महाप्राण निराला और ऋतुराज

महाप्राण निराला और ऋतुराज 
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सखि, वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन, 
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।

वसंत ऋतु में जिस तरह प्रकृति अपने अनुपम सौंदर्य से सबको सम्मोहित करती है, उसी प्रकार वसंत पंचमी के दिन जन्मे निराला ने अपनी अनुपम काव्य कृतियों से हिंदी साहित्य में वसंत का अहसास कराया था। उन्होंने अपनी अतुलनीय कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और छंदों से साहित्य को समृद्ध बनाया। 
उनका जन्म 1896 की वसंत पंचमी के दिन बंगाल के मेदनीपुर जिले में हुआ था। हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। नामानुरूप उनका व्यक्तित्व भी निराला था। हिंदी जगत को अपने आलोक से प्रकाशवान करने वाले हिंदी साहित्य के 'सूर्य' पर मां सरस्वती का विशेष आशीर्वाद था। उनके साहित्य से प्रेम करने वाले पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा कि आज छायावाद की उत्कृष्ट कविताओं में गिनी जाने वाली उनकी पहली कविता 'जूही की कली' को तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशन योग्य न मानकर संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दिया था। इस कविता में निराला ने छंदों की के बंधन को तोड़कर अपनी अभिव्यक्ति को छंदविहीन कविता के रूप में पेश किया, जो आज भी लोगों के जेहन में बसी है। वह खड़ी बोली के कवि थे, लेकिन ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी उन्होंने अपने मनोभावों को बखूाबी प्रकट किया। 'अनामिका,' 'परिमल', 'गीतिका', 'द्वितीय अनामिका', 'तुलसीदास', 'अणिमा', 'बेला', 'नए पत्ते', 'गीत कुंज, 'आराधना', 'सांध्य काकली', 'अपरा' जैसे काव्य-संग्रहों में निराला ने साहित्य के नए सोपान रचे हैं।'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती', 'निरूपमा', 'कुल्ली भाट' और 'बिल्लेसुर' 'बकरिहा' शीर्षक से उपन्यासों, 'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीवी', 'सखी' और 'देवी' नामक कहानी संग्रह भी उनकी साहित्यिक यात्रा की बानगी पेश करते हैं।निराला ने कलकत्ता (अब कोलकाता) से 'मतवाला' व 'समन्वय' पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
 निराला का साहित्य व हिंदी कविता में क्रांतिकारी बदलाव लाने में उनका महत्व आज भारतीय साहित्य के औसत पाठक-छात्र के लिए अजाना ही बना हुआ है परंतु अबे सुन वे गुलाब...जैसी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जिस व्यवस्था को ललकारा था, दुर्भाग्य से आज भी हम उसी व्यवस्था के अंग बने हुए हैं और उस व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा और गिरावट आ गई है। कुकुरमुत्ता, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा जैसी रचनाओं के माध्यम से राजनीति व समाज पर समसामयिक प्रभाव की व्याख्या उन्होंने की, तो वह बड़ा जोखिम ही था। 
वह समाजवादी नहीं थे, परंतु हमारी ऊंच-नीच की खाई वाली व्यवस्था से असंतुष्ट तो थे। तभी तो उन्होंने गुलाब के फूल को भी नहीं छोड़ा। रंग और सुगंध पर अकडऩे को उन्होंने खूब ललकारा है।
हिंदी कविता में छायावाद के चार महत्वपूर्ण स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ अपनी सशक्त गिनती कराने वाले निराला की रचनाओं में एकरसता का पुट नहीं है।स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित निराला की रचनाओं में कहीं आध्यात्म की खोज है तो कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं असहायों के प्रति संवेदना हिलोर लेती उनके कोमल मन को दर्शाती है, तो कहीं देश-प्रेम का जज्बा दिखाई देता है, कहीं वह सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने को आतुर दिखाई देते हैं तो कहीं प्रकृति के प्रति उनका असीम प्रेम प्रस्फुटित होती है। 
निराला को छायावादी कविता का सुकुमार कहा जाता है, परंतु सही अर्थों में वह लालित्यमय, संस्कृतनिष्ठ वासंती वातावरण के बीच उपजे एक दुर्लभ ऑर्किड थे। यह वह युग था, जब हिंदी भाषा भारतीयता का पावन पथ मान ली गई थी। साहित्य में भौतिक सचाई कम, अभौतिक मिलन-विरह, इच्छापूर्ति-अपूर्ति का द्वैतभरा एक भव्य रुदन या उल्लासमय जादू ही कवि सम्मेलनों, संस्थानों व पत्र-पत्रिकाओं में छाया हुआ था। और इसी वातावरण में निराला ऐसी आंधी बनकर आए कि उन्होंने देखते-देखते तुकांत कोमल और हवा-हवाई अमूर्तन को चीरते हुए कवि तथा कविता की छुईमुई छवि को तिनका सिद्ध कर दिया। 40 के दशक में निराला का कुकुरमुत्ता जैसा अक्खड़ किंतु अद्भुत रूप से पठनीय काव्य संकलन छपा। यह संकलन हिंदी साहित्य का एक बिलकुल नया द्वार युवा लेखकों तथा पाठक वर्ग के लिए खोलता था, जो राज-समाज के स्तर पर अनेक प्रकार की भौतिक परेशानियों और मोहभंग के दु:ख से जूझ रहा था।  उन युवाओं की तरह निराला स्वयं अकाल, दुष्काल, बमबारी वाले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में गरीबी, सामाजिक जड़ता, प्रियजनों की अकाल मौत देख-जी चुके थे। अपनी रचनाओं तथा पत्राचार के पन्नों में वे हमको चौंकाने वाली बेबाकी से बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के अर्धसामंती, अर्धखेतिहर राज-समाज में बैसवाड़े के सामान्य ब्राह्मण परिवार की परंपराओं और गांधी की आंधी व सुधारवादी नएपन की चुनौतियों के बीच किशोरवय से ही उनका संवेदनशील मन किस तरह मथा जाता रहा था। उनकी कविताओं में नियमानुशासन का बोध तो है, पर मृत हो चुके नियमों से ईमानदार चिढ़ व खीझ भी है। गांधी का जादू अंत तक निराला को भी बांधे रहा। कविता में अपने समय में सामाजिक वर्जनाओं और आमो-खास की भावनाओं का द्वैत ही नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठान की जड़ता और दास्यभरी मानसिकता को भी खूब लपेटा है।
सन् 1920 के आस-पास अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू करने वाले निराला ने 1961 तक अबाध गति से लिखते हुए अनेक कालजयी रचनाएं कीं और उनकी लोकप्रियता के साथ फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक न सका।'मतवाला' पत्रिका में 'वाणी' शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों के साथ ही उन्होंने लंबी कविताएं लिखना भी आरंभ किया।सौ पदों में लिखी गई तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जिसे 1934 में उन्होंने कलमबद्ध किया और 1935 में सुधा के पांच अंकों में किस्तवार इसका प्रकाशन हुआ।साहित्य को अपना महत्वूपर्ण योगदान देने वाले निराला की लेखनी अंत तक नित नई रचनाएं रचती रहीं। 22 वर्ष की अल्पायु में पत्नी से बिछोह के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पतझड़ बन गया और उसके बाद अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन से शोक संतप्त निराला अपने जीवन के अंतिम वर्षो में मनोविक्षिप्त-से हो गए थे। लौकिक जगत को अपनी अविस्मरणीय रचनाओं के रूप में अपनी यादें सौंपकर 15 अक्टूबर, 1961 को महाप्राण अपने प्राण त्यागकर इस लोक को अलविदा कह गए, लेकिन अपनी रचनात्मकता को साहित्य प्रेमियों के जेहन में अंकित कर निराला काव्यरूप में आज भी हमारे बीच हैं। महाप्राण निराला को विश्लेषित करते हुए तभी तो रामविलास शर्मा जैसे समालोचक को भी कहना पड़ा - 

यह कवि अपराजेय निराला,

जिसको मिला गरल का प्याला;

ढहा और तन टूट चुका है,

पर जिसका माथा न झुका है;

शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती,

लेकिन अभी संभाले थाती,

और उठाए विजय पताका-

यह कवि है अपनी जनता का!



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