साधना के चार चरण हैं और साधना चार चरणों में संपन्न होती है।



सिद्धि और साधना से शक्ति प्रज्ज्वलन



मंत्रो के भीतर की शक्ति के प्रज्ज्वलन के लिए सिद्धि और साधना बहुत आवश्यक है। इसके लिए दीपावली की महानिशा , नवरात्र , महाशिवरात्रि, सूर्य और चंद्रग्रहण की समयावधि महत्त्वपूर्ण मानी गयी है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है की इन समयावधियों में श्रिस्ति और ब्रह्माण्ड की गतियों में व्यापक परिवर्तन रहता है। इस लिए इन तिथियों पर मंत्रो की साधना से प्रज्ज्वलन की प्रक्रिया को तीव्रता मिलती है। इसके लिए पूर्ण वैज्ञानिक जीवन विधान भी तय है। इन दिनों में मन्त्र साधक को यम−नियमों का अनुशासन पालन करते हुए चारित्रिक श्रेष्ठता का अभिवर्धन करना चाहिए। क्रूरकर्मी, दुष्ट−दुराचारी व्यक्ति किसी भी मन्त्र को सिद्ध नहीं कर सकते। तान्त्रिक शक्तियाँ भी ब्रह्मचर्य आदि की अपेक्षा करती हैं। फिर देव शक्तियों का अवतरण जिस भूमि पर होना है उसे विचारणा, भावना और क्रिया की दृष्टि से सतोगुणी पवित्रता से युक्त होना ही चाहिए। इन्द्रियों का चटोरापन मन की चंचलता का प्रधान कारण है। तृष्णाओं में—वासनाओं में और अहंकार तृप्ति की महत्वाकाँक्षाओं में भटकने वाला मन मृग−तृष्णा एवं कस्तूरी गन्ध में यहाँ−वहाँ असंगत दौड़ लगाते रहने वाले हिरन की तरह है। मन की एकाग्रता अध्यात्म क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है उसके संपादन के लिए अमुक साधनों का विधान तो है, पर उनकी सफलता मन को चंचल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अवरोध करने के साथ जुड़ी हुई है। जिसने मन को संयत समाहित करने की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य अन्तःस्थिति का परिष्कृत दृष्टिकोण के आधार पर निर्माण किया होगा वही सच्ची और गहरी एकाग्रता का लाभ उठा सकेगा। ध्यान उसी का ठीक तरह जमेगा और तन्मयता के आधार पर उत्पन्न होने वाली दिव्य क्षमताओं से लाभान्वित होने का अवसर उसी को मिलेगा।



श्रद्धा से संघनित होती है ऊर्जा



मंत्रो में व्याप्त ऊर्जा साधक की श्रद्धा से ही संघनित होती है। अभीष्ट लक्ष्य में श्रद्धा जितनी गहरी होगी उतना ही मन्त्र बल प्रचण्ड होता चला जायगा। श्रद्धा अपने आप में एक प्रचण्ड चेतन शक्ति है। विश्वासों के आधार पर ही आकाँक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और मनःसंस्थान का स्वरूप विनिर्मित होता है। बहुत कुछ काम तो मस्तिष्क को ही करना पड़ता है। शरीर का संचालन भी मस्तिष्क ही करता है। इस मस्तिष्क को दिशा देने का काम अन्तःकरण के मर्मस्थल में जमे हुए श्रद्धा, विश्वास को है। वस्तुतः व्यक्तित्व का असली प्रेरणा केन्द्र इसी निष्ठा की धुरी पर घूमता है। गीता में भगवन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है -’यो यच्छद्धः स एव स’ अर्थात जो जैसी श्रद्धा रख रहा है वस्तुतः वह वही है। अर्थात् श्रद्धा ही व्यक्तित्व है। इस श्रद्धा को इष्ट लक्ष्य में साधना की यथार्थता और उपलब्धि में जितनी अधिक गहराई के साथ, तन्मयता के साथ नियोजित किया गया होगा, मन्त्र उतना ही सामर्थ्यवान बनेगा। माँत्रिक को चमत्कारी शक्ति उसी अनुपात से प्रचण्ड होगी। इन तीनों चेतनात्मक आधारों को महत्व देते हुए जिसने मन्त्रानुष्ठान किया होगा निश्चित रूप से वह अपने प्रयोजन में पूर्णतया सफल होकर रहेगा।



शब्द शक्ति का विज्ञानं



मन्त्र का चौथा आधार है शब्द शक्ति। अमुक अक्षरों का एक विशिष्ट क्रम से किया गया गुन्थन शब्द−शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्तों पर तत्वदर्शी अध्यात्मवेत्ताओं ने किया होता है। मन्त्रों के अर्थ सरल और सामान्य हैं। अर्थों में दिव्य जीवन की शिक्षाएँ और दिशाएँ पाई जाती हैं। उन्हें समझना भी उचित ही है। पर मन्त्र की शक्ति इन शिक्षाओं में नहीं उनकी शब्द रचना से जुड़ी हुई है। वाह्य यन्त्रों को अमुक क्रम से बजाने पर ध्वनि प्रवाह निसृत होता है। कण्ठ को अमुक आरोह−अवरोहों के अनुरूप उतार−चढ़ाव के स्वरों से युक्त करके जो ध्वनि प्रवाह बनता है उसे गायन कहते हैं। ठीक इसी प्रकार मुख के उच्चारण मन्त्र को अमुक शब्द क्रम के अनुसार बार−बार लगातार संचालन करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह संचारित करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह संचारित होता है वही मन्त्र की भौतिक क्षमता है। मुख से उच्चारित मन्त्राक्षर सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं। उसमें सन्निहित तीन ग्रन्थियों, षटचक्रों—षोडश माष्टकाडों—चौबीस उपत्यिकाओं एवं चौरासी नाड़ियों को झंकृत करने में मन्त्र का उच्चारण क्रम बहुत काम करता है। दिव्य शक्ति के प्रादुर्भूत होने से यह शब्दोच्चार भी एक बहुत बड़ा कारण एवं माध्यम है।



मन्त्रविज्ञानं में मुख से तो चबाकर और हलके प्रवाह क्रम से ही शब्दों का उच्चारण होता है, पर उनके बार−बार लगातार दुहराये जाने से सूक्ष्म शरीर के शक्ति संस्थानों का ध्वनि प्रवाह तीव्र होने लगता है। वहाँ से अश्रव्य कर्णातीत ध्वनियाँ या प्रचंड प्रवाह प्रादुर्भूत होता है। इसी में मन्त्र साधक का व्यक्तित्व ढलता है और उन्हीं के आधार पर वह अभीष्ट वातावरण बनता है जिसके लिए मन्त्र साधना की गई मन्त्र का जितना महत्व है, साधना विधान का जितना महात्म्य है उतना ही आवश्यक यह भी है कि याँत्रिक अपनी श्रद्धा, तन्मयता और विधि प्रक्रिया में निष्ठावान रहकर अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाये कि उसका मन्त्र प्रयोग सही निशाना साधने वाली बहुमूल्य बन्दूक का काम कर सके। शब्द शक्ति का महत्व विज्ञानानुमोदित है। स्थूल, श्रव्य, शब्द भी बड़ा काम करते हैं फिर सूक्ष्म कर्णातीत अश्रव्य ध्वनियों का महत्व तो और भी अधिक है। मन्त्र जप में उच्चारण तो धीमा ही होता है उससे अतीन्द्रिय शब्द शक्ति को ही प्रचंड परिणाम में उत्पन्न किया जाता है।

ध्वनि विज्ञानं और मन्त्र



मंत्रो की क्रियाशीलता का आधार ध्वनि तरंगे हो होती है। पहले के समय में ध्वनि तरंगें उच्चारण से उद्भूत होकर श्रवण की परिधि में ही सीमित रहती थीं। प्राणियों द्वारा शब्दोच्चारों एवं वस्तुओं से उत्पन्न आघातों से अगणित प्रकार की ध्वनियाँ निकलती है उन्हें हमारे कान सुनते हैं। सुनकर कई तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं , निष्कर्ष निकालते हैं और अनुभव बढ़ाते हुए उपयोगी कदम उठाते हैं। यह शब्द का साधारण उपयोग हुआ। आधुनिक विज्ञान ने ध्वनि तरंगों में सन्निहित असाधारण शक्ति को समझा है और उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के क्रिया−कलापों को पूरा करना अथवा लाभ उठाना आरम्भ किया है। वस्तुओं की मोटाई नापने—धातुओं के गुण, दोष परखने का काम अब ध्वनि तरंगें ही प्रधान रूप में पूरा करती है। कार्बन ब्लैक का उत्पादन वस्त्रों की धुलाई, रासायनिक सम्मिश्रण, कागज की लुगदी, गीलेपन को सुखाना, धातुओं की ढलाई, प्लास्टिक धागों का निर्माण, प्रभृति उद्योगों में ध्वनि तरंगों के उपयोग से एक नया व्यावसायिक अध्याय आरम्भ हुआ है।



ध्वनि तरंगें कम्पन होती हैं, वे रेडियो तरंगों की तरह शून्य में यात्रा नहीं करती। मनुष्य के कानों द्वारा सुनी जा सकने योग्य थोड़ी सी ही हैं। जो कानों की पकड़ से नीची या ऊँची हैं उनकी संख्या कितनी गुनी अधिक है। शब्द को शक्ति के रूप में परिणित करने के लिए जिन ध्वनि तरंगों का प्रयोग किया जा रहा है उन्हें अल्ट्रा सोनिक (अस्तिवन) और सुपर सोनिक (महास्वन) संज्ञाएँ दी जाती हैं। यह ध्वनियाँ निकट भविष्य में सरलतापूर्वक विद्युत शक्ति में परिणत की जा सकेगी और तब उस शब्द स्रोत का ध्वनि प्रवाह का उपयोग किया जा सकेगा ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं। यह ध्वनि तरंगें देखने, सुनने, समझने में नगण्य सी हैं , उनका छोटा अस्तित्व उपहासास्पद सा लगता है, पर जब उनमें सन्निहित प्रचंड शक्ति का आभास मिलता है तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह ध्वनि तरंगें इतना बड़ा काम करती हैं जितना विशालकाय एवं शक्ति शाली संयंत्र भी नहीं कर सकते। यन्त्र विज्ञान द्वारा इसी सूक्ष्म शक्ति का प्रयोग किया जाता है। प्रकाश और ध्वनि के कम्पनों का स्वरूप समझने के लिए हमें समुद्र में उठने वाली लहरों को देखना चाहिए वे ऊपर उठती और नीचे गिरती हैं तथा एक क्रम−व्यवस्था की दूरी के साथ अग्रगामी होती हैं। प्रकाश और ध्वनि के कम्पनों का भी यही हाल है। विद्युत चुम्बकीय तरंगें प्रकाश की तरंगों से मिलती−जुलती होती हैं। किन्हीं दो उतार−चढ़ावों के बीच की दूरी को तरंग की लम्बाई कहा जाता है किसी बिन्दु पर से एक सेकेंड में गुजरती तरंग के उतार−चढ़ाव को लहर की फ्रीक्वेंसी - कम्पनांक कहा जाता है। तरंग की गति में तरंग की लम्बाई का भाग देकर, इन कंपनांकों का नाम निश्चित किया जाता है। ध्वनि की लहरों का वायु के प्रवाह से भी बहुत कुछ सम्बन्ध रहता है। वे वायु प्रवाह के साथ अधिक सुविधापूर्वक जाती हैं जबकि अवरोध की दिशा में उनका बल बहुत क्षीण रहता है। रेडियो तरंगें, शब्द तरंगें, माइक्रो लहरें, टेलीविजन और रैडार की तरंगें, एक्स किरणें, गामा किरणें, लेसर किरणें, मृत्यु किरणें, इन्फ्रारेड तरंगें, अल्ट्रा वायलेट तरंगें आदि कितनी ही शक्ति धाराएँ इस निखिल ब्रह्माण्ड में निरन्तर प्रवाहित रहती है। इन तरंगों की भिन्नता उनकी लम्बाई के आधार पर नापी जाती है। मीटर, सेन्टीमीटर, माइक्रोन, मिली मीटर, आँगस्ट्रोन इनके मापक पैमाने हैं।



शब्दशक्ति और ताप



शब्द शक्ति को ताप में परिणित किया जा सकता है। शब्द जब मस्तिष्क के ज्ञानकोषों से टकराते हैं तो हमें कई प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यदि उन्हें पकड़ कर ऊर्जा में परिणित किया जाय तो वे बिजली ताप प्रकाश चुम्बकत्व के रूप में कितने ही प्रकार का क्रिया−कलाप सम्पन्न कर सकने योग्य बन सकते हैं। ताप को शक्ति का प्रतीक माना गया है। विभिन्न प्रकार के ईधन जलाकर अनेकों शक्ति धाराएँ उत्पन्न की जाती हैं। शक्ति और ताप को अब एक ही मान लिया गया है। इस शृंखला में ध्वनि को भी एक शक्ति उत्पादक ईधन मान लिया गया है। वह दिन दूर नहीं जब शब्द को ईधन नहीं वरन् एक स्वतन्त्र एवं सर्व समर्थ शक्ति माना जायगा। तभी मन्त्र शक्ति की यथार्थता ठीक तरह समझी जा सकेगी। ध्वनियाँ तीन प्रकार से उत्पन्न होती हैं (1)वायु द्वारा (2) जल द्वारा (3)पृथ्वी द्वारा। वायु की तरंगों द्वारा प्राप्त होने वाली ध्वनि की गति प्रति सेकेंड 1088 फुट होती है। जल तरंगों की गति इससे तेज होती है। उस माध्यम से वे एक सेकेंड में 4900 फुट चलती है। पृथ्वी के माध्यम से यह गति और भी तेज होती है अर्थात् एक सेकेंड में 16400 फुट। इसी के अनुसार हमारे मंत्र विज्ञानं में पूजा पद्धति के रूप में शब्द ऊर्जा और ताप को समेकित करने की विधिया बनायीं गयी है। इनके लिए प्राणायाम द्वारा वायु तत्व का - स्नान, आचमन, अर्घदान आदि द्वारा जल का—दीपक, धूपबत्ती, हवन आदि द्वारा अग्नि का प्रयोग करके मन्त्रानुष्ठान से वे त्रिविध उपचार किये जाते हैं जिनसे शब्द शक्ति को प्रचंड बनने का अवसर मिल सके।



हर ध्वनि अपने ढंग से अलग−अलग कंपन उत्पन्न करती है। इसी आधार पर हमारे कानों के पर्दे अलग−अलग व्यक्तियों की आवाज को आँखें बन्द होने पर भी पहचान लेते हैं। ध्वनि कम्पनों−ध्वनि तरंगों के घनत्व के आधार पर हम असंख्य प्रकार की ध्वनियों की भिन्नता अनुभव करते हैं। अन्धे लोगों को अपने कानों की सहायता से ही समीपवर्ती वातावरण में हो रही हलचलों का—व्यक्तियों तथा प्राणियों के अस्तित्व का पता लगाना पड़ता है। कान इस बात के अभ्यस्त हो जाते हैं कि विभिन्न माध्यमों से उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रवाह का अन्तर कर सकें और स्थिति का अथवा प्राणियों की हलचलों का पता लगा सकें।



नादयोग की साधना द्वारा अनन्त अन्तरिक्ष में निरन्तर बहने वाली ध्वनि तरंगों को सुना जाता है और उनमें से अपने काम की तरंगों के साथ संपर्क बनाकर भूतकाल में जो हो चुका है उसकी—भविष्य के लिए जो सम्भावना बन रही है उसकी—तथा वर्तमान में किस व्यक्ति या किस परिस्थिति द्वारा क्या हलचलें उत्पन्न की जा रही हैं उनका पता लगाया जा सकता है। नादयोग की शब्द साधना वस्तुतः मन्त्र विज्ञान का ही एक अंग है। जिन ध्वनियों के कम्पन प्रति सेकेंड 100 से 300 तक होते हैं वे मनुष्य के कानों से आसानी के साथ सुने जा सकते हैं। इससे बहुत अधिक या बहुत कम कम्पन वाले शब्द आकाश में घूमते हुए भी हमारे कानों द्वारा सुने समझे नहीं जाते। इस प्रकार के शब्द प्रवाह को ‘अनसुनी ध्वनियाँ’ कहते हैं। उन्हें ‘सुपर सोनिक रेडियो मीटर’ नामक यन्त्र से कान द्वारा सुना जा सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स के उच्च विज्ञानी ऐसा यन्त्र बनाने में सफल नहीं हो सके हैं जो श्रवण शक्ति की दृष्टि से कान के समान सम्वेदनशील हो।





संजय शांडिल्य
भारत संस्कृतिन्यास , नयी दिल्ली
9450887186





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