महाशिवरात्रि : ॐ नमः शिवाय

महाशिवरात्रि : ॐ नमः शिवाय 
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आचार्य संजय
सम्पूर्ण जगत शिवमय है, संसार में ऐसा कुछ भी नहीं, जो शिव के बिना हो। यदि रात शिव है तो दिन भी शिव है, सुख शिव हैं तो दुःख भी शिव हैं, जन्म शिव हैं, तो मृत्यु भी शिव है । शिव, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण को धारण करने वाली एक सत्ता है। इस जगत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो अभी तक ज्ञात है और जो अज्ञात है, सब जगह शिव ही शिव व्याप्त हैं। शिव कोई आकार नहीं बल्कि  सभी आकार उसी के ही हैं। शिव परमसत्ता, परमात्मा, परमब्रह्म, अनादि, अनन्त और शून्य हैं । इस जगत का बीज शिव हैं। शिव चैतन्य स्वरुप हैं । जब वो चाहते हैं स्पंदित हो जाते हैं, जब चाहते हैं निःस्पन्दित हो जाते हैं । शिव  में जो ई की मात्रा है, वो शक्ति का ही प्रतीक है, बिना शक्ति के शिव शव कहलाते हैं। जैसे जब शरीर से शक्ति निकल जाती है, तब शरीर शव कहलाता है। शिव का जब भी वर्णन किया जाता है शक्ति का प्रयोग जरूर होता है, क्योंकि शक्ति जीवन रूपा है और शिव जीवन का आधार हैं, दोनों को एक दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है। इसलिए शिव के उपासक शक्ति की उपासना अवश्य करते हैं। प्रकाश तो शिव हैं ही लेकिन प्रकाश के अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में छाया अन्धेरा भी शिव ही है। उस अन्धकार में भी शिव और शक्ति प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहती है । अतः ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ शिव विद्यमान ना हो । सभी जीव शिव से ही उत्पन्न होते हैं और शिव में ही समा जाते हैं। इसलिए शिवलिंग उत्पत्ति का द्योतक है और शिव की शक्ति जीवन का द्योतक है तथा प्रलय भी शिव ही है। शिव के पास सांप, बैल, भभूत, चद्रमा, गंगा, त्रिशूल, बाघ की खाल तीसरी आँख आदि सभी चिह्न कुछ इशारा करते हैं। जैसे सांप यानि सभी रेंगने वाले जानवर, बैल यानि चलने वाले जानवर, शमशान की भभूत यानि मृत्यु, गंगा यानि नदी आदि, चन्द्रमा अर्थात समस्त सौरमंडल, त्रिशूल अर्थात सभी वस्तुएं, बाघ की खाल अर्थात मृत्यु के बाद की गति, तीसरी आँख यानी प्रलय आदि ये सभी चिह्न ये ही दर्शाते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शिव तत्त्व ही समाया हुआ है। शिव व शक्ति उपासक शिवरात्रि का बेशब्री से इंतज़ार करते हैं, क्योंकि ये रात अपने भीतर शिव तत्त्व को अनुभव करने की महत्वपूर्ण रात होती है । इस रात को शिव साधना से भी उस तत्त्व अनुभव किया जा सकता है । यदि इस रात को एकाग्र चित्त के साथ ध्यान की अवस्था में शिव मंत्र का उच्चारण  किया जाए तो  शीघ्रता ही समाधि लाभ प्राप्त हो जाता है। शिव का अनुभव होना ही समाधि है। इस दिन में साधक फलाहार करते हैं, जिससे शरीर मलरहित होकर हल्का बना रहे, जिससे रात को साधना के समय नींद ना आये। असलियत में स्व को जानने की रात ही शिवरात्रि है, क्योंकि हम शरीर ,मन, बुद्धि, अहंकार या नाम-रूप नहीं है । हम तो शिवरूप आत्मा है, इसलिए आदि गुरु शंकराचार्य ने शिवोहम शिवोहम कहा है । इस रात को कुण्डिलिनी शक्ति के जागरण और उसके शिव के साथ लीन होने के लिए बाह्य वातावरण में व्याप्त ऊर्जा साधक का साथ देने लगता है।

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सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने
शंकर जी को जप करते देख पार्वती को आश्चर्य हुआ कि देवों के देव , महादेव भला किसका जप कर रहे हैं। पूछने पर महादेव ने कहा , ' विष्णुसहस्त्रनाम का। ' पार्वती ने कहा , इन हजार नामों को साधारण मनुष्य भला कैसे जपेंगे ? कोई एक नाम बनाइए , जो इन सहस्त्र नामों के बराबर हो और जपा जा सके। महादेव ने कहा- राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे , सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने। यानी राम-नाम सहस्त्र नामों के बराबर है। भगवान शिव , विष्णु , ब्रह्मा , शक्ति , राम और कृष्ण सब एक ही हैं। केवल नाम रूप का भेद है , तत्व में कोई अंतर नहीं। किसी भी नाम से उस परमात्मा की आराधना की जाए , वह उसी सच्चिदानन्द की उपासना है। इस तत्व को न जानने के कारण भक्तों में आपसी मतभेद हो जाता है। परमात्मा के किसी एक नाम रूप को अपना इष्ट मानकर , एकाग्रचित्त होकर उनकी भक्ति करते हुए अन्य देवों का उचित सम्मान व उनमें पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। किसी भी अन्य देव की उपेक्षा करना या उनके प्रति उदासीन रहना स्वयं अपने इष्टदेव से उदासीन रहने के समान है। शिव पुराण में कहा गया है कि ब्रह्मा , विष्णु व शिव एक-दूसरे से उत्पन्न हुए हैं , एक-दूसरे को धारण करते हैं , एक-दूसरे के अनुकूल रहते हैं। भक्त सोच में पड़ जाते हैं। कहीं किसी को ऊंचा बताया जाता है , तो कहीं किसी को। विष्णु शिव से कहते हैं , ' मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है। आप मेरे हृदय में रहते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूं। ' कृष्ण , शिव से कहते हैं , ' मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है , आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं। ' संसार में निरंतर तीन प्रकार के कार्य चलते रहते हैं- उत्पत्ति , पालन और संहार। इन्हीं तीन भिन्न कार्यों के लिए तीन नाम दे दिए गए हैं- ब्रह्मा , विष्णु व महेश। विष्णु सतमूर्ति हैं , ब्रह्मा रजोगुणीमूर्ति व शिव तामसमूर्ति हैं। एक-दूसरे से स्नेह के कारण एक-दूसरे का ध्यान करने से शिव गोरे हो गए और विष्णु का रंग काला हो गया। शिव तामसी गुणों के अधिष्ठाता हैं। तामसी गुण यानी निंदा , क्रोध , मृत्यु , अंधकार आदि। तापसी भोजन यानी कड़वा , विषैला आदि। जिस अपवित्रता से , जिस दोष के कारण किसी वस्तु से घृणा की जाती है , शिव उसकी ओर बिना ध्यान दिए उसे धारण कर उसे भी शुभ बना देते हैं। समुद्र मंथन के समय निकले विष को धारण कर वे नीलकंठ कहलाए। मंथन से निकले अन्य रत्नों की ओर उन्होंने देखा तक नहीं। जिससे जीव की मृत्यु होती है , वे उसे भी जय कर लेते हैं। तभी तो उनका नाम मृत्य़ु़ंजय है। क्रोध उनमें है , पर वे केवल जगत कल्याण के लिए उसका प्रयोग करते हैं , जैसे कामदेव का संहार। उन्हें घोर तपस्या या सुदीर्घ भक्ति नहीं चाहिए। थोड़ी सी भक्ति से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। वे शव की राख अपने ऊपर लगाते हैं और श्मशान में निवास करते हैं। वे जीव को जीवन की अनित्यता की शिक्षा देते हैं। उनके जीवन में वैराग्य है , त्याग है। इसी कारण उनकी पूजा में ऐश्वर्य की वस्तुओं का प्रयोग नहीं होता। हर उस चीज से उनकी पूजा होती है , जिन्हें आमतौर पर कोई पसंद नहीं करता। शिव के उपासक को शिव की ही तरह वैरागी होना चाहिए। वे अपनी ही बरात में बैल पर चढ़कर , बाघंबर ओढ़ कर चल दिए , क्योंकि उन्हें किसी तरह के भौतिक ऐश्वर्य से मोह नहीं है। वे आशुतोष हैं , जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं , भोलेनाथ हैं। पर इसका यह मतलब नहीं कि वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करते। बुद्धि की उत्पत्ति का स्थान भगवान शिव ही हैं। शिव दरिद्र की तरह रहते हैं , क्योंकि वे सूचित करते हैं कि वैराग्य सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं। सत्व , रज और तम , तीनों गुणों की महत्ता आवश्यक है। उत्पत्ति के बाद जीव अपने और दूसरों के पालन-पोषण के लिए काम करता हुआ इतना थक जाता है कि सब कुछ छोड़कर निंदा यानी तम में लीन होना चाहता है। व्याकुल व्यक्ति को विश्राम की आवश्यकता होती है , ऐसे ही पाप बढ़ जाने पर ईश्वर विश्राम देने के लिए विश्व का संहार करते हैं। तम ही मृत्यु है , तम ही काल है , इसीलिए वे महामृत्युंजय हैं , महाकालेश्वर हैं। वे विष और शेषनाग को गले में धारण कर लेते हैं। पर नाश केवल शरीर का होता है। जीवात्मा तो परमात्मा में मिल जाती है। जीवात्मा को मुक्त करती श्रीगंगा भी उन्होंने अपनी जटा में धारण कर ली है। वे संहार करते हैं , तो मुक्ति भी देते हैं। बिना विश्राम के , बिना संहार के न उत्पत्ति हो सकती है और न ही पालन की क्रिया।Image result for bhagwan shiv

महाशिवरात्रि की व्रत-कथा

हज़ारों वर्ष पूर्व ईक्ष्वाकु वंश के एक राजा हुए। उनका नाम था- ‘चित्राभानु’। महाशिवरात्रि के दिन उनके दरबार में ब्रह्मर्षि अष्टावक्र जी का आगमन हुआ। राजा और रानी को शिवरात्रि का व्रत रखता देख उन्होंने पूछ लिया- ‘राजन्! इस व्रत का उद्देश्य क्या है?’
‘ट्टषिवर, दैवी कृपा से मुझे अपना पिछला जन्म याद आ गया है। सो उसमें निहित दैवी प्रेरणा के कारण मैंने और मेरी भार्या ने यह व्रत रखा है।’- राजा ने उत्तर में कहा।
असल में राजा चित्राभानु पिछले जन्म में एक शिकारी थे। उनका नाम था- ‘सुस्वर’। एक बार वे शिकार करने के लिए जंगल में गए। जंगल में अपने श्वान के संग शिकार को ढूँढ़ते हुए उनको शाम हो गई। सो, उन्होंने उसी जंगल में रात्रि बिताने की सोची। रात के अंधियारे में जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा के लिए उन्होंने एक वृक्ष के ऊपर चढ़ने की सोची। वे अपने श्वान को नीचे छोड़कर पास ही के बेल-वृक्ष के ऊपर चढ़कर बैठ गए। पूरे दिन की भूख से तो वे बेहाल थे ही। साथ ही, उन्हें आज शिकार न मिलने की चिंता भी सता रही थी। खैर, रात गहराती गई। समय काटने के लिए वे वृक्ष की पत्तियों को तोड़कर नीचे ज़मीन पर फेंकते गए। साथ ही, अनजाने में, उनकी मशक से भी पानी बूँद-बूँद टपक कर नीचे गिरता गया। ऐसा करते हुए कब रात्रि बीत गई, उन्हें मालूम ही न चला। सुबह होते ही, वे अपने घर वापिस लौट चले।
कहानी आगे बताती है कि ज़िन्दगी के आखिरी पलों में जब वे मृत्यु-शैया पर थे, तब दो शिव-दूत उनकी आत्मा को शिवधाम ले गए। वहाँ पहुँचकर सुस्वर को पता चला कि उस रात्रि बेल-वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था, जिस पर अनजाने में ही उनके द्वारा बेल-पत्र और जल से अभिषेक हो गया था। पूरी रात्रि खाली पेट उपवास रखकर जागने की वजह से वे शिव की उपासना कर बैठे थे। इसी के फलस्वरूप उनको शिवधाम की प्राप्ति हुई। फिर अगला जन्म उनको ‘चित्राभानु’ के रूप में उस उपासना को पूर्ण करने के लिए मिला।
 लगभग हर श्रद्धालु ने यह कथा सुनी होगी। पर क्या मात्रा खाली पेट रहने से शिवलिंग पर बेल पत्र, जल, दूध इत्यादि का अभिषेक करने से भगवान शिव की सच्ची उपासना हो जाती है? आज का युवा एवं बुद्धिजीवी वर्ग तो ऐसी कहानियों को कपोल-कल्पित ही मानता है। क्योंकि जब वे इस कथा के पीछे मर्म को पूछना या जानना चाहते हैं, तो उन्हें सामने से यही उत्तर सुनने को मिलता है- ‘ऐसा ही दादा-परदादाओं के समय से होता आया है।’ स्पष्ट और संतोषजनक जवाब के अभाव में वे इन सब कहानियों को ‘मनगढ़ंत’ ही मान लेते हैं। हमारे आर्ष-ग्रंथों में वर्णित प्रसंग किसी मानुष की कोरी-कल्पनाएँ न होकर, ब्रह्मज्ञानी ऋषियों के अंतःकरण से उद्धृत साक्षात् ब्रह्म-वाक्य हैं। इनमें निहित गूढ़ भाव को बड़े ही अलंकारिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इन प्रसंगों के मर्म को समझने के लिए आत्म-चिन्तन की गहराइयों में गोता लगाने की आवश्यकता है। ठीक ऐसे ही, महाशिवरात्रि की इस व्रत कथा का मर्म गूढ़ के साथ-साथ प्रेरणादायी भी है। भक्तगणों आइए, इस कथा में निहित सार को पंक्ति-दर-पंक्ति समझने का प्रयास करते हैं।
 
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अज्ञानता की घोर रात्रि!

कथा प्रसंग : सुस्वर को शिकार ढूँढ़ते हुए रात्रि हो जाती है। यह रात्रि मात्र सूर्यास्त होने का संकेत नहीं है। अपितु यह तो अज्ञानता के घोर अंधकार- ‘अज्ञानतिमिरान्ध्स्य’ का प्रतीक है। ऐसी अज्ञानता, जो मानुष में व्याप्त दिव्यता पर पर्दा डाल देती है, जिसके कारण वह अपने और दूसरों के भीतर विद्यमान ईश्वर के प्रकाश को नहीं देख पाता है। जीवन भर इस माया-रूपी जंगल में ही भटकता रहता है।


पाश्विकता से दिव्यता की ओर!

 जंगली जानवरों से बचने के लिए सुस्वर किसी वृक्ष पर आश्रय लेने का निर्णय लेता हैऔर अपने श्वान को नीचे छोड़कर नजदीकी बेल वृक्ष पर चढ़ बैठता है। सुस्वर के इस कृत्य के पीछे गूढ़ संदेश छिपा है। यहाँ श्वान मानव की पाश्विक वृत्तियों को दर्शाता है। उसको नीचे छोड़कर पेड़ पर चढ़ना उर्ध्वगामी होना है। यानी दिव्यता की ओर कदम बढ़ाना है। विशेषकर बेल के पेड़ पर चढ़ने का भी अपना महत्त्व है। 

ऋग्वेद के श्री सूक्तम (6) में लिखा है-

आदित्यवर्णे तपसोऽध्जिातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाहया अलक्ष्मीः।।

सरल शब्दों में कहें तो, बिल्व वृक्ष ताप का परिचायक है। इस सूक्ति में बिल्व वृक्ष से आर्त प्रार्थना की गई है कि वह अपने तपो-फल से आध्यात्मिक दरिद्रता को मिटाए; उपासक को ‘श्री’ (आत्मिक और व्यावहारिक समृद्धि की प्राप्ति कराए।

फल ही नहीं, इस वृक्ष की डालियाँ और पत्ते भी महिमावान हैं। इसके विषय में हमारे आर्ष-ग्रंथों में वर्णित है-

...पतरैर्वेदस्वरूपिण स्कंधे वेदांतरुपया
तरुराजया ते नमः।

अर्थात् बेल वृक्ष के पत्ते वेदों की ऋचाओं के सार हैं, उसकी डालियाँ उपनिषदों में निहित ज्ञान की निचोड़ हैं। इसलिए ऐसे वृक्षों के राजा बेल को शत-शत नमन है। व्याध का बेल वृक्ष पर चढ़कर बैठना, वेद-वेदांत के मर्म यानी तत्त्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है। अंतर्घट में शिव-तत्त्व को जानने की ओर संकेत है। इसकी प्राप्ति या ऐसी जिज्ञासा का अंत एक श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर ही संभव हो पाता है। पूर्ण गुरु ही जिज्ञासु को अलौकिक ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं-

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुंडकोपनिषद् 1/2/12)

 ब्रह्मज्ञान के द्वारा सनातन शिव-तत्त्व की प्राप्ति होती है और अज्ञान रूपी महाग्रंथि का उन्मूलन होता है- ‘छ्रित्त्वाऽविद्यामहाग्रन्थिं शिवं गच्छेत्सनातनं।।’ (रुद्रहृदयोपनिषद् 37)। जब एक पूर्ण गुरु दीक्षा के समय शिष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं, उसी क्षण जिज्ञासु का तृतीय नेत्रा सक्रिय हो जाता है और वह शिव-तत्त्व का साक्षात् दर्शन अपनी हृदय-गुहा में कर लेता है। फिर आरम्भ होती है, ध्यान की शाश्वत प्रक्रिया।


बेल-पत्र और शिवलिंग का रहस्य!

 सुस्वर समय काटने हेतु बेल-पत्तियों को नीचे फेंकता रहता है। संयोगवश ये पत्तियाँ नीचे स्थापित शिवलिंग पर अर्पित होती जाती हैं। ये बेल पत्र और शिवलिंग एक प्रगाढ़ रहस्य समेटे हुए हैं। क्या कभी आपने बेल की पत्तियों पर ध्यान दिया है? एक डांठ पर तीन पत्तियाँ उगती हैं और ये त्राय पत्तियाँ मानवीय शरीर की 72,000 सूक्ष्म नाड़ियों में से प्रमुख तीन नाड़ियों की ओर इंगित करती हैं-

प्रधनाः प्राणवाहिन्यो भूयास्तासु दशस्मृताः।
इडा च पिड्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयगा।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद् 16)

इनको इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना के नाम से जाना जाता है। बेल-पत्र प्रतीक है- इन तीन नाड़ियों के मिलन का। यह मिलन कहाँ पर घटता है? हमारे ऋषिगण इसे ‘आज्ञाचक्र’ से संबोधित करते हैं। यह आज्ञाचक्र हमारे मस्तिष्क की पिंडी में, जो शिवलिंग के समान आकार वाली है, स्थित होता है। जब शिष्य अपनी भौहों के बीच स्थित इस आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित करता है-
 ‘आज्ञा नाम भुवोर्मध्ये द्विदलं चक्रमुत्तमम्।...’ (योगशिखोपनिषद् 175)- 
तब इस स्थल पर तीनों नाड़ियों का मिलन होता है। अतः व्याध द्वारा शिवलिंग पर बेल पत्र अर्पित करना ध्यान की प्रक्रिया के दौरान आज्ञाचक्र में तीन नाड़ियों के मिलन को दर्शाता है।


बूँद-बूँद जल का टपकना!

पहले पेड़ पर चढ़ना, फिर बेल पत्तों को गिराना और फिर व्याध की मशक से शिवलिंग के ऊपर पानी का टपकना। भक्तजनों! यह शृंखला मात्रा संयोग नहीं है। यह स्पष्ट और सूक्ष्म संकेत है, प्रभु शिव की शाश्वत भक्ति अर्थात् ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया का जो एक साधक के अंतस् में चलती है। जैसे कि मंदिरों में कलश से बूँद-बूँद करके शिवलिंग पर जल टपकता है; ठीक इसी तरह कबीर जी कहते हैं-

‘गगन मंडल अमृत का कुआँ, जहाँ ब्रह्म का वासा’- हमारे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार चक्र में अमृत का एक सूक्ष्म व शाश्वत स्रोत मौजूद है। जब एक साधक सद्गुरु द्वारा दिए गए ब्रह्मज्ञान की ध्यान पद्धति को अपनाकर ध्यान करता है, तब उसके ब्रह्मरंध्र से भी बूँद-बूँद अमृत रस झरता है। ध्यान की गहराई में पहुँचने पर वह इस अमृत का पान कर पाता है-

सगुरा होई सो भर-भर पीवै, निगुरा मरत प्यासा।

ब्रह्मानंद जी ने भी जब अपने गुरुदेव की अनुकंपा से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की, तो वे अपने भीतर ही इस अमृत को झरता हुआ अनुभव कर पाए-

अचरज देखा भारी रे साधे, अचरज देखा भारी रे।
गगन बीच अमृत का कुआँ, सदा झरे सुखकारी रे।।

अतः व्याध द्वारा शिवलिंग पर जल को बूँद-बूँद गिराना, ब्रह्मज्ञान की अमृत पान की प्रक्रिया को ही दर्शाता है।


उपवास से उपासना!

यह मात्र संयोग नहीं था कि पूरी रात्रि सुस्वर क्षुध से बेहाल था। इस अलंकारिक भाषा के पीछे झाँकने से ज्ञात होता है कि यह स्थिति ‘उपवास’ की प्रतीक है। इसमें ‘उप’ का अर्थ है, ‘निकट’ और ‘वास’ का अर्थ है- ‘रहना’। किसके निकट? ईश्वर के! अतः उपवास का अर्थ हुआ- ‘ईश्वर के निकट वास करना।’ यही तो ध्यान की शाश्वत पद्धति है, जो हमें ईश्वर के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् दर्शन कराती है और उस पर एकाग्र होने की युक्ति है। वास्तव में, ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया ही सच्चा उपवास है, प्रभु की सच्ची उपासना है। ‘उपासना’ शब्द का अर्थ भी ईश्वर के नज़दीक बैठना है।
 यही है शिवरात्रि-व्रत कथा का गूढ़ मर्म। इसी के साथ दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप सभी भक्तजनों को महाशिवरात्रि के उपलक्ष्य पर हार्दिक बधइयाँ देता है। आशा करते हैं कि आप भी शिव-तत्त्व की शाश्वत उपासना करने के इच्छुक हुए होंगे और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। ऊँ नमः शिवाय।
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आत्मशिव में आराम पाने का पर्व : महाशिवरात्रि
 फाल्गुन  कृष्ण चतुर्दशी को 'महाशिवरात्रि' के रूप में मनाया जाता है | यह तपस्या, संयम, साधना बढ़ाने का पर्व है, सादगी व सरलता से बिताने का दिन है, आत्मशिव में तृप्त रहने का, मौन रखने का दिन है | महाशिवरात्रि देह से परे आत्मा में, सत्यस्वरूप शिवतत्त्व में आराम पाने का पर्व है | भाँग पीकर खोपड़ी खाली करने का दिन नहीं है लेकिन रामनाम का अमृत पीकर हृदय पावन करने का दिन है | संयम करके तुम अपने-आपमें तृप्त होने के रस्ते चल पडो, उसीका नाम है महाशिवरात्रि पर्व | महाशिवरात्रि जागरण, साधना, भजन करने की रात्रि है | 'शिव' का तात्पर्य है 'कल्याण' अर्थात यह रात्रि बड़ी कल्याणकारी है | इस रात्रि में किया जानेवाला जागरण, व्रत-उपवास, साधन-भजन, अर्थ सहित शांत जप-ध्यान अत्यंत फलदायी माना जाता है | 'स्कन्द पुराण' के ब्रह्मोत्तर खंड में आता है : 'शिवरात्रि का उपवास अत्यंत दुर्लभ है | उसमें भी जागरण करना तो मनुष्यों के लिए और दुर्लभ है | लोक में ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्ठ आदि मुनि इस चतुर्दशी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं | इस दिन यदि किसी ने उपवास किया तो उसे सौ यज्ञों से अधिक पुण्य होता है | 'जागरण' का मतलब है जागना | जागना अर्थात अनुकूलता-प्रतिकूलता में न बहना, बदलनेवाले शरीर-संसार में रहते हुए अब्दल आत्मशिव में जागना | मनुष्य-जन्म कही विषय-विकारों में बरबाद न हो जाय बल्कि अपने लक्ष्य परमात्म-तत्त्व को पाने में ही लगे - इस प्रकार की विवेक-बुद्धि से अगर आप जागते हो तो वह शिवरात्रि का 'जागरण' हो जाता है |आज के दिन भगवान साम्ब-सदाशिव की पूजा, अर्चना और चिंतन करनेवाला व्यक्ति शिवतत्त्व में विश्रांति पाने का अधिकारी हो जाता है | जुड़े हुए तीन बिल्वपत्रों से भगवान शिव की पूजा की जाती है, जो संदेश देते हैं कि ' हे साधक ! हे मानव ! तू भी तीन गुणों से इस शरीर से जुड़ा है | यह तीनों गुणों का भाव 'शिव-अर्पण' कर दें, सात्विक, राजस, तमस प्रवृतियाँ और विचार अन्तर्यामी साम्ब-सदाशिव को अर्पण कर दे | बिल्वपत्र की सुवास तुम्हारे शरीर के वात व कफ के दोषों को दूर करती है | पूजा तो शिवजी की होती है और शरीर तुम्हारा तंदुरुस्त हो जाता है | भगवान को बिल्वपत्र चढ़ाते-चढ़ाते अपने तीन गुण अर्पण कर डालो, पंचामृत अर्पण करते-करते पंचमहाभूतों का भौतिक विलास जिस चैतन्य की सत्ता से हो रहा है उस चैतन्यस्वरूप शिव में अपने अहं को अर्पित कर डालो तो भगवान के साथ तुम्हारा एकत्व हो जायेगा | जो शिवतत्त्व है वही तुम्हारा आत्मा है और जो तुम्हारा आत्मा है वही शिवस्वरूप परमात्मा है | शिवरात्रि के दिन पंचामृत से पूजा होती है, मानसिक पूजा होती है और शिवजी का ध्यान करके हृदय में शिवतत्त्व का प्रेम प्रकट करने से भी शिवपूजा मानी जाती है | ध्यान में आकृति का आग्रह रखना बालकपना है | आकाश से भी व्यापक निराकार शिवतत्त्व का ध्यान .......! 'ॐ....... नमः ........ शिवाय.......' - इस प्रकार प्लुत उच्चारण करते हुए ध्यानस्थ हो जायें |
शिवरात्रि पर्व यह संदेश देता है कि जैसे शिवजी हिमशिखर पर रहते हैं, माने समता की शीतलता पर विराजते हैं, ऐसे ही अपने जीवन को उन्नत करना हो तो साधना की ऊँचाई पर विराजमान होओ तथा सुख-दुःख के भोगी मत बनो | सुख के समय उसके भोगी मत बनो, उसे बाँटकर उसका उपयोग करो | दुःख के समय उसका भोग न करके उपयोग करो | रोग का दुःख आया है तो उपवास और संयम से दूर करो | मित्र से दुःख मिला है तो वह आसक्ति और ममता छुडाने के लिए मिला है | संसार से जो दुःख मिलता है वह संसार से आसक्ति छुडाने के लिए मिलता है, उसका उपयोग करो | शिवजी के पास मंदिर में जाते हो तो नंदी मिलता है - बैल | समाज में जो बुद्धू होते हैं उनको बोलते हैं तू तो बैल है, उनका अनादर होता है लेकिन शिवजी के मंदिर में जो बैल है उसका आदर होता है | बैल जैसा आदमी भी अगर निष्फल भाव से सेवा करता है, शिवतत्त्व की सेवा करता है, भगवतकार्य क्या है कि 'बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय' जो कार्य है वह भगवतकार्य है | जो भगवन शिव की सेवा करता है, शिव की सेवा माने हृदय में छुपे हुए परमात्मा की सेवा के भाव से जो लोगों के काम करता है, वह चाहे समाज की नजर से बुद्धू भी हो तो भी देर-सवेर पूजा जायेगा | यह संकेत है नंदी की पूजा का | शिवजी के गले में सर्प है | सर्प जैसे विषैले स्वभाववाले व्यक्तियों से भी काम लेकर उनको समाज का श्रृंगार, समाज का गहना बनाने की क्षमता, कला उन ज्ञानियों में होती है | भगवन शिव भोलानाथ हैं अर्थात जो भोले-भाले हैं उनकी सदा रक्षा करनेवाले हैं | जो संसार-सागर से तैरना चाहते हैं पर कामना के बाण उनको सताते हैं, वे शिवजी का सुमिरण करते हैं तो शिवजी उनकी रक्षा करते हैं | शिवजी ने दूज का चाँद धारण किया है | ज्ञानी महापुरुष किसी का छोटा-सा भी गुण होता है तो शिरोधार्य कर लेते हैं | शिवजी के मस्तक से गंगा बहती है | जो समता के ऊँचे शिखर पर पहुँच गये हैं, उनके मस्तक से ज्ञान की तरंगें बहती हैं इसलिए हमारे सनातन धर्म के देवों के मस्तक के पीछे आभामण्डल दिखाया जाता है |
शिवजी ने तीसरे नेत्र द्वारा काम को जलाकर यह संकेत किया कि 'हे मानव ! तुझमे भी तेरा शिवतत्त्व छुपा है, तू विवेक का तीसरा नेत्र खोल ताकि तेरी वासना और विकारों को तू भस्म कर सके, तेरे बंधनों को तू जला सके |'
भगवान शिव सदा योग में मस्त है इसलिए उनकी आभा ऐसे प्रभावशाली है कि उनके यहाँ एक-दूसरे से जन्मजात शत्रुता रखनेवाले प्राणी भी समता के सिंहासन पर पहुँच सकते हैं | बैल और सिंह की, चूहे और सर्प की एक ही मुलाकात काफी है लेकिन वहाँ उनको वैर नही है | क्योंकि शिवजी की निगाह में ऐसी समता है कि वहाँ एक-दूसरे के जन्मजात वैरी प्राणी भी वैरभाव भूल जाते हैं | तो तुम्हारे जीवन में भी तुम आत्मानुभव की यात्रा करो ताकि तुम्हारा वैरभाव गायब हो जाय | वैरभाव से खून खराब होता है | तो चित्त में ये लगनेवाली जो वृत्तियाँ हैं, उन वृत्तियों को शिवतत्त्व के चिंतन से ब्रह्माकार बनाकर अपने ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार करने का संदेश देनेवाले पर्व का नाम है शिवरात्रि पर्व |
समुद्र-मंथन के समय शिवजी ने हलाहल विष पीया है | वह हलाहल न पेट में उतारा, न वमन किया, कंठ में धारण किया इसलिए भोलानाथ 'नीलकंठ' कहलाये | तुम भी कुटुम्ब के, घर के शिव हो | तुम्हारे घर में भी अच्छी-अच्छी समग्री आये तो बच्चों को, पत्नी को, परिवार को दो और घर में जब विघ्न-बाधा आये, जब हलाहल आये तो उसे तुम कंठ में धारण करो तो तुम भी नीलकंठ की नाई सदा आत्मानंद में मस्त रह सकते हो | जो समिति के, सभा के, मठ के, मंदिर के, संस्था के, कुटुम्ब के, आस-पड़ोस के, गाँव के बड़े हैं उनको उचित है कि काम करने का मौका आये तो शिवजी की नाई स्वयं आगे आ जाये और यश का मौका आये तो अपने परिजनों को आगे कर दें |
 अगर पत्नी हो तो पार्वती माँ को याद करो, जगजननी, जगदम्बा को याद करो कि वे भगवान शिवजी की समाधि में कितना सहयोग करती है ! तो तुम भी यह विचार करो कि 'आत्मशिव को पाने की यात्रा में आगे कैसे बढ़े ?' और अगर तुम पत्नी की जगह पर हो तो यह सोचो कि 'पत्नी पार्वती की नाई उन्नत कैसे हो ?' इससे ग्रहस्थ-जीवन धन्य हो जायेगा | शिवरात्रि का पर्व यह संदेश देता है कि जितना-जितना तुम्हारे जीवन में निष्कामता आती है, परदुःखकातरता आती है, परदोषदर्शन की निगाह कम होती जाती है, दिव्य परम पुरुष की ध्यान-धरणा होती है उतना-उतना तुम्हारा वह शिवतत्त्व निखरता है, तुम सुख-दुःख से अप्रभावित अपने सम स्वभाव, इश्वरस्वभाव में जागृत होते हो और तुम्हारा हृदय आनंद, स्नेह, साहस एवं मधुरता से छलकता है |
 

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