सही इतिहास तो लिखना ही होगा

संजय तिवारी 

अध्यक्ष , भारत संस्कृति न्यास , नयी दिल्ली 
9450887186 

sanjay24.1967@gmail.com

भारत के वास्तविक इतिहास के साथ केवल खिलवाड़ हुआ है। तथ्यहीन आधार लेकर पिछले सत्तर सालो से देश और दुनिया को गुमराह किया गया है।  वास्तविक भारत और उसके वैभवशाली अतीत को सामने नहीं आने दिया गया।  इतिहास को अब वास्तविक रूप में लिखना ही होगा। जिस तरह से भारतीय प्राचीन प्रमाणों की अनदेखी कर यहाँ का इतिहास लिखा गया है उसे अब और इस रूप में नहीं छोड़ा जा सकता। इसी विंदु पर अखिलभारतीय इतिहास संकलन योजना और गोरखपुर विश्वविद्यालय के संयुक्त त्वावधान में तथागत की निर्वाण स्थली कुशीनगर में दो दिनों तक चले इतिहासकारो के चिंतन का यही सार उभर कर सामने आया है। भारत में इतिहास के पुनर्लेखन पर चर्चा तो इससे पहले भी होती रही है पर इस तरह नहीं। पहली बार इस विषय को इतना व्यापक आधार दिया गया जिसका प्रभाव आने वाले दिनों में जरूर दिखेगा। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. बालमुकुंद इसे बहुत ही ठोस और पहलकारी उपलब्धि मान रहे है। भारतीय इतिहास को लेकर दो दिनों तक हुए इस चिंतन मंथन में जो मुद्दे उभर कर सामने आये , प्रस्तुत है उनकी पड़ताल कराती यह रिपोर्ट - 

भारतीयों की मानसिकता ही समस्या 

वास्तव में  इतिहास लेखन में केवल कोई एक समस्या नहीं है। कई समस्याएं हैं, लेकिन उनमें भी भारतीयों की मानसिकता एक प्रमुख समस्या है। भारतीयों की मानसिकता में सुधार के लिए काम करना होगा। हम इतिहास के स्रोतों को इकठ्ठा करने के साथ इसे भी ठीक करेंगे। किसी भी संगठन में काम करने वालों में आत्मबल होता है। यह आत्मबल इतिहासकारों में होना जरुरी है। अच्छे लोगों को जोड़ना और तथ्यों को इकठ्ठा करना दोनों काम साथ-साथ करना पड़ेगा। लोगो से मिलना और उनकी जान भावनाओ को जाने बिना कोई इतिहासकार सही लेखन नहीं कर सकता है। राष्ट्र कोई भू खंड नहीं है। न ही देवताओं का पुरस्कार है। एक संस्कृति में जीने वाले लोगों से राष्ट्र का निर्माण होता है।

 हरी भाऊ भजे,

 मार्गदर्शक मंडल के सदस्य , 

 अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना,

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ   



पुनर्लेखन नहीं, इतिहास का सही लेखन 

 हम इतिहास के पुनर्लेखन की बात नहीं कर रहे , सही इतिहास लिखने की बात कर रहे है। बामपंथी इतिहासकारो को नेहरू के शासनकाल से राजनैतिक और बौद्धिक संरक्षण मिला, तभी से सरकारें बामपंथियों की आवाज सुनाती रही। बौद्धिक और राजनैतिक संरक्षण देती रहीं। पाठ्यक्रमों में इनके द्वारा लिखे गए इतिहास को ही शामिल किया जाता रहा। इन के कहने पर पाठ्यक्रमो से वैदिककालीन इतिहास को बाहर कर दिया गया। भारतीय ज्ञान से नौनिहालों को दूर रखने का कुचक्र रचा गया। लेकिन अब हम ऐसा नहीं होने देंगे। सरकार पर दबाव बना रहे हैं। हम इतिहास का पुनर्लेखन नही चाहते हैं, इतिहास का सही लेखन चाहते हैं। तथ्यों के आधार पर इतिहास का लेखन चाहते हैं। बामपंथियों की तरह हम व्याख्यान के आधार पर इतिहास लिखाकर हम खुद को सुरक्षित नही करना चाहते हैं। 1991 में रूस के विघटन के बाद बमपंथियो का पराभव शुरू हुआ है। बावजूद इसके उनके द्वारा तैयार पाठ्यक्रम ही नौनिहालों को पढ़ाया जा रहा है। इस वजह से भारतीय नौनिहाल अपने ज्ञान से अनभिज्ञ हैं। उन्हें वैदिक ज्ञान के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जबकि भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत रामायण और महाभारत हैं। ऋग्वेद 10 हजार साल पुराना है। लेकिन इसके बारे में लोगो को कम जानकारी है। कक्षा 10 से ही पढ़ाए जाने वाले इतिहास में वैदिक इतिहास का गायब हो जाना चिंताजनक है। यही वजह है कि अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना इतिहास के सही लेखन का प्रयास कर रहा है। कांग्रेस ने कभी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं की। 1920, 1928 और 1929 के कांगेस अधिवेशनों में भी स्वतंत्रता के मुद्दे पर कांग्रेस बँटी रही। 1937 में महात्मा गांधी को भी यह आभास हो चला था कि कांग्रेस स्वतंत्रता नही चाहती है। वे कांग्रेस में होने वाली लूट-खसोट के प्रति भी सतर्क थे। महात्मा गांधी ने इसका जिक्र अपने पत्रों में किया है। इन बातों पर गौर करने पर भी आपभी महसूस करेंगे की डोमिन स्टेट की मांग करने वाली कांग्रेस को इतिहास के सही लेखन की कभी जरुरत ही महसूस नहीं हुई।  कोर्ट ने भी राम को राष्ट्रीय पुरुष माना है। फिर बामपंथी विचारधारा को आप क्या कहेंगे? वे तो राम को मिथ सिद्ध करने पर लगे थे। भारतीय इतिहास का सही लेखन करते हुए पिछली गलतियों और उपलब्धियों दोनों को इतिहास में शामिल करना ही योजना का लरमुख लक्ष्य है।

 प्रो सतीशचंद मित्तल 

 इतिहासकार


राजा सुहेलदेव को जानें, बच्चों को भी पढ़ाएं 

महाराष्ट्र के मराठियों में जिस तरह का सम्मान शिवाजी के प्रति है, ठीक वैसी ही प्रतिष्ठा राजा सुहेलदेव को उत्तर भारतीयों द्वारा मिलना चाहिए। यहां के लोग इस बात विचार करें कि आखिर ऐसी कौन सी बात रही कि एक साथ 10 से अधिक राजा साथ आ गये। यह एकत्रीकरण कीं परिस्थितियों में हुआ? क्या ऐसा होना उत्तर भारत के इतिहास में एक अप्रत्याशित घटना नहीं थी। यह इसलिए हुआ कि इतिहास लिखने वालों की दृष्टि ठीक नही थी। कहा भी गया है कि जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। इतिहास लेखन में भी ठीक ऐसा ही हुआ। भारतीय विचारधारा विरोधियों ने भारतीय इतिहास लेखन से खिलवाड़ किया। यहाँ के एकात्म भाव को समझे बिना सतही ज्ञान को आधार बनाकर इतिहास लिख डाला। तत्व ज्ञान से अनजान तथाकथित इतिहासकारो ने मंदिर में।स्थापित मूर्तियों और चित्रों पर भी टिप्पणियां कीं। यहाँ तक कि जनमानस में प्रभाव वाले लोगो की बजाय उन लोगो या राजाओं को महत्वपूर्ण स्थान देने का काम किया, जिनकी पहचान सीमित दायरे में रही। कुशीनगर के पथिक निवास परिसर में होने वाला इस भारतीय इतिहास के स्रोत और इतिहास लेखन विषय पर होने वाले आयोजन को भी विवादित बनाया जायेगा। लेकिन इससे घबराने की जरुरत नही है। तुलसीदास के काल में राज करने वाले अकबर को महत्त्व देने वाले क्या यह बताएंगे कि जनमानस में कौन प्रतिष्ठित रहा?

मधु भाई कुलकर्णी ,

 मार्गदर्शक , अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना,

 राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य,  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ



 इतिहास लेखन में समग्र भाव का होना जरूरी 

भारतीय लेखन में समग्र भाव को अपनाना होगा। अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति का अंग रही इतिहास लेखन नीति में लिखे गए इतिहास में सुधार जरुरी है। इसे तथ्यों के आधार पर अध्ययन करने वाला इतिहासकारों का समूह कर सकता है। इस ढांचा को तैयार करने में किसी भाषा की जरुरत नहीं है, आत्मबल और संपर्क के आधार पर जुटाये गए तथ्यों से ही यह संभव है। नया ढांचा तैयार करने की बजाय हमें वर्तमान ढांचा में शामिल होकर काउंटर नैरेटिव करना होगा। इसके लिए विकल्पों की तलाश नहीं करनी है। जब हम इस काम को ओर कर लेंगे तो एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचेगे। शोध कार्य पूरा होगा और तब उसे पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा सकेगा। अंग्रेजीकाल में लिखा गया भारतीय इतिहास खंडित दृष्टिकोण से लिखा गया है। भारत को एक राष्ट्र नहीं माना गया। यही वजह है कि अंग्रेजों ने भारत को मध्य, पूर्वी, दक्षिण और पश्चिमी भारत की कल्पना की। वन में निवास करने वाले भारतीयों को गन्दा बताते हुए उन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग कर दिया। अंग्रेजों के समय के इतिहासकारों ने खंडित दृष्टि अपनायी। भारतीय इतिहास का खंडित लेखन किया। भारत-नेपाल दो कैसे हुए, वर्मा कब अलग जाना जाने लगा, यह विचारणीय है। भारत एक देश था और आज भी है। यहाँ की संस्कृतियां सामान हैं। मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र कब एवं क्यों अलग-अलग जाने जाने लगे? कभी हम भारतीयों ने विचार ही नहीं किया। भारतीय इतिहास का खंडित स्वरूप स्थापित करने वालों ने खंडित दृष्टि से इतिहास का लेखन किया। अंग्रेजी शासनकाल के इतिहासकारों ने भारतीय समाज की एकता को खंडित करने के लिए एक कुचक्र रचा। उसे अर्जित करने के लिए साधना की। कश्मीर क्षेत्र की भोटी भाषा में 14000 पांडुलिपियां हैं। इसे जाने बिना हम वहाँ के इतिहास के बारे में नहीं लिख सकते हैं। यहाँ की गौरवशाली इतिहास लेखन के लिए यायावर प्रवृत्ति अपनाते हुए पांडुलिपियों को जानना होगा। एक भारतीय नेरेटिव तैयार करने को समग्र दृष्टि का होना जरुरी है। हमें मूल को स्थापित करना होगा। सकारात्मक दृष्टि के लिए स्वान्तः सुखाय की भावना से सर्वे भवन्तु सुखिनः के लिए काम करना होगा। तात्कालिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम नहीं किया जा सकता है। एक साधन के साथ काम करने से ही भारतीय इतिहास में सुधार जरुरी है।

डॉक्टर अरुण कुमार,

आरएसएस के प्रचारक 





 दो हजार ईसा पूर्व की नगरी अयोध्या

 भगवान राम की नगरी अयोध्या दो हजार ईसा पूर्व की नगरी है जब कि कुछ इतिहासकार इसे 800 ईसा पूर्व का बताते है। अयोध्या के अगल-बगल स्थित डीह परंपरा के स्थलों के उत्खनन से यह सिद्ध होती है। पर यह भी निश्चित नही है। यदि सही व सटीक अध्ययन हो तो यह समय और पूर्व भी जा सकता है। सोहगौरा में मिले तामपत्र दो हजार ईसा पूर्व का है तो अयोध्या नगरी 800 ईसा पूर्व की कैसे हो सकती है। संतुलित इतिहास लेखन में पंरपरा का भी योगदान होता है। अयोध्या के मामले मंें डीह स्थलों के उत्खनन से यह बात सही साबित हुई। पुरातत्व के श्रोत को समझने के लिए प्राचीन साहित्य, पंरपरा व सम्यक दृष्टि के बिना निष्कर्ष पर नही पहुंचा जा सकता। वर्तमान समय में 700-800 ईसा पूर्व की धारणा को समाप्त करने की जरूरत है। अब इतिहास लेखन 1000-2000 ईसा पूर्व के कालक्रम में करने की आवश्यक्ता है। 

डाॅ0 राकेश तिवारी
महानिदेशक
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण




आर्य आये नहीं , भारत से बाहर गए 

 देश का साहित्यकार इतिहास का ज्ञान कराता है। हमारे युवा साहित्यकार भारत का वास्तविक इतिहास बता रहे हैं। वे प्रमाणिक तौर पर सिद्ध कर रहे हैं कि गंगा घाटी में 200 वर्ष ईसा पूर्व में मानवों की बस्तियां स्थापित रहीं। यहीं से भारतीय पूर्व दिशा में गए थे। फिर अफगानिस्तान आदि स्थानों के लोगों ने अपनी बस्तियों का वर्गीकरण किया। ऐसा करने के पीछे उन्हें लगने वाला खतरा रहा होगा कि पूर्व से आये लोग उन पर आकमण न कर दें। भारत में आर्य बाहर से नहीं आए, बल्कि भारत के बाहर गये। आर्य कोई जाति नहीं बल्कि श्रेष्ठ लोग थे। रामायण व महाभारत हमारे इतिहास के श्रोत हैं। प्रकृति तथा दूसरे के साथ मित्रवत व्यवहार करना जरूरी है। यह ज्ञान हमें ग्रंथों से मिलता हैं। वेे जीवन के अनुभव को हमें सिखाते हैं। तत्कालीन शिक्षा पद्धति से हम अपने पुराने व वास्तविक इतिहास को भूल रहे हैं। हमारे अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना वास्तविक सत्य की खोज कर रहा है। हम ऐसा कुछ भी नहीं लिखेंगे जिसका प्रमाण न हो। जब कुन्ती वानप्रस्थ में थी और वेदव्यास वहां गये तो उन्होंने कुन्ती के विवाह पूर्व पुत्र के बारे में जाना। अर्थात् इतिहास लिखते समय कुछ नहीं छिपाना चाहिए। इतिहासकार को सभी तथ्य देेने चाहिए। इसलिए हमारा मूल ध्येय वाक्य है- ‘‘न मूलम् लिख्यत् किचिंत’’।  

प्रो. यल्लाप्रगदा सुदर्शन राव
वरिष्ठ इतिहासकार 




बॉक्स 

नेहरू-गांधी परिवार की फाइल खोलें मोदी- प्रो. सतीशचंद मित्तल

 अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना नई दिल्ली के अध्यक्ष प्रो. सतीशचंद मित्तल ने कहा है कि कांग्रेस की सरकारेें आजादी के बाद से देश के इतिहास से जुड़ी 28295 रिपोर्ट को दबाकर बैठी रही। इनमे से मात्र दो रिपोर्ट जारी की गई। मोदी सरकार को इन सभी रिपोर्ट को खोलनी चाहिए ताकि देश के इतिहास व नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ा सच देश के समक्ष उजागर हो सके।
प्रो. मित्तल ने शनिवार को कुशीनगर में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना दिल्ली व गोरखपुर विश्वविद्यालय के संयोजकतत्व में आयोजित भारतीय इतिहास के श्रोत व इतिहास लेखन विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में अध्यक्षीय उद्बोधन के दौरान उक्त बात कही। प्रो. मित्तल ने कहा कि रिपोर्ट का खुलना मानवधिकार का मामला है। कम से कम एक रिपोर्ट तो हर साल खुलनी चाहिए। प्रो. मित्तल ने कहा कि चीन व अमेरिका ने जिन रिपोर्ट को खोल दिया व भारत में टाप सीक्रेट बनी हुई है। देश को विदेशी रिपोर्ट की जरूरत नही है। तथ्यों को सामने लाने के लिए सभी को मिलकर जद्दोजहद करना होगा। प्रो. मित्तल ने कहा कि इतिहास में परिवर्तन व सत्य की सीढ़ी चढ़ने के लिए इतिहास लिखने वालों का पूर्वाग्रह जानना जरूरी है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने इतिहास लिखने में हमेशा दोहरा मापदंड अपनाया है। संस्कृत व पुराणों को लेकर ब्रिटिश इतिहासकारों का पूर्वाग्रह दिखता है।
प्रो. मित्तल ने कहा कि  ऐसे इतिहासकारों को ब्रिटेन सरकार ने पुरस्कार व पदवी से नवाजा। इन इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति व सभ्यता के इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुतीकरण किया। मुस्लिम इतिहाकारों ने भी अंग्रेज इतिहासकारों के इस अभियान को जारी रखा।

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