तीन देवियाँ : तीन कहानियां
sanjay tiwari
दुनिया में अब आधी आबादी ने अपने लिए बहुत की महत्वपूर्ण मुकाम बनाना तेज कर दिया है। इसमें ऐसा नहीं है कि केवल सामाजिक प्रतिक्रया और दिखावे के लिए वह यह सब कर रही है। ऐसा तो बिकुल नहीं है। आज नारी उस रारते पर चल कर अपना मुकाम बना रही है जिस पार सामान्यतया कोई भी मनुष्य चलता है। जिस तरह पुरुष समाज अपने लिए लक्ष्य बनाता है और हासिल करता है उसी तरह नारी भी सामान्य तौर पर कार रही है। उसके इस कार्य में कई बार समाज का सहयोग मिलता भी है और कई बार नहीं भी मिलता है। इस बार अपना भारत आपको ऐसी ही तीन महिलाओ की कहानी से रूबरू करा रहा है जो तीन अलग अलग परिवेशों से आती हैं लेकिन तीनो ने गज़ब का कीरीतिमान बनाया है। प्रस्तुत है तीन देवियों की तीन कहानियां -
आशा खेमका
आशा खेमका
एक ऐसी लड़की जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी, जिसे 13 साल की उम्र में ही अपनी पढ़ाई छो़ड़नी पड़ी थी और आज उसका नाम ब्रिटेन के सबसे मशहूर शिक्षाविदों में शुमार किया जाता है.
बिहार के सीतामढ़ी जिले में एक सम्मानित व्यवसायी परिवार में 21 अक्तूबर 1951 को जन्मी आशा खेमका की कहानी बड़ी रोचक और प्रेरक है. तब लड़कियों की शिक्षा को लेकर समाज में जागरुकता नहीं थी और लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का चलन भी नहीं था, और इसी बात की शिकार हुईं आशा ने भी महज़ 13 वर्ष की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी, और 15 बरस की उम्र में आशा का विवाह कर दिया गया. उनके पति डॉ. शंकर लाल खेमका आज ब्रिटेन के प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं.
1978 में आशा खेमका अपने पति और तीन बच्चों के साथ इंग्लैंड पहुंच गईं. जब वह इंग्लैंड गईं थीं, तो अंग्रेजी का ABC भी ढंग से नहीं पता था. न्होंने बच्चों के टीवी शो देखने शुरू किये और यहीं से अंग्रेजी भी सीखी. फिर धीरे धीरे वोह अंग्रेजी में दक्ष होती गयीं. इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया. उनके बच्चे जब थोड़े बड़े हुए, तो उन्होंने अपनी छूट गई पढ़ाई को फिर से शुरू किया और कार्डिफयूनिवर्सिटी सेबिजनेस की डिग्री हासिल की. इसके बाद वो टीचर बन गईं. 2006 में वह वेस्ट नॉटिंघम कॉलेज की प्रिंसिपल बन गईं. यह कॉलेज इंग्लैंड के सबसे बड़े कॉलेजों में से एक है.
कुछ माह पहले ही आशा को एशियन बिज़नेस वुमन ऑफ द ईयर सम्मान से नवाजा गया है. इससे पहले आशा को 2013 में ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मान डेम कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश अंपायर का सम्मान से नवाजा गया था. उनसे पूर्व ये सम्मान किसी भारतीय मूल के शख्स को 1931 में मिला था. तब धार स्टेट की महारानी लक्ष्मी देवी बाई साहिबा को ये डेम पुरस्कार प्राप्त हुआ था.
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जुलेहा
सेवा का जूनून खींच लाया भारतजुलेहा की भारत आने की कहानी थोड़ी रोचक भी है. सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर जुलेहा की दोस्ती इंडिया के सर्वेश से हो गई थी. सर्वेश यहां राजस्थान के कोटा में मानसिक रूप से अक्षम और कमजोर बच्चों के लिए काम कर रहे थे. वहीं जुलेहा अपने देश में भी बच्चों को पढाती थीं, बस धीरे-धीरे बातचीत भी शुरू हो गई. चैटिंग के दौरान ही सर्वेश ने जुलेहा को यहां के मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के बारे में बताया. यह सिलसिला लंबे समय तक चला और सर्वेश ने जुलेहा को भारत आने का आमंत्रण दे दिया. जुलेहा तुर्की में एक रिहैबिलिटेशन सेंटर में काम करती थीं.
ज़ुलेहा 2015 में भारत आ गयीं और उन्हें सर्वेश से प्रेम हो गया दोनों ने हिन्दू-विवाह रीति से शादी भी कर ली. कोटा में सर्वेश और जुलेहा के सेंटर में करीब 800 मानसिक रूप से कमजोर बच्चे हैं. उनके पुनर्वास का कोई इंतजाम नहीं है. दोनों इनकी भलाई के लिए काम पर लगे हुए हैं. जुलेहा कहती हैं, कि कोटा अच्छा शहर है. यहां आकर उन्हें काफी खुशी महसूस हुई. जुलेहा का सब्जेक्ट भी यही था. वह कहती हैं, कि 'ऐसे बच्चे मेरे लिए आत्माके समान है. मैं इंडिया में रहकर नि:स्वार्थ भाव से सेवा करना चाहती हूं.'
जुलेहा के लिए पैसा उतना इम्पॉर्टेंट नहीं है, जितना कि उनका अपना काम. उनके पास पैसों की कमी वैसे ही नहीं है. पिता बिल्डर हैं और इकलौती बेटी होने की वजह से उन्हें पैसों की कोई कमी नहीं. इसके अलावा वह खुद महीनें में लाखों रुपये कमा रही थीं,
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नसरीन
तमाम मुश्किलों से संघर्ष
दूध का बिजनेस लगभग 5 सालों तक चला, लेकिन उसी बीच नसरीन के पति को कोर्ट केस चल रहे थे, जिसकी वजह से एक दिन पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और इसके बाद नसरीन की ज़िंदगी में मुश्किलों का दौर शुरू हो गया.
कोर्ट कचहरी के चक्कर में डेयरी का काम बंद शुरू हो गया. घर चलाने के लिए नसरीन ने स्कूल में टीचिंग शुरू की. उस वक्त उन्हें टीचिंग से 800 रुपये हर महीने मिलते थे, जिस से बच्चों के साथ गुज़ारा कर पाना भी मुश्किल है. नसरीन ने घर पर ही ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. आय बस इतनी ही हो पाती हो पाती थी. कि बच्चों का पेट भर सके नसरीन अकेले घर संभाल रही थीं. कुछ वक़्त के बार नसरीन ने टीचिंग छोड़ एक गैर सरकारी संगठन 'सदभावना ट्रस्ट' से जुड़ कर कंप्यूटर चलाना सीख लिया
और पिछले साल नसरीन के पति की भी मौत हो गयी पति की मौत के बाद से वह अपने बच्चों की पूरीजिम्मेदारी अकेले उठा रही हैं. नसरीन कहती हैं, कि 'जीवन में बहुत मुश्किलें आयीं और मुसीबतें सर पर रहीं लेकिन मैंने हार नहीं मानी. मुझे ख़ुशी है कि मैंने ज़िन्दगी के हाथों हार कबूल नहीं की और हर काम सीखा.' साथ ही वो ये भी कहती हैं, कि 'मैं चाहती हूँ मेरी जैसी तमाम बहनें और महिलाएं हिम्मत करें और सामने आएं. मैं खुद उनकी मदद के लिए तैयार हूँ. हमें हमेशा एक बात याद रखनी चाहिये कि एक महिला अगर कुछ करने की ठान ले तो वो उसे पा कर ही रहती हैं और यही हमारी जीत है.'
नसरीन के चार बेटे-बेटियां हैं. वह कहती हैं, 'हम घर से बाहर निकले हमने काफी कुछ सीखा और अपने दम पर खड़े हुए. अगर हम ये सब नहीं रहते तो चूल्हे चौके में कहीं दबे रह जाते. लेकिन हां हम कह सकते हैं कि हमने हिम्मत की. हमें लगता है कि औरतें किसी से कम नहीं होतीं. अगर औरतें ठान लें तो वे कुछ भी कर सकती हैं. आगे हम चाहेंगे कि बाकी महिलाएं भी इसी तरह घर से बाहर निकलें और अपने दम पर अपनी मेहनत से समाज को दिखा दें कि महिलाएं क्या कर सकती हैं.