संस्कृत को बचाने का अद्भुत प्रयास
विश्व का अकेला संस्कृत भाषी अखबार सुधर्मा
यह किसी महापुरुष की दैवी शक्ति और संकल्प का ही प्रमाण है। भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक के मैसूर शहर से एक दैनिक संस्कृत अखबार प्रकाशित होता है। नाम है सुधर्मा। वर्ष 1970 के 15 जुलाई से अनवरत प्रकाशित इस अखबार के संस्थापक थे पंडित वरदराजा आयंगर। बहुत काम लोगों को मालूम है कि पंडित वरदराज आयंगर ही वह शख्शियत हैं जिनके प्रयास से 1976 में आकाशवाणी ने तथा 1990 में दूरदर्शन ने संस्कृत में समाचारों तथा कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया था। पंडित आयंगर का मानना था कि संस्कृत को जितने कठिन भाषा के रूप में प्रायोजित किया जाता है, दरअसल संस्कृत बहुत ही सरल है। संस्कृत की स्थापना और उन्नति के लिए वह पूरे जीवन संघर्ष करते रहे। 15 जुलाई 1970 से स्थापित सुधर्मा के वह 20 वर्षों तक संपादक रहे। सुधर्मा आज विश्व के 90 देशों में ई-पेपर पर उपलब्ध है। इस अखबार के सम्पादकीय समिति में द्वारिका पीठाधीश्वर, श्रृंगेरी पीठाधीश्वर, कांची पीठाधीश्वर, श्रीपेजवारमत्त पीठाधीश्वर, अहोबिलमत्त पीठाधीश्वर, गणपति सचिदानंद स्वामी, शिवरात्रि राजेंद्र स्वामी, आदिचनचलागीरी मठ, परकलामठ के अलावा पूर्व राष्ट्रपति बीडी जट्टी, पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई, पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती और ईएस वेंकतरामैया के अलावा कई बड़े राजनेता, विद्वान और चिंतक शामिल रहे हैं।
वर्ष 1990 में पंडित वरदराजा आयंगर के परमनिर्वाण के बाद से उनके द्वितीय पुत्र केवी संपत कुमार यह दायित्व निभा रहे हैं। लेकिन अब वह इसे चला पाने में काफी कठिनाइयों का अनुभव करते हैं। संस्कृत को लेकर अखबारी चिंताओं से वह बहुत दुखी हैं। वह नहीं समझ पा रहे कि पंडित वरदराजा आयंगर द्वारा स्थापित इस विश्व धरोहर को वे कैसे सम्हाल सकें। सुधर्मा के 46 वर्ष की इस यात्रा को आगे बढ़ाने में बहुत बाधाएं आने लगी हैं। संस्कृत भाषा का एकमात्र यह पत्र बहुत कठिन दौर में है।
संस्कृत को लेकर सरकारी स्तर पर चाहे कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें क्यों हो जाए, हकीकत कुछ और ही है। इसका जीता- जागता उदाहरण संस्कृत अखबार ‘सुधर्मा’ है जो आर्थिक दिक्कतों की वजह से बंद होने की कगार पर खड़ा है। सुधर्मा दुनिया का एकमात्र संस्कृत दैनिक अखबार है जो यदि अपना अस्तित्व बचा पाया तो एक महीने बाद अपनी लांचिंग का 46वां साल पूरा कर लेगा। यह एक पन्ने का अखबार है और इसका सर्कुलेशन तकरीबन 4,000 है। हालांकि इसके ई-पेपर के एक लाख से ज्यादा पाठक हैं जिनमें ज्यादातर इजरायल, जर्मनी और इंग्लैंड के हैं। आयंगर के पुत्र और सुधर्मा के संपादक केवी संपत कुमार कहते हैं कि अखबार की छपाई जारी रखना बहुत संघर्षपूर्ण रहा है और कोई सरकारी या गैर सरकारी सहायता नहीं मिल रही जिससे इसे जारी रखा जा सके। दरसल यह संकट केवल सुधर्मा नाम वाले एक अखबार का नहीं रह गया है। वास्तव में यह संस्कृत की संस्कृति के सामने आया ऐसा संकट है जिससे समग्र भारतीयता भी जुड़ती है। सुधर्मा की निरन्तरता बहुत जरूरी है।
किस्सागोई का कौतुक देती कहानियां
सुषमा मुनीन्द्र
सुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय का सद्य: प्रकाशित कथा संग्रह ‘दलदल’ ऐसे समय में आया है जब निरंतर कहा जा रहा है कहानी से कहानीपन और किस्सागोई शैली गायब होती जा रही है। संग्रह में बीस कहानियां हैं जिनमें ऐसी जबर्दस्त किस्सागोई है कि लगता है शीर्षक कहानी ‘दलदल’ का किस्सागो बूढ़ा, दक्षता से कहानी सुना रहा है और हम कहानी पढ़ नहीं रहे हैं वरन सांस बांध कर सुन रहे हैं कि आगे क्या होने वाला है। पूरे संग्रह में ऐसा एक क्रम, एक सिलसिला-सा बनता चला गया है कि हम संग्रह को पढ़ते-पढ़ते पूरा पढ़ जाते हैं। कभी उत्सुकता, कभी जिज्ञासा, कभी भय, कभी सिहरन, कभी आक्रोश, कभी खीझ, कभी कुटिलता, कभी कृपा से गुजर रहे पात्र इतने जीवंत हैं कि सहज ही अपने भाव पाठकों को दे जाते हैं। ‘दलदल’ कहानी के विकलांग सुब्रोतो का करुण तरीके से दलदल में डूबते जाना सिहरन से भरता है तो ‘बलिदान’ की बाढग़्रस्त भैरवी नदी में नाव पर सवार क्षमता से अधिक परिजनों द्वारा डगमगाती नाव का भार कम करने के लिये, किसका जीवित रहना अधिक जरूरी है, किसका कम, इस आधार पर एक-एक कर नदी में कूद कर आत्म-उत्सर्ग करना स्तब्ध करता है। काले चोर प्रोन्नति पायें, ईमानदार निलंबित हों ऐसे अराजक, अनैतिक माहौल में खुद को मिसफिट पाते ‘मिसफिट’ के केन्द्रीय पात्र का आत्महत्या का मानस बना कर रेलवे ट्रैक पर लेटना भय से भरता है तो ‘पांचवी दिशा’ के पिता का हॉट एयर बैलून में बैठ कर उडऩा, गुब्बारे का अंतरिक्ष में ठहर जाना जिज्ञासा से भरता है।
‘दुमदार जी की दुम’ के दुमदार जी की रातों-रात दुम निकल आई है जैसे भ्रामक प्रचार को अलौकिक और ईश्वरीय चमत्कार मान कर लोगों का उनके प्रति श्रद्धा से भर जाना उत्सुकता जगाता है तो ‘बयान’ के निष्ठुर भाई का यातना-शिविर जैसे पति-गृह से किसी तरह छूट भागी मिनी को जबर्दस्ती घसीट कर फिर वहीं (पति-गृह) पहुंचा देना। आक्रोश से तिलमिला देता है। वस्तुत: सुशांत सुप्रिय की पारखी-विवेकी दृष्टि अपने समय और समाज की प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति-मन: स्थिति पर ऐसे दायित्व बोध के साथ पड़ती है कि संग्रह की पंक्तियां तत्कालीन व्यवहार-आचरण का सच्चा बयान बन गई हैं- कैसा समय है यह, जब भेडिय़ों ने हथिया ली हैं सारी मशालें, और हम निहत्थे खड़े हैं। (कहानी दो दूना पांच)। बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है, लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं। (कहानी पांचवीं दिशा)। मैं नहीं चाहता था मिनी आकाश जितना फैले, समुद्र भर गहराये, फेनिल पहाड़ी-सी बह निकले... मेरे जेहन में लड़कियों के लिये एक निश्चित जीवन-शैली थी। (कहानी बयान)। लोग आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते हैं। मुंह से कुछ कह रहे होते हैं जबकि उनकी आंखें कुछ और ही बयां कर रही होती हैं। (कहानी एक गुम सी चोट)। ये कुछ ऐसी वास्तविकतायें हैं जिनसे संत्रस्त हो चुका आम आदमी सवाल करने लगा है ‘नेक मनुष्यों का उत्पादन हो सके क्या कोई ऐसा कारखाना नहीं लगाया जा सकता? लेकिन संग्रह की कहानियों में जो सकारात्मक भाव हैं, वे सवाल का उत्तर दें न दें, आम आदमी को आश्वासन जरूर देते हैं कि मुश्किलों के बावजूद यह दुनिया रहने की एक खूबसूरत जगह है। (कहानी पिता के नाम)
संग्रह की मूर्ति, पांचवीं दिशा, चश्मा, भूतनाथ आदि कहानियां आभासी संसार का पता देती हैं। ये कहानियां यदि लेखक की कल्पना हैं तो अद्भुत हैं, सत्य हैं तब भी अद्भुत हैं। ‘मूर्ति’ का समृद्ध उद्योगपति जतन नाहटा आदिवासियों से वह मूर्ति, जिसे वे अपना ग्राम्य देवता मानते हैं, बलपूर्वक अपने साथ ले जाता है। मूर्ति उसे मानसिक रूप से इतना अस्थिर-असंतुलित कर देती है कि वह पागलपन के चरम पर पहुंच कर अंतत: मर जाता है। ‘पांचवीं दिशा’ के पिता हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ान भरते हैं। गुब्बारा अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है। वे वहां से सैटेलाइट की तरह गांव वालों को मौसम परिवर्तन की सूचना भेजा करते हैं। ‘चश्मा’ कहानी के परिवार के पास चार-पांच पीढिय़ों से एक विलक्षण चश्मा है जिसे पहन कर भविष्य में होने वाली घटना-दुर्घटना के दृश्य देखे जा सकते हैं। दृश्य देखने में वही सफल हो सकता है जिसका अन्तर्मन साफ हो। ‘भूतनाथ’ का भूत मानव देह धारण कर लोगों की सहायता करता है। वैसे ‘भूतनाथ’ और ‘दो दूना पांच’ कहानियां फिल्मी ड्रामा की तरह लगती हैं।
सुकून यह है कि जब हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, वन्य प्राणियों का शिकार कर, गलत तरीके से शस्त्र रख धन-कुबेर और उनकी संतानें पकड़ी नहीं जातीं या पुलिस और अदालत से छूट जाती हैं, वहाँ ‘दो दूना पाँच’ के कुकर्मी प्रकाश को फांसी की सजा दी जाती है। कहानियों में जमीनी सच्चाई है इसीलिये झाड़ू, इश्क वो आतिश है गालिब जैसी प्रेम-कहानियां भी प्रेम-राग का अतिरंजित या अतिनाटकीय समर्थन करते हुये मुक्त गगन में नहीं उड़तीं बल्कि इस वास्तविकता को पुष्ट करती हैं कि प्रेम के अलावा भी कई-कई रिश्ते होते और बनते हैं और यदि विवेक से काम लिया जाय तो हर रिश्ते को उसका प्राप्य मिल सकता है, जगहें अपने आप में कुछ नहीं होतीं। जगहों की अहमियत उन लोगों से होती है जो एक निश्चित काल-अवधि में आपके जीवन में उपस्थित होते हैं, (पृष्ठ 73)। लेकिन कुछ स्थितियां ऐसा नतीजा बन जाती हैं कि इंसान शारीरिक यातना से किसी प्रकार छूट जाता है लेकिन मानसिक यातना से जीवन भर नहीं छूट पाता। बिना किसी पुख्ता सबूत के, संदेह के आधार पर जाति विशेष के लोगों को अपराधी साबित करना सचमुच दु:खद है। मेरा जुर्म क्या है? के मुस्लिम पात्र के घर की संदेह के आधार पर तलाशी ली जाती है, उसे जेल भेजा जाता है। बरसों बाद वह निर्दोष साबित होकर घर लौटता है लेकिन ये यातना भरे बरस उसका जो कुछ छीन लेते हैं उसकी भरपाई नामुमकिन है। ‘कहानी कभी नहीं मरती’ के छब्बे पाजी 1984 जून में चलाये गये आपरेशन ब्लू-स्टार के फौजी अभियान की चपेट में आते हैं। झूठी निशानदेही पर ‘ए’ कैटेगरी का खतरनाक आतंकवादी बता कर उन्हें जेल भेजा जाता है। वे भी बरसों बाद निर्दोष साबित होते हैं। कहानियों में इतनी विविधता है कि समकालीन समाज और जीवन की सभ्यता-पद्धति, आचरण-व्यवहार, यम-नियम, चिंतन-चुनौती, मार्मिकता-मंथन, समस्या-समाधान, साम्प्रदायिकता-नौकरशाही, कानून-व्यवस्था, मीडिया, भूकम्प, बाढ़, अकाल, बांध, डूबते गांव, कटते जंगल, किलकता बचपन, गुल्ली-डंडा, कबड्डी जैसे देसी खेल, कार्टून चैनल, वीडियो गेम्स, मोबाइल, लैप-टाप जैसे गैजेट्स... बहुत कुछ दर्ज हैं।
सुशांत की कहानियां आकार में लम्बी नहीं, अपेक्षाकृत छोटी हैं तथापि सार्वभौमिक सत्य को सामने लाने में सक्षम हैं। भाषा आकर्षक और बोधगम्य है। आह्लाद और विनोद का पुट कहानियों को रोचक बना देता है। पात्रों के अनुरूप छोटे-छोटे, अनुकूल संवाद हैं जो अत्यधिक उचित लगते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है किस्सागोई का आनंद देती ये कहानियां दिमाग पर हथौड़े की तरह वार करती हैं तथा दिल पर असर छोड़ते हुये सकारात्मक सोच अपनाने के लिये प्रेरित करती हैं।