चौथी बार होता है प्यार 


प्यार कभी भी अचानक ही नहीं हो जाता। प्यार से पहले मन और मष्तिष्क बाकायदा संवाद करते है और जब निष्कर्ष पर पहुच जाते है तब अनुमति देते है।  इस निष्कर्ष तक पहुचने में चार सोपान लगते है। ऐसा नए शोध बता रहे है। 

आपने कई बार फिल्मों में या लोगों से कहते सुना होगा कि “पहली नजर का प्यार सच्चा होता है”। आपके कई फ्रेंड्स अपने पहली नजर वाले प्यार के बारे में अनुभव भी शेयर करते होंगे। लेकिन क्या वाकई पहली बार किसी को देखकर प्यार हो जाता है? पहली बार या एक ही बार किसी को देखकर प्यार हो जाना क्या सच्चाई है या काल्पनिक?

हाल ही में हुआ एक शोध तो यह कहता है कि पहली बार में प्यार होना नामुमकिन है। एक ही नजर में देखकर किसी से प्यार नहीं होता, बल्कि उसी इंसान को जब हम चौथी बार देखते हैं तो हमें उससे प्यार हो जाता है।

यह शोध अमरीका के एक कॉलेज में हुआ है, जहां के शोधकर्ताओं का यह कहना है कि भले ही पहली बार में किसी को देखकर हम जरूरत से ज्यादा उसकी ओर खिंचे चले जाते हैं। लेकिन फिर भी यह पहली नजर का प्यार नहीं, बल्कि मात्र एक आकर्षण ही है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि पहली ही नजर में आप उस व्यक्ति की ओर आकर्षित तो होते हैं, लेकिन आपका दिल प्यार जैसे एहसास तक पहुंच नहीं पाता है।

जब तक आप उन्हें चौथी बार मिलते हैं और तब भी आपकी वही फीलिंग होगी तो आप उनके साथ प्यार में पड़ जाएंगे।

लेकिन दूसरी ओर अगर चौथी बार मिलने तक आपकी फीलिंग कुछ कम हो जाती है या बदल जाती है, तो प्यार होना मुमकिन नहीं है। फिर आप आकर्षण के उस चरण से भी बाहर आ जाएंगे।

तो इसका मतलब यह हुआ कि अगर आपको अपने पहली बार वाले प्यार से वाकई प्यार करना है तो उनसे 3 बार और मिलना होगा !


जानिये , कैसा है आप का दिमाग 

मन की पूरी अवधारणा इसके चार कार्यों पर आधारित होती है और वह है मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ये चारों कार्य मन को समझ और चेतना प्रदान करते हैं। इसके अलावा मन हमेशा से कल्पना करने वाला, तर्कसंगत, भावुक और मनोवैज्ञानिक रहा है।

मस्तिष्क या मन के चार प्रकार

1. सक्रिय दिमाग: योग कहता है कि पहले प्रकार का मन ‘क्रियाशील’ है जबकि मनोवैज्ञानिक इसे सक्रिय मन कहते हैं। क्रियाशील मन सक्रिय और बहिर्मुखी होता है। एक गतिशील मन बड़ी मुश्किल से खुद को शांत या स्थिर रख पाता है। बच्चों का मन गतिशील होता है। उनका मन बंटा हुआ या अलग-अलग दिशाओं में सोचने वाला नहीं होता है। लेकिन भटका हुआ मन या हर समय बदलने वाला मन गतिशील या सक्रिय मन से अलग होता है। सक्रिय मन अगर एक विषय पर अपना ध्यान केंद्रित कर ले तो वो चेतनात्मक या अचेतनीय रूप से उसी का अनुसरण करता रहता है। वयस्कों में जब सक्रिय मन प्रबल होता है तो वह व्यक्ति बहिर्मुखी स्वभाव का होता है और परिवार, समाज और पेशेवर लोगों के साथ अधिक मिलनसार हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हर उस काम में रूचि दिखाते हैं जो समाज और दूसरे लोगों को उसके करीब लाएगी। सक्रिय मस्तिष्क वाला व्यक्ति बहुत ही सामाजिक और व्यवहारिक होता है।

2. सचेत या तार्किक दिमाग: दूसरे प्रकार का दिमाग बुद्धिजीवी मन है जिसे मनोवैज्ञानिक बौद्धिक, तार्किक, सचेत, गणितज्ञ और वैज्ञानिक दिमाग भी कहते हैं। इस तरह का दिमाग ऐसे लोगों में प्रबल होता है जो खोज या जांच करते हैं, सिद्धांतो को जन्म देते हैं या सूत्रों को विकसित करते हैं। ऐसा दिमाग वैज्ञानिकों का होता है। दार्शनिकों और ज्ञानी लोगों का दिमाग भी बौद्धिक होता है। जब बुद्धिजीवियों के लिए बाहर के वातावरण से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है। ऐसे लोग एकांत में रहना पसंद करते हैं। वो सोचना, विश्लेषण करना और समस्याओं का हल ढ़ूंढ़ना पसंद करते हैं।

3. भावुक मन: तीसरे प्रकार का मन भाविक मन होता है जिसमें भाव, भावनाएं, संवेदनाएं और मानसिक व्यवहार प्रबल होते हैं। ऐसे लोग काफी संवेदनशील होते हैं। वो दर्द और चोट का अनुभव आसानी से कर पाते हैं, लेकिन इस कारण वो दुख या निराशाजनक अवस्था में भी आसानी से चले जाते हैं। वो इतने भावुक होते हैं कि आसानी से जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं कर पाते। इस तरह के व्यक्तित्व वाले लोग कभी-कभी दिव्यता या किसी शक्ति से जोड़ने के लिए खुद को प्रेरित करते हैं। ऐसे लोग किसी संन्यासी, पादरी या नन का अनुसरण करते हैं और उनके भक्त कहलाते हैं। यह दुनिया ऐसे लोगों के लिए अतार्किक होती है और वो केवल खुद को किसी दिव्यता से ही तार्किक रूप से जोड़ पाते हैं। यह एक ऐसा जोड़ होता है जिसमें वो खुशी तलाश पाते हैं। अगर ऐसे लोग दुनिया से जुड़ते हैं तो उनका अनुभव काफी दर्दभरा होता है। वो दुनिया को एक विनाशकारी अनुभव के तौर पर देखते हैं जिसमें सिर्फ पीड़ा का वास है।

4. मनोवैज्ञानिक दिमाग: चौथे प्रकार का यह दिमाग अंर्तजागृतिमन या मनोवैज्ञानिक है। इस प्रकार के दिमाग में बाह्य वातावरण के बजाय आंतरिक प्रक्रिया में मन, मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार अधिक जागृत रहती हैं। वो लोग जो ऐसे दिमाग के साथ जन्में होते हैं, वो सामान्यत: योगी बन जाते हैं और खुद को उच्च रहस्यवादी और आध्यात्मिक अभ्यास में व्यस्त रखते हैं। आध्यात्मिकता उनके जीवन का आधार बन जाता है।



विश्व परिवार बनाती है गीता 
     स्वर के विकृत होने पर गीत से भी रोने की भासना आती है। गीता के सर्वोच्च ज्ञान को जीवन में उतार न पाने से मानवता भी पतित-भिखारी बन गयी है। संगीतमय जीवन बनाना ही गीता ज्ञान की विशेषता है। ऐसे जीवन के बल पर ही भारतमाता देवभूमि कहलाती थी। सर्वशास्त्र शिरोमणि गीता को हिंसा की प्रेरक मान लेने से चहुं ओर भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है। ऐसे विघटन-विनाश के वातावरण में शिव भगवान पुनः अवतरित हो सच्चे गीता ज्ञान के द्वारा गीता-संगीतमय जीवन बना रहे हैं, दिलों के सम्राट सभी को सभ्य बनाने के लिये संस्कृत जैसी कठिन भाषा का प्रयोग क्यों करेंगे ? निराकार भगवान अनुभवी ब्रह्मा तन में प्रवेश कर ऐसे ज्ञानमय गीत सुनाते जिसे संसार के हरेक नर-नारी आत्मसात कर सकते है।स्वर्ग बनाने चाले उनके श्री वचनों को आज दुनियाँ में गीता नाम से एकत्र किया गया है। ये ज्ञान गीत श्लोक, कविताओं की तरह गाने के ही लिये नहीं पर जीवन में धारण कर बहुमूल्य बनने के लिये हैं। गीता संगीतमय दिनचर्या की कथा है।

     ज्ञान की पराकाष्ठा के कारण ही गीता को सर्वशास्त्र शिरोमणि कहा गया है। गीता शब्द ग+ई+त+आ से बना है। इसका ‘ग’ जीवन को गायन पूजन योग्य बनाना सिखाता है। ऐसे सुयश को पाने के लिये ‘ई’ ईश्वरीय स्मृति में टिकाता है। ‘त’ अक्षर  गृहस्थ में भी त्याग-तपोमय जीवन बना कर कमल समान उपरामता लाता है। साधनों से आसक्ति हटाकर साधनामय तृप्ति देता है। जबकि गीता का ‘आ’ आनन्द परमानन्दमय जीवन के लिये दिव्यता से अलंकृत करता है। गीता ज्ञान सें जब हम कार्य-व्यवहार व सम्बन्ध-समाज में रहते हुये ईश्वरीय लगन में मगन रहने लगते तो सर्वगुण सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी, अहिंसा परमोधर्म वाले देवी-देवता समान

16 कला अवतार बन सकते हैं। जैसे बैटरी से कोई भी कार्य लिया जाता तो डिसचार्ज होती है पर पॉवर हाउस से जोड़ते ही चार्ज होने लगती है। वैसे ही तमोप्रधानता के कारण आज सभी आत्मायें गुण व शक्तिहीन हो ‘मै मूरख-खल कामी’ कहती रहती हैं। सर्वशक्तिवान निराकार शिव भगवान से गीता ज्ञान के अनुसार सर्वसम्बन्ध जोड़ते रहने पर वे ही मालामाल-खुशहाल बन नर से श्री नारायण व नारी से श्रीलक्ष्मी समान बनने की अधिकारी बन जाती है। गीता ज्ञान आसुरी संस्कारों को मार भगाता, ना कि हिंसक हथियार उठवाता है। सत्ज्ञान से देवी-देवताओं की तरह अंग-अंग कमल समान शीतल-सुखदायी बन जाते, न कि धनुष-बाण की तरह बार करने के लिये धात-प्रतिधात को उद्यत रहते हैं। सभी कर्म इन्द्रियाँ गीता ज्ञान से कर्मचारी की तरह चलती हैं। आत्मा राजा को राजसिंहासन पर बैठने लायक राजयोगी बना कर विश्व परिवार वाली वृत्तियों से भर देती हैं क्योकि हम निराकार आत्मायें एक ही परमधाम की रहने वाली हैं एक परमपिता की ही सन्तानें भी हैं।

     गीता में हिंसक हथियारों वाले योद्धाओं को दर्शा कर टीकाकारों ने उसके परमानन्दमय (आध्यात्मिक) सृजन को ही रोक दिया है। गीता के पहले अध्याय का पहला ही श्लोक गृहस्थ रूपी कर्मक्षेत्र पर धर्ममय कर्म करने के लिये प्रेरित करता है। परन्तु कुरुक्षेत्र के लड़ाई वाले मैदान में पारिवारिक बंटवारों के लिये धर्मयुद्ध खड़ा कर द्रोणाचार्य-कृपाचार्य जैसे संतों के हाथों में भी हथियार पकड़ा दिया गया है। इससे परम प्रकाशमय सर्वआत्माओं के परमपिता परमात्मा से परमसुख मिलने की बजाय सारे संसार में ही भय-क्रोध, आतंक-असुरक्षा, अधर्म एवं अज्ञानता का अंधकार और ही गहराता जा रहा है। अट्ठारह अध्याय -नष्टोमोहा-स्मृति स्वरूप’ बन कर परम पद पाने के लिये लिखे गये हैं। पर सुख-शान्तिमय वातावरण की बजाय लोग लाठी-तलवार, बंदूक, त्रिशूल ले बम-बम भोले कहने में ही गीता का अनुसरण समझते हैं। गीता ज्ञान तो संसार में स्वर्ग उतारने व भाईचारा बढ़ाने के लिये परम प्रेरणास्रोत हैं। ऐसा पुनीत ग्रन्थ अराजकता क्यों फैलायेगा ?  

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