संकट में पान : कैसे होंगे किमामी गिलौरियों से होठ लाल लाल

संकट में पान : कैसे होंगे किमामी गिलौरियों से होठ लाल लाल 

संजय तिवारी 
 खाइके पान बनारसवाला से लेकर पान खाएं सईया हमार जैसे लहरवा गीतों की धूम से सभी वाकिफ हैं। पान और पान लाली के साथ किमाम की खुशबुओं से भरी गिल्लौरियो को लेकर न जाने कितनी कहानियां लिखी जा चुकी हैं। पान भारतीय जीवन शैली में गजब का किरदार रहा है। बनारस और लखनऊ जैसे शहरो की पहचान में पान भी एक रंगीन निशानी है। किमामी गिलौरियों के बिना न लखनऊ की महफ़िलें संभव हैं और न ही बनारसी सुबह। 
भारत में पान खाने की प्रथा कब से प्रचलित हुई इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता। परंतु "वात्स्यायनकामसूत्र" और रघुवंश आदि प्राचीन ग्रंथों में "तांबूल" शब्द का प्रयोग मिलता है। इस शब्द को अनेक भाषाविज्ञ आर्येतर मूल का मानते है। बहुतों के विचार से यवद्वीप इसका आदि स्थान है। तांबूल के अतिरिक्त नागवल्ली, नागवल्लीदल, तांबूली, पर्ण (जिससे हिंदी का पान शब्द निकला है), नागरबेल (गुजराती) आदि इसके नाम हैं। यह औषधीय काम में भी आता है पर इसका सर्वाधिक उपयोग के लिये होता है।

नागवल्ली नामक लता का पत्ता
पान भारत के इतिहास एवं परंपराओं से गहरे से जुड़ा है। इसका उद्भव स्थल मलाया द्वीप है। पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल (संस्कृत), पक्कू (तेलुगू), वेटिलाई (तमिल और मलयालम) और नागुरवेल (गुजराती) आदि। पान का प्रयोग हिन्दू संस्कार से जुड़ा है, जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत आदि। वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है। यह तांबूली या नागवल्ली नामक लता का पत्ता है। खैर, चूना, सुपारी के योग से इसका बीड़ा लगाया जाता है और मुख की सुंदरता, सुगंधि, शुद्धि, श्रृंगार आदि के लिये चबा चबाकर उसे खाया जाता है। इसके साथ विभिन्न प्रकार के सुगंधित, असुगंधित तमाखू, तरह तरह के पान के मसाले, लवंग, कपूर, सुगंधद्रव्य आदि का भी प्रयोग किया जाता है। मद्रास में बिना खैर का भी पान खाया जाता है। विभिन्न प्रदेशों में अपने अपने स्वाद के अनुसार इसके प्रयोग में तरह तरह के मसालों के साथ पान खाने का रिवाज है। जहाँ भोजन आदि के बाद, तथा उत्सवादि में पान बीड़ा लाभकर और शोभाकर होता है।  

पान की तरह तरह की किस्में
पान की तरह तरह की किस्में और इसकी अलग अलग शैलियाँ भारतीय लोकजीवन में एक अलग प्रकार का समाज बुनती हैं। आज भी इसके शौक़ीन कम नहीं है। लेकिन अब ऐसी परिस्थितियां बनती जा रही हैं कि पान की कई किसमें संकट में आ गयी है। इन्ही मे से एक है  बुंदेलखंड की पहचान देशावरी पान। यह आल्हा ऊदल की धरती महोबा की पहचान के रूप में भी स्थापित है। अन्य पान की बात करें तो सांची पान मोटा, हरा तथा अधिक रेशेदार होता है। कपूरी पान हल्का कड़वा होता है। पत्ती हल्के पीले रंग की होती है। बांग्ला पान का स्वाद कड़वा होता है। सौंफिया पान में रेशे कम होते हैं, सौंफ की सुगंध तथा मीठे स्वाद का होता है। पत्ता गहरे हरे रंग का होता है। 
भारत के आलावा  बर्मा, सिलोन आदि में पान की अघिक पैदायश होती है। इसकी खेती कि लिये बड़ा परिश्रम अपेक्षित है। एक ओर जितनी उष्णता आवश्यक है, दूसरी ओर उतना ही रस और नमी भी अपेक्षित है। देशभेद से इसकी लता की खेती और सुरक्षा में भेद होता है। पर सर्वत्र यह अत्यंत श्रमसाध्य है। इसकी खेती के स्थान को कहीं बरै, कहीं बरज, कहीं बरेजा और कहीं भीटा आदि भी कहते हैं। खेती आदि कतरनेवालों को बरे, बरज, बरई भी कहते हैं। सिंचाई, खाद, सेवा, उष्णता सौर छाया आदि के कारण इसमें बराबर सालभर तक देखभाल करते रहना पड़ता है और सालों बाद पत्तियाँ मिल पानी हैं और ये भी प्राय: दो तीन साल ही मिलती हैं। कहीं कहीं 7-8 साल तक भी प्राप्त होती हैं। कहीं तो इस लता को विभिन्न पेड़ों-मौलसिरी, जयंत आदि पर भी चढ़ाया जाता है। इसके भीटों और छाया में इतनी ठंढक रहती है कि वहाँ साँप, बिच्छू आदि भी आ जाते हैं। इन हरे पत्तों को सेवा द्वारा सफेद बनाया जाता है। तब इन्हें बहुधा पका या सफेद पान कहते हैं। बनारस में पान की सेवा बड़े श्रम से की जाती है। मगह के एक किस्म के पान को कई मास तक बड़े यत्न से सुरक्षित रखकर पकाते हैं जिसे "मगही पान" कहा जाता है और जो अत्यंत सुस्वादु एवं मूल्यवान् जाता है।

महोबा के पान का नौ सौ साल पुराना  इतिहास 
लगभग नौ सौ साल पुरानी यह फसल आज संकट में है। मौसम की मार और सिंचाई संसाधनों के अभाव में पान किसान तबाह हो गए हैं। नौवीं शताब्दी से चली आ रही पान की खेती अब सिमट कर रह गई है। सरकार की ओर से अनुदान की घोषणा की गई है तो उम्मीद लगाई जा रही है कि पान की खेती से किनारा कर रहे किसान फिर इससे जुड़ेंगे, साथ ही नए किसान भी।

600 से घटकर अब 60 एकड़ में ही खेती
एक अनुमान के अनुसार महोबा में 1960 के आस-पास लगभग 150 एकड़ क्षेत्र में पान की खेती होती थी। 70 से 80 के दशक में रकबा चार सौ एकड़ के करीब पहुंच गया। वर्ष 2000 में यह करीब 600 एकड़ था। इसके बाद मौसम की मार और शासन की उपेक्षा से लगातार रकबा घटता रहा। अब 60 एकड़ के करीब ही पैदावार बची है। पान की खेती अतिवृष्टि, अनावृष्टि, पाला, गर्मी, आग, आंधी, तूफान एवं ओलावृष्टि आदि कारणों से चौपट हो गई। हालात अब भी नहीं बदले हैं। किसान रज्जू, राजेंद्र, अरविंद, महेश चौरसिया का कहना है कि अब पान कृषक भुखमरी के कगार पर जा पहुंचे हैं।

जो गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो जाए वह देशावरी
पान जो गिरकर टुकड़ेटुकड़े हो जाए, वही महोबा का करारा देशावरी पान है। देशावरी पान में करारापन, कम रेशे, हल्की कड़वाहट होती है। पत्ता गोल व नुकीला होता है।

इतिहास के आईने में पान
कभी महोत्सव नगर के नाम से मशहूर रहा बुंदेलखंड का यह इलाका चंदेल और प्रतिहार शासकों का गढ़ रहा था। खजुराहो, कालिंजर, चित्रकूट, गोरखगिरी पर्वत, आल्हा-ऊदल... यहां के चप्पे-चप्पे पर इतिहास की छाप है। महोबा में पान का युद्ध संस्कृति से भी नाता रहा है। रिवाज था कि किसी से युद्ध करना हो तब चांदी के थाल में पान रखा जाता था। इसे बीड़ा कहते थे जो वीरों के लिए चुनौती के रूप में आता था। महोबा के पान के लिए जंग भी हो गईं।

राजस्थान से पहुंचा था बुंदेलखंड
नौवीं सदी में महोबा में चंदेल नरेश ने पान की बेल राजस्थान के उदयपुर-बासवाड़ा से यहां मंगाई थी और गोरखगिरी के पश्चिमी क्षेत्र में रोपित कराई था। बुंदेलखंड में पछुआ व दक्षिणी हवाएं ज्यादा ही गर्म होती हैं, इसलिए पान के बरेज मदनसागर, कीरत सागर व अन्य सरोवरों के किनारे-किनारे लगाई गईं ताकि पर्याप्त सिंचाई हो सके। चंदेल शासन में पान कृषि का महत्वपूर्ण अंग था।

दरीबा पान विपणन केंद्र
वर्ष 1905 के गजेटियर में महोबा को दरीबा पान विपणन केंद्र कहा गया। यहीं से पान रेलमार्ग से दिल्ली, मुंबई, सूरत, पुणे तथा देश के विभिन्न शहरों व पाकिस्तान आदि देशों को सप्लाई होता था।

बाराबंकी में भी सिमट गयी पान की खेती 
मुग़ल काल में बाराबंकी का पान ही लखनऊ और बनारस में उपलब्ध होता था। तब यहां के ज्यादातर किसान पान की खेती किया करते थे, लेकिन अब यहाँ मात्र एक दो किसान ही पान की खेती करते हैं। प्रदेश की राजधानी से बिलकुल सटे बाराबंकी जिलामुख्यालय से 32 किलोमीटर की रेहरिया गाँव विकास खन्ड बनीकोडर मे स्थित है। यहां के कई परिवार आज भी दादा परदादाओ के जमाने से पान की खेती करते आ रहे हैं, लेकिन पान की खेती करने वाले किसानों की मानें तो खेती के लिए पर्याप्त पूंजी के अभाव में अब वे अपनी परम्परागत खेती छोड़कर नई पीढ़ी दिल्ली और मुम्बई में मजदूरी करने के लिए जाने पर मजबूर हो रहे हैं। इस जिले में हजार एकड़ से सिमट कर अब पान की खेती कुल 50 एकड़ में रह गयी है। 

रामसनेहीघाट के बनीकोडर का इलाका मशहूर 
बाराबंकी में  पान की खेती के लिये तहसील रामसनेहीघाट के बनीकोडर का इलाका काफी मशहूर है। इसमें भी बनारस और महोबा के पान की जानी मानी प्रजातियां की पौध को मंगाकर यहां खेती किया जा रहा है। पान की खेती करने वाले किसानों का कहना है कि सरकार का सहयोग नहीं मिल रहा है। पान की खेती को बचाने के लिए की गई सरकार कई घोषणाओं के बावजूद इसमें सुधार नहीं हो रहा है

किसानो तक नहीं पहुंची सरकारी योजनाएं 
रेहरिया गाँव के किसान विक्रम (48 वर्ष) बताते हैं, "इस खेती को सुधारने के लिए जो घोषणाएं होती रहती हैं। लेकिन हम पान किसानों के पास अभी तक नहीं पहुंची हैं। न हम लोगो को किसी प्रकार से सरकार से अनुदान मिलता है और न नई तकनीक से खेती करने के गुर बताए जाते हैं हम लोग अब भी पुराने तौर तरीकों से खेती करते है जिससे अब सही उत्पादन  कम होता है।विक्रम बताते हैं कि यहाँ पान का  सही मूल्य नहीं मिल पाता है, जिसे बेचने के लिये फैजाबाद जाना पड़ता है फैजाबाद में पान की छोटी मंडी लगती है और पान की बड़ी मंडी बनारस मे लगती है लेकिन दूर होने के कारण बनारस न जा करके फैजाबाद की मंडी करते हैं यहीं पर पान बेचते हैं।

गुटखा ने भी बहुत मारा
पान की खेती पर गुटखा पाउच का भी खूब असर पड़ा है। पान की गुमटियों में गुटके की उपलब्धता ने पारम्परिक पान खाने वालो की संख्या घटा दी है। रेहरिया  के एक पान उत्पादक राम प्रकाश (50 वर्ष) कहते हैं कि पान की खेती करने वाले किसानों ने गुटखा को लेकर काफी विरोध जताया। इसके लिए गांधीवादी तरीका अपनाया गया। इसके तहत दुकान से गुटखा खरीदने वाले को मुफ्त में पान के एक दर्जन पत्ते दिए जाते थे, लेकिन विरोध की यह आवाज भी दबकर रह गई।


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