भ्रष्ट राजनीति का यथार्थ
कुमारी ज्योति गुप्ता
हिंदी विभाग
अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली
साहित्य समाज का द्रष्टा है, जीवन का व्याख्याता है, वह सामाजिक जीवन से अपने को विलग नहीं कर सकता। साहित्य और राजनीति एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे से तारंगिक और प्रभावित होते हैं। इसलिए इनकी अभिव्यक्ति समय-समय पर हिंदी उपन्यासों में होती रही है। डॉ. कमला गुप्ता ने लिखा है ‘यह सर्वमान्य सत्य है कि जीवन और साहित्य एक दूसरे के उसी भांति अन्योन्याश्रित हैं जैसे जीवन और राजनीति। अब साहित्य ‘केवल निष्क्रिय रसास्वादन की वस्तु नहीं हो सकता, साहित्य का भी सामाजिक उत्तरदायित्व है और वह दायित्व केवल प्रचलित श्रेणी विशेष द्वारा प्रतिष्ठित आदर्श के अनुगमन का दायित्व नहीं है, समाज के ढ़ाचा को आमूल बदल देने का दायित्व है। साहित्यकार के समक्ष इस दायित्व के निर्वाह का उद्देश्य है, जिससे प्रेरणा लेकर वह राजनीतिक जीवन के यथा-तथ्य अंकन के साथ अपना मत प्रतिपादित करता है’।
इस तथ्य के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आजादी के बाद देश की राजनीति में जो परिवर्तन आया उसे उसके छद्म रूप में उजागर करने में हिंदी उपन्यास जागरूक रहा है। इनमें भगवतीचरण वर्मा की ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’, रेणु का ‘मैला आंचल’, यशपाल का ‘झूठा-सच’, अमृतलाल नागर का ‘बूंद और समुद्र’, कमलेश्वर का ‘काला आंधी’ तथा मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मन्नूू भंडारी का ‘महाभोज’ न सिर्फ उस समय का राजनीतिक यथार्थ व्यक्त करता है बल्कि आज की राजनीति का छद्म रूप भी व्यक्त करता है। जब परिस्थिति रचनाकार के अंतर्मन को झकझोरता है तभी मार्मिक रचना सामने आती है। ‘महाभोज’ उसी का परिणम है। लेखिका ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है ‘अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द, अंतद्र्वन्द्व या आंतरिक नाटक को देखना बहुत महत्वपूर्ण, सुखद और आश्वस्तिदायक तो मुझे भी लगता है, मगर जब घर में आग लगी हो तो सिर्फ अपने अंतर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या खुद ही अप्रासंगिक, हास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगने लगता? संभवत: इस उपन्यास की रचना के पीछे यही प्रश्न रहा हो।’ यह कथन उनकी मन:स्थिति तथा व्यापक जन-जीवन के प्रति उनके सरोकारों को व्यक्त करती है।
‘महाभोज’ में मन्नू भंडारी ने रचनात्मक साहस का परिचय देते हुए व्यवस्था के छद्म को उजागर किया हैं। राजनीति में हर वस्तु को स्वार्थ की तुला पर तौला जाता है इसलिए बिसेसर नामक एक पिछड़ी जाति के युवक की हत्या का लाभ पदासीन मुख्यमंत्री दा साहब और पदच्युत मुख्यमंत्री सुकुल बाबू दोनों उठाना चाहते हैं। आम जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति किसी में नहीं है। सुकुल बाबू हारने के बाद सन्ंयास लेने वाले थे लेकिन जैसे ही उन्हे दलित बिसू की हत्या की खबर मिलती है वैसे ही एक बार फिर उप चुनाव में सफलता के लिए कमर कस लेते हैं तथा कहते हैं ‘खड़ा हुआ हूं आप लोगों के हक की लड़ाई-लडऩे के लिए। बिसू की मौत का हिसाब पूछने के लिए। बात सिर्फ बिसू की मौत की नहीं है- यह आप सब लोगों के जिंदा रहने का सवाल है अपने पूरे हक के साथ जिंदा रहने का और यही हक मुझे आपको वापस दिलवाना है।
हम सभी जानते हैं कि इन राजनेताओं का उद्देश्य केवल चुनाव जीतना है। जनता के हक और न्याय से उनका कोई सरोकार नहीं है। वे जानते हैं कि आम जनता केवल देखने की भूमिका निभाती है क्योंकि आवाज उठाने वाला बिसू की तरह मार दिया जाता है तथा न्याय की पक्ष में बोलने वाला बिंदा की तरह आजीवन कारावास भोगता है और पदासीन लोग महाभेज करते हैं, उपन्यास में एक जगह कहा गया है ‘गेहंू के साथ घुन पिसने का मुहावरा पुराना हुआ, पुरानी स्थितियों पर लागू भी होता रहा होगा। आज तो स्थिति यह है कि गेहूं सुरक्षित और घुन चकनाचूर।’ अत: सत्तासीन लोग तो सुरक्षित होते हैं पर निर्दोष व्यक्ति घुन की मौत मारा जाता है।
अंग्रेजों की नीति थी ‘फूट डालो और शासन करो’ अंग्रेज तो चले गए पर उनकी नीति को शासकों ने गाठ बांध लिया तभी एक स्थान पर दा साहब कहते हैं ‘दुहाई गरीबों की सब देते हैं, पर उनके हित की बात कोई नहीं सोचता। जनता को बॉटकर रखो कभी जात की दीवारें खींचकर, तो कभी वर्ग की दीवारें खींचकर! जनता का बंटा, बिखरापन ही तो स्वार्थी राजनेताओं की शक्ति का स्रोत है।
बिल्कुल स्पष्ट है कि यहां राजनेता भ्रष्ट चुनाव नीति में एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं तथा सिर्फ चुनाव जीतने के लिए घृणित से घृणित उपाय काम में ला रहे हैं। अत: जनतंत्र के नाम पर जो व्यवस्था हमने देश की सुरक्षा के लिए विकसित की वह अपने मूल रूप में कितनी जनविरोधी और अमानवीय है। समाज में होने वाले इस भ्रष्टाचार के पीछे और कोई नहीं बल्कि सत्ता पर काबिज लोग हैं। नेताओं की कथनी और करनी को लेखिका ने बेलौस उभारा है। लोकतंत्र में लोक का कितना अधिकार है इसे बताने की जरूरत नहीं, एक झूठे भ्रम के सहारे हम जी रहे हैं। आजादी के इतने साल बाद भी देश की जनता भूखी और नंगी है माक्र्स ने इसलिए कहा था ‘यह आजादी झूठी है क्योंकि देश की जनता भूखी है।’ समय-समय पर बुद्धिजीवी साहित्यकार इन स्थितियों से रू-ब-रू होते रहे हैं। डॉ. हरदयाल ने लिखा- ‘जैसे-जैसे राजनीति का चरित्र मूल्य भ्रष्ट होता गया वैसे-वैसे हिंदी के साहित्यकार का मोहभंग तीखा होता गया है आपातकाल और उसके बाद की राजनीति ने सिद्ध कर दिया कि अब राजनीति में मूल्यों का कोई मूल्य नहीं रह गया है केवल कुर्सी रह गई है। कुर्सी पाने के लिए और पाने के बाद उसे बचाए रखने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। इन बदली हुई स्थितियों में साहित्यकार के चरम मोहभंग की ही अभिव्यक्ति है ‘महाभोज’।
बिंदा का भी मोह भंग हो चुका है वह इस भ्रष्ट राजनीति और सत्ता पर काबिज लोगों के दो-मुंहेपन को भलीभांति जान चुका है यही कारण है कि कानून की नाटकबाजी पर तीखा प्रहार करता हुआ कहता है जुर्म! जुर्म की पहचान रह गई है आप लोगों को? बड़े-बड़े जुर्म आप लोगों को जुर्म नहीं लगते। जिंदा आदमियों को जला दो यह सब जुर्म नहीं आपकी नजरों में।
वह जान चुका है कि सारे वादे झूठे हैं,राजनीतिक दांव-पेंच खेलकर मामले को रफा-दफा करने का षडयंत्र रचा जा रहा है इसलिए दा साहब द्वारा भेजा गया एसपी सक्सेना जब बिसू की मौत पर गवाही लेने आता है तो बिंदा व्यवस्था पर अपना आक्रोश प्रकट करता हुआ कहता है ‘क्यों झूठ-मूठ गांववालों के साथ मजाक कर रहे हैं? दा साहब से लेकर आप तक की शतरंज में आज बिसू की मौत का मोहरा फिट बैठ रहा है, इसलिए इतने जोर शोर से तहकीकात हो तही है-बयान लिए जा रहे हैं! पर होना जाना कुछ नहीं है, लानत है सब पर।
बिंदा का यह आक्रोश निश्चय ही व्यवस्था के खोखलेपन से उपजे भयानक परिस्थितियों का जीता जागता दस्तावेज है। वह जानता है कि हर बार की तरह इस बार भी ये लोग भोली-भाली जनता को बेवकूफ बना रहे हैं वह इस शासन तंत्र के बड़बोलेपन से ऊब चुका है। इसलिए जब आगजनी के प्रमाण लेकर बिसू उससे दिल्ली चलने को कहता है तो वह व्यवस्था के खोखलेपन को व्यक्त करता हुआ कहता है ‘अब कुछ नहीं होने का, जब सरकार ही सारी बात को दाब ढक़ रही है तो मेरे तेरे भाग दौड़ करने से क्या होगा? जैसी यहां की सरकार वैसी दिल्ली की सरकार। हमने तो सबको देख लिया साहब, एक वह शराबी सरकार थी, एक यह पिशाची सरकार, ससुरे सब एक से।
दा साहब और सुकुल बाबू दोनों ही घाघ राजनेता हैं, दोनों के लिए जनता भोट पाने का एक माध्यम भर है, दोनों का उद्देश्य सत्ता पर काबिज़ रहना है। धूमिल ने भी देश की संसद को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा किया। उनका भी इस प्रजातंत्र से मोह भ्ंाग हो चुका था उन्हें भी दूसरे लोकतंत्र की तलाश थी। इसलिए ‘शहर में सूर्यास्त’ कविता में उन्होंने लिखा-
‘‘यह जनतंत्र
जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेडिय़ों की जुबान पर जिंदा है’’
अत: बिंदा भी यह समझ चुका है कि सत्य, अहिंसा, प्रेम जैसी शब्दों का संसद में कोई मूल्य नहीं रह गया है क्योंकि पूरे देश में शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने वाले लोग इस संसद में मौजूद हैं जो अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए जनता के शोषण का एक भी मौका नहीं चूकते। वह जान चुका है कि सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं इसलिए उसे व्यवस्था से घिन्न हो गई है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के हर चरण में एक जर्जर और सड़ी-गली व्यवस्था का रूप ही दिखाई देता है जो सिर्फ ढोंग और विश्वासघात के नींव पर खड़ी है, जहां मानवीय मूल्यों का कोई महत्व नहीं है। जीवन के सारे मूल्य विकृत हो चुके हैं तथा आज की दुनिया में व्यक्ति को सिर्फ लाभ-हानि के तराजू पर तौला जा रहा है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार बिंदा की मौत को एक राजनीतिक मुद्दा बनाकर राजनेता अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और न्याय के पक्ष में आवाज उठाने वाला अफ्सर एसपी सक्सेना निलंबित कर दिया जाता है। व्यवस्था के इस दोमुंहेपन को देखकर एस-पी सक्सेना कहता है ‘कैसी हुई यह क्रांति? कहीं से कुछ भी तो नहीं बदला! अब कहां से होगी दूसरी क्रांति और कौन करेगा उस क्रांति को जो सब कुछ बदल दे।
आज के संदर्भ में यदि हम देखे तो हमारे समक्ष भी यही समस्या खड़ी है कि कौन लाएगा बदलाव? आज भी सभी राजनेता अपनी-अपनी गोटी फिट करने में लगे हुए हैं। जनता के हित से किसी को कोई मतलब नहीं।
इस प्रकार यह उपन्यास जनता के अधिकारों के हनन, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, नेताओं की अवसरवादिता, दोमुंहेपन, खोखलेपन, लोकतंत्र में विपक्ष की स्वार्थी भूमिका और आज की खोती हुई संवेदना, मानवीय मूल्यों की गिरावट को पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तूत करता है। साथ ही राजनीति के विकृत और भयानक चेहरे को सामने लाता है। देश की सुख शांति की चिंता इस उपन्यास में लेखिका ने प्रकट की है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहे तो
‘‘समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुन्दर व शोषण मुक्त
कब होंगे।’’
अत: हम कह सकते हैं कि इस उपन्यास में रातनीति तथा नैतिकताओं के पतनोन्मुख रूप को दिखाया गया है। आज भी छद्म राजनीति के सहारे जो निरंकुश शासन चलाया जा रहा है उसे यह पूरी ईमानदारी से व्यक्त करता है। आज के संदर्भ में यह उपन्यास इसलिए प्रासंगिक है कि सरकार कोई भी हो जनता की स्थिति वही रहेगी जैसा ये चाहेंगे इसलिए मन्नू भंडारी को भी कहना पड़ा कि शराबी सरकार और पिशाची सरकार में कोई अंतर नहीं रह गया है।