और वे बन गए लोदी मुहम्मद सफी खाँ से बेकल उत्साही 


भिगो देता है उनके भीतर का भारत 


संजय सागर 


उनके भीतर के भारत ने कई बार भिगोया है। कई बार कई बार अपहृत सीता के लिए तड़पते राम की तड़प से उनको तड़पते महसूस किया है। कई बार भारत की भावना में नाम होती आहत सुरहरियो को कापते हुएहोठो  से गुजरते देखा है। मंच हो या महफ़िल , हर कही बेकल उत्साही को अवध की माटी के लिए संघर्ष करते ही पाया है। वर्ष 1982  में पहली बार उनके साथ मंच साझा करने साथ ही दर्शनो ऐसे मौके आये जब बहुत करीब से उनको सुनाने, समझने और सबसे खास बात , जानने का अवसर मिला। उनके न रहने की खबर ने आज सच में भीतर से हिला दिया है। अनगिनत पल अपनों की तरह चितिरत हो मिट रहे है और शब्द सीमित होने लगे है। बेकल उत्साही नहीं रहे.....नहीं रहे बेकल उत्साही......लोदी मुहम्मद सफी खाँ , नहीं केवल बेकल , नहीं रहे , यह यह ख़याल ही डिल को दहलाने के लिए काफी है. पर यही सच भी है। वह यकीनन अब दुनिया में नहीं है। शनिवार की सुबह लखनऊ के लोहिया अस्पताल के आईसीयू में उन्होंने अंतिम सांस ली। यह अलाहिदा बात है कि उनकी सूक्ष्म अक्षर देह अमर होकर दुनिया के मंच पर गायी जाती रहेगी।


एक जून 1928 में गोण्डा जनपद के रमवांपुर गाँव में उनका जन्म हुआ और उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता लोधी मोहम्मद जफ़र खान ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन। घर पर शायरों का आना जाना रहता था। उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी। पहले नात,मजलिस का दौर शुरू हुआ।  फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं। आरम्भ गीतों से ही हुआ। बाद में  बेकल उत्साही के नाम से लोकप्रिय हुये। यह भी वाकया गज़ब का है। देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू एक बार गोंडा  में एक चुनावी जनसभा में आये हुए थे।  उन्ही के सामने बेकल वारसी यानी मुहम्मद सफी खान को किसान भारत का शीर्षक का अपना गीत सुनसने का अवसर मिला। पंडित नेहरू ने इस गीत को बड़े मन से सुना और जब भाषण देने खड़े हुए तो सफी के गीत पर ही बोलते रहे। पंडित नेहरू ने कहा कि यह बेकल उत्साही शायर है। बस इसी घटना ने सफी मोहम्मद को बेकल उत्साही बना दिया और इसी नाम से वह दुनिया में प्रसिद्द हो गए।  
दुनिया और देश का कोई भी मंच हो, चाहे वहाँ पर कवि सम्मेलन हो अथवा मुशायरा उत्साही साहब की उपस्थिति पूरे जोशो खरोश  के साथ वहां रहती थी । 1976 में बेकल उत्साही साहब को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया और 1986-92 तक वे राज्य सभा में सांसद मनोनीत हुए। उन्होंने न केवल गज़लें लिखीं बल्कि हिन्दी गीत और दोहे लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण दिया। उन्होंने भाषा और विधा को भावनाओं के आदान-प्रदान में बाधक नहीं बनने दिया और शायद यही स्थिति किसी भी साहित्यकार को उसके कालजयी होने के लिए धरातल प्रदान करती है। उनके गीत जन भाषा में हैं। खड़ी बोली में लिखे गये ये गीत उर्दू और हिन्दी के बीच एक सन्धि स्थल का निर्माण करते हैं। उन्होंने कई बार कहा था - ‘मेरे सामने गज़ल है, मैं गीत लिख रहा हूँ। उनकी यह बात बरबस ही दिल में बैठजाती है कि -नज़्म के अंदाज़ में हुस्ने-गज़ल का बांकपन मिल गई हिन्दी के रस को फ़ारसी की चाशनी , दोस्त मेरे गीत का लहजा नईकविता के साथ मीर के अहसास में है फ़िक्र तुलसी दास की। 
 रचनाकर बेकल उत्साही की खूबसूरती यह है कि उनकी जितनी पकड़ उनकी ‘अरूज’ पर है, उससे ज़्यादा पकड़ ‘पिंगल शास्त्र पर है। इसलिए जिस अधिकार से वे गज़ल कहते हैं, उतने ही अधिकार से वे दोहे-गीत भी कहते हैं। उनके काव्य में धर्म, दर्शन , भक्ति, सामाजिक मूल्यों के दर्षन होते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि गज़ल का आरम्भ कबीर और तुलसी करते हैं, तो उसे सिद्ध करने के लिए उनके पास अकाट्य प्रमाण भी है। वे कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में जितने शब्दों का प्रयोग किया है, उतना तो दुनिया के किसी भी साहित्यकार ने नहीं किया। कबीर के दर्शन को वे अद्भुत मानते हैं।
‘बेकल’ साहब उत्साह से बताया करते थे कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-


गोरी तेरे गाँव में।
पीपल बरगद टहल रहे हैं।
मौसम बाँधे पाँव में।।



और



छत पर बैठी देर से
गोरी चोटी गूँथ रही है
गेंदा और कनेर से



वे कृष्ण को बहुत प्यार करते हैं, कहते हैं, कि कृष्ण बहुत नटखट हैं और वे सबको छेड़ते रहते हैं। एक रचनाकार के रूप में मैंने भी उनसे बहुत छेड़-छाड़ की है। उसी छेड़-छाड़ का एक नमूना यह है-



ऐसा दर्पन मुझे कन्हाई दे।
जिसमें मेरी कमी दिखाई दे।।
गति मिरी साँसों की ठहर जाए।
जब तिरी बाँसुरी सुनाई दे।।
श्याम मैं दूर रहके हूँ बीमार।
पास आकर मुझे दवाई दे।।
वस्त्र वापस दे साधनाओं के।
आस्था को न जग हँसाई दे।।
दे कलम अपनी बाँसुरी जैसी।
अपनी रंगत की रोशनाई दे।।
तूने माखन चुराये हैं छलिये।
दिल चुराने की मत सफ़ाई दे।।
दोस्ती का उधार है तुझ पर।
हक़ सुदामा का पाई-पाई दे।।


 भारतीय परम्परा के इस महान वाहक कवि गज़लकार बेकल उत्साही की एक गज़ल पेशे खिदमत है जो भारतीय आम आदमी की स्थिति-परिस्थिति को किस खूबसूरती के साथ बयान करती है-



अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम,
शहर जाकर मकान बोते हैं।।
धूप ही धूप जिनकी खेती थी,
अब वही सायाबान बोते हैं।।
कोंपलें दुश्मनी की सब्ज़ हुई,
दोस्ती मेह्रबान बोते हैं।।
तीर तरकाश से जब नहीं उगते,
लोग ज़द पर कमान बोते हैं।।
अब उजालों की चोटियों पे न जा,
तेरे साये ढलान बोते हैं।।
लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़,
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं।।
फ़स्ल तहसील काट लेते हैं,
हम मुसलसल लगान बोते हैं।।
रूत के आँसू ज़मीन पर बेकल।
इन दिनों आसमान बोते हैं।।

बेकल उत्साही  के भीतर एक पूरा भारतवर्ष बसता था और यही भाव उनको अन्य शायरों की तुलना में बहुत ऊँचाई प्रदान करता है।  कई बार ऐसे प्रसंग भी आये जब जायसी और तुलसी को याद कर उनकी आँखे भर आया करती थी। अवध का होना वह बहुत गर्व की बात मानते थे। राम का वंशज होने पर गर्व था उन्हें। समग्र भारतीयता के अद्भुत और प्रतिनिधि रचनाका को अपना भारत की जानिब से हार्दिक श्रध्धांजलि - 

मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम।
सांस उसके सीता बसे, रोम-रोम में राम।।
मैं खुसरों का वंश हूँ, हूँ अवधी का सन्त।
हिन्दी मिरी बहार है, उर्दू मिरी बसन्त।।
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात जब, आया मौसम सर्द।।
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।



और...........



ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!



अजब है आजकल की दोस्ती भीए दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!



तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!

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