कला , साहित्य ,संस्कृति और संवाद
लोकमंथन भोपाल
संजय तिवारी
मध्यप्रदेश विधानसभा प्रांगण में तीन दिवसीय लोक मंथन कार्यक्रम का उद्घाटन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और विधानसभा अध्यक्ष सीताशरण शर्मा ने किया इस मौके पर सीएम शिवराज सिंह चौहान ने सपत्निक देव उठनी एकादशी पर तुलसी विवाह में शामिल होकर पूरे पारंपरिक अंदाज में भक्ति भाव के साथ पूजा अर्चना की। तीन दिवसीय कार्यक्रम में कला और साहित्य जगत की हस्तियो ने खूब विचार मंथन किया। इसी के साथ ही यहां पर प्रदेश की विविध संस्कृति को दिखाती प्रदर्शनी भी लगाई गई जो अपने अंदर प्रदेश की पारंपरिकता को अपने अंदर समेटे हुई हुए थी। यहां लोगों के मनोरंजन के लिए कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां भी की गयी। लोक मंथन का शुभारंभ करते हुए सीएम शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि तीन दिवसीय इस मंथन कार्यक्रम में कला और साहित्य जगत की हस्तियां विचार मंथन करेंगी और इस मंथन से जो अमृत निकलेगा वो प्रदेश और देश के विकास के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा |
राजधानी भोपाल स्थित विधानसभा भवन में चल रहे लोक-मंथन के दूसरे दिन रविवार को “नव-उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीयता’’ विषय पर आयोजित सामूहिक सत्र को संबोधित करते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि भारत की माटी और संस्कृति में उदारीकरण और भूमंडलीकरण है। राष्ट्रीयता और उदारीकरण एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक ही है। भारत में हजारों वर्ष पहले “वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की बात कही गयी है। यह उदारीकरण ही है। भारत में हमेशा विचारों की स्वतंत्रता रही है। पश्चिम में राजतंत्र के बाद स्वतंत्रता और समानता के उद्देश्य को लेकर प्रजातंत्र का जन्म हुआ। औद्योगिक क्रांति के बाद शोषण के विरूद्ध सर्वहारा के लिये साम्यवाद का जन्म हुआ। साम्यवाद और इसके बाद पूँजीवाद में भी मनुष्य का सुख संभव नहीं हो पाया। मनुष्य के लिये शरीर के साथ मन, बुद्धि और आत्मा का सुख भी जरूरी है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष और पुरूषार्थ के माध्यम से जीवन संचालन की व्यवस्था की गयी है। मनुष्य केवल व्यक्ति नहीं समाज भी है इसलिये समाज के सुख पर भी विचार करना होगा। भारतीय दर्शन का मूल है कि एक ही चेतना सर्वव्याप्त है। प्रकृति का शोषण नहीं बल्कि दोहन करना चाहिये। विश्व को यही सनातन विचार राह दिखा सकता है। श्री चौहान ने कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानव-दर्शन’ का विचार दिया, जो भारतीय परंपरा पर आधारित है। उन्होंने कहा कि जीवन में अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए और अर्थ का प्रभाव भी नहीं होना चाहिए। उन्होंने केन्द्र सरकार के निर्णय का जिक्र करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 500 और 1000 के नोट बंद करके अर्थ का प्रभाव समाप्त कर दिया है। इस निर्णय से काला धन, फर्जी मुद्रा और आतंकवाद की फंडिंग समाप्त हो जाएगी।
कार्यक्रम में नीति आयोग के सदस्य डॉ. विवेक देबोराय ने राष्ट्रीयता के परिपेक्ष्य में स्वामी विवेकानंद का उदाहरण देते हुए कहा कि भारत की जनता मोक्ष पर विश्वास करती है। सत् चित् आनंद में विश्वास करती है। यदि मुझे भारत पर गर्व नहीं है तो इसका अर्थ है कि मुझे स्वयं पर भी गर्व नहीं है। ग्लोबलाईजेशन के नाम पर हमारी हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। हम अपनी संस्कृति और परंपरा को भी नहीं जानते। हमारे पैंतीस हजार शास्त्रों में से उन्नीस हजार का अनुवाद भी नहीं हुआ है।
भारतीय आर्थिक चिंतन का आधार संतुलन
भारतीय संस्कृति में अर्थ चिंतन का आधार अथार्याम अर्थात संतुलन है। जरूरत से ज्यादा भी नहीं और आवश्यकता से कम भी नहीं। भारत की राष्ट्रीयता ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की पोषक है, जबकि वैश्वीकरण केवल आर्थिक चिंतन है। दोनों में भेद तो है किन्तु समन्वय की जरूरत भी है। कहा जा रहा है कि वैश्वीकरण गरीब और गरीब देशों के लिए नहीं है। इसके मूल में भी पश्चिमी चिंतन है कि चेतन अचेतन का शोषण कर सकता है। भारतीय संस्कृति में अर्थ चिंतन का आधार अथार्याम है अर्थात संतुलन। जरूरत से ज्यादा भी नहीं और आवश्यकता से कम भी नहीं।“पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हम पर भी हो रहा है। परिवार हमारी मूल संस्था है, इसका टूटना विश्व का टूटना है। समृद्धि से शांति नहीं मिलती, इसका संतुलन भारत से समझना होगा। पश्चिम को केवल बाजार चाहिए। हमें परिवार भी चाहिए, बाजार भी चाहिए।”
डॉ. मुरली मनोहर जोशी
पूर्व केन्द्रीय मंत्री
राष्ट्रीय अस्मिता एवं अन्य पहचानों का समायोजन
दलित अब मांगने वाला नहीं देने वाला बन रहा है। हमारे संगठन का ध्येय सवा लाख नए उद्यमी खड़े करने का है। इसके लिए हमें समूचे समाज का सहयोग चाहिए। डा. बाबा साहेब आंबेडकर ने विषमता के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इस तरह के संघर्ष हुए हैं। साउथ अफ्रीका और अमरीका में हुए संघर्षों ने अश्वेतों को नया रास्ता दिखाया। मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मंडेला जैसे नायक हमें रास्ता दिखाते हैं।हर समुदाय की अपनी विशेषताएँ और सपने होते हैं। भारत के संदर्भ में हमने खुद को साबित किया है। भारत के विकास में दलित और आदिवासी समुदाय ने बहुत योगदान दिया है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दलितों की समस्याओं को सही संदर्भ में पहचाना है और वे उनके आर्थिक उन्नयन के लिए नई-नई योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान दे रहे हैं। देश में आज लगभग 19 करोड़ दलित और आदिवासी नौजवान हैं, जो 18 से 35 वर्ष की आयु के हैं। इस युवा पीढ़ी के सपने और आकांक्षाएँ बहुत अलग हैं। दलित समाज के बौद्धिक इसे नहीं समझ पा रहे हैं, जबकि युवाओं को पता है समन्वय से ही विकास संभव है। बाबा साहेब आंबेडकर ने हमें आर्थिक सशक्तीकरण का रास्ता दिखाया। बाबा साहेब का कहना था कि हर दस साल में करेंसी बदल दी जाए। मोदीजी ने उनके विचारों का आदर करते हुए 500 और 1000 के नोट बदलने का फैसला लिया है।
श्री मिलिंद कांबले
इस विमर्श सत्र में तारेक फतेह का भाषण सुनकर पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम की याद आ गयी। डा. कलाम कहते थे मैं रामेश्वरम् का हूँ और मेरा पूरा परिवार राम को अपना पूर्वज मानता है। एक तरफ ऐसे विचारक हैं जिन्हें भारत की परंपरा पर गर्व है तो दूसरी ओर ऐसे विचारक भी हैं जो देश तोड़कों को नायक के रूप में स्थापित कर रहे हैं। हमें किसी विचार और पंथ को स्वीकार करने में संकट नहीं है। हमारी संस्कृति ही समावेशी है। हम किसी पर कोई शर्त नहीं थोपते। हम सिर्फ यही चाहते हैं कि यहाँ पर रहने वाला हर नागरिक कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक इस देश की माटी के प्रति प्रतिबद्ध रहे। भारतीयता पर श्रद्धा ही एकात्मता का निर्माण करेगी। भारत को नेतृत्व की भूमिका में लाने की शर्त है कि हम हमारी संस्कृति और सभ्यता का सम्मान करें।
प्रो. अशोक मोडक
सत्र के अध्यक्ष विचारक और राजनीति विज्ञानी
पहला सवाल यह कि हम कौन है। हम में से हर एक की आँख, अंगूठा निशान अलग-अलग है। यही दुनिया में वजूद की कीमत है। इसके इर्द-गिर्द ही समाज बनता है। ये दरिया, ये पहाड़, ये जमीन और उसमें रहने वाली हमारी सभ्यता हमने नहीं बनाई, हमें विरासत में मिली है। हमें हमारे दोस्त और दुश्मन की पहचान होना चाहिए। जब तक आप इसे नहीं समझोगे पठानकोट होते रहेंगे। अपनी कमजोरियों को भी जानिए। स्वीडन हो या कनाडा या अन्य पश्चिमी देश वहाँ गरीब-अमीर का भेद नहीं होता। आप ड्रायवर के साथ बैठकर तो देखिए। आप मर्सिडीज़ में पीछे घटिया सीट पर फक्र के साथ बैठते हैं और वह शहंशाह की तरह आगे बैठकर गाड़ी चलाता है। आप उसके साथ नहीं बैठते। इस कमजोरी को दूर करना पहले जरूरी है। जब जर्मनी में रहने वाला जर्मन, रूस में रहने वाला रसियन, चीन में रहने वाला चीनी, जपान में रहने वाला जापानी तो हिन्दुस्थान में रहने वाला हिन्दू नहीं तो क्या? यह हिन्दुस्थान ही है जिसने ईरान से आए पारसी, फारस से आए दाउदी बोहरा, फिलिस्तीन से आये यहूदी, सबको अपने में समेटा। आप समझ लें कि जब तक पाकिस्तान मौजूद है अमन नसीब नहीं होगा। बलूचों की मदद के लिए खड़े हुए हैं प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी। बगैर दुश्मनी किए यह साफ समझ लें कि अपनी पहचान पर हमला करने वाले की इज्जत नहीं करना।
तारेक फतेह
प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार
समझना ही आधुनिकता है
आधुनिकता और अधुनिकीकरण में फर्क करना सीखना होगा। उन्होंने कहा कि पाश्चात्य विचारों में शक्ति,सफलता एवं धन संग्रह पर जोर है। वहाँ उपभोग और प्रतिस्पर्धा पर बल दिया जाता है। भारतीय परम्परा के केन्द्र-बिंदु में परिवार, सम्मान और सहयोग है। आधुनिकता का मतलब सभी के विचार-बिंदुओं को समझना है। हमारी भारतीय परम्परा जीवन जीने का तरीका सिखाती है। दूसरी ओर पाश्चात्य विचार जीवन-शैली पर ध्यान देते हैं। आधुनिकता तो हमेशा परम्परा से ही आती है, क्योंकि उसमें समस्याओं का उत्तर देने की क्षमता होती है। हिन्दुस्तान अपनी जीवन-शैली कभी नहीं भूलेगा। परम्परा और आधुनिकता जल की धारा की तरह है। इसमें अंतर करना मुश्किल है। यह तो केवल प्रतीकात्मक है। संस्कार मजबूत होने से संस्कृति भी मजबूत होती है।
श्रीमती स्मृति ईरानी
केन्द्रीय कपड़ा मंत्री
परम्परा का आधुनिकता से बैर नहीं
आधुनिकता की विडंबना है कि आज इसे जीवन-शैली से मिला दिया गया है। आज इसे आप हर आयु में देख सकते हैं। यह छोटा- बड़ा हर प्रकार का है। हर कोई इसे अपने तरीके से परिभाषित करता है और इस पर अपना निर्णय देता है। आधुनिकता को जीवन-शैली से मिला देने पर गंभीर और चिंताजनक परिणाम आए हैं। कोई इस आधुनिकता को बोल-चाल और पहनावे से परिभाषित करता है तो कोई इसमें मूल्य और दर्शन को महत्व देता है। आधुनिकता दर-असल एक पैराडाइम शिफ्ट है जो हमारे दिमाग की प्रगति से जुड़ा है और युग के अनुसार बदलता रहता है। आधुनिकता का क्षेत्र व्यापक है यह तकनीक, कला और शिक्षा हर चीज़ से जुड़ा है। इसने हमें अमानवीय भी बनाया है कुछ-कुछ मशीन की तरह। मैं इसकी आलोचना नहीं कर रही पर हम में से हर किसी को, परम्परा को अस्वीकार करने से पहले यह पूछना चाहिए कि हम इसे क्यों अस्वीकार कर रहे हैं ? परम्परा और अधुनिकता एक सतत् प्रक्रिया है। आधुनिकता और जीवन-शैली के प्रति हमें सही समझ विकसित करनी होगी। इससे हमारे संबंधों की समझ भी विकसित होगी। ऐसा विवेक और प्रेरणा हम कालातीत वेदों से ही प्राप्त कर सकते हैं। यह हमारे स्वास्थ्य और समृद्धि को भी बढ़ाने वाला है। आधुनिकता के छलावे से लड़ना आज एक चुनौती है। इसे आपसी मतभेदों से नहीं वरन् अपनी संस्कृति, मूल्यों और आर्दशों की सही समझ से विकसित करना होगा। हमारे मूल्य तब से लेकर आज तक विकसित ही हो रहे हैं।
सुश्री अद्वैता काला
हमारी सभ्यता आधुनिकता से भी संवाद करती है
परम्परा और जीवन-शैली हमारी चितंन प्रक्रिया को प्रभावित करती है। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने हमारे भीतर इच्छा और महत्वाकांक्षा को जगाया। इससे एक पौलिटिकल हैजीमनी बनता है, जिससे परम्परा क्षतिग्रस्त होती है और हमारी विश्व दृष्टि जड़विहीन हो जाती है। आधुनिकता मतलब पाश्चात्यकरण नहीं है। यह बात वर्ष 1965 में ही पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कही थी। मैकाले का एक ही मकसद था भारतीयों को उनकी जड़ों से काट देना। अरबिंदो ने भी इस बात पर जोर दिया है कि हम किसी भी बाहरी विचार को अपनी शर्तों पर स्वीकार करें। हमारी आधुनिकता ऐसी होनी चाहिए, जो जीवन-शैली से मेल खाती हो। हमें हर हाल में भारतीयता को सुरक्षित रखना है।
डॉ. अनिर्बान गांगुली
प्रेम और आनंद से होता है देश-समाज का निर्माण
प्रेम और आनंद जीवन के दो पहिए हैं। इनसे समाज और देश का निर्माण होता है। भारत के ऋषि-मुनि तथा गुरुओं ने जो दृष्टांत हमें दिए उनमें उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि यह उनकी उक्ति है बल्कि उन्होंने हमेशा अपने दृष्टांत में कोट किया कि ऐसा उन्होंने सुना है। समाज की रीतियों, परंपराओं को ऋषियों ने आगे बढ़ाया है। वर्तमान दौर में हम सामाजिक कुरीति के रूप में स्त्री और पुरूष में बढ़ते हुए भेद को पाते हैं। इस भेदभाव के कारण कला, संस्कृति सहित अन्य क्षेत्रों में कार्य करने वाली महिला विदुषियों को वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जिसकी वह हकदार हैं। उन्होंने कहा कि हमें स्त्री-पुरूष के बीच के भेद को खत्म करना होगा। तभी हम समानता की बात कह सकेंगें। नृत्य ही वो सर्वश्रेष्ठ योग है, जो जीवन में प्रवाह उत्पन्न करता है। कला,संस्कृति को सुदृढ़ करने का मार्ग सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् से होकर गुजरता है। जिसमें समानता, सौन्दर्य-बोध एवं कला- संस्कृति की झलक दिखती है। यदि भारत के सवा सौ करोड़ नागरिकों में से एक करोड़ नागरिक भी धर्म, कला, संस्कृति को अपनाते हैं तो समाज में आमूल-चूल परिवर्तन संभावी है। अन्य समुदाय के लोग अपने मस्जिद और गुरुद्वारों में वेशभूषा का विशेष ध्यान रखते हैं जबकि हिन्दू समुदाय मंदिरों में पूजा-अर्चना के लिए जाते वक्त इस ओर उदास रहते हैं। इसे हमें ठीक करना होगा।
पद्मविभूषण डॉ. सोनल मानसिंह
भारत की ज्ञान परंपरा का क्षेत्र सनातन और विस्तृत है। ज्ञान जीवन दृष्टि है और इसी से मनुष्य की जीवन रचना होती है। ज्ञान कभी प्राचीन नहीं हो सकता, वह सनातन है। कला का अर्थ मानव सृजना से पूरे जीवन को सुन्दर कैसे बनाया जाए, यह सीखना है। आदमी ने अपनी काया को सजाने के लिए जिस तरह अलग-अलग तरीके अपनाए और भूख को मिटाने के लिए रोटी का प्रबंध किया। उसी तरह हमें राष्ट्र के निर्माण के लिए कला, संस्कृति और जीवन मूल्यों का बोध करना होगा। आज हर आदमी कहता है कि उसके पास समय नहीं है। उसने समय को खो दिया है, जबकि समय पूर्ववत् है। हम भगवान के मंदिर भी मनोकामना के लिए जाते हैं। यदि मनोकामना न हो तो शायद मंदिर भी खाली रहे। हम उधारी के सपने देखते हैं, जबकि हमारी परंपरा अपनी आँखों से सपने देखती हैं। यदि बाहरी लोगों को देखोगे तो भारतीय परंपरा पराई हो जाएगी। ज्ञान, इतिहास, कला-संस्कृति एवं धर्म से युक्त समाज की स्थापनाहोनी चाहिए।
डॉ. कपिल तिवारी
मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद के पूर्व निदेशक
मेरा पूरा जीवन कला और संस्कृति में रचा-बसा है। बचपन से ही उन्हें यही शिक्षा मिली है। कला-संस्कृति के बिना भारत देश की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विश्व में हम जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ संस्कृति और कला की ही बात होती है। हमारे देश की संस्कृति सौभाग्यशाली और गौरवशाली है, जिस पर हमें गर्व है। व्यक्तित्व विकास और देश का विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। लोक संगीत और लोक नाट्य को जहाँ से उर्जा प्राप्त होती है वह आध्यात्म का ही क्षेत्र है। व्यक्ति के निर्माण से ही राष्ट्र का निर्माण होता है। इसलिए हमें शिक्षा और संस्कार के माध्यम से व्यक्तियों का निर्माण करना होगा।
कलापिनी कोमकली
कुमार गंधर्व की बेटी एवं प्रसिद्ध कला विदुषी
जनजातीय संस्कृति की अनूठी छटा
देश के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश में जनजातीय संस्कृति की अनूठी छठा देखने को मिलती है चाहे वह अनूपपुर हो, मंडला, श्योपुर या फिर डिंडौरी का बैगाचक। सभी जनजातीय स्थानों पर हमें पारंपरिक रिश्ते, तीज-त्यौहार मनाने के अनूठे तरीके और रहन-सहन का आत्मीय एवं वात्सल्यमयी जीवन दृष्टिगोचर होता है। जनजातीय लोगों की ठिमरी, मादर, बाना और बाँसुरी की मीठी तान समूचे उद्यम को झूमने पर मजबूर कर देती है। ऐसा ही कुछ दृश्य इन दिनों मध्यप्रदेश विधानसभा परिसर के लोक-मंथन में दृष्टिगोचर हो रहा है। यहां लगी भारत की विरासत को दिखाती प्रदर्शनी में मध्यप्रदेश के डिंडौरी जिले से आए जनजातीय कलाकार धनेश परस्ते, हरिराम मरावी एवं उनके सहयोगी बड़ादेव भगवान की पूजा-अर्चना में लगे हुए हैं। उन्होंने यहाँ बड़ा देव भगवान का मंदिर बनाया हुआ है। मान्यता है कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत भगवान बड़ादेव की पूजा-अर्चना से होती है तो वह शुभ माना जाता है। लोक-मंथन जैसे लोक हितैषी कार्यक्रम का शुभारंभ भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बड़ादेव भगवान की पूजा-अर्चना कर किया। यहां लगी प्रदर्शनी में जनजातीय कला-संस्कृति का जीवंत दर्शन देखने को मिल रहा है। लोक-मंथन की बाह्य एवं आंतरिक सजावट जहां एक ओर मनमोहक है वहीं दूसरी ओर अलग-अलग थीम पर आधारित है। मुख्य मंच राजस्थानी लोक कला के पारंपरिक कठपुतली और घूमर नृत्य की विधा को चित्रित करता है। यहां राजस्थानी सांस्कृतिक परंपरा को चित्रों के जरिये मंच पर प्रस्तुत किया गया है। नृत्य,गीत,संगीत राजस्थान की माटी की धरोहर है। मंच की पृष्ठभमि राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं से जोड़ती है। विधानसभा परिसर में लगी प्रदर्शनियों में सांस्कृतिक, साहित्यिक और लोक कला की जीवंत झांकी प्रतिबिम्बित हो रही है। कला वीथिका में सांस्कृतिक वैभव की तस्वीर, पोस्टर और कलाकृतियों के माध्यम से संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने का प्रयास है। कश्मीर के मार्तण्ड मंदिर से लेकर 600 ईस्वी पूर्व से 500 ईस्वी तक की प्राचीन ऐतिहासिक परंपरा को लोक-मंथन में प्रदर्शित किया गया । इसमें शिक्षा का अलख जगाने वाले तक्षशिला, नालंदा, विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातन वैभव को दर्शाया गया । इन प्रस्तुतियों में कलाकृतियां, चित्र प्रदर्शनी एवं भारत की सांस्कृतिक संपदा को दर्शकों से रू-ब-रू करवाया गया । विधानसभा के दोनों मुख्य द्वार पर अनूठी जनजातीय कलाकृतियाँ मनमोहक हैं और यहाँ आने वाले दर्शकों का मन मोह रही हैं। द्वार पर जहां एक ओर जनजातीय वीरता और सांस्कृतिक विरासत प्रतिबिम्बित है वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश के गौरवमयी इतिहास का वर्णन भी देखने को मिलता र्है।वसुधैव कुटुम्बकम का अनुपम उदाहरण समूचे देश में प्रवाहित हुआ है। हमारे ऋषि-मुनियों ने वैदिक परंपराओं का संदेश विश्व में आलोकित किया है। लोक-मंथन न केवल भारत की वैचारिक और सांस्कृतिक परंपरा का मंथन कर रहा है बल्कि ज्ञान-विज्ञान की भारतीय विरासत को भी संजोये हुए है। प्रदर्शनियों में जो पोस्टर एवं होर्डिंग लगाए गए हैं वह जनोपयोगी शिक्षाप्रद संदेश देते हुए दिखते हैं। एक पोस्टर में अंकित ‘मानसिक स्वतंत्रता की एक प्रक्रिया अभी बाकी है’ हमें संदेश देती है कि हम आज भी मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं। साथ ही यहां कठपुतलियों की प्रदर्शनी मनमोहक है। एक कठपुतली संदेश, संचार एवं संवाद करती हुई दिखाई देती है। कठपुतलियों का यह संसार अनूठा और अनुपम है तो दर्शकों के लिए कौतूहल का विषय भी है। राजस्थानी लोक संस्कृति की आभा में कठपुतलियों पारंपरिक प्रस्तुतियां देती हुई नजर आती हैं।





