रूद्र के स्वरुप महाभैरव

रूद्र के स्वरुप महाभैरव 


संजय तिवारी 
भैरव शब्द के दो बड़े अर्थ स्थापित हैं।  प्रत्यक्ष व्याकरण मीमांसा के अनुसार दोनों ही शब्द एक दूसरे के बिलकुल विलोम हैं किन्तु परोक्ष मीमांसा में इन दोनों का अर्थ एक ही होता है।  एक - भैरव अर्थात भयानक अर्थात भय उत्पन्न करने वाला। दूसरा - भैरव अर्थात भरण - पोषण के लिए उत्तरदायी। यानी एक अर्थ में वह भय यानी मृत्यु के देवता लगते हैं तो दूसरे अर्थ में वे वह सभी कार्य करने वाले हैं जो कार्य ब्रह्मा के लिए निर्धारित है , जिसका दायित्व  स्वयं नारायण वहन  करते हैं।  रूद्राष्टाध्यायी और भैरव तंत्र  की मीमांसा इसे और भी स्पष्ट कर देती है। 
भैरव , वस्तुतः सनातन परंपरा में एक देवता हैं जो शिव के रूप हैं। इनकी पूजा भारत और नेपाल में होती है। हिन्दू और जैन दोनों भैरव की पूजा करते हैं। भैरवों की संख्या ६४ है। ये ६४ भैरव भी ८ भागों में विभक्त हैं।मीमांसा बताती है - कोलतार से भी गहरा काला रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड और काले कुत्ते की सवारी - यह है महाभैरव, अर्थात् मृत्यु-भय के भारतीय देवता का बाहरी स्वरूप। उपासना की दृष्टि से भैरव तमस देवता हैं। उनको बलि दी जाती है और जहाँ कहीं यह प्रथा समाप्त हो गयी है वहाँ भी एक साथ बड़ी संख्या में नारियल फोड़ कर इस कृत्य को एक प्रतीक के रूप में सम्पन्न किया जाता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय के देवता हैं और तंत्रशास्त्र में उनकी आराधना को ही प्राधान्य प्राप्त है। तंत्र साधक का मुख्य लक्ष्य भैरव भाव से अपने को आत्मसात करना होता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक राग का नाम इन्हीं के नाम पर भैरव रखा गया है।

कालभैरव की पूजाप्राय: पूरे देश में होती है और अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने जाते हैं। महाराष्ट्र में खण्डोबा उन्हीं का एक रूप है और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही उनको मान्यता मिली हुई है और उनकी अनेक प्रकार की मनौतियां भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता भी हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।

प्राचीन ग्रंथों में भैरव

‘शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अपने कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार कर रहा था, यहाँ तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा. तब उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई।

कुछ पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग कालभैरव की उपासना करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है की ,ब्रह्मा जी के पांच मुख हुआ करते थे तथा ब्रह्मा जी पांचवे वेद की भी रचना करने जा रहे थे,सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव प्रकट हुए और उन्होंने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पांचवा मुख काट दिया, इस पर भैरव को ब्रह्मा हत्या का पाप भी लगा।

भैरव उपासना की शाखाएं

कालान्तर में भैरव-उपासना की दो शाखाएं- बटुक भैरव तथा काल भैरव के रूप में प्रसिद्ध हुईं। जहां बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप में विख्यात हैं वहीं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले प्रचण्ड दंडनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए।

पुराणों में भैरव

तंत्रशास्त्र में अष्ट-भैरव का उल्लेख है – असितांग-भैरव, रुद्र-भैरव, चंद्र-भैरव, क्रोध-भैरव, उन्मत्त-भैरव, कपाली-भैरव, भीषण-भैरव तथा संहार-भैरव। कालिका पुराण में भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिवजी का एक गण बताया गया है जिसका वाहन कुत्ता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी १ . महाभैरव, २ . संहार भैरव, ३ . असितांग भैरव, ४ . रुद्र भैरव, ५ . कालभैरव, ६ . क्रोध भैरव, ७ . ताम्रचूड़ भैरव तथा ८ . चंद्रचूड़ भैरव नामक आठ पूज्य भैरवों का निर्देश है। इनकी पूजा करके मध्य में नवशक्तियों की पूजा करने का विधान बताया गया है। शिवमहापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का ही पूर्णरूप बताते हुए लिखा गया है -

भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:।
मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥

 रूद्राष्टाध्यायी और भैरव तंत्र 

 रूद्राष्टाध्यायी और भैरव तंत्र के अनुसार भैरव जी को भगवान शिव का ही अंशावतार माना गया है। ऐसे में एक शंका का मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। वास्तव में भैरव जी शिव के ही अवतार है। शास्त्रों में इनको शिवांश मानते हुए कहा गया है कि भैरव पूर्ण रूप से देवाधिदेव शंकर ही हैं। लेकिन भगवान शंकर की माया से ग्रस्त होने के फलस्वरूप एक सामन्य व्यक्ति इस तथ्य को नहीं जान पाता। लेकिन भैरव के रूप में शिव के प्राकट्य के पीछे जो कारण है वह ब्रह्मदेव के कार्यों सम्पन्न करना है। वास्तव में इनका अवतरण ब्रम्हा जी की मति फिर जाने की अवस्था में उन्हें धर्म का मर्म समझाने हेतु हुआ है। इसीलिए इन्हें ब्रह्मदेव का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हैं तो ये शिव के ही अंश या अवतार लेकिन ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए इनका अवतरण हुआ है अत: इनकी पूजा आराधना से दोनो ही देवों की कृपा स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।
संक्षेप इनके नाम की सार्थकता के बारे में जाना जाय। क्योंकि ये ब्रह्मदेव के प्रतीक माने गए हैं साथ ही ब्रह्माजी के वरदान स्वरूप ये सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामर्थ्य हैं। अत: इनका नाम भैरव हुआ। भैरव शब्द का विग्रह करके समझा जाय तो "भ" अर्थात विश्व का भरण करने वाला, "र" अर्थात विश्व में रमण करने वाला और "व" अर्थात वमन यानी कि सृष्टि का पालन पोषण करने वाला। इन दायित्वों का निर्वहन करने के कारण इनका नाम भैरव हुआ। अब इनके नाम के पहले जुडने वाले शब्द "बटुक" के बारे में जाना जाय। "बटुक" का अर्थ होता है छोटी उम्र का बालक। अर्थात आठ वर्ष से कम उम्र के बालक को "बटुक" कहा जाता है। वर्णन मिलता है कि महर्षि दधीचि भगवान शिव के परम भक्त थे। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शिवदर्शन रखा लेकिन भगवान शिव नें उसका एक नाम और रखा जो था "बटुक"। अर्थात यह नाम भगवान शिव को प्रिय है। इसीलिए बटुक भैरव को भगवान शिव का बालरूप माना जाता है। इनकी वेश-भूषा शिव के समान ही है। इनको श्याम वर्ण माना गया है। इनके भी चार भुजाएं हैं, जिनमें भैरव जी ने त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण कर रखा है। इनका वाहन श्वान अर्थात कुत्ता है। इनका निवास भी भगवान भूतनाथ की तरह श्मशान ही माना गया है। भैरव भी भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। इनके स्वरूप को देखकर सामान्यतय: ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म राक्षस अथवा अत्याचारियों को मारने के लिए हुआ होगा। परन्तु जैसा कि पहले ही बताया गया कि वास्तव में इनका अवतरण ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए हुआ है।
भैरव के कोई लौकिक माता पिता नहीं हैं। अत: इन्हें अवतार ही माना गया है। इन्हें कलियुग में प्रभावी देवी देवताओं में प्रमुखता प्राप्त है। यद्यपि अन्य देवताओं की तरह श्री भैरव के भी अनेक रूप माने गए हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। फिर भी सभी भैरवों में बटुक भैरव की उपासना प्रमुख है। बटुक भैरव जी कि विस्तृत कथा स्कंध पुराण में है साथ ही भगवान शिव द्वारा रचित रुद्रमाल्या ग्रन्थ में भी भगवान भैरव नाथ कि कथा का वर्णन मिलता है जिसमें स्वयं भगवान शिव ने कहा है कि जो कोई बटुक भैरव की आराधना सच्चे मन से करता है, उसे मृत्योपरांत कैलाश धाम की प्राप्ति होती है।
भैरवनाथ को आपत्तियों का विनाश करने वाला देवता कहा गया है साथ ही ये एक ऐसे देवता है जिनकी पूजा उपासना से मनोकामना पूर्ति अवश्य होती है। इनकी उपासना से भूत-प्रेत बाधा से त्वरित मुक्ति मिलती है। लोगों की इन पर अपार श्रद्धा है। इनकी लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से सहज लगाया जा सकता है कि प्राय: हर गांव के पूर्व में स्थित देवी-मंदिर में स्थापित सात पीढियों के पास में आठवीं भैरव-पिंडी अवश्य होती है। नगरों के देवी-मंदिरों में भी भैरव महराज विराजमान रहते हैं। देवी के भक्तों की पूजा उपासना से जब देवी प्रसन्न होती है तब भैरव को आदेश देकर ही देवी मां भक्तों की कार्य सिद्धि और मनोकामना पूर्ण कराती हैं।
इनसे काल भी भयभीत रहता है। इनमें दुष्टों का संहार करने की असीम क्षमता है। शिवजी ने इन्हें काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। शिवजी का यह कोतवाल ऐसा है जिसके राज्य में मानव जीवन में दुख-दर्द जैसे अपराधी नहीं पनपने पाते। 

भैरव साधना

ध्यान के बिना साधक मूक सदृश है, भैरव साधना में भी ध्यान की अपनी विशिष्ट महत्ता है। किसी भी देवता के ध्यान में केवल निर्विकल्प-भाव की उपासना को ही ध्यान नहीं कहा जा सकता। ध्यान का अर्थ है - उस देवी-देवता का संपूर्ण आकार एक क्षण में मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित होना। श्री बटुक भैरव जी के ध्यान हेतु इनके सात्विक, राजस व तामस रूपों का वर्णन अनेक शास्त्रों में मिलता है। जहां सात्विक ध्यान - अपमृत्यु का निवारक, आयु-आरोग्य व मोक्षफल की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म, अर्थ व काम की सिद्धि के लिए राजस ध्यान की उपादेयता है, इसी प्रकार कृत्या, भूत, ग्रहादि के द्वारा शत्रु का शमन करने वाला तामस ध्यान कहा गया है। ग्रंथों में लिखा है कि गृहस्थ को सदा भैरवजी के सात्विक ध्यान को ही प्राथमिकता देनी चाहिए।

भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर
भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर हैं जिनमें काशी का काल भैरव मंदिर सर्वप्रमुख माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है। जयगढ़ के प्रसिद्ध किले में काल-भैरव का बड़ा प्राचीन मंदिर है जिसमें भूतपूर्व महाराजा जयपुर के ट्रस्ट की और से दैनिक पूजा-अर्चना के लिए पारंपरिक-पुजारी नियुक्त हैं। मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के ग्राम अदेगाव में भी श्री काल भैरव का मंदिर है जो किले के अंदर है जिसे गढ़ी ऊपर के नाम से जाना जाता है।

कहते हैं औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था। जनश्रुतियों के अनुसार कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तो अचानक पागल कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था। उन कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वे तुरंत पागल हो गये और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्होंने काटना शुरू कर दिया। बादशाह को भी अपनी जान बचा कर भागने के लिये विवश हो जाना पड़ा। उसने अपने अंगरक्षकों द्वारा अपने ही सैनिक सिर्फ इसलिये मरवा दिये किं पागल होते सैनिकों का सिलसिला कहीं खु़द उसके पास तक न पहुँच जाए।

भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रतीकवादी रही है और यहाँ की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के प्रतीक उपलब्ध हैं। यह प्रतीक उभयात्मक हैं - अर्थात स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक को ही कहा जाता है -देवता। चूँकि भय भी एक भाव है, अत: उसका भी प्रतीक है - उसका भी एक देवता है और उसी भय का हमारा देवता हैं- महाभैरव।

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